ऋग्वेद का परिचय

ऋग्वैद धार्मिक स्तोत्रों की Single अत्यंत विशाल राशि है, जिसमें नाना देवाताओं की भिन्न-भिन्न ऋषियों ने बड़े ही सुंदर तथा भवाभिव्यंजक Wordों में स्तुतियों And अपने अभीष्ट की सिद्धि के निर्मित पार्थनायें की है। द्वितीय मंडल से लेकर सप्तम मंडल तक Single ही विशिष्ट कुल के ़षियों की प्रार्थनायें संगृहीत हैं। अष्टम मंडल में अधिकतर मंत्र कणव ऋषि सं संबंध हैं, तथा नवम मंडल में (पवमान) सोम के विषय में भिन्न-भिन्न ऋषिकुलों के द्वारा दृष्ट अर्पण मंत्रों का संग्रह है। ऋग्वेदीय देवताओं में तीन देवता अपने वैशिष्टय के कारण नितान्त प्रसिद्ध है। अग्नि के लिए सबसे अधिक ऋचायं कही गर्इ है। इन्द्र विजयप्रदाता होने के कारण सबसे अधिक ओजस्वी तथा वीर-रसमण्डित मंत्रों के द्वारा संयुक्त है। प्राणिमात्र की हार्दिक भावनाओं का जानने वाला और तदनुसार प्राणियों को दण्ड और पारितोषिक देने वाला वरूण कर्मफलदाता परमेश्वर के Reseller में चित्रित Reseller गया है। इसलिए सर्वोच्च नैतिक भावनाओं से स्निग्ध तथा उदातता से मण्डित ऋचायें वरूण के विषय में उपलब्ध होती है। देवियों में उषा का स्थान अग्रगण्य है और सबसे आ गर्इ कवित्वमण्डित प्रतिभाशली सौन्दर्यभिव्युक्त ऋचायें उषा देवी के विषय में मिलती है। इनके अतिरिक्त जिन देवताओं की संस्तृति में ऋचायें दृष्ट हुर्इ उनमें प्रधान देवता हैं :- सविता, पूषा, मित्र, विष्णू, रूद्र, मरूत्, पर्जन्य आदि। ऋग्वैदीय ऋचाओं का प्रयोग यज्ञ के अवसर पर होता था और सोमरस की आहुति के समय प्रयुक्त मंत्रों का Singleत्र संग्रह नवम मंडल में Reseller गया मिलती है। इन देवों का विशेष वर्णन संस्कृति-खण्ड में Reseller गया है।

दशम मंडल की अर्वाचीनता 

दशम मंडल अन्य मंडलों की अपेक्षा नूतन तथा अर्वीचान माना जाता है। इसका प्रधान कारण भाषा तथा विषय को लक्ष्य कर वंशमंडल (गोत्रमंडल) से इनकी विभिन्नता है:-

भाषागत विभिन्नता-ऋग्वेद के प्राचीनतम भागों में Wordों में ‘रेफ’ की ही स्थिति है। भाषाविदों की मान्यता है कि संस्कृत भाषा ज्यो-ज्यों विकसित होती गर्इ त्यों-त्यों रेफ के स्थान लकार का प्रयोग बढ़ता गया है। जल-वाचक ‘सलिल’ का प्राचीन Reseller ‘सरिर’ गोत्र मंडलों में प्रयुक्त है, परन्तु दशम मंडल के लकार युक्त Word का प्रयोग है। वैयाकरण Resellerों के भी स्पष्ट पार्थक्य है। प्राचीन अंश में पुल्लिग अकारान्त Wordों मं Firstा द्विवनज का प्रत्यय अधिकतर ‘आ’ है (यथा ‘दा सुपुर्णा सयुजा सखाया’ ऋग्वेद) परंतु दशम मंडल में उसके स्थान पर ‘औ’ का भी प्रचलन मिलता है- ‘मा वामेती परेती रिषाम Ultra siteाचन्द्रमसौ घाता’’। प्राचीन अंश में क्रियार्थक क्रिया की सूचना के लिए तबै, से असे, अध्र्य आदि अनेक प्रत्यय प्रयुक्त होते है। परन्तु दशम मंडल में अधिकतर ‘तुम’ प्रत्यय काही प्रयोग मिलता है। ‘कर्तवै’ ‘जीवसे’ ‘अवसे’ आदि प्राचीन पदो के स्थान पर अधिकतर कर्तुम् जीवितुम् अवितुम् आदि प्रयोगों का प्राचार्य है। भाषागत विशिष्टता ब्राम्हण गं्रथों की भाषा के सामने होने के कारण दशम मंडल इन गं्रथों से कालक्रम में प्राचीन नहीं प्रतीत होता है।

छन्दोगत विशिष्टय- प्राचीन अंशो में उपलब्ध छंदों की अपेक्षा दशम मंडल के छंदों में पार्थक्य हैं । प्राचीन काल में वर्णो की संख्याय पर ही छन्दो विन्यास में विशेष आग्रह था, परन्तु अब लघुगुरू के उचित विन्यास पर भी सर्वत्र विशेष बल दिया जाने लगा था, जिससे पद्यो के पढ़ने में सुस्वरता तथा लय का आविर्भाव बड़ी रूचिरता के साथ होने लगा। फलत: अब ‘अनुष्टुप’ ने होकर लौलिक संस्कृत के अनुष्टुप ही के समान बन गया।

छेवगत वैशिष्टय- इस मंडल में उल्लिखित देवों में अनेक नवीन तथा अनिदिष्टपूर्व तथा प्राचीन देवों के Reseller में स्वReseller- परिवर्तन दुष्टिगत होता है। वरूण समस्त जगत के नियन्ता, सर्वज्ञ, सर्वशिक्तमान् देव के Reseller में पूर्व में निदिष्ट हैं, परन्तु अब उनका शासनक्षेत्र समिटि कर केवल जल ही रह जाता है। विश्वनियन्ता के पद से हट कर वे अब जलदेवता के Reseller में ही दुष्टिगोचर होते है। मानसिक भवना तथा मानस वृतियों के प्रतिनिधि Reseller से नवीन देव कल्पित किये गये है। ऐसे देवों में श्रद्धा मन्यु आदि का History Reseller जा सकता है। ताक्ष्र्य की भी स्तुति देवता के Reseller में यहां उपलब्ध होती है। श्रद्धा कामायनी का बड़ा बोधक वर्णन Single सूक्त में मिलता है।

श्रद्धायाग्नि: समिध्यते श्रद्धया हूयते हवि: । 

श्रद्धां भगस्य मूर्धनि वचसा वेदयामसि।। 

श्रद्धा से अग्नि का समिन्धन होता है, अथार्त् ज्ञानाग्नि का प्रज्वलन श्रद्धा के द्वारा होता है। हवि का हवन श्रद्धा से होता है। ऐश्वर्य के ऊध्र्व स्थान पर निवास करने के लिए हम लोग वचन के द्वारा श्रद्धा की स्तुति करते है। गाय की स्तुति में प्रयक्त Single समग्र सूक्त ही वैदिक आर्यो की गोविषयिणी भावना की बड़े ही सुंदर Wordों में अभिव्यक्त कर रहा है। Single पूरे सूक्त में आरण्यानी की स्तुति विषय की नवीनता के कारण पर्याप्त Resellerेण आकर्षक है। सूक्त में हम ‘ज्ञान’ की Single महनीय देव के Reseller में आर्यों में प्रतिष्ठित पाते हैं। इसी सूक्त प्रख्यात मंत्र में चारों संहिताओं के द्वारा यज्ञ-कर्म का सम्पादन करने वाले होता, उद्गाता ब्रम्हा तथा अध्वर्यु नामक चार ऋत्विजों का हम स्पष्ट संकेत पाते है।

दार्शनिक तथ्यों का अविष्कार – इस मंडल में अनेक दार्शनिक सूक्तों की उपलब्धि होती है, जो अपनी विचारधारा से आर्यों के तात्विक चिन्तनों के विकास के सूचक हैं तथा उतरकालीन प्रतीत होते हैं। ऐसे सूक्तों के नासदासीय सूक्त तथा पुरूषसूक्त विशेष Historyनीय हैं। पुरूषसुक्त में सर्वेश्वरवाद का स्पष्ट प्रतिपादन है, जो प्रौढ़ विचारधारा का प्रतीत होता है। पाश्चात्य विद्वान को दृष्टि में धार्मिक विकास का क्रम इस प्रकार बहुदेववाद-Singleदेववाद सर्वेश्रवाद । प्राचीनतम काल में अनेक देवों की सता में आर्यो का विश्वास था, जो आगे चलकर Singleदेव (प्रजापति या हिरण्यगर्भ) के Reseller में परिणत होकर सर्वेश्वरवाद पर टिक गया। इस विकास की अंतिम दो कोटिया दशम मंडल में उपलब्ध होती है। फलत: उसका गोत्रमंडल से नूतन होना स्वाभाविक है।

विषय की नूतनता- इस मंडल में भौतिक विषय से संबंध तथा अध्यात्मिक विचारधारा से संवलित अनेक सूक्त उपलब्ध होते है। Indian Customer दृष्टि में श्रद्धा रखनेवाले विद्वान के सामने तो वेदों के काल निर्णय का प्रश्न ही नहीं उठता क्योकि जैसा हम First दिखला चुके हैं उनकी दृष्टि में वेद अनादि है, नित्य हैं, काल से अनवच्छिन्न हैं। वैदिक ऋषिराज मंत्रों के द्रष्टामात्र माने गये है, रचयिता नहीं, परंतु ऐतिहासिक पद्धति से वेदों की छानबीन करने वाले बादय वेदज्ञ तथा उनके अनुयायी Indian Customer विद्वानों की सम्मति में वेदों के आविर्भाव का प्रश्न Single हल कराने योग्य वस्तु है। बहुतों इस विषया को सुलझाने में वृद्धि लगायी है, सूक्ष्म तार्किक बुद्धि तथा विपुल साधनों के पर्याप्त प्रमाणों को इक्ठ्ठा Reseller है। परन्तु उनके सिद्धांतों में शताब्दियों का ही नहीं बल्कि सहस्त्राब्दियों का अंतर है।

ऋग्वेद का समय 

1. डा. मैक्समूलर के According 

सबसे First प्रोफेसर मैक्समूलर ने 1859 र्इ. में अपने ‘प्राचीन संस्कृत साहित्य’ नामक ग्रंथ में वेदों के कालनिर्णय का First श्लाघनीय प्रयास Reseller। उनकी मान्य सम्मति में वेदों में सर्वप्राचीन ऋग्वेद की Creation 1200 विक्रमपूर्व में संपन्न हुर्इ। विक्रम में लगभग पांच सौ First बुद्ध ने इस धराधाम को अपने जन्म से पवित्र Reseller तथा Humanों के कल्याणर्थ Single नवीन धर्म की स्थापना की।

इसी बु़द्धधर्म के उदय की आधारशिला पर वैदिककाल के आंरभ का निर्णय सर्वतो-भावेन अवलम्बित है। डॉ. मैक्समूलर ने समग्र वैदिकयुग को चार विभागों में बांटा है। छन्दकाल, मंत्रकाल, ब्राम्हणकाल, तथा सूत्र काल और प्रत्येक युग की विचारधारा के उदय तथा ग्रंथनिर्माण के लिए उन्होंने 200 वर्षो का काल माना जाता है। अत:बुद्ध से First होने के कारण सूत्रकाल का प्रारंभ 600 विक्रमपूर्व माना गया है। इस काल में श्रौतसूत्रों (कात्यायन, आपस्तम्ब आदि) तथा गृम्हसूत्रों की निर्मिति प्रधानResellerेण अगड़ीकृत की जाती है। इससे पूर्व का ब्राम्हण काल- जिसमें भिन्न-भिन्न ब्राम्हण-गं्रथों की Creation, यानानुष्ठान का विपुलीकरण, उपनिषदों के आध्यात्मिक सिद्धांतों का विवेचन आदि संपन्न हुआ। इसके विकास के लिये 800 वि.पू.- 600 वि.पू तक दो सौ सालों का कल उन्होंने माना है। इससे पूर्ववर्ती मंत्रयुग के लिए, जिसमें मंत्री का याग-विधान की दृष्टि से चार विभिन्न संहिताओं में संकलन Reseller गया, 1000 पूर्व से लेकर 800 वि.पूका समय स्वीकृत Reseller गया है। इससे भी पूर्ववर्ती, कल्पना तथा Creation की दृष्टि से नितान्त श्लाघनीय युगछंद काल -था, जिसमें ऋषियों ने अपनी नव-नवोन्मेषशालिनी प्रतिभा के बल पर Meansगौरव से भरे हुए मंत्रां की Creation की थी। मैक्समूलर की दृष्टि से यही मौलिकता का युग था, कमनीय कल्पनाओं का यही काल था जिसके लिए 1200-100 का काल विभाग उन्होंने माना है। ऋग्वेद का यही काल है। अत: बुद्ध के जन्म से पीछे हटते-हटते हम ऋग्वेद की Creation आज से लगभग 3200 वर्ष पूर्व की गर्इ थी।

2. लोकमान्य तिलक का मत 

लोकमान्य की विवेचना के According यह समय और भी पूर्ववर्ती होना चाहिए। लोकमान्य ने वैदिककाल को चार युगों में विभक्त Reseller है:-

  1. अदिति काल (6000-4000 वि.पू.) – इस सुदूर प्राचीनकाल में उपास्य देवताओं के नाम, गुण तथा मुख्य चरित के वर्णन करने वाले निविदों (याग संबंधी विधिवाक्यों) की Creation में गद्य और कुछ पद्य की गर्इ तथा अनुष्ठान के अवसर पर उनका प्रयोग Reseller जाता था। 
  2. मृगशिरा -काल (लगभग 4000-2500 वि0 पू0 ) –आर्यसभ्यता के History में नितान्त महत्त्बशाली युग यही था जब ऋगवेद के अधिकांश मन्त्रों का निर्माण Reseller गया । Creation की दृष्टि से यह विशेषत : क्रियाशील था । 
  3. कृत्तिका -काल ( लगभग 2400-1400 वि0 पू0 ) इस काल में त्तैत्तिरीय –तथा शतपथ आदि अनेक प्राचीन ब्राह्मणों का निर्माण सम्पत्र हुआ । ‘ वेदांग ज्योतिष की Creation इस युग के अन्तिम भाग में की गर्इ क्योंकि इसमें Ultra site और चन्द्रमा के श्रविष्ठा के आदि में उत्तर ओर धूम जाने का वर्णन मिलता है और यह धटना गणित के आधार पर 1400 वि0 पू0 के आसपास अंगीीकृत की गर्इ है। 
  4. अन्तिम -काल ( 1400-500 वि0 पू0 ) Single हजार वर्षा के अन्दर श्रोत्रसुत्र गृह्मसुत्र और दर्शन सूत्रो की Creation हुर्इ तथा बुद्धधर्म का उदय वैदिक धर्म की प्रतिक्रिया के Reseller् में इसके अन्तिम भाग में हुआ । 

शिलालेख से पुष्टि- 

नवीन अन्वेषणों से इस काल की पुष्टि भी हो रही है । सन् 1107 र्इ0 में डाक्टर हुगो विन्कलर ने एशिया माइनर ( वर्तमान टर्की ) के बोधाज -कोर्इ नामक स्थान में खुदार्इ कर Single प्राचीन शिलालेख की । यह हमारे विषय के समर्थन में Single नितान्त महत्त्वपूर्ण प्रमाण माना जाता है । पश्रिमी एशिया के खण्ड में कभी दो प्राचीन जातियों का निवास था -Single का नाम था ‘हित्तिति’ और Second का ‘मितानि’। र्इटो पर खुदे लेख से पता चलता है कि इन दोनों जातियों के Kingओं ने अपने पारस्परिक कलह के निवारण के लिए आपस में सन्धि के सरंक्षक के Reseller में दोनो जातियों की देवताओं की अथ्यथना की गर्इ । सरंक्षक देवो की सूची में अनेक बाबुलदेशीय तथा हित्तिति जाति के अतिरिक्त मितानि जाति के देवों में मित्र ;वरूण ; इन्द्र तथा नासत्यौ (अश्विन् ) का नाम उपलब्ध होता हैं। मितानि नरेश का नाम ‘मत्तिउजा’ था और हित्तिति King की विलक्षण संज्ञा थी -’सुब्बि -लुलिउमा। दोनों में कभी धनधोर Fight हुआ था ; जिसके विराम के अवसर पर मितानि नरशे ने अपने शत्रु King की पुत्री के विवाह कर अपनी नवीन मैत्री के उपर मानो मुहर लगा दी। इसी समय की पूर्वोक्त सन्धि है जिसमें चार वैदिक देवताओं के नाम मिलते है । ये लेख 1400 वि0 पू0 के है। अब प्रश्न है कि मितानि के देवताओं में वरूण; इन्द्र आदि देवो का नाम क्योंकर सम्मिलित Reseller गया ? उत्तर में यूरोपीय विद्वानों ने विलक्षण कल्पनाओं की लड़ी लगा दी है । इन प्रश्नों का न्याय्य उत्तर यही है मितानि जाति Indian Customer वैदिक आर्यो की Single शाख थी जों भारत से पश्रिमी एशिया में जाकर बस गर्इ थी या वैदिक धर्म को मानने वाली Single आर्य जाति थी। पश्चिमी एशिया तथा भारत का परस्पर सम्बन्ध उस प्राचीन काल में अवश्यमेव ऐतिहासिक प्रमाणों पर सिद्ध Reseller जा सकता है। वरुण मित्र आदि चारों देवताओं का जिस प्रकार क्रम से निर्देश Reseller गया है उससे इनके ‘वैदिक देवता’ होने में तनिक भी सन्देह नहीं है। ‘इन्द्र’ को तो पाश्चात्य विद्वान् भी आर्यायर्त मं ही उ˜ावित, आर्यो का प्रधान सहायक, देवता मानते है।

इस शिलालेख का समय 1400 विक्रमी पूर्व है। इसका Means यह है कि इस समय से बहुत पहिले आर्यो ने आर्यावर्त में अपने वैदिक धर्म तथा वैदिक देवताओं की कल्पना पूर्ण कर रखी थी। आर्यो की कोर्इ शाखा पश्चिमी एशिया में भारवतर्ष से आकर बस गर्इ और यहीं पर उसने अपने देवता तथा धर्म का प्रचुर प्रचार Reseller। बहुत सम्भव है कि वैदिक देवताओं को मान्य तथा पूज्य मानने वाली यह मितानी जाति भी वैदिक आर्यों की ही किसी शाखा के अन्तभ्र्ाुक्त हो। इस प्रकार आजकल पाश्चात्य विद्वान् वेदों का प्राचीनतम काल विक्रमपूर्व 2000-2500 तक मानने लगे हैं, परन्तु वेदों में उल्लिखित ज्योतिष सम्बन्धी तथ्यों की युक्तियुक्तता तथा उनके आधार पर निण्र्ाीत कालगणना में अब इन विद्वानों को भी विश्वास होने लगा है। अत: तिलकजी के ऊपर निर्दिष्ट सिद्वान्त को ही हम इस विषय में मान्य तथा प्रमाणिक मानते हैं।

3. भूगर्भसम्बन्धी वैदिक तथ्य के According – 

ऋग्वेद में भूगर्भ-सम्बन्धी अनेक ऐसी घटनाओं का वर्णन है जिसके आधार पर ऋग्वेद के समय का निResellerण Reseller जा सकता हैं तत्कालीन युग में सिन्धु नदी के किनारे आर्यो के यज्ञविधान विशेषReseller से होते थे। इस नदी के विषय में ऋग्वेद का कथन है कि नदियों में पवित्र सरस्वती नदी ऊँचे गिरिश्रृष् से निकल कर समुद्र में गिरती है-

Singleा चेतन् सरस्वती नदीनाम्, 

शुचिर्यती गिरिभ्य आ समुद्रात्। (ऋग्वेद 7/95/2) 

Single Second मन्त्र में (3/33/2) सरस्वती और शुतुद्रि नदियों के गरजते हुए समुद्र में गिरने का History मिलता है। ऋग्वेद के अनुशीलन से प्रतीत होता है कि आजकल जहाँ राजपूताना की मरुभूमि है वहाँ प्राचीनकाल में Single विशाल समुद्र था और इसी समुद्र में सरस्वती तथा शुतुद्रि नदियाँ हिमालय से बहकर गिरती थीं। जान पड़ता है कि राजपूताना समुद्र के गर्भ में कोर्इ भयंकर भूकम्प सम्बन्धी विप्लव हुआ, फलस्वReseller Single विस्तृत भूखण्ड ऊपर निकल आया और जो सरस्ती नदी वस्तुत: समुद्र (राजपूताना सागर) में ही गिरती थी वह अब मरुभूमि के सैकत राशि में विलीन हो गर्इ। ताण्ड्य-ब्राह्मण (25/10/6) से स्पष्अ है कि सरस्वती ‘विनशन’ में लुप्त होकर ‘प्लक्ष-प्रस्रवण’ में पुन: आविभ्र्ाूत होती थी। इसका तात्पर्य यह है कि सरस्वती समुद्र तक पहुँचने के लिए पूरा प्रयत्न करती थी, परन्तु राजपूतना के बढ़ते हुए मरुस्थल में उसे अपनी जीवनलीला समाप्त करनी पड़ी।

ऋग्वेद के अनुशीलन से आर्यों के निवास-स्थान सप्तसिन्धु प्रदेश के चारों ओर चार समुद्रों के अस्तित्व का पता चलता है। ऋग्वेद के Single मन्त्र (10/136/5) में सप्तसिन्धु के पूर्व तथा पष्चिम में दो समुद्रों के वर्तमान होने का History है। जिनमें समुद्र तो आज भी वर्तमान है, परन्तु पूर्वी समुद्र का पता नहीं है। ऋग्वेद के दो मन्त्रों में चुत:समुद्रों का नि:सन्दिग््रध निर्देश है। First मन्त्र में-

राय: समुद्रा§ातुरोSसमभ्यं सोम वि§ात:। 

आ पवस्व सहस्रिण:।। (ऋव्म् 9/33/6) 

सोम से प्रार्थना है कि धनसम्बन्धी चारों समुद्रों (Meansात् चारों समुद्रों से युक्त भूखण्ड के आधिपत्य) को चारों दिशाओं से हमारे पास लावे तथा साथ ही असीम अभिलाषाओं को भी लावें। Second मन्त्र (10/47/2) ‘स्वायुधं स्वायुधं स्ववसं सुनीथं चुत:समुद्रं धरुण रयीणाम्’’ में भी स्पष्ट ही ‘चतु:समुद्रं’ का History है। इससे स्पष्ट है कि ऋग्वेदीय युग में आर्यप्रदेश के चारों ओर समुद्र लहरा रहे थे। इनमें पूर्वी समुद्र आज के उत्तर प्रदेश तथा बिहार में था, दक्षिण समुद्र राजपूताना की मरुभूमि में था, पिश्मी समुद्र आज भी वर्तमान है, उत्तरी समुद्र की स्थिति उत्तर दिशा में थी, क्योंकि भूगर्भवेत्ताओं के According एशिया के उत्तर में बल्ख और फारस से उत्तर में वर्तमान विशाल सागर की सत्ता थी, जिसे वे ‘एशियार्इ भूमध्य सागर’ के नाम से पुकारते है। यह उत्तर में आर्कटिक महासागर से सम्बद्ध था और आजकल के ‘कृष्ण सागर’ (काश्यप सागर), अराल सागर तथा वाल्कश हृद इसी के अवशिष्ट Reseller माने जाते हैं।

उन दिनों समस्त गंगा-प्रदेश, हिमालय की पाद-भूमि तथा असम का विस्तृत पर्वतीय प्रदेश समुद्र के गर्भ में थे। कालान्तर में गंगा नदी हिमालय की गगनचुम्बी पर्वतश्रेणी से निकलकर सामान्य नदी के Reseller में बहती हुर्इ हरद्वार के समीप ही ‘पूर्व समुद्र’ में गिरने लगी। यही कारण है कि ऋग्वेद के प्रसिद्ध नदीसूक्त (10/75) में गंगा का बहुत ही संक्षिप्त परिचय मिलता है। उस समय पंजाब के दक्षिण तथा पूर्व में समुद्र था, जिसके कारण दक्षिण भारत Single पृथक्-खण्ड-सा दीखता था। पंजाब में उन दिनों शीत का प्राबल्य था। इसलिये ऋग्वेद में वर्ष का नाम ‘हिम’ मिलता है। भूतत्त्वज्ञों ने सिद्ध Reseller है। कि भूमि और जल के ये विभिन्न भाग तथा पंजाब में शीतकाल का प्राबल्य प्लोस्टोसिन काल अथवा पूर्वप्लीस्टोसिन काल की बात है। यह काल र्इसा से पचास हजार वर्ष से लेकर पचीस हजार वर्ष तक निर्धारित Reseller गया है। भूतत्त्वज्ञों ने यह भी स्वीकार Reseller है कि इस काल के अनन्तर राजपूताने के समुद्र मार्ग के ऊपर निकल आने के साथ ही हिमालय की नदियों के द्वारा आहृत मृित्त्ाका से गंगा प्रदेश की समतल भूमि बन गर्इ और पंजाब के जलवायु मे उष्णता आ गर्इ। पंजाब के आसपास से राजपूताना समद्र तथा हिमसंहिताओं (ग्लेशियर) के तिरोहित होने तथा वृष्टि के अभाव के कारणय ही सरस्वती का पुण्य-प्रवाह सूक्ष्म Reseller धारण करता हुआ राजपूताने की बालुका-राशि में विलीन हो गया।

ऊपर निर्दिष्ट भौगोलिक तथा भूगर्भ-संबंधी घटनाओं के आधार पर ऋ़ग्वेद की Creation तथा तत्कालीन सभ्यता के अविर्भाव का समय कम से कम र्इसा से पच्चीस हजार वर्ष पूर्व माना जाना चाहिए। पाश्चात्य विद्वानों की दृष्टि में ऋग्वेद के ऊपर दिये गये History वैज्ञानिक न होकर भावुक ऋषियों की कल्पना-मात्र से प्रसूत हैं। उन्हें आधार मान कर वैज्ञानिक अनुसंधान की बात उन्हें उचित नहीं प्रतीत होती।

पण्डित दीनानाथ शास्त्री चुटेल ने अपने ‘वेदकालनिर्णय’ नामक ज्योति स्तत्त्ामीमांसक ग्रंथ के आधार पर वेदों का काल बहुत ही प्राचीन (आज से तीन लाख वर्ष पूर्व) सिद्ध करने का प्रयत्न Reseller है। आजकल के वेदकाल के पाश्चात्य मीमांसक विद्वान इतने सुदूर प्राचीनकाल का स्वप्न भी नहीं देख सकते। उनका कथन है कि वेदों में निर्दिष्ट ज्योतिषशास्त्र-विषयक निर्देश केवल कल्पना-प्रसूत हैं, उनका कथन गणना के आधार पर उनका निर्धारण नहीं Reseller गया है। इस प्रकार वेदों के काल-निर्धारण में विद्वानों के मन्तव्यों में जमीन-आसमान का अंतर है। ऋग्वेद के निर्माण-काल के विषय में ये ही प्रधान मत है। इतना तो अब निश्चित-प्राय है कि वेदों का समय अब उतना अर्वाचीन नहीं है जितना पहिले माना जाता था। पश्चिमी विद्वान लोग भी अब उनका समय आज से पांच हजार वर्ष पूर्व मानने लगे है। वेदों के काल के विषय में इतने विभिन्न मत है कि उनका समन्वय कथमपि नहीं Reseller जा सकता। वेद में उपलब्ध ज्योतिषशास्त्रीय तथ्यों को कोर्इ काल्पनिक मानते हैं, तो कोर्इ गणना के आधार पर निर्दिष्ट वैज्ञानिक तथा सत्य मानते है। इसी दृष्टि-भेद के कारण समय के निResellerण में इतनी विमति और विभिन्नता है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *