मौर्य साम्राज्य का History

जिस समय सिकन्दर अपने विश्व विजय के अभियान पर भारत की ओर आया तो यहां मगध में Single शक्तिशाली नन्द साम्राज्य का राज्य था ये नन्द King अपनी निम्न उत्पत्ति And गलत नीतियें के कारण प्रजा में काफी अलोकप्रिय हो चुके थे परन्तु फिर भी सिकन्दर की सेना ने उनसे मुकाबला न करना उचित समझा तथा उतर पश्चिमी भारत के छोटे-छोटे गणराजयों को विजित कर वापिस युनान जाना ही ठीक समझा कुछ यूनानी लेखक मानते हैं कि नन्द वंश का उन्मूलन करने के लिए सहायता मांगने चन्द्रगुप्त सिकन्दर से भी मिला था इस तथ्य में सच्चाई हो य न हो परन्तु उस समय चन्द्रगुप्त ने अपने साथी चाणक्य की सहायता से Single सेना इक्कठी कर उतरपश्चिमी भारत में सिकन्दर के आक्रमण के कारण आई रिक्कता का लाभ उठा कर इस क्षेत्र को जती लिया। बाद में उसने मगध पर आक्रमण कर 321 ई0पू0 के आसपास मौर्य साम्राज्य की स्थापना की ली। उधर सिकन्दर की अकस्मक बैबीलोन में मृत्यु के उपरान्त उसका साम्राज्य उसके जनरलों ने आपस में बांट लिया। सैल्युकस के हिस्से बैबीलोन से भारत तक का क्षेत्र आया तथा उसने अपने राज्य के खोए हुए हिस्से पुन: प्राप्त करते हेतु भारत पर आक्रमण कर दिया युनानी लेखक तो इस Fight के परिणाम के बारे में मौन है परन्तु इसमें सैल्युकस की हार हुई तथा उसे अपनी बेटी का विवाह चन्द्रगुप्त से कर वैवाहिक सबंध स्थापित करने पड़े। उसे अपने राजदूत मैगस्थनीज को चन्द्रगुप्त के दरबार में भेजना पड़ा।

चन्द्रगुप्त का पुत्र बिन्दुसार 297 ई0पू0 में राजगद्दी पर बैठा जिसने अमित्रघात तथा अमित्रखात इत्यादि उपाधियां धारण की। उसने किन-किन प्रदेशों को जीता इसका description तो हमारे पास नही है परन्तु प्रारंभिक तमिल कवियों ने मौर्यो के रथों के गरजते हुए चलने का वर्णन Reseller है। जो शायद इसी के काल का ही वर्णन हो, क्योंकि अशोक ने तो केवल कलिंग को ही विजित किय था तथा चन्द्रगुप्त के दक्षिण विजय की हो इसके प्रमाण नही है। बिन्दुसार के बाद राज्य सिहासन के लिए उसके पुत्रें की बीच संघर्ष चलता रहा जो 273 ई0पू0 से अशोक के राज्याभिषेक 269 ई0पू0 से तक चलता रहा। कुछ विद्ववान यह मानते है कि अशोक ने राज्य तो 273 ई0पू0 में ही प्रारम्भ Reseller परन्तु उसका राज्यभिषेक 269 ई0पू0 में हुआ। कसिंग विजय के बाद अशोक ने धम्भ विजय को अपना लिया तथा यह नीति व्यक्तिगत तथा राजनैतिक दोनों स्तरों पर अपनाई इसके कारण King और प्रजा के बीच सम्बन्धों में मूलभूत परिवर्तन आ गए। जिसका असर उस काल के समाज, राजनीति And धर्म पर प्रचूर Reseller से पड़ा।

चन्द्रगुप्त ने चाणक्य की सलाह पर जो केन्द्रिय प्रशासन व्यवस्था का प्रारंभ Reseller उसे अशोक ने न केवल जारी रखा। अपितु उसमें कुछ प्रशासनिक सुधार भी किए। धम्भमहामात्रों, स्त्रीअध्यक्ष महामात्रों की Appointment कर धर्म तथा स्त्रियों की भलाई के कार्य किए प्रजा की भलाई के लिए राज्जुकों की Appointment की गई। इसके अतिरिक्त चन्द्रगुप्त तथा बिन्दुसार की तरह ही विदेशी ताकतों से मित्रता के सम्बन्ध बनाए रखे।

मौर्यकाल मे Meansव्यवस्था काफी समृद्ध थी शहरीकरण की प्रक्रिया जो छटी शताब्दी ई0पू0 प्रारंभ हुई थी उसका आगे विकास Reseller गया इस काल में कई राजमार्गो जैसे उत्तरामथ, दक्षिणापथ राजमार्ग इत्यादि का निर्माण कर ने केवल केिन्द्रीय प्रशासन को बल दिया अपितु व्यापार में भी इसके कारण प्रगति हुई। गंगा घाटी से पश्चिमी मध्य भारत, दक्षिणी भारत तक व्यापार का प्रसार हुआ व्यापार पर राज्य का नियंत्रण था इसके साथ-2 व्यापार तथा वाणिज्य को अवरूद्ध करने वाले को कड़ी सदा को प्रावधान कर व्यापार को बढ़ावा दिय गया। इस काल में सामाजिक, आर्थिक परिवर्तनों का प्रारंभा हुआ तथा बौद्ध धर्म का काफी प्रसार हुआ।

मौर्यकाल की Single महत्वपूर्ण उपलब्धि थी पूरे भारत को Single सूत्रा में बाधंना And Single संशक्त केन्द्रिय शासन व्यवस्था का प्रचलन जिसमें कृषि, व्यापार And उद्योग पर राज्य का पूरा नियंत्रण था यद्यपि व्यापार And वाणिज्य में इस काल मे बहुत विकास हुआ परन्तु राज्य की आर्थिकता का मुख्य आधार कृषि ही था।

मौर्य कालीन सामाजिक स्थिति

मौर्य कालीन समाज And सामाजिक व्यवस्था को जानने के लिए हम कौटिल्य का Meansशास्त्र, अशोक के अभिलेख तथा यूनानी राजदूत मैगस्थनीज कृत इंडिका पर आश्रित है। इसके अतिरिक्त बौद्ध साहित्य में भी यदा कदा इस काल के संदर्भ में लिखी बातें मिल जाती है। परन्तु इस साहित्य में लिखी हुई बातों को हम पूर्णत्य सही नही मान सकते क्योंकि उस समय लिखने की कला का विकास नही हुआ था तथा इन ग्रन्थों का सग्लन बाद में हुआ। इसलिए इनमें लिकृतिया होना स्वभाविक ही था।

वर्ण व्यवस्था :-

मौर्यकाल में समाज चार वर्गो में बंटा हुआ था। अशोक के अभिलेखों में अनेक वर्णो का जिक्र है। ब्राह्यणों का स्थान श्रमणों के साथ आदरपूर्ण था। तृतीय शिलालेख में कहा गया है कि ब्राह्यणों और श्रमणों की सेवा करने उतम हैं वैश्य या गृहपति अधिकाशत: व्यापार गतिविधियों में सलिप्त थे। क्षित्राय वर्ण का अभिलेखों में कही भी History नही है। धर्मशास्त्रों के According कौटिलय ने भी चारों वर्णो के व्यवसाय निर्धारित किए। किन्तु शुद्ध को शिल्पाकार और सेवावृति के अतिरिक्त कृषि, पशुपालन और वाणिज्य से आजिविका चलाने की अनुमति थी। इन्हें सम्मिलित Reseller में ‘वार्ता’ कहा गया है। निश्चित है इस व्यवस्था शुद्र के आर्थिक सुधार पर प्रभाव उसकी सामाजिक स्थिति पर ही प्रभाव पड़ा होगा। कौटिल्य द्वारा निर्धारित शूद्रों के व्यवसाय वास्तविकता के अधिक निकट हैं Meansशास्त्र में कहा गया है कि आर्य अस्थाई वितियों के कारण दास के Reseller में कार्य कर सकता है। या वह धन कमाने के विचार से भी ऐसा कर सकता है। इस स्थिति के कारण कुछ विद्वानों का मत है कि मौर्यकालीन वर्ण-व्यवस्था दास प्रथा पर निर्भर थी। इन संबधों के विस्तृत विश्लेषण से यह स्पष्ट हो जाता है कि दास प्रथा यूनानी गुलाम प्रथा से सर्वदा भिन्न थी। और इसी कारण मेगस्थनीण ने भारत में दास प्रथा न होने की बात कही है। समय के ब्राह्यणों का विशिष्ट स्थान था किंतु मनु तथा पूर्वगामी धर्मसूत्रों की भांति इस तथ्य को बार-बार दुहराने का प्रयास Meansशास्त्र में नही Reseller गया है। ब्राह्यणादि चार वर्णो के अतिरिक्त कौटिल्य ने अनेक वर्णसंकर जातियों का भी History Reseller है। इनकी उत्पति धर्मशास्त्रों की भांति विभिन्न वर्णो के अनुलोम और प्रतिलोम विवाहों में बताई गई है। जिन वर्णसंकर जातियों का History है वे है अम्बष्ठ निषाद, पारशव, रथकार, क्षता, वेदेहक, मागध, सूत, पुतलकस, वेण, चांडाल, श्वपाक इत्यादि। इनमें से कुछ आदिवासी जातियां थी, जो निश्चित व्यवसाय से आजीविका चलाती थी। कौटिल्य ने चांड़ालों के अतिरिक्त अन्य All वर्णसंकर जातियों को शूद्ध माना है। इनके अतिरिक्त तंतुवाय (जुलाहे), रजक (धोबी), दर्जी, सुनार, लुहार, बढ़ई आदि व्यवसाय पर आधारित वर्ग, जाति का Reseller धारण कर चूके थे। Meansशास्त्र में इन सबका समावेश शूद्र वर्ण के अंतर्गत Reseller गया है। अशोक के शिलालेखों में दास और कर्मकर का History है। जो शूद्र वर्ग के अंदर ही समविष्ट किए गए है।ं शूद्र वर्ण में दासों के प्रति अच्छा व्यवहार नही Reseller जाता था। इसलिए अशोक के अपने अभिलेखों में उनके प्रति अच्छा व्यवहार करने के आदेश देने पड़ते थे। Meansशास्त्र में चारों वर्णो तथा उनके वर्णविहित कर्त्तव्यों का वर्णन है। मैगस्थनीण ने मौयकालीन समाज को Seven वर्गो में बांटने का History अपनी पुस्तक इंडिका में Reseller है। जिनमें (1) दार्शनिक (2) किसान (3) अहरी (4) कारीगर या शिल्पी (5) सैनिक (6) निरिक्षक (7) सभासद तथा अन्य King वर्ग। मैगस्थनीज ने लिखा है कि कोई भी व्यक्ति अपनी जाति के बाहर िवााह नही कर सकता, न वह अपने व्यवसाय को दूसरी जाति के व्यवसाय ने बदल सकता, न वह अपने व्यवसाय को दूसरी जाति के व्यवसाय ने बदल सकता था। केवल ब्राह्यणों को ही अपनी विशेष स्थिति के कारण यह अधिकार प्राप्त था। इसे देखने से लगता है कि वह Indian Customer वर्ण व्यवस्था से भलीभांति परिचित नही था। Single और तथ्य मैगस्थनीज की इस गलत बयानी पर आधारित है कि भारत में आकाल कभी नही पड़ा। सोगौड़ तथा महास्थान स्थित मौर्यकालीन शिला लेखों द्वारा हम जानते है कि यह कथन सत्य नही था आकालों से महान क्षति हुई थी और राज्यों आम जनता को राहत देने के कार्य में सक्रिय Reseller से संलग्न था। मैगस्थनीज ने कहा है कि भारत में कोई दास प्रथा नही थी। और एरियन तथा स्ट्रबो दोनों ने इसकी पुष्टि की है। इसके विपरीत बौद्ध साहित्य में तीन प्रकार के दासों का वर्णन मिलता है। ऐसे दास जो अपने पिता से उतराधिकार में दासता प्राप्त करते थे, ऐसे दास जो खरीदे जाते थे या उपहार में प्राप्त होते थे तथा ऐसे दास जो दासों जो दासों के घरों में जन्म लेते थे। Meansशास्त्र में कहा गया है कि Single दास को डेढ़ पण प्रति महीना दिया जाता था। और उसे तथा उसके परिवार को भोजन दिया जाता था। इस प्रकार मौर्यकाल में घरेलू दास प्रथा प्रचलित थी, किन्तु दास प्रथा निश्चय ही मौर्यकालीन आर्थिक व्यवस्था का आधार नही थी। First अवस्था में वह सरल जीवन व्यतीत करता था। उसका जीवन ज्ञान उपदेशों के श्रमण And लोगों को विधादान में व्यतीत होता था। दूसरी अवस्था में वह विवाह करता था तथा सुखमय जीवन में प्रवेश करता था। इस वर्ग के लोग वनों में तपस्या करते थे और साधना का जीवन व्यतीत करते थे। श्रमणों के Single अन्य वर्ग में चिकित्सक आते थे जो नि:शुल्क लोगों की बिमारियों का इलाज करते थे। समाज इसके बदले इस वर्ग का भरण पोषण करता था। ऐसा प्रतित होता है। कि मैगस्थनीज ने इस वर्ग का History यूनानी समाज के आधार पर Reseller है तथा वह Indian Customer संस्कृति से अधिक परिचित नही था।

इस काल में विभिन्न जातियों के अपने-अपने कार्य अधिकार अलग-अलग थे। Meansशास्त्र के अतिरिक्त धर्मसूत्रों में भी इसका History है। Meansशास्त्र के According ब्राह्यण का काम अध्यापन, अध्ययन, यज्ञ, भजन, दान तथा प्रतिग्रह इत्यादि था। श्रित्रायों के कार्यो के अध्ययन, भजन, दान, शस्त्राजीव (शास्त्रों के आधार पर जीविका), मूल रक्षण अथवा लोगों की रक्षा करना था। वैश्यों के कार्यो में अध्ययन, भजन, दान, कृषि, पशुपालन, वाणिज्य इत्यादि थे। जबकि शूद्रों के कार्यो में द्धिजातिशुश्रुशा अथवा द्धिज जातियों के कार्य करना, वार्ता (लोगों के धन की रक्षा करना), कारूकर्म (कलांए) तथा कुशीलवकर्म इत्यादि थे। Meansशास्त्र से पता चलता है कि मनु के According ब्राह्यण सबसे सर्वोतम थे क्योंकि वे ज्ञानी थे। उन्हें ब्रहम ज्ञान था। उन्हें ही शिक्षक, पुजारी, न्यायधिक्ष, प्रधानमंत्री, धर्मपरिषद का सदस्य तथा न्याय सबंधी आयोग का सदस्य रखा जा सकता था। परन्तु आपातकाल में ब्राह्यणों को उनसे निचले वर्ग का काम भी करने का अधिकार था। ब्राह्यणों को किसी भी अपराध के लिए दण्ड दिया जा सकता था परन्तु मृत्युदंड उनके लिए पूर्णतय् निषेध था।

शूद्रों का सरकारों का अधिकार नही था तािा न ही वे पवित्रा ग्रन्थों को पढ़ व सुन सकते थे। शेष सामाजिक अधिकार उन्हें प्राप्त थे। कई ग्रन्थों में तो शूद्र शिक्षक And विद्याथ्र्ाी होने का भी वर्णन मिलता है। जिससे हमें शूद्रों के पढ़ने लिखने का पता चलता है। जातक कथाओं में शूद्रो के साथ चाण्डालों का भी वर्णन है जोकि शहर से बाहर निवास करते थे, जिनके दर्शन मात्रा को ही अपशकुन माना जाता था।

बौद्ध तथा जैन साक्ष्यों में जाति प्रथा का चित्रण काफी भिन्न मिलता है। इनमें क्षित्रायों का स्थान First है। यद्यपि उन्हें ब्राह्यणों से कम श्रेष्ठ माना जाता था। बौद्ध साक्ष्यों के According इन जातियों के अतिरिक्त बहुत सी मिक्षित जातियां, अलग-अलग काम करने वाले लोगों की बन ुकी थी। परन्तु सामान्य धारणा के According ये जातियां अन्तरजातिय विवाहों के कारण पैदा हुई। बौद्ध साहित्य के According इस काल में जाति का किसी काम से पूर्णतया सम्बन्ध नही था। इनमें Single क्षित्राय के कुम्हार, टोकरी बनाने वाला, फूलों के हार बनाने तथा खाना बनाने वाले के Reseller में वर्णन मिलता है। इसी तरह सेठ्ठी (वैश्य) का ऐक दर्जी तथा कुम्हार का काम करते बताया गया है। परन्तु फिर भी उनकी जाति की गरिमा को कोई नुकसान नही हुआ। ब्राह्यण जातक में ब्राह्यणों को निम्नलिखित दस कार्य करते दर्शाया गया है। (1) चिकित्सक का काम (2) नौकर तथा कोचवान (3) कर इक्त्रा करना (4) भूमि खोदने वाला (5) फल तथा मिठाईया बेचना (6) कृषक (7) पूजारी जोकि शास्त्रों की व्याख्या करता था। (8) पुलिस का कार्य (9) शिकारी (10) माज्ञिक के Reseller में King के कार्य करने वाला। इसके अतिरिक्त वासेथ्थ सुत्रा में भी ब्राह्यणों को कृषक, भूमिहार, यूत, दस्तकार, बलिहारी, दस्तकार के Reseller में वर्णन Reseller गया है। इन All कार्यो के बाद भी Single ब्राह्यण किसान का बौद्धसत्व का स्वReseller माना है। जैन तथा बौद्ध ग्रन्थों में सामान्य ब्राह्यण किसान को बोद्धिसत्व का स्वReseller माना है। जैन तथा बौद्ध ग्रन्थों में सामान्य ब्राह्यणा को या तो Single साधारण नागरिक के Reseller में समाज की सेवा करते या वापस अथवा ऋषि के Reseller में जंगल के आश्रमों में रहने वाला बताय गया है।

इन चार जातियों के अतिरिक्त जाति साहित्य में बहुत सी हीन जातियों का वर्णन Reseller गया है। जो हीन कार्य करते थे। जिनमें छकड़े बनाने वाले, चटाई बनाने वाले, नाई, कुम्हार, बुनकार, चर्मकार इत्यादि थे। इनमें से कुछ को तो मतीभेद बताया गया हैं जोकि आर्यो के सामाजिक व्यवस्था से बाहर थे। विन्यसुत्रा विमंग में इनमें चाण्डाल, वेग निषाद, रथकर तथा पुक्कुस इत्यादि थे।

आश्रम व्यवस्था :-

इस काल में मनुष्य के जीवन को चार आश्रमों या अवस्थाओं में बांटा हुआ था। Meansशास्त्र में भी इस प्रकार का वर्णन मिलता हैं जिस प्रकार वैदिक साहित्य का धर्मसूत्रा भी इस तथ्य की पुष्टि करते है। First आश्रम ब्रह्यचार्य का है। जिसमें पठन-पाठन का कार्य Reseller जाता था। ब्रह्यचारी गुरू के घर या आश्रम में रह कर पठता था। ब्रह्यचारी दो प्रकार के थे (1) उपकुर्वाण, जोकि शिक्षापूर्ण होने के उपरान्त विवाह कर गृहस्थ हो सकता था। (2) नैष्यिक, जोकि पूरे जीवन विद्याथ्र्ाी रह कर ब्रह्यचार्य का पालन करता था।

दूसरा आश्रम गृहस्थ आश्रम था। जिसमें वैवाहिक जीवन व्यतीत Reseller जाता था। इस आश्रम में देवताओं के ऋण को यज्ञ द्वारा तथा पितृ ऋण को सन्तानोत्पति कर चुकाया जाता था। ऋषि ऋण ज्ञान तथा धार्मिक उत्सवों (पर्वन के दिनों में), धर्म कर्म के कार्यो And दान द्वारा चुकाया जाता था।

तीसरा आश्रम बाणप्रस्थ आश्रम जिसे बौद्ध साहित्य में भिक्षु कहा गया है। इसमें अनिश्चय (कुछ इक्कठा न करना) (2) ऊद्र्दद्यव्रेत (3) बरSeven के दिनों में Single ही जगह निवास करना (4) गावों में जाकर भिक्षा मांगना (5) अपने लिए स्वंय वस्त्र बुनना (6) फूल-पते न तोड़ना तथा भोजन के लिए बीजों को खराब न करने के नियम थे। इस आश्रम में भिक्षु अपना भरण पोषण केवल भिक्षा में मिले भोजन पर ही करते थें चौथा आश्रम सन्यास या परिव्रजक आश्रम था। जिसमें Single भिक्षु All ससंकारिक वस्तुओं को त्याग कर जंगल में प्रस्थान कर जाता था जहां वह जंगल में ही निवास कर वही के कंदमूल व फल खा कर अपना गुजारा करता था। परिव्रजक सत्य, असत्य, दुख-सुख वेदों को छोड़ कर आत्मन का ध्यान करता था। कौटिल्य के According All आश्रमों में अहिंसा, सत्य बोलना, शुद्धता, ईष्या न करना, दूसरों का सम्मान करना इत्यादि कार्य सम्मलित थे।

पारिवारिक जीवन :-

इस काल के समाज में संयुक्त परिवार प्रणाली प्रचलित थी। पिता घर का मुखिया होता था तथा उसकी आज्ञा का पालन करना पुत्र का धर्म था। इस काल में हमें बहुत से ऐसे उदाहरण मिलते है जिससे परिवार के भिन्न-2 सदस्यों के बीच सौहदर्य पूर्ण सम्बन्ध थे। बड़ो के प्रति छोटों का आदर भाव था। पति-पत्नी, पत्नी तथा उसके सास-ससुर, भाई व बहनों के बीच स्नेहपूर्ण सम्बन्ध थे। इसके विपरीत ऐसे उदाहरण भी मिलते है कि सास या बहु Single Second से तंग आ कर सन्यासिन बन जाती थी। Single स्थान पर तो बहु ने अपने आपकों मारने के लिए जाल बुना तथा Single अन्य स्थान पर चार बहुओं ने अपने ससुर को घर से निकाल दिया। Single अन्य स्थान पर Single पुत्र इसलिए शादी करने से मना कर रहा है कि पत्नियां सामान्यत् पति-पत्नी के संबध इस काल में सौहदर्य पूर्ण थे। यद्यपि मैगस्थनीज व जातक साहित्य ने पति-पत्नी के संबधों में सतांन प्राप्ति न होने का भी वर्णन Reseller है। सामान्यत: समाज में पुरूष Single ही विवाह करते थे। परन्तु बहुपत्नी विवाह का वर्णन भी इस काल में मिलता है। मैगस्थनीय ने लिखा है कि Indian Customer पुरूष बहुत सी स्त्रियों से विवाह (बहु विवाह प्रथा) करते थे। ये विवाह कभी सध्धर्मीयता के लिए, कभी खुशी के लिए या संतान प्राप्ति के लिए विवाह किए जाते थे। जो पत्नी पति की जाति से ही संबध रखती थी उसकी घर में काफी प्रतिष्ठा होती थी तथा उसकी संतान को ही अपने पिता की सम्पति का कानूनी उतराधिकारी माना जाता था। बाकि पुत्रों को उनकी माता की जाति के According अधिकार मिलते थे। इस प्रकार हम देखते है कि इससे परिवार में शान्ति भंग होने तथा सामान्य सम्बन्धों में कड़वाहट होना स्वभाविक था। बहुपत्नि विवाहों से पत्नी पर अत्याचार होना तथा उसके पारिवारिक स्थिति में हीनता आना स्वाभाविचक था। बहुपत्नी विवाह इस काल में था या नही यह कह पाना कठिन है। विधवान बृहस्पति द्वारा Historyित कुले कन्याप्रदान तथा महाभारत के दौपद्धि विवाह को इस काल का मानने से इस प्रथा के प्रचलन को मान्यता मिलती है। परन्तु इस बात पर संदेह है कि ये साक्ष्य इसी काल के है या नही।

विवाह तथा स्त्री की स्थिति :-

इस काल में सामान्यत: विवाह अपनी ही जात में Reseller जाता था। यद्यपि अन्तरजातिय विवाहों के प्रचलन को History भी है। Single ही जाति में भी विवाह पर कुछ प्रतिबंध थे जैसे कि Single ही गोत्रा या प्रवर (सगोत्रा) था सपिण्ड़ विवाह इत्यादि। धर्मसूत्रों के According इ काल में आठ प्रकार के विवाहों का प्रचलन था :-

  1. ब्रह्या विवाह, जिसमें Single सुसंस्कृत पुरूष से पिता अपनी कन्या (गहनों, रत्न, मणियां पहने) का विवाह करता था।
  2. द्धैव विवाह जिसमें यज्ञ को करने वाले पुजारी से पिता अपनी कन्या का विवाह करता था।
  3. आर्श विवाह, जिसमें वर स Single गाय या बैल प्राप्त कर पिता अपनी कन्या का विवाह वर से करता था।
  4. प्Kingपत्य विवाह, जिसमें पिता अपनी कन्या का विवाह मन्त्रोउच्चरण के बाद वर से करता था।
  5. असुर विवाह, जिसमें वर पक्ष वाले वधु को तथा उसके परिजनो को धन देते थे।
  6. गान्धर्व विवाह : इसमें पुरूष व स्त्री Single Second की Agreeी से प्रेम विवाह करते थे।
  7. राक्षस विवाह : इसमें वर द्वारा कन्या का उसके पिता के घर से अपहरण करके उससे विवाह Reseller जाता था।
  8. पैशाच विवाह : इसमें पुरूष कन्या से मद् अवस्था में होते हुए कन्या से विवाह करता था।

इनमें से ब्रहम, दैव, आर्श, प्Kingपत्य तथा गान्धर्व इत्यादि विवाहों को विभिन्न साक्ष्यों में ठीक माना गया है। जबकि पैशाच विवाह कसे All साक्ष्यों ने बुरा माना है तथा राक्षस विवाह केवल क्षित्रायों में होना स्वीकारा गया है। मैगस्थानीय ने भी अपने वितरण में Indian Customer विवाह में Single बैलों की जोड़ी कन्या पक्ष को देने की बात कही है। जोकि इस काल में आर्श प्रकार के विवाह के प्रचलन का द्योतक है। ऊपरलिखित विवाह प्रकारों में First चार को अधिकतर साक्ष्यों में ठीक माना है क्योंकि इनमें कन्या के माता-पिता वर की योग्यता के आधार पर अपनी पुत्री की शादी करते थे।

विवाह में दहेज प्रथा नही थी। यवन विधवान नियर्कस ने भी लिखा है कि Indian Customer बिना दहेज के विवाह करते थे तथा युवती को विवाह योग्य होने पर उसका पिता विभिन्न समारोहों में जाता था जहां पर मल्ल Fight, मुक्केबाजी, दौड़ या अन्य कार्यो में विजयी पुरूष से कन्या का विवाह Reseller जाता था। यह स्वयवंर का ही Single सुधरा हुआ Reseller प्रतीत होता है।

विवाह के लिए कन्या की आयु के बारे में भी इस काल में अलग-अलग मत है। सामान्यत: व्यस्क होने पर ही कन्या का विवाह Reseller जाता था। बौद्ध साहित्य इस साक्ष्य को प्रमाणित करते हैें परन्तु सूत्रा साहित्य में लड़कियों को कम उम्र में शादी के प्रमाण मिलते हैं इस प्रकार हम देखते है कि इस काल में यद्यपि व्यस्क होने पर ही कन्या की शादी हआ करती थी परन्तु बाल-विवाह के भी प्रमाण मिलते है। यदि कोई पिता अपनी व्यस्क लड़की की शादी नही करता था तो यह उसके लिए Single पाप माना जाता था। साक्ष्यों के According इस अवस्था में कन्या स्वंय अपने लिए वर ढूढ़ सकती थी। यह इन्तजार तीन महीने से तीन साल हो सकता था।

यद्यपि बाल-विवाह Single सामान्य प्रथा नही थी। परन्तु फिर भी विवाह की आयु कम होने से स्त्रियों की सामान्य शिक्षा तथा संस्कृति पर बुरा प्रभााव पड़ा । दूसरी और उनकी कौमार्य पर अधिक जोर दिया जाने लगा तथा साथ ही अपने पति का बिना प्रश्न के आज्ञा पालन करना भी स्त्रियों की स्थिति में गिरावट के मुख्य कारणों में से Single थे।

स्त्री शिक्षा :-

इस काल में हमें स्त्री शिक्षा के प्रमाण मिलते है। तथा वे अच्छी पढ़ी लिखी हुआ करती थी। स्त्रियां घर तथा समाज में प्रतिष्ठित स्थान रखती थी। इस काल में दो प्रकार की स्त्री विधार्थियों का वर्णन है। Single ब्रह्यवादिनी जो कि जीवनपर्यन्त ग्रन्थों का अध्ययन करती थी। दूसरी सध्धोद्धाहा (Sadyodvaha) जोकि विवाह होने तक शिक्षा ग्रहण करती थी। पणिवी इस काल में शिक्षक उपध्याया तथा उपाध्यायी का वर्ण करता हैं बौद्ध तथा जैन साक्ष्य की ब्रह्यवादिनी, से सम्बन्धित शिक्षित बौद्ध भिक्षुणियां जिनकी कृतियां थेरी गाथा में संकलित है। इसी प्रकार जैन साहित्य में जयंन्ती नामक स्त्री का वर्णन है। जिसने स्वंय दर्शनशास्त्रा में भगवान महावीर से वाद-विवाद Reseller था।

इस काल में स्त्रियों को पढ़ाई के अतिरिक्त, संगीत, नृत्य तथा चित्रकला में भी निपुणता प्रदान की जाती थी। कुछ िस्त्रायां सैन्य कला की शिक्षा की प्राप्त करती थी। साहित्य में शाक्तीवी का वर्णन इसे सिद्ध करता है। मैस्थनीण के According चन्द्रगुप्त् मौर्य के अंगरक्षक िस्त्रायां ही थी। जब वह शिकार पर जाता था तो कुछ िस्त्रांया रथ पर कुछ छोड़ों व हाथियों पर भी साथ जाती थी तथा वे अस्त्राशस्त्रों से इस प्रकार लैसं होती थी कि मानों वे Fight करने जा रही हो। कौटिल्य भी स्त्री अंगरक्षकों के होने का प्रमाण देता है।

इस काल में लड़कों की तरह लड़कियों का भी उपनयन संस्कार हुआ करता था। विवाह योग्य कन्या की कौमार्य पर अधिक बन देने से धीरे-धीेरे विधवा विवाह पर असर पड़ने लगा। यद्यपि Meansशास्त्र तथा धर्मसूत्रों में विधवा या स्त्री का पुन: विवाह के प्रमाण है। पुन: विवाह के लिए कुछ नियम स्थापित किए गए थे। जैसे पुन: विवाह वही स्त्रियां ही कर सकती थी जिसका पति या तो मर चुका हो, साधु बन गया हो, पति विदेश में बस गया हो, या काफी वर्षो से वापिस न आया हो। इसके अतिरिक्त स्त्री अपने पति के जीवित रहते भी पुन: विवाह कर सकती थी। जैसे कि पति का नंपुसक हो जाना या जाति से बाहर निकाल दिया गया हो।

परिवार में स्त्रियों की स्थिति स्मृतिकाल की अपेक्षा अब अधिक Windows Hosting थी। किन्तु फिर भी मौर्यकाल में स्त्रियों की स्थिति को अधिक उन्नत नही कहा जा सकता। उन्हें बाहर जाने की स्वतंत्रता नही थी। संभ्रात घर की िस्त्रायां प्राय: घर के ही अंदर रहती थी। कौटिल्य ने ऐसी स्त्रियों को ‘अनिष्कासिनी’ कहा है।

विवाह विच्छेद : –

इस काल में विवाह विच्छेद होने के भी प्रमाण है। Meansशास्त्र के According यदि पति दुराचारी हो, विदेश चला गया हो, King से विद्रोह कर दिया हो, पति से पत्नी को जान का खतरा हो तो पत्नी पति से तलाक ले सकती थी। पति-पत्नी अपनी अपसी Agreeि से भी तलाक ले सकते थे। इस प्रकार हम देखते है कि इस आधार पर स्त्री और पुरूष दोनों को समान अधिकार प्राप्त थे।

सती प्रथा :-

कौटिल्य के Meansशास्त्र से सती प्रथा के प्रचलित होने का कोई प्रमाण नही मिलता। इस समय के धर्मशास्त्रा इस प्रथा के विरूद्ध थे। बौद्ध तथा जैन अनुश्रुतियों में भी इसका History नही है किन्तु यूनानी लेखकों ने उतर-पश्चिम में सैनिकों की स्त्रियों के सती होने का History Reseller है। यौद्धा वर्ग की स्त्रियों में सती की वह प्रथा प्रचलित रही होगी। जोकि कभी-कभी सवैन्धिक हुआ करती था कभी-कभी विधवा को उसके पति की चिता के साथ जबरदस्ती जला दिया जाता था। यूनानी Historyकारों ने लिखा है कि 316 ई.पूर्व बुद्ध में जब Single Indian Customer सेनापति वीरगति को प्राप्त हो गया तो उसकी विधवा उसके साथ सती हो गई।

गणिकाएं :-

किसी भी काल में स्त्री दशा का description जब तक पूरा नही होता जब तक वेश्यावृति का वर्णन न करें। इस काल में भी इस प्रकार की स्त्रियों थी। स्वतंत्र Reseller से वेश्यावृति करने वाली स्त्रियां ‘Resellerा जीवा’ कहलाती थी। इनके कार्यो का निरिक्षण गणिकाध्यक्ष तथा Single राजपुरूष करता था। बौद्ध साक्ष्यों से हमें वैशाली की नगरवधुवों का वर्णन मिलता है। जिनके पास King, राजकुमार तथा अन्य अमीर लोग जाया करते थे। गणिकाओं को प्रमाण में प्रतिष्ठित स्थान की प्राप्ति थी। आम्रपाली को तो स्त्री रत्न तक की उपाधि मिली हुई थी। गणिकाएं अपनी आय का Single भाग राज्य को कर के Reseller में देती थी। राज्य की और से उनके अधिकर भी Windows Hosting थे तथा उनेस दूव्र्यवाहर करने वालों को जुर्माना Reseller जाता था। कई वेश्याओं को तो जासूस के Reseller में रखा जाता था। सुन्दरता, आयु, गुणों के आधार पर उनकी आय 1000 पण प्रति वर्ष हो सकती थी। वेश्याएं राजदरबार में भी जाती थी।

इसके अतिरिक्त स्त्रियों को गणिकाओं के Reseller में, चमरधारी, दाता धारण करने के लिए , स्वर्ण कुम्भ उठाने के लिए, पंखा करने के अतिरिक्त रसोई, स्नानग्रह तथा King के हरम में भी Appointment की जाती थी।

दास प्रथा :-

यह प्रथा तो भारत में वैदिक काल से ही प्रचलित थी तथा इस काल में भी यह प्रचलन में थी। इसके बारे में यूनानी लेखक अलग-अलग description देते है। अशोक के अभिलेखों में भी दास सेवकों, भृत्यों और अन्य प्रकार के श्रम जीविकों का History है Meansशास्त्र में तो दास प्रकार का description काफी मात्रा में दिया है। ये दास प्राय: अनार्य हुआ करते थे। तथा खरीदे-बचे जा सकते थे। कभी-कभी तो आर्थिक संकट में कुछ लोग स्वंय को भी दास के Reseller में बेच सकते थे। परन्तु उनकी संतान आर्य ही कहलाती थी। दासों के साथ इस समय अच्छा व्यवहार Reseller जाता था। यदि कारण है कि मैस्थनपीण इस प्रथा के प्रचलन के होने की पहचान नही सका। उसके According All Indian Customer स्वतंत्र थे। उसका कहना है कि Indian Customer विदेशीयों को दास नहीं बनाते थे। इस काल में दासों को अपनी व अपने माता-पिता की सम्पति पर अधिकार था। दास अपने मुल्य अदा कर अपनी स्वतंत्रता खरीद भी सकते थे।

खान पान :-

इस काल में मांस खाने की काफी प्रवृति थी। स्वंय अशोक के अभिलेखों से पता चलता है कि उनक रंघनागार के लिए प्रतिदिन सैकड़ों पशुओं का वध Reseller जाता था। इसके अतिरिक्त Meansशास्त्र में मांस बेचने वालों तथा पका मांस बेचने वालों का History हें इसके अतिरिक्त पका चावल बेचने वालों का भी History है। जो हमें बताता है कि लोग भोजन में अन्य चीजों के अतिरिक्त चावल भी खाते थे। बौद्ध तथा जैन साहित्यों से हमें चावल, फलियां, तिल, शहद, फल, मच्छली, मीट, मक्खन, घी, जड़ीबूटी आदि के साथ मांस में गोमांस इत्यादि का भी लोगों द्वारा खाने का वर्णन है। Meansशास्त्र के According सरकार का यह कर्तव्य था कि वह जंगलों के पशु-पक्षियों के लिए तथा बूचड़ खानों की भी Safty करें।

मैगस्थनीज ने उस समय के खान पान पर लिखा है कि जब Indian Customer खाने के लिए बैठते थे तो प्रत्येक के सामने Single तिपाई रखी जाती थी। जिस पर बर्तन में सबसे First उसमें चावल डाले जाते थे उसके उपरान्त अनेक पकवान परोसे जाते थे। पेय पदार्थो का इस काल में काफी description मिलता है। अंगूर का रस, शहद विभिन्न फलो जैसें आम, जामून, केले तथा जड़ी बूटियों के पेय पदार्थ बनाए जाते थे। फूलों वाले पेय पदार्थ भी बहुत पसन्द किए जाते थे।

मदिरा पान :-

इस काल में मदिरा पान का काफी प्रचलन था। मैगस्थनीज के According विशेष पदाधिकारियों के अतिरिक्त साधारण लोग मदिरा पान नही करते थे। उनका प्रयोग यज्ञ के अवसरों पर अधिक होता था। King तो इसका सेवन करते थे जिसका प्रमाण हमें बिन्दुसार के यूनानी दूत से यूनानी दार्शनिक एवम् यूनानी मदिरा की मांग करने से लगता है। Meansशास्त्र में हमें मदिरा बनाने तथा उसके नियमों राज्य के इस उद्योग पर नियंत्रण को दर्शाते है। परन्तु प्रत्येक व्यक्ति का मदिरा Single निश्चित मात्रा में ही मिल सकती थी। तथा राज्य इसे Single दुण्र्यसन मानता था। Meansशास्त्र के According श्रत्रियों में मदिरा पान सामान्य था। ब्राह्यमणों को इसका सेवन निर्षिद था।

आमोद प्रमोद :-

इस काल में लोगों के आमोद प्रमोद का description साहित्य तथा अभिलेखों से तथा विदेशी descriptionों से मिलता है। मैगस्थनीज ने विवाहों का वर्णन करते हुए लिखा है कि पिता कन्या का विवाह उससे करता था जो मतल Fight, मुक्केबाजी, दौड़ तथा अन्य क्रिडाओं में विजय प्राप्त करता था। यूनानी लेखकों ने मनुष्यों, हाथियों तथा अन्य पशुओं की लडाइयों से लोगों के मनोरंजन का वर्णन Reseller है। Meansशास्त्र से पता चलता है कि साधारण जनता में तमाशे व प्रेक्षाएं लोकप्रिय थी। नर नर्तक, गायक, वादक मदारी, बाजीगर अलग-अलग बोलियां निकालने वाले लोगों का मनोरंजन करते थे। राज्य से इन्हें अनुमति लेनी पड़ती थी। अशोक के अभिलेखों से विहार यात्राओं का वर्णन मिलता है जहां King शिकार करते थे। मैगस्थनीय भी King के शिकार पर जाने का विस्तारपूर्वक वर्णन करता है।

वेशभूषा And गहने :-

इस काल के साहित्य, मूर्तिकला तथा विदेशियों के description से हमें Indian Customerों की वेशभूषा And गहनों का पता चलता है। नियरकस के According Indian Customer दो सूती वस्त्र पहनते थे। Single नीचे पहनने का जो घूटनों से नीचे तक जाता था दूसरा कन्धों पर यह धोती तथा चद्दर ओठने का द्योतक है। आम लोग तथा िस्त्रायां भी पगड़ी पहना करती थी जबकि King मुकुट धारण करते थे। साधु व सन्यासी घास-फूस को वस्त्रों के Reseller में प्रयोग करते थे। यद्यपि सूती वस्त्रों का प्रचलन था। परन्तु रेशमी, ऊनी वस्त्रों का भी प्रयोग अमीर लोग करते थे। भारहुत And सांची की मूर्तिकला से हमें गहनों के प्रयोग का पता चलता है। दोनों पुरूष और स्त्रियां गहने पहनते थे। जोकि हार कुण्डल, अंगूठियां कमरबन्ध इत्यादि थे।

यद्यपि मूर्तियों इत्यादि से हमें स्त्रियों के पर्दा करने के कोई प्रभाव नही है। परन्तु अभिजात वर्ग की स्त्रियां सभाओं में Single विशेष प्रकार का पर्दा का प्रयोग करती थी। बौद्ध साहित्य में पर्दा प्रथा का वर्णन नही मिलता है। मैगस्थनीज का कथन है कि Indian Customer लोगों का सोने से लगाव था। उनके कपड़ों पर सोने से कढाई की होती थी।

केश श्रंगार, कंघी करने, तेल, सुंगधित चीजों का प्रयोग लोग करते थे। तथा अन्य सौदंर्य प्रसाधनों का प्रयोग भी होता था। ब्राह्यण सिर मुण्डवाकर चोटी रखते थे तथा साधु लम्बी दाड़ी रखते थे नाखुन रंगने का रिवाज इस काल में था।

मौर्य कालीन Meansव्यवस्था

कौटिल्य के Meansशास्त्र तथा मैगस्थनीज की इण्डिका से ज्ञात होता है कि कृषि, पशुपालन तथा व्यापार एवम् वाणिज्य मौयकालीन Meansव्यवस्था का मुख्य आधार थे। इस काल में तीव्रगति से आर्थिक विकास हुआ, और Single प्रभावशाली व्यापारी वर्ग का उदय हुआ जिसने अपनी श्रेणियाँ (संगठन) बनाकर समाजिक व्यवस्था को प्रभावित Reseller। यह नया समाजिक वर्ग मुख्य Reseller से नए विकसित हो रहे शहरों में रहने लगा। कृषि Meansव्यवस्था, हस्तशिल्प उत्पादन और वाणिज्यिक गतिविधियों के विकास के कारण इस काल में निम्नलिखित परिवर्तन हुए ‘ तकनीक का विकास, मुद्रा का चलन और नगरीय केन्द्रो का तेजी से विकास हुआ। इस काल की भौतिक और सामाजिक विशेषताओं को समझने के लिए कृषि, पशुपालन, शिल्प-उद्योग और वाणिज्यिक गतिविधियों के बारे में जानना जरूरी है।

कृषि :-

मौर्यकालिन Meansव्यवस्था की बुनियाद कृषि पर टिकी थी Meansशास्त्र में स्थायी बस्तियाँ बसाने पर जोर दिया गया है ताकि कृषि Meansव्यवस्था का विस्तार हो सके। इन बस्तियों से भूमि कर की प्राप्ति होती थी और ये राजकीय आय का स्थायी स्त्रोत था। राम शरण शर्मा के According इस काल में गंगा के मैदान के अधिकांश इलाकों में खेती की जाने लगी और इसके साथ-साथ दूरस्थ इलकों में भी कृषीय Meansव्यवस्था स्थापित करने का प्रयास Reseller जाने लगा। कृषि के विकास से किसान का महत्व धीरे-2 बढ़ने लगा। यूनानी लेखक मैगस्थनीज अपने description में लिखता है कि मौर्यकालीन समाज Seven भागों में विभक्त था। इसमें First दार्शनिक और द्वितीय स्थान पर किसान था। हांलाकि उसका समाज का विभाजन संबधी दृष्टिकोण पूर्ण उचित नही है, लेकिन यह महत्पूर्ण बात है कि कृषि में लगे किसानों की बड़ी संख्या ने उसका ध्यान आकृष्ट Reseller उसके According यहाँ की भूमि उपजाऊ थी और किसानों को हानि नही पहुँचाई जाती थी, लेकिन इस कथन पर विश्वास करना कठिन है। क्योंकि कांलिग Fight मरने वालो की संख्या 1,50,000 बतायी गयी है, जिनमें काफी कृषक भी शामिल होगें। किसी भी मौर्यकालीन स्त्रोत में किसान को भूमि का मालिक नही बताया गया है।

कृषि विकास की सफलता का महत्वपूर्ण कारण था राज्य द्वारा सिंचाई सुविधा प्रदान करना। कृषकों की भलाई के लिए जल-आपूर्ति संबधी कुछ नियम बनाए गए थे। मेगस्थनीज के According जमीन मापने और खेत में पानी पहुँचाने वाली नालियों का निरीक्षण करने के लिए अधिकारियों की Appointment की जाती थी। राज्य द्वारा कम वर्षा वाले क्षेत्रों में सिचांई सुविधा के लिए तालाब, कुएँ और बांध इत्यादि का निर्माण Reseller जाता था, जिन्हें सेतुबन्ध कहते थे। चन्द्रगुप्त मौर्य के Single राज्यपाल पुष्यगुप्त ने गिरनार के निकट सौराष्ट्र में Single बांध का निर्माण करवाया था, जिससे Single विशाल झील का निर्माण हुआ, जो सुदर्शन झील के नाम से जानी जाती है। यह झील पाँचवी श0ई0 तक सिचांई का साधन बनी रही। मौर्य Kingों द्वारा लागू की गयी सिचांई परियोजनाओं से राज्य को Single निश्चित आय प्राप्त होने लगी। राज्य की आमदनी का स्थायी और अनिवार्य स्त्रोत भू-राजस्व प्रणाली को व्यवस्थित Reseller गया।

Meansशास्त्र में ऐसी भूमि की Discussion है जिन पर राज्य अथवा King का सीधा नियंत्रण था। इसके अतिरिक्त जमीन की बिक्री का भी जिक्र है जिससे पता चलता है कि व्यक्ति का जमीन पर पुश्तैनी अधिकार था लेकिन किसी भी स्त्रोत में इन्हें भूमि का मालिक नही माना गया है। उर्वरता की दृष्टि से भूमि का वर्गीकरण Reseller जाता था। इसी आधार पर राजस्व की दर उपज के ( भाग से ) भाग तक रखी जाती थी। भू-राजस्व निर्धारण और करों का सारा रिकार्ड रखने के लिए अलग विभाग था, जिसका अध्यक्ष समहर्ता कहलाता था। कोषाध्यक्ष सित्राधाता के नमा से जाना जाता था। चूंकि राजस्व वस्तु के Reseller में भी प्राप्त Reseller जाता था। अत: इस प्रकार की आय को सग्रंहित करना सित्राघाता का ही कार्य था। यूनानी descriptionां के According, किसान कर के Reseller में कुल उपज का ( भाग राज्य को देते थे। भूमि कर (भाग) राजस्व का मुख्य आधार था, जो कुछ उपज का 1ध्6 भाग था। लेकिन मौर्यकाल में यह ( था। इनके According किसान सामूहिक Reseller में होता था, जिसमें कई गाँव शामिल होते थें किसानों को इनके अतिरिक्त सिचांई कर और बलि कर भी देना पड़ता था। बलि कर वैदिक काल से चला आ रहा था लेकिन मौर्यकाल में इसका स्वReseller कैसा था यह स्पष्ट नही है। इसके अतिरिक्त गाँव को उनके क्षेत्र से गुजरती हुई राजकीय सेना के लिए खाद्य सामग्री का प्रबन्ध करना पड़ता था। Meansशास्त्र में आपात स्थिति के दौरान लागू किए जाने वालें करों का भी History है जिनमें प्रमुख है Fight कर जिसे प्रणय कहा जाता है। इसका शहिदक Means है प्रेम से दिया गया उपहार, यह उपज का 1ध्3 या ( भाग होता था। आपातकाल में किसानों को दो फसल उगाने के लिए बाध्य Reseller जा सकता था। इस बात पर जोर दिया गया है कि अकाल के दौनान इस प्रकार का कदम उठाना जरूरी होता था, क्योंकि इस दौनान करों की वसूली काफी कम हो जाती होगी। कौटिल्य ने Meansशास्त्र में भू-राजस्व व्यवस्था की विस्तृत विवेचना की है, क्योंकि भू-राजस्व मौर्यकाल की Meansव्यवस्था का आधार थ्ी। Meansशास्त्र में भूमि की उर्वरता के आधार पर विभिन्न गांवों में अलग-2 राजस्व की दरें निर्धारित की गयी है। आर्थिक कार्यकलापों पर सरकारी नियंत्रण इस व्यवस्था की विशेषता थी, जैसे राजस्व Singleित्रात करने वाले अधिकारियों पर राज्य का नियंत्रण था। इससे पूरे राज्य करने वाले अधिकारियों पर राज्य का निंयत्राण था। इससे पूरे राज्य में Single स्थायी कर प्रणाली स्थापित की जा सकी। राज्य को जो भू-राजस्व प्राप्त होता था उससे साम्राज्य की वितिय जरूरते, सरकारी तंत्रा की नींव रखी जा सकी।

कृषि Meansव्यवस्था ने मौर्य साम्राज्य को Single शक्तिशाली आर्थिक आधार प्रदान Reseller, जिसे व्यापारिक Meansव्यवस्था ने और दृढ़ बना दिया। इस काल का विकसित व्यापार लम्बे आर्थिक परिवर्तनों का Single हिस्सा था जिसकी शुरूआत इस काल से पूर्व हो चुकी थी। इस शुरूआत का आधार था-नई धातुओं की खोज, उन्हें गलाने और शुद्ध करने की तकनीक तथा लोहे के औजार। मौर्य काल में उतरी भारत में अनेक नगरों का विकास हुआ, नई बस्तियों के विस्तार से लोगों का आवागमन बढ़ा , जिससे व्यापार में वृद्धि हुई। व्यापार के अनेक तरीके प्रचलित थे। जो उत्पादन के तरीके और इसके संगठन से Added हुआ था। हस्तशिल्प उद्योग या कारीगर उत्पादन उद्योग श्रेणियों के Reseller में संगठित हो गए थे। लेकिन इस काल में शिल्पियों की संख्या में वृद्धि हुई। प्रत्येक श्रेणी नगर के Single भाग में बसी हुई थी जिसके सदस्य परस्पर साथ रहकर कार्य करते ोि। हस्तशिल्प उद्योग अधिकाशंतया वशंानुगत होता था। श्रेणियां राज्य के नियंत्रण में काम करती थी और इन्हें सरकार से लाइसेंस लेना पड़ता था। श्रेणियां इस काल में काफी शक्तिशाली हो गई थी और इनकी सामाजिक प्रतिष्ठा में भी काफी वृद्धि हुई।

मैगस्थनीज ने भी श्रेणियो की गणना Seven Indian Customer जाति में की है। विभिन्न प्रकार के धातुकर्मी, बुनकर, बढ़ई, चर्मकर, कुम्भकार और चित्रकार आदि इस काल की प्रमुख श्रेणियाँ थी इस काल में गंगा घाटी में पाए गए उतरी काली चमकदार पालिश किए मृदभाण्ड विशिष्टीकरण हस्तशिल्प के उतम नमूने है। शिल्पकार या दस्तकार पीढ़ी-दर-पीढ़ी Single ही शिल्प से जुड़े होने के कारण अपनी दस्तकारी कार्य में उद्योग का Reseller धारण कर लिया था। शिल्पियों के समान व्यापारी भी श्रेणियों में विभक्त थे। खनन एवम् खनिज पदार्थो के व्यापार पर राज्य का Singleाधिकार था, यानि कच्चा माल राज्य के नियत्रांण में था। इनके समुचित उपयोग से कृषि का विकास और उत्पादन में वृद्धि हुई जिससे राज्य सुदृढ़ हुआ। नई खानों का पता लगाने और उनकी व्यवस्था करने के लिए Single खान अध्यक्ष (आकाराध्यक्ष) होता था। नमक खनन के क्षेत्र पर भी राज्य का Singleाधिकार था। विभिन्न प्रकार की धातुओं का प्रयोग सिक्कें ढ़ालने के लिए ही नही बल्कि उनके अस्त्रा-शस्त्रा तथा भी बनाए जाते थे। लोहे के अस्त्रा-शस्त्रा तथा औजार बनाने वालों पर नियुक्त लोह अधीक्षक (लोहाध्यक्ष) कहलाता था।

मौर्यकालीन सर्वाधिक विकसित उद्योग सूती वस्त्र उद्योग था। Meansशास्त्र में जिक्र है कि काशी, मगध, वंग (पूर्वी बंगाल) पुंडू (पश्चिमी बंगाल), कलिंग और मालवा सूती वस्त्रों के विख्यात केन्द्र थे। बंगाल मलमल के लिए विश्वविख्यात केन्द्र था। सूती वस्त्र भंडौच बन्दरगाह से पश्चिमी देशें को निर्यात Reseller जाता था। मेगस्थनीज ने Indian Customer वस्त्रों की काफी प्रशंसा की है। इस काल में काशी और पुन्डू में रेशमी वस्त्र बनते थे। संभवत: रेशम और रेशमी वस्त्र चीने से आयात किए जाते थे। वस्त्रों पर सोने की कढ़ाई और कशीदाकारी भी की जाती थी। Meansशास्त्र में विभिन्न धातुओं के आभूषण बनाने वाले, बर्तन, अस्त्रा-शस्त्रा लकड़ी का कार्य, पत्थर तराशने का व्यवसाय, मणिकारी, शराब बनाना और कृषि उपकरण तैयार करने वाले विभिन्न व्यवसायों का History Reseller गया है।

मौर्य Kingों द्वारा व्यापारिक मार्गो पर Safty व्यवस्था लागू किए जाने के कारण व्यापारिक गतिविधियों को विशेष प्रोत्साहन मिला। व्यापारी वर्ग का Safty प्रदान करने के लिए विभिन्न नियम भी बनाए गए। इस काल के प्रमुख व्यापारिक केन्द्र नदी के किनारे स्थित थे, इनमें मुख्य थे कौशांबी, वाराणसी, वैशाली, राजगृह और चम्पा आदि। इनमें से ज्यादातर नगर स्थल मार्ग द्वारा भी Single-Second से जुड़े हुए थे। राजमार्गो ने व्यापार के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया प्रमुख मार्ग निम्न थे। पहला प्रमुख राजमार्ग पाटलीपुत्र से तक्षशिला तक बना था। यह मार्ग वाराणसी, कोशांबी, और मथुरा होते हुए तक्षशिला पहुँचती थी, जो 1300 मील लम्बा था। पाटली पुत्र से पूर्व की तरफ यह मार्ग ताम्रलिप्ति तक जाता था। यह मार्ग आजा ग्रांड ट्रंक रोड के नाम से जाना जाता था। उतरी पथ मार्ग वैशाली होता हुआ श्रावस्ती और कपिलवस्तु तक जाता था। कपिलवस्तु से यह पेशावर तक जाता था। दक्षिणा पथ मार्ग कोशांबी से मथुरा, विदिशा और उज्जैन होते हुए भंडौच बन्दरगाह तक जाता था। यह मार्ग आगे नर्मदा के दक्षिण-पश्चिम तक जाता था। यह मार्ग दक्षिणी मार्ग के नाम से जाना जाता था। यहाँ से Indian Customer वस्तुएँ पश्चिमी देशों को भेजी जाती थी। दक्षिण-पूर्वी मार्ग पाटलीपुत्र से श्रावस्ती से गुजरता हुआ गोदावरी नदी के तटीय नगर प्रतिष्ठान तक जाता था। वहां से कलिंग होता हुआ दक्षिण की ओर मुड़कर आन्ध्र और कर्नाटक तक जाता था। पश्चिम-एशिया के देशों की ओर जाने वाला मार्ग तक्षशिला से गुजरता था। स्थल मार्ग के अतिरिक्त समुद्री मार्ग से भी व्यापारिक गतिविधियों होती थी। दक्षिणापथ के पूर्वी तट पर ताम्रलिटित में सबसे महत्वपूर्ण बन्दरगाह था। जहां से गंगा और यमुना के मैदान की वस्तुएँ पूर्वी देशों को जाती थी। जहाज श्रीलंका से होते हुए पूर्वी देशों को जाते थे। पश्चिमी तट पर भडौंच बन्दरगाह से सोपारा होते हुए जहाज पश्चिमी देशों को जाते थे। रेशमी वस्त्र और रेशम के धागे स्थल मार्ग द्वारा चीन से बैक्ट्रिया और वहां से भंडोच बन्दरगाह से कोरोमंडल तट पर लाए जाते थे।

मौर्य Kingों का All मार्गो पर पूर्ण नियंत्रण होने के कारण व्यापारिक मार्ग Windows Hosting थे। दक्षिणी मार्ग व्यापारिक गतिविधियों से अधिक लाभदायक थे जबकि उतरीपथ मार्ग को व्यापारी Windows Hosting मार्ग होने के कारण ज्यादा पंसद करते थे। आन्तरिक व्यापर उतरी क्षेत्रों से कम्बल, खाल और घोडे दक्षिण को निर्यात होते थे, दक्षिण से हीरे, मोती, शंख, सोना और कीमती पत्थर आते थे। सुगम व्यापारिक मार्गो के कारण आन्तरिक व्यापार भी उन्नत अवस्था में था। जबकि Second देशों के साथ स्थल और समुद्री दोनों मार्ग से व्यापार होता था। स्थल मार्ग तक्षशिला से गुजरता हुए पश्चिमी देशों को जाता था, जबकि समुद्री मार्ग तहत पश्चिमी समुद्र तट से जहाज फारस की खाड़ी होते हुए आदेन तट जाते थे। मिस्र और चीन से भी Indian Customer व्यापरियों के व्यापरिक संबध थे। Indian Customer व्यापरियों द्वारा इन देशों को काली मिर्च, दाल चीन, मसालों, हीरे, मोती, सूती वस्त्र, हाथी दांत की वस्तुएं, कीमती पत्थर, मोर और तोते आदि वस्तुएं निर्यात की जाती थी। चीन से रेशम तथा रेशमी वस्त्र आयात किए जाते थे। मिस्र से घोड़े, लोहा और शिलाजीत आयात किए जाते थे। इनके अतिरिक्त शीशे के बर्तन तथा टीन, तांबा और सीसा भी विदेशों से मगवाँए जाते थे। विदेशी व्यापार के कारण तक्षशिला, मथुरा, कौशाम्बी, वाराणसी, पाटलीपुत्र, वैशाली, उज्जयिनी, प्रतिष्ठान, काशी और मथुरा नगरों के व्यापारी बहुत धनी हो गए थे।

मौर्यकालीन शहरी Meansव्यवस्था का अन्य महत्वपूर्ण पहलू यह था कि व्यापरिक विकास से मुद्रा का चलान बढ़ा और लेने-देन मुद्रा में होने लगा। सम्पूर्ण मुद्रा प्रणाली पर राज्य का पूरा नियंत्रण था। Meansशास्त्र में मुद्रा के बढ़ते महत्व को दर्शाया गया है। संभवत: इस काल में अधिकारियों को वेतन भी नकदी के तौर पर दिया जाता था। Meansशास्त्र में History है कि 48000 पण और 60,000 पण के बीच वार्षिक वेतन देने का प्रावधान था। Meansशास्त्र से यह भी ज्ञात होता है सिक्के ढालने के लिए सरकारी साल थी और अधिकारी उसका निरिक्षण करते थे। कौटिल्य ने चांदी और तांबे के विभिन्न प्रकार के सिक्कों का History Reseller है। चांदी के सिक्के चार प्रकार के थे-पण, अर्द्धपण, पाद और अष्टभाग। माशक, अर्धमाशक, काकणी और अर्धकाकणी तांबे के सिक्के थे। इस शक्तिशाली नकदी Meansव्यवस्था को सुचारू ढंग से चलाने के लिए सिक्कों की ढ़लाई और चांदी तथा तांबे जैसी धातुओं का महत्व बढ़ गया होगा। इस काल के चांदी के पंच माक्र्ड (आहत सिक्के) सिक्के इस बात के प्रमाण है कि मौर्य Kingों में मुद्रा प्रणाली को सुव्यवस्थित Reseller से लागू Reseller। आहत सिक्के मुख्य Reseller से उतरप्रदेश और बिहार के क्षत्रा में पाए गए है, जो मौर्य साम्राज्य का केन्द्रीय स्थल था।

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