विकास की अवधारणा

परिवर्तन प्रकृति का नियम है। परिवर्तन सकारात्मक व नकारात्मक दोनों ही हो सकते हैं। किसी भी समाज, देश, व विश्व में कोर्इ भी सकारात्मक परिवर्तन जो प्रकृति और Human दोनों को बेहतरी की ओर ले जाता है वही वास्तव में विकास है। अगर हम विश्व के History में नजर डालें तो पता चलता है कि विकास Word का बोलबाला विशेष Reseller से द्वितीय विश्व Fight के बाद सुनार्इ दिया जाने लगा। इसी समय से विकसित व विकासशील देशों के बीच के अन्तर भी उजागर हुए और शुरू हुर्इ विकास की अन्धाधुन्ध दौड़। सामाजिक वैज्ञानिकों, Meansशास्त्रियों, नीति नियोजकों द्वारा विकास Word का प्रयोग Reseller जाने लगा। Human विकास, सतत् विकास, चिरन्तर विकास, सामुदायिक विकास, सामाजिक विकास, आर्थिक विकास, राजनैतिक विकास जैसे अलग-अलग Wordों का प्रयोग कर विकास की विभिन्न परिभाषाएं दी गर्इ। संयुक्त राष्ट्र संघ ने विकास की जो परिभाषा प्रस्तुत की है, उसके According “विकास का तात्पर्य है सामाजिक व्यवस्था, सामाजिक संCreation, संस्थाओं , सेवाओं की बढ़ती क्षमता जो संसाधनों का उपयोग इस प्रकार से कर सके ताकि जीवन स्तर में अनुकूल परिवर्तन आये”। संयुक्त राष्ट्र संघ के According विकास की प्रक्रिया जटिल होती है क्यों कि विकास आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक और प्रशासनिक तत्वों के समन्वय का परिणाम होता है।

आदिHuman युग से लेकर वर्तमान युग तक विकास की प्रक्रिया विभिन्न स्वResellerों में निरन्तर चली आ रही है। देश, काल, परिस्थिति व संसाधनों के अनुReseller इसके अलग-अलग आयाम हो सकते हैं। विकास के इस दौर में, पिछले कुछ दशकों से सामाजिक तथा आर्थिक विकास पर बल दिया जाने लगा है। विकास को लेकर राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न देशों द्वारा कर्इ विकासीय योजनाओं व कार्यक्रमों का शुभारम्भ Reseller गया। अैाज भी सरकार इस पर करोड़ों Resellerये खर्च कर रही है। यद्यपि आज विकास के नाम पर सतत् विकास का ढिंढोरा पीटा जा रहा है, लेकिन विश्व स्तर पर अगर हम देखें तो विकास की वर्तमान दौड़ में आर्थिक विकास ही अपना वर्चस्व बनाये हुए है। विश्व स्तर पर तेजी से बदलते परिदृश्य व स्थानीय स्तर पर उसके पड़ने वाले प्रभाव को देख कर यह स्पष्ट हो गया है कि विकास आज Single अन्तर्राष्ट्रीय प्रश्न बन गया है। वैश्वीकरण के इस युग में विकास की नर्इ परिभाषाएं तय की जा रही है आज गरीब और गरीब व अमीर और अमीर बनता जा रहा है। विकास कुछ ही लोगों की जागीर बनता जा रहा है।

विकास का Means 

विकास Word की उत्पत्ति ही गरीब, उपेक्षित व पिछड़े सन्दर्भ में हुर्इ। अत: विकास को इन्हीं की दृष्टि से देखना जरुरी है। विकास को साधारणतया ढाँचागत विकास को ही विकास के Reseller में ही देखा जाता है, जबकि यह विकास का Single पहलू मात्र है। विकास को समग्रता में देखना जरूरी है, जिसमें Human संसाधन, प्राकृतिक संसाधन, सामाजिक, आर्थिक राजनैतिक, सांस्कृतिक, व नैतिक व ढाँचागत विकास शामिल हो। विकास के इन विभिन्न आयामों में गरीब, उपेक्षित व पिछडे वर्ग व संसाधन हीन की Needओं And समस्याओं के समाधान प्रमुख Reseller से परिलक्षित हों। वास्तव में विकास Single निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है जो सकारात्मक बदलाव की ओर इषारा करती है। Single ऐसा बदलाव जो Human, समाज, देश व प्रकृति को बेहतरी की ओर ले जाता है। विभिन्न बुद्धिजीवियों द्वारा विकास को विभिन्न Resellerों में परिभाषित Reseller है । क्लार्क जे0 के Wordों में ‘‘विकास बदलाव की Single ऐसी प्रक्रिया है जो लोगों को इस योग्य बनाती है कि वे अपने भाग्य विधाता स्वयं बन सके तथा अपने अन्र्तनिहित समस्त सम्भावनाओं को पहचान सकें।’’  रॉय एंड राबिन्सन के According ‘‘किसी भी देश के लोगों के भौतिक, सामाजिक व राजनैतिक स्तर पर सकारात्मक बदलाव ही विकास है।’’

विश्व स्तर पर विकास की प्रक्रिया का संक्षिप्त description 

यद्यपि आदि काल से विकास की प्रक्रिया निरन्तर चली आ रही है जिसके हर काल में अलग अलग स्वReseller रहे हैं। यदि हम 19वीं सदी में विश्व स्तर पर विकास की प्रक्रिया को देखें तो हमें यूरोप से इसे देखना होगा। यूरोपीय देशों में औद्योगिक क्रान्ति की शुरुआत के साथ ही कच्चे माल व मजदूरों की मांग बढ़ने लगी। जिसके साथ ही प्रारम्भ हुआ उपनिवेशवाद का दौर। इस दौरान विश्व स्तर पर विकास का Means विकसित देशों द्वारा अविकसित देशों में अपने उपनिवेश स्थापित करना माना गया। यह युग “कोलोनियल इरा” Meansात उपनिवेशवाद का युग के Reseller में प्रसिद्ध हुआ। इस युग में विकास का मतलब विकसित देशों द्वारा उन देशों का विकास करना माना गया जिन देशों में उन्होंने अपने उपनिवेश स्थापित किये थे। और यह विकास उन देशों के Human संसाधन, भौतिक संसाधन व प्राकृतिक संसाधनों के शोशण की कीमत पर Reseller जाता रहा। यद्यपि इस विकास को औपनिवेशवाद को बढ़ावा देने वाले देशों ने यह तर्क देकर न्यायोचित ठहराया कि इन कार्यों से अविकसित देशों की Safty, प्रगति व विकास होगा। लेकिन उपनिवेशवाद की इस पूरी प्रक्रिया में शासित की सदियों से चली आ रही स्थानीय विकास की पारम्परिक व्यवस्थाओं को गहरा धक्का लगा। उपनिवेशवादी देशों के लिए विकास का मतलब था “अपने According कार्य करना”।

द्वितीय विश्व Fight के बाद विकास को औद्योगिकरण व आर्थिक विकास के Reseller में देखा गया। जिसके अन्तर्गत सकल राष्ट्रीय उत्पाद को प्रगति का सूचक माना गया। विकसित देशों द्वारा अविकसित देशों हेतु आर्थिक And तकनीकी सहायता प्रदान करने का दौर शुरु हुआ।विश्व बैंक व अन्र्तराश्ट्रीय मुद्रा कोश (इन्टरनैशनल मोनेट्री फंड,) (IMF) जैसे संस्थानों की स्थापना की गर्इ। इनका कार्य Fight के बाद चरमरार्इ आर्थिक व्यवस्था को ठीक करना था। इस आर्थिक “वृद्धि” विचारधारा ने केवल आर्थिक विकास को बल दिया। यह बात बल पकड़ने लगी कि ढांचागत व वृहद आर्थिक विकास ही सामाजिक व Human विकास को लायेगा। राष्ट्रीय स्तर से कार्ययोजनाओं का निर्धारण व क्रियान्वयन Reseller जाने लगा। इस प्रक्रिया ने विकास को लोगों के ऊपर थोपा गया। इसके नियोजन में लोगों की कहीं भागीदारी नहीं थी। विकास के प्रति यही “टॉप डाऊन एप्रोच” Meansात “ऊपर से नीचे की ओर” विकास का प्रक्रिया थी।

लेकिन इस आर्थिक वृद्धि विचारधारा ने यह सोचने को मजबूर कर दिया कि आर्थिक वृद्धि के लाभ आम गरीब जनता तक नहीं पहंचु पा रहे हैं। सत्तर के दशक से विकास में लोगों की सहभागिता का विचार भी बल पकड़ने लगा। संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी सामाजिक व आर्थिक विकास को Single साथ लिए जाने पर संस्तुति की। विकास के नियोजन, क्रियान्वयन व निगरानी में जनसमुदाय की सक्रिय भागीदारी लेने के प्रश्न चारों ओर से उठने लगे। नागर समाज संगठनों द्वारा राश्ट्रीय व अन्र्तराश्ट्रीय स्तर पर भी सहभागी विकास की पैरवी की गर्इ। 1980 के दशक में “स्ट्रकचरल एडजस्टमेंट पॉलिसी^^(Structural Adjustment Polcy) व विश्व बैंक व अन्र्तराश्ट्रीय मुद्रा कोश की शर्तों ने निर्यात आधारित औद्योगीकरण, आर्थिक छूट, निजीकरण And अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के नियमों में ढील आदि को बढ़ावा दिया। इस प्रक्रिया में विकास हेतू संसाधनों में कटौती होने लगी जिससे गरीब वर्ग और अधिक हासिये पर जाता गया। फलस्वReseller सरकार अपनी जिम्मेदारियों से पीछे हटने लगी और “बाजार” हर क्षेत्र में हावी होने लगा। इस युग में पर्यावरणीय आन्दोलनों के परिणाम स्वReseller सहभागी सतत् विकास की अवधारणा बल पकड़ने लगी। 1990 से Human विकास पर अधिक बल दिया जाने लगा। विकास को लेकर संयुक्त राश्ट्र संघ ने विकास के मुद्दे पर अनेक अन्र्तराश्ट्रीय कार्यषालाओं व गोश्ठियों का आयोजन Reseller। इन गोश्ठियों के परिणाम स्वReseller Human केन्द्रित सहभागी विकास की अवधारणा को बहुत बल मिला।

विकास पर समझ And स्पष्टता 

यदि विकास के मूलतत्व को गहरार्इ से समझने का प्रयास Reseller जाये तो विकास का Means सिर्फ आर्थिक सशक्तता नहीं हैं। मात्र भौतिक सुविधायें जुटाने से हम विकसित नहीं हो जाते। यदि पूर्व के ग्रामीण जीवन का अध्ययन Reseller जाये तो आज के और पूर्व के जीवन की बारीकी को समझने का अवसर मिलेगा। आज भले ही ढांचागत विकास ने अपनी Single जगह बनार्इ हो किन्तु प्राचीन काल में सहभागिता Meansात मिलजुल कर कार्य करने की प्रवृति गहरार्इ से लोगों की भावनाओं And संवेदानाओं के साथ जुड़ी थी। चाहे कृषि कार्य हो या फिर अपने प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग, प्रबन्धन, अथवा संरक्षण का कार्य हो , गांव के लोग सामूहिक Reseller से इन कार्यों को सम्पन्न Reseller करते थे। इस तरह के सामूहिक कार्यों के साथ-साथ लोग सांस्कृतिक कार्यक्रमों का भी आयोजन करते थे। यही नहीं, उनकी अपनी न्याय प्रक्रिया भी थी जिस पर उनकी गहरी आस्था थी। सच पूछो तो उस समय लोगों की सीमित Needयें थी, इसलिये Single Second से विचार विमर्श हेतु उनके पास पर्याप्त समय भी था। इस तरह से कार्य करने से कार्य के प्रति उत्साह बढ़ता था और लोग Single Second से खुलकर विचारों का आदान प्रदान करते थे। परिणामस्वReseller नियोजन स्तर पर सबकी भागीदारी स्वत: ही सुलभ हो जाती थी और नियोजन में मजबूती थी। 7 लेकिन धीरे-धीरे लोगों में विकास की अवधारणा बदलने लगी। लोगों की Needयें भी बढ़ने लगी और धीरे-धीरे उनका झुकाव ढ़ांचागत विकास की ओर होने लगा। विकास का Means लम्बी-लम्बी सड़कों का जाल, बड़े बांध, पावर हाउस, बड़ी-बड़ी आकाश चुम्भी भवनों का निर्माण माना जाने लगा। सम्पूर्ण विश्व में विकास के नाम पर शुरू हुर्इ ढ़ांचागत विकास की दौड़। इस दौड़ में Human विकास कहीं खो गया। विकास का वास्तिविक Means समझने के लिए हमें यह जानना जरूरी है कि हम विकास किसे कहेंगे? ढ़ांचागत विकास ही सम्पूर्ण विकास नहीं है, अपितु यह विकास का केवल Single महत्वपूर्ण पहलू है। विकास मात्र लोगों को आर्थिक सशक्तता देने का नाम भी नहीं है, मात्र गरीबी दूर करने या, मात्र आज की जरूरतों को पूरा कर देने भर से ही सम्पूर्ण विकास नहीं हो सकता है। आर्थिक विकास भी विकास का Single आयाम ही है। सतत् And संतुलित विकास के लिए यह जरूरी है कि विकास का केन्द्र बिन्दु Human हो। Human के अन्र्तनिहित गुणों व क्षमताओं का विकास कर उनके अस्तित्व, क्षमता, कौशल व ज्ञान को मान्यता देना, उन्हें अपने अधिकारों And कर्तव्यों के प्रति जागरूक करना, लोगों की सोचने की ंशक्ति को बढ़ाना, उनके चारों तरफ के वातावरण का विश्लेषण करने की क्षमता जागृत करना, समाज में उनको उनकी पहचान दिलाना व उन्हें सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक सशक्तता के अवसर प्रदान करना ही वास्तविक विकास है। विकास की वही प्रक्रिया Human को बेहतरी की ओर ले जा सकती है, जिसमें नियोजन और क्रियान्वयन स्तर पर लोग स्वयं अपनी प्राथमिकतायें चयनित करें, स्वयं निर्णय लेने में सक्षम बने और अपने विकास व सशक्तता की राह भी तय करें। लेकिन इन समस्त प्रक्रियाओं के साथ-साथ Human व प्रकृति के बीच उचित सामंजस्य व संतुलन बनाना विकास की पहली शर्त है। वास्तविक विकास केवल वर्तमान Needओं की पूर्ति करना ही नहीं है अपितु भविष्य की Needओं पर भी ध्यान देना है।

भारत में आजादी के बाद विकास का बदलता स्वReseller 

वर्षों गुलामी की बेड़ियों में जकड़े रहने के बाद वर्ष 1947 में जब हमारा देश आजाद हुआ तो नर्इ सरकार हमारी बनी। लोगों ने वर्षों की गुलामी के बाद स्वतंत्रता मिली। नर्इ सरकार से सबकी ढेर सारी आशायें थी, बहुत सी अपेक्षायें थी। जब हमारा देश आजाद हुआ तो बेरोजगारी, भुखमरी, गरीबी, अशिक्षा, कमजोर कृषि और जीर्ण-क्षीण उद्योग धन्धे, आदि कर्इ सारी समस्यायें हमारे सामने मंहु बाये खड़ी थी। इन सारी परिस्थितियों को देखते हुये सरकार ने देश से अशिक्षा, गरीबी तथा अज्ञानता को जड़ से मिटाने को अपनी प्राथमिकता बनाया। इस उद्देश्य की पूर्ति तथा लोगों को अधिक से अधिक सुविधायें प्रदान करने के लिये सरकार ने विकास की कर्इ योजनायें लागू की।

1950 से पंचवष्र्ाीय योजनाओं के निर्माण की प्रक्रिया शुरू हुर्इ। लगभग 50-60 के दशक तक सरकार की प्राथमिकता ढांचागत विकास पर ही केन्द्रित रही, जैसे- सड़कों का निर्माण, विद्यालय, अस्पताल, प्राथमिक चिकित्सा केन्द्र तथा सामुदायिक केन्द्र आदि। सामुदायिक विकास योजनाओं का केन्द्र बना रहा। लेकिन 70 का दशक आते-आते सरकार ने विकास की प्रक्रिया को लक्ष्य समूहों पर केन्द्रित करना आरम्भ Reseller। लक्ष्य समूहों के अन्र्तगत मुख्यत: भूमिहीनों, छोटे किसानों तथा आदिवासियों के लिये विकास योजनायें बनार्इ गर्इं। 70-80 का दशक आते-आते विकास की रणनीति का केन्द्र बिन्दू भौगोलिक आधार बना। जलागम विकास की अवधारणा भी सूखा तथा बाढ़ आदि रहे जिसके पीछे मूल भावना भी यही थी कि लोगों को सुविधा सम्पन्न बनाया जाये। इस पूरी प्रक्रिया में जितनी भी विकास योजनायें बनी अथवा लागू की गर्इ उनमें मूल उद्देश्य ढांचागत विकास पर ही केन्द्रित रहा जबकि Human संसाधन विकास पूरी तरह से प्रक्रिया पटल से अदृश्य रहा। यही कारण है कि इतना अधिक भौतिक And ढांचागत विकास हो जाने के बावजूद लोगों के जीवन में अपेक्षित सुधार नहीं आ सके। हमारे देश में Single लम्बे समय तक विकास को लेकर यह सोचा गया कि अगर देश में बड़ी-बड़ी योजनाएं बनेंगी तो जो विकास होगा उसका प्रतिफल गरीबों को पहुंच जायेगा। फलस्वReseller देष में खूब योजनाएं बनीं उनके लाभ भी मिले परन्तु वे गरीबों तक नहीं पहुंच सकीं। लोग सहभागी बनने के बजाय धन लेने वाले बन गये। सरकार कल्याणकारी छवि वाली बनी परन्तु गरीब गरीब ही रह गये। गरीबों को बेचारा मानकर उनके कल्याण के बारे में Single विशेश वर्ग ही योजनाएं बनाता रहा। इस सम्पूर्ण प्रक्रिया में यह भूल गये कि गरीबों में सोचने And समझने की शक्ति छिपी हुर्इ है। परन्तु अवसर And अनुकूल परिस्थितियों के अभाव में यह उभर कर नहीं आ पाती हैं। विकास के इस स्वReseller And रणनीति का विश्लेश्णात्मक अध्ययन करने के बाद कुछ महत्वपूर्ण बातें उभर कर आर्इं। लोग पूरी तरह से सरकार पर आश्रित हो गये तथा उनकी सरकारी कार्यक्रमों And सरकारी योजनाओं पर आश्रित रहने की मानसिकता बन गर्इ। उनमें कहीं पर यह बात घर कर गइंर् कि उनका विकास उनके द्वारा नहीं अपितु कहीं ऊपर से आयेगा और केवल सरकार ही है जो उनका विकास कर सकती है। विकास की इस प्रक्रिया से निम्न बातें उभर कर आयी।

1. यद्यपि लोगों में पूर्व से ही परम्परागत ज्ञान का अथाह सागर मौजूद रहा है। लेकिन विकास की इस प्रक्रिया में लोगों की पुरातन संस्कृति, उनके परम्परागत ज्ञान को स्थान न मिलने से उनका इसके प्रति अपेक्षित Addedव न बन सका जिसका सीधा असर विकास योजनाओं की सार्थकता पर पड़ा। लोग First भी संगठित होकर कार्य करते थे तथा उनमें सहभागिता की भावना गहरार्इ से जुड़ी थी । लेकिन धीरे-धीरे उन्होंने सहयोग की अपनी यह क्षमता खो दी। ग्रामीण संगठनों, जिनकी कि समाज में स्वीकार्यता भी थी, को विकास की प्रक्रिया से बाहर रखा गया।

2. जितनी भी विकास योजनायें बनीं, वे सब ऊपरी स्तर से बन कर आर्इं और लोगों की भागीदारी के बिना ही उन पर थोपी गर्इं। First लोग आपस में मिल बैठकर गांव के विकास की बात पर Discussion करते थे तो नियोजन भी मजबूत था। लेकिन बाद में लोगों को नियोजन से बिल्कुल बाहर रखा गया। परिणामस्वReseller लोगों में विकास के उस ढांचागत स्वReseller के प्रति अपनत्व And स्वामित्व की बात तो आ ही नहीं सकी, फिर संरक्षण भी कैसे संभव हो सकता था।

3. पूरी प्रक्रिया का विश्लेषण करने के पश्चात इस बात की प्रबल Reseller से Need महसूस की जाने लगी कि विकास को लोगों के र्इर्द गिर्द घूमना चाहिये न कि लोगों को विकास के र्इर्द गिर्द। लोक केन्द्रित विकास की अवधारणा धीरे-धीरे मजबूती पकड़ने लगी। यह महसूस Reseller जाने लगा कि विकास की इस पुरानी अवधारणा को किसी तरह से बदलना होगा।

ढ़ॉंचा गत विकास के परिणाम योजनायें बनीं, पूरी भी हुर्इं लेकिन लोगों का विकास नहीं हो पाया। लोगों की सहभागिता के बिना ढांचागत विकास की चिरन्तरता पर प्रश्नचिन्ह लगा तथा योजना समाप्त होंने पर लोगों की स्थिति यथावत बनी रही। लोगों की संसाधन प्रबन्धन की परम्परागत व्यवस्था धीरे-धीरे क्षीण हो गर्इ। विकेन्द्रीकरण के स्थान पर केन्द्रीकरण ने जड़ पकड़ी तथा लोगों की सरकारी तंत्र पर निर्भरता बढ़ी। Second पर निर्भर रहने की प्रवृति ने लोगों में आत्मविश्वास को समाप्त Reseller। 

विकास की नर्इ दिशा 

धीरे-धीरे नब्बे का दशक आते-आते लोगों की अपेक्षाओं तथा समय की मांग को देखते हुये विकास की अवधारणा ने Single नर्इ दिशा ली। अब यह स्वत: ही महसूस Reseller जाने लगा कि-भौतिक तथा ढ़ांचागत विकास दोनों ही विकास के पहलू मात्र हैं। वास्तविक विकास तो समुदाय की मानसिकता, सोच का विकास तथा लोक संगठनों का विकास है। गरीब व पिछड़े शोषित लोग असंगठित रहकर कभी परिवर्तन नहीं कर सके हैं। इस बात पर भी विचार Reseller जाने लगा कि लोग कोर्इ समस्या नहीं अपितु संसाधन हैं। अत: Human संसाधन विकास को विकास की प्राथमिकता बनाया जाना चाहिये। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम ने 1990 में First Human विकास प्रतिवेदन का प्रकाषन Reseller। इस प्रतिवेदन में Human विकास को विशेष महत्व दिया गया। जिसके According विकास का लोगों के विकास के विकल्पों को बढ़ाना है। Human विकास का Means है कि विकास के केन्द्र में लोग रहें विकास लोगों के इर्द-गिर्द चुना जाये न कि लोग विकास के इर्द-गिर्द।

यह बात प्रबल Reseller से महसूस की जाने लगी कि लोगों के परम्परागत ज्ञान, उनकी लोक संस्कृति And उनके अनुभवों को भी विकास की नियोजन प्रक्रिया में शामिल Reseller जाये तभी समाज चिरन्तर विकास की ओर बढ़ सकता है। विकास योजनायें लोगों की सहभागिता से ही लोगों के जीवन में वास्तविक परिवर्तन ला सकती हैं। समाज में परिवर्तन लाने के लिये नियोजन तथा निर्णय स्तर पर लोगों की सहभागिता नितान्त आवश्यक है। साथ ही यह भी Need महसूस ही गर्इ कि स्थानीय स्वषासन को मजबूती प्रदान करने के लिए पंचायती राज संस्थाओं को सशक्त बनाना आवश्यक है। स्थानीय स्वषासन की मजबूती ही नियोजन And निणर्य स्तर पर लोगों की सहभागिता की अवधारणा को मूर्तReseller दे सकती है। जब तक पंचायतें And ग्रामसभा सक्रिय नहीं होंगी तब तक वास्तविक विकास की हम कल्पना नहीं कर सकते हैं। यहीं से भारत में पंचायती राज के माध्यम से जन विकास की कल्पना को साकार करने के लिए गांव स्तर तक विकेन्द्रीकरण की व्यवस्था को लाने के लिए प्रयास शुरू हुए और भारत में 73वें संविधान संषोधन के द्वारा पंचायती राज व्यवस्था लागू की गर्इ ।

भारत में लागू की गर्इ विकास योजनाओं का कैलेन्डर 

1. First चरण में मुख्य ग्रामीण विकास कार्यक्रम ; (1947-1966) 

  1. सामुदायिक विकास कार्यक्रम (1952) 
  2. पंचायती राज व्यवस्था (1958) 
  3. व्यवहारिक पोषाहार कार्यक्रम (1958) 
  4. सघन कृषि जिला व्यवस्था (1960)
  5. पर्वतीय क्षेत्र विकास कार्यक्रम (1962) 
  6. जनजाति क्षेत्र विकास कार्यक्रम (1964) 
  7. हरित क्रांति (1965)
  8. सघन कृषि क्षेत्र कार्यक्रम (1965) 

2. द्वितीय चरण में मुख्य ग्रामीण विकास कार्यक्रम ; (1966-1978) 

  1. लघु कृषक विकास अभिकरण (1969) 
  2. लघु कृषक व कृषि श्रमिक अभिकरण (1969)
  3. ग्रामीण निर्माण कार्यक्रम (1971) 
  4. सघन (इनटैन्सिव) ग्रामीण रोजगार प्रोजेक्ट (1972)
  5. ग्रामीण रोजगार के लिए कैश कार्यक्रम (1972) 
  6. रोजगार गारण्टी कार्यक्रम (1972) 
  7. सूखाग्रस्त क्षेत्र कार्यक्रम (1973)
  8. न्यूनतम Need कार्यक्रम (1974) 
  9. बीस सूत्रीय कार्यक्रम (1975) 
  10. अन्त्योदय कार्यक्रम (1977) 
  11. कमांड एरिया विकास कार्यक्रम (1977)
  12.  काम के बदले अनाज कार्यक्रम (1977) 
  13. मरूभूमि विकास कार्यक्रम (1977) 
  14. जिला उद्योग केन्द्र (1978) 

3. तृतीय चरण में मुख्य ग्रामीण विकास कार्यक्रम ; (1978-1990) 

  1. Singleीकृत ग्राम विकास कार्यक्रम (1978) 
  2. ट्राइसेम (1979) 
  3. राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम (1980)
  4. विशेष पशुधन समवर्धन कार्यक्रम (1982) 
  5. हिला And बाल विकास कार्यक्रम (1982) 
  6. आर.एल.र्इ.जी.पी. (1983)
  7. इन्दिरा आवास योजना 1985) 
  8. दस लाख कुओं की योजना (1989)
  9. जवाहर रोजगार कार्यक्रम (1989) 
  10. उन्नत औजार (किट) की आपूर्ति (1992) 
  11. 1992 में 73वां संविधान संषोधन अधिनियम
  12. ग्रामीण आवास योजना (1993) 
  13. महिला समृद्धि योजना (1993) 
  14. राश्ट्रीय महिला कोश की स्थापना (1993) 
  15. सुनिश्चित रोजगार योजना (1993) 
  16. प्रधानमंत्री रोजगार योजना (1993)
  17. राष्ट्रीय पोशाहार कार्यक्रम (1995) 
  18. स्वर्ण जयन्ती ग्राम स्वरोजगार योजना (1999) 

4. चतुर्थ चरण में मुख्य ग्रामीण विकास कार्यक्रम- 

  1. प्रधानमंत्री सड़क योजना 2000 
  2. स्वयं सिद्धा योजना 2001 
  3. हरियाली योजना 2003
  4. इन्दिरा महिला समेकित विकास योजना 2005 
  5. राश्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी स्कीम 2006 

1990 से वर्तमान तक की विकास की प्रक्रिया में आठवी, नौवी, दसवी, ग्यारहवीं पंचवष्र्ाीय योजनाओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। आठवी पंचवष्र्ाीय योजना के दौरान सरकार स्तर पर इस सत्य को स्वीकार Reseller जाने लगा कि अब तक चली विकास प्रक्रिया के वांछित पंरिणाम नहीं आये हैं और लोगों की निर्भरता सरकार पर अधिक बढ़ गर्इ है। अत: नौवीं, दसवीं योजनाओं में सहभागी विकास को केन्द्र में रखा गया। नब्बे के दषक में जो भी बड़ी-बड़ी विकास परियोजनाएं चलीं उनमें जनसहभागिता पर बहुत जोर दिया गया। इसी के साथ शुरू हुआ गांव स्तर पर सामुदायिक संगठनों व उपभोगता समूहों का उदय। इसी दौरान पंचायती राज संस्थाओं की मजबूती हेतू भी सरकार स्तर पर प्रयत्न शुरू हुए। आम जन समुदाय को स्थानीय विकास की प्रक्रिया व निर्णय स्तर से जोड़ने का इसे Single मजबूत माध्यम माना जाने लगा। अब अधिकांश लोग इस बात से Agree होने लगे हैं कि अलग-अलग पारिस्थितिकीय तन्त्र (इकोसिस्टम) के लोगों को अपनी संस्कृति के According अलग तरह से जीने का हक है तथा उन्हें अपने ज्ञान And अनुभवों के आधार पर अपने विकास की Resellerरेखा तैयार करने का अधिकार है।

स्थार्इ/चिरन्तर विकास 

ब्रन्टलैंड प्रतिवेदन, के According “सतत् विकास वह विकास है जो वर्तमान की Needओं की पूर्ति आगे की पीढ़ियों की Needओं की बलि दिये बिना पूरी करता हो।” विकास के विभिन्नि Means व परिभाशाओं का यही सार निकलता है कि वास्तव में विकास Single ऐसी प्रक्रिया है जो निरन्तर चलती रहती है। यह प्रक्रिया तभी सार्थक होती है जब इसमें Human विकास, आर्थिक वृद्धि And पर्यावरण Safty के बीच Single उचित संतुलन हो। चिरन्तर विकास का Means Single ऐसे विकास से है जो वर्तमान की Needओं की पूर्ति के साथ-साथ भविष्य की Needओं का भी ध्यान रखे। विकास ऐसा हो जो केवल ढांचा खड़ा करने में ही विश्वास न रखता हो बल्कि अन्य पहलूओं जैसे Human संसाधन के विकास, पर्यावरण सन्तुलन, संसाधनों का उचित रख-रखाव व संरक्षण, लाभों के समान वितरण हेतु उचित व्यवस्था आदि को भी ध्यान में रखता हो। जो किसी विभाग/संस्था या व्यक्ति पर निर्भर न रह कर स्वावलम्बी हो तथा स्थानीय निवासियों द्वारा संचालित हो। सतत् विकास में जनसहभागिता की बड़ी अहम् भूमिका है।

चिरन्तर विकास के सिद्धान्त

 चिरन्तर विकास को गहरार्इ से समझने के लिए उसके सिद्धान्तों को जानना आवश्यक है। चिरन्तर विकास के मुख्य सिद्धान्त है।

1. स्थानीय समुदाय का सशक्तिकरण

 चिरन्तर विकास प्रक्रिया का पहला सिद्धान्त है जन समुदाय का सषक्तिकरण। विकास के साथ पैदा होने वाले सबसे बड़े अवरोधों में स्थानीय समुदाय की संस्कृति, पारम्परिक अधिकारों, संसाधनों तक पहुंच And आत्म-सम्मान आदि की अवहेलना मख्ु य है। इससे स्थानीय समदु ाय का विकास कायर्क्र मों के प्रति Addedव के स्थान पर अलगाव तथा रोष पैदा होता है। अत: विकास को चिरन्तर या सत्त बनाने के लिए स्थानीय निवासियों के अधिकारों को पहचानना तथा उनके मुद्दों को समर्थन प्रदान करना आवश्यक है। साथ ही चिरन्तर विकास की प्रक्रिया समुदाय को जोड़ती है व उनके सषक्तिकरण को बढ़ावा देती है।

2. स्थानीय ज्ञान And अनुभवों को महत्व 

स्थानीय समुदाय पारम्परिक ज्ञान, अनुभव व कौषल का धनी है। विकास के नाम पर नये विचार And ज्ञान थोपने के स्थान पर चिरन्तर विकास स्थानीय निवासियों के ज्ञान And अनुभवों को महत्व देता है तथा उपलब्ध ज्ञान And अनुभवों को आधार मानकर विकास कायर्क्रम तैयार किये जाते है।

3. स्थानीय समुदाय की Needओं And प्राथमिकताओं की पहचान 

चिरन्तर विकास का अगला सिद्धान्त है विकास प्रक्रिया का समुदाय की Needओं व प्राथमिकताओं पर आधारित होना। जमीनी वास्तविकताओं को नजर अन्दाज कर ऊपर से थोपा गया विकास कभी भी समाज में सकारात्मक बदलाव नहीं ला सकता। अत: Needओं And प्राथमिकताओं की पहचान स्थानीय निवासियों के साथ मिल-बैठ कर उनके दृष्टिकोण And नजरिये को समझ कर करने से ही चिरन्तर विकास की ओर बढ़ा जा सकता है।

4. स्थानीय निवासियों की सहभागिता 

कार्यक्रम नियोजन से लेकर क्रियान्वयन तथा प्रबन्धन में ग्रामवासियों की सहभागिता को चिरन्तर विकास की प्रक्रिया में आवश्यक माना गया है। सहभागिता का Means भी स्पष्ट होना चाहिए तथा स्थानीय समुदाय द्वारा विभिन्न स्तरों पर लिये गये निर्णयों को स्वीकारना ही उनकी सच्ची सहभागिता प्राप्त करना है।

5. लैंगिक समानता 

पिछले अनुभवों से यह स्पष्ट है कि विकास की जिन गतिविधियों को महिला And पुरूषों दोनों की Needओं को ध्यान में रख कर तैयार नहीं Reseller जाता है तथा जिनमें महिलाओं की बराबर भागीदारी नहीं होती, वह न केवल अनुचित होती है बल्कि उनके सफल And चिरन्तर होने में संदेह रहता है। चिरन्तर बनाने के लिए विकास को महिलाओं तथा पुरूषों की भूमिकाओं, प्राथमिकताओं तथा Needओं को ध्यान में रख कर तैयार Reseller जाना पहली श्शर्त है।

6. कमजोर वर्गों को पूर्ण अधिकार 

चिरन्तर विकास का सिद्धान्त है समाज के All वर्गो को विकास के नियोजन में शामिल करना व विकास का लाभ पहुँचाना। सदियों से विकास प्रक्रिया से अछूते व उपेक्षित रहे समाज के कमजोर वर्गो जैसे भूमिहीन, अनुसूचित जाति And जनजाति व महिलाओं को आधुनिक विकास प्रक्रिया में शामिल करने पर चिरन्तर विकास बल देता है। अत: चिरन्तरता के लिए समाज के कमजोर And उपेक्षित वर्ग के अधिकारों का समर्थन Reseller जाना आवश्यक है तथा उन्हें विकास की मुख्य धारा से जोड़ा जाना आवश्यक है।

7. जैविक विविधता तथा प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण 

आर्थिक वृद्धि, पर्यावरण संरक्षण व सामाजिक Addedव चिरन्तर विकास के मजबूत सतम्भ हैं। विकास की जिस प्रक्रिया में इन तीनों को साथ लेकर नियोजन Reseller जाता है वही चिरन्तर विकास कहलाता है। पर्यावरण को खतरे में डालकर व सामाजिक मूल्यों की परवाह किये बिना अगर आर्थिक विकास की प्रक्रिया को बल दिया जाता है तो वह चिरन्तर विकास नहीं है। पिछले कुछ वर्षो में हुए विकास कार्यों के कारण जैविक विविधता में गिरावट आर्इ है तथा प्राकृतिक संसाधनों का ºास हुआ है। सामूहिक हित की जगह व्यक्तिगत हित ने ले ली है। पारिस्थितिकीय तन्त्र के विभिन्न घटकों का सन्तुलन खराब हो जाने से बहुत सी पर्यावरणीय समस्याएं पैदा होने लगी हैं। अत: विकास को चिरन्तर बनाने के लिए आर्थिक विकास के साथ-साथ जैविक विविधता तथा प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण आवश्यक है।

8. स्थानीय तकनीकों, निवेश तथा बाजार को बढ़ावा 

बाहरी सहयोग पर आधारित विकास कार्यों की लम्बे समय तक चलने की कोर्इ गारन्टी नहीं होती है। साथ ही साथ बाहरी तकनीक की समाज में स्वीकार्यता पर भी “ांकाएं होती है। अत: विकास की चिरन्तरता हेतु स्थानीय तकनीकों को सुधार कर उनके उपयोग को बढ़ावा देना, स्थानीय स्तर पर संसाधनों को जुटाना तथा स्थानीय बाजार व्यवस्था को मजबूत बनाना आवश्यक है।

ग्रामीण विकास से जुड़े विभिन्न पक्ष 

ग्रामीण विकास प्रक्रिया का बारीकी से अवलोकन करने पर उसमें तीन पक्ष (Single्टर्स) नजर आते हैं। ग्रामीण स्तर पर नियोजन प्रक्रिया को मजबूत करने, सहभागी विकास को बढ़ावा देने तथा चिरन्तर विकास की अवधारणा को मजबूत करने के लिए इन तीनों पक्षों को मजबूत करने के साथ-साथ इनके बीच के अन्र्तसम्बन्धों को भी मजबूत Reseller जाना आवश्यक है। प्रत्येक पक्ष (Single्टर्स) को मजबूत करने का Means उसके दृष्टिकोण (मानसिक सोच) ज्ञान And क्षमताओं में सुधार करने से है। इस प्रक्रिया से जुड़े तीन पक्षों में से सबसे 

  1. पहला पक्ष है ग्रामवासी, जो कि विकास प्रक्रिया का मुख्य पक्ष व केन्द्र बिन्दु है। ग्रामवासी के अन्दर अपनी स्थानीय स्थिति , समस्या व प्राथमिकता को समझने की अपार क्षमता व ज्ञान होता है। अत: विकास की दिशा को तय करने में उसका ज्ञान व अनुभव सबसे लाभदायक होता है। 
  2. दूसरा पक्ष जन प्रतिनिधि है। ये जन प्रतिनिधि प्रधान, सरपंच, विधायक, सांसद, जिला प्रमुख, ब्लाक प्रमुख आदि के Reseller में है और इन की मुख्य भूमिका ग्राम वासियों के पक्ष को विकास नियोजन प्रक्रिया व नीति निर्माण मे शामिल करने की हैं। 
  3. तीसरा पक्ष है विकास कार्यकर्ता, यह सरकारी अथवा गैर सरकारी दोनों हो सकते हैं। इनकी भूमिका विकास के Single सुगमकर्ता की होती है। इन तीनों पक्षों में आपसी तालमेल व सामंस्य होना अति आवश्यक है। इनके आपसी सहयोग से ही विकास की गति में तेजी लार्इ जा सकती है।

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