घाटे की वित्त व्यवस्था

वर्तमान शताब्दी के First चतुर्थांश तक सन्तुलित और अतिरेक का बजट आदर्श बजट माना जाता था। परन्तु आधुनिक Meansव्यवस्थाओं में विकास प्रक्रिया की विभिन्न आर्थिक और कल्याणकारी क्रियाओं में राज्य का Single समर्थ अभिकर्ता के Reseller में प्रवेश होने के कारण सम्प्रति उसके कार्यक्षेत्र में अत्यन्त प्रसार हो गया है। परिणामत: राजकीय व्यय की मात्रा उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है जिसकी प्रक्रिया में घाटे का बजट तैयार करना Single सामान्य तथ्य हो गया है। सरकार को अपने व्यय प्रस्तावों की पूर्ति हेतु विभिन्न स्त्रोतों से वित्त Singleत्र करने पड़ते हैं और इसी प्रक्रिया में बजट में घाटा भी उत्पन्न हो जाता हैं घाटे का वित्त व्यवस्था सरकारी बजट के घाटे को पूरा करने की Single विधि है जिसका प्रतिपादन पश्चिमी पूँजीवादी Meansव्यवस्थाओं को 1929-33 विश्वव्यापी महामंदी से उबारने के लिए वर्तमान शताब्दी के Fourth दशक में जे0 एम0 केन्स ने Reseller था।

घाटे की वित्त-व्यवस्था का Means

Indian Customer संदर्भ में सरकार को बजट के राजस्व खाते और पूँजी खाते से आय प्राप्त होती है। बजट के राजस्व खाते में करों, सार्वजनिक उद्यमों, ब्याज And प्रशासनिक सेवाओं से प्राप्त आय तथा पूँजीगत खातें में आन्तरिक और बाह्य स्रोतों से प्राप्त ऋण, अल्प बचत, विदेशी सहायता, राज्य व केन्द्र-शासित सरकारों द्वारा ऋण भुगतान आदि की प्राप्तियाँ सम्मिलित है। जब सरकार की समस्त स्रोतों (राजस्व बजट और पूँजीगत बजट) से मिलने वाली आय और विभिन्न मदों पर किये जाने वाले व्यय बराबर होते हैं तो उसे संतुलित बजट कहा जाता है। इसके विपरीत जब कुल राजकीय व्यय समस्त स्रोतोंसे प्राप्त आय से अधिक हो जाता है तो इसे घाटे का बजट कहते है। बजट में घाटे के इस अन्तराल को पूरा करने की प्रक्रिया घाटे की वित्त व्यवस्था कहलाती है। घाटे की वित्त व्यवस्था वह विशेष वित्त विधि है जिसके द्वारा सरकार प्रस्तावित सार्वजनिक आय की तुलना में सार्वजनिक व्यय के आधिक्य को पूरा करने के लिए संसाधन Singleत्र करती है। भारत में घाटे की वित्त व्यवस्था उस अवस्था की सूचक है जब किसी बजट प्रस्ताव के आय और व्यय के अन्तर को पूरा करने के लिए सरकार पिछले नकद शेषों को कम करके या केन्द्रीय बैंक से ऋण लेकर या अतिरिक्त करेंसी छापकर संसाधनों का निर्माण करती है। First पंचवर्ष्र्ाीय योजना के प्राReseller के According “घाटे की वित्त व्यवस्था Word का प्रयोग बजट के घाटे द्वारा कुल राजकीय व्यय में प्रत्यक्ष वृद्धि को प्रदर्शित करने के लिए Reseller जाता है। ये घाटे चाहे आय खाते में हों या पूँजी खाते में, ऐसी नीति अपनाने का सार यही है कि सरकार अपनी उस आय की तुलना में अधिक व्यय करती है जो उसे करारोपण, सार्वजनिक अद्यम, ऋण, बचत तथा अन्य मदों से उपलब्ध होती है”।

विकसित Meansव्यवस्थाओं में घाटे को पूरा करने के लिए जनता और बैंकों से ऋण लिया जाता है। ऋण ग्रहण की इस प्रक्रिया का प्रभाव मुद्रापूर्ति में वृद्धि के Reseller में पड़ता है। परन्तु घाटे की वित्त व्यवस्था से आशय नवीन मुदा का सृजन नहीं होता है। इस कारण पश्चिमी विकसित Meansव्यवस्थाओं में घाटे की वित्त व्यवस्था से आशय नवीन मुद्रा के सृजन से नहीं है। इसके विपरीत Indian Customer Meansव्यवस्था में घाटे की वित्त व्यवस्था का भिन्न Meansों में प्रयोग Reseller जाता है। भारत में पूर्व संचित नकद शेषों के अभाव में घाटे की वित्त व्यवस्था की व्यावहारिक परिणति में बजट प्रक्रिया में जब प्रस्तावित सार्वजनिक व्यय से सार्वजनिक आय की मात्रा कम पड़ जाती है। तब सरकार केन्द्रीय बैंक से इस घाटे को पूरा करने के लिए ऋण लेती है। केन्द्रीय बैंक ऐसी दशा में अतिरिक्त मुद्रा सृजित करता है जिसके परिणामस्वReseller Meansव्यवस्था में मुद्रा की पूर्ति बढ़ जाती है, जिसे सरकार सार्वजनिक व्यय प्रस्तावों को पूरा करने के लिए व्यय करती है। इस प्रकार भारत में घाटे की व्यवस्था का संबंध नवीन मुद्रा सृजित कर कुल मुद्रा की पूर्ति की वृद्धि से है।

घाटे की वित्त व्यवस्था का औचित्य

घाटे की वित्त व्यवस्था द्वारा निर्मित अतिरिक्त मुद्रा सरकार की वस्तुओं ओर सेवाओं को अविलम्ब प्राप्त कर सकने की क्षमता बढ़ा देती है। व्यय कार्यक्रमों को पूरा करने का यह अपेक्षाकृत अधिक नवीन òोत है। केन्सीय Meansशास्त्र के विकास के बाद इस संकल्पना का प्रसार और महत्त्व अधिक बढ़ गया है। सिद्धान्तत: घाटे की वित्त व्यवस्था का प्रयोग मुख्य Reseller से तीन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए Reseller जाता है। First, विकसित देशों में मंदी की अवस्था में जब समर्थ माँग की कमी हो अथवा औद्योगिक इकाइयों में अप्रयुक्त उत्पादन क्षमता विद्यमान हो तो घाटे की वित्त व्यवस्था का सहारा लेकर उत्पादन, रोजगार And आय में वृद्धि की जा सकती है। द्वितीय, किसी आकस्मिक घटना, Fight, बाड़, अकाल आदि का सामना करने के लिए अतिरिक्त धनराशि प्राप्त करने हेतु घाटे की वित्त व्यवस्था का सहारा लिया जाता है। तृतीय, किसी अल्पविकसित या विकासशील Meansव्यवस्था, जहाँ अप्रयुक्त व अल्पप्रयुक्त उत्पादक संसाधन विद्यमान है, को विकासित करने तथा उत्पादन रोजगार, और आय बढ़ाने के लिए घाटे की वित्त व्यवस्था का प्रयोग Reseller जाता है।

भारत में घाटे की वित्त व्यवस्था का आधार मुख्य Reseller से आर्थिक विकास की दर तीब्र करना रहा है। योजना आरम्भ के समय यह अनुभव Reseller गया कि देश में अप्रयुक्त उत्पादन क्षमता विद्यमान है। इन अतिरिक्त भौतिक संसाधनों और अल्प रोजगार व बेरोजगार श्रम शक्ति को उत्पादक कार्य में लगाने के लिए इसे Indispensable माना गया। यह विचार Reseller गया है कि देश की अधिकांश श्रमशक्ति कृषि क्षेत्र से अपने जीवन निर्वाह की आय कमाती है। यहाँ सघन प्रच्छन्न बेरोजगारी की दशा विद्यमान है। यदि इन श्रमिकों को कृषि क्षेत्र से विनिर्माण क्षेत्र में हस्तांतरित कर दिया जाय, तो इससे निर्माण क्षेत्र में उत्पादन बढ़ जायेगा, जबकि कृषि उत्पादन में कोई कमी न होगी। औद्योगिक विकास से कृषि को भी गति मिलेगी। इन विनियोग कार्यक्रमों को पूरा करने के लिए वित्त पूर्ति, घाटे की वित्त व्यवस्था द्वारा अतिरिक्त मुद्रा सृजित करके सरकार विकास कार्यों को पूरा कर सकती है। यह भी विचार Reseller गया कि घाटे की वित्त व्यवस्था द्वारा सृजित मुद्रा में मुद्रापूर्ति बढे़गी। फलत: लोग पूर्व स्तर के तुल्य वस्तुयें और सेवायें न खरीद सकेंगे। कीमत वृद्धि जनित कम खरीद के कारण अवशिष्ट संसाधनों के उत्पादक कार्यों में प्रयुक्त होने से उत्पादन की मात्रा बढ़ने पर मुद्रा की मात्रा और उपलब्ध वस्तुओं तथा सेवाओं की मात्रा का असंतुलन समाप्त हो जायेगा। फलत: कीमतों में अनुचित वृद्धि भी न हो सकेगी। इस परिकल्पना की पृष्ठभूमि में घाटे की वित्त व्यवस्था भारत मे आर्थिक विकास के लिए साधन के Reseller में अपनायी गयी है। यद्यपि कतिपय वर्षों में Fight और अकाल का सामना करने के लिए भी घाटे की वित्त व्यवस्था की गयी, परन्तु आकस्मिक जरूरत को पूरा करने के लिए ही यह व्यवस्था थी। मुख्य Reseller से तो घाटे की वित्त व्यवस्था का आधार आर्थिक विकास की दर तीव्र करना ही रहा है।

भारत में घाटे की वित्त व्यवस्था

भारत सरकार द्वारा स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद 1947-51 की अवधि में अपने जमा नकद कोषों का उपयोग Reseller गया। इस अवधि में सरकार ने अपने जमा नकद कोष से 105 करोड़ रुपये व्यय किये। इसके बाद All पंचवष्रीय योजनाओं में घाटे के बजट बनाये जाते रहे हैं जिसकी पूर्ति नव-निर्मित मुद्रा द्वारा की जाती रही है। First पंचवष्रीय योजना से लेकर अब तक की All पंचवष्रीय योजनाओं में घाटे की वित्त व्यवस्था की जाती रही है। यद्यपि All पंचवष्रीय योजनाओं में घाटे की वित्त व्यवस्था की जाती रही है। यद्यपि All पंचवष्रीय योजनाओं में घाटे की वित्त व्यवस्था पृथक्-पृथक् मात्रा में रही है। परन्तु सामान्य विचलनों सहित उसमें वृद्धि की प्रवृत्ति रही है। योजनाकाल में कुछ ऐसी विशेष परिस्थितियाँ उत्पन्न होती रही हैं जिनके कारण विभिन्न योजना प्रतिवेदनों में प्रस्तावित राशि से अधिक विनियोग करना पड़ा है। चीन और पाकिस्तान के आक्रमण ने तृतीय पंचवष्रीय योजना में, 1966-67 के महान् सूखे ने वार्षिक योजनाओं में, पाकिस्तान के आक्रमण और बांगला देश के शरणार्थियों की समस्या ने चतुर्थ पंचवष्रीय योजना में घाटे की वित्त व्यवस्था को प्रस्तावित राशि से अधिक बढ़ाने के लिए बाध्य कर दिया। वर्ष 1951-52 से 1995-96 तक घाटे की वित्त व्यवस्था द्वारा अत्याधिक अतिरिक्त मुद्रा निर्मित की गई।

छठी पंचवष्रीय योजनाकाल में कई वर्षों में वास्तविक घाटे की वित्त व्यवस्था अनुमानित स्तर से अधिक रही है, वर्ष 1980.81 में घाटे की वित्त व्यवस्था की कुल राशि 2700 करोड़ रुपये थी। 1981.82 के बजट में 1539 करोड़ रुपये के घाटे का अनुमान लगाया गया था। परन्तु घाटे की वित्त व्यवस्था द्वारा 1700 करोड़ रुपये की राशि सृजित की गयी। इसी प्रकार 1982. 83 और 1983.84 में घाटे की वित्त व्यवस्था द्वारा क्रमश: 1935 करोड़ तथा 1695 करोड़ रुपये की राशि सृजित की गयी। इससे यह स्पष्ट होता है कि छठी योजना में घाटे की वित्त व्यवस्था द्वारा प्रस्तावित 5000 करोड़ रुपये से अधिक राशि की घाटे की वित्त व्यवस्था इसके First तीन वर्षों में ही कर ली गयी थी। यह अनुमान है कि छठी योजना में कुल 15659 करोड़ रुपये की घाटे की वित्त व्यवस्था की गयी। Sevenवीं योजना में सार्वजनिक क्षेत्र में हुए कुल व्यय का लगभग 15 प्रतिशत भाग घाटे की वित्त व्यवस्था से आया यद्यपि यह प्रतिशत छठीं योजना से कम है तथापि यह राशि अत्याधिक है।

घाटे की वित्त व्यवस्था का प्रभाव

भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद 1951 से नियोजित विकास प्रक्रिया अपनार्इ्र गयी जिसके लिए अतिरिक्त वित्तीय साधन Singleत्र करने के दृष्टिकोण से घाटे की वित्त व्यवस्था की गयी। प्रत्येक योजना में उत्तरोत्तर बढ़ती हुई राशि Meansव्यवस्था में विनियोग की गयी। विनियोग के वित्त व्यवस्था के अभिन्न साधन के Reseller में घाटे की वित्त व्यवस्था भी बढ़ाई गयी। घाटे की वित्त व्यवस्था के प्रभावों को निम्नलिखित प्रकार से प्रस्तुत Reseller जा सकता है –

आर्थिक विकास में योगदान – 

घाटे की वित्त व्यवस्था से सृजित मुद्रा ने विनियोग वृद्धि में योगदान Reseller है। इससे Meansव्यवस्था में व्याप्त दीर्घकालीन गतिरोध की अवस्था समाप्त हुई। Meansव्यवस्था के विकास के विभिन्न भौतिक सूचकों यथा खद्यान्न, ऊर्जा, परिवहन, उर्वरक आदि में Historyनीय प्रगति हुई। प्रति व्यक्ति आवश्यक वस्तुओं और सेवाओं की उपलब्धि में वृद्धि हुई। आज हमारे पास प्रौद्योगिकी और उत्पादन कौशल के वे साधन उपलब्ध हैं जिसकी कल्पना भी हम योजना पूर्व नहीं कर सकते थे। नियोजन के पूर्व हम सामान्य उपयोग की साधारण वस्तुयें भी विदेशों से आयात करते थे। आज स्थिति यह है कि औद्योगिक दृष्टि से विश्व के विकसित राष्ट्रों में भारत का स्थान Sevenवाँ हो गया है। निर्यात व्यापार की मात्रा में वृद्धि के साथ उसकी सूची में नवीन वस्तुयें जुड़ी हैं। खेती की मानसून पर निर्भरता कम हुई है और अब खेती मात्र जीवन निर्वाह का व्यवसाय न होकर लाभपूर्ण व्यवसाय के Reseller में व्यवहृत होने लगी है। निजी और सार्वजनिक दोनों क्षेत्रों में उत्पादन बढ़ा है। अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि समाजवादी ढाँचे के परिप्रेक्ष्य में सार्वजनकि क्षेत्र का अधिक प्रसार हुआ है और इसने निजी क्षेत्र को अधिक विकसित होने के लिए आधारिक अवस्थापना निर्मित कर दी है। यदि विकास के इन भौतिक सूचकांकों की प्राप्ति में सार्वजनिक व्यय की भूमिका निर्णायक रही है, तो घाटे की वित्त व्यवस्था द्वारा सृजित मुद्रा (जो कुल व्यय का Single प्रमुख अंश है) का इन भौतिक सूचकांकों की प्राप्ति में निश्चित ही महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। इन धनात्मक परिणामों के साथ-साथ घाटे की वित्त व्यवस्था का प्रभाव Meansव्यवस्था पर हानिकारक भी सिद्ध हुआ है। घाटे के वित्त व्यवस्था के प्रमुख हानिकारक प्रभावी को निम्नलिखित प्रकार से व्यक्त Reseller जा सकता है। घाटे की वित्त व्यवस्था ने Meansव्यवस्था में स्फीतिकारी दशायें उत्पन्न की है। इससे काला बाजारी और आय तथा संपित्त की असमानतायें बढ़ी हैं।

मुद्रा की पूर्ति में वृद्धि –

घाटे की वित्त व्यवस्था Meansव्यवस्था में कुल मुद्रा आपूर्ति में वृद्धि का Single सशक्त माध्यम है। इसके कारण Meansव्यवस्था में कुल मुद्रा की आपूर्ति में अत्यन्त तेजी से वृद्धि हुई। मुद्रा पूर्ति की वृद्धि दर Meansव्यवस्था में वस्तुओं और सेवाओं की उत्पादन वृद्धि दर से अधिक हो गयी। नियोजन काल में कुल मुद्रागत साधनों ड3 (चलन में करेन्सी, बैंकों में माँग जमा, बैंकों में मियादी जमा और रिर्जव बैंक के पास अन्य) में उत्तरोत्तर वृद्धि होती है। कुल मुद्रागत साधनों की मात्रा 1950.51 में 2020 करोड़ रुपये थी जोकि 1960.1961 में बढ़कर 2870 करोड़ रुपये हो गयी। इसके बाद मुद्रा आपूर्ति में अधिक द्रुतगति से वृद्धि हुई। वर्ष 1984.85 में कुल मुद्रागत साधन ड3 बड़कर 101815 करोड़ रुपये हो गया। Single अन्य महत्त्वपूर्ण बात यह रही है कि मुद्रापूर्ति की वृद्धि दर योजना काल में क्रमश: बढ़ती गयी है। योजना काल में शुद्ध राष्ट्रीय आय की वृद्धि औसतन 3.8 प्रतिशत रही है। यदि केवल 1970.71 के दशक पर ही विचार Reseller जाए तो भी यह स्पष्ट हो जाता है कि वास्तविक राष्ट्रीय आय की वृद्धि की तुलना में मुद्रा पूर्ति में अत्यन्त तीव्र दर से वृद्धि हुई है।

कीमत स्तर मे वृद्धि – 

 घाटे की वित्त व्यवस्था के कारण मुद्रापूर्ति में अपेक्षाकृत अधिक तीव्रगति से वृद्धि होने के कारण Meansव्यवस्था में स्फीतिकारी स्थितियाँ उत्पन्न हो गयीं। कीमत निर्धारण की यदि विभिन्न क्लिष्टताओं को छोड़ दिया जाय तो भी यह कहा जा सकता है कि कीमत स्तर मुद्रा का वस्तुओं से अनुपात है। किसी वस्तु की कीमत उसकी मांग और पूर्ति के शेष द्वारा निर्धारित होती है। यही सामान्य नियम Meansव्यवस्था में समस्त वस्तुओं और सेवाओं के संदर्भ में भी लागू होता है, Meansात Meansव्यवस्था में कुल वास्तविक उपज को समय पूर्ति और कुल मुद्रा पूर्ति को समय माँग माना जा सकता है। जब Meansव्यवस्था में समय माँग (कुल मुद्रा पूर्ति) वहाँ उपलब्ध कुल वस्तुओं और सेवाओं (समग्र पूर्ति) से अधिक हो जाती है तो कीमतों में वृद्धि और इसके विपरीत कीमतों में कमी आरम्भ हो जाती है। Single सरल उदाहरण लें। समय पूर्ति और समग्र माँग के प्रतीक के Reseller में माना Meansव्यवस्था में क्रमश: 100 ‘ल’ वस्तु और 100 रुपये विद्यमान हैं अब वस्तु की प्रति इकाई कीमत 1.0 रुपये होगी। यदि रुपये (माँग के आधार) की मात्रा बढ़ती जाय और वस्तु की मात्रा कम होती जाय या अपरिवर्तित रहे या रुपये की मात्रा वृद्धि की तुलना में वस्तुओं की मात्रात्मक वृद्धि कम हो तो वस्तु की कीमत में वृद्धि अवश्यम्भावी है। यहाँ जो तथ्य समय पूर्ति के प्रतीक ‘ल’ वस्तु के बारे में सत्य हैं, वही अन्य वस्तुओं ओर सेवाओं के बारे में भी सत्य है। हम लोगों ने घाटे की वित्त व्यवस्था के माध्यम से करोड़ों रुपये के नोट छाप डाले। फलत: समग्र माँग और पूर्ति में असंतुलन उत्पन्न हो गया जिससे कीमतें अत्याधिक बढ़ने लगीं। यदि मुद्रापूर्ति और वास्तविक राष्ट्रीय आय की वृद्धि पर विचार Reseller जाय तो इस असंतुलन का वीभत्स चित्र साफ दिखाई पड़ता है। आधार वर्ष 1961. 61 के आधार पर First पंचवष्रीय योजना में कीमतों में कमी आयी। इस अवधि में मुद्रा पूर्ति की वृद्धि की तुलना में वास्तविक राष्ट्रीय आय की वृद्धि अधिक रही है। इसके बाद कीमतों में तेजी से वृद्धि हुई। द्वितीय योजना में सामान्य कीमत स्तर में 35 प्रतिशत, तृतीय योजना में 32 प्रतिशत, वार्षिक योजनाओं में 26 प्रतिशत और चतुर्थ पंचवष्रीय योजना में 54 प्रतिशत की वृद्धि हुई 1970.71 के दशक में कीमत वृद्धि चिन्ताजनक ही रही। All वस्तुओं के थोक कीमत निर्देशांक 1994.95 के 100 की तुलना में 1995.96 में बढ़कर 275 हो गये।

गैर-आवश्यक उपभोग में वृद्धि – 

 घाटे की वित्त व्यवस्था के परिणामस्वReseller जो अतिरिक्त क्रय शक्ति के लोगों के पास पहुँची, उसके विविध उपयोग हुए। जो लोग इनमें से भूखे थे, उन्होंने इसे आवश्यक उपयोग वस्तुओं पर खर्च Reseller। उपयोगी वस्तुओं का तदनुReseller उत्पादन न बढ़ने के कारण उनकी कीमतें बढ़ी। इससे सामान्य जीवन स्तर यापन का व्यय बढ़ गया और बचत स्तर कम हो गयी। निम्न आय स्तर की स्थिति मे अतिरिक्त आय की प्राप्ति आवश्यक उपभोग वस्तुओं के प्रयोग को बढ़ा देती है। दूसरी ओर सम्पन्न आय वर्ग में जिनकी आय बढ़ी? उसका अधिकांश भाग उनके द्वारा आरामदायक और विलासिता की वस्तुओं पर व्यय Reseller गया। इससे उनकी कीमते और उन वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन के प्रति विनियोग अधिक तेजी से बढ़ा, जबकि उपेक्षित यह था कि उन वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन के प्रति विनियोग बढ़ाया जाता जिनका उपयोग जन-सामान्य या कम आय वर्ग के लोग करते हैं। आज के बाजार में आरामदायक And विलासिता की विभिन्न वस्तुयें सर्वत्र बहुसुलभ है। लेकिन अनिवार्यताओं की कमी है। इसका मुख्य कारण अतिरिक्त सृजित मुद्रा का प्रमुख भाग सम्पन्न वर्ग के हाथों में पहुँचता रहा है। कीमत स्तर में वृद्धि के कारण विनियोग राशि की क्रय शक्ति में उत्तरोत्तर कमी आई जिसके लिए पूर्वनिर्धारित विनियोग को लक्ष्य प्राप्ति हेतु बढ़ाना पड़ा। इसके परिणामस्वReseller विकास की अन्य मदों की प्रक्रिया के निष्पादन में कठिनाई उत्पन्न हुई अथवा यह कहा जा सकता है कि समग्र आर्थिक विकास प्रक्रिया हतोत्साहित हुई।

इस विश्लेषण से यह प्रतीत होता है कि Indian Customer Meansव्यवस्था में घाटे की वित्त व्यवस्था ने जहाँ Single ओर उत्पादन वृद्धि में सहायता की है, वहीं दूसरी ओर कीमत वृद्धि के माध्यम से इसने जन-सामान्य का जीवन-यापन अत्यन्त दुष्कर कर दिया है। वस्तुत: आज घाटे के वित्त व्यवस्था, ऊँची मुद्रा पूर्ति, वृद्धिमान कीमतें और फिर घाटे की वित्त व्यवस्था, का Single दुष्चक्र बन गया है। परन्तु घाटे की वित्त व्यवस्था के अपेक्षाकृत अधिक सघन दुष्परिणामों के बावजूद सतत् घाटे की वित्त व्यवस्था की जा रही है। 1995.96 के बजट में कुल 5000 करोड़ रुपये की राशि घाटे की वित्त व्यवस्था द्वारा सृजित की गयी। वर्ष 1996.97 के बजट में 6578 करोड़ रुपये के बजट घाटे का अनुमान है। इसलिए प्रश्न उठता है कि फिर यह घाटे की वित्त व्यवस्था क्यों? वस्तुत: इस पर लगाये जाने वाले प्रमुख दोष स्फीतिकारी दशाओं के कारण है। यद्यपि कीमत वृद्धि पर इसका महत्त्वपूर्ण प्रभाव अवश्य रहा है। लेकिन इसके साथ-साथ अन्य घटक, यथा कृषि व औद्योगिक उत्पादनों में से विभिन्न परियोजनाओं और उद्योगों में निहित क्षमता का उपयोग नहीं हो पा रहा है जिससे उत्पादन वृद्धि की क्षमता और सम्भावना होते हुए भी उत्पादन नहीं बढ़ रहा है। अब यह आवश्यक है कि First, घाटे की वित्त व्यवस्था उत्तरोत्तर घटाई जाये। इसको Single Windows Hosting सीमा तक ही रखा जाये। द्वितीय घाटे की वित्त व्यवस्था से सृजित अतिरिक्त मुद्रा का समस्त भाग और कुल राजकीय व्यय का अधिकांश भाग उत्पादन कार्यों पर खर्च Reseller जाये। Third, घाटे की वित्त व्यवस्था से सृजित मुद्रा अनिवार्यत: ऐसी योजनाओं पर खर्च Reseller जाये जिसकी परिपक्वता अवधि अत्यन्त कम हो, ताकि मुद्रा पूर्ति के बाद उत्पादन शीघ्र बढे़। इसे माँग And पूर्ति में वांछित संतुलन शीघ्र स्थापित Reseller जा सकेगा। इससे कीमत स्तर में धीरे-धीरे वृद्धि होगी जो आर्थिक विकास के लिए लाभदायक होती है।

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