वित्तीय प्रबंध की प्रकृति, क्षेत्र तथा उद्देश्य (Financial Management )

मनुष्य द्वारा अपने जीवन काल में प्राय: दो प्रकार की क्रियाएं सम्पादित की जाती है

  1. आर्थिक क्रियायें
  2. अनार्थिक क्रियाएं ।

आर्थिक क्रियाओं के अन्र्तगत हम उन समस्त क्रियाओं को सम्मिलित करते हैं जिनमें प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष Reseller से धन की संलग्नता होती है जैसे रोटी, कपड़े, मकान की व्यवस्था आदि।

अनार्थिक क्रियाओं के अन्तर्गत पूजा-पाठ, व अन्य सामाजिक व राजनैतिक कार्यों को सम्मिलित Reseller जा सकता है। जब हम किसी प्रकार का व्यवसाय करते हैं अथवा उद्योग लगाते हैं अथवा फिर कतिपय तकनीकी दक्षता प्राप्त करके किसी पेषे को अपनाते हैं। तो हमें First वित्त (Finance), धन (Money), की Need पड़ती है जिसे हम पूँजी (Capital) कहते हैं।

जिस प्रकार किसी मशीन को चलाने हेतु उर्जा के Reseller में तेल, गैस या बिजली की Need होती है उसी प्रकार किसी भी आर्थिक संगठन के संचालन हेतु वित्त की Need होती है। अत: वित्त जैसे अमूल्य तत्व का प्रबन्ध ही वित्तीय प्रबन्धन कहलाता है। व्यवसाय के लिये कितनी मात्रा में धन की Need होगी, वह धन कहॉं से प्राप्त होगा और उपयोग संगठन में किस Reseller में Reseller जायेगा, वित्तीय प्रबन्धक को इन्हीं प्रष्नों के उत्तर खोजने पड़ते हैं। चूँकि व्यवसाय का उद्देश्य अधिकतम लाभ (Profit maximization) अर्जन करना होता है। अत: अधिकतम लाभ का अर्जन दो प्रकार से Reseller जा सकता है।

Nature, scope and objectives of financial management

  1. निर्मित वस्तु का मूल्य बढ़ाकर अथवा वस्तु को अत्यधिक लाभ में बेचकर
  2. निर्मित वस्तु की उत्पादन लागत घटाकर अथवा खरीदी गर्इ वस्तु पर कम लाभ लेकर अधिक मात्रा में बिक्री करके। वित्तीय प्रबन्धन का प्रमुख उद्देश्य लाभ And व्यवसाय की परिसम्पत्तियों को अधिकतम करना होता है। प्रतिस्पर्धा के कारण हम First विकल्प पर विचार नहीं कर सकते। संगठन को दीर्घकाल तक संचालित करने हेतु Second विकल्प Meansात वस्तु की उत्पादन लागत घटाकर, तथा खरीदी गर्इ वस्तु की अधिक मात्रा बेचकर ही लाभ को अधिकतम Reseller जाना श्रेयस्कर होगा।

वित्तीय प्रबन्ध विचारधारा

वित्तीय प्रबंधन के सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों द्वारा अपने विचार व्यक्त किये गये हैं। कतिपय विद्वान परम्परागत (Traditional) विचारधारा के मानने वाले हैं तथा कुछ विद्वानों ने आधुनिक संदर्भ में वित्तीय प्रबन्धन को परिभाषित Reseller है।

1. परम्परागत विचार धारा –

परम्परागत विचारधारा के अन्तर्गत वित्तीय प्रबन्धन का प्रमुख कार्य ‘कोषो की व्यवस्था’ (Procurement of funds) तक सीमित माना जाता है। इसके अन्तर्गत पूंजी शक्ति के साधनों, संस्थागत स्रोतो, प्रचलित व्यवहारों (Curremt Practices) के अध्ययन को प्रमुखता दी जाती है। इस विचारधारा के समर्थक विद्वानों में थामस, एलग्रीन, र्इ0एस0 मीड, ए0एम0 डेविंग, सी0डब्ल्यू0 गेस्टर्नवर्ग, हण्ड एण्ड विलियम्स आदि प्रमुख थे जिनकी पुस्तकें सन 1897 से 1950 के बीच के वर्षों में प्रकाशित हुर्इ।

2. आधुनिक विचारधारा –

आधुनिक विचारधारा के समर्थक विद्वान वित्त प्रबन्धन के अन्तर्गत कोषों की व्यवस्था (Procurement of funds) के साथ साथ कोषों के उपयोग (Use of funds) को भी आवश्यक मानते हैं। इस विचारधारा के According वित्तीय प्रबन्ध व्यावसायिक प्रबन्धन का प्रमुख अंग बन गया है। व्यवसाय के संचालन एंव निर्णयन And विश्लेषण में वित्तीय प्रबन्धन की महती भूमिका सुनिश्चित हो चुकी है।

परम्परागत And आधुनिक विचारधाराओ में अन्तर

Nature, scope and objectives of financial management

आधार परम्परागत विचारधारा आधुनिक विचारधारा
1. क्षेत्र
2. सीमा

3. निर्णयन
4. कार्य

5. आधार

6. काल

वर्णनात्मक तथा संकुचित थी
अनियमित या कभी कभी कार्य
में संलग्नता

निर्णयन में सक्रिय भूमिका नहीं
संगठन के लिए कोषों की
व्यवस्था करना
निर्णय के आधार अन्र्तप्रेरणा
व पूर्व अनुभव
दीर्घकालीन, कोषों के प्रबन्ध
पर अधिक बल

विश्लेषणात्मक And व्यापक
अनवरत् तथा नियमित कार्य

निर्णयन में सक्रिय भूमिका
कोषों की व्यवस्था के साथ साथ
सम्यक उपयोग सुनिश्चित करना
वैज्ञानिक विश्लेषण की आधुनिक
विधियों का प्रयोग
कार्यषील पूॅंजी प्रबन्धन व
अल्पकालीन,कोषों के प्रबन्ध पर
बल

 

वित्तीय प्रबन्ध की परिभाषा

  1. हावर्ड And उपटन (Haward and Upton) वित्तीय प्रबन्ध से आशय नियोजन एंव नियंत्रण कार्यो को वित्त कार्य पर लागू करना है।
  2. जे एल. मैसी (J.L.Massie) वित्तीय प्रबन्ध Single व्यवसाय की वह संचालनात्मक प्रक्रिया है जो कुशल प्रचालनों के लिए आवश्यक वित्त को प्राप्त करने तथा उसका प्रभावषाली ढंग से उपयोग करने हेतु उत्तरदायी होता है।
  3. वियरमैन व स्मिथ (Bierman andsmith) वित्तीय प्रबन्ध पँूजी के स्रोतों का निर्धारण करने तथा उसके अनुकूलतम उपयोग का मार्ग खोजने वाली विधि है।
  4. वेस्टर्न And जाइगम के Wordों में वित्तीय प्रबन्धन वित्तीय निणर्य न की वह प्रक्रिया है जो व्यक्तिगत मामलों And उपक्रम के लक्ष्यों के मध्य मेल स्थापित करती है।

वित्तीय प्रबन्ध की प्रकृति

1. केन्द्रीय प्रकृति –

व्यवसायिक प्रबन्धन के अन्तर्गत वित्तीय प्रबन्धन ही ऐसा क्षेत्र है, जिसकी प्रकृति केन्द्रीयकृत होती है। आधुनिक औद्योगिक प्रबन्धन में विपणन व उत्पादन कार्यों को हम विकेन्द्रीकृत करके सफल हो सकते हैं किन्तु वित्त कार्य का विकेन्द्रीकरण सम्भव नहीं होता है। Meansात इसे हम अनेक व्यक्तियों के मध्य विभाजित नहीं कर सकते। चूॅंकि वित्त कार्य में समन्वय व नियंत्रण की स्थिति केन्द्रीयकरण द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है।

2. निर्णयन में सहायक  – 

आधुनिक संदर्भ में वित्तीय प्रबन्धन, सर्वोच्च प्रबन्धन को निर्णय लेने में सहायता पहुॅंचाता है। Meansात सर्वोच्च प्रबन्धन की सफलता वित्तीय प्रबन्ध के कुशल मार्गदर्षन से ही सम्भव होती हैं।

3. व्यावसायिक समन्वय  – 

विभिन्न व्यावसायिक गतिविधियों को Single सूत्र में बॉंधने का कार्य वित्त के द्वारा ही Reseller जाता है। विभिन्न क्रियाओं के मध्य समन्वय स्थापित करके हम व्यावसायिक लागतों (Business costs) को उचित सीमाओं में बॉंध सकते हैं। समन्वय के द्वारा उपलब्ध संसाधनों का अनुकूलतम आवंटन (Optimum allocation) तथा अधिकतम उपयोग सम्भव हो सकता है।

4. कार्य निष्पत्ति का मापक  –

किसी भी संगठन के कार्य निश्पात्ति का मापन हम वित्त के माध्यम से ही कर सकते है। वित्तीय निर्णयन का प्रभाव नीति निर्धारण, जोखिम की मात्रा And लाभदायकता पर पड़ता है। Meansात ‘‘वित्तीय निर्णयन आय की मात्रा तथा व्यावसायिक जोखिम, दोनों तत्वों को प्रभावित करते हैं। तथा इन दोनों कारकों द्वारा सामूहिक Reseller से फर्म के मूल्य को निर्धारित Reseller जाता है।’’

5. विश्लेषणात्मक And व्यापक स्वReseller  – 

परम्परागत वित्तीय प्रबन्धन विगत अनुभव तथा अन्तपरे्र णा से पे्रि रत था किन्तु आधुनिक वित्तीय प्रबंधन के अन्तर्गत सांख्यकीय आँकड़ों तथा तथ्यों के आधार पर परिस्थिति विशेष में हानि तथा लाभ का मूल्यांकन करके तदनुReseller निर्णयन द्वारा जोखिम की मात्रा को कम Reseller जा सकता है। वित्तीय प्रबन्धन का वर्तमान स्वReseller विश्लेषणात्मक (Analytical) है न कि वर्णनात्मक (Descriptive)।

6. सतत प्रशासनिक क्रिया  – 

वित्तीय पब्रधंन के पारम्परिक स्वReseller में वित्तीय प्रबन्ध का कार्य कोषों की व्यवस्था (Procurement of funds) तक सीमित था, संगठन की स्थापना के आरम्भिक चरण में अथवा पुर्नगठन, के समय में ही वित्तीय प्रबन्धन की महती भूमिका रहती थी। किन्तु वर्तमान युग में वित्तीय प्रबन्धन कार्य Single सतत प्रषासनिक प्रक्रिया है। जो व्यवसाय की स्थापना से लेकर संचालन, तथा समापन तक अनवरत जारी रहता है।

वित्तीय प्रबन्ध का क्षेत्र

जैसा कि हम पूर्व में अध्ययन कर चुके हैं कि वित्तीय प्रबन्धन की पारम्परिक विचारधारा के अन्तर्गत वित्तीय प्रबन्धक का कार्य केवल वित्त प्राप्ति की व्यवस्था (Procurement of funds) तक ही सीमित था किन्तु वित्तीय प्रबन्ध की विचारधारा में परिवर्तन And परिमार्जन के साथ ही वित्तीय प्रबन्ध के क्षेत्र में भी व्यापक परिवर्तन हुआ है। अब वित्त प्रबन्धन कोषों की व्यवस्था के साथ-साथ उपलब्ध कोषों के प्रभाव पूर्ण उपयोग (Effective Utilisation) हेतु भी उत्तरदायी होता है। Meansात वर्तमान युग में वित्तीय प्रबन्धक नियोजन की प्रक्रिया (Process of Decision making) से घनिश्ठतापूर्वक जुड़ गया है। आधुनिक संदर्भों में वित्तीय प्रबन्धन का क्षेत्र निम्नलिखित कार्यों तक फैला हुआ है।

1. वित्तीय नियोजन में सहायक  –

वर्तमान युग में वित्तीय प्रबन्धन की भूमिका वित्तीय नियोजन के क्षेत्र में अग्रणी है। इसके अन्र्तगत उद्देश्यों, नीतियों, And कार्यविधियों का निर्धारण, वित्तीय योजनाओं And पूंजी ढांचे का निर्माण आदि को सम्मिलित Reseller जाता है।

2. वित्त प्राप्ति की व्यवस्था  –

वित्तीय प्रबन्धन का प्रमुख कार्य संगठन के प्रस्तावित पूंजी ढांचे के अनुReseller विभिन्न श्रोतों से व्यवसाय संचालन हेतु अपेक्षित पूंजी की व्यवस्था करना होता है।

3. वित्त कार्य का प्रशासन  – 

इसके अन्तगर्त वित्तीयप्रबन्धन द्वारा वित्त विभाग And उवविभागों का संगठन, कोषाध्यक्ष (Treasurer) तथा नियंत्रक (Controller) के कार्यों, दायित्वों And अधिकारों का निर्धारण And लेखा पुस्तकों के रख-रखाव की व्यवस्था की जाती है। वित्तीय प्रबन्ध सम्पत्तियों के प्रभाव पूर्ण उपयोग And प्रबंधन हेतु भी उत्तरदायी होता है। स्थिर सम्पत्तियों (Fixed Assets) के क्रय सम्बन्धी वित्तीय पहलुओं पर उचित परामर्ष के साथ-साथ चल सम्पत्तियों  की समयानुकूल आपूर्ति सुनिश्चित करना भी वित्तीय प्रबन्धन के कार्य क्षेत्र में सम्मिलित होता है। वित्तीय नियंत्रण वित्तीय प्रषासन का प्रमुख अंग है।

वित्तीय प्रबन्ध द्वारा वित्तीय नियन्त्रण के माध्यम से ही व्यावसायिक लक्ष्यों की पूर्ति (अर्तिाकतम लाभार्जन) की जा सकती है। वित्तीय नियंत्रण की स्थापना हेतु पूॅंजीबजटिंग, रोकड़ बजट, तथा लोचपूर्ण बजटिंग नामक तकनीकों का प्रयोग Reseller जा सकता है।

4. शुद्ध लाभ का आवटंन  – 

लाभॉश नीति का निर्धारण वित्तीय प्रबन्धक का प्रमुख कार्य होता है। शुद्ध लाभ का कितना भाग अंशधारकों के मध्य वितरित Reseller जाय तथा कितना भाग संचित कोषों के Reseller में रोक (Retain) लिया जाय, जिसका प्रयोग संगठन के विकास, सम्वर्धन And लाभदेयकता में वृद्धि हेतु Reseller जा सके। इस निर्णय का सीधा प्रभाव अंशों के भावी बाजार मूल्यों पर पड़ता है। यदि हम समस्त शुद्ध लाभ के अधिकांष भाग को अंशधारकों के मध्य विभाजन का निर्णय लेते हैं तो अल्पकाल में अंशों के बाजार मूल्य में वृद्धि स्वाभाविक है किन्तु संगठन के विकास की भावी योजनाओं को क्रियान्वित नहीं Reseller जा सकेगा, तथा दीर्घ काल में संगठन की लाभदेयकता प्रभावित हो सकती है। इसके विपरीत यदि वित्तीय प्रबंधक समस्त लाभों या लाभ के अधिकांष भाग को प्रतिधारित (Retained) करता है। तो अंशों का बाजार मूल्य अत्यन्त कम हो सकता है। परिणाम स्वReseller भविष्य में पूंजी संग्रहण की कठिनार्इ आ सकती है अत: लाभों के आवंटन में वित्तीय प्रबन्धन की भूमिका पर संगठन का भावी विकास And अंशों का बाजार मूल्य प्रभावित होता है।

5. विकास And विस्तार  – 

वित्तीय प्रबन्धन संगठन के भावी विकास, And विस्तार हेतु भी उत्तरदायी होता है। संगठन के विकास And विस्तार हेतु अतिरिक्त पूंजी की लागत, स्वामित्व, नियंत्रण, जोखिम, And आय पर पड़ने वाले प्रभावों का विश्लेषण भी वित्तीय प्रबन्धन के क्षेत्र में सम्मिलित होता है।

वित्तीय प्रबन्ध का उद्देश्य

संगठन के समस्त प्राResellerों (Singleल, साझेदारी, कम्पनी) का अंतिम लक्ष्य संगठन के संचालन से होने वाले लाभों को अधिकतम करना होता है। वित्तीय प्रबन्ध का प्राथमिक उद्देश्य उपलब्ध समस्त, Humanीय And भौतिक साधनों का अधिकतम, कुशलतम, And मितव्ययी उपयोग करके लाभ को अधिकतम करना होता है। उत्पादन के तत्वों (5 m’s-men, machine, material, money, market) श्रम, मषीन, सामग्री, पूँजी And बाजार की उपलब्धता, वित्त के माध्यम से ही सम्भव हो सकती है। अत: वित्तीय प्रबन्धन के द्वारा हमें उपलब्ध सीमित साधनों का सर्वश्रेश्ठ विकल्पों के आधार पर मितव्ययिता पूर्वक उपयोग करके अधिकतम लाभ की अवधारणा को पुष्ट करना चाहिए।

सामान्य तौर पर वित्तीय प्रबन्धन के अन्तर्गत निम्न तीन साविधिक वित्तीय निर्णयन लेने पड़ते हैं।

  1. कोषों का उपयोग कहाँ Reseller जाय और कितनी मात्रा में Reseller जाय।
  2. अंशधारकों को लाभांश के Reseller में कितनी धनराशि का भुगतान Reseller जाय, और कितनी धनराशि को व्यवसाय के संवर्धन हेतु प्रतिधारित (Retained) कर लिया जाय।
  3. कोषों की व्यवस्था And वृद्धि कहाँ से की जाय और कितनी मात्रा में की जाय।

उपरोक्त प्रश्नों के समाधान फर्म की वित्तीय And विनियोग नीति का प्रतिनिधित्व करते हैं। सामान्य तौर पर यह स्वीकृत तथ्य है कि किसी भी फर्म का वित्तीय उद्देश्य मालिकों का अधिकतम आर्थिक कल्याण “Maximization of owner’s economic welfare” होना चाहिए। अत: वित्तीय प्रबंधन का प्रमुख उद्देश्य संगठन के लाभों का अधिकतमीकरण (Profit maximization) तथा संगठन की सम्पत्तियों का अधिकतमीकरण (Wealth maximization) करके मालिकों का अधिकतम आर्थिक कल्याण करना होता है।

1. लाभ अधिकतमीकरण  –

वस्ततु : किसी भी वित्तीय क्रियाकलाप का मूल उद्देश्य लाभार्जन होता है। लाभार्जन की संभावना के कारण ही उद्यमी में जोखिम सहन करने की सामथ्र्य विकसित होती है। वास्तव में Human द्वारा सम्पन्न की जाने वाली किसी भी आर्थिक क्रिया का उद्देश्य उपयोगिता का अधिकतमीकरण (Utility maximization) होता है। उपयोगिता का मापन लाभ के Reseller में करके हम अधिकतम सामाजिक, आर्थिक कल्याण (maximum socio, economic welfare) प्राप्त कर सकते हैं। अत: वित्तीय प्रबन्धन को उन समस्त क्रियाकलापों में सहभागी होना चाहिए, जिनसे संगठन के लाभों को अधिकतम Reseller जा सके। वित्तीय प्रबन्धन के क्षेत्र में अधिकतम लाभ की अवधारणा को मानने वाले निम्न तर्कों के आधार पर इसे न्याय संगत मानते हैं।

  1. अधिकतम लाभ से हम अधिकतम सामाजिक लाभ की प्राप्ति कर सकते हैं। किसी भी फर्म द्वारा उत्पादकता में अभिवृद्धि करके प्राप्त होने वाले अधिकतम लाभ से अधिकतम सामाजिक कल्याण जैसे शिक्षा, रोजगार, आवास, चिकित्सा आदि कार्य किये जा सकते हैं।
  2. अधिकतम लाभ अर्जित करने की धारणा निर्णयन प्रक्रिया को प्रभावित करती है। निर्णयन का औचित्य संगठन की लाभार्जन क्षमता पर निर्भर करता है। वित्तीय निर्णयन की सार्थकता And निरर्थकता लाभ के अधिकतमीकरण पर निर्भर होती है।
  3. अधिकतम लाभार्जन के उद्देश्य से हम साधनों का अधिकतम व कुशलतम उपयोग कर लेते हैं।
  4. लाभ की अवधारणा किसी भी समाज में स्वच्छ प्रतिस्पर्धा को जन्म देती है। स्वच्छ प्रतिस्पर्धा अधिकतम लाभार्जन हेतु परम आवश्यक होती है।

आलोचना – अधिकतम लाभ की अवधारणा अत्यन्त व्यावहारिक होने पर भी आलोचना का केन्द्र रही है। पूँजीवादी राश्ट्रों में लाभ की सर्वोच्चता है। किन्तु समाजवादी व्यवस्था से सामाजिक लाभ (Social Profit) का महत्वपूर्ण स्थान है। प्रसिद्ध विचारक जार्ज बर्नाड “ाा ने कहा है कि ‘‘पूंजीवाद आत्माहीन है पूँजीपतियों का र्इष्वर ‘लाभ’ है लाभ की अत्याधुनिक विचार धारा अधिकतम लाभ के स्थान पर उचित लाभ या अनुकूलतम लाभ (Reasonable profit) के सिद्धान्त को मान्यता प्रदान करती है।

2. सम्पदा अधिकतमीकरण- 

वित्तीय प्रबंधन का आधुनिकतम उद्देश्य लाभ अधिकतमीकरण (Profit maximization) के अतिरिक्त धन अधिकतमीकरण (Wealth Maximization) भी है। फर्म में प्राय: यह निर्णय नहीं हो पाता कि वह अल्पकाल में होने वाले त्वरित लाभों की ओर ध्यान दे या दीर्घ काल में होने वाले स्थायी प्रकृति के लाभों को प्राप्त करने हेतु नियोजित प्रयास करें। स्थायी प्रकृति के लाभों को प्राप्त करने हेतु फर्म की सम्पत्तियों को अधिकतम करना आवश्यक होगा।

वस्तुत: इस अवधारणा के According वित्तीय प्रबन्धक को फर्म के लिये ऐसे कार्यो को सम्पादित करना चाहिए, जिनसे फर्म की सम्पत्तियों का सृजन And वृद्धि हो। सम्पत्ति का अधिक मात्रा में निर्माण होने पर फर्म के शुद्ध मूल्य में वृद्धि होती है। वित्तीय प्रबन्धन के समक्ष फर्म के अधिकतम कल्याण हेतु Single से अधिक विकल्प होने पर उसी विकल्प का चयन करना उचित होगा जिसमें सर्वाधिक शुद्ध मूल्य का सृजन हो सके। वस्तुत: किसी कार्य का शुद्ध वर्तमान मूल्य उक्त कार्य से प्राप्त वर्तमान सकल आगम में से सम्बन्धित कार्य में विनियोजित आरम्भिक पूँजी को घटाने से प्राप्त हो सकता है।

व्यवसाय संचालन के परिणाम स्वReseller यदि शुद्ध वर्तमान मूल्य शून्य से अधिक हो जाय तो यह माना जा सकता है कि स्वामियों की सम्पत्ति के वर्तमान मूल्य में अभिवृद्धि हुर्इ है। शुद्ध वर्तमान मूल्य के धनात्मक होने का आशय सम्पत्ति के मूल्य में वृद्धि तथा शुद्ध वर्तमान मूल्य के ऋणात्मक होने का आशय सम्पत्ति के मूल्य में कमी से होता है। व्यवसाय के कम्पनी स्वReseller में पूँजी Singleत्रीकरण का प्रमुख आधार अंशों का निर्गमन होता है, तथा मूल्य का आशय समता अंशों के बाजार मूल्य से होता है।

अंशों के बाजार मूल्य में वृद्धि से तात्पर्य सम्पत्तियों के मूल्य में वृद्धि तथा अंशों के बाजार मूल्य में कमी का आशय सम्पत्तियों के मूल्य में कमी से है। वस्तुत: वित्तीय प्रबन्धन का प्रमुख उद्देश्य कम्पनी के समता अंशधारियों के अंशों के बाजार मूल्य को अधिकतम करना होना चाहिए। किन्तु समता अंश धारियों के हितों को संरक्षित करने के साथ-साथ कम्पनी से जुड़े अन्य सम्बन्धित पक्षों के हितों को भी ध्यान में रखकर व्यवसाय संचालन का अनुकूलतम स्तर (Optimum level of business operation) बनाये रखना चाहिए।

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