लेखांकन की अवधारणा

लेखांकन का सैद्धांतिक आधार

लेखा पुस्तकों को तैयार करने तथा बनाएँ के लिए कुछ नियम And सिद्धांत विकसित किये गय है। इन नियम /सिद्धांत को अवधरणाएँ And परिपाटियाँ वर्गो में बाँटा जा सकता है। लेखांकन अभिलेखों को तैयार करने And रखने के यह आधार है। इसमें हम विभिन्न अवधारणाओं, उनके Means And उनके महत्व को पढेग़े ।

व्यवसायिक लेन-देना का हिसाब रखने का History बहतु पुराना हैं समय-समय पर अलग-अलग देशों में विद्वान लेखापालकों ने लेखांकन के क्षेत्र में अनेक प्रथाओं And परम्पराओं को जन्म दिया है। तथा अपने-अपने ज्ञान, प्रयोगों व अनुभावों के आधार पर लेखांकन सिद्धांतों को प्रतिपादित भी Reseller है। किन्तु ये सिद्धांत विश्वव्यापी नहीं है। यही कारण है कि आज भी व्यावसायक सौदों का हिसाब रखे की विधियों का भिन्नता है  किन्तु फिर भी लेने-देनों का लेखांकन करने के लिए अनेक तर्कसंगत ऐसे विचार है जिन्है। बिना प्रमाण के ही स्वीकार कर लिया गया है।

अत: लेखांकन की मान्यताओं का लेखांकन की अवधारणाओं से तात्पर्य विभिन्न व्यावसायिक सौदा को लिखने हेतु व्यक्त किये गए तर्कसंगत विचारों से है जिन्हें बिना प्रमाण के ही स्वीकार कर लिया गया है।

इ.एल. कोलहर के Wordों में, कोर्इ निश्चित विचार जो क्रमबद्धीकरण का कार्य करता है, अवधारणा कहलाता है।
उपरोक्त विवेचन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि लेखांकन की मान्यताओं या अवधारणों में व्यावसायिक लेन-देनों का लेखांकन करने के लिए उन All स्वीकृत तथ्यों, विचारों तथा कल्पनाओं को शामिल Reseller जाता है जिनसे लेखांकन सिद्धांतों को प्रतिपादित करना संभव हुआ है। लेखांकन की प्रमुख मान्यताओं का वर्णन निम्नानुसार है।

Means And व्यावसायिक इकार्इ अवधारणा

आइए Single उदाहरण लें। भारत में Single मूलभूत नियम हे जिसे All को पालन करना होता है और वह है कि प्रत्येक व्यक्ति को सड़क पर अपने बाँए ओर चलना है अथवा अपने वाहन को चलाना है। इसी प्रकार से कुछ नियम हैं जिनका Single लेखांकार को व्यावसायिक लेने देनों के अभिलेखन And खातों को बनाते समय पालन करना होता है। इन्हें हम लेखांकन अवधारणा कह सकते हें अत: हम कह सकते हैं।

लेखांकन अवधारणा से अभिप्राय उन मूलभूत परिकल्पनाओं And नियमों तथा सिद्धांतों से है जो व्यवसायिक लेने देना And अभिलेखन And खाते तैयार करने का आधार होते है ।

मुख्य उदद्ेश्य लेखांकन अभिलेखों में SingleResellerता And समResellerता बनाए रखना है । यह अवधरणाएँ को वर्षो के अनुभव से विकसित Reseller गया है, इसलिए यह सार्वभौमिक नियम है। नीचे विभिन्न लेखांकन अवधारणाएँ दी गर्इ है। जिनका आगें के अनुभावों में वर्णन Reseller गया है।

  1. * व्यावसायिक इकार्इ अवधारणा
  2. मुद्रा माप अवधारणा
  3. * चालू व्यापार अवधारणा
  4. * लेखांकन अवधि अवधारणा
  5. * लेखांकन लागत अवधारणा
  6. * द्विपक्षीय अवधारणा
  7. * वसूल अवधारणा
  8. * उपार्जन अवधारणा
  9. * मिलान अवधारणा

* व्यावसायिक इकार्इ अवधारणा

इस अवधारणा के According लेखांकन के लिए भी व्यावसायिक इकार्इ And इसका स्वामी दो पृथक स्वतन्त्र इकार्इ। अत: व्यवसाय And इसके स्वामी के व्यक्तिगत लेन-देन अलग-अलग होते हैं। उदाहरण के लिए जब भी स्वामी व्यवसाय में से रोकड़/वस्तुओं को अपने निजी प्रयोग के लिए ले लाता हैं तो इसे व्यवसाय का व्यय नहीं माना जाता। अत: लेखांकन अभिलेखों को व्यावसायिक इकार्इ की दृष्टि से लेखांकन पुस्तकों में लिखा जाता है न कि उस व्यक्ति की दृष्टि से जो उस व्यवसाय का स्वामी है । यह अवधारणा लेखांकन का आधार है। आइए Single उदाहरण लें। माना श्री साहू ने 1,00,000 रू. का माल खरीदा, 20,000 रू. का फर्नीचर खरीदा तथा 30,000 य. का यन्त्र And मशीने खरीदें 10,000 रू. उसके पास रोकड़ है। यह व्यवसाय की परिसंपत्तियाँ है न कि स्वामी की। व्यावसायिक इकार्इ की अवधारणा के According 1,00,000 रू. की राशि व्यवसाय की पूँजी Meansात् व्यवसाय पर स्वामी के प्रति देनदारी मानी जाएगी।

माना वह 5000 रू. नकद तथा 5000 रू. की वस्तुएँ व्यापार से घरेलु खर्चे के लिए ले जाता है। स्वामी द्वारा व्यवसाय में से रोकड़ /माल को ले जाना उसका निजी व्यव है। यह व्यवसाय नहीं है। इसे आहरण कहते हैं। इस प्रकार व्यावसायिक इकार्इ की अवध् ाारणा यह कहती है कि व्यवसाय और उसके स्वामी अपने लिएअथवा अपने परिवार के लिए व्यवसाय में से कोर्इ खर्च करता है। तो इसे व्यवसाय का खर्च नहीं बल्कि स्वामी का खर्च माना जाएगा तथा इसे आहरण के Reseller में दिखाता जाएगा।

महत्व

नीचे दिए गए बिन्दु व्यावसायिक इकार्इ की अवधारणा के महत्व पर प्रकाश डालते है :

  • यह अवधारणा व्यवसाय के लाभ के निर्धारण में सहायक होती है। क्योकि व्यवसाय में केवल खर्चों And आगम का ही लेखा Reseller जाता है तथा All निजी And व्यक्तिगत खर्चों की अनदेखी की जाती है । 
  • यह अवधारणा लेखाकारों पर स्वामी की निजी/व्यक्तिगत लेन देना के अभिलेखन पर रोक लगाती है । 
  • यह व्यापारिक दृष्टि से व्यावसायिक लेन-देनों के लेखा करने And सूचना देने के कार्य को आसान बनाती है।
  • यह लेखांकन, अवधारणों परिपाटियों And सिद्धांतों के लिए आधार का कार्य करती है।

* मुद्रा माप अवधारणा

मुद्रा माप अवधारणा के According व्यावसायिक लेन-देन मुद्रा में होने चाहिए। Meansात् देश की मुद्रा में। हमारे देश में यह लेन-देन Resellerये में होते है। इस प्रकार से मुद्रा माप अवधारणा के According जिन लेन-देनों को मुद्रा के Reseller हमें दर्शाया जा सकता है उन्हीं का लेखा पुस्तकों में लेखांकन Reseller जाता है। उदाहरण के लिए 2,00,000 रू. का माल बेचा, 1,00,000 रू. का कच्चा माल खरीदा, 1,00,000 रू किराए के भुगतान आदि मुद्रा में व्यक्त किय गए है। अत: इन्है। लेखापुस्तकों में लिखा जाएगा। लेकिन जिन लेन-देनों को मुद्रा में नहीं दर्शाया जा सकता उनका लेखापुस्तका ें में नही Reseller जाता। उदाहरण के लिए कर्मचारियों की र्इमानदारी इन्हें मुद्रा में नहीं मापा जा सकता , जबकि इनका भी व्यवसाय के लाभ तथा हानि पर प्रभाव पड़ता है ।

इस अवधारणा का Single पहलू यह भी है कि लेन-देनों का लेखा-जोखा भौतिक इकाइयों में नही बल्कि मुद्रा इकाइयों में रखा जाता है। उदाहरण के लिए माना 2006 के अंत में Single संगठन के पास 10 Singleड़ जमीन पर Single कारखना है, कार्यालय के लिए Single भवन है जिसमें 50 कमरे हैं 50 निजी कम्प्यूटर है, 50 कुर्सी तथ मेजे हैं 100 कि.ग्रामकच्चा माल है। यह All विभिन्न इकाइयों में दर्शाये गए हैं। लेकिन लेखांकन में इनका लेखा-जोखा मुद्रा के Reseller में Meansात् Resellerयों में रखा जाता है। इस उदाहरण में कारखानों की भूमि की लागत 12 करोड़ Resellerए, कार्यालय के भवन की 10 करोड़ रू. कम्प्यूटरों की 10 लाख रू. कार्यालय की कुर्सी तथा मेजों की लागत 2 लाख रू. तथा कच्चे माल की लागत 30 लाख् रू. है। इस प्रकार से सगं ठन की कुल परिसंपत्तियों का मूल्य 22 करोड 2 लाख् Resellerया है। इस प्रकार से लेखा पुस्तकों में कवे ल उन्ही लेन-देन का लेखाकंन Reseller जाता है जिन्है। मदु ा्र में दशार्य ा जा सके वह भी केवल मात्रा में मुदा्र मापन की अवधारणा यह स्पष्ट करती है कि मुद्रा ही Single ऐसा मापदण्ड है जिसमें हम व्यवसाय में खरीदी गर्इ वस्तुओं, सम्पत्तियों, व्यवसाय के देनदारों-लेनदारों, समय समय पर प्राप्त होने वाली आय व किये जाने वाले व्ययों का योग लगा सकते है तथा व्यवसाय के सम्पूर्ण हिसाब को सर्वसाधारण के समझ के According रख सकते है।

महत्व 

मुद्रा माप अवधारणा के महत्व को नीचे दिए गए बिन्दुओ के द्वारा दर्शाया गया :

  1. यह अवधारणा लेखाकारों का मार्गदर्शन करती है कि किसका लेखा Reseller जाए और किसका नहीं । 
  2. यह व्यावसायिक लेन-देनों के अभिलेखन में SingleResellerता लाने में सहायक होता है । 
  3. यदि All व्यावसायिक लेन-देनों को मुद्रा में दर्शाया जाता है तो व्यावसायिक इकार्इ ने जो खाते बनाए हैं उन्हें समझना आसान होगा ।
  4. इससे किसी भी फर्म के दो भिन्न अवधियों के और दो भिन्न फमोर्ं के Single ही अवधि के व्यावसायिक निष्पादन की तुलना करना सरल हो जाता है । 

*  चालू व्यापार अवधारणा 

इस अवधारणा का मानना है कि व्यावसायिक इकार्इ अपनी गतिविधियों को असीमित समय तक चलाती रहेगी। इसका Means है कि प्रत्येक व्यवसाय इकार्इ के जीवन में निरंतरता है, इसलिए जल्दी ही इसका समापन नहीं होगा। यह लेखांकन की Single महत्वपूर्ण अवधारणा है क्योंकि इसी के आधार पर स्थिति description में सम्पत्तियों के मूल्य को दिखाया जाता है। उदाहरण के लिए माना कि Single कम्पनी Single संयन्त्र And मशीनरी 1,00,000 रू. में खरीदती है जिसका जीवन काल 10 वर्ष का है । इस अवधारणा के According कुछ राशि को प्रतिवर्ष खर्च के Reseller में दिखाया जाएगा, जबकि शेष को Single सम्पत्ति के Reseller में। अत: हम कह सकते हैं कि यदि किसी मद पर कोर्इ राशि खर्च की जाती है जिसका व्यवसाय में कर्इ वर्ष तक उपयोग होगा तो इस राशि खर्च की जाती है आगम में से समायोजित करना तर्कसंगत नहीं होगा जिस वर्ष में इसका क्रय Reseller गया है। इसके मूल्य के Single भाग को ही उस वर्ष व्यय के Reseller में दिखाया जाएगा जिस वर्ष इसको क्रय Reseller गया है तथा शेष को सम्पत्ति में दिखाया जाएगा ।

महत्व 

  • इस अवधारणा की सहायता से वित्तीय description तैयार किए जाते हैं । 
  • इस अवधारणा के आधार पर स्थायी सम्पत्तियों पर अवक्षयण लगाया जाता है। 
  • इसस े निवेशकों को बड़ी सहायता मिलती है क्योकि यह उन्हें विश्वास दिलाया है कि उनको उनके निवेश पर आय प्राप्त होती रहेगी । 
  • इस अवधारणा के न होने पर स्थायी सम्पत्तियों की लागत को उनके क्रय के वर्ष में व्यय माना जाएगा ।
  • व्यवसाय का आकलन भविष्य में उसकी लाभ अर्जन क्षमता से Reseller जाता है। 
  • व्यापार के माल और सम्पत्ति तथा हिसाब-किताब के मूल्य के बारे में अनुमाननही लगाता । 

*  लेखांकन अवधि अवधारणा

लेखा पुस्तकों में लेन-देनों का लेखा इस मान्यता पर Reseller जाता है कि उन लेन-देनों के फलस्वReseller Single निश्चित अवधि के लिए लाभ का निर्धारण Reseller जाता है। इसे ही लेखा अवधि अवधारणा कहते हैं। इस अवधारणा के According स्थिति description And लाभ हानि खाता को नियमित Reseller से निश्चित अवधि की समाप्ति पर बनाना चाहिए। यहाँ इसके कर्इ उद्देश्य हैं जैसे कि लाभ का निर्धारण, वित्तीय स्थिति का निर्धारण, कर की गणना आदि। लेखा अवधि अवधारणा में व्यापार के अनिश्चित जीवन को कर्इ भागों में बांट दिया जाता है। इन भागों को लेखांकन काल/लेखा अवधि कहा जाता है। Single वर्ष, छ: महीने, तीन महीने मासिक आदि हो सकते है।। सामान्यता Single लेखा अवधि Single वर्ष की ली जाती है जो कि Single कलेण्डर वर्ष अथवा वित्तीय वर्ष हो सकती है। व्यवसाय की समाप्ति पर ही वह लगार्इ गर्इ पूँजी And व्यवसाय समाप्त होने के समय उपलब्ध पूँजी की तुलना कर व्यवसाय के परिमापों को जान सकता है। अत: लेखांकन की Single निश्चित अवधि होनी चाहिए ना कि उक्त अवधि के परिणामों को प्राप्त Reseller जा सके तथा वित्तीय स्थिति का सही आकलन सम्भव हो ।

वर्ष का प्रारम्भ आदि 1 जनवरी से होता है तथा 31 दिसम्बर को समाप्त होता है तो यह केलेण्डर वर्ष कहलाता है। वर्ष यदि 1 अप्रैल को प्रारम्भ होता है तथा अगले वर्ष में 31 मार्च को समाप्त होता है तो वित्तीय वर्ष कहलाता है ।
लेखा अवधि अवधारणा के According लेखा-पुस्तकों में लेन-देनों का लेखा Single निश्चित अवधि को ध्यान में रखकर Reseller जाता है। अत: इस अवधि में खरीदी बेची गर्इ वस्तुओं का भुगतान, किराया वेतन आदि का लेखा उस अवधि के लिए ही Reseller जाताहै ।

महत्व 

  • यह व्यवसाय की भविष्य की संभावनाओं के पूर्वानुमान में सहायक होता है । 
  • यह व्यवसाय की Single निश्चित समय अवधि की आय पर कर निर्धारण मे सहायक होता है। 
  • यह Single निश्चित अवधि के लिए व्यवसाय के निश्पादन मूल्याँकन And विष्लेशण करने में बैंक, वित्तीय संस्थान, लेनदार आदि की सहायता करता है । 
  • यह व्यावसायिक इकाइयों को अपनी आय को नियमित मध्यान्तर पर लाभांश Reseller में वितरण करने में सहायता प्रदान करता है ।

* लेखांकन लागत अवधारणा 

लेखांकन लागत अवधारणा के According All सम्पत्तियों का लेखा बहियों में उनके क्रय मूल्य पर लेखाकंन Reseller जाता है न कि उनके बाजार मूल्य पर। क्रय मूल्य में उसका अधिग्रहण मूल्य, परिवहन And स्थापित करने की लागत सम्मिलित होती है। इसका Means हुआ कि स्थायी सम्पत्तियाँ जैसे कि भवन, संयंत्र And मशीनें, फर्नीचर आदि को लेखा पुस्तकों में उन मूल्यों पर लिखा जाता है जो कि उनको प्राप्त करने के लिए भुगतान Reseller गया है । उदाहरण के लिए माना लि ़ ने जूता बनाने की Single मशीन 5,00,000 रू में खरीदी, 1000 रू की राशि मशीन को कारखाने तक लाने पर व्यय किए गए। इसके अतिरिक्त 2000 रू इसकी स्थापना पर व्यय किए। कुल राशि जिस पर मशीन का लेखा पुस्तकों में अभिलेखन Reseller जाएगा वह इन All मदों का कुल योग होगा जो कि 503000 रू हैं। यह लागत ऐतिहासिक लागत भी कहलाती है। माना कि अब इसका बाजार मूल्य 90000 रू है तो इसे इस मूल्य पर नहीं दिखाया जाएगा । इसे और स्पष्ट कर सकते हैं कि लागत से अभिप्राय: नर्इ सम्पत्ति के लिए उसकी मूल अथवा उसको प्राप्त करने की लागत है तथा उपयोग की गर्इ सम्पत्तियों की लागत का Means है मूल लागत घटा अवक्षयण । लागत अवधारणा को एतिहासिक लागत अवधारणा भी कहते हैं । यह लागत अवधारणा का प्रभाव है कि यदि व्यावसायिक इकार्इ संपत्ति को प्राप्त करने के लिए कोर्इ भी भुगतान नहीं करती है तो यह मद लेखा बहिमों में नही दर्शाया जायगा । अत: ख्याति को बहियों में तभी दर्शाया जाता हैं, जब व्यवसाय ने इस अदृश्य सम्पत्ति को मूल्य देकर खरीदा हैं ।

 महत्व 

  • इस अवधारणा के According संपत्ति को उसके क्रय मूल्य पर दिखाया जाता है जिसको सहायक प्रलेखों से प्रमाणित Reseller जा सकता है । 
  • इससे स्थायी सम्पत्तियों पर अवक्षयण की गणना करने में सहायता मिलती हैं । 
  • लागत अवधारणा के परिणामस्वReseller सम्पत्ति को लेखा बहियों में नहीं दिखायाजाएगा यदि यवसाय ने इसको पा्रप्त करने के लिए कोर्इ भुगतान नहीं Reseller है। 

* द्विपक्षीय अवधारणा

 इस सिद्धातं के According प्रत्येक व्यावसायिक लेन-देन के दो पक्ष या दो पहलू होते हैं। Meansात् प्रत्येक लेन-देन दो पक्षों को प्रभावित करता है । प्रभावित दो पक्षो या खातों में से Single खाते को डेबिट Reseller जाता है तथा Second खाते को क्रेडिट Reseller जाता है । जैसे – प्रशांत ने 50,000, नकद लगाकर व्यवसाय प्रारम्भ Reseller । इस व्यवहार में Single पक्ष रोकड़ व दूसरा पक्ष रोकड़ लगाने वाले प्रशांत का होगा । Single ओर तो रोकड़ सम्पत्ति है तथा दूसरी ओर यह व्यापार का दायित्व माना जायेगा, क्योंकि रोकड़ व्यापार की नहीं है । अत: व्यवाहार का समीकरण होगा । सम्पित्त् दायित्व व्यवसाय के All लेन-देन इस अवधारणा के आधार पर लिखे जाते है। । लेखाकर्म की दोहरा लेखा प्रणाली का जन्म इसी अवधारणा के कारण हुआ है । इस सिद्धांत के कारण ही स्थिति description के दोनों पक्ष दायित्व और सम्पत्ति हमेशा बराबर होते हैं । सिद्धांतानुसार निम्नांकि लेखांकन समीकरण सत्य सिद्ध होते है ।

सम्पत्तियाँ =दायित्व + पूँजी  या पूँजी = सम्पत्तियाँ – दायित्व

 Assets =Liabilities + Capital = Assets – Liabilities 

 द्विपक्षीय लेखांकन का आधारभूत And मूलभूत सिद्धांत है। यह व्यावसायिक लेन-देनों को लेखांकन पुस्तकों में अभिलेख्ति करने का आधार प्रदान करता है। इस अवध् ाारणा के According व्यवसाय के प्रत्येक लेन-देन का प्रभाव दो स्थानों पर पड़ता है Meansात् यह दो खातों को Single-Second के विपरीत प्रभावित करता है। इसीलिए लेन-देनों का दो स्थानों पर अभिलेखन करना होगा। उदाहरण के लिए मान नकद माल खरीदा। इसके दो पक्ष है :

  1. नकद भुगतान 
  2. माल को प्राप्त करना।

 इन दो पक्षों का अभिलेखन Reseller जाना है। द्विपक्षीय अवधारणा को मूलभूत लेखांकन समीकरण के Reseller में प्रर्दशित Reseller जा सकता है ।

परिसंपत्तियाँ = देयताएँ + पूँजी 

उपर्युक्त लेखा Allकरण के According व्यवसाय की परिसंपत्तियाँ का मूल्य सदैव स्वामी And बाह्य लेनदारों की दावे की राशि के बराबर होता है। यह दावा पूँजी अथवा स्वामित्व पूँजी के नाम से जाना जाता है तथा बाह्य लोगों की दावेदारी को देयताएँ अथवा लेनदारों की पूँजी कहते है। द्विपक्षीय अवधारणा लेन-देन के दो पक्षों की पहचान करने में सहायक होती है जो लेखा पुस्तकों में लने -दने के अभिलेखन में नियमों को पय्र ोग करने मे  सहायक होता है।द्विपक्षीय अवधारणा का प्रभाव है कि प्रत्येक लेन-देन का समपत्तियाँ And देयताओं पर समान प्रभाव इस प्रकार से पड़ता है कि कुल सम्पत्तियाँ सदा कुल देयताओं के बराबर होते है।आइए कुछ और व्यावसायिक लेन-देनों का उसके द्विपक्षीय Reseller में विश्लेषण करे।

1. व्यवसाय के स्वामी ने पूँजी लगार्इ । 

  • अ. रोकड़ की प्राप्ति
  • ब. पूँजी में वृद्धि (स्वामीगत पूँजी)

2. मशीन खरीदी भुगतान चैक से Reseller लेन-देन के दो पक्ष है : 

  • अ. बैंक शेष में कमी
  • ब. मशीन का स्वामित्व

3. नकद माल बेचा दो पक्ष है :

  • अ.रोकड़ प्राप्त हुर्इ
  • ब. ग्राहक को माल की सुपुर्दगी की गर्इ

4. मकान मालिक को किराए का भुगतान Reseller दो पक्ष है : 

  • अ.रोकड़ का भुगतान
  • ब. किराया (व्यय Reseller)

लेन-देन के दोनों पक्षों के पता लग जाने के बाद लेखांकन के नियमों को लागू करना तथा लेखा पुस्तकों में उचित अभिलेखन करना सरल हो जाता है । द्विपक्षीय अवधारणा का Means है कि प्रत्येक लेन-देन का सम्पत्तियाँ And देवताओं पर इस प्रकार से समान प्रभाव पड़ता है कि व्यवसाय की कुल परिसम्पत्तियाँ सदा उसकी देयताओं के बराबर होंगी ।

  • वेतन का भुगतान Reseller
  • किराए का भुगतान Reseller
  • किराया प्राप्त हुआ

* वसूली अवधारणा 

इस अवधारणा के According किसी भी व्यावसायिक लेन-देन से आगम को लेखांकन अभिलेखो में उसके वसूल हो जाने पर ही सम्मिलित Reseller जाना चाहिए । वसूली Word का Means है राशि को प्राप्त करने का कानूनी अधिकार प्राप्त हो जाना माल का विक्रय वसूली है आदेश प्राप्त करना वसूली नहीं हैSecond Wordों में हम कह सकते हैं :आगम की वसूली मानी जाएगी जबकि वस्तुओं अथवा सेवाओं की बिक्री या फिर दोनो पर या तो नकद राशि प्राप्त हो चुकी है अथवा नकद प्राप्ति का अधिकार प्राप्त हो चुका हैं । आइए नीचे दिए गए उदाहरणों का अध्ययन करें :

  1. एन पी  ज्वैलर्स को 500000 रू  के मूल्य के सोने के आभूषणों की आपूर्ति करने का आदेश प्राप्त हुआ। उन्होनें 200000 रू  के मूल्य के आभूषणों की आपूर्ति 31 दिसम्बर, 2005 मे कर दी और शेष की आपूर्ति जनवरी 2006 में की ।
  2. बंसल ने 2006 में 100000 रू  का माल नकद बेचा तथा माल की सुपुर्दगी इसी वर्ष में की । 
  3. अक्षय ने वर्ष समाप्ति 31 दिसम्बर, 2005 में 50000 रू  का माल उधार बेचा । 

माल की सुपुर्दगी 2005 में की गर्इ लेकिन भुगतान मार्च 2006 में प्राप्त हुआ । आइए अब वर्ष समाप्ति 31 दिसम्बर, 2005 के लिए सही आगम वसूली का निर्धारण करने के लिए उपरोक्त उदाहरणों का विश्लेषण करें ।

  1. एन. पी ज्वैलर्स की वर्श 2005 की आगम राशि 200000 रू. है । मात्र आदेश प्राप्तकरना आगम नहीं माना जब तक कि माल की सुपुर्दगी न की गर्इ हो । 
  2. वर्ष 2005 के लिए बंसल की आगम राशि 1,00,000 रू. है क्योंकि माल की वर्ष 2005 में सुपर्दगी की गर्इ । रोकड़ भी उसी वर्ष में प्राप्त हो गर्इ । 
  3. अक्षय का वर्ष 2005 का आगम 50000 रू. है क्योकि उपभोक्ता को वर्ष 2005 में माल की सुपर्दगी की गर्इ । 

उपर्युक्त उदाहरणों में आगम की वसूली उस समय मानी जाएगी जबकि माल ग्राहक को सौप दिया हो ।
वूसली अवधारणा के According आगम की वसूली उस समय मानी जाएगी जबकि वस्तुओं अथवा सेवाओं की वास्तव में सुपुर्दगी की गर्इ है ।
संक्षेप में कह सकते हैं कि वसूली वस्तुओं अथवा सेवाओं के नकद अथवा उधार बेच देने के समय होती है । इसका अभिप्राय: प्राप्य के Reseller में सम्पत्तियों के आन्तरिक प्रवाह से है ।

महत्व 

  1.  यह लेखाकंन सूचना को अधिक तर्क संगत बनाने में सहायक है ।
  2. इसके According वस्तुओं के क्रेता को सुपुर्द करने पर ही अभिलेखन करना चाहिए । 

* उपार्जन अवधारणा 

उपार्जन से अभिप्राय: किसी चीज की देनदारी का बन जाना है विशेष Reseller से वह राशि जिसका भुगतान अथवा प्राप्ति लेखा वर्ष के अन्त में होनी है । इसका Means हुआ कि आगम तभी मानी जाएगी जबकि निश्चित हो जाए भले ही नकद प्राप्ति हुर्इ है या नहीं। इसी प्रकार से व्यय को तभी माना जाएगा जबकि उनकी देयता बन जाए । फिर भले ही उसका भुगतान Reseller गया है अथवा नहीं । दोनों ही लेन-देन का उस लेखा वर्ष में अभिलेखन होगा जिससे वह सम्बन्धित है । इसीलिए उपार्जन अवधारणा नकद की वास्तविक प्राप्ति तथा प्रापित के अधिकार तथा व्ययों के वास्तविक नकद भुगतान तथा भुगतान के दायित्व में अन्तर करता है ।

लेखांकन में उपार्जन अवधारणा अन्तर्गत यह माना जाता है कि आगम की वसूली सेवा या वस्तुओं के विक्रय के समय होगी न कि जब रोकड़ की प्राप्ति होती है । उदाहरण के लिए माना Single फर्म ने 55000 रू. का माल 25 माचर्, 2005 को बेचा लेकिन भुगतान 10 अप्रैल, 2005 तक प्राप्त नहीं हुआ । राशि देय है तथा इसका फर्म को बिक्री की तिथि Meansात् 25 मार्च, 2005 को भुगतान Reseller जाना है । इसको वर्ष समाप्ति 31 मार्च, 2005 की आगम में सम्मिलित Reseller जाना चाहिए । इसी प्रकार व्ययों की पहचान सेवाओं की प्राप्ति के समय की जाती है न कि जब इन सेवाओं का वास्तविक भुगतान Reseller जाता है । उदाहरण के लिए माना फर्म ने 20000 रू. की लागत का माल 29 मार्च, 2005 को प्राप्त Reseller लेकिन 2 अप्रैल, 2005 को Reseller गया । उपार्जन अवधारणा के According व्ययों का अभिलेखन वर्श समाप्ति 31 मार्च 2005 के लिए Reseller जाना चाहिए जबकि 31 मार्च, 2005 तक कोर्इ भुगतान प्राप्त नहीं हुआ है।

यद्यपि सेवाएँ प्राप्त की जा चुकी है तथा जिस व्यक्ति का भुगतान Reseller जाना है उसे लेनदार दिखाया गया है ।
विस्तार से उपार्जन अवधारणा की मांग है कि आगम की पहचान उस समय की जाती है जबकि उसकी वसूली हो चुकी हो और व्ययों की पहचान उस समय की जाती है जबकि वह देय हों तथा उनका भुगतान Reseller जाना हो न कि जब भुगतान प्राप्त Reseller जाता है अथवा भुगतान Reseller जाता है ।

महत्व

इससे Single समय विशेष के वास्तविक व्यय And वास्तविक आय को जान सकते हैं। इससे व्यवसाय के लाभ का निर्धारण करने में सहायता मिलती है ।

* मिलान अवधारणा 

मिलान अवधारणा के According आगम के अर्जन के लिए जो आगम And व्यय कि जाए वह Single ही लेखा वर्ष से सम्बन्धित होने चाहिए। अत: Single बार यदि आगम की प्राप्ति हो गर्इ है तो अगला कदम उसको सम्बन्धित लेखा वर्ष में आबटंन करना है और यह उपार्जन के आधार पर Reseller जा सकता है।

यह सिद्धांत स्पष्ट करता है कि व्यवसाय में अर्जित आगम व किये गए व्ययों को कैसे सम्बन्धित Reseller जाए। आगम व व्ययों का मिलान करते समय First Single निश्चित अवधि की आगम को निर्धारित करना चाहिए इसके बाद इस आगम को प्राप्त करने के लिए किये गए व्ययों को निर्धारित करना चाहिये। Meansात् आगम का व्ययों से मिलान करना चाहिए, न कि व्ययों का आगम से। सिद्धांत के According आगम का व्ययों से मिलान करते समय निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखा जाना आवष्यक है।

लाभ-हानि खाते में जब आगम की किसी मद को आय पक्ष में लिखा जाता है तो उस आगम को प्राप्त करने के लिए किये गए व्यय को भी व्यय में लिखा जाना चाहिए। भले ही व्यय का नगद भुगतान Reseller गया हो या भुगतान न Reseller गया हो। Meansात् अदत्त व्यय (Outstandingexpense) को भी लिखा जाना चाहिए ।

2. जब भुगतान की गर्इ किसी व्यय राशि का कुछ भाग आगामी वर्ष में आगम का सृजन करने वाला हो को ऐसे व्यय भाग को आगामी वर्ष का व्यय माना जाना चाहिए तथा चालू वर्ष में इसको चिट्ठे (Balance sheet) के सम्पत्ति पक्ष में दर्शाना चाहिए।

3. वर्ष के अन्त में जो माल बिकने से रह जाता है, ऐस माल सम्पूर्ण लागत को आगामी वर्ष की लागत मानकर इसे आगामी वर्ष के हिसाब में शामिल Reseller जाना चाहिए ।

4. आगम की ऐसी कोर्इ मद जिसके लिए माल या सेवाओं का हस्तान्तरण आगामी वर्ष में Reseller जाना है तो इस आगम को चालू वर्श की आगम नहीं मानना चाहिए बल्कि इसे चालू वर्ष के दायित्वों में सम्मिलित करना चाहिए ।
आइए Single व्यवसाय के दिसम्बर 2006 के निम्नलिखित लेन-दने ों का अध्ययन कर।ें 

  1. बिक्री : नकद 2000 रू. And उधार 1000 रू. 
  2. वेतन भुगतान 350 रू. Reseller 
  3. कमीश्न का भुगतान 150 रू. Reseller 
  4. ब्याज प्राप्त 50 रू. Reseller 
  5. 140 रू. किराया प्राप्त Reseller जिसमें से 40 रू. 2007 के लिए है ।
  6. भाड़े का भुगतान 20 रू. Reseller 
  7. पोस्टेज 30 रू. 
  8. 200 रू. किराए के दिए जिसमें से 50 रू. 2005 के लिए दिए । 
  9. वर्ष में नकद माल 1500 रू. And उधार 500 रू. खरीदा । 
  10. मशीन पर अवक्षयण 200 रू. लगा । 

महत्व 

  1. यह दिशा प्रदान करता है कि किसी अवधि विशेष के सही लाभ-हानि निर्धारण के लिए व्ययों का आगम से किस प्रकार से मिलान Reseller जाए । 
  2.  यह निवेशक/अंशधारियों को व्यवसाय के सही लाभ अथवा हानि को जानने में सहायक होता है ।

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