आयुर्वेद में योग

आयुर्वेद और योग दोनों ही अत्यन्त प्राचीन विद्यायें हैं। दोनों का विकास और प्रयोग समान उद्देश्य के लिए Single ही काल में मनुष्य मात्र के दु:खों को दूर करने के लिए हुआ। आयुर्वेद का शाब्दिक Means जीवन का विज्ञान है। इसे Single बहु उद्देश्यीय विज्ञान के Reseller में विकसित Reseller गया है। योग के According पुरुषार्थ को ही मनुष्य जीवन का लक्ष्य माना गया है। चरक सूत्र में कहा गया है-

‘‘धर्मार्थकाममोक्षाणामारोग्यं मूलमुत्तमम्’’ (च. सू. 1/15 ) 

Meansात् आयुर्वेद का निर्माण धर्म, Means, काम और मोक्ष के लिए ही Reseller गया है। यह कहा जा सकता है कि योग और आयुर्वेद दोनों Human जीवन के समान सिद्धान्त पर आधारित है।

कुछ विद्वानों का मत है आयुर्वेद, योग तथा व्याकरणशास्त्र ये तीनों विद्याएं क्रमश: शरीर, मन And वाणी की शुद्धि के लिए अलग-अलग Single ही आचार्य द्वारा विकसित की गयी। आयुर्वेद का प्रमुख आदि ग्रन्थ चरक संहिता, पातंजल योगसूत्र तथा व्याकरण महाभाष्य ये तीनों Single ही व्यक्ति या सम्प्रदाय द्वारा लिखे गये हो, ऐसी कुछ लोगों की मान्यता है।

योगेन चित्तस्य पदेन वाचां मलं शरीरस्य च वैद्यकेन। 

योSपाकरोत्त प्रवरं मुनिनां पतंजलिं प्रांजलिरानतोSस्मि।। योगवार्तिक सूत्र 

चरकसंहिता-सूत्रस्थान के First श्लोक की व्याख्या करते समय टीकाकारों की निम्नलिखित उक्ति ध्यान देने योग्य है-

पातंजलमहाभाष्य चरकप्रति संस्कृतै:। 

मनोवाक्कायदोषाणां हर्त्रेSहियतये नम:।। च0सू0 1/1 

आयुर्वेद के मूल ग्रन्थों विशेषत: चरकसंहिता के अध्ययन से प्रतीत होता है कि योगविद्या का सिद्धान्त तथा सारांश आयुर्वेद में First से ही उपलब्ध है। चरकसंहिता के शरीरस्थान में नैष्ठिकी चिकित्सा के प्रसंग में तत्त्वज्ञान तथा तत्त्वानुभूति मूलक योग विद्या तथा ‘प्रज्ञा का सत्याबुद्धि के Reseller में सुस्पष्ट वर्णन है। इन्हीं विषयों का और क्रमबद्ध विकसित वर्णन पतंजलि के योगसूत्र में मिलता है।

इस प्रकार योग और आयुर्वेद की संहिताएॅ भी शारीरिक रोगों के लक्षण And उनकी चिकित्सा के साथ-साथ व्यक्ति के मानसिक तथा आध्यात्मिक भावों का भी विवेचन करती है।

योग का लक्षण करते हुए चरक कहते हैं कि आत्मा, इन्द्रिय, मन तथा Meansों के सन्निकर्ष से सुख-दु:ख की उत्पत्ति होती है। जब मन आत्मा के साथ स्थित होकर निश्चल हो जाता है तब सुख-दु:ख का आरम्भ नहीं होता। तब आत्मा वशी कहलाता है। आत्मा के साथ शरीर भी वश में हो जाता है। उस योग सिद्धि योगी का शरीर इस लोक में रहते हुए भी उसके धर्मां से वशीभूत नहीं होता। यदि योगी शरीर जन्य वेदनाओं को न भोगना चाहे तो नहीं भोगता।

आयुर्वेद में योग के प्रकार 

चरक संहिता में चार प्रकार के योग निर्दिष्ट किये गये हैं-

1. सम्यक् योग अथवा समयोग – 

उचित समय पर मलादि वेग की प्रवृत्ति का होना, सामान्य कष्ट की अनुभूति का होना, क्रमश: वात-पित्त-कफ दोषों का निकलना तथा स्वयं रुक जाना Meansात् दोषों के निरुद्ध होने पर वेगों की समाप्ति होना ये सब वमन के सम्यक् योग के लक्षण होते हैं। दोषों के प्रभाव भेद से यही सम्यक् योग तीक्ष्ण, मृदु, मध्य तीन प्रकार का समझा जाता है।

कालेप्रवृत्तिनतिमहति व्यथा, यथाक्रम दोषहरणं स्वयं वाSवस्थानमितियोग लक्षणानि भवन्ति। योगेन तु दोषप्रमाणविशेषेण तीक्ष्णमृदुमध्यविभागो ज्ञेय:। च0 सं0सू0 15/13 

2. अयोग- 

किसी कारण विशेष से वमन का होना Meansात् वमन न होना, केवल वमन कराने के लिए जो औषधि दी गयी हो, उसी का निकल जाना अथवा वमन के वेगों का बीच मे टूट जाना या रुक जाना अयोग कहलाता है।

 अप्रवृत्ति: कुतश्चित् केवलस्यावाSप्यौषधस्य विभ्रंसो विबन्धो वेगानामयोगलक्षणानि भवन्ति। च0 सं0 सू0 1/13 

3. अतियोग- 

इसमें लारयुक्त लालरक्त की कणिकाओं से युक्त वमन होता है अथवा रक्त भी निकल जाता है तो अतियोग कहलाता है।

योगाधिक्ये तु फेनिलरक्तचन्द्रिको शगमनमित्यति योगल़क्षणानि भवन्ति। च0 सं0 सू0 15/13 

4. हीनयोग या मिथ्यायोग –

दोषयुक्त, सड़ी-गली, अधिक समय तक रखी गयी, जली, सुखी, अधिक आदर््र वस्तु आहार आदि का सेवन अथवा स्नान, वस्त्र आदि का ऋतु के विपरीत सेवन करने से रोग या व्याधि की सम्भावना रहती है। अब यहाँ आयुर्वेद में योग के स्वReseller का वर्णन Reseller जा रहा है। चरक संहिता में अष्टांग योग की भॉति अष्ट स्थानों मे विभाजन कर आयुर्वेद का क्रमिकज्ञान अवश्य कराया गया है। चतुष्पाद वैदिक शैली पणिनि कृत अष्टाध्यायी में भी उपलब्ध होती है, चरकसंहिता में भी इस शैली की छाया प्रतीत होती है। सूत्र स्थान और चिकित्सा स्थान में अधिकतम 30-30 अध्याय, इन्द्रिय, काय व सिद्धि स्थान में 12-12 तथा निदान, विमान And शारीर स्थान में 8-8 अध्यायों का समावेश Reseller गया है। सूत्र स्थान में 4-4 अध्यायों के Seven चतुष्क तथा अन्तिम दो अध्याय संग्रहाध्याय कहे गये हैं। यथा- 1. औषधचतुष्क. 2. स्वास्थ्यचतुष्क. 3. निर्देश चतुष्क. 4. कल्पना चतुष्क. 5. रोगचतुष्क. 6 योजनाचतुष्क. 7. अनुपान चतुष्क तथा 8. अष्टम में संग्रहाध्यायद्वय का समावेश है।

(क) औषध्यस्वस्थनिर्देशकल्पनारोगयोजना:। 

 चतुष्का: शड् क्रमेणोक्ता: सप्तमश्चान्नपानिक:।। 

 (ख) द्वौ चान्त्यौ संग्रहाध्यायाविति त्रिंशकमर्थवत्। 

 श्लोकस्थानं समुद्दिष्टम् तन्त्रस्यास्य शिर: शुभम्।। च0 सू0 30/39-40 

चरक ने मौलिकसिद्धान्त तथा कायचिकित्सा का विशिष्ट प्रतिपादन Reseller है। संसोधन चिकित्सा पर भी विशेष बल दिया है। जिसका वर्णन दो स्वतन्त्र स्थानों (कल्प और सिद्धि) में Reseller गया है। इन्द्रिय स्थान में अरिष्टक्षणों का भी शरीर स्थान में प्रमुख Reseller से दर्शन का प्रतिपादन Reseller गया है तथा शरीर Creation गौण विषय हो गयी है। इससे स्पष्ट होता है कि चरकसंहिता आयुर्वेद का मौलिकसिद्धान्त और कायचिकित्सा का प्रमुख उपजीव्य ग्रन्थ है। 

आयुर्वेद की संहिताएॅ शारीरिक रोगों के लक्षण And उनकी चिकित्सा के साथ-साथ मनो-आध्यात्मिक भावों का भी विवेचन करती है।

आयुर्वेद में described सद्वृत्त And आचाररसायन 

यम-नियम निरुपण – सद्वृत्त – 

 मन, वाणी और शरीर से किसी भी प्राणी को किसी प्रकार का दु:ख न देना अहिंसा कहलाता है। हिंसा तम का द्योतक है, यह अभिघात और प्रतिरोध को उत्पन्न करने वाला होता है। आयुर्वेद में उसे पापकर्म बताकर त्यागने के लिए कहा गया है। इसे सद्वृत्त के Reseller में described Reseller गया है तथा रसायन सेवन से पूर्व भी And आचाररसायन के अन्तर्गत अहिंसा का वर्णन Reseller गया है।

सत्यवादिनमक्रोधं निवृत्तं मद्यमैथुनात्। 

अहिंसकमनायासं प्रशान्तं प्रियवादिनम्।। च0 चि0 1/4/30 

आयुर्वेद में आचार रसायन में First सत्यवादिनम् ही कहा गया है Meansात् सर्वदा सत्य बोलना चाहिए। सद्वृत्त में झूठ न बोलने के लिए कहा गया है।

नानृतं ब्रूयात् ——। च0 सू0 8/19 

अस्तेय का Means होता है- चोरी न करना। जब व्यक्ति में चोरी के अभाव Meansात् चोरी न करने की प्रवृत्ति जागृत हो जाती है तब उसके सामने समस्त रत्न स्वयं प्रकट होने लगते हैं।

अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपास्थानम्। यो0 सू0 2/37 

आचार्य वाग्भट् ने स्तेय को दशविध पापकर्म के अन्तर्गत बताया है और शरीर, मन And वाणी से त्यागने के लिए कहा गया है। जीवन के तीन उपस्तम्भों में ब्रह्मचर्य की गणना की गर्इ है। आचाररसायन में मद्य And मैथुन से निवृत्त रहने के लिए बताया गया है। ज्वरचिकित्सा में आचार्य चरक ने कहा है कि ब्रह्मचर्य के द्वारा ज्वर से छुटकारा मिलता है। “ब्रह्मचर्येण ज्वरात् प्रमुच्यते।” (च0 चि0 3)। योगसूत्र में कहा गया है कि ब्रह्मचर्य पर दृढ़ होने पर वीर्य लाभ And अपूर्व शक्ति का प्रादुर्भाव होता है। “ब्रह्मचर्य प्रतिष्ठायां वीर्यलाभ:।” (यो0 सू0 2/38)। जीवन में सदैव स्वस्थ रहने के लिए मनुष्य को मन, वचन तथा कर्म की पवित्रता आवश्यक होती है। अत: प्रत्येक मनुष्य के लिए स्वस्थ वृत्त के पालन का उपदेश चरक ने Reseller है। चरक का वचन है कि सौम्य बुद्धि, मधुर वचन, सुखकारक कर्म, निर्मल तथा पापरहित बुद्धि, विवेक, तप तथा यम-नियम प्राणायाम आदि योग का सदैव सेवन करने वाले मनुष्य को कोर्इ भी शारीरिक तथा मानसिक रोग से कष्ट नहीं होता।

चिकित्सा चतुष्पाद के सन्दर्भ में आचार्य चरक ने उत्तम वैद्य के चार गुणों में शौच को Single प्रधान गुण माना है। शौच से कायिक, वाचिक And मानसिक शुद्धता का अभिप्राय है। आयुर्वेदशास्त्र में भी दो प्रकार के शुद्धि का वर्णन Reseller गया है। इन्हें योगी जन बाह्य शौच And आन्तरिक शौच के नाम से ग्रहण करते हैं।

आयुर्वेद में बाह्य शुद्धि के लिए अंग प्रक्षालन, स्नान, दन्तधावन कवलग्रह, गण्डुष आदि कर्म बताए गए हैं और आभ्यन्तर शुद्धि सामाजिक And मानसिक स्तर, धी-स्मृति का ज्ञान, व्यवहार आदि से लेते हैं। चरकसूत्र संहिता में शरीर में उपस्थित वात-पित्त-कफ दोषों को संतुलन बनाए रखने तथा शोधन के लिए पंचकर्म (स्नेहन-स्वेदन-वमन- विरेचन-वस्ति) का विवेचन Reseller गया है।

तान्युपस्थित दोषाणां स्नेहस्वेददोपषादनै:। 

पंचकर्मानि कुर्वीत मात्रा कालौ विचारयन्। च0सू0 2/15 

लोल्य को कष्ट उत्पन्न करने वालों में श्रेष्ठ कहा गया है। “लोल्यं क्लेशकराणां श्रेष्ठम्।” (च0 सू0 25)। यह सन्तोषवृत्ति का विपरीतार्थक है। उसे धारणीय वेगों की गणन में भी गिना गया है। योगसूत्र में लोल्य के विपरीत भाव सन्तोष को सर्वोत्तम सुख की संज्ञा दी गर्इ है। “सन्तोषादनुत्तमसुखलाभ:।” (यो0 सू0 2/43)

आयुर्वेद में आचाररसायन के अन्तर्गत कहा गया है कि प्रतिदिन जप, शौच, दान And तपस्या करनी चाहिए तथा देवता, गौ, ब्राह्मण, आचार्य And गुरु की सेवा में रत रहना चाहिए।

जपशौचपरं धीरं दाननित्यं तपस्विन्। 

देव गो ब्राह्मणाचार्यगुरुवृद्धार्चने रतम्।। च0 चि0 1/4/31 

सुसाहित्य And आध्यात्मिक ग्रन्थों का अध्ययन स्वाध्याय है। र्इश्वर की शरणागति से योग साधन में आने वाले विघ्नों का नाश होकर शीघ्र ही समाधि निष्पन्न हो जाती है। “समाधिसिद्धिरीश्वरप्रणिधानात्।” (यो0 सू0 2/45)। आयुर्वेद में मानस दोष चिकित्सा के Reseller में र्इश्वर का ध्यान-पूजा-पाठ बताया गया है। ज्वरादि की चिकित्सा में विष्णुसहस्रनाम जप आदि बताया गया है।

1. सामयिक सद्वृत्त – 

देवता, गौ, वृद्ध, ब्राह्मण, गुरु, सिद्धाचार्यों को नमस्कार , अग्निहोत्र सेवन, पशस्त And अनुभूत औषध सेवन, दोनों समय स्नान, नेत्रादि इन्द्रियों की प्रतिदिन प्रात: सायं शुद्धि, केश, नख, दाढ़ी आदि का समयानुसार संमार्जन, प्रतिदिन धुले हुए सुगन्धित वस्त्रों को धारण करना, सुगन्धित पदार्थों का अनुलेपन, केशों का प्रसाधन, सिर, कान, नाक, पाद आदि में तैल मर्दन, दीनदु:खी की सहायता, निश्चिन्त, निडर, बुद्धिमान्, लज्जाशील, चतुर, धर्मपरायण, आस्तिक, सर्वप्राणियों को बन्धुतुल्य मानना, क्रुद्ध व्यक्तियों को नम्रता से शान्त करना, भयभीतों को आश्वासन देना, दीनों का उद्धार करना, सत्यवादी, शान्त, दूसरों के कठोर वचनों को सहन करने वाला, क्रोध को नाश करने वाला, शान्ति को गुण समझने वाला, राग-द्वेष के मानसिक विकारों का विनाश करने वाला होना चाहिए।

2. व्यहारिक सद्वृत्त –

बुद्धिमान् पुरुषों की सम्मति द्वारा निर्धारित नियमों का त्याग न करे, नियमों का उल्लंघन न करे, रात्रि में या अपरिचित स्थान में भ्रमण न करे, प्रात: And सायं सन्ध्याकाल में भोजन, अध्ययन, शयन या स्त्री सहवास न करे, बालक, वृद्ध, रोगी , मूर्ख, क्लेशयुक्त जीवनयापन करने वालों तथा नपुंसकों के साथ मित्रता न करे, मद्यसेवन, जुआ खेलना, वेश्यागमन आदि की इच्छा न करे, किसी की गुप्तवार्ता की व्याख्या न करें, किसी का अपमान न करे, अभिमान का त्याग करे, कार्यकुशल, उदार, असूयारहित ब्राह्मणों का सम्मान करने वाला होवे, वृद्ध, गुरुजन, गण, King आदि का अपमान या आक्षेप न करे, बन्धुबान्धव, मित्र वर्ग, आपत्तिकाल में सहायक तथा गोपनीय रहस्यों को जानने वाले लोगों को सदा सम्पर्क में रखें।

 न स्त्रियमवजानीत् नातिविश्रम्येत् —– नारहसित्यवायं गच्छेत्। चरकसूत्र 8/22 

आयुर्वेद में described प्राणायाम 

आयुर्वेद में वायु को प्राण संज्ञा प्रदान की गर्इ है।प्राणवायुु का शरीर में प्रविष्ट होना श्वास ओर बाहर निकलना प्रश्वास है। इन दोनों का विच्छेद होना Meansात् श्वास-प्रश्वास क्रिया का बन्द होना प्राणायाम का सामान्य लक्षण है। 

तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेद: प्राणायाम:। यो0 सू0 2/49 

आयुर्वेद में वायु को आयु कहा गया है तथा वायु के द्वारा ही प्राणायाम निमेषादि क्रियाएं सम्पन्न होती हैं।

वायु: प्राणसंज्ञाप्रदानम्, वायु: आयु:, वायु:, प्राणापानौ, प्राणो रक्ष्यश्चतुभ्र्यो हि प्राणां जहाति। च0 सू0 12/2 

वायु प्राणायाम क्रिया का सम्पादन कराता है परन्तु योगोक्त प्राणायाम इस वायु की क्रिया से भिन्न है, वहाँ इस वायु की क्रिया पर नियन्त्रण प्राणायाम कहा गया है। आयुर्वेद में वायु को यन्त्र-तन्त्र को धारण करने वाली कही गयी है। प्राण, उदान, व्यान, समान और अपान को आत्मा का Reseller कहा गया है तथा यही शरीर की All चेष्टाओं को नियन्त्रण And प्रणयन करती है। All इन्द्रिय को अपने विषयों में प्रवृत्त करने वाली भी यही है।

वायुस्तन्त्रयन्त्रधर: प्राणोदानसHuman्यानापानात्मा, प्रवर्तकश्चेष्टानामुच्चावाचनां, नियन्ता, प्रणेता च मनस: सर्वेन्द्रियाणमुद्योजक:। च0 सू0 12/8 

इस प्रकार वायु को शरीर And शरीरावयव को धारण करने वाला, चेष्टा-गति आदि का नियन्त्रण And प्रणयन करने वाला कहा गया है और इसी वायु की गति पर नियन्त्रण प्राणायाम Word से जाना जाता है।

आयुर्वेद में described ध्यान And समाधि 

आयुर्वेद में मानस दोष की चिकित्सा के लिए धारणा, ध्यान And समाधि को Second Reseller में कहा है। आचार्य चरक ने मानस रोगों का चिकित्सासूत्र बताते समय समाधि का History Reseller है। समाधि के First आचार्य ने ज्ञान-विज्ञान-धैर्य And स्मृति का History Reseller है।

मानसो ज्ञानविज्ञानधैर्यस्मृतिसमाधिभि:। च0 सू0 1/58 

Second स्थान पर आचार्य चरक ने कहा है कि मानस रोग उपस्थित होने पर धर्म-Means And काम का ध्यान करना चाहिए तथा आत्मा आदि का ज्ञान Meansात् धारणा करना चाहिए। 

मानसं प्रति भैषज्यं त्रिवर्गस्यान्ववेक्षणम्। 

तद्विधसेवा विज्ञानमात्मादीनां च सर्वश:।। च0 सू0 11/47 

Second आचार्यों ने भी धी-धृति And आत्मा का ज्ञान मानस दोष की चिकित्सा के लिए उत्कृष्ट औषधि बताया है। इस प्रकार आयुर्वेद में धारणा-ध्यान का धी-धृति आत्मा में चित्त को लगाने के Reseller में इनका ज्ञान करने के Reseller में कहा गया है तथा समाधि को उसी Reseller में उसी Word से ग्रहण Reseller है।

आयुर्वेद में कर्म निResellerण 

योग का Single महत्त्वपूर्ण And अनिवार्य अंग कर्म है। महर्षि पतंजलि जी ने योगदर्शन में इसकी पर्याप्त Discussion की है। योगियों के कर्म अशुक्ल-अकृष्ण Meansात् निष्काम शुभ कर्म होते है और अन्यों के सकाम शुभ, अशुभ And मिश्रित तीन प्रकार के होते हैं।

कर्माशुक्लाकृष्णं योगिनास्त्रिविधमितरेषाम्। यो0 सू0 4/7 

चरक शास्त्र के According इहलौकिक और पारलौकिक दोनों प्रकार के कर्मों के तीन भेद हैं जो इस प्रकार है-

  1. सत्प्रत्यय :- जो कर्म ज्ञानपूर्वक चेष्टा द्वारा Reseller जाए वह सत्प्रत्यय कहलाता है, जैसे- हाथ हिलाना, ऊपर-नीचे करना होता है। 
  2. असत्प्रत्यय :- जो कर्म बिना ज्ञानपूर्वक होता है, वह असत्प्रत्यय कर्म कहलाता है। जैसे- नेत्र की पलकों को उठाना, गिराना, शरीर में रोमांच होना, हृदय की धड़कन आदि।
  3. अप्रत्यय :- अचेतन पदार्थों वृक्षादि में ऋतु-According नये पत्तों का निकलना, पुष्पोद्गम, फल बीज की प्राप्ति, पतझड़ आदि। नोदन, गुुरुत्व और वेग ये तीन अप्रत्यय है। पारलौकिक कर्म के तीन भेद हैं- 

बलाबलविशेषोस्ति तयोरपि च कमर्णो। 

दृष्टं हि त्रिविधं कर्म हीनं मध्यममुत्तमम्।। चरकविमान 3/31 

  1. हीनकर्म – अधोगति में ले जाने वाले अशुभ कर्मों को हीन कर्म कहते हैं। यथा- असत्यभाषण, परस्त्री गमन आदि। 
  2. उत्तमकर्म :- उत्तम लोकों में ले जाने वाले शुभ कर्मों को उत्तम कर्म कहते हैं। यथा- सत्यभाषण, परोपकार आदि उत्तम कर्म हैं। 
  3. मध्यमकर्म :- मिश्रित फल वाले कर्म को मध्यम कर्म कहते हैं। यथा- कर्मकाण्ड, अग्निहोत्र, धन लेकर विद्याध्ययन करना, स्वास्थ्य लाभ के लिए औषधि निर्माण करना मध्यम कर्म है क्योंकि यह कर्म करने से देवता संतुष्ट होते हैं। इसलिए उत्तम लोकों की प्राप्ति कराने के कारण अग्निहोत्र भी सुख देता है। 

आयुर्वेद में पंचकर्म वमन, विरेचन, स्वेदन, निरुहण और नस्य हैं। Second प्रकार से तीन कर्म 1.पूर्वकर्म, 2.प्रधानकर्म तथा 3. बाद कर्म हैं। चरक संिहता में विमानस्थान में कर्म का स्वReseller इस प्रकार स्पष्ट Reseller है। 

समवायोSपृथग्भावो भूम्यादीनां गुणैर्मत:। 

सनित्यो यत्र हि द्रव्यं न तत्राभिमतो गुण:।। (चरक संहिता- विमानस्थान 8/50) 

भूमि आदि द्रव्यों का अपने गुणों के साथ अपृथक् भाव ही समवाय है। यह समवाय नित्य है। क्योंकि जहॉ द्रव्य रहता है वहॉ गुण की अनिश्चितता नहीं रहती। Meansात् समवायिकारण Reseller द्रव्य के आश्रित तथा गुणों से सम्बद्ध क्रिया, चेष्टा कर्म कहलाता है। कर्म का लक्षण चरक ने इस प्रकार Reseller है-

द्रव्यों के संयोग और विभाग में कर्म ही कारण है, वह कर्म द्रव्य में आश्रित रहता है। कर्त्तव्य की क्रिया को ही कर्म कहा जाता है। संयोग और विभाग के लिए कर्म के सिवा किसी अन्य साधन की अपेक्षा नहीं रह जाती।

संयोगे च विभागे च कारणं द्रव्यमाश्रितम्। 

कर्त्तव्यस्य क्रिया कर्म कर्म नान्यदपेक्षते।। च0 सं0 सू0 1/52 

आयुर्वेद में प्रमाण 

चरक शास्त्र में चार प्रकार के प्रमाणों का वर्णन मिलता है जो इस प्रकार है-
आप्तोदेश, 2.प्रत्यक्ष, 3. अनुमान, 4.युक्तिप्रमाण।

द्विविधमेव खलु सर्वं सच्चासच्च।

तस्य चतुर्विधा परीक्षा – आप्तोदेश: प्रत्यक्षमनुमानं युक्तिश्चेति। च0 सू0 11/17 

चरक ने पुन: रोग विशेष ज्ञान हेतु आप्तोपदेश, प्रत्यक्ष तथा अनुमान का स्मरण Reseller है।

आयुुर्वेद में पुरूष, आत्मतत्व And र्इश्वर निResellerण 

1. पुरुष निResellerण- 

पुरुष निरुपण –आयुर्वेद में चतुर्विंशति तत्त्वात्मक पुरुष को Human की इकार्इ स्वीकार Reseller गया है ओर इसी को चिकित्साशास्त्र का कर्मक्षेत्र माना गया है। मन, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच इन्द्रियार्थ, अव्यक्त महत् तत्त्व, अहंकार और पंचमहाभूत- ये चौबीस तत्त्व मिलकर पुरुष की सृष्टि करते हैं। इसके अतिरिक्त पुरुष की “ाड्धात्वात्मक (पंचमहाभूत+अव्यक्त ब्रह्म) तथा धात्वात्मक (केवल Single मात्र चैतन्य युक्त Meansात् परमात्म तत्त्व पुरुष) अवधारणा भी संदर्भ भेद से उपस्थित की जाती है।

(क) खादयश्चेततनाशष्ठा धातव: पुरुष: स्मृत:। 

चेतनाधातुरप्येक: स्मृत: पुरुषसंज्ञक:।। 

(ख) पुनश्च धातुभेदेन चतुर्विंशतिक: स्मृत:। 

मनो दशेन्द्रियान्यार्था: प्रकृतिश्चाष्टधातुकि। च0 शा0 1/16-17 

परन्तु आयुर्वेद में सर्वात्मना मान्य पुरुष चतुर्विंशति तत्त्वात्मक राशिपुरुष ही है।

चतुर्विंशतिको ह्येष राशि: पुरुषसंज्ञक:। च0 शा0 1/35 

सांख्यकारिका में भी पुरुष के इसके स्वReseller का प्रतिपादन Reseller गया है।

2. आत्मा 

महर्षि पतंजलि जी के According प्राकृतिक पदार्थों के सम्मिश्रण तथा अज्ञान, अधर्म, विकारादि दोषों से रहित होता हुआ भी चित्त की वृत्तियों के According देखने वाला चेतन पदार्थ ‘जीवात्मा’ है। “दृष्टा दृशिमात्र: शुद्धोSपि प्रत्ययानुपश्य:।” (यो0 सू0 2/20)। आयुर्वेद के प्रकाण्ड मनिषी महिर्र्ष चरक ने आत्मा को अव्यक्त, क्षेत्रज्ञ, शाश्वत, विभु तथा अव्यय बताया है। यह आत्मतत्त्व निर्विकार है, परन्तु चेतन है, नित्य है, दर्शक, क्षेत्रज्ञ And कर्त्ता है। यही साक्षी, चेतन, पुद्गल आदि नामों से जाना जाता है।

निर्विकार: परस्त्वात्मा सत्वभूतगुणेन्द्रियै:। 

चैतन्ये कारणं नित्यो दृष्टा पश्यति ही क्रिया:।। च0 सू0 1/55 

इस प्रकार जीव में परमतत्त्व आत्मा का निवास है जिसका साक्षात्कार योग साधना द्वारा सम्भव है।

आत्मा के स्वReseller का वर्णन करते हुए श्रीमद्भगवद् गीता के Second अध्याय में कहा है कि यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही है। क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है, शरीर के मारे जाने पर भी नहीं मारा जाता।

न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा न भविता वा न भूय:। 

अजो नित्य: शाश्वतोSयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।। श्रीमद्भगवद् गीता 2/20 

यह आत्मा अच्छेद्य है, यह आत्मा अदाह्य, अक्लेद्य और नि:सन्देह अशोष्य है तथा यह आत्मा नित्य सर्वव्यापी, अचल, स्थिर रहने वाला और सनातन है।

अच्छेद्योSयमदाह्योSयमक्ले़द्योSशोष्य एव च।  

नित्य: सर्वगत: स्थाणुरचलोSयं सनातन:। श्रीमद्भगवद् गीता 2/24 

3. र्इश्वर निResellerण 

चरकसंहिता चिकित्साशास्त्र का Single महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसमें र्इश्वर Word का केवल दो स्थानों पर प्रयोग हुआ है, वह भी परमात्मा या जगत् नियन्ता के Reseller में र्इश्वर Word का प्रयोग न होकर King, समर्थ या ऐश्वर्यशाली के Reseller में Reseller गया है।

(क) र्इश्वराणां वसुमतां वमनं सविरेचनम्। च0 सू0 15/23 

(ख) या पुनरीश्वराणां वसुमतां वासकांशात्। च0 सू0 30/29 

चरकसंहिता के अन्य स्थानों में भी ब्रह्म Word का प्रयोग जगत् नियन्ता के Reseller में उपलब्ध होता है। वहाँ भी तुलनात्मक दृष्टि से कहा गया है कि जिस प्रकार लोक में ब्रह्मव्याप्त है उसी प्रकार शरीर में अन्तरात्मा की विभूति विराजमान है।

ब्रह्म अन्तरात्मा – च0 शरीर 5/5 

आयुर्वेद केा अथर्ववेद के उपवेद के Reseller में History Reseller गया है। महर्षि चरक द्वारा प्रार्थना, उपासना, नमन, भगवत्दर्शन तथा प्रभुनाम कीर्तन आदि परमात्मा सम्बन्धी कुछ नियमों के विधान का History करने में र्इश्वर संबन्धी निष्ठा का स्वयमेव प्रदर्शन हो जाता है। वेदों में रोगनिवारण हेतु र्इश्वर प्रार्थना, यज्ञ तथा प्रभु चिंन्तन आदि का निर्देश युक्ति संगत है। इसी कारण आयुर्वेद के ग्रन्थों में र्इश्वराराधना को गम्भीरता के साथ स्वीकार Reseller गया है।

चरक ने अव्यक्त के Reseller में कर्त्ता, विश्वकर्त्ता, ब्रह्मा आदि Word का प्रयोग र्इश्वर वाची Reseller में प्रयोग Reseller है। उसने निर्विकार परमात्मा का भी वर्णन Reseller है। “निर्विकार: परस्त्वात्मा।” (च0 सू0 1/56) चरक का पुरुष Word व्यापक Means वाला प्रतीत होता है, जिसने कुछ सीमा तक र्इश्वर को भी इसमें समेट लिया है। ऐसा प्रतीत होता है कि चरक के समय में र्इश्वर Word का प्रयोग परमेश्वर या जगत् नियन्ता Means में प्रयुक्त नहीं होता था। योगसूत्र में र्इश्वर के स्वReseller का वर्णन करते हुए कहा है कि अविद्यादि पाँचों क्लेश, शुभाशुभमिश्रित विविध कर्म, कर्मों के फल सुख-दु:ख, इनके भोगों के संस्कार-वासनाएँ इन सबके सम्बन्ध से रहित जीवों से भिन्न स्वभाव वाला चेतन विशेष ‘र्इश्वर’ है।

क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्ट: पुरुषविशेष र्इश्वर:। यो0 सू0 1/24 

मोक्ष निResellerण 

आयुर्वेद के प्रमुख आचार्य चरक ने मोक्ष के स्वReseller का वर्णन करते हुए लिखा है कि मन में जब रज और तमोगुण का अभाव होता है तथा बलवान् कर्मों का क्षय हो जाता है तब कर्मजन्य बन्धनों से वियोग हो जाता है। उसे “अपुनर्भव” या ‘मोक्ष’ कहते हैं।

मोक्षोरजस्तमोSभावात् बलवत् कर्मसंक्षयात् वियोग: सर्वयोगैरपुनभ्र्ाूव:। च0 सं0 शा0 1/42 

इसी प्रकार Single अन्य स्थान में इसका वर्णन करते हुए उन्होंने लिखा है कि महात्मापुरुषों की सेवा, यमनियमों का पालन, चान्द्रायण आदि व्रतों का सेवन, आत्मशुद्धि हेतु उपवास, धर्मशास्त्रों का अध्ययन, कामक्रोधादि का त्याग, दुष्टजनों की उपेक्षा, पुनर्जन्म या इस जन्म में किये गये कर्मों का क्षय, आश्रमों से दूर रहकर कर्मफल हेतु कर्मों का त्याग, आत्मा और शरीर के संयोग से भयभीत होना तथा बुद्धि को समाधिस्थ करने का प्रयास आदि से मोक्षप्राप्ति संभव है।

सतामुपासनं सम्यगसतां विवर्जनम्। 

व्रताचार्योपवासौचनियमाश्चपृथग्विधा:।। 

धारणं धर्मशास्त्राणां विज्ञानविजनेरति:। 

विषयेष्वरतिर्मोक्षे व्यवसाय: पराधृति:।। च0 सं0 शा0 1/145-146 

चरक का मत है कि All कारण बाह्यकार्य दु:खहेतु है, ये आत्मा से सम्बद्ध कार्य नहीं है, यह कार्य शून्य है और अनित्य है, आत्मा उदासीन है, अत: वे कार्य आत्मा द्वारा सम्पन्न न होकर प्रकृति के स्वभावश स्वत: होते रहते हैं। सत्यबुद्धि की उत्पत्ति तक यह भ्रम बना रहता है। ‘यह मैं’ ऐसी अहंकार बुद्धि और ‘मेरा’ यह ममत्वबुद्धि प्रकृति (माया) का प्रपंच है, जब इसका नाश नहीं होता, तब तक जीवात्मा बन्धन में फॅसा रहता है। तथा जब आत्मा All तत्त्वों को स्मृति द्वारा जान लेता Meansात् सांसारिक प्रपंचों को उसे यथार्थ ज्ञान हो जाता है।

स्मृति: सत्सम्बन्धाद्यैश्च धृत्यन्ते Reseller जायते।
स्मृत्वास्वाभावं भावानां विस्मरणं दु:खात् प्रमुच्यते।। च0 सं0 शा0 1/147

वही जीवात्मा तत्त्वज्ञान द्वारा कर्मबन्धन तथा क्लेशादि से मुक्ति प्राप्त कर लेता है।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि आयुर्वेद में भी योग तत्त्वों का वणन अवश्य Reseller गया है। आयुर्वेद और योग दोनों का Single ही लक्ष्य मनुष्य के वर्तमान जीवन को सुखमय बनाते हुए उसे मोक्ष की प्राप्ति तक ले जाना है।

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