लोक वित्त की अवधारणा

किसी वस्तु, घटना अथवा प्रक्रिया के वैज्ञानिक प्रेक्षण And बोध के आधार पर निर्मित सामान्य विचारों को अभिव्यक्त And बोध के आधार पर निर्मित सामान्य विचारों को अभिव्यक्त करने हेतु जिन विशिष्ट Word संकेतों, परिभाषाओं तथा सिद्धान्तों का प्रयोग Reseller जाता है उसे वैज्ञानिक Wordावली में अवधारणा कहते हैं । अत: अवधारणायें स्थिर न होकर गतिशील रहती हैं तथा इनके Means में निरन्तर संशोधन And परिश्करण होता रहता है । अवधारणा से किसी विषय के सिद्धान्तों, विचारधाराओं And विषय वस्तु का विकास होता है तथा विषय के प्रति समझ का विकास होता है ।

अत: लोक वित्त की अवधारणा के अन्तर्गत लोक वित्त की परिभाषा, विचारधारा And सिद्धान्त आदि आते हैं । लोक वित्त की अवधारणा को और स्पष्ट करने हेतु First हमें इसके Means के बारे में जानना होगा । परम्परागत् तौर पर लोक वित्त को राजस्व भी कहते हैं ,जिसका Means है King का धन Meansात् इसका तात्पर्य यह है कि King अपने कार्यों की पूर्ति हेतु किस प्रकार से धन की व्यवस्था करता है । लोक या सार्वजनिक Word से आशय जनता का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्था से है । लोक वित्त के अन्तर्गत केन्द्रीय, राज्य और स्थानीय सरकारों के वित्त से संबंधित क्रियाओं का अध्ययन Reseller जाता है ।

लोक वित्त की अवधारणाओं में समय के साथ-साथ परिवर्तन होता आया है । इसका कारण यह है कि लोक वित्त के विषय क्षेत्र में समय के According व्यापक परिवर्तन हुए हैं । प्राचीन समय में लोक वित्त का क्षेत्र अत्यधिक सीमित था परन्तु वर्तमान समय में विशेषकर कल्याणकारी राज्य की स्थापना के बाद राज्य को मात्र Safty, कानून And व्यवस्था तक सीमित न रहते हुए स्वास्थ्य, शिक्षा, सामाजिक Safty, नागरिक सुविधायें जैसे जल, विद्युत आपूर्ति आदि कल्याणकारी कार्य करने होते हैं । भारत जैसे देशों में जहाँ कि आर्थिक नियोजन फलस्वReseller जन्य नियोजित विकास की प्रक्रिया में राज्य द्वारा प्रमुख Reseller से विकास कार्यों में सक्रिय तथा प्रभावी भूमिका निभायी हैं And विभिन्न सरकारों द्वारा लोकवित्त के सार्वजनिक निवेश, सार्वजनिक ऋण तथा राजकोशीय नीतियों से संबंधित विभिन्न अवधारणाओं का प्रयोग नियोजन And विकास प्रक्रियाओं में Reseller गया है ।

लोक वित्त की अवधारणाओं को शासन व्यवस्था के विभिन्न स्वResellerों जैसे Singleीकृत शासन प्रणालियों ने भी प्रभावित Reseller है । भारत में विशेषकर विकेन्द्रीकृत शासन व्यवस्था हेतु And स्थानीय संस्थाओं को अधिक स्वायत्त बनाने के लिए संविधान में 73वाँ तथा 74वाँ संशोधन करने से लोक वित्त की अवधारणाओं में नया परिवर्तन आया है ।

वैश्वीकरण तथा उदारीकरण के दौर में राज्य की भूमिका पुर्नपरिभाषित हुई है । वैश्वीकरण की इस प्रक्रिया में जहाँ बाजार प्रभावी भूमिका निभा रहा है वहीं राज्य की भूमिका में भी परिवर्तन आया है । राज्य अब नियन्त्रक की नहीं अपितु नियामक की भूमिका में आ गया है । उपरोक्त के कारण लोक वित्त की अवधारणाओं को Single नवीन दिशा मिली है ।

लोकवित्त की अवधारणा का महत्व

वर्तमान समय में लोकवित्त की अवधारणा का तीव्र तथा व्यापक विकास हुआ है जिसके फलस्वReseller विकसित तथा विकासशील देश समेत All देशों हेतु लोकवित्त की भूमिका महत्वपूर्ण हो गयी हैं । यद्यपि परम्परागत् Meansशास्त्रियों द्वारा लोकवित्त की महत्वपूर्ण अवधारणाओं की उपेक्षा की थी परन्तु विशेषकर 1930 की महामंदी तथा उसके बाद समय-समय पर घटित होने वाले आर्थिक उतार चढ़ावों ने लोकवित्त की भूमिका को आर्थिक समस्याओं ने स्थापित कर दिया । द्वितीय विश्व Fight के बाद विशेषकर नवोदित And अल्पविकसित राष्ट्रों के विकास हेतु लोकवित्त के नियमों And नीतियों का प्रभावी उपयोग Reseller गया है। वर्तमान में भारत जैसे विकासशील देशों में लोकवित्त के बढ़ते हुए महत्व को निम्न प्रकार से रखा जा सकता है –

  1. राज्य की बढ़ती क्रियायें – प्राचीन समय Safty तथा कानून व्यवस्था ही राज्य के प्रमुख दायित्व माने जाते थे । परम्परागत Meansशास्त्री द्वारा आर्थिक क्रियाओं में राज्य का हस्तक्षेप को अनुचित माना है । परन्तु आर्थिक विकास तथा कल्याण कारी राज्य की अवधारणा की स्थापना ने राज्य की क्रियाओं में व्यापक वृद्धि की है । सरकार द्वारा रेल, सड़क, परिवहन, ऊर्जा आदि महत्वपूर्ण क्षेत्रों में सार्वजनिक निवेश Reseller गया है इसके अतिरिक्त समाज कल्याण हेतु शिक्षा, स्वास्थ्य And साफ सफाई पर भी व्यापक सार्वजनिक व्यय Reseller जाता है । वर्तमान समय में राज्य की क्रियाओं में वृद्धि से संबंधित वैगनर का नियम यह है कि ,’’राज्य के कार्यों में व्यापक And गहन वृद्धि की Single स्थायी प्रवृत्ति पायी जाती है । ‘‘
  2. आर्थिक नियोजन में महत्व – देश के संतुलित तथा सर्वांगीण विकास हेतु आर्थिक नियोजन का महत्व आज स्थापित हो गया है । आर्थिक नियोजन की सफलता लोक वित्त की उचित व्यवस्था And अवधारणा पर निर्भर करती है । आर्थिक नियोजन हेतु सरकार को व्यापक तथा महत्वकांक्षी परियोजनाओं का क्रियान्वयन करना पड़ता है जिसके लिए बड़े पैमाने पर वित्त की Need होती है । अत: लोक वित्त की विभिन्न रणनीतियों जैसे घाटे की वित्त व्यवस्था, सार्वजनिक ऋण आदि को कुशलता से क्रियान्वित करना पड़ता है ।
  3. पूँजी निर्माण And आर्थिक विकास हेतु – आर्थिक विकास की कुंजी पूँजी निर्माण है । पूँजी निर्माण हेतु संसाधनों को गतिशील कर उन्हें बचत तथा निवेश हेतु सक्रिय करने में लोकवित्त की प्रक्रियाओं का मुख्य योगदान होता है । विकासशील And अल्पविकसित देशों में आर्थिक विकास को गति देने हेतु पूँजी निर्माण के साथ-साथ उद्योग धन्धों तथा कृषि क्षेत्र का विकास करना होता है जिसके सरकार कर राहत, कर्ज, सब्सिडी And उपदान आदि तरीकों का प्रयोग कर उद्योगपति तथा कृषकों को प्रोत्साहित करती है ।
  4. महत्वपूर्ण उद्योगों And सेवाओं का राष्ट्रीय करण – देश की Safty, सामाजिक And आर्थिक विकास के उद्देश्यों की पूर्ति हेतु सरकार द्वारा समय-समय पर बैंकिग, वित्त, बीमा And महत्वपूर्ण उद्योग धन्धों का राष्ट्रीय करण Reseller जाता रहा है ।
  5. आर्थिक स्थिरता – 1929-30 में आयी विश्वव्यापी मंदी के बाद यह अवधारणा आज स्थापित हो गयी है कि Meansव्यवस्था में आर्थिक उतार चढ़ावों पर नियन्त्रण करने तथा आर्थिक स्थिरता को कायम् रखने हेतु सरकारी हस्तक्षेप आवश्यक है । यह सरकारी हस्तक्षेप प्रभावी लोकवित्त नीति के माध्यम् से ही पूर्ण हो सकता है । इसके लिए करारोपण, लोकवित्त और लोकऋण की नीतियों के मध्य उचित समायोजन करके आर्थिक स्थिरता के लक्ष्य को प्राप्त Reseller जा सकता है ।
  6. संसाधनों का इष्टतम् प्रयोग – लोकवित्त की विभिन्न रणनीतियों तथा प्रक्रियाओं के माध्यम् से राष्ट्र के निष्क्रिय तथा बेकार पड़े संसाधनों का प्रभावी तथा इष्टतम् प्रयोग Reseller जा सकता है । सरकार बजट तथा राजकोशीय नीतियों के माध्यम् से उपयोग, उत्पादन, निवेश, बचत तथा वितरण को वांछित दिशा में सक्रिय कर सकती है।
  7. आर्थिक असमानता कम करने में सहायक – आर्थिक विकास का Single मुख्य लक्ष्य न्यायपूर्ण And समानता पूर्ण आर्थिक विकास है जोकि आय तथा सम्पत्ति के समानता पूर्ण वितरण से ही पूर्ण हो सकता है । लोकवित्त की रणनीतियों के माध्यम् से धनीवर्ग से कर तथा अन्य माध्यम् से संसाधनों को Singleत्र कर उन्हें निर्धन वर्ग के पक्ष में सार्वजनिक व्यय के माध्यम् से हस्तांतरित Reseller जा सकता है ।
  8. सामाजिक कल्याण तथा विकास हेतु – लोकवित्त के माध्यम् से सामाजिक Safty And सामाजिक कल्याण के कार्यक्रमों को संचालित करने जैसे निर्धन वर्गों हेतु आर्थिक सहायता, महिलाओं, दलितों तथा पिछड़े वर्गों के विकास हेतु विशेष कार्यक्रम को चलाने रोजगार संवर्धन कार्यक्रमों को लागू Reseller जाता है ।
  9. राजनैतिक तथा अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में महत्व – सरकारें अपनी राजनैतिक तथा अन्तर्राष्ट्रीय नीतियों को तभी कारगर Reseller से लागू कर सकती है जबकि उनके पास पर्याप्त वित्तीय संसाधन तथा प्रभावी लोकवित्त की रणनीति हो । देश में आंतरिक शान्ति तथा Safty बनाये रखने, विदेशी आक्रमण से रक्षा हेतु, सामाजिक रणनीति के लिए, क्षेत्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं में महत्ता स्थापित करने हेतु लोकवित्त की रणनीतियों की Need पड़ती है । भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में लोकवित्त की प्रक्रियायें राजनैतिक क्रियाकलापों से भारी अन्तर्सम्बन्धित होती हैं । पीकॉक-बाइजमैन द्वारा सार्वजनिक व्यय के निर्धारण में राजनैतिक सिद्धान्त तथा आधारों की महत्व को स्थापित Reseller गया उनके According लोक व्यय के निर्धारण में राजनैतिक आधारों पर निर्णय लिये जाते हैं ।

लोक वित्त की विचारधारायें And अवधारणायें

Meansशास्त्रियों द्वारा लोक वित्त की विभिन्न विचार धाराओं का प्रतिपादन Reseller गया जिसके फलस्वReseller लोक वित्त की विभिन्न अवधारणाओं And सिद्धान्तों का विकास हुआ लोक वित्त की प्राचीन विचारधारा परम्परागत आर्थिक अवधारणा पर ही आधारित थी, परन्तु समय के साथ-साथ इस अवधारणा में अनेक क्रांतिकारी परिवर्तन हुए हैं And अंतत: लोक वित्त की आधुनिक अवधारणा का विकास हुआ । लोक वित्त की All महत्वपूर्ण अवधारणायें हैं –

प्राचीन या संस्थापक अवधारणा – 

प्राचीन या संस्थापक अवधारणा मूलतया परम्परागत् आर्थिक विचारधारा And सिद्धान्तों पर आधारित है । संस्थापक अवधारणा आर्थिक क्रियाकलापों में किसी भी प्रकार के सरकारी हस्तक्षेप को अनुचित मानते हैं । इन विचारकों के According सरकार को न्यूनतम् व्यय तथा न्यूनतम् कर लगाने चाहिए । यह सरकारी व्यय को अनुत्पादक मानते हैं And इस बात पर जोर देते हैं कि कर बचत And निवेश पर नकारात्मक प्रभाव डालते हैं । प्रतिष्ठित Meansशास्त्री जे0 बी0 से0 के According, ‘‘वित्त की सारी योजनाओं में सर्वोत्तम् वह है, जिसमें कम व्यय Reseller जाये और All करों में सर्वोत्तम् कर वह है जिसकी धनराशि सबसे कम हो ।’’ एडम् स्थिम तथा रिकार्डो का विचार यह था कि गैर सरकारी व्यय उत्पादक होता है और सरकारी व्यय अनुत्पादक होता है । प्रतिष्ठित Meansशास्त्रियों के According, ‘‘प्रत्येक कर Single बुराई है और प्रत्येक सरकारी व्यय अनुत्पादक है ।’’ संस्थापक अवधारणा के मुख्य विचार बिन्दु हैं –

  1. बजट सदैव संतुलित होना चाहिए And बजट का आकार भी छोटा होना चाहिए तथा बजट घाटा प्रगति पर नकारात्मक प्रभाव डालता है ।
  2. सरकारी निवेश अनुत्पादक होता है अत: सरकार को निवेश कम से कम करना चाहिए And निजी निवेश पूर्ण रोजगार स्थापित करने में सक्षम होता है ।
  3. बचतों पर पड़ने वाले कर समाज हेतु हानिकारक होते हैं जैसे आयकर, मृत्यु कर आदि, उपभोग पर पड़ने वाले कर कम हानिकारक होते हैं ।

आधुनिक वैचारिक अवधारणा And आधुनिक सिद्धान्त – 

कीन्स द्वारा न सिर्फ प्रतिष्ठित Meansशास्त्रियों की स्वचालित पूर्ण रोजगार की मान्यता पर जमकर कुठाराघात Reseller अपितु पूर्णरोजगार, निवेश में वृद्धि And संवृद्धि दर को तीव्र करने के लिए की लोक वित्त महत्ता को प्रमुखता से स्थापित Reseller । कीन्स के सिद्धान्त में निम्न अवधारणात्मक विचार बिन्दु उजागर होते हैं –

  1. पूर्ण रोजगार की स्थापना And निवेश, बचत प्रक्रिया में संवृद्धि हेतु सार्वजनिक निवेश का बढ़ा महत्वपूर्ण योगदान होता है ।
  2. सार्वजनिक निवेश गुणक प्रक्रिया के माध्यम् से आय उत्पादन में वृद्धि करता है ।
  3. सरकार सड़कों, रेलों, विद्युत, जनोपयोगी उद्यमों तथा उद्योगों में सरकारी धन के व्यय करके समर्थ माँग को प्रोत्साहित कर सकती है ।
  4. घाटे की वित्त व्यवस्था तथा जनता से उधार लेकर सार्वजनिक निवेश आर्थिक मंदी को दूर करने का कारगर उपाय है ।

कुल मिलाकर कीन्स ने लोक वित्त का महत्व को पूर्ण रोजगार, आर्थिक प्रगति, आर्थिक स्थिरता तथा संसाधनों के श्रेष्ठतर आवंटन हेतु स्थापित कर दिया । लर्नर द्वारा लोक वित्त की कीन्सियन विचारधारा को क्रियाशील वित्त की अवधारणा के Reseller में प्रतिपादित Reseller है । क्रियाशील वित्त (क्रियात्मक वित्त) में लोक वित्त की पद्धति का मूल्यांकन उसके क्रियाशील कार्यों के आधार पर Reseller जाता है ।

सक्रियकारी वित्त की अवधारणा – 

सक्रियकारी वित्त की वैचारिक अवधारणा का प्रतिपादन प्रो0 बलजीत सिंह द्वारा Reseller गया है । सक्रियकारी वित्त के अन्तर्गत लोक वित्त साधनों And उपकरणों का उनकी कार्य संCreation पर परीक्षण करते हैं तथा इसका मूल्यांकन करते हैं कि इन उपकरणों की Meansव्यवस्था हेतु क्या उपयोगिता है And किस प्रकार वित्त प्रबन्ध की रीतियाँ Meansव्यवस्था में स्पूर्ति उत्पन्न करती हैं । सक्रियकारी वित्त की अवधारणा विशेषकर विकासशील तथा अर्द्धविकसित देशों के परिपेक्ष में विकसित की गयी है जबकि लर्नर तथा कीन्स का कार्यशील वित्त की अवधारणा विकसित देशों की समस्या के सन्दर्भ में स्थापित की गयी है ।

समाजिक राजनैतिक अवधारणा – 

इस अवधारणा के समर्थकों में वैगनर तथा एजवर्थ प्रमुख हैं । इस अवधारणा के विकास में लोकतांत्रिक And कल्याणकारी राज्य की राजनैतिक विचारधारा के माध्यम् से हुआ है । इस अवधारणा के According लोक वित्त का प्रमुख उद्देश्य यह होना चाहिए जिससे धन का हस्तांतरण निर्धनों के पक्ष में हो जाये जिससे समाज में अधिकतम् सामाजिक कल्याण की स्थापना हो सके ।

लोक वित्त की विशुद्ध अवधारणा – 

इस वैचारिक अवधारणा का प्रतिपादन सेलिगमैन द्वारा Reseller गया । इसके According लोक वित्त की विभिन्न समस्याओं जैसे आय, व्यय, ऋण आदि पर तटस्थ Reseller से विचार Reseller जाना चाहिए । इस विचारधारा में ऐसा कोई आग्रह नहीं Reseller जाता कि लोक वित्त नीति का उद्देश्य धन की असमानताओं को दूर करना होना ही चाहिए ।

लोक वित्त के नवीनतम् अवधारणा – 

मसग्रेव द्वारा लोक वित्त की परिधि में नवीनतम् विचारों का समावेश Reseller । मसग्रेव के According लोक वित्त के सिद्धान्तों का मुख्य कार्य सार्वजनिक Meansव्यवस्था को कुशलतम् बनाने हेतु नियमों के निर्माण से सम्बन्धित होता है । मसग्रेव के According लोक वित्त के उद्देश्यों को तीन भागों में वर्गीकृत Reseller जा सकता है –

  1. आर्थिक स्थिरीकरण
  2. आय का वितरण
  3. साधनों का आवंटन

अत: मसग्रेव के According लोक वित्त के अन्तर्गत ऐसी प्रक्रियाओं को अपनाया जाता है जिससे उपरोक्त उद्देश्यों की पूर्ति हो सके And इन उद्देश्यों की पूर्ति करने में बजट की विभिन्न क्रियाकलापों का Meansव्यवस्था पर पड़ने वाले प्रभावों का मूल्यांकन Reseller जा सके ।

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