लोक वित्त का Means, परिभाषा, क्षेत्र, प्रकृति And महत्व

लोकवित्त अथवा राजस्व Meansशास्त्र की वह शाखा है जो सरकार के आय-व्यय का अध्ययन करती है। राजस्व को लोकवित्त के पर्यायवाची Word के Reseller में Reseller जाता है। राजस्व, संस्कृत भाषा का Word है जो दो अक्षरों-’राजन + स्व’ से मिलकर बना है जिसका Means होता है।- ‘King का धन’। राजनैतिक दृष्टि से King को समाज And क्षेत्र विशेश को प्रतिनिधित्व करने वाला मुखिया माना जाता है। इस तरह सरल Wordों में राजस्व का Means ‘King के धन’ या राजनैतिक दृष्टिकोण से ‘मुखिया के धन’ से होता है जिसके अनतर्गत यह अध्ययन Reseller जाता है कि King धन को कहाँ से तथा किस प्रकार प्राप्त करता है तथा उस धन को किस प्रकार व्यय करता है।

अंग्रेजी में व्यक्त Reseller गया ‘Public Finance’ भी दो Wordों Public और Finance से मिलकर बना है। जिसका Means है ‘जनता का वित्त’ अथावा ‘सार्वजनिक वित्त’। परन्तु हम लोक वित्त अथवा राजस्व के अतर्गत जनता के वित्त का अध्ययन नहीं करते बल्कि जनता का प्रतिनिधित्व करने वाली संख्या ‘राज्य’ अथवा सरकार की वित्तीय व्यवस्थाओं का अध्ययन करते है।

लोक वित्त को विभिन्न देशों की भाषाओं में विभिन्न नामों से पुकारा जाता है यथा, जर्मनी में इसे ‘Finanzwissenschaft’ है जिसका Means है वित्त का विज्ञान, फ्रांस में इसके लिए ‘Science des finances’ Word का प्रयोग Reseller जाता है। तथा इटली में इसे ने नाम से जाना जाता है। इन Wordों को सार्वजनिक आय And व्यय के प्रबंध के Reseller में प्रयोग Reseller जाता है।

लोक वित्त की परिभाषाएँ

  1. डॉ0 डाल्टन (Dalton) के According, ‘‘लोकवित्त उन विशयों में से Single है जो Meansशास्त्र And राजनीति शास्त्र की सीमा रेखा पर स्थित है। इसका सम्बन्ध लोकसत्ताओं के आय-व्यय तथा उनके पारस्परिक समायोजन और समन्वय से है।
  2. प्रो0सी0एफ0 बैस्टेल (Bastable) के According, ‘‘लोकवित्त राज्य की लोकसत्ताओं के आय-व्यय, उनके पारस्परिक सम्बन्ध, वित्तीय प्रशासन And नियंत्रण का अध्ययन करता है।’’
  3. प्रो0 फिण्डले सिराज (Findlay shirras) के According, ‘‘लोकवित्त के अंतर्गत लोक सत्ताओं के कोशो में वृद्धि And व्यय से संबधित सिद्धान्तों का अध्ययन Reseller जाता है।’’

उपयुक्त परिभाषाओं को अधिक विस्तृत इसलिए कहा जाता है क्योकि लोकसत्ताओं और उनकी All प्रकार की आय And व्यय को चाहे वह मौद्रिक हो अथवा अमौद्रिक, सबको लोकवित्त के अध्ययन क्षेत्र में सम्मिलित कर लिया गया है।

दोष:- इन परिभाषाओं के कुछ प्रमुख दोष है-

  1. उपर्युक्त परिभाषाओं में प्रयुक्त Word लोक सत्ताओं पर कुछ Meansशास्त्रियों ने आपत्ति प्रकट की है। उनका कहना है कि यह आवश्यक नहीं है कि All लोक सत्ताएँ राज्य की वैधानिक अंग हों। लोक सत्ताओं के अंतर्गत यदि सार्वजनिक कम्पनियाँ तथा शिक्षण संस्थाएँ आदि भी सम्मिलित कर ली जाती है तो लोक वित्त का क्षेत्र अत्यंत विस्तृत हो जाएगा। वास्तविकता यह है कि लोक वित्त में हम केवल राज्य की वित्तीय क्रियाओं का अध्ययन करते है।
  2. इन परिभाशाओं में लोक सत्ताओं की All प्रकार की आय-मौद्रिक और अमौद्रिक को सम्मिलित कर लिया गया है जबकि विषय के क्षेत्र को निश्चितता प्रदान करने के लिए लोकवित्त के अंतर्गत केवल मुद्रा And साख सम्बंधी आय को ही सम्मिलित Reseller जाना चाहिए।

उपर्युक्त दोशों के बाद भी यहाँ यह स्पष्ट करना उचित होगा कि विभिन्न मौद्रिक And आमौद्रिक साधनों के बीच भेद करना सरल नहीं है। राज्य अपने कार्य संचालन के लिए All तरह के साधनों का प्रयोग करता है। इस तरह, मुद्रा के महत्व मे वृद्धि के साथ लोक वित्त का क्षेत्र भी विस्तृत हो गया है। ऐसी स्थिति में इस तरह की आपत्ति अनुपयुक्त है और उक्त परिभाषाएँ औचित्यपूर्ण है।

  1. लुट्ज (Lutz) के According, ‘‘ लोकवित्त उन साधनों की व्यवस्था, Safty तथा वितरण का अध्ययन करता है जिनकी सार्वजनिक अथवा सरकारी कार्यों को चलाने के लिए Need पड़ती है’’
  2. कार्ल प्लेहन (Plehan) के According, ‘‘ लोकवित्त वह विज्ञान है जो राजनितिज्ञों की उन क्रियाओं का अध्ययन करता है जिनके द्वारा वे राज्य के कर्तव्यों को पूरा करने के लिए आवश्यक भौतिक साधनों को प्राप्त करते है तथा उन साधनों का प्रयोग करते है।’’
  3. आर्मिटेज स्मिथ (Armitage Smith) के According, ‘‘राजकीय व्यय तथा राजकीय आय की प्रकृति And सिद्धान्तों की व्याख्या को लोक वित्त कहा जाता है।’’
  4. श्रीमती उर्सुला के.हिक्स (U.K. Hicks) के According, ‘‘लोक वित्त का मुख्य विषय उन विधियों का निरीक्षण And मूल्यांकन करना है जिनके द्वारा सरकारी संस्थाएँ Needअें की सामूहिक संतुष्टि करने का निरक्षण करती है और अपने उद्येश्यों की पूर्ति के लिए आवश्यक कोश प्राप्त करती है।’’
  5. प्रो0 मसग्रेव (Musgrave) के According, ‘‘वे जटिल समस्याएँ जो सरकार की आय-व्यय प्रक्रिया के इर्द-गिर्द केन्द्रित रहती है, उन्हें परम्परागत दृष्टि से लोक वित्त कहा जा सकता है।’’
  6. प्रो0 डी0 मार्को (D.Marco) के According, ‘‘लोक वित्त राज्य की उन उत्पादक क्रियाओं का अध्ययन करता है जिनका उद्येश्य सामूहिक Needओं को पूरा करना होता है।’’ 

निष्कर्ष उपरोक्त परिभाषाओं के अध्ययन से इस निशकर्श पर पहुँचा जा सकता है कि लोक वित्त मूल Reseller से सरकारों के आय-व्यय से सम्बन्धित है तथा सरकारों का Means केन्द्रीय, प्रान्तीय तथा स्थानीय सत्ताओं से है। वर्तमान समय में लोक वित्त का क्षेत्र अधिक व्यापक हो गया है, अत: अब इसके अंतर्गत सरकारी आय-व्यय के अतिरिक्त वित्तीय प्रशासन, लेखा निरीक्षण And वित्तीय नियंत्रण आदि कार्यों को भी सम्मिलित Reseller जात है।

लोक वित्त की विषय-वस्तु And क्षेत्र

लोक वित्त की विषय-वस्तु की जानकारी के लिए यह याद रखना होगा कि लोक वित्त के विभिन्न पहलुओं की विवेचना का History काफी पुरा है। एडम स्मिथ ने अपनी पुस्तक ‘Wealth of Nations’ (1776) के खण्ड (Book V) में लोक वित्त के विभिन्न अंगों का विश्लेषण Reseller है। इस खण्ड में तीन अध्याय है जो क्रमश: सरकार के व्यय, सरकार के राजस्व तथा लोक ऋण की विवेचना करते है। इसका Means यह हुआ कि लोक वित्त को क्षेत्र तीन विषय-वस्तु तक सीमित है, यथा लोक व्यय, लोक राजस्व तथा लोक ऋण (Public Expenditure, Public Revenue and Public Debt) रिकार्डो की पुस्तक का नाम था ‘The Principles of Political Economy and Taxation’ (1819), जिसमें दस अध्याय करारोपण की विभिन्न समस्योओं पर लिखे गये। लोक व्यय पर कोई पृथक् अध्याय नहीं है। लोक ऋण की विस्तृत विवेचना उनके पृथक प्रकाशन Essay on the Funding System में मिलती है। इससे यह स्पष्ट होता है कि रिकार्डों ने केवल कर तथा लोक ऋण को ही लोक वित्त के अध्ययन की प्रमुख विषय-वस्तु माना।

जे0एस0 मिल ने भी अपनी पुस्तक The Principles of Political Economy जो 1848 में प्रकाशित हुई, में लोक वित्त के विभिन्न अंगों की पर्याप्त विवेचना की, लेकिन इस पुस्तक में भी करों के विभिन्न पक्षा के विश्लेषण पर विशेश ध्यान दिया गया तथा राष्ट्रीय ऋण (National Debt) की विभिन्न समस्याओं पर प्रकाश डाला गया। जहां एडम स्मिथ ने लोक व्यय के विवेचन का First पंक्ति में रखा वहा रिकार्डों तथा मिल ने करारोपण And लोक ऋण को अधिक महत्व दिया।

उन्नीसवीं सदी के अन्त की ओर Single अत्यधिक महत्वपूर्ण परिवर्तन आया। इसके पूर्व Meansशास्त्रियों ने अपनी महान् कृतियो में लोक वित्त को Single छोटा-सा स्थान प्रदान Reseller था अब लोक वित्त पर पृथव् पुस्तकं लिखी जानी लगी। इस प्रवृित्त की श्रीगणेश 1892 में सी0एफ0 बैस्टेबल (C.F.Bastable) की पुस्तक Public Finance से हुआ। इसी श्रृखंला में डाल्टन (Hugh Dalton) की पुस्तक Public Finance First 1922 में प्रकाशित हुई जिसे आधिक ख्याति मिली। इस पुस्तक में डाल्टन ने लिखा के लोक वित्त की विषय-वस्तु है सरकार की आय तथा व्यय तथा Single का Second के साथ समायोजन।

डाल्टन ने उपयुक्त विषय-वस्तु की विवेचना में लोक वित्त के क्षेत्र को विस्तृत Reseller। उन्होने रिकार्डों तथा मिल की तरह विशेष करों के प्रभाव के विश्लेशण के साथ ही कर के सामान्य सिद्धान्तों की भी व्याख्या की। साथ ही, एडम स्मिथ की परम्परा को अपनाते हुए उन्होने लोक व्यय का भी विस्तृत अध्ययन Reseller। वस्तुत: कर, लोक व्यय तथा लोक ऋण का पृथक्-पृथक् अध्ययन नही करके, उनके आपसी सम्बन्धों पर विचार Reseller जाने लगा। इसलिए एलेन तथा ब्राउनली (Allen and Brownlee) ने कहा कि लोक वित्त तेजी से लोक Meansव्यवस्था का अध्ययन बनता जा रहा है।

लोक वित्त की विषय-वस्तु में आगे चलकर जो विभिन्नता आयी उसकी जानकारी पीगू की पुस्तक A Study of Public Finance से मिल सकती है जिसका First संस्करण 1928 में प्रकाशित हुआ तथा तृतीय संस्करण 1947 में। दोनो ही संस्करणों में कर के सिद्धान्तों के साथ-साथ विशेश करों के गुण And दोशों की विवेचना की गयी है। First संस्करण के बाकी भाग में Fight वित्त की समस्याओं का जिक्र है। इसके विपरीत तृतीय संस्करण में ‘लोक-वित्त And रोजगार’ शीर्षक के अन्तर्गत उन राजकोषीय उपायों का पूर्ण विवेचना शामिल Reseller गया है जिनका द्वारा समग्र आय को प्रभावित Reseller जा सकता है। लोक वित्त को आधुनिक समय में इसी Reseller में ढाला गया है। Fightोत्त्र काल में Single समय तो ऐसा लग रहा था कि अल्पकालीन स्थिरीकरण राजकोशित नीति (Short-term Stabilsation Fiscal Policy) ही लोक वित्त का सर्वाधिक महत्वपूर्ण अंग वन जायेगी। किन्त,ु ऐसा नही हुआ। 1959 में आर0ए0 मसगेव्र (Richard A. Mugrave) की महत्वपूर्ण पुस्तक The Theory of Public Finance प्रकाशित हुई। इस पुस्तक की भुमिका में मसग्रेव ने लिखा कि रिकार्डों से लेकर केन्स तक शायद ही किसी ने Meansव्यवस्था की क्रिया पर बजट नीति के प्रभाव पर लिखा। इस विषय को 1930 के दशक के बहुत अधिक पेर्र णा मिली जब राजकोषीय नीति की नयी अवधारणा आर्थिक यान्त्रिकी (Economic Mechanism) के हदय में प्रवेश कर गयी Meansात् प्रमुख विषय बनी गयी। इससे लोक वित्त के प्रति हमारे दृष्टिकोण में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए। इसका पिणाम यह हुआ कि मैक्रो आर्थिक सिद्धान्त के अन्तर्गत बजट नीति की भूमिका का विश्लेषण होने लगा।

मसग्रेव कहते है कि लोक वित्त को इस प्रकार मैक्रो आर्थिक सिद्धान्त में शामिल करना Single-पक्षीय विकास था। कारण यह है कि इससे लोक वित्त का मैक्रो सिद्धान्त जैसे, अल्पकालीन स्थिरीकरण सम्बन्धी राजकाषीय नीति) की ओर ही विशेष ध्यान गया और इसी साधनों के आवंटन पर प्रभाव के अध्ययन की फलत: बट नीति के आय के वितरण तथा निजी क्षेत्र में साधनों के आवंटन पर प्रभाव के अध्ययन की अवहेलना की गयी। इस कमी को मसग्रेव ने दूर Reseller तथा बताया कि लोक वित्त का क्षेत्र तीन प्रमुख राजकोषीय कार्य, यथा, आवंटन कार्य (Allocation function) वितरण कार्य (Distribution fuctio) तथा स्थिरीकरण कार्य (Stabilisation function) तक फैला हुआ है। उन्होने लोक वित्त की पारस्परिक विषय-वस्तु (जैसे, करारोपण, लोक व्यय तथा लोक ऋण) का विश्लेषण आवंटन, वितरण तथा स्थिरीकरण के दृष्टिकोण से करके लोक वित्त के क्षेत्र को काफी विस्तृत कर दिया। आवंटन कार्य के अन्तर्गत लोक व्यय तथा करों की Creation इस प्रकार की जाती है ताकि साधनों को निजी Needओं की सन्तुष्टि से हटराकर सार्वजनिक Needओं की पूर्ति में लगाया जा सके। वितरण कार्य के According कर तथा लोक व्यय की Creation इस प्रकार की जाती है। कि साधनों को Single व्यक्ति के उपयोग से हटाकरण Second व्यक्ति के उपयोग में (जैसे, अमीरो से हटाकरण निर्धनों के उपयोग में) लगाया जा सकें। स्थिरीकरण कार्य के अन्तर्गत कर And लोक व्यय की Creation पूर्ण रोजगार तथा कीमत स्थायित्व के दृष्टिकोण से की जाती है। इसका सम्बन्ध अल्पकालीन स्थिरीकरण की समस्या से तो है ही, साथ ही इसमें दीर्घकालीन आर्थिक विकास के सम्बन्ध की भी विवेचना की जाती है। Second Wordों में, इस कार्य के अन्तर्गत लोक वित्त के समष्टि पहलू (Macro aspect) पर विशेष ध्यान दिया जाता है।

1960 के दशक के पिछले भाग तथा 1970 के दशक में मैक्रो आर्थिक नीति के महत्व में ह्मास हुआ। इसके कई कारण थे, यथा, इस नीति को लागू करने में व्यावहारिक कठिनाइयाँ, आर्थिक विचारों के क्षेत्र में मुद्रावादी प्रति-क्रान्ति (monetarist counter-revolution) तथा लोक वित्त के पारम्परिक क्षेत्र में अन्य विशयों का उदय तथा उनकी फिर से खोज। इस नये विशयों में Single लोक व्यय है। लोक व्यय खुद नया विषय नही है, किन्तु इस विषय को नये Reseller से देखा जाता है जिससे इसके क्षेत्र में काफी वृद्धि हुई है। First लोक व्यय के अन्तर्गत इसमें वृद्धि के कारण, इसके प्रभाव, वर्गीकरण, आदि का ही विश्लेषण Reseller जाता था। आज लोक व्यय के अन्तर्गत जिन मुद्यों पर विशेष ध्यान दिया जाता है, वे हैं सार्वजनिक तथा निजी क्षेत्रों के सापेक्ष आकार, वे परिस्थितियों जहा बाजार यन्त्र टूट जाता है, सार्वजनिक क्षेत्र के आकार के निर्धारण में राजनीतिक समाधान का महत्व, आदि। दूसरा नया विषय है बहुस्तरीय वित्त (Multi-level Finance) जहां राजकोषीय संघ (Fiscal Federalism) की समस्याओं Meansात् केन्द्र, राज्य तथा स्थानीय सरकारों की वित्त की समस्याओं की विवेचना की जाती है। राज्य द्वारा निजी क्षेत्र को दी जाने वाली सब्सिडी (subsidy) Meansात Meansिक सहायता की प्रकृति तथा परिणामों की भी गहराई से खोज की जाने लगी है। लागत-लाभ विश्लेषण (Cost-enefit analysis) भी लोक वित्त का Single आकर्शक विषय बन गया है।

इस तरह लोक वित्त Meansशास्त्र का वह भाग है जो किसी देश की वित्त व्यावस्था तथा उससे स्मबन्धित प्रशासनिक And अन्य समस्याओं का अध्ययन करता है और अंतत: उसका उद्येष्य स्थिरता के साथ आर्थिक विकास की गति को बनाये रखना होता है। उपरोक्त description के आधार पर लोक वित्त के अध्ययन क्रम को इन भागों में विभाजित Reseller जा सकता है।

  1. सार्वजनिक व्यय
  2. सार्वजनिक आय 
  3. सार्वजनिक ऋण 
  4. वित्तीय प्रशासन 
  5.  राजकोषीय या वित्तीय-नीति

सार्वजनिक (या लोक) व्यय – 

लोक वित्त के इस अंग के अन्तर्गत यह अध्ययन Reseller जाता है कि सार्वजनिक व्यय किन-किन मदों पर करना आवश्यक है? व्यय का स्वReseller तथा परिमाण क्या हो? व्यय करते समय किन-किन नियमों And सिद्धान्तों का पालन Reseller जाए? इन व्ययों का राष्ट्रीय Meansव्यवस्था पर क्या प्रभाव पड़ता है ता इससे संबंधित कठिनाईयाँ क्या है? तथा उन्हे किस प्रकार दूर Reseller जा सकता है।

राज कीय अथवा सार्वजनिक व्यय का महत्व दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। जन कल्याण के All का सार्वजनिक व्यय पर ही निर्भर करते है। सार्वजनिक व्यय की मदों तथा उन पर व्यय की जाने वाली धनराशि जिसके आधार पर उस देश की आर्थिक, सामाजिक And राजनैतिक नीतियों तथा स्थितियों की समीक्षा की जा सकती है।

सार्वजनिक (या लोक) आय – 

इस अंग के अंतर्गत यह अध्ययन Reseller जाता है कि सरकार अपनी आय किन-किन स्त्रोतों से प्राप्त करती है। इसमें आय के विभिन्न स्त्रोतों का विश्लेषण वर्गीकरण, साधनों की गतिशीलता तथा उनके सापेक्षिक महत्व And सिद्धान्त का अध्ययन Reseller जाता है। इसके अतिरिक्त आय के इन स्त्रोतों का देश के उपभोग, उत्पादन वितरण, बचत तथा विनियोग पर क्या प्रभाव पड़ा है, का भी अध्ययन Reseller जाता है।

सार्वजनिक ऋण – 

इस अंग के अंतर्गत यह अध्ययन Reseller जाता है कि सरकारी ऋण क्यों और किस उद्ये’य हेतु लिए जाते है। राज्य किन सिद्धान्तों के आधार पर ऋण प्राप्त करता है? तथा इन ऋणों का भुगतान किस प्रकार Reseller जाता है। ऋणों के क्या प्रभाव पड़ते है? सार्वजनिक ऋणों से सम्बन्धित विभिन्न समस्याएँ क्या है? अल्पकालीन And दीर्घकालीन ऋणों का सापेक्षित महत्व क्या है? इत्यादि।

वित्तीय प्रशासन –

इस विभाग के अंतर्गत इस बात का अध्ययन Reseller जाता है कि सरकार वित्तीय क्रियाओं का प्रबंध किस प्रकार करती है? इसके अन्तर्गत विशेष Reseller से यह अध्ययन Reseller जाता है। कि बजट किस प्रकार बनाया जाता है, बजट बनाने के क्या उद्देश्य होते है, घाटे के बजट तथा आधिक्य के बजट का क्या महत्व है, इसके अतिरिक्त लेखों का अंकेक्षण करना भी इसके अतर्गत आता है।

वित्तीय प्रशासन लोक वित्त का सर्वाधिक महत्वपूर्ण विभाग है। First विश्वFight के बाद इसका महत्व काफी बढ़ गया है। प्रो0 बैस्टेबल लोक वित्त के इस भाग के महत्व को स्पष्ट करते हुए लिखते है कि ‘लोकवित्त’ की कोई पुस्तक तब तक पूर्ण नही कही जा सकती जब तक कि वह वित्तीय प्रशासन और बजट की समस्याओं का अध्ययन नही करती।

राजकोषीय या वित्तीय नीति –

लोक वित्त के Single भाग के Reseller में राजकोषीय अथवा वित्तीय नीति के महत्व को आधुनिक Meansशास्त्रियों ने स्वीकार Reseller है। स्थिरता के साथ आर्थिक विकास, को गति प्रदान करने के लिए आज वित्तीय नीति का सहारा लिया जाता है। वित्तीय नीति के द्वारा देश में उत्पादन क्रियाओं को नियमित करके, राष्ट्रीय आय के वितरण को न्यायपूर्ण बनाकर तथा कीमतों में स्थिरता लेकर आर्थिक विकास के लक्ष्य को प्राप्त Reseller जा सकता है।
इस तरह, नियोजित आर्थिक विकास हेतु राजकोषीय नीति का प्रयोग And अध्ययन लोक वित्त की विषय वस्तु का Single प्रमुख अंग है।

लोकवित्त की प्रकृति

लोक वित्त की प्रकृति के विवेचन हेतु यह जानने का प्रयास Reseller जाता है कि लोक वित्त विज्ञान है। अथवा कला ? विज्ञान ज्ञान का वह शास्त्र है जिसमें किसी विषय का क्रमबद्ध अध्ययन Reseller जाता है। यह अध्ययन निरीक्षण, प्रयोग And विश्लेषण पर आधारित होता है। इस तरह के अध्ययन के आधार पर जो नियम बनाए जाते है या निष्कर्ष निकाले जाता है, उनका स्वभाव वैज्ञानिक होता है। इस आधार पर लोक वित्त को विज्ञान कहना अनुचित नहीं होगा। परन्तु यह ध्यान देने योग्य है कि लोक वित्त Single स्वतंत्र विज्ञान नही है बल्कि Single आश्रित विज्ञान है क्योंकि इसका Meansशास्त्र तथा राजनीति शास्त्र से घनिष्ट सम्बन्ध है और यह उन पर आश्रित है।

विज्ञान भी दो प्रकार के होते है- प्राकृतिक विज्ञान (Positive Science) तथा आदर्श विज्ञान (Normative Science) प्राकृतिक विज्ञान में हम वास्तविक And वस्तु स्थिति का अध्ययन करते है। वह क्या है? का उत्त्ार देता है परन्तु क्या होना चाहिए? से इसका सम्बन्ध नहीं है। वास्तविक विज्ञान उस दीप स्तंभ की तरह है जो जहाज को रोषनी दिखाता है और इंगित करता है कि यहाँ चटृान है परन्तु यह नहीं बताया कि जहाज हमारा ध्यान आकर्शित करता है। इस तरह, आदर्श विज्ञान ज्ञान का वह पंजु होत है जिसका सम्बन्ध आदर्शों को स्थापित करना होता है। इस दृष्टि से दोनो विज्ञानों में ‘वस्तु स्थिति’ तथा ‘आर्दष’ का अंतर है।

लोक वित्त के अंतर्गत तथ्यों का अध्ययन दोनो दृष्टिकोणो से Reseller जाता है। कला ज्ञान का व्यावहारिक स्वReseller है। किसी बात का ज्ञान तो विज्ञान है और उस ज्ञान को व्यावहारिक स्वReseller प्रदान करने के लिए जब नियम बनाए जाते है तो उसे कला कहते है। इस तरह किसी काय्र को रोकने के लिए व्यावहारिक नियमों को बताना ही कला है। इस दृष्टि से लोकवित्त कला भी है। यह कला का Reseller उस समय धारण कर लेता है जब किसी देश की सरकार विविध स्त्रोतो से प्राप्त अपनी आय को इस प्रकार व्यय करने का निश्चय करती है ताकि सामाजिक कल्याण अधिकतम हो सके। सामाजिक कल्याण में वृद्धि के लिए सरकार का यह भी दायित्व हो जाता है कि राजकोषीय नीति का इस तरह प्रयोग करें ताकि समाज में धन And आय के वितरण की विशमता को समाप्त Reseller जा सके।

इस तरह निष्कर्ष के Reseller में कहा जा सकता है कि लोक वित्त विज्ञान तथा कला दोनों है। जब हम सार्वजनिक आय And व्यय के सिद्धान्तों And नियमों का अध्ययन करते है तो यह लोक वित्त का वैज्ञानिक पहलू होता है और जब इन सिद्धान्तों And नीतियों का प्रयोग सरकार की वित्तीय समस्याओं को हल करने में Reseller जाता है तो वही लोक वित्त का कलात्मक पहलू हो जाता है।

लोक वित्त का महत्व

प्राचीन काल में राज्य के कार्य सीमित थे, अत: लोक वित्त का महत्व भी उसी के अनुReseller कम था। लोक वित्त का महत्व राज्यों की आर्थिक क्रियाओं से सम्बद्ध होता है। प्रारम्भ में सरकार के कार्य केवल वाह्मा आक्रमण से Safty तथा न्याय तक ही सीमित थे, फलस्वReseller सरकार का कोश भी सीमित ही रखा जाता था। क्लासिकल Meansशास्त्री भी अहस्तक्षेप नीति के समर्थक (Laissez-faire) थे और चाहते थे कि आर्थिक क्रियाओं के स्वत: संचालन में सरकार को किसी तरह का हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए इस तरह के सरकार के अल्प योगदान पर विश्वास करते थे। युग बदला, परिस्थितियाँ बदली, राज्य के कार्यों And उनके योगदान में परिवर्तन हुए तथा राज्य के अहस्तक्षेप नीति के भयंकर दोश सामने आने लगे। इग्लैंड के राबर्ट ओवन, फ्रांस के सिसमांडी तथा जर्मनी के फ्रेडरिक लिस्ट ने इस नीति की कटु आलोचना करते हुए राज्य को आगे आने का आह्मान Reseller। अहस्तक्षेप नीति पर सबसे प्रभावपूर्ण And कारगर प्रहार कार्ल मार्क्स, लास्की, वेब्स तथा जे0 एम0 कीन्स ने Reseller। वास्तविकता तो यह है कि राज्य के क्षेत्र And महत्व का विकास 19वीं शताब्दी के अंत से ही प्रराम्भ हो चुका था जिसका श्रेय जर्मन Meansशास्त्री वैगनर (Wagner) को है उन्होने ‘राज्य की बढ़ती हुई क्रियाओं का नियम’प्रतिपादित Reseller था। राज्य के कार्यों में वृद्धि के साथ ही साथ लोक वित्त का क्षेत्र And महत्व भी बढ़ता जा रहा है। अब राज्य केवल देश की रक्षा And नागरिकों की Safty ही नहीं करता वरन् कल्याणकारी राज्य के Reseller में वह देश के लोगों की बीमारी, गरीबी, अशिक्षा को दूर करने के साथ-साथ नागरिको के जीवन के प्रत्येक पहलू पर अपना नियंत्रण रखता है स्थिति यह है कि आज राज्य Human के समस्त आर्थिक क्षेत्रों-उत्पादन,उपयोग, विनिमय तथा वितरण में प्रेवष कर चुका है। कीन्स के ‘सामान्य सिद्धान्त’ के प्रकाशन के बाद देश की आर्थिक क्रियाओं में राज्य के हस्तक्षेप और लोक वित्त के महत्व में क्रांतिकारी परिर्वतन आया। कीन्स ने प्रतिपादित Reseller कि देश में आर्थिक स्थिरता तथा रोजगार में वृद्धि राज्य के हस्तक्षेप द्वारा प्राप्त Reseller जा सकता है। सरकार राजकोषीय And मौद्रिक नीतिक का सहारा लेकर Meansव्यवस्था को वांछित दिशा में ले जा सकती है। आज विकसित देश आर्थिक स्थायित्व के लिए तथा विकासशील देश स्थिरता के साथ तीव्र आर्थिक विकास के लिए प्रयत्नशील हैं। परिणामस्वReseller इन देशों में राज्य And लोकवित्त का महत्व अपेक्षाकृत बढ़ता जा रहा है। सरकार अपनी राजकोषीय नीति के द्वारा स्थिरता के साथ विकास तथा राष्ट्रीय आय के न्यायोचित वितरण आदि उद्येष्यों को सुगमतापूर्वक प्राप्त कर सकती है। राज्य आज आर्थिक विकास को बढ़ावा देने, बाहय-आक्रमण से Safty तथा आंतरिक शान्ति बनाए रखने, सामाजिक Safty तथा जनकल्याणकारी कार्यो के कार्यान्वयन करने, सामाजिक बुराइयों को दूर करने, षिशु उद्योगों को संरक्षण प्रदान कर विदेशी प्रतियोगिता से बचाने के लिए, आर्थिक विशमता को समाप्त करने के लिए, दुर्लभ साधनों के सर्वोंत्त्म ढंग से आवंटन के लिए, राष्ट्रीय उपक्रमों का विकास करने तथा बेरोजगारी दूर करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। ये महत्वपूर्ण कार्य सरकार राजकोषीय नीति के द्वारा सुगमतापूर्वक कर सकती है। कोई भी राज्य कुशलतापूर्वक अपने उक्त कार्यों का सम्पादन तब तक नहीं कर सकती जब तक कि उसके पास सुसंगठित लोकवित्त नहीं होगा। इस तरह, राज्य के कार्यों And महत्व में वृद्धि होने से लोकवित्त के महत्व में अधिक वृद्धि हो चुकी है।

लोकवित्त की सीमाएँ

लोक वित्त से सम्बन्धित नीतियाँ राष्ट्रीय आय, उत्पादन And रोजगार पर वांछित प्रभाव डालने And अवांछित प्रभावों को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है और इस तरह देश के आर्थिक जीवन को प्रभावित करने में भारी योगदान प्रदान करती है। देश के आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के बावजूद लोक वित्त की नीतियों की अपने कुछ सीमाएँ भी है यथा- (i) कर प्रणाली में मनचाहा परिवर्तन करना सुगम नहीं होता। सामान्यतया लोग नए करों का विरोध करते है। (ii) कभी-कभी सरकारी व्यय में वृद्धि से निजी निवेश में गिरावट आने लगती है। सार्वजनिक क्षेत्र के विकास से निजी क्षेत्र का संकुचन होने लगता है। (iii) सार्वजनिक निर्माण कार्यक्रम तभी सफल हो सकते है जब उन्हे उचित समय पर क्रियान्वित Reseller जाए परन्तु इस उचित समय Meansात् मंदी का पुर्वानुमान लगाना कठिन होता है। (iv) सार्वजनिक निर्माण कार्यों को तुरंत लागू करना सदैव संभव नहीं हो पाता। सरकारी मशीनरी अपने ढंग से कार्य करती है, अत: निर्माण कार्यो को प्रारम्भ करने में कुछ न कछु देरी तो हो ही जाती है।

इस तरह अकेली लोकवित्तीय नीति Meansव्यवस्था को स्थिरता के साथ विकास के पथ पर तेजी से ले जाने में पूर्णतया समर्थ नहीं है। अत: सरकार मंदी And बेरोजगारी का प्रभावपूर्ण ढंग से सामना करने तथा स्थिरता के तीव्र आर्थिक विकास के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए राजकोषीय नीति के साथ-साथ मौद्रिक नीति का भी सहारा लेती है। समन्वित मौद्रिक And राजकोषीय नीति के क्रियान्वयन से ही Meansव्यवस्था में वाछित लक्ष्य प्राप्त किये जा सकते है।

लोक-वित्त And निजी-वित्त में भेद

लोक वित्त तथा निजी वित्त में सामान्यतया ऊपरी तौर पर कोई विशेष भिन्नता दृष्टिगोचर नहीं होती क्योकि दोनो का उद्देश्य आय तथा व्ययय के बीज सामंजस्य अथवा संतुलन स्थापित करना होता है। दोनो की समस्याएँ Single सी है तथा दोनो का उददेश्य अपनी आय तथा व्यय से अधिकतम सतोश प्राप्त करना होता है। निजी व्यय इसलिए होता है ताकि ‘अधिकतम संतुष्टि’ की प्राप्ति हो सके और सार्वजनिक व्यय इसलिए Reseller जाता है ताकि उससे ‘अधिकतम् सामाजिक लाभ’ उपलब्ध हो सके। इसलिए अतिरिक्त देश की आर्थक स्थिति में किसी भी प्रमुख परिवर्तन का प्रभाव व्यक्ति तथा सरकार दोनो की वित्तीय स्थिति पर पड़ता है। फिर भी लोक वित्त तथा निजी वित्त की प्रकृति, उद्देश्य, सिद्धान्त व्यवस्था तथा प्रशासन आदि में आधारभूत And मौलिक भेद हैं जिनकी क्रमबद्ध विवेचना है।

आय तथा व्यय के समायोजन में भेद

सामान्यतया व्यक्ति अपनी आय के According व्यय करता है। वह First आय को देखता है फिर उसी According अपने व्यय को निर्धारित करता है। इसके विपरीत, सरकार First अपना व्यय निश्चित कर लेती है फिर उस व्यय के According आय के साधन जुटाने की व्यवस्था करती है।

परन्तु दोनो की वित्त व्यवस्थाएँ अनेके व्यावहारिक कठिनाईयों के कारण सदैव ही उपरोक्त सिद्धान्तों के According नहीं चल पाती है। कभी-कभी व्यक्ति को कुछ विशेष अवसरों पर अपनी आय के अधिक व्यय करना पड़ता है। जैसे-विवाह, त्यौहारों And अन्य सामाजिकक उत्सवों के अवसर पर व्यक्ति का व्यय बढ़ जाने पर वह अतिरिक्त कार्य करके, आराम का त्याग कर, कठिन परिश्रम करके अपनी आय को बढ़ाने के लिए प्रयास करता है। इसी तरह कभी-कभी सरकारें भी अपनी आय के According ही व्यय को समायोजित करती है। इसके अतिरिक्त सदैव यह आवश्यक नही है कि सरकार अपने व्यय के अनुReseller आय को प्राप्त करने में सफल ही हो जाए। कभी-कभी सरकार को अपनी खर्चों में कटौती भी करनी पड़ती है। इस सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त करते हुए प्रो0 फिण्डले शिराज कहते है कि निजी वित्त तथा लोक वित्त में अंतर केवल मात्रा का है प्रकृति का नहीं।

उददेश्यों में भिन्नता 

  1. व्यक्ति सदैव अपने हित की भावना से प्रेरित होकर कार्य करता है जबकि सरकार के कार्यों का उद्येश्य सामाजिक कल्याण को अधिकतम् करना होता है। इस सम्बन्ध में डी0 मार्कों का कथन है कि ‘‘निजी-वित्त व्यवस्था में व्यक्तियों की, उनकी इच्छाओं की पूर्ति करने सम्बन्धी क्रियाओं का ही अध्ययन Reseller जाता है जबकि लोक-वित्त में सकरार की उत्पादन क्रियाओं का जो सामूहित इच्छाओं की पूर्ति के लिए की जाती है, का अध्ययन Reseller जाता है।’’
  2. व्यक्ति व्यय करते समय प्राय: सम-सीमांत उपयोगिता नियम को पालन करने का प्य्रास करता है ताकि वह अपनी निश्चित आय से अधिकतम् संतुष्टि प्राप्त कर सकें। परन्तु सरकार के लि ऐसा पाना संभव नहीं हो पाता क्योकि सरकार को अधिकांशत: अपना व्यय राजनीतिक आधार पर करना पड़ता है भले ही उससे मिलने वाली उपयोगिता कितनी ही कम क्यों न हो। इस तरह, सरकार के सामाने व्यय के चुनाव की स्ंवत्रंता बहुत सीमित होती है। जबकि व्यक्ति अपना व्यय अपनी इच्छा And अभिरूचि के अनुReseller निश्चित कर सकता है।
    सामान्यता व्यक्ति अपने वर्तमान And तत्कालीन Needओं को संतुष्ट करने का प्रयास करता है और उसी के अनुReseller व्यय करता है जबकि सरकार वर्तमान And भविश्य के हितों को ध्यान में रखकर अपने व्यय को निर्धारित करती है। डाल्टन ने इस सम्बन्ध में कहा है कि राज्य ने केवल वर्तमान के लिए बल्कि भावी पीढ़ियों के लिए भी Single प्रन्यासी होता है, राज्य अमर है जबकि व्यक्ति मरणशील है। इसलिए व्यक्ति प्राय: शीघ्र लाभ प्राप्त करने को उत्सुक रहता है।

आय के साधनों में लोच-सम्बन्धी अन्तर

सरकार की आय तथा उसके प्राप्त करने के साधन निजी आय And उसके साधनों की अपेक्षा अधिक लोचपूर्ण होते हैं। सरकार अपनी आय को पुराने करों की दर में वृद्धि करके, नए कर लगाकर, नोट छापकर, आंतरिक And वाह्मा ऋण प्राप्त करके तथा लाभ कमाने वाले उद्योगों का राष्ट्रीकरण करके बढ़ सकती है। कोई व्यक्ति उपरोक्त साधनों का प्रयोग नहीं कर सकता।

इस सम्बन्ध में कुछ विद्धानों का मत है कि सरकार अपनी आय को सीमा से अधिक नहीं बढ़ा सकती। वह Single सीमा के बाद मनमाने ढंग से कर को नहीं बढ़ा सकती, नोट को नहीं छाप सकती तथा बाह्म ऋण भी नहीं प्राप्त कर सकती। सरकारी वित्त व्यवस्था केवल Fight या आपातकालीन परिस्थितियों मे अधिक लोचपूर्ण बनायी जा सकती है। जैसे-जैसे सरकार की आय बढ़ती है। वैसे-वैसे व्यक्तियों की व्यक्तिगत आय कम होती जाती है। इस सम्बन्ध में श्रीमती हिक्स का विचार है कि सरकार अपनी आय बढ़ानें के बजाय उस अनुपात को बदल सकती है। जिसमें देश की सम्पूर्ण आय सरकार तथा नागरिकों के बीच बंटी रहती है।

बजट की प्रकृति में अंतर 

Single व्यक्ति के बजट का अतिरेक होना उस व्यक्ति की कुशलता And दूरदर्शिता का प्रमाण समझा जाता है कि जबकि सरकार के बजट में अतिरेक का होना वित्त मंत्री की अकुशलता को प्रदर्शित करता है। सरकार के अतिरेक बजट का Means है-’उच्च स्तरीय कराधान तथा निम्न स्तरीय व्यय। ये स्थितियाँ Single जन हितकारी सरकार के लिए उचित नहीं समझी जाती है। जहाँ अधिक कर देना देश की जनता के लिए कष्टकारी होता है वही सरकार द्वारा सार्वजनिक हित के कार्यक्रमों पर कम व्यय करना असंतोश पैदा करता है। सार्वजनिक वित्त में बजट का संतुलित होना ही उचित समझा जाता है। कभी-कभी घाटे का बजट भी उपयुक्त होता है। इस सम्बन्ध में फिन्ढले शिराज का कथन है,’’ यदि किसी सरकार का बजट अतिरेक बतलाता है तो इससे देश के वित्त मंत्री की अकुशलता का परिचय मिलता है। सरकारी बजट का संतुलित होना ही उचित समझा जाता है और कभी-कभी घाटे का बजट बनाना भी युक्तिपरक होता है।’’

गोपनीयता का अंतर

प्रत्येक व्यक्ति अपनी आय तथा व्यय सम्बन्धी बातों का description अन्य लोगो पर प्रकट नहीं करना चाहता और उसे गुप्त रखने का प्रयास करता है। इसके विपरीत सरकारी बजट में पूर्णResellerेण पारदर्शिता रहती है। सरकार अपने बजट को समाचार पदो And अन्य प्रचार माध्यमों के द्वारा प्रसारित करती है ताकि जनता उसके बारे में भली भॉति जान सके तथा टीका-टिप्पणी कर सके।

अवधि में अंतर

सरकार Single निश्चित अवधि, सामान्यता Single वर्श की अवधि के लिए आय-व्यय का बजट तैयार कती है परन्तु व्यक्तिगत Means प्रबंधन में कोई व्यिक्त् अथवा परिवार ऐसी किसी निश्चित अवधि के लिए अपने आय-व्यय का लेखा तैयार नहीं करता। सरकार की योजनाएँ अत्यधिक विस्तृत होती है जबकि व्यक्ति की योजनाएँ बहुत लघु स्तर की होती है।

राज्य का अपेक्षाकृत अधिक प्रभुत्व 

राज्य का प्रभुत्व व्यक्ति की अपेक्षा अधिक होता है Meansात् राज्य अधिक शक्तिशाली होता है। यद्यपि व्यक्ति और राज्य के स्त्रोत कुछ अंश तक Single जैसे है, यथा- दोनों ही अपनी आय प्राप्त कर सकते है। दोनो ही दूसरों से दान ले सकते है और दोनो ही ऋण ले सकते है, फिर भी राज्य शक्तिशाली होने के कारण व्यक्तियों की सम्पत्ति कर अपना अधिकार जमा कर सकता है और Need पड़ने पर उसको हड़प भी सकता है। परन्तु, Single व्यक्ति किसी Second व्यक्ति की सम्पत्ति को हड़प नहीं सकता है।

इसके अतिरिक्त सरकार का नागरिकों पर प्रभुत्व होने के कारण वह अपने नागरिकों को ऋण देने के लिए विवश कर सकती है, जबकि Single व्यक्ति Second व्यक्ति को ऋण देने के लिए बाध्य नहीं कर सकता।

विचारपूर्ण व्यय 

व्यक्तिगत व्यय प्राय: आदतों, रीति-रिवाजों तथा उस सामाजिक वर्ग की आर्थिक And व्यावसायिक परिस्थितियों से प्रभावित होता है जिसका कि वह सदस्य होता है। इसके विपरीत, सार्वजनिक व्यय का आकार व स्वReseller सरकार द्वारा पूर्ण निश्चित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए सोच-समझ कर बनाई गयी नीतियों पर निर्भर करता है।

इस प्रकार लोक वित्त And निजी व्यवस्था में अनेक अंतर पाए जाते है परनतु कुछ विद्धानों का मत है कि दोनो में कोई मौलिक अंतर नही है। इन दोनो में मात्र अंश का ही अंतर है। यदि अंतर है तो मात्र इता कि Single का सम्बन्ध केन्द्र, राज्य तथा स्थानीय निकायों के आय-व्यय से है तो Second का सम्बन्ध निजी व्यिक्यों तथा परिवारों के आय-व्यय से है।

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