अम्ल पित्त – कारण, लक्षण And वैकल्पिक चिकित्सा

अम्ल पित्त रोग से आशय –

First् यह जानना आवश्यक है कि अम्ल पित्त है क्या है ? आयुर्वेद में कहा गया है- अम्लं विदग्धं च तत्पित्तं अम्लपित्तम्। जब पित्त कुपित होकर Meansात् विदग्ध होकर अम्ल के समान हो जाता है, तो उसे अम्ल पित्त रोग की संज्ञा दी जाती है। पित्त को अग्नि कहा जाता है।

त्रिदोषों में अति महत्वपूर्ण पित्त जब कुपित हो जाता है और अम्ल सा व्यवहार करने लगता है तो उसे अम्ल पित्त कहते है। पित्त का सम्बन्ध जठराग्नि से है। जठराग्नि के क्षीण हो जाने से पाचक रसो की शक्ति भी क्षीण हो जाती है। पाचक रस भोजन को पूर्णत: पचाने में असमर्थ हो जाते है। भोजन पेट में ही पड़ा- पड़ा सड़ने लगता है। आमाशय की पाचन प्रणाली बार- बार क्रियाशील हो भोजन को पचाने का प्रयास करती है। बार- बार पाचक रसो And अम्ल को स्त्रावित करती है। जिससे शरीर में अम्ल की अधिकता हो जाती है। अम्ल शरीर में अन्य विभिन्न तकलीफों को उत्पन्न करता है। वही अपचा भोजन पड़े- पडे़ सड़ता है और आँतों द्वारा उसी Reseller में रक्त में मिल जाता है। रक्त को दूषित कर सम्पूर्ण शरीर को भी दूषित करता है।

अम्ल पित्त का यदि सम्यक उपचार ना Reseller जाए तो वह आगे चलकर नये रोगों को जन्म देता है। अम्ल पित्त मात्र Single रोग नहीं है। अपितु शरीर में उपस्थित अन्य रोगों का परिणाम है।

सामान्यत: अम्ल पित्त को पाचन तन्त्र का Single रोग माना जाता है। जिसका कारण खान-पान की अनियमितता माना जाता है, परन्तु अम्ल पित्त का मूल कारण मानसिक द्वन्द है। जो व्यक्ति मानसिक Reseller से अत्यधिक परेशान रहते है। अपने प्रियजनों पर भी जिसे विश्वास ना हो, जो हर समय स्वयं को अWindows Hosting समझे। वे ही मुख्यत: इस रोग से ग्रस्त माने जाते है। समय के साथ यदि अम्ल पित्त बढ़ जाये तो यह अल्सर में बदल जाता है। अम्ल अधिक बन जाने पर वह पाचन अंगों पर घाव बना देता है।

अम्ल पित्त रोग के कारण –

अम्ल पित्त रोग मुख्य Reseller से मानसिक उलझनों और खान-पान की अनियमितता के कारण उत्पन्न रोग है जिसके प्रमुख लक्षण है-

  1. भोजन सम्बन्धी आदतें अम्ल पित्त रोग का Single प्रमुख कारण है। कुछ व्यक्तियों में अयुक्ताहार-विहार से यह रोग हो जाता है। जैसे- मछली और दूध को Single साथ मिलाकर खाने से यह रोग हो जाता है।
  2. इसके अतिरिक्त बासी और पित्त बढ़ाने वाले भोजन का सेवन करने से भी अम्ल पित्त रोग होता है। डिब्बाबंद भोजन का अत्यधिक सेवन करना भी अम्ल पित्त रोग को दावत देता है।
  3. भोजन कर तुरन्त सो जाना या भोजन के तुरन्त बाद स्नान करने से भी यह रोग हो जाता है। 
  4. अम्ल पित्त रोग भोजन के बाद अत्यधिक पानी पीने से भी होता है। ठूस-ठूस कर खाने से भी ये रोग हो जाता है। 
  5. यकृत की क्रियाशीलता में कमी होना भी इस रोग का प्रमुख कारण है। 
  6. यदि दूषित And खट्टे-मीठे पदार्थो का अधिक सेवन Reseller जाए तो भी यह रोग हो जाता है। 
  7. मल-मूत्र के वेग को रोककर रखना भी इस रोग की उत्पत्ति का कारण है। 
  8. नशीली वस्तअुों का अत्यधिक सेवन करना भी इस रोग का Single कारण है। 
  9. इस रोग का Single कारण उदर की गर्मी को बढ़ाने वाले पदार्थो का अधिक सेवन करना है। 
  10. अत्यधिक अम्लीय पदार्थो का बार- बार सेवन करने से भी यह रोग हो जाता है। 
  11. कर्इ व्यक्ति अत्यधिक भोजन कर दिन में सो जाने की आदत होती है जिससे यह रोग हो जाता है। 
  12. दाँतों के रोगों के कारण भी अम्लपित्त रोग होने की सम्भावना रहती है। 
  13. भोजन के तुरन्त बाद खूब पानी पीना भी इस रोग की प्रमुख वजह है। 
  14. अम्ल पित्त रोग का ऋतु परिवर्तन और स्थान परिवर्तन से अति गहरा सम्बन्ध है। 
  15. अम्लता उत्पन्न करने वाली औÔधियों के निरन्तर सेवन से भी यह रोग हाता है।

अम्ल पित्त रोग के लक्षण –

  1. अपचन And कब्ज का सदैव बना रहना इस रोग का Single प्रमुख लक्षण है। 
  2. इस रोग के रोगी की आँखें निस्तेज हो जाती है। 
  3. जीभ पर सदैव हल्की सफेद- मैली परत जमी रहती है। 
  4. त्वचा मटमैली And खुरदुरी हो जाती है। 
  5. भोजन ठीक से नहीं पचता और कभी-कभी उल्टी भी होती है। 
  6. यदि उल्टी के साथ हरे-पीले रंग का पित्त भी निकले तो यह अम्ल पित्त का प्रमुख लक्षण समझना चाहिए। 
  7. अम्ल पित्त के रोगी को कड़वी और खट्टी ड़कारे आती है। 
  8. गले और सीने में तीव्र जलन होती है। 
  9. जी का मचलना, मुँह में कसौलापन And उबकार्इयाँ आती है। 
  10. ऐसा व्यक्ति सदैव बेचैन और घबराया हुआ रहता है। 
  11. उदर में भारीपन रहता है।  
  12. अम्ल पित्त के रोगियों का मल निष्कासन के समय गर्म रहता है। 
  13. कभी-कभी पतले दस्त भी होते है। 
  14. मूत्र का रंग लाल-पीलापन लिये हुए होता है। 
  15. रोग की तीव्र अवस्था में शरीर में छोटी- छोटी फुन्सियाँ हो जाती है जिन पर खुजली भी होती है। 
  16. कर्इ बार व्यक्ति आँखों के आगे अन्धेरा छा जाने की भी शिकायत करता है। 
  17. सिर में भारीपन And दर्द बना रहता है। 
  18. शरीर में सुस्ती And थकान बनी रहती है। ऐसा व्यक्ति सदैव विचित्र And अनजाने भय से ग्रसित रहता है। 
  19. कर्इ बार व्यक्ति के सम्पूर्ण शरीर में जलन होती है। रोगी हाथों, पैरों, आँखों और सिर पर जलन की शिकायत करता है। 
  20. अम्ल पित्त के कर्इ रोगियों में रक्तस्त्राव भी हो जाता हैंं। 
  21. अम्ल पित्त रोग यदि लम्बे समय तक बना रहे तो बाल झड़ने और सफेद होने लगते है। 
  22. अम्ल पित्त रोग जीर्ण हो जाने पर गैस्ट्रिक And ड्यूडिनम अल्सर में बदल जाता है।

अम्ल पित्त रोग के प्रकार –

अम्ल पित्त रोग के दो प्रकार है-

  1. उध्र्वग अम्ल पित्त- जिस अम्ल पित्त में खट्टा, हरा, नीला, हल्का लाल, काला, चिपचिपा कड़वा वमन, ड़कार होता है तथा हृदय, गले तथा पेट में जलन और हाथ- पैरों में जलन होती है, उध्र्वग अम्ल पित्त कहलाता है।
  2. अधोग अम्ल पित्त-जिस अम्ल पित्त में गुदा से हरा, पीला, काला, माँस के धोवन के समान रक्तवर्ण अम्ल पित्त निकलता है तथा प्यास और जलन बनी रहती है, अधोग अम्ल पित्त कहलाता है। प्रत्येक रोग के समान ही अम्ल पित्त रोग को भी उसकी अवस्था के आधार पर प्रारम्भिक अम्ल पित्त, मध्यम अम्ल पित्त और तीव्र अम्ल पित्त में भी बाँटा जा सकता है।

अम्ल पित्त रोग की वैकल्पिक चिकित्सा –

अम्ल पित्त के रोगियों के लिए वैकल्पिक उपचार विधियाँ अति उपयोगी है। जिसकी उपचार विधियाँ निम्न है-

1. यौगिक चिकित्सा –

  1. अम्ल की अधिकता इस रोग की प्रमुख वजह है। अत: यौगिक चिकित्सा में ऐसे उपचार देने चाहिए, जो अम्ल की अधिकता को दूर कर सके।
  2. षट्कर्म-षट्कर्मो में वमन इस रोग को दूर करने का अति उत्तम साधन है। आमाशय में असमय And अनिश्चित मात्रा में उठने वाले अम्ल को वमन द्वारा दूर करना चाहिए।
  3. सप्ताह में Single बार लघु-शंखप्रक्षालन द्वारा अपचे सड़े भोजन को दूर करना चाहिए तथा जठर की अति उत्तेजना को शान्त करना चाहिए।
  4. नेति, लौलिकी, व्याघ्र, अग्निसार और कुंजल क्रिया का नियमित Reseller से अभ्यास करना चाहिए।
  5. आसन-ऐसे आसनों का अभ्यास करना चाहिए जिसका प्रत्यक्ष Reseller से उदर पर प्रभाव पड़े। उदर की जठराग्नि की क्षीण शक्ति को विर्द्धत कर सके। इसके लिए शक्ति संचालन के अभ्यास जैसे- उत्तान पादासन, नौकासन, हलासन, सुप्त-पवनमुक्तासन, धनुरासन, भुजंगासन, मत्स्यासन, वज्रासन आदि आसनों का प्रतिदिन अभ्यास करना चाहिए।
  6. प्राणायाम-प्राणायाम मे अम्ल से उत्पन्न गर्मी को शान्त करने हेतु शीत्कारी, शीतली And चन्द्रभेदी प्राणायामों का अभ्यास करना चाहिए। यह हाथों, पैरों, सीने और पेट की जलन को दूर करने में सहायक है।
  7. मुद्रा And बन्ध- रोगी को जालन्धर बन्ध और उड्डियान बन्ध का अभ्यास करना चाहिए। रोगी में प्राण ऊर्जा के स्तर को बनाये रखने हेतु प्राण मुद्रा का अभ्यास लाभकारी है।
  8. ध्यान- रोगी को ध्यान के द्वारा अSafty के भाव और मानसिक उलझनों को दूर करने की कोशिश करनी चाहिए। नाभि प्रदेश पर श्वास की हलचल पर ध्यान करना चाहिए। योगनिद्रा का भी नियमित अभ्यास करना चाहिए।

2. प्राकृतिक चिकित्सा –

प्राकृतिक चिकित्सा में निम्न उपचार क्रम अपनाकर इस रोग से मुक्ति पायी जा सकती है-

  1. इस रोग में उपवास अति लाभ करता है। अत: 2-3 दिन का उपवास करना चाहिए। 
  2. यकृत वाले स्थान पर प्रतिदिन हल्के हाथों से मसाज करनी चाहिए। 
  3. पानी में नींबू मिलाकर बार-बार पीना चाहिए। 
  4. इसके साथ ही नींबू मिले पानी का एनिमा देना चाहिए, जिससे दूषित अन्न कण बाहर निकल जाते है। 
  5. पेट पर 3 मिनट का गर्म सेंक और 2 मिनट का ठण्डा सेंक 3-4 बार देना चाहिए तथा पेट पर हाथों से हल्की मसाज भी देनी चाहिए। 
  6. स्नान से पूर्व सरसो And तिल के तेल से सम्पूर्ण शरीर पर मसाज करनी चाहिए। 
  7. तत्बाद कटि स्नान लिया जा सकता है। 
  8. कटि स्नान के बाद रोगी को थोड़ा टहलना चाहिए। 
  9. रोगी को प्रतिदिन गर्म पाद-स्नान देना चाहिए। 
  10. प्रतिदिन 15-20 मिनट के लिए उदर की ठण्डी मिट्टी की पट्टी देनी चाहिए। 
  11. आहार में ताजे फल, सलाद, उबली सब्जियाँ, मट्ठा, दही लेना चाहिए। 
  12. Ultra site तप्त पीले जल को 50-50 ग्राम की मात्रा में दिन-भर में 5-6 बार पीना चाहिए।

3. चुम्बक चिकित्सा –

  1. इसमें रोगियों की हथेलियों में प्रतिदिन 1 बार शक्तिशाली चुम्बको का प्रयोग करना चाहिए। इसके अतिरिक्त नाभि पर शक्तिशाली चुम्बक का दक्षिणी धुव्र लगाना चाहिए। नाभि पर चुम्बक प्रतिदिन दो बार 15-30 मिनट तक के लिए रखना चाहिए।
  2. माथे पर कमजोर शक्ति के चुम्बक का दक्षिणी धुव्र लगाना चाहिए। यह अधिक से अधिक 15 मिनट ही रखना चाहिए।
  3. अम्लता में हथेलियों पर शक्तिशाली चुम्बक का प्रयोग करना चाहिए। प्रतिदिन चुम्बकीय जल का सेवन भी करना चाहिए। प्रतिदिन दक्षिणी धुव्र द्वारा प्रभावित पानी को भी तीन बार पीना चाहिए।

4. जड़ी – बूटी चिकित्सा-

  1. सौंठ And गिलोय का समभाग चूर्ण शहद के साथ सेवन करना उपयोगी है। 
  2. मिश्री को त्रिफला And कुटकी के समभाग चूर्ण के साथ मिलाकर सेवन करना उपयोगी है। 
  3. हरड़, गुड़ और छोटी पीपल को समान मात्रा में मिलाकर उसकी गोली बना लें तथा सेवन करें। 
  4. भृंगराज And हरीतकी का समभाग चूर्ण गुड़ के साथ मिलाकर सेवन करना उपयोगी है। 
  5. प्र्रतिदिन नाश्ते में Single पका केले को खाये, तत्बाद दूध पी लें। इससे यह रोग दूर हो जाता है।
  6. 50 ग्राम मुनक्का और 25 ग्राम सौंफ को रात में पानी में भिगाकर रख दें। सुबह इसे मसलकर छान ले। इसमें 10 ग्राम मिश्री मिलाकर इसे पी ले। 
  7. करेले के पत्तों या फूल को घी में भूनकर उसका चूर्ण बना ले। इस चूर्ण को दिन में 2-3 बार Single से दो ग्राम की मात्रा में खायें। 
  8. 20 ग्राम आँवला स्वरस में, 1 ग्राम जीरा चूर्ण मिलाकर सुबह-शाम पीयें। 
  9. नीमपत्र रस और अडूसा पत्र रस को 20-20 ग्राम Singleत्र कर इसमें थोड़ा शहद मिलाकर दिन में 2 बार खायें। 
  10. बच के चूर्ण को 2-4 रती की मात्रा में मधु के साथ सेवन करे। 
  11. शक्कर में श्वेत जीरे के साथ धनिये का चूर्ण समान मात्रा में मिलाकर खाये। 
  12. जौ अथवा गेहूँ अथवा चावल के सत्तू को मिश्री में मिलाकर खाना चाहिए। 
  13. नीम की छाल, गिलोय व पटोल का काढ़ा बनाकर उसमें शहद डालकर पीने से लाभ मिलता है। 
  14. सूखे आँवले को रात भर भिगोकर रख दें। सुबह उसमें जीरा और सौंठ मिलाकर बारीक पीस ले। इस मिश्रण को दूध में घोलकर पीयें।
  15. भोजन के बाद दूध के साथ इसबगोल लेते रहने से अम्ल पित्त रोग कभी नहीं होता है।
  16. छोटी या बड़ी हरड़ का 3 ग्राम चूर्ण और 6 ग्राम गुड़ को मिलाकर दिन में 3 बार खायें।
  17. मिश्री को कच्चे नारियल के पानी में मिलाकर सेवन करे।
  18. भोजन के 1 घण्टे बाद आँवले का 5 ग्राम चूर्ण लेना चाहिए।
  19. अनार के रस में जीरा मिलाकर खाने से अम्ल पित्त रोग दूर हो जाता है। 
  20. भुने हुए जीरे व सेंधा नमक को संतरे के रस में डालकर पीये। इससे अम्ल पित्त रोग का शमन हो जाता है। 
  21.  50 ग्राम प्याज को महीन-महीन काट ले। इससे गाय के ताजे दही में मिलाकर खायें। 
  22. अदरक और अनार के 6-6 ग्राम रस को मिलाकर पी लेने से यह रोग दूर हो जाता है। 
  23. मूली के स्वरस में कालीमिर्च का चूर्ण और नमक मिलाकर खाने से अम्ल पित्त रोग में लाभ मिलता है। 
  24. प्रत्येक भोजन के बाद Single लौंग खा लेनी चाहिए। 
  25. ठण्डा दूध पीने से अम्ल पित्त रोग में लाभ मिलता है।

5.-आहार चिकित्सा-

  1. आहार चिकित्सा में पूर्ण प्राकृतिक And ताजे भोज्य पदार्थो को शामिल करे। अत्यधिक तले-भुने, गरिष्ठ और मिर्च-मसाले युक्त आहार कदापि ना ले। 
  2. रोगी को फलों में ताजे फल जैसे- नारंगी, आम, केला, पपीता देना चाहिए। कुछ समय के बाद खूबानी, खरबूज, चीकू, तरबूज, सेब भी दे सकते है। 
  3. सूखे मेवे में अखरोट, खजूर, मुनक्का, किशमिश देना चाहिए। कुछ दिनों तक रोगी की सामथ्र्यानुसार सेब का पानी, नारियल का पानी, खीरा और सफेद पेठे आदि का रस देना चाहिए। 
  4. तोरार्इ, टिण्डा, लौकी, परवल आदि की सब्जियाँ रोगी को खाने को दें। रोग के कम हो जाने पर मेथी, चौलार्इ, बथुआ आदि सब्जियाँ दी जा सकती है। यदि रोगी की आलू खाने की इच्छा हो तो रोगी को आलू उबालकर खाने को दें। ध्यान रखे यदि रोगी आलू ग्रहण कर रहा है तो आलू के साथ अन्य पदार्थ कदापि ना ले। 
  5. अम्ल पित्त रोग में कच्चे नारियल का दूध और गूदा का उपयोग करना चाहिए। 
  6. आँवले और अनार का रस भी अम्ल पित्त रोग में उपयोगी है।

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