क्रियायोग क्या है ?

महर्षि पतंजलि ने मध्यम कोटि के साधकों की चित्तशुद्धि के लिए क्रियायोग का उपदेश दिया है। यहाँ पर पाठकों के मन में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि साधक से क्या तात्पर्य है। बी.के.एस. आयंगर के According ‘‘साधक वह है जो अपने मन व बुद्धि को लगाकर क्षमतापूर्वक, समर्पण भाव से व Singleचित्त होकर साधना करता है।’’ साधना Single सतत् अभ्यास है जिसमें साधक अपनी अशुद्धियों को दूर करता है।

महर्षि पतंजलि ने अशुद्धियों को दूर करने के लिए कहा है- ‘‘तप: स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोग:’’ Meansात् तपस्या, स्वाध्याय तथा र्इश्वरप्रणिधान- यह क्रियायोग है।

महर्षि व्यास कहते हैं कि ‘‘अतपस्वी को योग सिद्ध नहीं होता। अनादि कालीन कर्म और क्लेश की वासना के द्वारा विचित्र और विषयजालयुक्त जो अशुद्धि है, वह तपस्या के बिना सम्यक् भिन्न Meansात् विरल या छिन्न नहीं होता है।

इसलिये साधनों में तप का History Reseller गया है। चित्त को निर्मल करने वाला यह तप ही योगियों द्वारा सेव्य है, ऐसा आचार्य मानते हैं। प्रणवादि पवित्र मन्त्रों का जप अथवा मोक्ष शास्त्र का अध्ययन स्वाध्याय है। र्इश्वर प्रणिधान, परम गुरु र्इश्वर को समस्त कमोर्ं का अर्पण अथवा कर्मफल आकाड़्क्षा का त्याग है।

लक्ष्य- क्रियायोग क्यों Reseller जाये इस प्रश्न का उत्तर महर्षि ने देते हुए कहा है-

समाधिभावनार्थ: क्लेशतनूकरणार्थश्च।(पा.यो.सू.2.2) क्रियायोग का अभ्यास क्लेशों को तनु करने के लिए And समाधि भूमि प्राप्त करने के लिये कहा जा रहा है। क्लेश- अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेश और अभिनिवेश हैं। 

अविद्या Meansात् अनित्य को नित्य मानना, अशुचि को शुचि Meansात् पवित्र मानना, अनात्म को आत्म Meansात् अपना मानना, दु:ख को सुख समझना है। यह संसार अनित्य, शरीर गन्दगी से भरा हुआ है, यह संसार दु:खमय है हर सुख का अन्त दु:ख से परिपूर्ण है, यह इन्द्रिय, शरीर और चित्त जड़ है, अनात्म है, उपर्युक्त All की विपरीत भावना कर संसार को नित्य, पवित्र, सुखमय व आत्म समझना ही अविद्या है। अविद्या ही अन्य क्लेशों का मूल है। 

अस्मिता Meansात् ‘मैं की भावना’ अहम् भावना ही अस्मिता क्लेश है यह मेरा शरीर है, मेरी वस्तु आदि को समझना अस्मिता नामक क्लेश है। यह घोर कष्ट को देने वाली शक्ति है। राग, सदैव सुखी रहने की इच्छा व द्वेश दु:ख से बचने का भाव है। दोनों परस्पर मिले हुये हैं। अभिनिवेश मृत्यु भय है।

उपर्युक्त All भाव समाधि से दूर ले जाने वाले हैं। समाधि Meansात् All वृत्तियों का नाश, क्लेशों के नाश की अवस्था। क्रियायोग से समस्त क्लेशों का नाश सम्भव है जिससे सहज ही समाधि अवस्था प्राप्त लो जायेगी।

क्रियायोग के प्रकार 

क्रियायोग के तीन प्रकार महर्षि पतंजलि ने बताये है।

  1. तप 
  2. स्वाध्याय 
  3. र्इष्वर प्रणिधान 

1. तप- 

तप का तात्पर्य बेहतर अवस्था की प्राप्ति के लिए परिवर्तन या Resellerान्तरण की Single प्रक्रिया के अनुगमन से है। सामान्य Means में, तप पदार्थ के शुद्ध सारतत्व को प्राप्त करने की Single प्रक्रिया है। उदाहरण हेतु जिस प्रकार सोने को बार-बार गर्म कर छोटी हथोड़ी से पीटा जाता है जिसके परिणाम स्वReseller शुद्ध सोना प्राप्त हो सके। उसी प्रकार योग में तप Single ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति की अशुद्धियों को जला कर भस्म Reseller जाता है ताकि उसका असली सारतत्व प्रकट हो सके।

महर्षि पतंजलि के According ‘‘तप से अशुद्धियों का क्षय होता है तथा शरीर और इन्द्रियों की शुद्धि होती है।’’ 

‘‘कायेन्द्रियसिद्धिरशुद्धिक्षयात्तपस:।’’ (पा.यो.सू. 2.43) 

जिस प्रकार अश्व-विद्या में कुशल सारथि चंचल घोड़ों को साधता है उसी प्रकार शरीर, प्राण, इन्द्रियों और मन को उचित रीति और अभ्यास से वशीकार करने को तप कहते हैं, जिससे सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास, सुख-दु:ख, हर्ष-शोक. मान-अपमान आदि सम्पूर्ण द्वन्द्वों की अवस्था में बिना किसी कठिनार्इ के स्वस्थ शरीर और निर्मल अन्त:करण के साथ मनुष्य योगमार्ग में प्रवृत्त रह सके।

तप तीन प्रकार का होता है- शारीरिक, वाचिक व मानसिक। फल को न चाहने वाले निष्काम भाव से योगी पुरुषों द्वारा परम श्रद्धा से Reseller हुआ तप Seven्विक होता है। इसके विपरीत जो तप सत्कार, मान और पूजा के लिए अथवा केवल पाखण्ड से Reseller जाता है वह अनिश्चित और क्षणिक फलवाला होता है।

अपने वर्ण, आश्रम, परिस्थिति और यौग्यता के According स्वधर्म का पालन करना और उसके पालन में जो शारीरिक या मानसिक अधिक से अधिक कष्ट प्राप्त हो, उसे सहर्ष सहन करना इसका नाम तप है। व्रत, उपवास आदि भी तप की ही श्रेणी में आते हैं। निष्काम भाव से इस तप का पालन करने से मनुष्य का अन्त:करण अनायास ही शुद्ध हो जाता है।

‘तपो द्वन्द्वसहनम्’ Meansात् सब प्रकार के द्वन्द्वों को सहन करना तप है। ये द्वन्द्व शारीरिक, मानसिक और वाचिक किसी भी श्रेणी के हो सकते हैं। तप के न होने पर साधक तो क्या सामान्य जन भी कुछ प्राप्त नहीं कर सकते। तप हर क्षेत्र में परम आवश्यक है। योग साधना में सर्दी, गर्मी, भूख, प्यास, आलस्य, अहंकार, जड़ता आदि द्वन्द्वों को सहन करना और कर्तव्यमार्ग पर आगे बढ़ते रहना ही तप है।

आध्यात्मिक जगत् में तप के महत्त्व को बताते हुए तैत्तिरीयोपनिषद् की भृगुवल्ली में कहा गया है ‘‘तपसा ब्रह्म विजिज्ञासत्व। तपो ब्रह्मेति’’ Meansात् तप द्वारा ही ब्रह्म को जाना जा सकता है। तप ही ब्रह्म है। गीता में भी वर्णन मिलता है यथा-

मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदु:खदा:। 

अगमापायिनोSनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत।। गीता 2.14 

Meansात् सर्दी गर्मी और सुख-दु:ख को देने वाले इन्द्रिय और विषयों के संयोग तो उत्पत्ति, विनाशशील और अनित्य हैं, इसलिये इनको सहन करना उचित है। सहिष्णुता महाफल प्रदान करती है। सर्दी-गर्मी, सुख-दु:ख इन सबका सम्बन्ध नित्य का नहीं है, ये सदैव नहीं रहेंगे, Meansात् अल्पकालिक हैं। जब तक संयोग है तभी तक दु:ख है या यूँ कहें दु:ख या सुख की प्रतीति होती है। संयोग, वियोग अस्थिर और अनित्य हैं। कोर्इ भी सदा नहीं रहेगा। अत: इन क्षणिक संयोगो, वियोगो के लिए प्रतिक्रिया करना उचित प्रतीत नहीं होता, इन प्रतिक्रियाओं का त्याग ही तप है। कहा गया है कि ‘‘नातपस्विनो: योग सिद्धति’’ Meansात् तप के बिना योग सिद्ध नहीं होता है।

संसार में जो भी कार्य दु:साध्य है, अति दुष्कर है, कठिन जान पड़ता है, ऐसे दु:साध्य कायोर्ं को Only तप के द्वारा ही अनायास सिद्ध Reseller जा सकता है।
 यथा

 यद् दुष्करं दुराराध्यं दुर्जयं दुरतिक्रमम्। 

 तत्सवर्ं तपसा साध्या तपो हि दुरतिक्रमम्।। 

तप के सम्बन्ध में कूर्मपुराण में कहा गया हैकृ ‘तपस्या से उत्पन्न योगाग्नि शीघ्र ही निखिल पाप समूहों को दग्ध कर देती है। उन पापों के दग्ध हो जाने पर प्रतिबन्धक रहित तारक ज्ञान का उदय हो जाता है। स्वामी विज्ञानान्द सरस्वती कूर्मपुराण के इस उदाहरण को आधार बनाकर आगे कहते हैं कि जिस प्रकार बन्धन रज्जु को काटकर श्येन (बाज) पक्षी आकाश में उड़ जाता है, ठीक उसी प्रकार जिस योगी पुरुष का बन्धन टूट जाता है उसका संसार बन्धन सदा के लिये छूट जाता है। इस प्रकार संसार बन्धन से मुक्त हुआ पुरुष पुन: बन्धन में नहीं बन्धता है। यह उसी प्रकार है जिस प्रकार डण्ठल से पृथक् हुआ फल पुन: डण्ठल से नहीं जुड़ सकता है। अत: शास्त्र के कथनानुसार मोक्ष साधनाओं में से तप को श्रेष्ठतम साधना माना गया है।

तप के प्रकार- गीता में 17वें अध्याय में तप के तीन भेद किये गये हैं-

  1. शारीरिक 
  2. वाचिक 
  3. मानसिक 

इसके बाद इन तीन के भी तीन और भेद किये हैं-

  1. Seven्विक, 
  2. राजसिक और 
  3. तामसिक। 

 1. शारीरिक तप- 

 देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्। 

 ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते।। श्रीमद्भगवद्गीता 17.14 

Meansात् देवता, ब्राह्मण, गुरु और ज्ञानीजनों का पूजन, पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा यह शरीर सम्बन्धी तप है। महर्षि पतंजलि ने सूत्र 2.46 में आसन, 2.49 में प्राणायाम की बात की है। वह भी शारीरिक तप के अन्तर्गत described Reseller जा सकता है। आसन आदि के अन्तर्गत आहार संयम की बात भी आ जाती है। यथा- गीता 6.16 

नात्यश्नतस्तु योगोSस्ति न चैकान्तमनश्नव:। 

न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन।। 

हे अर्जुन! यह योग न तो बहुत खाने वाले का, न बिल्कुल न खाने वाले का, न बहुत शयन करने वाले का और न सदा जागने वाले का ही सिद्ध होता है। युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु। युक्तस्वप्नवबोधस्य योगो भवति दु:खहा॥ श्रीमद्भगवद्गीता 6.17 दु:खों का नाश करने वाला योग तो यथायोग्य आहार-विहार करने वाले का, कमोर्ं में यथायोग्य चेष्टा करने वाले का और यथायोग्य सोने तथा जागने वाले का ही सिद्ध होता है। यहाँ दु:खों से तात्पर्य केवल सांसारिक दु:खों से नहीं वरन् उन All प्रकार के दु:खों से है जो कि अविद्या जनित हैं। अविद्या Meansात् वास्तविक दु:ख को सुख समझना, पाप को पुण्य समझना, अवास्तविक को वास्तविक समझना। त्रिताप भी तो दु:ख ही हैं।

2. वाचिक तप- 
अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्।
स्वाध्यायाभ्यासनं चौव वाड़्मयं तप उच्यते।। श्रीमद्भगवद्गीता 17.15

मन को उद्विग्न न करने वाले, प्रिय तथा हितकारक वचनों और स्वाध्याय के अभ्यास को वाचिक तप कहते हैं। कटु वचन, झूठ, हिंसक वाक्य, निन्दा-चुगली आदि वचन Second के मन को तो उद्वेलित करते ही हैं परन्तु इन वाक्यों का सबसे अधिक प्रभाव बोलने वाले के मन व प्राण पर पड़ता है। उद्वेलित करने वाले वचनों से जो तरंगें उत्पन्न होती हैं वे वातावरण में हलचल उत्पन्न करके पुन: कहीं अधिक वेग से लौटती हैं व उत्पन्न कर्ता के मन व प्राण को क्षीण व कमजोर कर देती है। लगातार इसी प्रकार की तरंगें प्रवाहित करने वाले लोग सुखी नहीं देखे गये हैं। वे स्वयम् के साथ-साथ सम्पूर्ण वातावरण को दूषित कर देते हैं व समाज से तो तिरस्कार झेलते ही हैं स्वयम् में आत्मग्लानि And कुण्ठित जीवन यापन करने पर मजबूर हो जाते हैं। अत: इन तरंगों को उत्पन्न न करने का मानसिक संकल्प, साहस व –ढ़ इच्छाशक्ति ही तप है।

प्रिय तथा हितकारी वचन स्वयम् व दूसरों को साम्यावस्था में बनाये रखने के लिये बोलने चाहियें। यहाँ यह ध्यान रखने व समझने की बात है कि प्रिय वचन से तात्पर्य चापलूसी करना नहीं है। ‘‘सत्यं बु्रयात् प्रियं बु्रयात्न बु्रयात् सत्यमप्रियम्’’ का सिद्धान्त यहाँ ध्यान रखने योग्य है।

स्वाध्याय Meansात् श्रेष्ठ पुस्तकों का अध्ययन यदि इसके आध्यात्मिक Means की ओर संकेत करें तो ‘स्वाध्याय’ का तात्पर्य ‘स्वयम् का अध्ययन’ करना है। इसके सम्बन्ध में आप स्वाध्याय शीर्षक में विस्तारपूर्वक जानेंगे।

3. मानस तप- 
 मन: प्रसाद: सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रह:।
 भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते।। श्रीमद्भागवद्गीता 17.16

मन की प्रसन्नता, शान्तभाव, भगवच्चिन्तन करने का स्वभाव, मन का निग्रह और अन्त:करण के भावों की भलीभाँति पवित्रता- इस प्रकार यह मन सम्बन्धी तप कहा जाता है। मानसिक तप की यह स्थिति निश्चित ही पूर्वोक्त described शारीरिक, वाचिक तपों के उपरान्त अधिक आसान हो जाती है। वास्तव में शारीरिक, वाचिक और मानसिक तप Single साथ ही किये जाते हैं। ऐसा नहीं है कि First केवल साधक शारीरिक स्तर पर ही तप हेतु प्रस्तुत हो, वस्तुत: लगभग साथ-साथ ही ये अवस्थायें सम्पादित होती रहती हैं। मन की प्रसन्नता, शान्तभाव, भगवत् चिन्तन आदि अवस्थायें केवल सोचनेभर नहीं आती वरन् सतत् प्रयास से प्राप्त होती हैं और यही प्रयास तप कहलाता है।

4. Seven्विक तप- 
 श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरै:।
 अफलाकांक्षिभिर्युक्तै: Seven्विकं परिचक्षते।। श्रीमद्भगवद्गीता 17.17

मनुष्य का फल की आशा से रहित परम श्रद्धा तथा योगयुक्त होकर इन तीनों प्रकार के तपों को करना Seven्विक तप कहलाता है। शारीरिक तप, वाचिक तप और मानस तप को फल की आशा से रहित परम श्रद्धा तथा Single साधक की भाँति करानौ ही Seven्विक तप कहलाता है।

5. राजसिक तप- 
सत्कारमानपूजाथर्ं तपो दम्भेन चैव यत्।
क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम्।। श्रीमद्भगवद्गीता 17.18

सत्कार, मान, पूजा व पाखण्ड पूर्वक Reseller गया तप चंचल और अस्थिर राजस तप कहलाता है।

6. तामसिक तप- 
 मूढ ग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तप:।
 परस्योत्सादनाथर्ं वा तत्तामसमुदाहृतम्।। श्रीमद्भगवद्गीता 17.19

जो तप मूढ़तापूर्वक हत से, मन, वाणी और शरीर की पीड़ा के सहित अथवा Second का अनिष्ट करने के लिये Reseller जाता है, वह तप तामस कहा जाता है। तप वास्तव में शरीर, मन, वाणी, विचारों का सही सामंजस्य है जो कि तत्व को जानने में सीड़ी का कार्य करता है। क्रियायोग का अध्ययन करते हुये अव आप आगे स्वाध्याय के विषय में विस्तार पूर्वक ज्ञान प्राप्त करेंगे।

2. स्वाध्याय 

वेद, उपनिषद्, पुराण आदि तथा विवेकज्ञान प्रदान करने वाले सांख्य, योग, आध्यात्मिक शास्त्रों का नियम पूर्वक अध्ययन तथा अन्य All वे साधन जो कि विवेक ज्ञान में सहायक हैं जैसे अन्य धर्मग्रन्थ, श्रेष्ठ पुस्तकें आदि का अध्ययन, मनन स्वाध्याय कहलाता है।

स्वाध्याय के सम्बन्ध में पं. श्रीरामशर्मा आचार्य का कथन है कि ‘‘श्रेष्ठ पुस्तकें जीवन्त देव प्रतिमाएँ हैं। जिनके अध्ययन से तुरन्त उल्लास और प्रकाश मिलता है।’’

श्रीमान् शान्ति प्रकाश आत्रेय के According ‘स्वाध्याय निष्ठा जब साधक को प्राप्त हो जाती है तब उसके इच्छानुसार देवता, ऋषियों तथा सिद्धों के दर्शन होते हैं तथा वे उसको कार्य सम्पादन में सहायता प्रदान करते हैं।

आचार्य उदयवीर शास्त्री जी के According, इस पद के दो भाग हैं- ‘स्व’ और ‘अध्ययन’। स्व पद के चार Means हैं- आत्मा, आत्मीय अथवा आत्मसम्बन्धी, ज्ञाति (बन्धु-बान्धव) और धन।

अध्ययन अथवा अध्याय कहते हैं- चिन्तन, मन अथवा पूर्वोक्त अध्ययन।

आत्मविषयक चिन्तन व मनन करना, तत्सम्बन्धी ग्रन्थों का अध्ययन तथा ‘प्रणव’ आदि का जप करना ‘स्वाध्याय’ है। द्वितीय Means में आत्मसम्बन्धी विषयों का चिन्तन मनन करना। आत्मा का स्वReseller क्या है? कहाँ से आता है? इत्यादि विवेचन से आत्मविषयक जानकारी के लिये प्रयत्नशील रहना। तृतीय अथोर्ं में जाति बन्धुबान्धव आदि की वास्तविकता को समझकर मोहवश उधर उत्कृष्ट न होते हुये विरक्त की भावना को जाग्रत रखना स्वाध्याय है। 

चतुर्थ Means में धन-सम्पत्ति आदि की ओर अधिक आकृष्ट न होना, लोभी न बनना। धन की नश्वरता को समझते हुये केवल सामान्य निर्वहन योग्य धन कमाना व उपयोग करना अधिक संग्रह न करना, मठाधीश आदि बनने की इच्छा न रखना ही Fourth प्रकार का Means है।

स्वाध्याय स्वयं का अध्ययन है जिसमें हम सहायता पुस्तकों, ग्रन्थो आदि की लेते हैं। स्वयं को समझना, गुण-अवगुण बनाये रखना व आत्मतत्व की प्राप्ति ही स्वाध्याय का उद्देश्य है।

आगे आप र्इश्वर प्रणिधान विषयक ज्ञान प्राप्त करेंगे।

3. र्इश्वरप्रणिधान- 

अपने समस्त कमोर्ं के फल को परम गुरु परमात्मा को समर्पित करना व कर्मफल का पूर्ण Resellerेण त्याग कर देना र्इश्वर-प्रणिधान है। अनन्य भक्ति भाव से र्इश्वर का मनन चिन्तन करनाय अपने आपको पूर्णResellerेण र्इश्वर को समर्पित कर देना ही र्इश्वरप्रणिधान है। जब साधक अपने कर्मफल का त्याग करता है तो निश्चित Reseller से वह जो भी कार्य करता है वह स्वार्थ रहित, पक्षपात रहित कार्य करता है। उसका चित्त निर्मल हो जाता है और वह साधनापथ पर निर्बाध गति से आगे बढ़ता जाता है। उसके मन में राग-द्वेश जैसी भावनाएँ जगह नहीं बनाती हैं जिससे साधक की भूमि –ढ़ हो जाती है। श्रीमत् शान्ति प्रकाश आत्रेय जी के According र्इश्वरप्रणिधान र्इश्वर को Single विशेष प्रकार की भक्ति है, जिसमें भक्त शरीर, मन, इन्द्रिय, प्राण आदि तथा उनके समस्त कमोर्ं को उनके फलों सहित अपने समस्त जीवन को र्इश्वर को समर्पित कर देता है।

 शय्याSसनस्थोSथ पथि प्रणन्वा स्वस्थ: परिक्षीणवितर्कजाल:। 

 संसारबीजक्षयमीक्षमाण: स्यन्नित्ययुक्तोSमृतभोगभागी।।(योग व्यासभाष्य 2.32) 

Meansात् जो योगी शय्या तथा आसन पर बैठे हुये, रास्ते में चलते हुये अथवा Singleान्त में रहता हुआ हिंसादि वितर्क जाल को समाप्त करके र्इश्वर प्रणिधान करता है, वह निरन्तर अविद्या आदि को जो कि संसार के कारण हैं Destroy होने का अनुभव करता हुआ तथा नित्य र्इश्वर में युक्त होता हुआ जीवन-मुक्ति के नित्य सुख को प्राप्त करता है। श्रीमद्भगवद्गीता के 3.27 व 2.47 में र्इश्वर प्रणिधान की ही व्याख्या हुर्इ है। स्वयं भगवान् कहते हैं कि ‘All कर्म मुझको समर्पित कर दो।’ साधक के ऐसा करने पर कर्म शुभाशुभ की श्रेणी से पार चले जाते हैं And साधक र्इश्वरत्व की ओर उन्मुख हो जाता है। र्इश्वरप्रणिधान से शीघ्र समाधि की सिद्धि होती है। र्इश्वरप्रणिधान भक्ति विशेष है और इस भक्तिविशेष के कारण मार्ग कंटकविहीन हो जाता है और शीघ्र ही समाधि की प्राप्ति हो जाती है। योग के अन्य अंगों का पालन विघ्नों के कारण बहुत काल में समाधि सिद्धि प्रदान कराता है। र्इश्वरप्रणिधान उन विघ्नों को Destroy कर शीघ्र ही समाधि प्रदान करता है। अत: यह रास्ता अति महत्त्वपूर्ण है।

योगदर्शन में र्इश्वर की सत्ता को स्वीकार Reseller जाता है। योगदर्शन का आधार सांख्य है जहाँ कि र्इश्वर की सत्ता का कहीं वर्णन नहीं है। परन्तु योगदर्शन Single व्यावहारिक ग्रन्थ है। यह Human मन को भलीभाँति समझकर गढ़ा गया है व इसे Single महत्त्वपूर्ण मार्ग बताया गया है। योगदर्शन का मुख्य उद्देश्य चित्तवृत्तियों का शोधन करना है। निर्बीज समाधि जो कि आध्यात्मिक जीवन का परमलक्ष्य है र्इश्वरप्रणिधान से प्राप्त की जा सकती है(पा.यो.सू.1.23)।

महर्षि पतंजलि ने र्इश्वर को पुरुष विशेष की संज्ञा दी है। अन्य दर्शनों में जहाँ र्इश्वर को विश्व का सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता, संहारकर्ता कहा गया है वहीं योगदर्शन में र्इश्वर को विशेष पुरुष कहा गया है। ऐसा पुरुष जो दु:ख कर्मविपाक से अछूता है। महर्षि पतंजलि के According-

क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्ट: पुरुषविशेष र्इश्वर:। (पा.यो.सू. 1.24) 

Meansात् र्इश्वर वह पुरुषविशेष है जिस पर दु:ख, कर्म, उसके लवलेश तथा फल आदि किसी का भी कोर्इ प्रभाव नहीं पड़ता है। यहाँ र्इश्वर को व्यक्तिवादी नहीं वरन् उसे उच्च आध्यात्मिक चेतना कहा गया है। वह र्इश्वर परमपवित्र, कर्म व उसके प्रभाव से अछूता है उनका कोर्इ भी प्रभाव र्इश्वर पर नहीं पड़ता है। इसीलिये वह विशेष है।

समस्त जीवात्माओं का क्लेश Meansात् अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेश और अभिनिवेष(पा.यो.सू. 2.3), कर्म(पा.यो.सू.4.7), विपाक Meansात् कमोर्ं के फल(पा.यो.सू.2.13) तथा आशय Meansात् कमोर्ं के संस्कार (पा.यो.सू. 2.12) से अनादि काल से सम्बन्ध है किन्तु र्इश्वर का इनसे न तो कभी सम्बन्ध था, न है, न कभी भविष्य में होने की सम्भावना ही है। वह अविद्या, अज्ञान से रहित है इस कारण सम्बन्ध नहीं है।

र्इश्वर का वाचक ओंकार (ॐ) है। महर्षि कहते हैं ‘तस्य वाचक: प्रणव:’(पा.यो.सू. 1.27)। प्रणव का निरन्तर जप Meansात् र्इश्वर का निरन्तर चिन्तन करना ही र्इश्वर प्रणिधान है। चित्त को All ओर से हटाकर Only र्इश्वर पर लगाना चाहिये यह समाधि को प्रदान करने वाला है। इस प्रणव के जप से योग साधकों को मोक्ष की प्राप्ति होती है। र्इश्वरप्रणिधान से All अशुद्धियों का नाश हो जाता है(पा.यो.सू. 1.29, 30, 31)।

इन अशुद्धियों में अन्तराय व सहविक्षेप कहे गये हैं- व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य, अविरति, भ्रान्तिदर्शन, अलब्धभूमिकत्व तथा अनवस्थित्व ये चित्त के नौ अन्तराय या विक्षेप हैं। इन नौ प्रकार के विक्षेपों से चित्त में शरीर में अत्यवस्था उत्पन्न होती है। शरीर व मन का सामंजस्य बिगड़ जाता है And जब शरीर व मन व्यवस्थित नहीं रह पाते तव इस अवस्था में शारीरिक व मानसिक व्याधियाँ उत्पन्न होकर योगमार्ग में विघ्न-बाधाएँ उपस्थित हो जाती हैं व साधक साधना छोड़ बैठता है यही विघ्न है। सहविक्षेप दु:ख, दौर्मनस्य, अंगमेजयत्व, श्वास तथा प्रश्वास हैं। इन सहविक्षेपों तथा उपरोक्त नौ विक्षेपों के मिल जाने पर घोर विपत्ति साधक पर आ जाती है। वह ठीक प्रकार सोच-समझ नहीं पाता And साधना छोड़ बैठता है अथवा घोर आलस्य में समय व्यतीत करता रहता है।

विक्षिप्त चित्त वालों की ये उपर्युक्त अवस्थाएँ निरन्तर अभ्यास से शान्त हो जाती हैं। Singleतत्व पर Meansात् र्इश्वर पर निरन्तर(पा.यो.सू. 1.32 ) ध्यान लगाने से ये विक्षेप दूर हो जाते हैं।

क्रियायोग के साधन 

महर्शि पतंजलि ने योगसूत्र में क्रियायोग के निम्नाकित तीन साधन बताये है। महर्षि पतंजलि ने समाधि पाद में जो भी योग के साधन बताए हैं वे All मन पर निर्भर है। किन्तु जो अन्य विधियों से मन को नियन्त्रित नही कर सकते है। उनके लिए क्रियायोग का वर्णन Reseller गया है। इस क्रियायोग से क्लेश कमजोर होकर समाधि की स्थिति प्राप्त कराते है। इस समाधि की स्थिति में दु:खों का नाश हो जाता है। आनन्द की प्राप्ति होती है, साधन पाद में इन तीनों साधनों का वर्णन है, जो निम्न प्रकार है-

1. तप- 

तप Single प्रकार से आध्यात्मिक जीवन शैली को कहा जा सकता है। तप साधना काल में आध्यात्मिक जीवन शैली अपनातें हुए जों शारीरिक तथा मानसिक कष्टों को र्इश्वर की इच्छा समझकर स्वीकार कर लेना प्रत्युत्तर में कोर्इ प्रतिक्रिया न करना यह साधना तप है। तपस्वी र्इश्वर के साक्ष्य अपना सम्पूर्ण जीवन जीता है। साधन काल में उसका कोर्इ भी कर्म ऐसा नहीं होता जो अपनी आराध्य के समक्ष नहीं Reseller जा सकता। तप संयमित Reseller से जीवन जीना है अहंकार, तृष्णा और वासना को पीछे छोड.कर उस प्रभु पर समर्पण ही तप है।

साधक काल में शास्त्रोंक्त कर्मो में फल की इच्छा करते हुए करना, शास्त्रोंक्त कर्म जैसे- स्वधर्म पालन, व्रत, उपवास, नियम, संयम, कर्तव्य पालन आदि इन All कर्मो को निश्ठा व र्इमानदारी से करना ही तप है। अपने आश्रय, वर्ण, योग्यता और परिस्थिति के According ही स्वधर्म का पालन करना चाहिए, उसके पालन में जो भी कष्ट प्राप्त हो चाहे वह शारीरिक हो या मानसिक, उन All कष्टों को सहर्ष सहन करना ही ‘तप’ कहलाता है।
महर्षि पतंजलि में वर्णन Reseller है-

‘तपो द्वन्द सहनम्’। 

Meansात् All प्रकार के द्वन्दो को सहन करना ही तप है। बिना कष्ट सहन कियें कोर्इ भी साधना सिद्ध नही होती है। अत: योग साधना करने के लिए जड.ता तथा आलस्य न करते हुए All द्वन्दों, जैसे सर्दी, गर्मी, भूख, प्यास को सहते हुए, अपनी साधना में डटे रहना ही तप कहलाता है।
 योग भाश्य के According-

 न तपस्विनों योग सिद्धति:। योगभाश्य 2/1

Meansात् तप किये बिना योग सिद्धि कदापि सम्भव नही हो सकती है। अत: योगी को कठोर तपस्या करनी चाहिए। श्रीमद् भगवद्गीता में वर्णन है-

‘मात्रास्पर्षास्तु कौन्तेय शीतोष्ण सुखदु:खदा:। 

आगमापायिनोडनित्यास्तास्तितिक्षस्व भारत:। गीता 2/14

Meansात् उन द्वन्दों, शारीरिक कष्टों की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए बल्कि उन्हे यह सोचकर सहन का लेना चाहिये कि ये All सदैव रहने वाले नही है। अत: द्वन्दों के वषीभूत न होकर साधना में तत्परता के साथ लगे रहना ही योग का सफल होना है, अतएव योगी को कठोर तपस्या करनी चाहिए। परन्तु तप कैसे करना चाहिए।
इसका वर्णन योग वाचस्पति टिका में मिलता है-

 ‘तावन्मात्रमेवतपष्चरणीये न यावता धातु वैशम्यमापद्यत’। 

Meansात् तप उतना ही करना चाहिए कि जिससे शरीर के धातुओं में विषमता उत्पन्न न हो। वात, पित्त, कफ, त्रिदोशों में विषमता उत्पन्न न हों। इस प्रकार Reseller जाने वाले तप अवश्य ही योग सिद्धि प्रदान करता। महर्षि पतंजलि ने तप के फल का वर्णन इस प्रकार Reseller है-

‘कायेन्द्रियसिद्धिरशुद्धिक्षयान्तपस:।’ योगसूत्र 2/43 

Meansात् तप से अशुद्धियों का नाश होता है। और शरीर और इन्द्रियो की सिद्धि हो जाती है। उसकी समस्त इन्द्रियॉ वश में हो जाती है। और इनके वष में आने से ही सिद्धि की प्राप्ति होती है।

2. स्वाध्याय- 

स्वाध्याय का यदि शाब्दिक Means लिया जाय तो इसका Means है स्व का अध्ययन। स्वयं का अध्ययन या स्वाध्याय का Means श्रेष्ठ साहित्य का अध्ययन करना है। परन्तु मात्र अध्ययन करने से ही स्वाध्याय नहीं कहा जा सकता है। जब तक कि उस पडे. हुए, अध्ययन किये हुए चिन्तन मनन न Reseller जाय, अध्ययन किये हुए शास्त्रों पर चिन्तन, मनन कर चरित्र में उतार कर विवेक ज्ञान जाग्रत कर उस परमेश्वर के चरणो प्रीति कर भगवद् भक्ति जाग्रत हो यही स्वाध्याय है।

पण्डित श्री रामशर्मा जी के According- श्रेष्ठ साहित्य की प्रकाश में आत्मानुसंधान की ओर गति स्वाध्याय है। स्वाध्याय ध्यान की स्थिति में अपने स्वReseller का ध्यान करना उस र्इश्वर का ध्यान कर उसके मंत्रों का जप करना ही स्वाध्याय है। स्वाध्याय का तात्पर्य वेद, उपनिषद्, दर्शन आदि मोक्ष शास्त्रों का गुरू आचार्य या अन्य विद्वानों से अध्ययन करना। Single अन्य Means के According स्वाध्याय का Means स्वयं का अध्ययन करना है। परन्तु स्वाध्याय का Means मात्र इतना होकर अत्यन्त व्यापक है।

योग शास्त्र में वर्णन मिलता है प्रणव मंत्र का विधि पूर्वक जप करना स्वाध्याय है। तथा गुरू मुख से वैदिक मंत्रों का श्रवण करना, उपनिषद And पुराणों आदि मोक्ष शास्त्रों का स्वयं अध्ययन करना स्वाध्याय है।
वही योगभाश्य का व्यास जी ने भी स्वाध्याय का वर्णन करते हुए लिखा है-

‘स्वाध्यायोमोक्षशास्त्राणामध्ययनम् प्रणव जपो वा।’ व्यासभाश्य 2/32 

Meansात् मोक्ष प्राप्ति जो शास्त्र सहायक हो उन शास्त्रों का अध्ययन करना तथा उन्हें अपने जीवन में उतारना ही स्वाध्याय है।

पं0 श्री रामशर्मा आचार्य जी के According- ‘अच्छी पुस्तकें जीवन्त देव प्रतिमाएं है जिनकी आरधना से तत्काल प्रकाश व उल्लास मिलता है।’

अत: स्वाध्याय शास्त्रों का अध्ययन कर उसे अपने आचरण में, जीवन में अपनाना ही स्वाध्याय है। अत: केवल शास्त्रों के अध्ययन तक ही सीमित न रहकर शास्त्रों के सार को ग्रहण कर सदा-सर्वदा योग साधना में लगे रहना ही स्वाध्याय है। और योग साधना में मोक्ष का मार्ग प्रशस्त होता है। स्वाध्याय के द्वारा स्वयं का मनन चिन्तन करने से अपने अन्दर के विकारों का पता लगता है। स्वयं के अन्र्तमन में व्याप्त कलशित विचारों का अध्ययन कर उन्हें दूर करने का मार्गदर्शन मिलता है, आत्मज्ञान द्वारा विवेक ज्ञान द्वारा उन्हें दूर Reseller जा सकता है। जिससे Human जीवन उत्कृष्ट बनता है। क्योंकि तप के द्वारा व्यक्ति कर्मो को उत्कृष्ट बना सकता है। और साधना की ओर अग्रसर हो सकता है। वही स्वाध्याय के द्वारा अपनी र्इष्ट के दर्शन कर ज्ञानयोग का अधिकारी बनता है। विवेक ज्ञान की प्राप्ति का जीवन को दिव्य बना सकता है।
महर्षि पतंजलि ने स्वाध्याय का फल बताते हुए कहा है-

‘स्वाध्यायादिश्टदेवता सम्प्रयोग:।’ योगसूत्र 2/44 

Meansात् स्वाध्याय के तथा प्रणव आदि मन्त्रों के जप करने तथा अनुष्ठान करने से अपने र्इष्ट देवता के दर्शन होते है, तथा वे उन्हें आशीर्वाद देकर अनुग्रहीत करते है। वह अपने र्इष्ट से आराध्य से Singleरस हो जाते है। स्वाध्याय से प्रभु चरणों में प्रीति होती है। भगवद् भक्ति का जागरण होता है। जो स्वाध्यायशील होते है। उनके लिए प्रभु की शरण सहज हो जाती है।

3. र्इश्वरप्राणिधान या र्इश्वर शरणागति- 

यह साधन Single मात्र ऐसा साधन है। जिसमें साधक स्वयं समर्पित हो जाता है। अपने आप को भुलाकर र्इश्वर पर अपने शरीर, मन, बुद्धि, अहंकार को समर्पित कर देता है। और समस्त कर्म र्इश्वर की मर्जी के अनुReseller होते है। साधक अपने को बॉसुरी की तरह खाली बना लेता है। और उसमें सारे स्वर उसी र्इश्वर के होते है। जब साधक पूर्ण Resellerेण खाली होकर स्वयं को उस र्इश्वर को समर्पित कर देता है। तब वह र्इश्वर उसका हाथ उसी प्रकार थाम लेता है। जैसे Single माता द्वारा बच्चे को और पग-पग पर उसको गलत रास्तों से बचाते हुए उचित मार्गदर्शन करता है। साधक अपने समस्त कर्म र्इश्वर की आज्ञा से तथा र्इश्वर के कर्म समझ कर करता है। और फलेच्छा का त्याग कर कर्म करता है। ऐसा साधक की चित्त की वृत्तियॉ समाप्त होकर वह मोक्ष का अधिकारी बनता है।

महर्षि पतंजलि द्वारा प्रतिपादित क्रियायोग का मुख्य आधार तप कहा जा सकता है, इसका भावनात्मक आधार र्इश्वर प्राणिधान है। तथा वैचारिक आधार स्वाध्याय है। र्इश्वर के प्रति समर्पण को श्रृद्धा और प्रज्ञा का स्त्रोत कहा जा सकता है। अनुभव के आधार पर यह कहा जा सकता है। यदि स्वाध्याय या प्रज्ञा में निरन्तरता ना बनी रहे, वैचारिक दोश भाव बढने लगे तो तप में भी मन्दता आने लगती है। अकर्मण्यता बढने लगती है। इसी तरह यदि श्रृद्धा या र्इश्वरप्राणिधान विश्वास में कमी आने लगे तो तप को प्रेरणादायी ऊर्जा नहीं मिल पाती है। इस प्रकार कहा जा सकता है। जिसने निरन्तर तप Reseller है। उसकी र्इश्वर प्राणिधान या श्रृद्धा स्वाध्याय या प्रज्ञा में कभी भी कमी नहीं आती है। क्रियायोग का उत्कर्ष र्इश्वरप्राणिधान है। प्रभु शरणागति या र्इश्वर के प्रति समर्पण Single ऐसी जाग्रति है। ऐसा बोध है। जब यह ज्ञान हो जाता है। कि अंधकार का विलय हो चुका है। अब तो बस उस परमात्मा की ही प्रकाश सर्वत्र दिखायी दे रहा है। और उस स्थिति को प्राप्त हो जाना कि अब हरि हैं मै नाहि।
र्इश्वर की भक्ति विशेष या उपासना को ही र्इश्वर प्रणिधान कहते है।
योगभाश्य में महर्षि व्यास ने लिखा है-

 ‘र्इश्वर प्राणिधान तस्मिन् परमगुरौ सर्वकर्मार्पणम्।’ योगभाश्य 2/32 

Meansात् सम्पूर्ण कर्मफलों के साथ अपने कर्र्मो को गुरुओं का भी परम गुरु Meansात् र्इश्वर को सौंप देना ही र्इश्वरप्राणिधान है।
अथर्ववेद में 7/80/3 में इस प्रकार वर्णन मिलता है-

 ‘यत्कासास्ते जुहुमस्तन्नोअस्तु।’ 

Meansात् हे र्इश्वर हम जिन शुभ संकल्पों को लेकर आपकी उपासना में तत्पर हैं आप हमारे एन संकल्पों को पूर्ण करें और हमारे जो भी अच्छें या बुरे कर्म हैं या कर्मफल है वे All आप को ही समर्पित कर दिये है, इसी भावना का नाम ही र्इश्वर प्राणिधान है।

मनुष्य जीवन का मुख्य उद्देश्य मोक्ष, कैवल्य की प्राप्ति और यही मोक्ष कैवल्य चारों पुरुषार्थ में अन्तिम पुरुषार्थ है। और इसकी सिद्धि के लिए र्इश्वर प्राणिधान आवश्यक है, र्इश्वर की उपासना या र्इश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण से ही योग में सिद्धि मिलती है। उस र्इश्वर को परिभाषित करते हुए महर्षि पतंजलि ने योगशास्त्र में वर्णन Reseller है-

‘क्लेशकर्म विपाकाशयैरपरामृश्ट:पुरुष: विशेष: र्इश्वर:। 

Meansात् जो क्लेश, कर्म, कर्मो के फलों, और कर्मो के संस्कारों के सम्बन्ध से रहित है तथा समस्त पुरुषों में श्रेष्ठ है, उत्तम है वह र्इश्वर है। और वही र्इश्वर हमारा परम गुरू भी है। जैसा कि योगसूत्र में 1/26 में कहा गया है-

‘पूर्वेशामपिगुरु: कालेनानवच्छेदात्।’

Meansात् वह परमेश्वर सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा जी का भी गुरु है, वह अनादि है, अनन्त है। इसी तरह सृष्टि में आदि से अब तक न जाने कितने गुरु हुए जो कि काल से बाधित है, परन्तु काल से भी र्इश्वर All गुरुओं का भी गुरु है, उस परम र्इश्वर का अनुग्रह प्राप्त करना ही र्इश्वर प्रणिधान है।

और र्इश्वरप्रणिधान के द्वारा समाधि की सिद्धि होती है। जिसका वर्णन महर्षि पतंजलि ने साधनपाद के 45वें सूत्र में कहा है-

‘समाधिसिद्धिरीष्वरप्राणिधानात्।’ 2/45। 

Meansात् र्इश्वर प्रणिधान से समाधि की सिद्धि हो जाती है र्इश्वर प्रणिधान से योग साधना के मार्ग में आने वाले All विघ्न-बाधाएं दूर हो जाते है। उस र्इंंंंष्वर की विशेष अनुकम्पा प्राप्त होती है। और साधक को योग सिद्धि प्राप्त होती है। र्इश्वर प्रणिधान जो कि र्इश्वर पर पूर्ण रुपेण समर्पण है। भक्तियोग है। भक्तियोग, के द्वारा साधक अपने उपास्थ ब्रह्म के भाव में पूर्ण रुपेेण भावित होकर तद्रुपता का अनुभत करता है। जिससे कि व्यक्तित्व का रुपान्तरण होता है। साधक का जीवन उत्कृष्ट होकर मुक्ति देने वाला होता है। इस प्रकार क्रियायोग के तीनों साधन कर्म, भक्ति, ज्ञान का सुन्दर समन्वय है। जो कि जीवन को उत्कृष्ट बनाने के लिए आवश्यक है। जिस प्रकार मुुखमण्डल की सुन्दरता के लिए All अंगों का होना आवश्यक है। उसी प्रकार जीवन में सौन्दर्य लाने के लिए कर्म, भक्ति, तथा ज्ञानयोग का सुन्दर समन्वय नितान्त आवश्यक है। जिससे कि जीवन दिव्यता व उत्कृष्टता को प्राप्त कर मोक्ष को प्राप्त कर सकें।

क्रियायोग का उद्देश्य And महत्व 

महर्षि पतंजलि ने साधनपाद के Second सूत्र में क्रियायोग का फल या क्रियायोग का उद्देश्य बताया है-

‘समाधिभावनार्थ: क्लेशतनुकरणार्थष्च। योगसूत्र 2/2 

Meansात् यह क्रियायोग समाधि की सिद्धि देने वाला तथा पंचक्लेशों को क्षीण करने वाला है।

महर्षि मानते है कि मनुष्य के पूर्व जन्म के संस्कार हर जन्म में अपना प्रभाव दिखाते है और ये क्लेश मनुष्य हर जन्म में भोगना पडता है। पूर्व जन्म के संस्कारों से जुडे रहने के कारण के अपना प्रभाव दिखाते है। इन क्लेशों का पूर्णतया क्षय बिना आत्मज्ञान के नहीं होता हैं। परन्तु क्रिया योग की साधना से इन्हें कम या क्षीण Reseller जा सकता है और मोक्ष प्राप्ति की साधना के मार्ग में बढा जा सकता है।

क्रियायोग की साधना से समाधि की योग्यता आ जाती है। क्रियायोग से यह क्लेश क्षीण होने लगते है क्लेशों के क्षीर्ण होने से ही मन स्थिर हो पाता है। पंचक्लेश यदि तीव्र अवस्था में है तब उस स्थिति में समाधि की भावना नहीं हो पाती है।

तप स्वाध्याय व र्इश्वर प्राणिधान या कर्म भक्ति ज्ञान के द्वारा क्लेषों को क्षीण कर समाधि का मार्ग प्रशस्त Reseller जा सकता है। क्रियायोग के द्वारा जीवन को उत्कृष्ट बनाकर समाधि की प्राप्ती की जा सकती है। क्रियायोग के अन्तर्गत तप, स्वाध्याय, र्इश्वरप्राणिधान की साधना आती है। जिसमें कि कर्मयोग, ज्ञानयोग तथा भक्तियोग का सुन्दर समन्वय समाहित है। शास्त्रों में तप के महत्व का वर्णन इस प्रकार Reseller है-

 ‘यद् दुश्करं दुराराध्य दुर्जयं दुरतिक्रमम्। 

 तत्सर्व तपस्या साध्यातपो हि दुरतिक्रमम्।।’ 

संसार में जो भी दुसाध्य व अति कठिन कार्य है, उन कठिन से कठिन कार्य को करने में कोर्इ भी समर्थ नहीं होता है। उन कार्यों को तप के द्वारा सिद्ध Reseller जा सकता है। शास्त्रों में तप को मोक्ष प्राप्ति का साधन कहा है। तप के द्वारा मन वचन तथा अपनी इन्द्रियो को तपाने से जन्म जमान्तरों के पाप भस्मीभूत हो जाते है। कूमपूराण में कहा गया है-

 योगाग्निर्दहति क्षिप्रमषेशं पाप पन्जरम। 

 प्रसन्नं जायतेज्ञानं ज्ञानान्निर्वाणमृच्छति।।’

Meansात् तपस्या से जो योग की अग्नि उत्पन्न होती है। वह शीघ्र ही मनुष्य के All पाप समूहों को दग्ध कर देती है। और पापों के क्षय हो जाने पर ऐसे ज्ञान का उदय होता है। जिससे कि मुक्ति की प्राप्ति हो जाती है। और योगी पुरुष का बन्धन उसी प्रकार टूट जाता है, जिस प्रकार बाज पक्षी बन्धन रस्सी को काट कर आकाश में उड. जाता हे। वह संसार रुपी बन्धन से मुक्त हो जाता है।

र्इश्वर प्रणिधान र्इंष्वर के प्रति समर्पण ही हमारे समस्त दुखों, कल्मश कशायों का अन्त है। जिसमें की अपना अस्तित्व समाप्त कर उस परमात्मा के अस्तित्व का भान होता। जिसमें कि अपना अस्तित्व मिटने पर समाधि का आनन्द होने लगता है। महर्षि पतंजलि र्इश्वर प्रणिधान का फल बताते हुए कहते है-

‘समाधिसिद्धिरीष्वरप्रणिधानात्’। योगसूत्र 2/45 

Meansात् र्इश्वर प्रणिधान से समाधि की सिद्धि होती है। र्इश्वर के आशीर्वाद से उसकी समस्त चित्त की वृत्तियॉ समाप्त हो जाती है। जिससे कि वह मोक्ष को प्राप्त होता है।

अत: हम कह सकते है कि वर्तमान जीवन में तप स्वाध्याय व र्इश्वरप्रणिधान का अत्यन्त महत्व है। क्योंकि तप कर्म के लिए प्रेरित करते है जो कि कर्मयोग है। कर्मयोगी ही कमोर्ं को कुशलता पूर्वक कर सकता है। तप, कठिन परिश्रम व्यक्ति को कर्मयोगी बनाती है। अत: कमोर्ं में कुशलता लाने के लिए तप नितान्त आवश्यक है।

वही स्वाध्याय साधक के ज्ञानयोगी बनाता है। स्वाध्याय से विवेकज्ञान की प्राप्ति होती है। क्या सही है, क्या गलत है का ज्ञान साधक को होता हे। जो कि प्रगति या उन्नति के मार्ग में अति आवश्यक है। स्वाध्याय के द्वारा श्रेष्ठ साहित्यों का अध्ययन करते हुए आत्मानुसंधान की ओर साधक बढता है। तथा स्वयं ही वह प्रभु की शरण का आश्रय लेते है।

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