निर्देशन क्या है?

निर्देशन का सामान्य Means संचालन से है।  प्रत्येक स्तर पर कार्य करने वाले कर्मचारियों का मार्गदर्शन करना, उनको परामर्श देना, प्रोत्साहन करना तथा उनके कार्यों का निरीक्षण करना निर्देशन कहलाता है।

निर्देशन का Means 

निर्देशन का तात्पर्य संचालन से है। विभिन्न स्तर पर कार्य करने वाले कर्मचारियों का मार्गदर्शन करना, उनको परामर्श देना तथा उनके कार्य का निरीक्षण करना होता है। अत: निर्देशन से आशय, ‘‘प्रबंधकों द्वारा अपने अधीनस्थ कर्मचरियों को संगठन Creation करना And कर्मचारियों के अन्तर्विभागों संबंधी क्रियाओं का निResellerण करना तथा अधिकार And कर्तव्यों से भली भॉति परिचित कराना है। इसके अतिरिक्त अधीनस्थों में ऐसी निष्ठा भावना का बीजारोपण And विकास करना है, जिससे वे संस्था की उच्च परम्पराओं, उद्देश्यों And नीतियों को न केवल हृदयंगम कर ले अपितु उनकी सराहना भी करें। साथ ही अधीनस्थों के कार्यों का सतत् Reseller से परीक्षण, अधिकार सत्ता का समुचित भारार्पण तथा आवश्यक निर्देशन द्वारा उनको कार्य में पूर्ण उत्साह And विश्वास के साथ प्रवृत्त करना और संगठनात्मक लक्ष्यों को प्राप्त करवाना भी निर्देशन की क्रियायें ही हैं।’’

निर्देशन का वैज्ञानिक आधार ‘‘व्यवहार विज्ञान है।’’ संकीर्ण Means में, निर्देशन अधीनस्थों के विकास और मार्ग दर्शन तक ही सीमित है किन्तु व्यापक Means में निर्देशन में नेतृत्व, पर्यवेक्षण, संचालन, नियंत्रण And अभिप्रेरण संबंधी क्रियायें सम्मिलित होती हैं।

परिभाषाएँ 

  1. प्रो. कुट्ज ओडोनेल के According, ‘‘निर्देशन किसी कार्य को पूरा करवाने की क्रिया से आत्मीय Reseller से संबंधित है। Single व्यक्ति नियोजन, संगठन And कर्मचारी प्रबंध कर सकता है किन्तु यह किसी कार्य को उस समय तक पूरा नही करवा सकता है जब तक कि वह अधीनस्थों को यह नहीं सिखा देता कि उनको क्या करना है। अन्य All अधिशासी कार्यों का निर्देशन में वही अंतर है जो निष्क्रिय इंजिन वाले किसी वाहन में बैठने तथा चालू इंजिन को गेयर में डालने से होता है।’’ उन्होंने आगे लिखा है कि ‘‘अधीनस्थो का मार्गदर्शन तथा उनके पर्यवेक्षण का प्रबन्धकीय कार्य ही संचालन की Single अच्छी परिभाषा है।’’
  2. एम.ई.डी के Wordों में ‘‘निर्देशन कार्य प्रशासन का हृदय होता है। इसमें क्षेत्र निर्धारण, आदेशन, निर्देशन तथा गतिमान नेतृत्व प्रदान करना अन्तस्थ होता है।’’
  3. जोसेफ एल. मैसी के According,‘‘निर्देशन प्रबधंकीय प्रक्रिया का हृदय है क्योंकि वह कार्य प्रारंभन से संबंधित है। इसके मूल में समूह के लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु First लिये गये निर्णयों तथा First तैयार किये गये कार्यक्रमों And योजनाओं को प्रभावी बनाने का विचार निहित हैं।’’
  4. हेनरी एच. एलबर्स के According, ‘‘निर्देशन नियोजन के परिणामस्वReseller प्राप्त नीतियों को कायािर्न्वत करने से संबंधित हैं। इस संबंध में अधिकार सत्ता-संबंध, संचार प्रक्रिया And अभिप्रेरण समस्या महत्वपूर्ण है।’’

इस प्रकार उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि निदर्शन का तात्पर्य अधीनस्थों द्वारा कार्य संपादन करवाने के लिए उनका निर्देशन, मार्गदर्शन तथा उनके कार्य का निरीक्षण करना है। इसके अन्तर्गत कार्य निष्पादन के दौरान उत्पन्न होने वाली समस्याओं को निपटाना भी आता है।इसके चार मूल तत्व होते हैं। First उपक्रम के कर्मचारियों को आदेश देना, द्वितीय कर्मचारियों का मार्गदर्शन करना या नेतृत्व करना, तृतीय कर्मचारियों का निरीक्षण या पर्यवेक्षण करना और चतुर्थ कर्मचारियों को अभिप्रेरित करना।

निर्देशन की प्रकृति 

1. भारार्पण  – 

भारार्पण क्रिया में निर्देशन महत्वपूर्ण हाते ा है। भारार्पण का आशय ही होता है अधिकारों को सौंपना। अधिकार इसलिए सौंपे जाते हैं क्योंकि अधीनस्थों से कार्य करवाना पड़ता है। भारार्पण के अंतर्गत इसकी सीमा का निर्धारण उच्च अधिकारियों के द्वारा ही होता है। अत: आदेश And निर्देशन की तुलना में अधिकारों का सौंपना निर्देशन प्रक्रिया का सामान्य स्वReseller कहा जाता है।

2. उच्च प्रबंधकीय प्रक्रिया – 

प्रबधंको के कार्य निर्देशन के कार्य कहे जाते हैं जो कि हमेशा उच्च अधिकारियों द्वारा किये जाते हैं। निर्देश हमेशा ऊपर से नीचे की ओर दिये जाते हैं। उच्च अधिकारी अपने अधीनस्थों का मार्गदर्शन ही नहीं करते वरन उपयुक्त आदेश भी देते हैं। इसलिए प्रबन्ध प्रक्रिया में निर्देशन को प्रबंध का केन्द्र माना गया है।जिसके चारों ओर All Humanीय क्रियाएं विचरण करती रहती हैं।

3. अभिस्थापना – 

कार्य करने हते ु आवश्यक सामग्री व सूचनाएॅं प्रदान करना, अभिस्थापना है। इसके अन्तर्गत कर्मचारियों को अधिक से अधिक सूचनायें प्रदान करने की कोशिश की जाती हैं। ऐसा करने से अधीनस्थ अपने से संबंक्रिात पर्यावरण And कार्य को अच्छी तरह से समझ जाते हैं। कार्य को अच्छी तरह से समझने के कारण वे उस कार्य को मन लगाकर होशियारी से करते हैं।

4. निर्देशन –

उच्चाधिकारी अधीनस्थों को निर्देशन के द्वारा आवश्यक आदेश प्रदान करते हैं। इससे वे अपने कार्यों को सही प्रकार से निष्पादित कर पाते हैं। आदेश And निर्देश इसलिए आवश्यक होते हैं कि उच्च अधिकारी अपने अधीनस्थों से अपनी इच्छा और संस्था की नीति के According कार्य करवाते हैं। ये आदेश सामान्य अथवा विशिष्ट हो सकते हैं। ये अधीनस्थों की योग्यता के According ही हुआ करते हैं। निर्देशन में उच्चाधिकारी अपने अधीनस्थों की क्षमताओं के आधार पर उनसे कार्य करवाने के लिए निर्देश देते हैं। जो अनुशासित And संस्था की क्रियान्वयन प्रक्रिया के According होते हैं साथ ही साथ संस्था के विकास के लिए Indispensable है।

5. अनुशासन And पुरस्कार – 

निर्देशन की क्रियाओं में अनुशासन भी Single महत्वपूर्ण प्रक्रिया होती है। इसीलिए इस कार्य पर अधिक बल दिया जाता है। अधीनस्थ जो अपने कार्य को समय में पूरा करते हैं या अनुशासन को मानते हैं उन्हें पुरस्कार भी दिया जाता है। इससे निर्देशन की क्रिया अधिक प्रभावशाली बन जाती है। निर्देशन प्रक्रिया में अनुशासन And पुरस्कार Single Second के पूरक है। संगठन में अनुशासन स्थापित करने में पुरस्कार अपनरी महती भूमिका निभाते हैं जिससे संस्था में अनुशासन के साथ साथ Single प्रतियोगी वातावरण निर्मित होता है और अंतत: संस्था की कार्य संस्कृति का विकास होता है।

    निर्देशन के सिद्धान्त  

    निर्देशन के कार्य में सफलता प्राप्त करने के लिए सिद्धान्तों का पालन करना पड़ता है। उन्हें इन सिद्धान्तों का पूर्ण ज्ञान होना चाहिए। वे सिद्धान्त  हैं –

    1. नेतृत्व का सिद्धान्त – 

इसका तात्पर्य है निर्देशक या उच्च अधिकारी को प्रभावी नेता भी होना चाहिए क्योंकि अध् ाीनस्थ उसी अधिकारी के आदेशों का पालन करते हैं जो उनके व्यक्तिगत हितों And लक्ष्यों की पूर्ति में पूर्ण रूचि का प्रदर्शन And सक्रिय भूमिका का निर्वाह करते हैं। आध् ाुनिक नेतृत्व सिद्धान्त की अवधारणा है कि Single प्रभावी नेता ऐसा होना चाहिए जो अपने अधीनस्थों में Single पारिवारिक संस्कृतिक का निर्माण कर सके And उनमें स्वप्रेरणा जागृत कर सके जिसके आधार पर अधीनस्थों में यह भाव उत्पन्न हो कि, कार्यों का समपादन सुचारू Reseller से चल सके।

2. आदेश की Singleता – 

इसका तात्पर्य यह है कि कर्मचारी को Single ही प्रबन्ध अधिकारी द्वारा आदेश दिये जाने चाहिए। आदेश का स्रोत Single ही होना चाहिए। कर्मचारी को जब आदेश Single ही स्रोत से प्राप्त होंगे तो वह अपने कार्य के लिए उत्तरदायी भी सिर्फ Single ही व्यक्ति के प्रति होगा। ऐसा होने पर आदेशों में विरोध And संघर्ष नहीं होगा। परिणामों के प्रति व्यक्तिगत उत्तरदायित्वों की भावना में वृद्धि होगी। इस सिद्धान्त के परिणामस्वReseller निर्देशों की प्राथमिकता के निर्धारण, उच्चाधिकारियों के प्रति निष्ठा आदि के कारण उत्पन्न समस्यायें न्यूनतम हो जाती हैं और अधीनस्थ अधिक अच्छे ढंग से कार्य करते हैं।

3. अभिप्रे्रेरणा का सिद्धान्त 

यह सिद्धान्त इस बात को दर्शाता है कि कर्मचारियों को अभिप्रेरित करना आवश्यक है। परन्तु इसे Humanीय व्यवहार के Reseller में देखना चाहिए और इसके According कार्य करने में व्यक्तियों का व्यवहार, उनके व्यक्तित्व, कार्यों And पुरस्कार की प्रत्याशा, संगठनात्मक जलवायु तथा अन्य अनेक परिस्थितिजन्य घटकों को ध्यान में रखना चाहिये।

4. अच्छे Humanीय सम्बन्धोंं का सिद्धान्त – 

व्यक्तियों के बीच जितना अधिक सदविश्वास, सहयोग और मित्रतापूर्ण वातावरण होगा, निर्देशन का कार्य उतना ही अधिक सरल होगा। संघर्ष, अविश्वास, अनुपस्थिति आदि कार्य निष्पादन को सीमित And विलम्बित करते हैं। इससे निर्देशन प्रभावहीन हो जाता है। अत: अच्छे Humanीय सम्बन्धों के आधार पर ही निर्देशन कुशल कहा जा सकता है। Single अच्छे निर्देशक में सामाजिक सरोकार उसकी Humanीय सम्बन्धों को मजबूत करते हैं जिससे निर्देशन करना आसान होता है।

5. प्रत्यक्ष निरीक्षण –

प्रबंधकों को स्वत: अपने अधीनस्थों का प्रत्यक्ष निरीक्षण करना चाहिए। विभागाध्यक्ष को कर्मचारियों के प्रत्यक्ष सम्पर्क में रहना चाहिए। कर्मचारियों पर व्यक्तिगत संपर्क का अच्छा प्रभाव पड़ता है। इसके कारण उनमें अनुशासन की भावना जागृत होती है और कार्य के प्रति रूझान में वृद्धि होती है।

6. उद्द्देश्य निर्देशन का सिद्धान्त –

इसका तात्पर्य है कि निर्देशन प्रभावशाली होना चाहिए। निर्देशन जितना अधिक प्रभावशाली होगा अधीनस्थ उतने ही प्रभावी Reseller से कार्य करेंगे। अधीनस्थों को अपने लक्ष्यों And भूमिका का पूरा ज्ञान होना चाहिए। इसी के परिणामस्वReseller संगठन के उद्देश्यों की प्राप्ति में उनका योगदान सक्रिय हो सकेगा।

7. निर्देशन तकनीक की उपयुक्तता – 

संगठन के सफल संचालन के लिए यह आवश्यक है कि प्रबन्धक निर्देशन की उपयुक्त तकनीक की व्यवस्था करें। ये तकनीकें हैं – परामर्शात्मक, निरंकुश तथा तटस्थवादी तकनीक। प्रबन्धक को इनमें से कर्मचारियों की प्रकृति व परिस्थितियों के अनुकूल उचित तकनीक का चुनाव करना चाहिए।

8. सूचना प्रवाह- 

वर्तमान परिदृश्य में सूचनाओं का प्रवाह And प्रबन्ध, निर्देशन सिद्धान्तों के लिए महत्वपूर्ण है। इसका तात्पर्य है कि संगठन व्यवस्था में सही सही सूचना का संवहन न्यूनतम समय में Reseller जाना चाहिए। इसके लिए औपचारिक और अनौपचारिक दोनों प्रकार की व्यवस्था को अपनाया जाना चाहिए। निर्देशन उतना ही प्रभावी होगा, जितना कि सूचना प्रवाह तीव्र है And सूचना तकनीकियों का प्रयोग Reseller गया है। आधुनिक सूचना क्रान्ति का प्रयोग कर्मचारियों को निर्देशित करने के लिए महत्वपूर्ण हो गया है क्योंकि सूचना तकनीकियों का प्रयोग अधिकाधिक तीव्र गति से बढ़ रहा है।

9. निरंतर जागरूक निदशन – 

निर्देशन का यह प्रमुख कार्य होता है कि वह अपने कर्मचारियों को आदेश देकर और Needनुसार परामर्श देकर उनका पथ प्रदर्शन करे। यह देखना भी आवश्यक है कि सारा कार्य निर्धारित नीतियों के According चल रहा है या नहीं। यदि निर्धारित नीतियों के According कार्य न चल रहा हो तो आवश्यक निर्देशन देने चाहिए। Meansात निर्देशक को निरंतर जागरूक रहकर आदेश देने के उपरांत भी कर्मचारियों के कार्य का निरीक्षण करना चाहिए। वे इस कार्य हेतु पर्यवेक्षक और फोरमैन की सहायता ले सकते हैं।

10. प्रबंधकीय संवादवाहन – 

निर्देशन का यह भी Single आवश्यक सिद्धान्त है कि प्रबन्ध तथा अन्य कर्मचारियों के बीच संवादवाहन की व्यवस्था अच्छी होनी चाहिए। संगठन चार्ट में प्रत्येक प्रबन्धकीय And संवादवाहन के माध्यम का काम करते हैं। इस कार्य के लिए प्रबंध को द्विगामी संवादवाहन तथा प्रति पुष्टि के सिद्धान्त को काम में लाना चाहिए। वर्तमान प्रबन्धकीय परिवेश में संवादवाहन Single महत्वपूर्ण तकनीक के Reseller में उभर रही है। जिसके आधार पर संगठन में कर्मचारियों And अधिकारियों के बीच में Single स्वस्थ संवादवाहन व्यवस्था का निर्माण होता है और उसके मध्य में Single संवाद स्थापित हो जाता है। परिणामस्वReseller संस्था में इस व्यवस्था के माध्यम से निर्देशन करना सुविधाजनक हो जाता है।

    निर्देशन की तकनीResellerँ

    1. अधिकारों का प्रत्यायोजन करना – 

निर्देशन की तकनीकों के अन्तर्गत जहॉं कर्मचारियों से कार्य कराना पड़ता है वहॉं यह आवश्यक है कि कार्य पर उपयुक्त अधिकारी की Appointment करके उसके अधिकारों का प्रत्यायोजन Reseller जाये। उसे उसके अधिकार And कर्तव्य स्पष्ट Reseller से बता दिये जाने चाहिए। इससे सम्बन्धित अधिकारी कार्य में अपने दायित्व को महसूस करेगा और रूचि पूर्वक कार्य करेगा। कार्य का दायित्व प्रभारित करने से कर्मचारी अपनी जिम्मेदारी महसूस करता है जिससे कार्य निष्पादन प्रभावशाली तरीके से सम्भव होती है।

2. आदेश And निर्देश देना –

प्रबन्धक को अधीनस्थ कर्मचारियों को संदेशवाहन के द्वारा आदेश And निर्देश देने चाहिए। इससे वे अपने कार्य को प्रारम्भ कर सकेंगे। उच्च अधिकारी को अपने अधीनस्थ अधिकारी के माध्यम से विभिन्न कर्मचारियों को आदेश देना चाहिए। निर्देशों के द्वारा उनका समयानुसार मार्गदर्शन भी करना चाहिए। सूचना तकनीकी के प्रभावी उपयोग से आदेश And निर्देश देने में आसानी हो गर्इ है साथ ही साथ समय की भी बचत हो जाती है।

3. संदेशवाहन – 

आदेश व निर्देशों को कर्मचारियों तक पहुॅंचाने के लिए संदेशवाहन की व्यवस्था भी प्रभावशील होनी चाहिए। इससे उन्हें उचित समय पर आदेश निर्देश प्राप्त होंगे And प्रतिपुष्टि के माध्यम से संदेशवाहन निर्देशन में सुधारात्मक कदम उठाने में सहायक होगा।

4. अनुशासन –

प्रबन्ध के कुछ विद्वान अनुशासन को भी निर्देशन की प्रभावी तकनीक मानते हैं । इसके द्वारा निर्देशन कुशल और प्रभावशाली बनता है। अनुशासन Humanीय संगठन का Indispensable अंग है जिससे संगठन के अष्टिाकारी And कर्मचारी स्वप्रेरित होकर कार्य करते हैं।

5. पुरस्कार  – 

अनुशासन की भॉंति ही उचित पुरस्कार की तकनीक भी निर्देशन को सफलता प्रदान करती है। इसके अंतर्गत अच्छा कार्य करने वाले व लक्ष्य को पूरा करने वाले व्यक्तियों को पुरस्कृत Reseller जाता है And अकर्मण्य कर्मचारियों को दण्ड के माध्यम से सुधारा जाता है और उनको प्रशिक्षण सुविधा प्रदान कर पुरस्कृत कर्मचारियों की श्रेणी में लाया जाता है। इससे निर्देशन करना सुविधाजनक हो जाता है।

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