व्यक्तित्व का Means, परिभाषा And निर्धारक

प्रत्येक व्यक्ति में कुछ विशेष गुण या विशेषताएं होती है जो Second व्यक्ति में नहीं होतीं। इन्हीं गुणों And विशेषताओं के कारण ही प्रत्येक व्यक्ति Second से भिन्न होता है। व्यक्ति के इन गुणों का संगठन ही व्यक्ति का व्यक्तित्व कहलाता है। व्यक्तित्व का अंग्रेजी Resellerान्तरण पर्सनलिटी (Personality) है जो लेटिन भाषा के पर्सोना (Persona) Word से विकसित हुआ। पर्सोना का Means बाह्य आवरण या मुखौटा (Mask) होता है जिसको पहनकर या धारणकर कलाकार Reseller बदलकर नाटक प्रस्तुत करते है। रोमन में विशेष गुणयुक्त पात्र को ही पर्सोना कहा जाता था। इस Second Means को ही आधुनिक मनोविज्ञान के पर्सोनलिटी में लिया गया है।

जनसाधारण में व्यक्तित्व का Means व्यक्ति के बाह्य Reseller And पहनावे से लिया जाता है, परन्तु मनोविज्ञान में व्यक्तित्व का Means व्यक्ति के Reseller गुणों की समष्ठी से है, Meansात् व्यक्ति के बाह्य आवरण के गुण और आन्तरिक तत्व, दोनों को माना जाता है। दर्शन में व्यक्तित्व को आन्तरिक तत्व ‘जीव’ माना जाता है। व्यक्तित्व Single स्थिर अवस्था न होकर Single गत्यात्मक समष्ठी है जिस पर परिवेश का प्रभाव पड़ता है और इसी कारण से उसमें बदलाव आ सकता है। व्यक्तित्व विशेष लक्षणों का योग न होकर व्यक्ति के व्यवहार का समग्र गुण (Total quality) है। व्यक्ति के आचार-विचार, व्यवहार, क्रियाएं और गतिविधियों में व्यक्ति का व्यक्तित्व झलकता है। व्यक्ति का समस्त व्यवहार उसके वातावरण या परिवेश में समायोजन करने के लिए होता है। 

व्यक्तित्व परिभाषाएं- 

 मनोवैज्ञानिकों, दार्शनिकों And समाज शास्त्रियों ने व्यक्ति के विभिन्न पहलुओं को ध्यान में रखते हुए विभिन्न परिभाषाएं दी हैं। इस तरह व्यक्तित्व की सैकड़ों परिभाषाएं दी जा चुकी हैं। गिलफोर्ड  ने इन परिभाषाओं को चार वर्गों में बांटा है जो निम्नलिखित है-

1. संग्राही परिभाषाएं-

परिभाषाएं-इस वर्ग में वे परिभाषाएं आती है जो व्यक्ति की समस्त अनुक्रियाओं, प्रतिक्रियाओं तथा जैविक गुणों के समुच्चय पर ध्यान देती है। इसमें कैम्फ तथा मार्टन प्रिंस की परिभाषाएं महत्वपूर्ण है। कैम्फ के According ‘‘व्यक्तित्व उन प्राभ्यास संस्थाओं का या उन अभ्यास के Resellerों का समन्वय है जो वातावरण में व्यक्ति के विशेष सन्तुलन को प्रस्तुत करता है।’’  मार्टन प्रिंस की परिभाषा को डा.जायसवाल ने इस प्रकार प्रस्तुत Reseller है ‘‘व्यक्तित्व, व्यक्ति की समस्त जैविक, जन्मजात विन्यास, उद्वेग, रुझान, क्षुधाएं, मूल प्रवृत्तियां तथा अर्जित विन्यासों And प्रवृत्तियों का समूह है।’’

2. समाकलनात्मक परिभाषाएं-

इस वर्ग की परिभाषाओं में व्यक्तित्व के विभिन्न Resellerों, गुणों And तत्वों के योग पर बल दिया जाता है। इन गुणों के समाकलन से व्यक्ति में Single विशेषता उत्पन्न हो जाती है। इस वर्ग की परिभाषाओं में वारेन तथा कारमाइकल (1930) तथा मेकर्डी की परिभाषाएं Historyनीय है। वारेन तथा कारमाइकल के According ‘‘व्यक्ति के विकास की किसी अवस्था पर उसके सम्पूर्ण संगठन को व्यक्तित्व कहते है।’’ मेकर्डी की परिभाषा को डा.जायसवाल इस प्रकार प्रस्तुत Reseller है ‘‘व्यक्तित्व रूचियों का वह समाकलन है जो जीवन के व्यवहार में Single विशेष प्रकार की प्रवृत्ति उत्पन्न करता है।’’

    3. सोपानित परिभाषाएं –

विलियन जैम्स तथा मैस्लो जैसे कुछ मनोवैज्ञानिकों ने व्यक्तित्व के कर्इ सोपान बताए है। इन मनोवैज्ञानिकों ने मुख्य Reseller से व्यक्तित्व के चार सोपान माने है।
  1. भौतिक व्यक्तित्व (Material self)
  2. सामाजिक व्यक्तित्व (Social self) 
  3. आध्यात्मिक व्यक्तित्व (Spiritual self) 
  4. शुद्ध अहम् (Pure Ego) 

    First सोपान के अन्तर्गत व्यक्ति के शरीर की बनावट में आनुवांशिकता से प्राप्त विशेष गुण सम्मिलित है जबकि द्वितीय सोपान में सामाजिक सम्बन्धों और सामाजिक विकास का History होता है। व्यक्तित्व का तीसरा सोपान जैम्स ने आध्यात्मिक व्यक्तित्व माना है। उनके According इस सोपान वाले व्यक्ति की रूचि आध्यात्मिक विषयों में होती है और सामाजिक सम्बन्धों से इसे अधिक महत्व देता है। अब उसके आध्यात्मिक व्यक्तित्व का विकास होने लगता है। Fourth सोपान में व्यक्ति अपने आत्म स्वReseller का पूर्ण ज्ञान कर लेता है और All वस्तुओं में आत्म दर्शन करता है और तब वह अपने व्यक्तित्व के अंतिम सोपान पर पहुंचता है। श्री अरविन्द ने भी व्यक्ति विकास के क्रम में करीब-करीब इसी प्रकार के विचार प्रकट किये है। उन्होंने भौतिक (Physical), भावात्मक या प्राणिक (Vital), बौद्धिक (Mental) चैत्य (Psyche), आध्यात्मिक (Spiritual) तथा अति मानसिक (Supramental) आदि पदों का History Reseller है। 

4. समायोजन आधारित परिभाषाएं-

इस वर्ग की परिभाषाओं में मनोवैज्ञानिक व्यक्ति के समायोजन को महत्वपूर्ण मानते हैं और इसी के आधार पर व्यक्तित्व का अध्ययन तथा व्याख्या की जाती है। इस वर्ग में वे परिभाषाएं आती है जिनमें समायोजन पर विषेश बल दिया जाता है। व्यक्ति में ऐसे गुण जो उसको समायोजित करने में उसकी सहायता करते है, चाहे वे शारीरिक हों या मानसिक इन All का गठन इस प्रकार का होता है कि वे निरन्तर गतिशील रहते हैं। व्यक्ति में इन गुणों की गत्यात्मकता के कारण ही Single विशेष प्रकार की अनन्यता या अपूर्वता (uniqueneSS) पैदा हो जाती है। 

बोरिंग के According ‘‘व्यक्तित्व व्यक्ति का उसके वातावरण के साथ अपूर्व व स्थायी समायोजन है।

व्यक्ति के व्यक्तित्व को सम्पूर्ण Reseller से परिभाषित करने में उपरोक्त परिभाषाएं आंशिक है। किसी व्यक्ति का चाहे कितने ही मानसिक या शारीरिक गुणों का योग हो, कितना ही चिन्तनशील या ज्ञानी हो, परन्तु उसके व्यवहार में गतिशीलता न होने पर उसका व्यवहार और समायोजन अधूरा रह जाता है। आलपोर्ट ने इस बात को ध्यान में रखकर अपने विचारों को व्यक्त करके व्यक्तित्व की परिभाषा को सर्वमान्य बनाने का पूर्ण And सफल प्रयास Reseller। उसकी परिभाषाएं अधिकांश मनोवैज्ञानिकों द्वारा पूर्ण परिभाषा के Reseller में स्वीकार की गर्इ है। अत: इस वर्ग की परिभाषाओं में आलपोर्ट की परिभाषा महत्वपूर्ण है। 

जायसवााल के According आलपोर्ट  ने व्यक्तित्व को इस प्रकार परिभाशित Reseller है ‘‘व्यक्तित्व व्यक्ति की उन मनोशारीरिक पद्धतियों का वह आन्तरिक गत्यात्मक संगठन है जो कि पर्यावरण में उसके अनन्य समायोजनों को निर्धारित करता है।’’ 

व्यक्तित्व अध्ययन के उपागम 

व्यक्तित्व की प्रकृति की व्याख्या करने के लिए वैज्ञानिकों ने विभिन्न उपागमो का प्रतिपादन Reseller है। इन्हें सैद्धान्तिक उपागम भी कहते हैं। इन उपागमों मे से कुछ उपागमों का संक्षिप्त description निम्नांकित है-

1. प्राReseller उपागम –

इस उपागम में व्यक्तित्व के प्राReseller (Type) समानताओं के आधार पर व्यक्तित्व का वर्गीकरण Reseller जाता है। ग्रीक चिकित्सक हिप्पोवे्रफट्स (Hippocrates) ने लोगों को उनके शरीर मे उपस्थित फ्लूइड (fluid) के आधार पर चार प्रResellerों में वर्गीकृत Reseller है- उत्साही (पीला पित्त), श्लैश्मिक (कफ), विवादी (रक्त) तथा कोपशील (काला पित्त)। इन द्रवों की प्रधानता के आधार पर प्रत्येक प्रReseller विशिष्ट व्यवहारपरक विशेषताओं वाला होता है क्रेश्मर And शेल्डन ने शरीरिक गुणों के आधार पर व्यक्तित्व को चार प्रकारों में वर्गीकृत Reseller है-

  1. स्थूलकाय प्रकार (Pyknik Type), 
  2. कृष्काय प्रकार (Asthenic Type), 
  3. पुष्टकाय प्रकार (Athletic Type) और 
  4. विशालकाय प्रकार (Dysplastic Type) 

    स्थूलकाय प्रकार (छोटा कद,भारी And गोलाकार, गर्दन छोटी And मोटी) के व्यक्ति सामाजिक And खुषमिजाज होते हैं। कृश्काय पक्र ार (लम्बा कद And दुबला पतला शरीर) के व्यक्ति चिड़चिड़े, सामाजिक उत्तरदायित्व से दूर रहने वाले और दिवास्वप्न देखने वाले होते हैं। पुष्टकाय प्रकार (सामान्य कद, शरीर सुडौल And संतुलित) के व्यक्ति न ही अधिक चंचल आरै न ही अधिक अवसादग्रस्त रहते हैं। ये हर परिस्थिति में आसानी से समायोजन कर लेते हैं। और विषालकाय प्रकार के व्यक्ति वे होते हैं जिनको इन तीन श्रेणियों में शामिल नहीं Reseller जा सकता है।

    शेल्डन ने 1940 में शारीरिक बनावट और स्वभाव कें आधार पर, गोलाकृतिक (endomorphic), आयताकृतिक (mesomorphic) और लंबाकृतिक (ectomorphic) तीन व्यक्तित्व प्रReseller प्रस्तावित Reseller। गोलाकृतिक प्रReseller वाले व्यक्ति मोटे, मृदुल और गोल होते हैं। स्वभाव से वे लोग शिथिल और सामाजिक होते हैं। आयताकृतिक प्रReseller वाले लोग स्वस्थ And सुगठित शरीर वाले होते हैं। ऐसे व्यक्ति ऊर्जस्वी And साहसी होते हैं। लंबाकृतिक प्रReseller वाले दुबले-पतले, लंबे कद वाले और सुकुमार होते हैं। ऐसे व्यक्ति तीव्र बुद्धि वाले और अंतर्मुखी होते हैं। युंग (Jung) ने 1923 मे अपनी पुस्तक ‘साइकोलाजिकल टाइप्स’ में व्यक्तित्व के दो प्रकार बताये हं-ै बहिर्मुखी (Extravert) And अन्तर्मुखी (Introvert)। बहिमुर्ख् ाी व्यक्ति वे होते हैं जो सामाजिक तथा बहिर्गामी होते हैं। लोगों के साथ में रहते हुए तथा सामाजिक कार्यों को करते हुए वे दबावों का सामना करते हैं। दूसरी तरफ अंतर्मुखी व्यक्ति वे होते हैं जो Singleांतप्रिय होते हैं, दूसरों से दूर रहते हैं, और संकोची होते हैं।

    फ्रीडमैन (Friedman) And रोजेनमैन (Rosenman) ने टाइप ‘ए’ तथा टाइप ‘बी’, लोगों को दो प्रकार के व्यक्तित्वों में वर्गीकृत Reseller है। टाइप ‘ए’ (Type-A) व्यक्तित्व वाले व्यक्ति उच्च अभिप्रेरणा वाले, कम धैर्यवान, हमेशा समय की कमी का अनुभव करने वाले और हमेशा कार्य का बोझ अनुभव करने वाले होते हैं। टाइप ‘ए’ व्यक्तित्व वाले लोगों में कॉरोनरी हृदय रोग (coronary heart disease) के होने की संभावना अधिक होती है। दूसरी तरफ; टाइप ‘बी’ (Type-B) व्यक्तित्व के लोगों में टाइप ‘ए’ व्यक्तित्व की जो विशेषतायें होती हैं उनकी कमी रहती है। मॉरिस (Morris) ने टाइप ‘सी’ (Type-C) व्यक्तित्व को बताया है। इस प्रकार के व्यक्तित्व के लोग धैर्यवान, सहयोग करने वाले और विनयशील होते हैं। इस प्रकार के लोग अपने निषेधात्मक संवेगों ;जैसे-क्रोध का दमन करने वाले और आज्ञापालन करने वाले होते हैं। इन लोगों में कैंसर रोग के होने संभावना अधिक होती है। इस श्रेणी का नवीनतम प्रकार टाइप ‘डी’ (Type-D) व्यक्तित्व सुझाया गया है। इस प्रकार व्यक्तित्व के लोगों में अवसादग्रस्त होने की अधिक संभावना होती है।

    2. शीलगुण उपागम –

    शीलगुण उपागम में व्यक्तित्व की व्याख्या व्यक्ति के शीलगुणों के आधार पर की जाती है। शीलगुण उपागम व्यक्तित्व का निर्माण करने वाले मूल तत्वों की खोज करते हैं। लोगों में मनोवैज्ञानिक गुणों में भिन्नता पायी जाती है। इन्हीं भिन्नताओं को आधार मानकर ऑलपोर्ट और कैटेल(Cattel) ने अपने-अपने सिद्धान्त प्रस्तुत किये। ऑलपोर्ट ने शीलगुणों को तीन वर्गों में वर्गीकृत Reseller- प्रमुख शीलगुण, केंद्रीय शीलगुण तथा गौण शीलगुण । प्रमुख शीलगुण (cardinal traits) सामान्य प्रवृत्तियाँ होती हैं। ये प्रवृत्तियाँ उस लक्ष्य को दर्शाती है जिसके इदर् िगर्द ही व्यक्ति का सम्पूर्ण जीवन व्यतीत होता है जैसे- मदर टेरेसा का सेवाभाव और हिटलर का नाजीवाद इत्यादि। कम व्यापक किंतु फिर भी सामान्य प्रवृत्तियाँ केंद्रीय गुण (central traits) मानी जाती हैं। जैसे- इमानदार, मेहनती आदि। व्यक्ति के सबसे कम सामान्य गुणों के Reseller में गौण शीलगुण (Secondary traits) जाने जाते हैं। जैसे-’मैं सेब पसंद करता हूँ’ अथवा ‘मैं अकेले घूमना पसंद करता हॅं’ आदि।

    कैटेल ने कारक विश्लेषण (Factor analysis) के आधार पर 16 मूल शीलगुण बताये हैं। मूल शीलगुण (source traits) स्थिर होते है और व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं। इसके अलावा अनेक सतही शीलगुण (surface traits) भी होते है जो मूल शीलगुणों की अंत:क्रिया के फल-स्वReseller उत्पन्न होते हैं। उन्होंने शीलगुण व्यक्तित्व मूल्यांकन के लिए Single परीक्षण विकसित Reseller जिसे सोलह व्यक्तित्व कारक प्रश्नावली (Sixteen Personality Factor Questionnaire, 16PF)

    3. मनोविष्लेषणात्मक उपागम –

    इस उपागम का प्रतिपादन सिगमण्ड फ्रायड द्वारा Reseller गया था। फ्रायड Single चिकित्सक थे और उन्होंने अपना सिद्धांत अपने पेशे के दौरान ही विकसित Reseller। उन्होंने Human मन को चेतना के तीन स्तरों (चेतन, पूर्वचेतन और अचेतन) के Reseller में विभक्त Reseller है। First स्तर चेतन (conscious) होता है जिसमें वे चिंतन, भावनाएँ और क्रियाएँ आती हैं जिनकी जानकरी लोगों को रहती है। द्वितीय स्तर पूर्वचेतना (preconscious) होता है जिसमें वे मानसिक क्रियाएँ आती हैं जिनकी जानकारी लोगों को तभी होती है जब वे उन पर ध्यान केंद्रित करते हैं। चेतना का तृतीय स्तर अचेतन (unconscious) होता है जिसमें ऐसी मानसिक क्रियाएँ आती है जिनकी जानकारी लोगों को नहीं होती है।

    फ्रायड ने व्यक्तित्व की संCreation के तीन तत्व बताये है इदम् या इड (id) vga (ego) और पराहम (superego) । इदम असमन्वित सहज प्रकृति है, जो सुख के सिद्धान्त पर आधारित होता है। अहं सुनियोजित होता है, जो वास्तविकता के सिद्धान्त पर आधारित होता है और पराहम पूर्णता को प्रदर्शित करता है, नैतिकता पर आधारित होता है। फ्रायड ने रक्षा युक्तियों (defence mechanisms) के बारे में विस्तार से बताया है।

    फ्रायड ने रक्षा युक्तियाँ वास्तविकता को विकृत कर दुश्चिंता को कम करने का माध्यम हैं। रक्षा युक्तियों में सबसे महत्वपूर्ण दमन (repression) है जिसमें दुश्चिंता उत्पन्न करने वाले व्यवहारों और विचारों को पूरी तरह चेतना के स्तर से विलप्ु त कर देते हैं। दमन करते समय उन्हें इसका ज्ञान भी नहीं रहता है। कुछ और युक्तियाँ रक्षा प्रक्षेपण, प्रतिक्रिया निर्माण और युक्तिकरण, इत्यादि हैं।

    4. नव-फ्रायडवादी उपागम –

    नव-फ्रायडवादीयों में युंग, हॉर्नी, एडलर, एरिक्सन आदि का नाम महत्वपूर्ण है। सबसे पहला नाम युंग का आता है। First यंगु (Jung) ने फ्रायड के साथ ही काम Reseller किंतु बाद में वे फ्रायड से अलग हो गए। युंग के According मनुष्य काम-भावना और आक्रामकता स्थान पर उद्देश्यों और आकांक्षाओं से अधिक निर्देशित होते हैं। उन्होंने व्यक्तित्व का अपना Single सिद्धांत प्रतिपादित Reseller जिसे विश्लेषणात्मक मनोविज्ञान (analytical psychology) कहते हैं।

    फ्रायड के अनुयायियों में युंग के बाद दूसरा नाम हॉर्नी का आता है। हॉर्नी आशावादी दृष्टिकोण को मानने वाले थे। उनके According माता-पिता बच्चे के प्रति यदि उदासीनता, हतोत्साहित करने और अनियमिता का व्यवहार करते हैं तो बच्चे के मन में Single अSafty की भावना विकसित होती है जिसे मूल दुश्ंिचता (basic anxiety) कहते हैं। Singleाकीपन और अSafty की भावना के कारण बच्चों के स्वास्थ्य के विकास में बाधा होती है।

    एडलर (Adler) ने वैयक्तिक मनोविज्ञान (individual psychology) का सिद्धान्त प्रस्तुत Reseller। इसके According व्यक्ति उद्देश्यपूर्ण And लक्ष्योन्मुख व्यवहार करता है। एडलर के According हर Single व्यक्ति हीनता से ग्रसित होता है। Single अच्छे व्यक्तित्व के विकास के लिए इस हीनता की भावना का समाप्त होना अति आवश्यक है। एरिक्सन (Erikson) ने व्यक्तित्व-विकास में तर्कयुक्त चिन्तन And सचेतन अहं पर बल दिया है। उनके According विकास Single जीवन भर चलने वाली प्रक्रिया है और अहं अनन्यता का इस प्रक्रिया में केन्द्रीय स्थान है।

    5. व्यवहारवादी उपागम 

    यह उपागम उद्दीपक-अनुक्रिया के आपसी तालमेल के आधार पर अधिगम और प्रबलन को महत्व देता है। व्यवहारवादियों के According पर्यावरण के प्रति व्यक्ति की अनुक्रिया के आधार पर उसके व्यक्तित्व को अचछी तरह से समझा जा सकता है। व्यवहारवार के प्रमुख सिद्धांतो में पावलव द्वारा दिया गया प्राचीन अनुबंधन, स्किनर द्वारा दिया गया नैमित्तिक अनुबंधन और बंडुरा द्वारा दिया गया सामाजिक अधिगम सिद्धांत मुख्य हैं। व्यवहारवार के इन प्रमुख सिद्धांतों का व्यक्तित्व विकास के विष्लेषण में बहुतायत से प्रयोग हुआ है। प्राचीन And नैमित्तिक अनुबंधन सिद्धांतों में संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं का कोर्इ स्थान नहीं है, जबकि सामाजिक अधिगम सिद्धांत में संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं को प्रमुख स्थान दिया गया है।

    6. Humanतावादी उपागम 

    Humanतावादी उपागम में रोजर्स (Rogers) और मैस्लो (Maslow) के सिद्धांत प्रमुख हैं। रोजर्स ने आत्म (Self) पर अधिक बल दिया है। जिसमें उन्होंने वास्तविक आत्म (real self) और आदर्श आत्म (ideal self) की Discussion की है। प्रत्येक व्यक्ति का Single आदर्श आत्म होता है जिसको प्राप्त करने के लिए वह हमेशा तत्पर रहता है। आदर्श आत्म वह आत्म होता है जो कि Single व्यक्ति बनाना चाहता है। जब वास्तविक आत्म और आदर्श आत्म समान होते हैं तो व्यक्ति प्रसन्न रहता है और दोनों प्रकार के आत्म के बीच विसंगति के कारण प्राय: अप्रसन्नता और असंतोष की भावनाएँ उत्पन्न होती हैं। उनके According प्रत्येक व्यक्ति में अपनी अन्त:षक्तियों को पहचानने और उसी के अनूReseller व्यवहार करने की विशेष क्षमता होती है। व्यक्तित्व विकास के लिए संतुष्टि Single अभिपे्ररक शक्ति का कार्य करती है। लोग अपनी क्षमताओं और प्रतिभाओं को उत्कृष्ट तरीके से अभिव्यक्त करने का प्रयास करते हैं।

    रोजर्स ने शर्तरहित स्वीकारात्मक सम्मान (unconditional positive regard) को अधिक महत्व दिया है। दूसरी तरफ मैस्लो ने व्यक्तिगत वर्धन (personal growth) और आत्म निर्देश (self direction) की क्षमता पर अधिक बल दिया है, और व्यक्तिगत अनुभूतियों को नगण्य माना है। उन्होंने अपने सिद्धांत में आशावदी दृष्टिकोण को महत्व दिया है। जिससे Human की आन्तरिक अंत:शक्तियों को समझने में काफी सुविधा हुर्इ है। मैस्लो ने आत्मसिद्धि (self-actualisation) की प्राप्ति कों मनोवैज्ञानिक Reseller से स्वस्थ लोगों की विशेषता माना है। आत्मसिद्धि वह अवस्था होती है जिसमें लोग अपनी संपूर्ण क्षमताओं को विकसित कर लेते हैं। मैस्लो के आशावादी और सकारात्मक दृष्टिकोण के According Human में प्रेम, हर्ष और सृजनात्मक कार्यों की क्षमता होती है।

    व्यक्तित्व के निर्धारक – 

     व्यक्तित्व को प्रभावित करने में कुछ विशेष तत्वों का हाथ रहता है उन्हें हम व्यक्तित्व के निर्धारक कहते है। इन्हीं तत्वों के प्रभाव से इन्हीं तत्वों के अनुReseller व्यक्तित्व का विकास होता है। कुछ विद्वानों ने व्यक्तित्व के निर्धारण में जैविक आधार को प्रमुख माना है तो कुछ ने पर्यावरण संबंधी आधार को प्रधानता दी है, परन्तु व्यक्तित्व के विकास में इन दोनों निर्धारकों का प्रभाव रहता है। अत: इन दोनों निर्धारकों – 1. जैविक 2. पर्यावरण का अध्ययन आवश्यक है।

    1. जैविक निर्धारक –

     मनोवैज्ञानिकों ने व्यक्तित्व प्रभावित करने वालें चार जैविक निर्धारकों को प्रमुख माना है –

    1. आनुवांशिकता (Heredity)- व्यक्तित्व में कुछ गुण पैतृक या आनुवांशिक होते है। शरीर का रंग, Reseller, शरीर की बनावट गुणों से युक्त हो सकते है। इसका कारण बालक को प्राप्त हुए अपने माता-पिता के पितृय सूत्र क्रोमोसोम्स है। बालक की आनुवांशिकता में केवल उसके माता-पिता की देन ही नहीं होती। बालक की आनुवांशिकता का आधा भाग माता-पिता से, Single चौथार्इ भाग दादा-दादी से, नाना-नानी से व आठवां भाग परदादा-दादी और अन्य पुरखों से प्राप्त होता है। अत: बालक के व्यक्तित्व पर पैतृक गुणों का प्रभाव पड़ता है। उसका रंग-Reseller या शारीरिक गठन के गुण उसके माता या पिता से या उसके दादा या दादी के गुणों के अनुReseller हो सकते है। इसी तरह उसमें बुद्धि And मानसिक क्षमताओं के गुण अपने पूर्वजों के अनुReseller हो सकते है। कर्इ अध्ययनों में यह देखा गया है कि पूर्वजों की मानसिक व्याधियों के गुण उनकी पीढ़ी के किसी भी व्यक्ति में प्रकट हो सकते है। इस तरह हम देखते है कि पैतृक गुणों का व्यक्ति के व्यक्तित्व गठन पर कम या ज्यादा प्रभाव पड़ता है। 
    2. शारीरिक गठन और स्वास्थ्य –शारीरिक गठन के अन्तर्गत व्यक्ति की लम्बार्इ, बनावट, वर्ण, बाल, आंखें व नाक नक्शा आदि अंगों की गणना होती है। ये शारीरिक विशेषताएं इतनी स्पष्ट होती है कि बहुत से लोग इन्हीं से व्यक्ति का बोध करते है। हालांकि यह दृष्टिकोण ठीक नहीं है फिर भी ये विशेषताएं व्यक्तित्व की द्योतक अवश्य है। शरीर से हृष्ट-पुष्ट और सुन्दर व्यक्ति को देखकर लोग प्रभावित होते है। वे उसके शरीर के गठन की प्रशंसा करते है। इससे उस व्यक्ति के मानसिक पहलू पर प्रशंसा का प्रभाव ऐसा पड़ता है कि दूसरों की अपेक्षा वह अपने को श्रेष्ठ समझने लगता है और उसमें आत्मविश्वास और स्वावलम्बन के भाव पैदा हो जाते है। शारीरिक गठन ठीक न होने और शारीरिक अंगहीनता रहने पर व्यक्ति में हीन भावना पैदा हो जाती है। वह अपने आपको गया बीता व हीन समझता है और उसमें आत्मविश्वास की कमी हो सकती है, वह अपने कार्य की सफलता में सदा आशंकित रहता है और अभाव की पूर्ति के लिए वह असामाजिक व्यवहार को अपना सकता है। व्यक्तित्व विकास पर स्वास्थ्य का भी असर पड़ता है। जो व्यक्ति शारीरिक Reseller से स्वस्थ रहता है वह अच्छा सामाजिक जीवन व्यतीत करता है और उसमें सामाजिकता विकसित होती है। स्वस्थ्य व्यक्ति अपने कार्य को सफलता से समय पर पूरा करके अपने उद्देश्य की प्राप्ति कर लेता है। इसके ठीक विपरीत अस्वस्थ्य व्यक्ति का व्यक्तित्व अधूरा रह जाता है। अस्वस्थता के कारण अपने कार्यों को समय पर पूरा नहीं कर पाता जिससे वह अपने लक्ष्य की प्राप्ति समय पर नहीं कर पाता। उसमें कार्य करने की रुचि भी कम रहती है। अस्वस्थ व्यक्ति दूसरों को प्रभावित भी नहीं कर सकता। इस तरह, व्यक्तित्व पर शारीरिक गठन और स्वास्थ्य का काफी प्रभाव पड़ता है।
    3. अंत:स्रावी ग्रंथियां And व्यक्तित्व – व्यक्तितव के विकास में अन्त:स्रावी ग्रंथियों का अत्यधिक प्रभाव पड़ता है। ये प्रत्येक मनुष्य के शरीर में पायी जाती है। इन ग्रंथियों को नलिका विहीन ग्रंथियां भी कहते है। ये बिना नलिकाओं के शरीर में स्राव भेजती हैं। इनके स्राव न्यासर या हार्मोन्स कहलाते है। विभिन्न ग्रंथियां Single या Single से अधिक हार्मोन्स का स्राव करती है। मुख्य Reseller से ये ग्रंथियां 8 होती है। ये है-इन ग्रंथियों के स्राव का व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास पर किस प्रकार प्रभाव पड़ता है, इसका संक्षेप में वर्णन आगे Reseller जा रहा है।
      1. पियूष ग्रंथि- इस ग्रंथि को मास्टर ग्लेण्ड भी कहते है। इससे पिट्यूटिराइन नामक हार्मोन्स उत्पन्न होते है। ये हार्मोन्स शरीर के अन्य ग्रंथियों के हार्मोन्स पर नियंत्रण करते है। इन हार्मोन्स के मुख्य हार्मोन सोमेटोट्रोपिक है। शारीरिक विकास पर इस हार्मोन का बहुत प्रभाव पड़ता है। विकास काल में इस ग्रंथि की क्रिया तीव्र होने पर व्यक्ति की अस्थियां, मांसपेशियां और लम्बार्इ तेजी से बढ़ती है। सामान्य से अधिक मात्रा में इस हार्मोन का स्राव हो तो व्यक्ति की लम्बार्इ असामान्य या दानवाकार हो जाती है। उसकी लम्बार्इ 7 से 9 फीट तक बढ़ जाती है। व्यक्ति के विकास काल में स्राव सामान्य से कम मात्रा में होने से व्यक्ति बौना रह जाता है यद्यपि उसकी बुद्धि सामान्य स्तर की रहती है, परन्तु शारीरिक गठन आकर्षक नहीं होता है। पियूष ग्रंथि के दो भाग होते है-अग्र And पश्च भाग। पश्च भाग रक्त चाप, वृक्क-कार्य And वसा चयापचय को नियंत्रित करता है। जबकि अग्र भाग उपरोक्त शारीरिक विकास को नियंत्रित करता है। 
      2. पीनियल ग्रंथि – यह ग्रंथि मस्तिष्क में स्थित होती है। यह रहस्यमयी ग्रंथि है। पूर्व में इसको आत्मा व शरीर का सेतु माना जाता था। इसके कार्य व स्राव अभी भी रहस्यमयी है फिर भी यह अनुमान लगाया जाता है कि ये शारीरिक वृद्धि और युवावस्था को बनाये रखने में सहायक है। 
      3. गल ग्रंथि – यह ग्रंथि कण्ठ में स्थित होती है। इस ग्रंथि से थायरोक्सिन नामक हार्मोन स्रावित होता है जो शरीर में आयोडीन की मात्रा को नियंत्रित करता है। यदि बाल्यावस्था में आयोडीन की मात्रा की कमी हो तो शरीर व मस्तिष्क का उचित विकास नहीं होता है फलस्वReseller व्यक्ति मन्द बुद्धि और छोटे कद का होता है। उसके शरीर में दुर्बलता होती है। जब यह ग्रंथि अधिक सक्रिय हो जाती है तब व्यक्ति को भूख ज्यादा लगती है। हृदय की धड़कन बढ़ जाती है। थायरोक्सिन का प्रभाव व्यक्ति के भावों व संवेगों पर भी पड़ता है। इसमें स्रावित होने वाली आयोडीन की कमी से गलगण्ड नामक रोग हो जाता है। 
      4. उपगल ग्रंथि –ये ग्रंथियां गल ग्रंथि के पास ही स्थित होती है। ग्रंथियों के स्राव शरीर को शक्तिमान बनाये रखती है। यदि उपगल ग्रंथियों को अलग कर दिया जाए या ग्रंथियों कि अस्वस्थता हो तो इनके स्राव के अभाव के कारण सम्पूर्ण शरीर का अनुपात Destroy हो जाता है और शरीर में ऐंठन तथा मरोड़ पैदा हो जाती है जिससे मनुष्य की मृत्यु तक हो जाती है। 
      5. थाइमस ग्रंथि – यह ग्रंथि सीने के अग्र भाग की गुहा में स्थित होती है। इसके कार्य तथा स्रावों के बारे में निश्चित जानकारी नहीं है फिर भी ऐसा माना जाता है कि युवावस्था में यह यौन ग्रंथियों पर नियंत्रण रखती है तत्पश्चात यह ग्रंथि सिकुड़कर छोटी हो जाती है और अपना कार्य बन्द कर देती है।
      6. अधिवृक्क ग्रंथि  –इस ग्रंथि से अधिवृक्कीय नामक हार्मोन स्रावित होता है। जिसका व्यक्तित्व पर बड़ा प्रभाव पड़ता है। सामान्य मात्रा में यह पुरुषों और स्त्रियों में उनके सामान्य गुणों को बनाये रखता है। अधिक मात्रा में स्रावित होने पर स्त्रियों में पुरुषोचित गुणों को बढ़ा देता है। स्त्रियों में अधिवृक्की हार्मोन की मात्रा बढ़ जाने से स्त्रियों के अंगों की गोलार्इ खत्म हो जाती है और आवाज भारी हो जाती है। यह आपत्ति के समय जीव की शक्तियों का संगठन करता है। इसकी अधिकता से दिल की धड़कनें तेज हो जाती है। रक्तचाप बढ़ जाता है, पसीना आता है तथा आंखों की पुतलियां फैल जाती है। अधिवृक्क के अभाव में एडिसन नामक बिमारी हो जाती है जिससे शरीर में निर्बलता और शिथिलता बढ़ जाती है, चयापचय (डमजंइवसपेउ) की क्रिया मंद पड़ जाती है, सर्दी-गर्मी सहन करने की क्षमता भी कम हो जाती है और चिड़चिड़ापन बढ जाता है। 
      7. अग्न्याशय ग्रंथि –यह ग्रंथि अग्न्याशय रस स्रावित करती है जिसमें इन्सुलीन नामक हार्मोन होता है। यह हार्मोन रक्त में शर्करा को पचाता है जिससे शरीर को ऊर्जा प्राप्त होती है। इसकी कमी या अभाव में शर्करा का पाचन नहीं हो पाता जिससे मधुमेह नामक रोग हो जाता है। इससे व्यक्ति को चक्कर आते है, कार्य करने की क्षमता कम हो जाती है। स्वभाव चिड़चिड़ा हो जाता है और भय की भावना बढ़ जाती है। 
      8. जनन ग्रंथि – जनन ग्रंथियों के स्राव का भी व्यक्ति पर विशेष: प्रभाव पड़ता है। यौन सम्बन्धित रुचि के विकास में यह ग्रंथि सहायक होती है। किशोर अवस्था में ये ग्रंथियां विशेष Reseller से सक्रिय होती है अत: इस आयु में स्त्रियों और पुरुषों में यौन चिन्ह प्रकट होने लगते है। पुरुषों में पुरुषोचित यौन लक्षण दाड़ी, मूंछ, भारी आवाज आदि का विकास होता है। ये परिवर्तन टेस्टोस्टेरोन हार्मोन स्रावित होने के कारण होते है। इसी तरह स्त्रियों में स्त्री सुलभ लक्षण जैसे दुग्ध ग्रंथियों आदि का विकास एस्ट्रोजन हार्मोन के स्राव के कारण होता है। 
    4. शारीरिक रसायन- अन्त:स्रावी ग्रंथियों And शरीर Creation के अतिरिक्त व्यक्तित्व के जैविक कारकों में शारीरिक रसायन का History भी आवश्यक है। प्राचीन काल से मनुष्य के स्वभाव का कारण उसके शरीर के रसायन के तत्वों को भी माना गया है। र्इसा से लगभग 400 वर्ष पूर्व यूनान के प्रसिद्ध चिकित्सक व विचारक हिपोक्रेटीज ने शरीर में पाये जाने वाले रसायनों के आधार पर व्यक्ति के स्वभाव का निResellerण Reseller है। लगभग इस प्रकार का वर्णन आयुर्वेद में भी Reseller है। ये शारीरिक रसायन चार प्रकार के होते है। 
      1. रक्त, 
      2. पित्त, 
      3. कफ और 
      4. तित्लीद्रव्य। 
रक्त की अधिकता से व्यक्ति आदतन आशावादी और उत्साही (fenguine) होता है। पित्त की अधिकता वाले व्यक्ति चिड़चिड़े या कोपशील (Choleric) प्रकृति के होते है। जिस व्यक्ति में कफ अथवा श्लेष्मा की प्रधानता होती है वे शान्त व आलसी होते है। ऐसे व्यक्ति को श्लेष्मिक (Phelgmatic) प्रकृति का कहते है। जिस व्यक्ति में तिल्ली द्रव्य या श्याम पित्त की प्रधानता होती है। ऐसे व्यक्ति उदास (Melancholi) रहने वाले होते है इन्हीं के आधार पर हिप्पोक्रेटीज ने व्यक्तित्व के प्रकारों का वर्णन Reseller है। उपरोक्त जैविक कारकों के अतिरिक्त कुछ अन्य जैविक कारक भी है जो व्यक्तित्व को प्रभावित करते है, ये कारक है-बुद्धि, रंगReseller, लिंग ।

2. पर्यावरण सम्बन्धी निर्धारक –

 इसमें निम्न तीन निर्धारक आते हैं-

1. प्राकृतिक निर्धारक-

मनुष्य प्राकृतिक पर्यावरण में रहता है अत: उसके जीवन तथा व्यक्तित्व पर भौगोलिक परिस्थितियों And जलवायु का प्रभाव पड़ता है। भौगोलिक परिस्थितियों और जलवायु का उसके स्वास्थ्य, शरीर की बनावट तथा मानसिक स्थितियों पर प्रभाव पड़ता है। जैसे ठण्डी जलवायु में रहने वाले व्यक्तियों का रंग गोरा होता है जबकि गर्म जलवायु में रहने वाले व्यक्ति सांवले रंग के होते है। भौगोलिक परिस्थितियों का भी शारीरिक गठन पर प्रभाव पड़ता है जैसे पहाड़ी लोगों का शारीरिक गठन। जिन जगहों पर भूकम्प या प्राकृतिक आपदाएं ज्यादा होती है वहां के लोगों में Safty की भावना कम होती है। यदि व्यक्ति की भौगोलिक परिस्थितियों या जलवायु बदल दी जाये तब उनके व्यक्तित्व में भी परिवर्तन आ जाता है। जैसे ऊष्ण प्रदेश में रहने वाले लोगों को शीत प्रदेश में रखा जाए तो उनके कार्य करने की क्षमताएं घट सकती है और स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ सकता है। इसी तरह ठण्डे प्रदेश में रहने वाले व्यक्तियों को यदि ऊष्ण प्रदेश में रखा जाए तो ऐसा ही प्रभाव उन लोगों पर पड़ता है।

2. सामाजिक निर्धारक-

व्यक्ति सामाजिक प्राणी है और समाज की इकार्इ भी। जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त वह समाज में रहता है। अत: समाज का, समाज की संCreation का और समाज के लोगों का उस पर बहुत प्रभाव पड़ता है। परिवार के लोगों से लेकर समाज के लोगों तक का व्यक्ति के व्यक्तित्व पर किस प्रकार प्रभाव पड़ता है इसकी व्याख्या हम आगे कर रहे है।
(A) परिवार या घर का प्रभाव (Effect of Family or Home)-

(iमाता-पिता का प्रभाव (Effect of Parents)- All मनोवैज्ञानिकों का यह मानना है कि व्यक्तित्व के विकास में घर के परिवेश का बड़ा प्रभाव पड़ता है। परिवार के सदस्यों का भी बालक के व्यक्तित्व के विकास पर प्रभाव पड़ता है। जन्मकाल से ही मनुष्य का व्यक्तित्व का विकास प्रारम्भ हो जाता है। जन्म के समय उसकी माता तक ही उसका परिवार सीमित रहता है। उसे अपने All प्रकार की Needओं की पूर्ति के लिए अपनी माता पर निर्भर रहना पड़ता है। अत: माता के विवेकशील और व्यवहार कुशल रहने पर तथा बालक को सही ढंग से देखभाल करने से सन्तान या बालक का व्यक्तित्व विकास उचित ढंग से होता है। शिवाजी, महाराणा प्रताप जैसे महापुरुषों के व्यक्तित्व विकास का श्रेय उनकी माताओं को है। माता-पिता द्वारा Needओं की उचित पूर्ति होने से बालक आगे चलकर आशावादी, कर्मवीर व परोपकारी बनता है, किन्तु माता-पिता द्वारा Needओं की उचित पूर्ति न करने से तथा पर्याप्त स्नेह न देने से बालक कर्महीन व निराशावादी बन जाता है। बाल्यकाल में तिरस्कृत रहने पर वह हीन भाव And अWindows Hosting भाव से पीड़ित रहता है तथा उसमें आत्म विश्वास की कमी रहती है। आगे चलकर वह परावलम्बी स्वभाव का हो जाता है। वह अपनी छोटी-छोटी Needओं को पूर्ति के लिए भी दूसरों का मुंह देखता रहता है। फलस्वReseller उसके व्यक्तित्व का विकास उचित दिशा में नहीं होता। 

माता-पिता के प्रेम के अभाव का All बालकों पर Single सा प्रभाव पड़ता है क्योंकि इसमें बालक के जन्मजात स्वभाव और प्रवृत्तियों का बड़ा महत्व है। माता-पिता के प्रेम की अवहेलना और ताड़ना से Single बालक दब्बू बन सकता है परन्तु दूसरा बालक दबंग और उद्दंड बन सकता है। आलपोर्ट के According ‘‘वहीं आग जो मक्खन को पिघलाती है अण्डे को कठोर बनाती है।’’ माता-पिता द्वारा बच्चे को झिड़कना और गोद में न लेना भी उसके व्यक्तित्व को प्रभावित करता है।

(ii) घर के अन्य सदस्यों का प्रभाव (Effeect of other members of family)- बालक के व्यक्तित्व पर घर के अन्य सदस्यों का काफी प्रभाव पड़ता है। घर में रहने वाले दादा-दादी या नाना-नानी, ताऊ-तार्इ, चाचा-चाची, मामा-मामी, बड़े भार्इ-बहन या अन्य कोर्इ रिश्तेदार जो उसके परिवार में रहते है, का प्रभाव बालक के व्यक्तित्व के विकास पर पड़ता है। बालक इनके व्यवहारों को देखता है और सीखता है। कालान्तर में ये व्यवहार उसके व्यक्तित्व का Single भाग बन जाता है। परिवार में बड़े लोग बालक के सामने आदर्श के समान होते है बालक उन जैसा बनना चाहता है और वह तादाम्य क्रिया अपनाता है। यदि परिवार में बालक इकलौती सन्तान है तो परिवार में उसे Need से अधिक लाड़-प्यार मिलता है फलस्वReseller वह जिद्दी व शरारती हो जाता है। बच्चे के लिए शरारती होना Single आवश्यक गुण है और इससे आगे चलकर वह निभ्र्ाीक व साहसी बनता है परन्तु Need से अधिक शरारती होने से वह नियंत्रण की सीमा तोड़ देता है और वह समाज विरोधी व्यवहारों को सीखकर उसमें रुचि रखने लगता है। अत: उसका व्यक्तित्व विकास उचित Reseller से नहीं हो पाता। यदि परिवार बड़ा है, संयुक्त परिवार है, उसके सदस्यों के व्यवहारों में समायोजन नहीं है, घर में कलहपूर्ण स्थिति रहती है तो उसका प्रभाव बालक के व्यक्तित्व के विकास पर पड़ेगा और बालक का समायोजन आगे चलकर गड़बड़ा सकता है।

यदि परिवार के सदस्यों में आपराधिक प्रवृत्तियां है तो उसका प्रभाव भी बालक के व्यक्तित्व के विकास पर पड़ता है और बालक में भी आपराधिक प्रवृत्तियां जन्म लेती है और आगे चलकर वह बालक सामाजिक अपराध करने लगता है। इसी प्रकार भग्न परिवार  भी किशोर अपराध का मुख्य कारण है।

(iii) जन्म क्रम का प्रभाव (Effect of birth order)- प्राय: यह बात आमतौर पर स्पष्ट है कि परिवार के छोटे-बड़े, सबसे बड़े या सबसे छोटे आदि विभिन्न क्रम के बालकों के प्रति Single सा व्यवहार नहीं Reseller जाता। प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक एल्फ्रैड एडलर के According परिवार में बालक के जन्मक्रम का उसके व्यक्तित्व पर बड़ा प्रभाव पड़ता है, उसकी शारीरिक स्थिति तथा उसके कार्यशैली पर भी प्रभाव पड़ता है। सबसे छोटा बालक All से लाड़-प्यार पाता है अत: वह दूसरों पर अत्यधिक निर्भर बन जाता है। सबसे बड़ा बालक स्वावलम्बी व निर्दयी बन जाता है, क्योंकि कुछ दिन तक इकलौते रहने के कारण न तो कोर्इ उसकी चीजों में हिस्सा बांटता है और न कोर्इ उसका अधिकार छीनने वाला होता है परन्तु Second बालक के जन्म से First बालक के मन पर बड़ा प्रभाव पड़ता है क्योंकि इससे उसका Singleाधिकार छिन जाता है और कभी-कभी तो उसकी अवहेलना होने लगती है। अत: वह छोटे बालक के प्रति र्इष्र्या करने लगता है और अपना अधिकार बनाये रखने की कोशिश करता है। एडलर के इस कथन में बहुत कुछ सत्यता है कि व्यक्ति अपनी जीवन शैली बहुत कुछ परिवार में प्रारम्भिक जीवन से ही निश्चित कर लेता है, परन्तु यह मानने के निश्चित प्रमाण नहीं है कि बचपन की यह शैली आजीवन अपरिवर्तित रहती है।

(B) विद्यालय का प्रभाव ( Effect of School ) बालक के व्यक्तित्व विकास पर विद्यालय, विद्यालय में होने वाले अध्ययन, विद्यालय के शिक्षक, बालक के सहपाठी तथा विद्यालय की भौगोलिक स्थिति का बहुत प्रभाव पड़ता है। आगे इन कारकों का संक्षिप्त में वर्णन Reseller जा रहा है।

(i) शिक्षा का प्रभाव (Effect of education) – विद्यालय में शिक्षा किस प्रकार की दी जाती है इसका प्रभाव बालक के व्यक्तित्व पर पड़ता है। कर्इ विद्यालयों में धार्मिकता, कट्टर धार्मिकता की शिक्षा दी जाती है इससे बालक के व्यक्तित्व का विकास संकीर्णन और Single निश्चित धर्म की तरफ होता है। इससे बालक Second धर्मों के प्रति र्इष्र्या और द्वेष करने वाला बन जाता है। कर्इ अंग्रेजी भाषा के विद्यालयों में बालक को मातृभाषा या अन्य भाषाएं बोलने नहीं दी जाती, बल्कि केवल अंग्रेजी भाषा ही बोलने को बाध्य Reseller जाता है, ऐसी स्थिति में बालक पर मानसिक दबाव बढ़ जाता है तथा उसमें निराशा And कुण्ठाएं उत्पन्न हो जाती है, जिससे आगे चलकर बालक के व्यक्तित्व विकास में तथा समायोजन में बाधा आती है।

कर्इ विद्यालयों में संतुलित शिक्षा नहीं दी जाती। आज की शिक्षा प्रणाली में यह सबसे बड़ा दोष है। बालक के मानसिक और शारीरिक विकास पर समुचित ध्यान नहीं दिया जाता बल्कि उसके पाठ्यक्रम की कितनी ज्यादा पुस्तकें बढ़ार्इ जाये इस पर ध्यान दिया जाता है। बालक के बस्ते का बोझ, गृह कार्य की मार बालक के सर्वांगीण विकास में बाधक बनती है। और उसके सन्तुलित व्यक्तित्व विकास, सर्वांगीण विकास और मूल्यों के विकास के लिए विद्यालय में संतुलित And नैतिक शिक्षा दी जानी चाहिए। प्रायोगिक आधारित शिक्षा मूल्य-परक शिक्षा, अनेकान्त धार्मिक शिक्षा तथा शारीरिक विकास की शिक्षा भी बालक के व्यक्तित्व के विकास में बहुत सहायक होती है।

(ii) शिक्षकों का प्रभाव (Effect of educators) – जिस प्रकार बालक परिवार में माता या पिता से तादात्म्य कर लेता है उसी प्रकार विद्यालय में भी शिक्षकों से तादात्म्य कर लेता है। यदि शिक्षक का व्यक्तित्व प्रभावशाली हो तो बालक के व्यक्तित्व विकास पर उसका अनुकूल प्रभाव पड़ता है। कर्इ बार बालक शिक्षकों के नकारात्मक गुणों को सीख जाता है। शिक्षकों द्वारा बालकों से बीड़ी, सिगरेट मंगवाना और उनकी उपस्थिति में उनका प्रयोग करना घातक है क्योंकि इसका तादाम्य कर बालक बीड़ी, सिगरेट पीना सीख जाता है। यदि शिक्षकों में अच्छे गुण है तो बालक भी उन गुणों का तादात्म्य कर लेता है, फलस्वReseller बालक के व्यक्तित्व विकास में वे गुण जुड़ जाते है। संक्षेप में आमतौर से बालक के प्रति व्यवहार में प्रकट होने वाले शिक्षक के व्यक्तित्व के All गुण-दोष बालक के व्यक्तित्व विकास पर अच्छा-बुरा प्रभाव डालते है।

(iii) सहपाठियों का प्रभाव (Effcet of peers)- बालक के व्यक्तित्व विकास पर उसके सहपाठियों या विद्यालय के साथियों का बहुत बड़ा प्रभाव पड़ता है। विद्यालय में उसको All प्रकार के साथियों के साथ रहना पड़ता है। कर्इ सहपाठी आयु में उससे भिन्न होते है, कर्इ स्नेह करने वाले तो कर्इ इश्र्यालु विद्याथ्र्ाी भी उसके साथ होते है। इन All साथियों के साथ बालक अपनी विद्यालय की दिनचर्या व्यतीत करता है। छोटी आयु या छोटी कक्षा का विद्याथ्र्ाी बड़े विद्याथ्र्ाी से दबता है। यह दबना आदर्श सूचक भी हो सकता है और भय सूचक भी। अत: इन कारकों का प्रभाव बालक के व्यक्तित्व पर पड़ता है। कर्इ बार बालक अभद्र बालकों के व्यवहारों को सीख जाता है जिसमें गाली-गलौच, विद्यालय से भागने, शिक्षकों तथा माता-पिता के साथ अभद्र व्यवहार करना सीख जाता है, जो उसके व्यक्तित्व के विकास को प्रभावित करता है। सहपाठियों का बालक के व्यक्तित्व पर सबसे अधिक प्रभाव खेल-क्रीड़ा समूह के प्रभाव के Reseller में पड़ता है। विद्यालय में साथ-साथ खेलने वाले या प्रतियोगिता करने वाले विद्याथ्र्ाी अपना-अपना दल बना लेते है और दल के नेतृत्व के लिए नेता का चुनाव भी करते है। इस तरह विभिन्न क्रियाओं का संचालन करने के लिए छात्र दल अलग-अलग ढंग से कार्य करता है जो उसके व्यक्तित्व विकास में सहायक है। अपने साथियों के साथ में प्रतियोगिता और प्रतिद्विन्द्वता रखने से बालक परिश्रम करता है जो उसके व्यक्तित्व विकास में सहायक होता है।

(iv) विद्यालय की भौगोलिक स्थिति (Geographic situation of school) – विद्यालय की भौगोलिक स्थिति कैसी है? इसका प्रभाव भी बालक के व्यक्तित्व के विकास पर पड़ता है। विद्यालय कहां स्थित है तथा विद्यालय भवन की क्या स्थिति है? इसका भी प्रभाव बालक के व्यक्तित्व विकास पर पड़ता है। यदि विद्यालय प्रदूषण जनित जगह पर स्थित है, जहां वायु प्रदूषण तथा ध्वनि प्रदूषण हो तो ऐसे विद्यालय में अध्ययन करने वाले बालकों के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ सकता है। यदि विद्यालय ऐसे मौहल्ले में स्थित है जहां समाज कंटक जैसे शराबी, जुआरी, वेश्यावृत्ति करने वाले और चोरी करने वाले रहते है तो ऐसे क्षेत्र के विद्यालयों में पढ़ने वाले छात्रों के व्यक्तित्व विकास पर बुरा प्रभाव पड़ेगा। इसमें बालक समाज विरोधी व्यवहार सीख सकता है। यदि विद्यालय का भवन स्वच्छ नहीं है और क्षीर्ण-जीर्ण और खण्डहर अवस्था में है तो उस स्थान पर पढ़ने वाले बालकों के व्यक्तित्व के विकास पर बुरा प्रभाव पड़ता है। उनके मन में हर समय भवन के ढह जाने का भय रहता है तथा उनमें अन्य व्याधियां भी उत्पन्न हो सकती है जो उनके व्यक्तित्व विकास में बाधक होते है।

(C) समाज का प्रभाव-(Effect of society) जैसा कि पूर्व में लिखा जा चुका है कि व्यक्ति समाज का अंग और इकार्इ है। अत: समाज का व्यक्तित्व विकास पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। समाज की परम्पराओं रीति-रिवाजों, सामाजिक नियमों का व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास पर व्यापक प्रभाव पड़ता है। व्यक्ति समाज के लोगों के आचरण तथा प्रतिमानों को अपनाता है। जाति, वर्ण तथा व्यवसाय के According प्रत्येक व्यक्ति की समाज में स्थिति अलग-अलग होती है। परिवार की सामाजिक स्थिति से बालकों के व्यक्तित्व पर भी प्रभाव पड़ता है। वर्णभेद जैसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा जातिभेद Meansात् विभिन्न जातियों की सामाजिक स्थितियां भिन्न-भिन्न है। कुछ लोग जाति-प्रथा, पर्दा-प्रथा, बाल विवाह के पक्षधर होते है तो कुछ घोर विरोधी। कुछ लोग समाज के प्रत्येक नियम को तोड़ने को तत्पर दिखार्इ देते है जबकि कुछ लोग उनका कठोरता से पालन करते दिखार्इ पड़ते है। ऊंची जाति के बालकों में बड़प्पन की भावना और नीची जातियों में हीनता की भावना देखी जा सकती है। ऊंचे घरानों के बालकों का व्यक्तित्व संयमित दिखार्इ पड़ता है परन्तु इसके लिए कोर्इ ठोस मनोवैज्ञानिक प्रमाण नहीं है।

बालक के व्यक्तित्व के विकास पर समाज सुधारकों, सामाजिक कार्यकर्त्ताओं तथा समाज विरोधी व्यक्तियों का भी प्रभाव पड़ता है। समाज सुधारक, समाज सेवी तथा सामाजिक कार्यकर्त्ता समाज के कल्याण तथा समाज के उत्थान के लिए कार्य करते है और इनका प्रभाव बालकों के व्यक्तित्व विकास पर पड़ता है। इसी तरह समाज विरोधी कार्य करने वाले और सामाजिक कंटकों का भी प्रभाव व्यक्तित्व विकास पर पड़ता है। समाज विरोधी लोग या समाज कंटक, समाज विरोधी कार्य जैसे जेबकतरी (पॉकिट मार), चोरी, शराबखोरी, वेश्यावृत्ति आदि कार्यों को करते है और इनका प्रभाव बालकों के व्यक्तित्व विकास पर पड़ता है। समाज सेवक समाज के विभिन्न लोगों जैसे वृद्ध, निराश्रित, गरीब की सेवा करते है और समाज की सुCreation करने का प्रयत्न करते है। उनकी परोपकारी सेवा भावनाओं का भी प्रभाव अन्य व्यक्तियों के व्यक्तित्व विकास पर पड़ता है। अन्य व्यक्ति भी परोपकारी भावनाओं को अपनाकर अपने व्यक्तित्व का सकारात्मक विकास कर सकते है।

3. सांस्कृतिक निर्धारक-

व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास पर संस्कृति की अहम् भूमिका है। व्यक्ति का व्यक्तित्व संस्कृति के अनुReseller होता है। जन्मकाल से ही शिशु का पालन-पोषण तथा समाजीकरण उसकी सांस्कृतिक परम्परा के अनुReseller होता है। प्रत्येक संस्कृति में शिशु के सामाजीकरण की Single विधि होती है क्योंकि इसी विधि के द्वारा संस्कृति अपने को Windows Hosting रखती है। संस्कृति और व्यक्तित्व Single Second के पूरक होते है। आज के अधिकतर मनोवैज्ञानिकों का यह विचार है कि संस्कृति और व्यक्तित्व दो भिन्न वस्तुएं नहीं है, बल्कि Single ही वस्तु के दो पहलू है। जिस संस्कृति में बालक का लालन-पालन होता है उसी संस्कृति के गुण उसके व्यक्तित्व में आ जाते है। मैकार्इवर और पेज के Wordों में ‘‘संस्कृति हमारे रहने व सोचने के ढंगों में, दैनिक कार्यकलापों में, कला में, साहित्य में, धर्म में, मनोरंजन और सुखोपभोग में हमारी प्रकृति की अभिव्यक्ति है।’’ इस तरह संस्कृति कार्य करने की शैलियों, मूल्यों, भावात्मक लगावों और बौद्धिक अभियान का क्षेत्र है। Single संस्कृति दूसरी संस्कृति से इन्हीं गुणों के आधार पर भिन्न होती है। अलग- अलग संस्कृतियों के अलग-अलग मूल्य होते है। जैसे-प्राचीन काल में Indian Customer लोग धर्मपरायण और आध्यात्मिक थे। आधुनिक Indian Customer उतने आध्यात्मिक And धार्मिक नहीं है। फिर भी उनमें आध्यात्मिक And धार्मिक मूल्य उच्च स्तर के है। इसका कारण हमारी संस्कृति का प्रभाव ही है। पाश्चात्य लोगों के लिए भौतिक व मानसिक मूल्य उच्च स्तर के है। इसी तरह अलग-अलग संस्कृति के समाजों में रहन-सहन, रीति-रिवाज, धर्म, कला, मूल्यों और परम्पराओं में भिन्नताएं देखी जा सकती है। कुछ संस्कृतियों की जातियों में मनुष्य हत्या को पाप समझते है तो दूसरी ओर नागा संस्कृति में उन लोगों का बड़ा सम्मान होता है जो नर मुण्ड काट के लाते है। जो व्यक्ति जितने ज्यादा नर मुण्ड काटता है उतनी ही समाज में उसकी प्रतिष्ठा बढ़ती है और उतने ही ज्यादा स्त्रियों के विवाह के प्रस्ताव आते है। जबकि दूसरी संस्कृति में नर हत्या करने वाले के साथ समाज के लोग अपनी बेटी का विवाह नहीं करना चाहते। Indian Customer संस्कृति के कुछ परिवारों में तलाक देना अच्छा नहीं माना जाता परन्तु कुछ जनजातियों में जो स्त्री जितने अधिक तलाक पाती है, उसकी प्रतिष्ठा उतनी ही अधिक बढ़ती है। पाश्चात्य देशों में तलाक को बुरा नहीं माना जाता है। कुछ समाज में कुंआरी कन्या के गर्भवती हो जाने पर कोर्इ उससे विवाह नहीं करता, परन्तु कुछ जन-जातियों में विवाह से First संतानोत्पत्ति करना लड़की के विवाह में सहायक होता है। इस तरह की सांस्कृतिक भिन्नताएं बालक के व्यक्तित्व के विकास पर प्रभाव डालती है। बालक का जिस संस्कृति के परिवेश में विकास होता है उस संस्कृति के खान-पान, रहन-सहन, रीति-रिवाज, धर्म, परम्परा, विवाह, सामाजिक समारोह और सामाजिक संस्थाओं आदि का प्रभाव पड़ता है। जनजातियों की संस्कृति में भी भारी भिन्नताएं है। जैसे नागा लोग सिरों के शिकारी  है तथा भील लड़ाकू है और संथाल सीधे-साधे है। इस तरह सांस्कृतिक परिवेश में सामाजिक Creation, सामाजिक स्थितियां, सामाजिक कार्य तथा नियम संहिताएं मनुष्य के व्यक्तित्व को प्रभावित करते है

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