श्रीमद्भगवद्गीता का परिचय

गीता संस्कृत साहित्य काल में ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व का अमूल्य ग्रन्थ है। यह भगवान श्री कृष्ण के मुखारबिन्द से निकली दिव्य वाणी है। इसमें 18 अध्याय और 700 श्लोक हैं। इसके संकलन कर्ता महर्षि वेद ब्यास को माना जाता है। आज गीता का विश्व की कर्इ भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। जिससे इसकी कीर्ति दिगदिगंतर तक व्याप्त है। श्रीमद्भगवद्गीता Single ऎसा विलक्षण ग्रन्थ है जिसका पार आज तक कोर्इ नहीं पाया है। इसका अध्ययन मनन चिन्तन करने पर नित्य नये भाव उत्पन्न होंगे कहा जाता है कि गीता में जितना भाव भरा है उतना बुद्धि में नहीं आता हैं। बुद्धि की Single सीमा है, और जब बुद्धि में आता है तब मन में नहीं आता और जब मन में आता है तब फिर कहने में नहीं आता है। यदि कहने में आता है तो लिखने में नहीं आता है। इस प्रकार गीता असीम है। गीता में ज्ञान योग, कर्मयोग, और भक्तियोग का वर्णन Reseller गया है। प्रस्तावना के अन्तर्गत गीता के 18 अध्यायों का संक्षिप्त description प्रस्तुत Reseller गया है। गीता को सामान्य जन समझ नहीं सकता है तो उसकी विषय में लिखना तो दूर। किन्तु गीता के विषय में कोर्इ कुछ कहता है तो वह वास्तव में अपने बुद्धि का ही परिचय देता है –

सब जानत प्रभु प्रभुता सोर्इ। 

तदपि कहे बिनु रहा न कोर्इ।।(मानस बालका0 13/9) 

श्रीमद्भगवद्गीता का परिचय 

भगवदगीता संस्कृत महाकाव्य का ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व में अत्यन्त समादर प्राप्त ग्रन्थ है। इसमें भगवान कृष्ण द्वारा अर्जुन को कुरूक्षेत्र Fight में दिया गया द्विव्य उपदेश है यह गीता वेदान्त दर्शन का सार है। यह ग्रन्थ महाभारत की Single घटना के Reseller में प्राप्त होती है। महाभारत में वर्तमान कलियुग तक की घटनाओं का description मिलता है। इसी युग के प्रारम्भ में आज से लगभग 5000 वर्ष पूर्व भगवान श्री कृष्ण ने अपने मित्र तथा भक्त अर्जुन को यह गीता सुनार्इ थी।

1. गीता का Backup Server – 

गीता के Backup Server के सम्बन्ध में डा0 रामकृष्ण गोपाल भण्डारकर ने चर्तुव्यूह को आधार मानकर सिद्ध Reseller है कि भगवदगीता की Creation Seven्तवत या भागवत सम्प्रदाय की सुव्यस्थित होने के पूर्व हुर्इ है उनके मत में इसका काल चौथी र्इ0पू0 का आरम्भ है तथा यह भक्ति सम्प्रदाय या ऐकान्तिक धर्म की प्राचीनतम व्याख्या है। यद्यपि गीता के काल निर्णय के बारे में भिन्न-भिन्न प्रकार की गवेशणाए भी हैं और आज भी हो रही है।

इसलिये गीता को महाभारत के भीष्म पर्व पर आधारित मानना उचित है महाभारत के भीष्म पर्व के 25 से 42 अध्याय के अन्तर्गत भगवदगीता आती है फिर शान्तिपर्व और अश्वमेधपर्व में भी गीता का कुछ प्रसंग उल्लिखित मिलता है।

भगवदगीता भागवत धर्म पर आधारित द्विव्य ग्रन्थ है इसकी Backup Server और सन्देश के विषय में विद्वानों में मतभेद है। पाश्चात्य विद्वानों का मानना है कि गीता में परस्पर विरोध विचारों का सामन्जस्य है। जो यह सिद्ध करता है कि Single व्यक्ति द्वारा रचित होना सम्भव नहीं है। बल्कि विभिन्न व्यक्तियों ने विभिन्न समयों में लिखा होगा। परन्तु Indian Customer विचारक And चिन्तक मानतें है कि भागवत धर्म का अभ्युदयकाल र्इ0सन् के 1400 वर्ष First रहा होगा और गीता कुछ शताब्दियों के बाद प्रकाश में आयी होगी मूल भागवत धर्म भी निष्काम कर्म प्रधान होते हुये भी आगे चलकर भक्ति प्रधान स्वReseller धारण कर विशिष्टा द्वैत का समावेश कर लिया तथा प्रचलित हुआ।

गीता महाभारत का ही अंश है और यदि महाभारत काल निर्धारण है तो गीता का भी उसी आधार पर सहज ही लगाया जा सकता है महाभारत लक्ष श्लोकात्मक ग्रन्थ है और शक् के लगभग 500 पूर्व अस्तित्व में था- गार्वे के According ‘‘मूल गीता की Creation 200 र्इ0पू0 के लगभग हुर्इ होगी जब विश्णु और कृष्ण का तादात्म्य स्थापित Reseller जा चुका था। हाँपकिन्स, कीथ, डाउसन और फर्कुआर आदि विद्वान इसे श्वेताश्वतर उपनिशद् से मिलता जुलता मानतें है। लेकिन समयानुसार कुछ बाद का उपनिशद मानतें है। ओटो और याकोबी मूलगीता ग्रन्थ को दार्शनिक या धार्मिक ग्रन्थ नहीं मानतें है’’। इन लोगों का मानन है कि यह मूलत: महाकाव्य का सुन्दर अंश है जिसे बाद में दार्शनिकों ने वर्तमान कलेवर में सुसज्जित कर नया Reseller प्रदान Reseller।

2. महाभारत ,गीता में साम्य – 

महाभारत में 18 पर्व है जिनमें पूर्वार्द्ध में 6 पर्व है And उत्तरार्द्ध में 12 पर्व है। इस ग्रन्थ का महाभारत से बड़ा साम्य है महाभारत में 18 पर्व है वहीं गीता में 18 अध्याय है। जिसको 6-6 के क्रम से तीन भागों में बाटा जा सकता है First 6 अध्याय कर्मयोग पर आधारित है और 7-12 वें तक अध्याय भक्तियोग पर आधारित है और अन्तिम 6 अध्याय ज्ञान की पराकाश्ठा से ओत-प्रोत है और इस प्रकार पूरी गीता में महाभारत से कितना साम्य दिखलार्इ पडता है Single तरफ 7-7 अक्षौहिणी सेना थी तो दूसरी तरफ 11 अक्षौहिणी सेना ऎसे वातावरण में गीता कही गयी है, जो तत्व ज्ञान ऋशि महात्मा लोग गुफा कन्दराओं में रहकर प्रदान किये हैं वह भी गीता के तत्वज्ञान के सामने कुछ भी नहीं है। सम्पूर्ण गीता ग्रन्थ अष्टादश अध्यायों में विरचित है। प्रत्येक अध्याय Single-Single योग है। गीता की पृश्ठ भूमि Fight क्षेत्र है। भगवान श्री कृष्ण का मुख्य प्रयोजन Human अवतार Reseller धारण करके अधर्म का नाश और धर्म का उत्थान करना था- जो कि स्वयं कहते है-

‘‘ यदा-यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । 

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानम सृजाम्यहम् ।।’’ (गीता 4/7) 

कुरू क्षेत्र में Fight की तैयारी चल रही थी इस Fight का कारण राज्य के अधिकार क्षेत्र को लेकर था। कौरव अपने राज्य से सूर्इ के नोंक के बराबर जमीन देने को तैयार नहीं थे। जबकि पूर्व में ही Agreeि दी गयी थी इस वचन से विमुक्त होने पर Fight की पृश्ठ भूमि तैयार होना तय हो गया था। दोनो पक्ष से श्रेष्ठ वीर Fight भूमि में उपस्थित थे शारीरिक बल प्रयोग से इस झगडे का निपटारा होना है। कुरूक्षेत्र के Fight भूमि में Single तरफ पाण्डव सेना और दूसरी ओर कौरव सेना Fight के लिये सन्नद्ध खडी है। भगवान कृष्ण अर्जुन के सारथि है और रथ को दोनों सेनाओं के मध्य ले जाकर जब खडा कर देते है तब अर्जुन को मोह हो जाता है। क्योंकि All लोग Fight में अपने ही सगे सम्बन्धी थे अर्जुन को श्री कृष्ण समझाते हुये कहते हैं कि अपने स्वधर्म Meansात् क्षत्रिय धर्म का पालन करो और अधर्म का नाश करके धर्म को विजयी बनाओ तर्क-वितर्क बुद्धि युक्त अर्जुन को बारम्बार श्री कृष्ण ‘स्वधर्म’ और अपने ‘स्वभाव’ के According निश्काम कर्म का पालन करने का उपदेश देते हैं। ध्यातव्य है कि गीता का उपदेश समाप्त होने पर श्री कृष्ण ने केवल यही कहा है कि ‘‘यथेच्छसि तथा कुरू’’ Meansात् (गीता 18/63) जैसी तुम्हारी इच्छा हो वही करो और अर्जुन ने उत्तर दिया- आपकी कृपा से मेरा मोह नश्ट हो गया है। अत: जैसा आपने कहा है वैसा ही करूंगा-

‘‘करिश्ये वचनं तव’’ (गीता 18/73) 

इस प्रकार हम देखते है कि सम्पूर्ण गीता में श्री कृष्ण परमात्मा के Reseller में प्रतिश्ठित हैं। श्री कृष्ण अर्जुन को निश्काम कर्म का सदुपदेश देते हैं । गीता के ‘‘अश्टादश’’ अध्याय के विषय में Meansात् 18 अंक को देखा जाय तो यह परिलक्षित होता है कि सम्पूर्ण चराचर जगत की सार्थकता 18 अंको में ही समाविश्ट है। क्योंकि जगत में 4 वेद, 4 युग, 4 वर्ण, 4 आश्रम इन्हीं सोलह “ााखाओं Resellerी वृक्ष के ऊपर जीवात्मा और परमात्मा Resellerी दो पक्षियों का चिर निवास है जो मिलकर 18 हो जाते हैं-

‘‘ द्वासुपर्णा सुयजासखाया समानं वृक्षं परिशस्वजाते’’ (मु0 उप03/1/5) 

महर्षि कृष्ण द्वैपायन वेद व्यास को 17 पूराणों की Creation के बाद भी आध्यात्मिक शान्ति नहीं प्राप्त हुर्इ है। वे 18 वें महापुराण के Reseller में श्री कृष्ण भक्ति भावना से ओत-प्रोत श्रीमदभागवदगीता महापुराण described Reseller। वेद व्यास महा पुरूष थे। उन्होने महाभारत के लौकिक कौरव- पाण्डव के महाभारत के Fight को श्रीमदभगवदगीता में दैव तथा आसुर स्वभाव के अन्र्तद्वन्द का चित्र इस प्रकार चित्रित Reseller है कि विवेक और विचारपूर्वक मनन करके सम्पूर्ण चराचर जगत का Single मात्र स्वामी जीवात्मा मोह मयी निद्रा से जागृत होकर अधिभौतिक जगत कि नश्वरता को भली-भांति समझ लेता है और जरामृत्यु के भय से सर्वदा मुक्त हो जाता है महर्षि 18 अंको की प्रेरणा सम्भवत: यहीं से मिली हुर्इ होगी। क्योंकि उन्होनें महाभारत ग्रन्थ को 18 पर्वात्मक ही रचा। और उसके महा संग्राम की अवधि 18 दिन तथा गीता Reseller महायोग शास्त्र का ज्ञान और कर्म Resellerी तत्व का वर्णन भी गीता के 18 अध्यायों में कहकर described Reseller गया है। जिससे प्राणियों को परमपद का मार्ग सुनिश्चित Reseller से प्राप्त हो सके।

3. गीता की श्लोक संख्या – 

गीता की श्लोक संख्या को लेकर विद्वानों में प्राचीन काल से लेकर आज तक मतभेद विद्यमान है। आचार्य शंकर ने गीता पर अपना श्रीमदभगवद गीता शांकरभाश्य लिखा है और साथ ही श्लोंको की संख्या 700 मानकर गीता भाश्य की Creation की थी। परवर्ती भाष्यकार, टीकाकार और व्याख्याकारों ने शंकर के ही मत को स्वीकार Reseller है। महाभारत के भीष्मपर्व के 43 अध्याय के Fourth और Fifth श्लोकों में वैषम्पायन ने भगवदगीता की प्रषंसा करते हुये कहा है-

‘‘शट्षतानि सविंषानि श्लोकानां प्राह केषव:। 

अर्जुन: सप्तपंचाषं सप्तशश्ठि च संजय:।। 

धृतराष्ट्र: श्लोकमेकं गीताया: मानमुच्यते।’’ 

Meansात् गीता में श्री कृष्ण के द्वारा कथित श्लोंकों की संख्या 620 है, अर्जुन कथित 56 श्लोक है तथा संजय कथित 67 और धृतराश्ट्र कथित Single श्लोक है। इस प्रकार उपर्युक्त यदि All श्लोकों की संख्या परिगणित की जाय तो 745 हो जायेगी। आधुनिक विद्वानों में भी श्लोक संख्या को लेकर मतभेद उपस्थित है और आधुनिक लोग गीता के आकार को अपूर्ण मानते है। इस प्रकार कुछ लोग तो गीता की श्लोक संख्या 745 ही मानते किन्तु वर्तमान मे प्रचलित गीता की श्लोक संख्या 700 ही मानी जा रही है। महाभारत के भीष्मपर्व के 25 से 42 अध्याय की भगवदगीता भी 700 श्लोकों में पूर्ण है। कहीं-कहीं पर श्री भगवानुवाच, संजयउवाच, अर्जुनउवाच, धृतराश्ट्रउवाच आदि कुल 58 उक्तियों में श्लोक संख्या नहीं दी गयी हैं इसी प्रकार दुर्गा सप्तशती भी 700 श्लोंको में पूर्ण में है। उसमे मार्कण्डेयउवाच, वैश्यउवाच इत्यादि 56 उवाचात्मक वाक्यों को भी क्रमिक श्लोक संख्या के Reseller में चण्डी के 700 श्लोंकों के अन्तर्गत लिया गया है।

महाभारत में वैशम्पायन की उक्ति के According गीता की श्लोक संख्या 745 होती है। और वह भी धृतराश्ट्रउवाच 9, अर्जुनउवाच-20, श्री भगवानुवाच-28 ऎसी कुल 58 उक्तियों को महाभारत के 700 श्लोंको के अन्तर्गत नहीं Reseller गया है, और इसी कारण गीता की श्लोक संख्या में कुछ भेद परिलछित होता है। यथार्थ में भी जो मूल महाभारत है उसमें भी 700 श्लोक ही प्राप्त होते हैं और मूल महाभारत श्लोकों के अवलम्बन से ही आचार्य शंकर ने अपने भाश्य की Creation की थी।

4. प्रमुख टीकाकार 

गीता हिन्दू धर्म का प्राचीन ग्रन्थ है और यह प्रस्थानत्रयी के अन्तर्गत समावेशित है। इसकी प्रमाणिकता उपनिशदों और ‘ब्रम्हसूत्र‘ के बराबर मानी गयी है। भारत में जब बौद्ध धर्म का हरास हो गया था उस समय विभिन्न धर्म और उसके धर्मावलम्बी अपने-अपने मत को उत्कृष्ट Reseller प्रदान करने के लिए उठ खडे हुये जिनमें से प्रमुख-अद्वैवत वाद, द्वैतवाद, शुद्धाद्वैतवाद, विशिष्टाद्वैतवाद आदि प्रमुख थे। गीता की विभिन्न टिकायें आचार्यों द्वारा Single ओर अपने मत के समर्थन, प्रोत्साहन और वृद्धि के लिए लिखी गयी तथा दूसरी ओर Second सम्प्रदायों के खण्डन के लिए लिखी गर्इ है।

शंकराचार्य की टीका (र्इ0 सन् 788-820) इस समय विद्यमान टीकाओं में सबसे प्राचीन है इससे भी पूरानी अन्य टीकायें की जिनका नाम निर्देश शंकराचार्य ने अपनी भूमिका में Reseller है। परन्तु वे इस समय प्राप्त नहीं होती है। शंकराचार्य के दृष्टिकोण का विकास आनन्दगिरि ने जो सम्भवत: 13 वीं शताब्दी में हुये तथा इनके बाद श्रीधर (1400र्इ0सन्) ने और मधुसूदन (16वीं शताब्दी) ने तथा अन्य परवर्ती लेखकों ने Reseller। रामानुज ने (11वीं शताब्दी र्इ0) ने अपनी टीका में संसार की अवास्तविकता और कर्म त्याग के मार्ग के सिद्धान्त का खण्डन Reseller उसमें यमुनाचार्य द्वारा अपने ‘गीतार्थ संग्रह’ में प्रतिपादित व्याख्या का अनुसरण Reseller रामानुज ने गीता पर अपनी टीका में Single प्रकार का वैयक्तिक रहस्यवाद विकसित Reseller है और ये भगवान विश्णु को ही Single मात्र सच्चा देवता स्वीकार करते हैं।

मध्व ने (र्इ0सन् 1199-1276) तक भगवदगीता पर दो ग्रन्थ ‘गीताभाश्य’ और ‘गीतातात्पर्य’ लिखें उसमें गीता में से द्वैतवाद के सिद्धान्त को ढूंढ निकालने का प्रयास Reseller है। यह मानते हैं कि आत्मा और परमात्मा को Single तरह से तदनुReseller न मानकर भिन्न मानन चाहियें। ‘वहतू है’ Meansात् ‘तत्वमसि’ का Means करते हुये कहते हैं कि हमें मेरे तेरे के भेदभाव को त्याग देना चाहिये और समझना चाहिये कि प्रत्येक वस्तु भगवान के नियन्त्रण के अधीन है।

नीम्बार्क (1162र्इ0सन्) में द्वैताद्वैत के सिद्धान्त को अपनाया और ब्रम्हसूत्र पर टीका लिखी इनके शिष्य केशव कश्मीरी ने गीता पर Single टीका लिखी जिसका नाम ‘‘तत्वप्रकाशिका’’ है।

गीता पर अनेक टीका कारों ने अपने-अपने समय में बाल गंगाधर तिलक और अरविन्द, गांधी की टीकायें मुख्य है और सबके अपने-अपने विचार हैं।

सन्दर्भग्रन्थ 
यदीयं तदीयम् इति भेदम आपहाय सर्वम् र्इश्वराधीनम् इति स्थिति:। (भागवत-तात्पर्य)।

डा0 राधाकृष्णन लिखते हैं कि उपदेश देते समय कृष्ण के लिए Fight क्षेत्र में 700 श्लोकों को पढ़ना सम्भव नहीं हुआ होगा उन्होनें कुछ थोडी सी बातें कहीं होगी जिन्हें बाद के लेखको नें विस्तारित कर दिया।

‘‘भगवदगीता उस महान आन्दोलन के बाद की, जिसका प्रतिनिधित्व प्रारम्भिक उपनिशद् करते हैं और दार्शनिक प्रणालियों के विकास और उनके सूत्रों में बंध जाने के काल से First की Creation है। इसकी प्राचीन वाक्य Creation और आन्तरिक निर्देशों से हम यह परिणाम निकाल सकते हैं कि यह निश्चित Reseller से र्इ0पू0 काल की Creation है इसका काल र्इ0पू0 5वीं शताब्दी कहा जा सकता है, हलांकि बाद में भी इसके मूल पाठ में अनेक हेर-फेर हुये हैं।’’

1. हमें गीता के रचयिता का नाम मालूम नहीं है। भारत के प्रारम्भिक साहित्य की लगभग All पुस्तकों के लेखकों का नाम अज्ञात हैं यद्यपि गीता की Creation का श्रेय व्यास को दिया जाता है, जो महाभारत का पौराणिक संकलन कर्ता है। गीता के 18 अध्याय महाभारत के भीष्मपर्व के 23-40 तक के अध्याय हैं।

गार्वे मानतें है कि गीता First सांख्य योग सम्बन्धी ग्रन्थ था। जिसमें बाद में कृष्ण वसुदेव पूजापद्धति आ मिली और र्इ0पू0 तीसरी शताब्दी में इसका मेल-मिलाप कृष्ण को विश्णु का Reseller मानकर वैदिक परम्परा के साथ बिठा दिया गया। मूल Creation र्इ0ूप0 200 में लिखी गयी थी और इसका वर्तमान Reseller र्इ0 की दूसरी शताब्दी में किसी वेदान्त के अनुवायी द्वारा प्रस्तुत Reseller गया है। गर्वे के सिद्धान्त को दार्शनिक लोग समान्यतया अस्वीकार करते हैं।

‘कीथ’ मानते है कि मूलत: गीता श्वेताश्वतर उपनिशद की तरह थी, बाद में उसे कृष्ण पूजा के अनुकूल बनाया गया होगा। हौल्टजमन गीता को सर्वेष्वरवादि कविता का Reseller मानते हैं। जो बाद में विश्णु प्रधान हो गया है। रूडोल्पओटो के According ‘‘मूलगीता महाकाव्य का Single शानदार खण्ड थी और उसमें किसी प्रकार का कोर्इ सैद्धान्तिक साहित्य नहीं था जैकोबी का ओटो से मतैक्य है।’’

अपने प्रयोजन के लिये हम गीता के उस मूलपाठ को अपना सकते है जिस पर शंकराचार्य की टीकाएं And भाश्य उपलब्ध है। क्योंकि गीता की सबसे पुरानी टीका शंकरभाश्य ही अत्यन्त प्राचीन Reseller में उपलब्ध है।

प्रो0 काषीनाथ बाबू ने Single साम्प्रदायिक श्लोक के अधार पर श्री शंकराचार्य का जन्मकाल 845 विक्रमीसंवत (शक् 710) निश्चत Reseller है। अत: आचार्य शंकर के जन्म से दो-तीन सौ वर्ष पूर्व ही गीता लगभग शक् 400 तक प्रकाश में आ चुकी थी। पाष्चात्य विद्वान तैलंग ने कालिदास और बाणभट्ट को गीता से परिचित बतलाया है। कालिदास कृत रघुवंश में (10-39) विश्णु की स्तुति में ‘‘अनवाप्तमवाप्तव्यं न ते किंचन विद्यते्’’ इस श्लोक को गीता के (3.22) नान-वाप्तवाप्तव्यं’’ श्लोक से संभवत: ग्रहण Reseller गया होगा और बाणभट्ट के ‘‘महाभारतमिवावानन्तगीताकर्णना नन्दितरं’’ इस “लेश प्रधान वाक्य में गीता की झलक दिखलार्इ पड़ती है। यह तथ्य और अधिक स्पष्ट हो जाता है जब Single 691 संवत (शक 556) के शिलालेख में कालिदास और भारवि का नाम उल्लिखित प्राप्त होता है। और बाणभट्ट हर्श के समकालिन माने जातें है। इन प्रमाणो से गीता का “ाक् 400, 500 से कम से कम 200 वर्ष First ही महाभारत में भीष्मपर्व में होना निश्चित होता है।

Indian Customer विद्वान यह मानते हैं कि गीता में परस्पर विरोधी लगनेवाली विचारधाराओं का विवेचन अवश्यक Reseller गया है। परन्तु समस्त तत्व बिखरे न होकर आबद्ध हैं। इससे सिद्ध होता है कि गीता की Creation Single बार ही हुर्इ होगी। गीताकार में भागवत धर्म के प्रभाव को बढ़ता देखकर उपनिशदों के सिद्धान्तों का नये भक्ति आन्दोलन के साथ समन्वित करने का प्रयास Reseller है। इसी कारण गीता में विभिन्न विचार धारायें मिलती हैं। डा0 राधाकृष्णन ने इसे 5वीं शताब्दी र्इ0पू0 की Creation माना है। जो सत्य के निकट सिद्ध होता है। गीता का प्रारम्भिक उपनिशदों र्इश, केन, कठ से सम्बन्ध था और वेदों के प्रति भी दृष्टिकोण उपनिशदों के समान ही था। गीता में बौद्ध धर्म का परिचय न मिलना यह सिद्ध करता है कि उस समय प्रचार प्रसार नहीं रहा होगा। शड्दर्शनों में से केवल सांख्य और योग का ही विशद वर्णन मिलता है इससे यह स्पष्ट होता है कि गीता की Creation दार्षनिक सम्प्रदायों के अभ्युदय़ पूर्व ही हो चुकी थी।

5. गीता के अष्टादश अध्यायों का सार संक्षेप 

सम्पूर्ण गीता ग्रन्थ अष्टादश अध्यायों में रचित है प्रत्येक अध्याय ही Single-Single योग हैं गीता के First अध्याय का नाम अर्जुन विशाद योग है। गीता की पृश्ठ भूमि Fight क्षेत्र है। भगवान कृष्ण अपनी अवतार लीला में अधर्म का नाश और धर्म उत्थान करने के लिए अवतरित हुये हैं। कौरव और पाण्डवों में राज्य के अधिकारी को लेकर Fight होना अवश्य सम्भावी हो गया है। कौरव पक्ष में 11 अक्षौहिणी और पाण्डव पक्ष में Seven अक्षौहिणी सेना सुसज्जित होकर कुरूक्षेत्र के मैदान पर खडी है। “ाारीरिक बल प्रयोग से ही इस Fight का निपटारा होना है और दोनो तरफ की सेनाओं के बीच में अर्जुन खडे होते हैं और जब नजर उठाकर देखते है तो All सगे सम्बन्धी दिखार्इ देते है और अर्जुन का मन क्षुब्ध हो जाता है कि भिक्षा वृद्धि करके जीवन यापन कर लूंगा लेकिन अपनो को नहीं मारूंगा तब भगवान श्री कृष्ण किंकर्तव्य विमूढ़ अर्जुन को गीता का उपदेश देते है जो अष्टादश अध्याय वाली श्री मदभगवदगीता में described है। अर्जुन का शरीर कांपने लगा, गला सूख गया, शरीर शिथिल होने से गाण्डीव धनुश हाथ से नीचे गिर पड़ा प्रश्न उठता है कि अर्जुन ने इस परिवर्तन के लिए उत्तर दायी कौन है। फिर यह भी सोचने पर विवश हो जाता है कि जब स्वयं भगवान श्री कृष्ण अर्जुन के सारथि है तो इस प्रकार की जड़ता और तामसिकता कैसे अर्जुन जैसे महावीर को आच्छादित कर लेती है। श्री कृष्ण अर्जुन को भरी बातों से ही समझाते हैं कि- ‘‘तुम शोक करने के अयोग्य व्यक्तियों के लिये शोक कर रहे हो, और पण्डितों की तरह बात कर रहें हो। अत: Fight के लिए तुम दृढ़ प्रतिज्ञ होकर उठ खडे होओ।’’

अषोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांष्च भाशसे। 

तस्माद् उत्तिश्ठ कौन्तेय, Fightाय कृत निश्चय:।। 

श्री कृष्ण के समझाने पर भी अर्जुन की दुर्बलता और कायरता कम होने का नाम नहीं ले रही हैं कैसा दुर्योग है। श्री कृष्ण को लगभग दो घण्टे तक 18 अध्याय वाली गीता का उपदेश देना पडा तथा अनेक प्रकार के वचनों का आश्रय लेना पड़ा इस अध्याय में देखेंगे कि श्री कृष्ण परमात्मा Reseller होते हुये भी अर्जुन के मन के भी सारथि बन गये है और उनकों क्षत्रियोचित कर्तव्य याद दिलाकर कल्याण मार्ग में परिचालित किये हैं। यथार्थ में श्री कृष्ण ‘भवरोग-वैद्य’ थे गीता में अर्जुन के माध्यम से समूची Human जाति की मनोवृत्तियों का विश्लेषण हुआ है।

गीता के द्वितीय अध्याय का नाम ‘सांख्य योग’ है इसमें 72 श्लोक समाविष्ट है। सांख्य Word का Means है ज्ञान और योग का Means है कर्म ज्ञान और कर्म पर सम्मिलित Reseller से विशेष Discussion होने के कारण इस अध्याय का नाम सांख्य योग रखा गया है। अर्जुन का विशाद दूर करने के लिए इस अध्याय में विशेषतया श्री कृष्ण द्वारा आत्मतत्व का उपदेश दिया गया है आत्मा और शरीर की नित्यता-अनित्यता का वर्णन Reseller गया है। उसके पष्चात श्री कृष्ण ने निष्काम कर्म योग के सम्बन्ध में भी उपदेश दिये है। निश्काम कर्म योग नामक उपदेश यद्यपि अर्जुन को भले ही लक्ष करके प्रकट Reseller गया है। तब भी समस्त बुद्धिजीवी सदसद विवेकी मनुष्य जाति के लोग इनसे विशेष Reseller से उपकृत होंगे ज्ञान ओर कर्म का विरोध सनातन युग से चला आ रहा है कि ज्ञान श्रेष्ठ है कि कर्म श्रेष्ठ है। इस प्रकार के प्रश्न का उत्तर देने में इस अध्याय का महत्व पूर्ण योग दान है। निश्काम कर्म योग के साथ ज्ञान का मेल करके निश्काम भक्ति Reseller से अमृत रस से सिंचित होकर यह अध्याय मंगल मय दीपशिखा की तरह मनुष्यों के जीवन को अवलोकित कर सुशोभित हो रही है निष्काम कर्म, भक्ति, ज्ञान तीनों के संयोग के परिणाम स्वReseller भी परम लक्ष्य ‘स्थितप्रज्ञ’ And आत्मस्वReseller साक्षात्कार Resellerी अवस्था को प्राप्त होता है। इसी को ब्राह्मी स्थिति कहते हैं। ब्राह्मी स्थिति ही मोक्ष है। ब्राह्मी स्थिति को प्राप्त कर लेने के पष्चात् मनुष्य निश्काम भाव से अपने वर्ण और आश्रम के शास्त्रविहित कर्म करके अन्त में ब्रह्म निर्वाण या ‘मोक्ष’ को प्राप्त करता है। इस अध्याय में 20 वें श्लोक के बाद ही श्री कृष्ण अर्जुन संवाद आरम्भ होता है।

तृतीय अध्याय का नाम ‘कर्मयोग’ है। इसमें मात्र 43 श्लोक described है शोक मोह ग्रस्त अर्जुन के प्रश्न पूंछने पर श्री भगवान ने ज्ञान और कर्म का मेल करके इस अध्याय में विशेष Reseller से कर्म माहात्म्य और स्वधर्म पालन का उपदेश दिया है। सन्यासियों के लिए ज्ञान योग और अन्य के लिए कर्म योग का उपदेश दिये हैं। अनाशक्त भाव से र्इश्वरार्पित बुद्धि से कर्म करना ही कर्मयोग है। कर्मयोगी फल सहित All कर्म श्री भगवान को अर्पित कर देता है। तथा कर्तृत्वभिमान का त्याग कर देता है। दोनों ही कठिन साधनायें हैं। श्री मदभगवदगीता मनुष्य मात्र के अनुभव पर आधारित ग्रन्थ है। मनुष्य ही परमात्मा प्राप्ति का Single मात्र अधिकारी है। इस प्रकरण में भगवान ने कहीं भी बुद्धि Word का प्रयोग नहीं Reseller है। क्योंकि नित्य और अनित्य, सत् और असत्, अविनाशी और विनाशी, शरीर और शरीर को अलग-अलग समझने के लिए ‘विवेक’ की ही Need है। ‘बुद्धि’ की नहीं विवेक बुद्धि से परे है विवेक बुद्धि में प्रकट होता है, बुद्धि विवेक में नहीं कर्मयोग प्रकरण में बुद्धि के विशेषता बतलार्इ गयी है कि ‘‘व्यवसायित्मका बुद्धिरेकेह’’ Meansात् बुद्धि में निश्चय कि प्रधानता होती है। इस तरह कर्मयोग में निष्यचयात्मिका बुद्धि की अत्यन्त Need बताने के बाद भगवान अर्जुन को समभाव पूर्वक कर्तव्य कर्म करने के लिए विशेष Reseller से कहते हैं- जैसे कर्मण्येवाधिकारस्ते’ (2/47) ‘योगस्थ: कुरूकर्मणि (2/48) बुद्धौशरणमन्विच्छ (2/49), योग: कर्मसुकौशलम्(2/50)

आदि श्लोकों में भगवान अर्जुन को समभाव पूर्वक कर्तव्य कर्म करने के लिए प्रेरित करते है इसी अध्याय में जनकादि का उदाहरण सम्मुख रखकर अर्जुन को लोकसंग्रह का महत्व बतलाते है, इसकी सार्थकता सिद्ध करते है। समबुद्धि Resellerी कर्मयोग के द्वारा परमेश्वर को प्राप्त हुये स्थितप्रज्ञ सिद्ध पुरूष के लक्षण, आचरण और महत्व का भी प्रतिपादन इसी अध्याय में Reseller गया है।

श्री मदभगवदगीता के चतुर्थ अध्याय का नाम ‘ज्ञानयोग’ है। इसमें 42 श्लोक described है इस चतुर्थ अध्याय में भगवान ने अपने अवतरित होने के रहस्य और तत्व के सहित कर्म योग तथा सन्यास योग का Means इन सबके फलस्वReseller जो परमात्मा के तत्व यथार्थ ज्ञान है। उसका वर्णन Reseller है इसलिये इसका नाम ज्ञानकर्मसन्यासयोग भी कहा जाता है इसमें प्रारम्भ में कर्मयोग की प्रशंसा की गयी है इसी अध्याय में चतुर्थ वर्णों की उत्पत्ति, जन्म कर्मReseller लीलातत्व, कर्म अकर्म और विकर्म का विश्लेशण, ज्ञान क्या है, ज्ञान लाभ का उपाय, फल और अधिकारी का विचार, वर्ण भेद, कर्मभेद, ज्ञान लाभ के बहिरंग और अन्तरंग साधन आदि अनेक आध्यात्मिक विषयों का उपदेश दिया है। निश्काम कर्म योग के माध्यम से ही ‘ज्ञानयोग’ को प्राप्त Reseller जा सकता है। क्योंकि भगवान स्वयं कहते है- ‘‘सर्वकर्माखिलंपार्थज्ञानंपरिसमाप्यते- हे अर्जुन, समस्त कर्म ज्ञान उत्पन्न होने पर समाप्त हो जाते है कर्म, योग, भक्ति और ज्ञान अलग-अलग न होकर परस्पर Single Second के सहायक है। और अन्तत: श्री भगवान के स्वReseller परमधाम की प्राप्ति करा देते हैं। उस अध्याय में वर्ण विभाग का भी वर्णन Reseller गया है- ‘चातुर्वण्र्य मया सृश्टं गुण कर्म विभागष:’। Human समाज को धर्म समाज परिवर्तित करने के लिए वर्ण विभाग की व्यवस्था की गयी इससे यह संकेत मिलता है कि श्री भगवान भी जिनके लिए कुछ भी अप्राप्त नहीं है वह भी र्निलिप्त होकर कर्म का सम्पादन करते है। इससे कर्म करने की पद्धति का यथार्थ संकेत मिलता है। इसके अनन्तर वाह्य कर्म, विविध लाक्षणिक यज्ञों की विशेषता, ज्ञान यज्ञ की श्रेष्ठता, ज्ञान क्या है, ज्ञान लाभ का उपाय क्या है। इसके फल और अधिकारी का विचार आदि अनेक तत्वों की आलोचना इस अध्याय में की गयी है। यज्ञों का वर्णन करके इसके भेद बताये गये हैं तथा इसमें द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञान यज्ञ को उत्तम बतलाया गया है।

29 श्लोक युक्त इस गीता के पंचम अध्याय में कर्म योग निश्ठा और सांख्य योग निश्ठा का वर्णन हुआ है। सांख्य योग को ही सन्यास नाम से अभिहित Reseller जाता है इसलिये अध्याय का नाम कर्म सन्यास योग रखा गया है। इसमें अर्जुन भगवान से पूछते हैं कि सांख्य योग और कर्म योग में कौन श्रेष्ठ है। इसके उत्तर में भगवान स्पष्ट करते है कि दोनो ही श्रेष्ठ और कल्याण कारक है। परन्तु कर्म सन्यास की अपेक्षा कर्मयोग भी श्रेष्ठ है इस अध्याय के 10वें और 11वें श्लोक में भगवत दर्पण बुद्धि से कर्म करने वाली की और कर्म प्रधान कर्म योगी की प्रशंसा करके कर्मयोगियों के कर्मों को आत्मशुद्धि में हेतु बतलाया गया है। आगे कहा गया है कि अज्ञान के द्वारा जब ज्ञान आवृत्त हो जाता है तब जीव को मोह माया घेर लेती है। इसलिये ज्ञान का महत्व बतलाया गया है और ज्ञान योग के Singleान्त साधन का भी वर्णन Reseller गया है इस अध्याय में 22वें श्लोक में भोगों को दु:ख का कारण और विनाश शील बतलाया गया है तथा विवेकी व्यक्ति को इससे आसक्त ना होने की बात कही गयी है। योगी के विषय में कहा गया है जो काम क्रोध के वेग को सहन कर लेता है वही पुरूष योगी और सुखी है इस अध्याय में यह ध्यान देने योग्य है कि भगवान ने यह कहीं भी नहीं कहा है कि कर्म, अकर्म, विकर्म सब कुछ छोडकर सन्यासी हो जाओं यथार्थ Reseller में यह कहा है कि पूर्णतया कर्म फल का परित्याग करके कर्मयोगी या नित्य सन्यासी होने का ही आदेश दिया है। कर्म त्याग या स्वधर्म त्याग गीता का उपदेश नहीं है अपितु स्वधर्म पालन और कर्म फलत्याग गीता का उपदेश है क्योंकि कर्म त्याग करके संसार में रहना सम्भव नहीं है। केवल वैराग्य सम्पन्न व्यक्ति ही कर्म त्याग करके सन्यासी हो सकते हैं। श्री भगवान ने स्वयं कहा है कि- ‘न हि कश्चित् क्षणमपि जातु तिश्ठत्यकर्मकृत’ इत्यादि Meansात किसी भी अवस्था में क्षण भर भी ज्ञानी या अज्ञानी कोर्इ भी कर्म बिना किये रह नहीं सकता है क्योंकि प्रकृति से उत्पन्न गुण, राग, द्वेश आदि बाध्य करके कर्म कराते है। इस अध्याय का मुख्य उद्देश्य यह है कि फलाशक्ति ही बन्धन का कारण है, फल का त्याग ही यथार्थ सन्यास और आसक्ति त्याग ही मोक्ष है। इसी प्रकार सत्य तक का निर्णय Reseller गया है।

गीता के शश्ठ अध्याय में 46 श्लोक है और इस अध्याय का नाम “ध्यानयोग” है। ध्यानयोग में शरीर,इन्द्रिय, मन और बुध्दि का संयम करना परमावश्यक है तथा शरीर, इन्द्रिय, मन और बु़िध्द इन सबको आत्मा के नाम से कहा जाता है। और इस अध्याय में इन्हीं के विशेष संयम का वर्णन है इसलिये इस अध्याय का नाम “आत्मसंयमयोग” रखा गया है ध्यानयोग बहुत कठिन है। इसलिये इसके लिये विविध प्रकार के प्रयत्न की Need होती है। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि के माध्यम से ही ध्यानयोग के ब्राह्मी स्थिति की अवस्था प्राप्त होती है। इन योगांगो के माध्यम से तथा अभ्यास और वैराग्य का आलम्बन लेकर चंचल मन और इन्द्रियों को वश में Reseller जा सकता है इस अध्याय में भगवान ने Single आशा की वाणी सुनार्इ है शुभ कर्म करने वालों को कभी दु:ख नही होता है

“न हि कल्याणकृतकश्चिद् दुर्गतिं तात गच्छति” और भी “स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्” Meansात धर्म कर्म का अति अल्प अनुश्ठित होने पर भी वह अन्त में हमें मृत्यु भय और नरक भय से मुक्त करके ब्रह्मपद की या चरम लक्ष्य की प्राप्ति करा देता है किन्तु वह धर्म कर्म निश्काम भाव से ही करना चाहिये इस अध्याय के 46वें श्लोक में योगी की महिमा बतलाकर अर्जुन को योगी बनने की आज्ञा दी गयी है और 46वें श्लोक में सब योगियों में से अनन्य प्रेम से श्रध्दा पूर्वक भगवान का भजन करने वाले योगी की प्रसंशा करके इस अध्याय का उपसंहार Reseller गया है निश्कामकर्मी, निश्कामयोगी, निश्कामज्ञानी और निश्कामभक्त All श्री भगवान के परमपद को प्राप्त होते हैं ऎसा कहकर भगवान ने ज्ञान, कर्म, योग और भक्ति का समन्वय स्थापित Reseller है।

गीता के सप्तम अध्याय का नाम ‘ज्ञानविज्ञानयोग’ है इस अध्याय में कुल 30 श्लोक described है। इस अध्याय की संज्ञा से प्रतीत होता है कि जिस विशेष आयोग के आलम्बन से ज्ञान और विज्ञान का विकास होता है उसी का िवेस्तृत वर्णन Reseller गया है श्री कृष्ण ने आागे कहा है कि जो मनुष्य केवल इतना जान गया है कि ‘र्इश्वर है’ वह ज्ञानी है और लकडी में आग है, इसको जो जाने वह भी ज्ञानी है किन्तु लकडी जलाकर रसोर्इ पकाना और खाना तथा पूर्ण परितृप्त हो जाना, जिसको इसका ज्ञान होता है उसे विज्ञानी कहते हैं। Meansात कहने का तात्पर्य यह है कि ब्रह्म को Word और Means से जानने का नाम ‘ज्ञान’ है और ब्रह्म को विशेष Reseller से जानकर उसमें निरन्तर विलास करना, ब्रह्मानन्द में डूबा रहना विज्ञान है उन्होंने विज्ञानी के लक्षण में बताया है कि विज्ञानी के 8पाश (बन्धन)खुल जाते हैं केवल काम क्रोध आदि का आकार मात्र रहता है विज्ञानी सदा र्इश्वर का (ब्रह्म)दर्शन करता रहता है ये कभी नित्य आंखे खोलकर या लीलाभाव में भी दर्शन करते रहते हैं

जो योगी निरन्तर र्इश्वर चिन्तन करते हुये श्री भगवान वसुदेव को विशेष Reseller से जान सके है वही “युक्ततम” है स्वReseller तत्व का वर्णन करते हुये भगवान कहते हैं कि मेरी दो प्रकृतियां हैं अपरा और परा। अपरा प्रकृति आठ भागों में विभक्त है, जैसे बुध्दि, अहंकार, मन, क्षिति, अप, तेज, मरूत, व्योम और परा प्रकृति समस्त प्रपंच जगत को धारण करती है। इन दोनों प्रकृतियों के संयोग से इस संसार की सृष्टि होती है। भगवान ही इस संसार के मूल कारण हैं प्रलयकाल में स्थावर जंगम Resellerी समस्त सृष्टि लय को प्राप्त कर भगवान में ही समा जाती है। इसी को छन्दोग्य उपनिशद् में भी कहा गया है।

“तत् जलान् इति शान्त उपासीत्”(3/14/1) 

गीता का अश्टम अध्याय 28 श्लोकों से सुषोभित है ‘अक्षर’ और ब्रह्म दोनों Word भगवान के सगुण और निर्गुण दोनो ही स्वResellerों के वाचक हैं। तथा भगवान का नाम ओम भी है, इसे भी अक्षर और ब्रह्म कहते हैं इस अध्याय में भगवान के सगुण निर्गुण Reseller और ओंकार का वर्णन Reseller गया है इसलिये इस अध्याय का नाम “अक्षरब्रह्मयोग” रखा गया है इस अध्याय में परमेश्वर के स्वReseller का वर्णन के प्रसंग में ब्रह्मतत्व, ब्रह्मोपासना और अन्तकाल में र्इश्वरचिन्ता की विशेष Reseller से आलोचना हुर्इ है। भगवान ने र्इश्वर परायण होने का उपदेश दिया है।

श्री भगवान ने समझाते हुये कहा है कि मृत्युकाल में व्यक्ति जिस भाव को स्मरण करके अपनी देह छोडता है उसी भाव को प्राप्त होता है अत: अन्तिम समय में जो मुझे याद करता है वह मुझे ही प्राप्त कर मुक्ति लाभ को प्राप्त कर लेता है अर्जुन के प्रति श्री भगवान का स्पष्ट आदेश है। ‘मामनुस्मर युध्य च’- यह भाव केवल भगवान की भक्ति से ही होना संभव है। श्री कृष्ण ने ही कहा है- ‘‘अन्य विषय की चिन्ता छोडकर जो भक्त सदा भगवान का स्मरण करता है उसे अनायास उनका लाभ होता है और उसे पुन: जन्म नहीं लेना पड़ता।’’ उसके अनन्तर श्री भगवान ने कहा है- ‘‘इन्द्रिसंयम के द्वारा प्राण को भ्रू-युगल के बीच में स्थापित करके मन को संयमित रखते हुये और समतत्व की चिन्ता करते हुये देहत्याग करता है तो परमगति प्राप्त होती है। अश्टम अध्याय का अन्तिमश्लोक विशेष भावपूर्ण और गंभीर है- ‘वेदेशु यज्ञेशु’ योग की महिमा सुनो। उत्तम Reseller से वेद का अध्ययन करने से, यज्ञानुश्ठान, दान, तीव्र, तपस्या करने से पुण्य कल का उदय होता है और सुख की प्राप्ति होती है। इस अध्याय का मुख्य उद्देश्य-सदा र्इश्वर चिन्तन करना उसके अतिरिक्त और कुछ नहीं।

गीता के नवमोSध्याय का नाम ‘राजीवद्याराज गुह्ययोग’ है। इस अध्याय में भगवान ने जो उपदेश दिया है उसको उन्होने समस्त विद्याओं और समस्त गुप्त रखने योग्य भावों का King बतलाया है। इस अध्याय में 34 श्लोक है। इस अध्याय में विशेष Reseller से ‘र्इश्वरीय योग- सामथ्र्य, भगवान के भक्त, देवी सम्पदा सम्पन्न और अभक्त आसुरी सम्पदा मुक्त, र्इश्वर का विश्वानुगत् भाव, योगक्षेम और भगवदभक्ति के फल का स्वReseller, श्री भगवान भक्ति के लिये इच्छुक, र्इश्वर में Singleान्त शरणगति ही भक्ति लाभ का श्रेष्ठ उपाय आदि विषयों पर विस्तृत विवेचना हुर्इ है। इस अध्याय में श्रेष्ठ विद्या और उसकी प्राप्ति का सर्वोत्तम साधन described है। इस अध्याय के अन्त में भगवान कहते हैं कि मेरी शरणगति से स्त्री, वैश्य-शुद्र और चाण्डाल आदि किसी को भी परमगति की प्राप्ति संभव हो सकती है। 33वें और 34वें में पुण्यशील ब्राह्मण और राजर्शि भक्तजनों की बड़ार्इ करके शरीर की अनित्यता स्पष्ट Reseller गया है।

गीता के ‘दशमोSध्याय’ में प्रधान Reseller से भगवान की विभूतियां का ही वर्णन है इसलिये इस अध्याय का नाम ‘‘विभूतियोग’’ रखा गया है। इस अध्याय में 42 श्लोक है। इस अध्याय में विशेष Reseller से ‘र्इश्वरीय’ विभूतियों का वर्णन Reseller गया है। श्री भगवान की बड़ी विभूति यह है कि वह विश्वानुगत होकर भी विश्वातीत है, निगुर्ण होते हुए भी सगुण की तरह प्रतीत होता है। Single होकर भी अनेक Resellerों में प्रतीत होता है। वेदो में- ‘अपाणिपादो जवनो ग्रहीता प्ष्यत्यचक्ष: स श्रुणोत्यकर्ण:’ कहा गया है। पुरूष सुक्त में ‘सहर्शशीर्शा’ पुरूष है। इस विभूति अध्याय के प्रारम्भ में ही भगवान ने स्वयं कहा है कि मेरा स्वReseller तत्व देवता भी नहीं जानते क्योंकि मैं उनका भी आदि कारण हूँ, All महर्षि, चतुर्दश मनु आदि समस्त भगवान से ही उत्पन्न है। अर्जुन के द्वारा पूछे जाने पर भगवान कहते हैं कि मेरी विभूतियों का अन्त नहीं है। मैं प्राणीवर्ग का आदि, मध्य और अन्त हूँ। आदित्यों में मैं विश्णु, ज्योतिशों में मैं Ultra site, नक्षत्रों में मैं चन्द्र, देवताओं में मैं इन्द्र, रूद्रों में मैं शंकर वायुओं में मैं मरीचि हूँ…………………। इस प्रकार भगवान ने कृपा करके अर्जुन को निर्देशित कर जगतवासियों को स्वयं प्राप्ति का सुगममार्ग बता दिया है- जो लोग मुझमें चित्त अर्पण कर भक्ति से मेरी उपासना करते हैं वे मुझे पाने में समर्थ होते है। गीता के चालीसवें श्लोक में अपनी दिव्य विभूतियों के विस्तार को अनन्त बतलाकर इस प्रकरण की समाप्ति की है।

गीता के SingleादशोSध्याय का नाम ‘विश्वReseller दर्शन योग’ है। 55 श्लोकों में यह अध्याय समाप्त है। इस अध्याय में अर्जुन ने भगवान से कातर भाव प्रार्थना किये है कि हे भगवान आप अपने विश्वReseller का दर्शन मुझको करवा दें। इसलिये इस अध्याय में विश्वReseller का और उसके स्तवन का ही प्रकरण है। इसलिये इस अध्याय का नाम ‘विश्वReseller दर्शन योग’ रखा गया है। इस अध्याय में First से Fourth श्लोक में अर्जुन ने भगवान की और उनके उपदेश की प्रशंसा करके विश्वReseller के दर्शन् कराने के लिये भगवान से अनुनय-विनय की है। इसके बाद प्रसन्न होकर भगवान ने अपना र्इश्वरीय Reseller दिखलाया है। किन्तु स्थूल नेत्रों से भगवान के चिन्मय स्वReseller का दर्शन् नहीं हो सकता है केवल इससे सांसारिक पदार्थ ही देखे जा सकते है। इस कारण भगवान ने दिव्यचक्षु या भाव नेत्र अर्जुन को प्रदान किये थे। और इन दिव्य चक्षुओं से अर्जुन ने भगवान के विश्वReseller का दर्शन् Reseller जिसको देखकर लोग परमगति को प्राप्त होते हैं। दसवें से तेरहवें तक अर्जुन को कैसा Reseller दिखलायी दिया, इसका वर्णन Reseller गया है। यह संसार ब्रह्म का विराट शरीर है वेद में ‘सहस्रशीर्शा’ पुरूष: सहस्राक्ष: सहास्रपात्……….. …। से वर्णन Reseller गया है। यह विश्वब्रह्माण्ड उन्हीं का विराट Reseller है इसी कारण वह विश्वReseller है। इस प्रकार इस विराट Resellerी भगवान का दर्शन् करने से-

भिद्यते हृदय ग्रन्थिष्छिद्यन्ते सर्वसंशया:। 

क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन दृश्टे परावरे।। 

ऐसी अवस्था प्राप्त होती है। श्री भगवान ने अर्जुन को जिस दिव्य Reseller का दर्शन् कराया था वह यथार्थ में ही अद्भुत, अनिर्वचनीय और अदृश्ट पूर्व है। वह विश्व Reseller All ओर पूर्ण, सर्वव्यापी, आदि-अन्त-मध्य रहित तथा ज्योतिर्मय है फिर विश्व के जन्म-स्थिति लय भी उन्हीं में हो रहें हैं। भगवान के विश्वReseller को देखकर अर्जुन भय से कांपने लगे तब भगवान के शान्त मूर्ति धारण कर अर्जुन को आश्वासन देते हुये कहा- ‘‘जिस विश्वReseller का तुमने दर्शन् Reseller है वह देवताओं के लिये भी दुर्लभ है। केवल Single निश्ठ भक्ति के बिना मेरा यह विश्वReseller कोर्इ देख नहीं सकता है तुम मेरे प्रिय भक्त हो इसलिये मेरे इस विश्वReseller का दर्शन् तुमको प्राप्त हो सका। मैं ही तुम्हारा परमगति हूँ और समस्त कर्मों का कर्ता मैं ही हूँ और सारे कर्म मेरे ही हैं। ऐसा समझकर तुम अनासक्त चित्त से Fightादि समस्त कर्म करते रहो’’ यही श्री भगवान का उपदेश है। कुछ प्राप्त करना अभीश्ट हो तो मांगना अति आवश्यक होता है। जब तक अर्जुन ने पुरूषोत्तम के पास- ‘द्रश्टुमिच्छामि ते Resellerं ऐष्वरम्’ ऐसी प्रार्थना नहीं की थी तब तक भगवान ने अपना अव्यय आत्मास्वReseller प्रगट नहीं Reseller था।

गीता का द्वादश अध्याय 20 श्लोकों में ही समाप्त है। किन्तु यह अध्याय भक्ति साधन के पथ निर्देश के लिये विशेष महत्वपूर्ण है। भक्तियोग, कर्मयोग, ज्ञानयोग, राजयोग के साधनों सहित भगवान की भक्ति का वर्णन And भगवद् भक्तों का लक्षण बतलाया गया है। इस अध्याय का उपक्रम और उपसंहार भगवद् भक्ति में ही हुआ है। केवल तीन श्लोकों में ज्ञान के साधन का वर्णन हैं वह भी भगवद्भक्ति और ज्ञानयोग की परस्पर तुलना करने के लिये ही है। अतएव इस अध्याय का नाम ‘‘भक्तियोग’’ रखा गया है।

इस अध्याय के प्रारम्भ में अर्जुन का प्रश्न है- सगुण-साकार, निर्गुण-निराकार के उपासकों में कौन सहज या श्रेष्ठ है ? इसके उत्तर में भगवान कहते हैं कि यद्यपि दोनों ही मार्गों का उद्देश्य Single ही है तो भी सगुण ब्रह्मो पासना या भक्ति का मार्ग श्रेष्ठ है। इस भक्ति मार्ग के भी अनेक उपाय है उनमें भक्तियुक्त निश्काम कर्म ही श्रेष्ठ है। जो मनुष्य भक्ति मार्ग का अवलम्बन लेकर, इन्द्रिय संयम करते हुये तथा सर्वत्र समत्व बुद्धि युक्त होकर सम्पूर्ण प्राणियों में आत्म दर्शन करता है वे भी परमात्मा को प्राप्त करता है। इस अध्याय में विशेष Reseller से भक्ति मार्ग का सहारा लेकर र्इश्वरोपासना का उपदेश दिया गया हैं। इस कारण इस अध्याय का नाम भक्ति योग रखा गया है। भगवान ने अर्जुन को उपदेश दिया है कि सब कर्मों को मुझमें अर्पण करके अनन्य भावों से मेरा ही चिन्तन करों और ऐसा करने पर भक्तों का उद्धार मैं स्वयं करता हूँ। इस अध्याय के तेरहवें से उन्नीसवें तक भगवान ने अपने प्रिय ज्ञानी महात्मा भक्तों के लक्षण बतलाये है और बीसवें में उन ज्ञानी महात्मा भक्तों के लक्षणों को आदर्श मानकर श्रद्धापूर्वक वैसा ही साधन करने वाले भक्तों को अत्यन्त प्रिय बतलाया है।

गीता का त्रयोदश अध्याय 35 श्लोकों में described है। इस अध्याय का नाम ‘‘क्षेत्रक्षेत्रज्ञ’’ अथवा ‘‘प्रकृतिपुरूष विभाग योग’’ है। क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ Meansात शरीर और आत्मा दोनों अत्यन्त विलक्षण हैं। अज्ञान के कारण ही दोनों में Singleता दिखार्इ देती है। क्षेत्र (शरीर) जड़, विकारी, नाशवान और क्षणिक है वहीं क्षे़त्रज्ञ इसके विपरीत चेतन, अविकारी, निर्विकार नित्य और अविनाशी है। क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ दोनों के स्वReseller का भेद वर्णन Reseller गया है। इसलिये इसका नाम ‘‘क्षेत्रक्षेत्रज्ञ विभाग योग’’ रखा गया है। इस अध्याय के अन्तिम श्लोक के विषय में आचार्य शंकर ने लिखा है कि इस श्लोक से अध्याय का सारमर्म सूचित हुआ है। क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ Meansात् शरीर और आत्मा के भेद दर्शन् से ही मुक्ति है। देहात्म अभेद ही सारे बन्धनों का कारण है और इसका भेद ही आत्मज्ञान है। ‘‘जब तक देह बुद्धि है, तभी तक सुख-दुख जन्म-मृत्यु, रोग-शोक है ये सब देह को ही होता है आत्मा को नहीं। ‘‘आत्मज्ञान’’ की प्राप्ति होने के बाद सुख-दुख, जन्म-मृत्यु आदि स्वप्न की तरह मिथ्या प्रतीत होते है। क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का यह भेदज्ञान ही ‘यथार्थज्ञान’ है। वही परमेश्वर का ज्ञान ब्रह्मज्ञान है। योग मार्ग के अवलम्बन से ध्यान, धारणा और समाधि और अनात्मा के विचार द्वारा ही आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है और इसी से मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है।

गीता का चतुर्दश अध्याय 27 श्लोकों में रचित है। इस अध्याय में प्रकृति के त्रिगुण (सत, रज,तम) के स्वReseller और उनके कार्य, कारण और शक्ति का वर्णन हुआ है। सांख्य में भी ‘‘गुणानां साम्यावस्था प्रकृति:’’ कहा गया है। जीवात्मा को बन्धन और अज्ञान से आवृत्त करने का मुख्य कार्य में त्रिगुण ही करते हैं। इन त्रिगुणों से जब मनुष्य छूट जाता है तभी वह परमपद को प्राप्त होता है। सत, रज, तम इन तीन गुण और त्रिगुणों से अतीत त्रिगुणातीत अवस्था ही इस अध्याय में विशेष Reseller से आलोचित हुये है। इस लिये इस अध्याय का नाम ‘‘गुणत्रय विभाग योग’’ है। तीन गुणों से अतीत होकर परमात्मा को प्राप्त मनुष्य के क्या लक्षण हैं ? इन्हीं त्रिगुण सम्बन्धी बातों का विवेचन इस अध्याय में Reseller गया है। श्री कृष्ण ने कहा है- ‘‘मेरी Single निश्ठ भाव से भक्ति योग के द्वारा सेवा करने से ही त्रिगुणातीत होकर ब्रह्मभाव प्राप्ति होती है, क्योंकि मैं ही ब्रह्म की प्रतिश्ठा हूँ’’। फिर आगे कहते हैं कि पराभक्ति और ब्रह्मभाव Single ही है। क्योंकि दोनों से ही मुक्ति प्राप्त हो सकती है।

यह सम्पूर्ण दृष्यमान- अदृष्यमान ब्रह्माण्ड प्रकृति का ही परिणाम है। प्रकृति और पुरूष के संयोग से ही सृष्टि का विकास होता है। परमेश्वर को प्राणियों का पिता और प्रकृति को माता कहा जाता है। 11वें से 13वें तक बढ़े हुये सत, रज, तम तीनों गुणों का क्रम से लक्षण बतलाया गया है। जिस मनुष्य में जो गुण ज्यादा मात्रा में होता है उसी के अनुReseller उसका स्वReseller निर्धारित होता है। सत्वगुण “वेत रंग का होता है। और सुख्या उत्पन्न करता है। रजोगुण ऋणात्मक होता है। इसकी बृद्धि से लोभ, काम प्रवृत्ति, विषय-वासना आदि उत्पन्न होती है। यह लाल रंग का होता है। त्रयोगुण की वृद्धि होने पर विवेक का नाश, उद्यम का अभाव तथा बुद्धि का विपर्यय होता है। जिससे यह गुण ज्यादा होता है।

उसे तामसिक प्रवृत्ति का मनुष्य कहते हैं। सत्तवगुण से ज्ञान का उदय होता है रजोगुण से कर्म में प्रवृत्ति और त्रयोगुण से अज्ञान और बुद्धि-विषय होता है। तीनों गुणों के Singleत्र होने पर जो गुण Single Second को दबाकर प्रबल हो जाता है उसी गुण की प्रबलता मानी जाती है। श्री भगवान ने अर्जुन को निस्त्रैगुण्य होने का आदेश देकर नित्यसत्तवस्थ होने के लिये कहते हैं। इसका आशय यह है कि तीनों गुणों का समाहार होने से ही विशुद्ध सत्ता का उदय होता है।

इस अध्याय के अन्त में श्री भगवान ने जो त्रिगुणातीत अवस्था के लक्षण बतायें हैं वह अति दुर्लभ है। त्रिगुणातीत होना या मायातीत होना या ब्रह्मभाव प्राप्ति सब Single ही है इस प्रकार स्थित प्रज्ञ और त्रिगुणतीत Single ही अवस्था है। अनन्तर अन्तिम सत्ताइसवें श्लोक में ब्रह्म, अमृत, अव्यय आदि भगवान के स्वReseller होने से अपने को इन सबकी प्रतिश्ठा बतलाकर अध्याय का उपसंहार करते हैं। मनुष्य का स्वधाम है परमब्रह्म। त्रिगुणातीत न होने से ब्रह्मज्ञान नहीं होता है।

गीता का पंचदश अध्याय 20 श्लोकों में रचित है। इस अध्याय का नाम ‘‘पुरूषोत्तम योग’’ है। इस अध्याय में सम्पूर्ण गीता शास्त्र का भाव व्यक्त Reseller गया है। सम्पूर्ण जगत के कर्ता-धर्ता-हर्ता, ‘सर्वषाक्तिमान’ सबके नियन्ता, सर्वव्यापी अन्र्तयामी, परमदयालु शरण लेने योग्य, सगुण परमेश्वर परम पुरूषोंत्तम भगवान के गुण -प्रभाव और स्वReseller का वर्णन Reseller गया है। इसी अध्याय में क्षर पुरूष (क्षेत्र) अक्षर पुरूष (क्षेत्रज्ञ) और पुरूषोत्तम तीनों का वर्णन Reseller गया है। ‘क्षर’ और ‘अक्षर’ से भगवान किस प्रकार श्रेष्ठ है और सब में कैसे उत्तम है, क्यों पुरूषोत्तम कहे जाते हैं ? पुरूषोत्तम कहने के पीछे क्या माहात्मय है। इस सबका उत्तर इसी अध्याय में विस्तृत Reseller से मिलता है। और इतना ही नहीं समस्त वेदों का Means भी इस अध्याय में संक्षेप में बताया गया है। ‘‘जो उन्हें जानता है, वही वेदज्ञ है’’, ‘समस्त वेदों का मैं ही प्रतिपाद्य Means हूँ। श्री भगवान ने स्वयं कहा है- ‘‘मैं क्षर से परे और अक्षर (कूटस्थ) से भी उत्तम हूँ। इसी कारण इस लोक तथा वेद में मैं पुरूषोत्तम नाम से प्रसिद्ध हूँ।अस पुरूषोत्तम को जानने से ही मनुष्य सर्वज्ञ हो जाता है। उसको यह ज्ञान हो जाता है। कि वह सगुण और निर्गुण भी है। साकार और निराकार भी है और जब भक्तों पर दु:ख पड़ता है तब भगवान अतवार Reseller में अवतीर्ण होते हैं। इस अध्याय में आगे यह कहा गया है कि यह पुरूषोत्तम तत्व अत्यन्त गोपनीय है और बिना र्इश्वर की कृपा के कोर्इ इसे समझ नहीं सकता है।

श्री भगवान कहते हैं कि- जीव मेरा ही सनातन अंश है। वह कर्म फल के According सत् या असत् योनियों में जन्म ग्रहण करके सुख-दुखादि भोगता है। जो ब्रह्मवित् है वह जानते हैं कि ब्रह्म त्रिगुण से परे है और इन त्रिगुणों से निर्लिप्त है। पुरूषोत्तम को श्रुतियां भी परम ब्रह्म, परम पुरूष और पूर्व भगवान मानती हैं। इनके दर्शन् से ही मनुष्य चिरमुक्त हो जाता है। मुण्डकोपनिशद् में लिख हैं-

‘‘भिद्यते हृदयग्रन्थिष्छिद्यन्ते सर्व संषय:। 

क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन दृश्टे पराडवरे।। 

Meansात् आत्म स्वReseller भगवान का दर्शन् करते ही आत्मज्ञानी का अहंकार Reseller हृदयग्रान्थि छिन्न हो जाती है और समस्त संदेह दूर हो जाते हैं और जन्म-जन्मान्तर के समस्त कर्म क्षय को प्राप्त हो जाते है। उस पुरूषोत्तम के सम्बन्ध में ऋग्वेद के पुरूषसुक्त का मंत्र है-

‘‘सहस्रषीर्शा पुरूष: सहस्राक्ष: सह स्रपात्। 

स भूमिं विश्वतो वृत्वात्यतिश्ठ दशांगुलम्।।’’ 

श्रीमदभगवत् में भी इन्हीं पुरूषोत्तम की उपासना की श्रेष्ठता के सम्बन्ध में कहा गया है-

वसुदेव परा वेदा, वसुदेव परा मुखा:। 

वसुदेव परा योगा , वसुदेव पर क्रिया:।। 

वसुदेव परं ज्ञानं , वासुदेव परं तप:। 

वसुदेव परो धर्मो वासुदेव परा गति:।। 

इस प्रकार वासुदेव ही मनुष्यों की परम गति है। और यही समस्त वेदों का Single मात्र प्रतिपाद्य विषय है।

गीता का शोड्ष् अध्याय 24 श्लोकों में समाप्त है। इस अध्याय में दैव तथा आसुरी सम्पत्तियों का विभाग Reseller गया है। इस कारण इस अध्याय का नाम ‘‘दैवासुरसम्पद विभाग योग’’ है। श्री भगवान ने First दैवीय सम्पदा के अन्तर्गत 26 Seven्विक गुणों का वर्णन Reseller है जैसे- चिन्तशुद्धि, आत्मज्ञान में निश्ठा, सत्य, अक्रोध, त्याग, शांति, जीवों पर दया, लज्जा चंचलता का अभाव, क्षमा, धैर्य, शौच, अहिंसा, अहंकार, शून्यता आदि दैवी सम्पदाएं है। और जो लोग पूर्व जन्म के शुभ कर्मों के फलस्वReseller दैवी सम्पदा के अधिकारी पात्र होकर जन्में है वे ही इन 26 Seven्विक गुणों के अधिकारी है। उसी प्रकार दर्प, दम्भ, अभिमान, क्रोध, निश्ठुरता, अज्ञान आदि आसुरी सम्पदा लेकर जो जन्मे है वे ही दु:ख सदैव भोगते रहते है। ये लोग दुर्गुण और दुराचार ज्यादा करते हैं। जो लोग दैवी सम्पदा से युक्त होते हैं वे मोक्ष प्राप्ति की ओर अग्रसर होते रहते है और जो आसुरी सम्पदा से युक्त मनुष्य है उसके लिये संसार ही बन्धन का कारण है। आसुर प्रकृति वाले मनुष्यों को पुण्य-पाप-धर्म-अधर्म है तथा कामोपभोग को ही जीवन का परम पुरूषार्थ समझते है और प्राणियों का अनिश्ट करते हैं। इस प्रकार आसुर स्वभाव वाले लोग अधर्म का आचरण करके भूयष: अधोगति को प्राप्त होते है और उनकी मुक्ति का कोर्इ उपाय नहीं रहता है। इस प्रकार अर्जुन को लक्ष्य करके भगवान मानों सम्पूर्ण सृष्टि को यह बता देना चाह रहें है कि काम, क्रोध, लोभ यह तीनों ही आसुरी स्वभाव का मूल कारण है। तथा All अनर्थों का यह मूल द्वार है। इसलिये काम, क्रोध, लोभ इन तीनों का परित्याग कर श्रेय मार्ग को अपनाना चाहिये और शास्त्र विहित कर्तव्य करके अपने स्वधर्म का पालन करना चाहिये। इस प्रकार भगवान ने शोड्ष अध्याय के First नवें अध्याय के बारहवें श्लोक में भी ‘‘राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनी श्रिता:’’ से आसुरी सम्पदा वालों का और तेरहवें श्लोक में दैवीं प्रकृतिमाश्रिता: मां भजन्ते’’ पदों से दैवी सम्पदा वालों का वर्णन Reseller है।

गीता का सप्तदश अध्याय मात्र 28 श्लोकों में ही रचित है। अर्जुन के प्रश्न करने पर श्री भगवान ने यहां विविध श्रद्धा का विशेष वर्णन Reseller है, इस कारण इस अध्याय का नाम ‘‘श्रद्धात्रय विभाग योग’ है। त्रिविध श्रद्धा के अतिरिक्त इसमें त्रिविध आहार, त्रिविध यज्ञ, त्रिविध तपस्या, त्रिविध दान आदि के विषय में विशेष Reseller से आलोचना हुर्इ है। इस अध्याय के आरम्भ में अर्जुन ने श्रद्धायुक्त पुरूषों की निश्ठा पूछी है, उसके उत्तर में भगवान ने तीन प्रकार की श्रद्धा बतलाकर श्रद्धा के According ही निश्ठा पूछी है फिर पूजा, यज्ञ, तप आदि में श्रद्धा का सम्बन्ध बताते हुये इसके अन्तिम श्लोक में श्रद्धारहित पुरूषों के कर्मोें को असत् बतलाया गया है। सत्व आदि त्रिगुणों के भेद से मनुष्य की त्रिविध प्रकृति या अन्त:करण वृत्ति उत्पन्न होती है। इस कारण प्रकृति भेद से उनकी श्रद्धा भी Seven्विक, Kingसिक और तामसिक होती है। Seven्विक श्रद्धा से युक्त साधक देवताओं की पूजा करते हैं। राजसिक प्रकृति वाले मनुष्य कामना युक्त चित्त से यक्ष, राक्षस आदि की पूजा करते हैं। फिर तामसिक मनुष्य रोग मुक्ति आदि की कामना करके भूत, प्रेत आदि की उपासना करते हैं। स्वामी विवेकानन्द ने लिखा है कि इस नियम का व्यतिक्रम कभी नहीं होता कि शुभ कर्म का शुभ फल और अशुभ कर्म का अशुभ फल प्राप्त होना अनिवार्य है। कर्म की गति अति दुर्ज्ञेय है। आचार्य शंकर ने अपने विवेक चूडामणि ग्रन्थ में लिखा है –

‘‘नाभुक्तं श्रीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि। 

अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्।।’’ 

Meansात् जो शुभाशुभ कर्म Reseller गया है उसका फल अवश्य ही भोगना पड़ता है। भोग किये बिना शत् कोटिकल्प में भी कर्म का क्षय नहीं होता। इन कर्मों की त्रिविध स्थितियों का वर्णन शास्त्रों में भी मिलता है-

  1. प्रारब्ध जिसका भोग चल रहा है। 
  2. क्रियमाण-जो भोगकाल में Reseller जा रहा है। 
  3. संचित- जो अभी फल देने में प्रवृत्त नहीं हुआ है। प्रत्येक जीव को इन तीनों कर्मों का क्षय भोग करके ही करना पड़ता है। श्रुति कहती है- 

पुण्या वै पुण्येन कर्मणा भवति, पाप: पापेन’’ (बृहदा 3/2/13)। 

Meansात् पुण्य कर्म से ही पुण्य की उत्पत्ति होती है और पाप कर्म से पाप की उत्पत्ति होती है। कर्म क्षय का Single उपाय भी है- श्री भगवान कहते हैं-

‘‘ज्ञानाग्नि: सर्व कर्माणि भस्मSeven् कुरूते तथा।’’ 

Meansात् ब्रह्मज्ञान Resellerी अग्नि (प्रारब्ध कर्म को छोडकर) समस्त शुभाशुभ कर्मों को भस्म कर देती है। प्रत्येक मनुष्य को अपने-अपने प्रारब्ध कर्मों के भोग के लिये जन्म-ग्रहण करना पड़ता है। इस प्रकार भगवान केवल मनुष्य के कर्म फल भोग की व्यवस्था कर देते हैं जिससे वे अपने-अपने कर्मों का फल भोग करके मुक्ति के मार्ग में अग्रसर हो सकें।

गीता का अष्टादश अध्याय 78 श्लोको में रचित है यह गीता का अन्तिम महत्व पूर्ण अध्याय है। समस्त गीता में श्लोक संख्या की दृष्टि से यह अध्याय सबसे बडा है। इस अध्याय के 73 श्लोक तक श्रीमद भगवदगीता या श्री कृष्ण-अर्जुन संवाद है। बाकी 5 श्लोक संजय के वाक्य है। इस प्रकार आलोचित विषय वस्तु की दृष्टि से भी श्रेष्ठ है। इस अध्याय में समस्त गीता शास्त्र की आलोचना का उपसंहार करके Human जीवन का चरम आदर्श और मोक्ष लाभ कैसे हो सकता है इसका वर्णन Reseller गया है। इस कारण इस अध्याय का नाम ‘‘मोक्षयोग’’ है। अर्जुन सन्यास और त्याग के तत्व को पृथक-पृथक जानना चाह रहे है। इसके उत्तर में भगवान कहते हैं कि काम्य कर्म का त्याग ही सन्यास है और सारे कर्मों के फल मात्र का त्याग ही यथार्थ सन्यासी है। कर्म फल त्याग करके स्वधर्म का अनुष्ठान ही मुख्य विषय है। श्री भगवान अपना अन्तिम उपदेश देते हुये कहते हैं कि

‘‘मन से समस्त धर्म-कर्म मुझमें सौंप कर सर्वदा मुझमें मन रखों और अपने अधिकार के According स्वधर्म का पालन करो, उसी से मेरी प्रसन्नता पाकर मुक्त हो सकोगे। क्योंकि बिना र्इश्वर की कृपा के मनुष्य माया मुक्त हो ही नही सकता है। भक्त अर्जुन को श्री भगवान गीता का गुह्ययतम् उपदेश देकर कहते हैं- ‘‘तुम Single मात्र मेरी ही चिन्ता करो मेरी ही भक्ति करो, पूजा करो, मुझे ही नमस्कार करों। मैं प्रतिज्ञा करके कहता हूँ कि तुम मुझे ही पाओगे। सब धर्मों का परित्याग कर तुम मेरी ही शरण लो, मैं माया-बन्धन से तुम्हें चिरकाल के लिये मुक्त करूंगा।’’ श्री भगवान ने Single छोटी बात से सारे उपदेशों का उपसंहार कर दिया- अहं त्वाम्सर्व पापेभ्यो मोक्षयिश्यामि मा शुच:। यही शरणागति योग है। ‘‘तुम केवल मेरी शरण लो, मैं तुम्हें All पापों से मुक्त करूंगा।’’ इस प्रकार श्री कृष्ण की करूणामय मूर्ति को देखकर अर्जुन का संदेह दूर हो गया है और उन्होने विनम्रता And कृतज्ञता के साथ कहा है- हे भगवान- ‘‘ मेरे अन्तर के सारे संदेह दूर हो गये हैं, मैं तुम्हारे आदेश का पालन करूंगा, तुम्हारी कृपा से मैं धन्य हो गया हूँ’’। ब्रह्मज्ञान के बाद जो अवस्था प्राप्त होती है अर्जुन को सहज ही प्राप्त हो गयी हैं।

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