लोक व्यय के उद्देश्य

लोक व्यय के उद्देश्य

किसी भी देश की सरकार जिस उद्देश्य को ध्यान में रखकर लोक व्यय करती है वह उद्देश्य उस उद्देश्य से सदैव अलग पाया जाता है जिसे लेकर निजी व्यक्तियों And संस्थाओं द्वारा व्यय Reseller जाता है। आपको शायद इस तथ्य से ज्ञात हो कि लोक सत्ताओं के व्यय तथा निजी व्यक्तियों के व्यय के उद्देश्य के मध्य Single उभयनिपर तत्व ‘कल्याण’ विद्यमान पाया जाता है लेकिन लोक व्यय के उद्देश्य की वात करें तो इस कल्याण का आकार And प्रकृति बदल जाती है। लोक व्यय के समक्ष सदैव लोक कल्याण का उद्देश्य रखा जाता है।

यदि हम स्मिथ के According राज्य के तीन कार्यो पर प्रकाश डालें तो क्रमश: बाहरी आक्रमण से देश की रक्षा, आन्तरिक कानून व व्यवस्था तथा कुछ सार्वजनिक कार्यों को शामिल Reseller गया है। उक्त यह तीनों कार्य लोक वित्त के व्यय द्वारा ही Reseller जाना आवश्यक बताया गया। इन तीनों कार्यों के मध्य सामूहिक कल्याण के उददेश्य की भावना निहित है जो स्वतंत्र Meansव्यवस्था And निजी व्यवस्थाओं के अन्तर्गत बिना लोक व्यय के प्राप्त कर पाना सम्भव नहीं होता है। प्रो0 जे0एस0 मिल ने लोक व्यय की सीमा में आवश्यक Safty, कानून व्यवस्था, वित्तीय व्यवस्था, सिक्के की व्यवस्था, मापतौल व्यवस्था, सड़क, प्रकाश, बन्दरगाह तथा बांध आदि को शामिल Reseller जिसके पीछे भी सामूहिक या लोक कल्याण के उददेश्य को रखा गया है। वर्तमान में भी व्यक्तिगत कल्याण के केन्द्रीयकरण को रोकने तथा कल्याण के वंचित वितरण को बचाये रखने के लिए लोक व्यय के उद्देश्य निर्धारित किये जाते हैं। लोक व्यय राजकीय वित्त का Single महत्वपूर्ण भाग है इसके साथ वर्तमान में विकसित देशों के साथ विकासशील तथा पिछड़े देशों में सार्वजनिक वित्त का अत्यन्त महत्वपूर्ण केन्द्र बन गया है। देशों की राजकोशीय नीति में लोक व्यय सबसे अधिक प्रभावशाली उपकरण के Reseller में अपनाया जा रहा है Meansशास्त्र में जो स्थान उपभोग द्वारा स्थापित Reseller गया है वहीं लोक व्यय सार्वजनिक वित्त में अपनी अलग भूमिका बनाये हुए है। किसी भी देश की राजकोशीय नीति के उद्देश्यों को देखा जाए तो लोक आगम, लोक व्यय, लोक ऋण तथा राजकोशीय नियन्त्रण का अपना अलग-अलग महत्वपूर्ण स्थान है। आपको यहां पर यह ध्यान देना होगा कि लोक सत्ताओं द्वारा व्यय की मदों का निर्धारण पूर्व में Reseller जाता है तत्बाद उन मदों पर होने वाले लोक व्यय की राशि का अनुमान लगाया जाता है। इन मदों के निर्धारण And लोक व्यय की राशि का अनुमान लगाने का उद्देश्य अलग- अलग देशों की लोक सत्ताओं द्वारा अपने शासन नीति And Meansव्यवस्था की प्रक्रति के आधार पर तय Reseller जाता है। इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये लोक व्यय की पूर्ति करने तथा लोक व्यय की सार्थकता को बनाये रखने के लिये राजकोशीय नीति के अन्य उपकरणों यथा लोक आगम, लोक ऋण, वित्तीय प्रशासन को प्रयोग में लाया जाता है। इस प्रकार हम कह सकते है कि लोक व्यय का उद्देश्य राजकोशीय नीति के उद्देश्यों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। लोक कल्याणकारी लोक सत्ताओं से यह अपेक्षा की जाती है कि ये लोक सत्ताये उन मदों पर व्यय करें जिन मदों पर व्यय करने के लिये निजी व्यक्ति समर्थ नहीं है। सामूहिक शिक्षा व स्वास्थ्य, आवास, सड़क परिवाहन आदि पर निजी व्यक्ति द्वारा व्यय Reseller जाना सम्भब नहीं है। इसी लिये इस प्रकार की महत्वपूर्ण योजनाओं का निर्माण And उनका संचालन लोक सत्ताओं द्वारा Reseller जा सकता है। लोक व्यय के द्वारा उन Needओं की पूर्ति की जा सकती है जो व्यक्तिगत Reseller से पूरी नहीं की जा सकती है।

वर्तमान में लोक सत्ताओं के बढ़ते कार्यों And दायित्वों को देखते हुए लोक व्यय के उद्देश्यों को दो आधार पर भी स्पष्ट Reseller जा सकता है। Firstत: लोक व्यय का उद्देश्य राज्य की आर्थिक क्रियाओं का कुशल संचालन हेै ताकि लोक सत्ताओं द्वारा Single कल्याणकारी राज्य की स्थापना हो सके । वर्तमान में शायद आपने ध्यान दिया होगा कि लोक व्यय के उद्देश्य निर्धारण में लागत लाभ विश्लेषण को ध्यान में रखा जाता है। अत: लोक सत्तायें भी निजी क्षेत्र की तरह लाभ अर्जित करने के उद्देश्य से भी आर्थिक क्रियाओं का संचालन कर रही हैं इसके साथ राष्ट्रीय करण की भावना से भी प्रेरित होकर उद्योगों का संचालन करने लगी है। द्वितीयत: सार्वजनिक कल्याण में वृद्धि करने के उद्देश से लोक व्यय Reseller जाता है जिसके अन्तर्गत उत्पादन में वृद्धि करके रोजगार व उपभोग में वृद्धि करने का प्रयास Reseller जाता है इसीलिये लोक सत्ताओं द्वारा लोक व्यय के माध्यम से सार्वजनिक क्षेत्र को व्यापक बनाती हैं ।

राजकोशीय नीति के उद्देश्यों में लोक व्यय –

विभिन्न देशों के आर्थिक History के आधार पर यह महसूस Reseller गया कि विभिन्न देशों की राजकोशीय नीति में समय – समय पर परिवर्तन होते रहे है वर्तमान में राजकोशीय नीति का उपयोग बेरोजगारी व अति उत्पादन की समस्या को दूर करने के लिये Reseller जाता है इस प्रकार धीरे-धीरे राजकोशीय नीति का उद्देश्य हर क्षेत्र में बढ़ता ही गया। मसग्रेव के According – राजकोशीय नीति के उद्देश्य उच्च रोजगार कीमत में स्थिरता, विदेशी व्यापार में सन्तुलन, आर्थिक विकास में वृद्धि आदि है। वर्तमान में राजकोशीय नीति के माध्यम से रोजगार में पर्याप्त वृद्धि की जाती है जिसमें लोक व्यय की भूमिका सर्वोपरि निर्धारित की गयी है। कीन्स के पूर्ण रोजगार के केन्द्र विन्दु प्रभाव पूर्ण मांग में क्रय शक्ति को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया तथा अन्तत: प्रभावपूर्ण माग को बढा़ने में कीन्स ने लोक व्यय के विवेक पूर्ण प्रयोग पर जोर दिया।

विकसित देशों में रोजगार के स्तर को Single सीमा के बाद बढ़ाया नहीं जा सकता। अत: विकसित देशों में राजकोशीय नीति के अन्तर्गत लोक व्यय के माध्यम से रोजगार को Single वांछित स्तर पर बनाए रखने का प्रयास Reseller जाता है। इसीलिये इन देशों में लोक व्यय के आवंटन को निवेश तथा उपभोगगत क्षेत्र में ध्यान पूर्वक तय Reseller जाता है। विकासशील देशों में वेरोजगारी की समस्या And संसाधनो का अल्प प्रयोग की समस्या पायी जाती है इसी आधार पर लोक व्यय के माध्यम से संसाधनो के कुशलतम पूर्ण प्रयोग करने के साथ Meansव्यवस्था में रोजगार सृजन की क्षमता को बढाने का प्रयास Reseller जाता है ।

विकसित देशों के सामने राजकोशीय नीति का मुख्य उददेष्य यह होना चााहिए कि वह उत्पादन की मात्रा को बढा सके परन्तु यहॉ इस बात का विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए कि उत्पादन का स्तर उपभोग के स्तर से ऊॅचा नहीं होना चाहिए। जब तक उत्पादन क्षमता कम न हो तब तक उपभोग प्रव्रति में वृद्धि की जानी चाहिए। अत: विकसित राष्ट्रों में प्रभावोत्पादक माँग में लगातार वृद्धि की जानी चाहिए। ऐसा नहीं हुआ तो बेरोजगारी की समस्या हल नहीं होगी।

विकासशील देशों में छिपी हुई बेरोजगारी होती है जिसे दूर करने के लिए उत्पादन के साधनों को गतिशील बनया जा सकता है। विकसित देशों में छिपी हुई बेरोजगारी तो नही रहती हैं परन्तु वहॅा अनिश्चित बेरोजगारी होती है काम के अवसर होते है हुए भी यदि वहाँ के लोग काम न करना चाहे या उनके पास इतनी आय हो कि वे बिना काम किये हुए भी अपना जीवन व्यतीत करने की सोचते हो, तो ऐसी स्थिति में अनिश्चित बेरोजगारी फैल जायेगी। यह स्थिति Meansव्यवथा पर बुरा प्रभाव डालती है। देश की जन.शक्ति आलसी व अकर्मण्य हो जाती है इस स्थिति के लिए पूर्णतया जिम्मेदार मौद्रिक माँग में उतार-चढाव का आना बेरोजगारी उत्पन्न करता है,यदि बेरोजगारी को दूर करना है तो मुद्रा की मॉग के उतार चढावों पर नियन्त्रण लगाना होगा।

लोक व्यय के आवंटन सम्बन्धी उद्देश्य

बजट के अन्तर्गत लोक व्यय के आवंटन सम्बन्धी उद्देश्योंका सम्बन्ध इस बात से है कि समाज के कुल साधनों का विभाजन निजी And सामाजिक वस्तुओं के मध्य किस प्रकार होता है ? निजी वस्तुओं की यह विशेशता है कि उनमें वर्जन के सिद्धान्त का उपयोग हो सकता है तथा उपभोग में प्रतिद्वन्दिता रहती है। सामाजिक वस्तुएं वे है जिनका उपभोग All व्यक्ति समान मात्रा में करते है, क्योंकि यहां वर्जन सिद्धान्त का उपयोग सम्भव नहीं है।

Meansव्यवस्थाओं की प्रकृति में काफी अन्तर पाया जाता है। आन्तरिक क्षेत्रों की संCreation भी अलग-अलग स्थितियों में होती है। Meansव्यवस्था में साधनों का आदर्श आवंटन कुछ शर्तों के पूरी होने पर ही संभव है। Meansव्यवस्था के Single बड़े क्षेत्र में ये शर्तें पूरी हो जाती है, लेकिन कुछ क्षेत्र ऐसे भी है जहां बाजार यन्त्र के उपयोग से सर्वोत्तम परिणाम नहीं मिल सकते हैं। जिन क्षेत्रों में उपभोक्ताओं तथा उत्पादनकर्ताओं को पूर्ण जानकारी नहीं रहती है वहां बाजार सही ढंग से कार्य नहीं कर सकता है। इस समस्या का समाधान करने के लिए लोक व्यय का Single तकनीकी के Reseller में अपनाने का प्रयास Reseller जाता है।

उत्पादन से सम्बन्धित साधन समायोजन का भी उद्देश्य Single महत्वपूर्ण तथ्य है। कुछ साधन ऐसे है जो Single साथ बड़ी मात्रा में ही उपलब्ध होते है। उत्पादन की कुछ क्रियाएं बडे़ पैमाने पर सम्भव हैं। इन परिस्थितियों में उत्पत्ति àासमान लागत के According होती है और Singleाधिकार का सृजन हो सकता है। अत: आदर्श आवंटन के नियम, Meansात् कीमत – सीमान्त लागत, का प्रयोग सम्भव नहीं होता है। यहां भी बजट नीति की जरूरत पड़ जाती है।

लोक व्यय-नीति की Need उन क्षेत्रों में भी पड़ती है जहां उत्पादन में बाह्म मितव्ययिता या गैर मितव्ययिता मिलती है। बाह्मताओं से तात्पर्य उस लागत या लाभ से है जो कीमत में प्रतिबिम्बित नहीं होते है और इसलिए वे कीमतों से ‘बाहर’ है। इसलिए वे बाह्मता के मौजूद रहने का Means यह है कि व्यक्ति उत्पादन तथा वाणिज्य से अधिकतम लाभ ऐसी लागत तथा कीमत के आधार पर ही प्राप्त कर सकता है जो साधनों के उपयोग के वास्तविक मूल्य को नहीं दर्शाती हैं। बाह्मताएं किसी वस्तु के उत्पादन के कारण Third लोगों को ऐसी आकस्मिक सेवाओं के Reseller में प्रकट हो सकती है जिनके लिए कोई कीमत नहीं ली जा सकती है या ऐसे नुकसान के Reseller में आ सकती है जिनके लिए कोई क्षतिपूर्ति नहीं की जाती हैं। वस्तु के उत्पादन के कारण Third लोगों को प्राप्त ऐसी आकस्मिक सेवाओं का Single उदाहरण लें। मान लें किसी नये क्षेत्र में रेल की लाइनें बिछायी जाती हैं। इससे आर्थिक विकास की गति तेज हो जाती है। इससे समाज को जो लाभ मिलता है वह रेल लाइन बिछाने वाली कम्पनी के निजी लाभ से कहीं ज्यादा है। बाजार यन्त्र के अन्तर्गत कीमत उस कुल लाभ के केवल Single ही भाग Meansात् निजी लाभ के बराबर हो सकती है। अत: किसी भी निजी कम्पनी को इस क्रिया से नुकसान होगा। यहां राज्य की Need हो जाती है। कल्याण के Meansशास्त्र में ऐसी क्रियाओं के अनेक उदाहरण मिलते हैं, जैसे सिजविक का लाइट हाउस, पीगू की धुआं फेंकने वाली चिमनी, आदि। लोक व्यय के उद्देश्य को वस्तुओं के उत्पादन को आवंटन के साथ जोड़ा जाता है। बाजार यन्त्र के द्वारा वस्तुओं तथा सेवाओं की आदर्श उत्पत्ति उस समय सम्भव नहीं है जब इन वस्तुओं तथा सेवाओं का उपभोग सामूहिक या संयुक्त Reseller से समाज के All सदस्यों द्वारा होता है। Single बार जब इन सेवाओं का उत्पादन हो जाता है, तब किसी को भी इसके उपभोग से वर्जित नहीं Reseller जा सकता है। इस स्थिति में इनके उपभोग के लिए व्यक्तियों से बाजार कीमत मांगना सम्भव नहीं होगा। अत: लाभ से प्रेरित होकर कार्य करने वाले निजी उत्पादनकर्ता इन वस्तुओं तथा सेवाओं के उत्पादन में साधनों का उपयोग नहीं करेंगे। यहां भी बजट नीति का प्रयोग करना होगा।

सरकार के पास अनेक उपकरण है जिनका उपयोग कर Meansव्यवस्था में साधनों के आवंटन को प्रभावित Reseller जा सकता है। इन यन्त्रों में दो प्रमुख यन्त्र है:- कर लगाने की शक्ति तथा व्यय करने की क्षमता। करों के माध्यम से उन वस्तुओं के उत्पादन तथा उपभोग को प्रोत्साहित Reseller जा सकता है जिनका इष्टतम से कम उत्पादन होता है। इसके विपरीत जिन वस्तुओं का उत्पादन इष्टतम से अधिक होता है उनके उत्पादन तथा उपभोग को करों के माध्यम से कम Reseller जा सकता हैं। इन्हीं कार्यों के लिए व्यय का भी उपभोग सम्भव है। ये दोनों मूल लोक वित्तीय यन्त्र है और इन्हें हम इस Reseller में भी समझ सकते है कि लोक व्यय आर्थिक सहायता है जबकि कर जुर्माना है जिससे उत्पादन की लागत में वृद्धि होती है।

सरकार नियमन के गैर-वित्तीय यन्त्रों का भी प्रयोग कर सकती है। किन्तु, जहां व्यय And कर बजट के अंग है, वहां अन्य यन्त्र सरकारी बजट से बाहर रहते है।

लोक व्यय के आवंटन उद्देश्य के साथ समस्या यह है कि वह कैसे निर्धारित करेगी कि कितनी मात्रा में सामाजिक वस्तुओं का प्रावधान Reseller जाय, किन सामाजिक वस्तुओं का प्रावधान Reseller जाय तथा कैसे निर्धारित Reseller जाय कि इन वस्तुओं के उपभोक्ताओं को इनके उपभोग के लिए कितना भुगतान करना है? निजी वस्तुओं की स्थिति में उपभोक्ता बाजार में मांग के Reseller में इन वस्तुओं के लिए अपने अधिमान को व्यक्त करता है। सामाजिक वस्तुओं के लिए वे ऐसा नहीें करेंगे क्योंकि Single बार इनका उत्पादन हो जाने पर लोगों को इनके उपभोग के लिए भुगतान करने पर विवश करना असम्भव है। इन वस्तुओ की स्थिति में भुगतान नहीं करने वालों को उपयोग नहीं करने वाला बनाना मुश्किल है। सामाजिक या सामूहिक उपभोग या सार्वजनिक वस्तुओं की दो प्रमुख विशेषताएं है:- उपभोग में प्रतिद्विन्द्वता का अभाव तथा वर्जन का अभाव इस समस्या के समाधान के लिए राजनीतिक प्रक्रिया के विश्लेषण की Need है और इसका अध्ययन सार्वजनिक चयन के सिद्धान्त के अन्तर्गत Reseller जाता है।

लोक व्यय के वितरण उददेश्य

सरकार द्वारा निर्धारित किये जाने वाले लोक व्यय के वितरण उद्देश्य का क्लासिकल कार्य माना जाता है। ‘‘वस्तुत: Single ऐसा समय था जब लोक सेवाओं के प्रावधान को ही Only वैध कार्य समझा जाता था ऐसा तर्क प्रस्तुत Reseller जाता था कि शुद्ध And सरल लोक वित्तीय समस्याओं को सामाजिक And आर्थिक नीति के असम्बद्ध विचार के साथ उलझाना नहीं चाहिए।’’ लेकिन इस बात से इन्कार नहीं Reseller जा सकता है कि बजट नीति के सामाजिक And आर्थिक प्रभाव पड़ते है। इन प्रभावों को उस दिशा में मोड़ा जा सकता है जिनका आवंटन के साथ सीधा सम्बन्ध नहीं है। इस सन्दर्भ में ऐसी Single दिशा वह है जिसका सम्बन्ध आय And सम्पत्ति के वितरण से है। लोक व्यय के उपयोग से आय And सम्पत्ति का वह वितरण सम्भव है जिसे समाज न्यायोचित समझता हो। इसे ही व्यय नीति का वितरण उद्देश्य समझा जाता है।

आवंटन उद्देश्य के अन्तर्गत कर And व्यय के माध्यम से साधनों का हस्तान्तरण निजी आवश्याकता से हटाकर सार्वजनिक Need की सन्तुष्टि के लिए होता है। वितरण का उददेश्य यह है कि आय And सम्पत्ति का हस्तान्तरण Single व्यक्ति से Second व्यक्ति को Reseller जाय। समाज के दृष्टिकोण से मौजूदा वितरण न्यायपूर्ण हो सकता है या नहीं भी। यदि नहीं है तो बाजार यन्त्र के द्वारा सामाजिक दृष्टि से न्यायोचित वितरण लाना सम्भव नहीं है। अत: बजट प्रक्रिया की Need होती है।

बाजार Meansव्यस्था में आय की असमानता का प्रमुख कारण यह है कि मजदूरी, लगान, ब्याज के Reseller में उत्पादन के साधनों को जो भुगतान Reseller जाता है वह उनकी सीमान्त उत्पादकता के आधार पर ही Reseller जाता है। बाजार व्यवस्था Single ऐसे योग्यता तन्त्र को जन्म देती है जिसमें योग्यता (तथा आय) उन्हीं को प्राप्त होती है जिन्होंने इस व्यवस्था की Need के अनुकूल उत्पादन क्षमता को अर्जित Reseller है। निजी दान को छोड़कर अन्य किसी भी परिस्थिति में उन लोगों की जीविका के लिए कोई प्रावधान नहीं होता है जिन्हें आवश्यक उत्पादन क्षमता प्राप्त नहीं हैं। Singleाधिकार Single दूसरा तत्व है जिसकी उपस्थिति से बाजार व्यवस्था में आय के वितरण में असमानता का सृजन होता है। बाजार व्यवस्था की क्रिया के लिए निजी सम्पत्ति का अधिकार आवश्यक है, लेकिन यह संस्था आय की असमानता के सृजन में सहायता पहुंचाती है। निजी सम्पत्ति के साथ उत्तराधिकार की व्यवस्था असमानता को और बढ़ाती है।

लेकिन न्यायपूर्ण किसे कहा जाय? आधुनिक आर्थिक सिद्धान्त इस प्रश्न का उत्तर नहीं देता। आधुनिक कल्याण के Meansशास्त्र में आर्थिक कार्यकुशलता का विश्लेषण दिये हुए वितरण की स्थिति में Reseller जाता है। आर्थिक पुनव्र्यवस्था से सामाजिक कल्याण में उस समय वृद्धि होती है जब Single व्यक्ति की दशा में तो सुधार होता है, लेकिन अन्य व्यक्तियों की हालत बिगड़ती नहीं है। पुनर्वितरण कार्य ऐसी पुनव्र्यवस्था से भिन्न है क्योकि इसमें कुछ लोगों की आर्थिक दशा में सुधार अन्य लोगों की कीमत पर ही Reseller जाता है।

आय का पुनर्वितरण का लक्ष्य सरकार द्वारा कई तरह से Reseller जा सकता है। परोक्ष Reseller से यह कार्य उत्पादक साधनों व उत्पत्ति की कीमतों में परिवर्तन के द्वारा या सम्पत्ति के अधिकार के प्रावधानों में परिवर्तन के द्वारा सम्भव है। Single उदाहरण लें। मान लें सरकार अपने अधिकार का उपयोग करते हुए कृषि वस्तुओं की कीमतों को सहारा देती है। इससे कृषकों की आय बढ़ जायगी तथा गैर-कृषकों की आय घट जायगी। सरकार रोजगार विशेष तथा खास उद्योगों में कुछ खास लोगों के प्रवेश को रोक सकती है। इससे ऐसे कुछ लोगों को रोजगार नहीं मिलेगा जिन्हें इनमें रोजगार पाने का प्रशिक्षण मिला हुआ है। ऊंची आय पर अधिकतम सीमा तथा न्यूनतम आय का स्तर निर्धारित करके भी आय के वितरण में समानता लाने की चेष्टा की जा सकती है। कर हस्तान्तरण व्यवस्था, ऋणात्मक आय कर, प्रगतिशील आय-कर, आदि कुछ अन्य उपाय है जिनका उपयोग सरकार करती है। मस्ग्रेव And मस्ग्रेव ने आय के पुनर्वितरण के लिए तीन राज कोशीय विधियों की Discussion की है-

  1. कर हस्तान्तर योजना जिसमें ऊंची आय पर प्रगतिशील कर के साथ निम्न आय पाने वाले परिवारों को सब्सिडी।
  2. निम्न आय पाने वाले परिवारों के उपभोग में आने वाली लोक सेवाओं, जैसे, मकान, स्वास्थ्य, आदि का वित्त पोषण प्रगतिशील करों के द्वारा।
  3. ऊंची आय वालों के उपभोग की वस्तुओं पर कर तथा निम्न आय वालों के उपभोग की वस्तुओं की सब्सिडी।

लोक व्यय द्वारा स्थिरीकरण का उद्देश्य

लोक व्यय का स्थिरीकरण का उद्देश्य नवीनतम है। 1930 के दशक से ही यह प्रकाश में आया है। यह कार्य आवंटन कार्य से भिन्न है। जिसका सम्बन्ध निजी And सार्वजनिक Needओं के मध्य साधनों के बंटवारे से है। यह वितरण कार्य से भी पृथक है जिसका सम्बन्ध निजी Needओं के मध्य साधनों के बंटवारे से है। स्थायित्व का प्रमुख उददेश्य रोजगार को ऊंचे स्तर पर कायम रखना तथा कीमत में स्थिरता को बनाये रखना है। इस कार्य की जरूरत इसलिए होती है क्योकि बाजार Meansव्यवस्था में पूर्ण रोजगार And कीमत स्थिरता स्वयं Meansात् किसी बाहरी हस्तक्षेप के बिना अपने आप कायम नहीं रह सकती है। रोजगार And कीमत स्तर समग्र मांग पर निर्भर करते है। इसलिए प्रसारकारी या संकुचनकारी राजकोशीय नीति द्वारा समग्र मांग को स्थिर रखने की जरूरत होती है। मन्दी काल में लोक व्यय में वृद्धि तथा करों में कटौती करके समग्र मांग में वृद्धि करने की जरूरत होती है। मुद्र-स्फीति काल में लोक व्यय में कमी करने की जरूरत पड़ सकती है।

1936 में प्रकाशित General Theory में केन्स ने रोजगार And कीमतों में अस्थिरता के कारणों का विश्लेषण प्रस्तुत Reseller। उन्होंने बताया कि सरकार के पास ऐसे यन्त्र हैं जिनके प्रयोग द्वारा इन अस्थिरताओं को समाप्त Reseller जा सकता है। आधुनिक स्थायित्व नीति कीन्स तथा केन्सीयों के द्वारा विकसित सिद्धान्तों का ही उपयोग है। भारत जैसे विकासशील देशों में भी आधार पर स्थिरीकरण का लक्ष्य तय Reseller जाता है।

द्धितीय विश्वFight के बाद, विशेषकार 1950 के दशक से, राजकोशीय नीति के उद्देश्यों में Single तीसरा उद्देश्य भी जुड़ गया है। Single प्रगतिशील Meansव्यवस्था में समग्र मांग Single अपरिवर्तनीय स्तर पर स्थिर नहीं रहती है बल्कि देश की उत्पादन क्षमता तथा जनसंख्या में वृद्धि के According बढ़ती रहती है। इसलिए जरूरी है कि बजट नीति के द्वारा उत्पादन क्षमता तथा जनसंख्या में वृद्धि के अनुकूल समग्र मांग में भी वृद्धि की जाय ताकि पूर्ण रोजगार And कीमत स्थायित्व बने रहें। साथ ही यह भी याद रखना है कि आर्थिक स्थायित्व के लिए सिर्फ राजकोशीय नीति ही पर्याप्त नहीं है। इसके साथ मौद्रिक नीति तथा समयानुसार अन्दरूनी नीतियों का भी उपयोग पड़ सकता है।

लोक व्यय के उद्देश्य निर्धारण की समस्या

बजट नीति के अनेक उद्देश्य होते है- आवंटन, वितरण तथा स्थायित्व। इन्हें राजकोशीय कायोर्ं की संज्ञा दी जाती है। इन All उद्देश्यों को Single साथ पूरा करने में अनेक कठिनाइयाँ उत्पन्न हो सकती है क्योकि इनके मध्य संघर्ष हो सकता हैं और वे परस्पर व्यापी है। इसलिए कार्यकुशल बजट नीति के निर्माण में जटिलताएं आ जाती है, यानि ऐसी बजट नीति का निर्माण कठिन हो जाता है जो All उद्देश्यों के साथ न्याय करें।

कुछ उदाहरण लें। मान लें सरकार सेवाओं में वृद्धि करना चाहती है। इसके लिए कर की मात्रा में वृद्धि करनी होगी। अब प्रश्न यह उठता है कि अतिरिक्त करों का वितरण करदाताओं के मध्य किस प्रकार Reseller जाय। कर के द्वारा आय के वितरण में परिवर्तन हो सकता है। इसलिए निजी उपयोग के लिए जो आय बच जाती है उसमें सापेक्ष परिवर्तन हो जाएगा। इसका नतीजा यह होगा कि कुछ मतदाता लोक सेवाओं में वृद्धि के पक्ष मेंं मत देंगे। सम्भव है कि ऐसा वे इसलिए करते है क्योकि वे आय में होने वाले वितरण के पक्षधर हैं, इसलिए नहीं कि वे लोक सेवाओं में वृद्धि के पक्षपाती हैं। शायद उचित यह होगा कि दोनों उद्देश्यों को अलग रखा जाय। समाज First यह तय कर ले कि आय का उचित वितरण क्या है? इसके बाद लोक सेवाओं की वित्त व्यवस्था के लिए करदाताओं पर इन सेवाओं से मिलने वाले लाभ के According कर लगा दें? किन्तु, इस रास्ते को अपनाने में कठिनाइयां है। इसलिए लोक सेवाओं के प्रावधान And वितरण सम्बन्धी निर्णयों को केवल खिचड़ी ही नहीं बन जाती है, वरन् विकृति भी पैदा हो जाती है।

यहां ध्यान देना है कि सरकार निर्णय लेती है कि आय का वितरण अधिक समान होना चाहिए। इसके लिए प्रगतिशील कर प्रणाली को अपनाना होगा। लेकिन, अधिक समान वितरण लाने का Single दूसरा तरीका भी है। निम्न आय वाले वर्गों को लोक सेवाएं अधिक मात्रा में प्रदान की जा सकती है, किन्तु इससे उपभोक्ता के स्वतन्त्र चयन में बाधा पड़ सकती है। Single बार फिर दोनों उददेश्यों के मध्य संघर्ष पैदा हो जाता है।

अब स्थायित्व राजकोशीय नीति को लें। मान लें कि बेरोजगारी को कम करने के लिए प्रसार की नीति की जरूरत है। इसके लिए लोक व्यय में वृद्धि की जा सकती है। यदि पहला रास्ता अपनाया जाय तो आवंटन कार्य के साथ हस्तक्षेप होगा, कर में कटौती करते समय यह निर्णय लेना पड़ेगा कि यह किस प्रकार लागू Reseller जाय। आवंटन And वितरण दोनों के मध्य तटस्थ रहते हुए स्थायित्व उददेश्य को प्राप्त करने के लिए कर की दरों में आनुपातिक परिवर्तन करना होगा।

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