प्रत्याहार क्या है ?

प्रत्याहार दो Wordों ‘प्रति’ और ‘आहार’ से मिलकर बना है। ‘प्रति’ का Means है विपरीत Meansात इन्द्रियों के जो अपने विषय हैं उनको उनके विषय या आहार के विपरीत कर देना प्रत्याहार है। इंद्रियॉं विषयी हैं, ये विषय को ग्रहण करती हैं। ये विषय हैं- पंच तन्मात्राएँ। चेतना ज्ञान प्राप्त करना चाहती हैं और चित्त उसका माध्यम बनता है। विषय अधिक होने पर चित्त उसमें भटक जाता है और यह ज्ञान इन्द्रियों से प्राप्त होता है। जब इंद्रियाँ विषयों को छोड़कर विपरीत दिशा में मुड़ती हैं तो प्रत्याहार होता है। Meansात इंद्रियों की बहिर्मुखता का अंतर्मुख होना ही प्रत्याहार है। योग के उच्च अंगों के लिए Meansात धारणा, ध्यान तथा समाधि के लिए प्रत्याहार का होना आवश्यक है।

महर्षि पतंजलि प्रत्याहार के स्वरुप को स्पष्ट करते हुए कहते हैं – स्वविषयासम्प्रयोगे चित्तस्य स्वResellerानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहार:।। पातंजल योग सूत्र 2/54 Meansात अपने विषयों के संबंध से रहित होने पर इंद्रियों का जो चित्त के स्वReseller में तदाकार सा हो जाता है, वह प्रत्याहार है।

प्रत्याहार से संबंधित विभिन्न व्याख्याकारों ने जो व्याख्या की है वह इस प्रकार है- महर्षि व्यास के अनूसार – इंद्रियाँ अपने विषय से असम्बद्ध हैं, जैसे मधुमक्खियाँ रानी मधुमक्खी का अनुकरण करती हैं। King मन के निरोध होने से इन्द्रियों का भी निरोध हो जाता है। योग की इस स्थिति को ही प्रत्याहार कहा जाता है। 

आचार्य श्रीराम शर्मा के अनूसार – इंद्रियों की बाह्य वृत्ति को सब ओर से हटाकर Singleत्रित करके मन में लय करने के अभ्यास को प्रत्याहार कहा गया है। इंद्रियों का विषयों से अलग होना ही प्रत्याहार है। जिस समय साधक अपनी साधनाकाल में इंद्रियों के विषयों का परित्याग कर देता है और चित्त को अपने इष्ट में Singleाकार कर (लगा) देता है, तब उस समय जो चिंतन इन्द्रियों के विषयों की तरफ न जाकर चित्त में समाहित हो जाती है, वही प्रत्याहार सिद्धि की पहचान है। जिस तरह से मनुष्य की छाया चलने पर चलने लगती है, रूकने पर रूक जाती है, वैसे ही इंद्रियाँ चित्त के अधीन रहकर कार्य करती हैं। यही प्रत्याहार के अभिमुख होना है। 

शारदातिलक के अनूसार – इन्द्रियाणां विचरतां विषयेषु निरगलम्। बलदाहरणं तेभ्य प्रत्याहारोSभिधीयते।। 25/23 Meansात ये इन्द्रियाँ विषयों में बेरोक-टोक दौड़ते रहने से चंचल रहती हैं। अत: उन विषयों से इंद्रियों को निरूद्ध कर मन को स्थिर करने का नाम प्रत्याहार है। रूद्रयामल में भगवद्पाद में चित्त लगाने को प्रत्याहार कहा गया है। 

घेरण्ड संहिता के अनूसार – यतो यतो निश्चरति मनश्चंचलमस्थिम्। ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्यैव वशं नयेत्।। 4/2 Meansात जहाँ-जहाँ यह चंचल मन विचरण करे इसे वहीं-वहीं से लौटाने का प्रयत्न करते हुए आत्मा के वश में करे (यही प्रत्याहार है)। 

विष्णु पुराण के अनूसार – Wordादिष्वनुषक्तानि निगृह्याक्षणि योगवित्। कुर्याच्चित्तानुकारिणी प्रत्याहार परायणा:।। Meansात योगविदों को चाहिए कि वह Wordादि विषयों में आसक्ति का निग्रह करे और अपने-अपने विषयों में आसक्ति का निग्रह करे और अपने-अपने विषयों से निरूद्ध इंद्रियों को चित्त का अनुसरण करने वाला बनावे। यही अभ्यास प्रत्याहार का Reseller धारण कर लेता है। 

कठोपनिषद् (1/3/13) के अनूसार – बुद्धिमान मनुष्य को उचित है कि वाक् आदि इंद्रियों को बाह्य विषयों से हटाकर मन को इष्ट में लगावे। 

मैत्रेयुपनिषद् (1/9) के अनूसार – चित्त ही संसार है। इसलिए प्रयत्नपूर्वक उसे ही शुद्ध करो, क्योंकि जैसा चित्त है वैसी ही गति, यह सनातन सिद्धांत है।

    उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि इंद्रियों का अपने विषयों को छोड़कर चित्त के अनुकूल अनुReseller होकर कार्य करना प्रत्याहार है। उपर्युक्त परिभाषाओं में महर्षि पतंजलि द्वारा बतायी गयी परिभाषा के According प्रत्याहार स्वत: होने वाली प्रक्रिया है। इसमें प्रयत्न की Need नहीं है जबकि अन्य परिभाषाओं में प्रयासपूर्वक Meansात क्रियात्मक प्रत्याहार पर जोर दिया गया है।

    प्रत्याहार का परिणाम And महत्व- 

    महर्षि पतंजलि के अनूसार – तत: परमावश्यतेइन्द्रियाणाम्।। पातंजल योग सूत्र 2/55 उस प्रत्याहार से इंद्रियों की परम वश्यता होती है Meansात प्रत्याहार से इंद्रियाँ अपने वश में हो जाती हैं।

    प्रत्याहार के परिणाम से संबंधित विभिन्न व्याख्याकारों ने जो व्याख्या की है वह इस प्रकार है-

    व्यास भाष्य के अनूसार – इंद्रियों की परमवश्यता क्या है, इसे व्यास भाष्य में इस प्रकार कहा गया है-कोर्इ कहते हैं Wordादि विषयों में आसक्त न होना Meansात अपने अधीन रखना इन्द्रियवश्यता या इन्द्रिजय है।Second कहते हैं कि वेदशास्त्र से अविरूद्ध विषयों का सेवन, उनके विरूद्ध विषयों का त्याग इन्द्रियजय है।कुछ लोग कहते हैं कि विषयों में न फँसकर अपनी इच्छा से विषयों के साथ इन्द्रियों का सम्प्रयोग।कुछ लोग कहते हैं कि राग-द्वेष के अभावपूर्वक सुख-दु:ख से शून्य विषयों का ज्ञान होना इन्द्रियजय है।

    स्वामी दयानन्द सरस्वती के अनूसार – तब वह मनुष्य जितेन्द्रिय होकर जहाँ अपने मन को ठहराना या चलाना चाहे, उसी में ठहरा And चला सकता है। फिर उसको ज्ञान हो जाने से सदा सत्य से प्रीति हो जाती है और असत्य में कभी नहीं।

    आचार्य श्रीराम शर्मा के अनूसार – योगी साधक जब प्रत्याहार की सिद्धि प्राप्त कर लेता है तो समस्त इंद्रियाँ उसके वश में हो जाती हैं। वह जितेन्द्रिय हो जाता है। इंद्रियों की स्वतंत्रता का सदैव के लिए अभाव हो जाता है। इन सब विषयों में इन्द्रियजय के लक्ष्य में विषयों का संबंध बना ही रहता है जिससे गिरने की आशंका दूर नहीं हो सकती। इसलिए यह इंद्रियों की परमवश्यता नहीं है। चित्त की Singleाग्रता के कारण इंद्रियों की विषयों में प्रवृत्ति न होना इन्द्रियजय है। उस Singleाग्रता से चित्त के निरूद्ध होने पर इंद्रियों का सर्वथा निरोध हो जाता है और अन्य किसी इंद्रियजय के उपाय में प्रयत्न करने की Need नहीं रहती। इसलिए यही इंद्रियों की परमवश्यता है। प्रत्याहार का फल है इन्द्रियजय Meansात मन सहित समस्त इंद्रियों पर विजय। इन्द्रियजय योग की Single महत्वपूर्ण घटना या प्रक्रिया है जो आगे धारणा, ध्यान, समाधि के लिए आधारभूमि का काम करती है।

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