सामाजिक विकास क्या है ?

मनुष्य Single सामाजिक प्राणी है। वह दूसरो के व्यवहार को प्रभावित करता है और उसके व्यवहार से प्रभावित होता है। इस परस्पर व्यवहार के व्यवस्थापन पर ही सामाजिक संबंध निर्भर होते हैं। इस परस्पर व्यवहार में रूचियों, अभिवश्त्तियों, आदतों आदि का बड़ा महत्व है। सामाजिक विकास में इन All का विकास सम्मिलित है। जब सामाजिक परिस्थिति इस प्रकार की होती है कि शिशु समाज के नियमों तथा नैतिक मानक को आसानी से सीख लेता है तो यह कहा जाता है कि उसमें सामाजिक विकास हुआ है। सोरेन्सन ने सामाजिक विकास को परिभाषित करते हुये लिखा है – “सामाजिक वश्द्धि और विकास से तात्पर्य अपने साथ और दूसरों के साथ भली प्रकार चलने की बढ़ती हुर्इ योग्यता से है।” हरलाक (1978) के According – “सामाजिक विकास से तात्पर्य सामाजिक प्रत्याशाओं के अनुकूल व्यवहार करने की क्षमता सीखने से होता हैं।” इस प्रकार सामाजिक विकास में लगातार दूसरों के साथ अनुकूलन करने की योग्यता में वश्द्धि पर जोर दिया जाता है। मनुष्य की सामाजिक परिस्थितियां बदलती रहती है। इस परिवर्तन के साथ व्यक्ति को बराबर बदलना होता है।

शैशवावस्था में सामाजिक विकास

यद्यपि जन्म के समय शिशु सामाजिक नही होता है परन्तु Second व्यक्तियों के First सम्पर्क से ही उसके समाजीकरण की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है, जो निरन्तर आजीवन चलती रहती है। सामाजिक विकास ढंग से होता है-

  1. First माह – First माह मे शिशु किसी व्यक्ति या वस्तु को देखकर कोर्इ स्पष्ट प्रतिक्रिया नही करता हैं वह तीव्र प्रकाश तथा ध्वनि के प्रति प्रतिक्रिया अवश्य करता है। वह रोने तथा नेत्रों को घुमाने की प्रतिक्रियायें करता है।
  2. द्वितीय माह – Second माह में शिशु आवाजों को पहचानने लगता है जब कोर्इ व्यक्ति शिशु से बातें करता है या ताली बजाता है या खिलौना दिखाता है तो वह सिर घुमाता है तथा दूसरों को देखकर मुस्कराता है।
  3. तृतीय माह – Third माह में शिशु माँ को पहचानने लगता है। जब कोर्इ व्यक्ति शिशु से बातें करता है या ताली बजाता है तो वह रोते-रोते चुप हो जाता है।
  4. चतुर्थ माह – Fourth माह में शिशु पास आने वाले व्यक्ति को देखकर हँसता है, मुस्कराता है। जब कोर्इ व्यक्ति उसके साथ खेलता है तो वह हँसता है तथा अकेला रह जाने पर रोने लगता है।
  5. पंचम माह – पाँचवे माह में शिशु प्रेम व क्रोध के व्यवहार में अंतर समझने लगता है। Second व्यक्ति के हँसने पर वह भी हँसता है तथा डाँटने पर सहम जाता है।
  6. Sixth माह – Sixth माह में शिशु परिचित-अपरिचित में अंतर करने लगता है। वह अपरिचितों से डरता है। बड़ों के प्रति आक्रामक व्यवहार करता है। वह बड़ों के बाल, कपड़े, चश्मा आदि खींचने लगता है।
  7. नवम् माह – नवे माह में शिशु दूसरों के Wordों, हावभाव तथा कार्यों का अनुकरण करने का प्रयास करने लगता है।
  8. First वर्ष – Single वर्ष की आयु में शिशु घर के सदस्यों से हिल-मिल जाता है। बड़ों के मना करने पर मान जाता है तथा अपरिचितों के प्रति भय तथा नापसन्दगी दर्शाता है।
  9. द्वितीय वर्ष – दो वर्ष की आयु में शिशु घर के सदस्यों को उनके कार्यों में सहयोग देने लगता है। इस प्रकार वह परिवार का Single सक्रिय सदस्य बन जाता है।
  10. तृतीय वर्ष – तीन वर्ष की आयु में शिशु अन्य बालकों के साथ खेलने लगता है। खिलौनों के आदान प्रदान तथा परस्पर सहयोग के द्वारा वह अन्य बालकों से सामाजिक संबन्ध बनाता है।
  11. चतुर्थ वर्ष – Fourth वर्ष के दौरान शिशु प्राय: नर्सरी विद्यालयों में जाने लगता है जहां वह नए-नए सामाजिक संबन्ध बनाता है तथा नए सामाजिक वातावरण में स्वयं को समायोजन करता है।
  12. पंचम वर्ष – पांचवे वर्ष में शिशु में नैतिकता की भावना का विकास होने लगता है। वह जिस समूह का सदस्य होता है उसके द्वारा स्वीकृत प्रतिमानों के अनुReseller अपने को बनाने का प्रयास करता है।
  13. Sixth वर्ष – Sixth वर्ष में शिशु प्राथमिक विद्यालय में जाने लगता है जहां उसकी औपचारिक शिक्षा का आरम्भ हो जाता है तथा नवीन परिस्थितियों से अनुकूलन करता है।

शैशावस्था में बालक के द्वारा किए जाने वाले उपरोक्त described सामाजिक व्यवहारों के अवलोकन से स्पष्ट है कि जन्म के उपरान्त धीरे-धीरे बालक का समाजीकरण होता है। जन्म के समय शिशु सामाजिक प्राणी नही होता है। परन्तु अन्य व्यक्तियों के सम्पर्क में आने पर उसके समाजीकरण की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है।

किशोरावस्था मे सामाजिक विकास

किशोरावस्था में किशोर And किशोरियों का सामाजिक परिवेश अत्यन्त विस्तृत हो जाता है। शारीरिक, मानसिक तथा संवेगात्मक परिवर्तनों के साथ -साथ उनके सामाजिक व्यवहार में भी परिवर्तन आना स्वाभाविक है। किशोरावस्था में होने वाले अनुभवों तथा बदलते सामाजिक संबंधो के फलस्वReseller किशोर – किशोरियां नए ढंग के सामाजिक वातावरण में समायोजित करने का प्रयास करते है। किशोरावस्था में सामाजिक विकास का स्वReseller होता है –

  1. समूहों का निर्माण – किशोरावस्था में किशोर And किशोरियां अपने-अपने समूहों का निर्माण कर लेते है। परन्तु यह समूह बाल्यावस्था के समूहों की तरह अस्थायी नही होते है। इन समूहों का मुख्य उद्देश्य मनोरंजन करना होता है। पर्यटन, नृत्य, संगीत पिकनिक आदि के लिए समूहों का निर्माण Reseller जाता है। किशोर-किशोरियों के समूह प्राय: अलग-अलग होते है।
  2. मैत्री भावना का विकास – किशोरावस्था में मैत्रीभाव विकसित हो जाता है। प्रारम्भ में किशोर-किशोरो से तथा किशोरियां-किशोरियों से मित्रता करती है। परन्तु उत्तर किशोरावस्था में किशोरियों की रूचि किशोरो से तथा किशोरों की रूचि किशोरियों से मित्रता करने की भी हो जाती है। वे अपनी सर्वोत्तम वेशभूषा, श्रश्ंगार व सजधज के साथ Single Second के समक्ष उपस्थित होते है।
  3. समूह के प्रति भक्ति – किशोरों में अपने समूह के प्रति अत्यधिक भक्तिभाव होता है। समूह के All सदस्यों के आचार-विचार, वेशभूषा, तौर-तरीके आदि लगभग Single ही जैसे होते है। किशोर अपने समूह के द्वारा स्वीकृत बातों को आदर्श मानता है तथा उनका अनुकरण करने का प्रयास करता है।
  4. सामाजिक गुणों का विकास – समूह के सदस्य होने के कारण किशोर-किशोरियों में उत्साह, सहानुभूति, सहयोग, सद्भावना, नेतृत्व आदि सामाजिक गुणों का विकास होने लगता है। उनकी इच्छा समूह में विशिष्ट स्थान प्राप्त करने की होती है, जिसके लिए वे विभिन्न सामाजिक गुणों का विकास करते है।
  5. सामाजिक परिपक्वता की भावना का विकास – किशोरावस्था में बालक-बालिकाओं में वयस्क व्यक्तियों की भांति व्यवहार करने की इच्छा प्रबल हो जाती है। वे अपने कार्यो तथा व्यवहारों के द्वारा समाज में सम्मान प्राप्त करना चाहते हैं। स्वयं को सामाजिक दश्ष्टि से परिपक्व मान कर वे समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का निर्वाह करने का प्रयास करते है।
  6. विद्रोह की भावना – किशोरावस्था में किशोर किशोरियों मे अपने माता-पिता तथा अन्य परिवारीजनों से संघर्ष अथवा मतभेद करने की प्रवृत्ति आ जाती है। यदि माता-पिता उनकी स्वतंत्रता का हनन करके उनके जीवन को अपने आदर्शो के अनुReseller ढ़ालने का प्रयत्न करते है अथवा उनके समक्ष नैतिक आदर्शो का उदाहरण देकर उनका अनुकरण करने पर बल देते है तो किशोर-किशोरियां विद्रोह कर देते है।
  7. व्यवसाय चयन में रूचि – किशोरावस्था के दौरान किशोरों की व्यावसायिक रूचियां विकसित होने लगती है। वे अपने भावी व्यवसाय का चुनाव करने के लिये सदैव चिन्तित से रहते है। प्राय: किशोर अधिक सामाजिक प्रतिष्ठा तथा अधिकार सम्पन्न व्यवसायों को अपनाना चाहते है।
  8. बर्हिमुखी प्रवृत्ति – किशोरावस्था में बर्हिमुखी प्रवृत्ति का विकास होता है। किशोर-किशोरियों को अपने समूह के क्रियाकलापों तथा विभिन्न सामाजिक क्रियाओं में भाग के अवसर मिलते है, जिसके फलस्वReseller उनमें बर्हिमुखी रूचियां विकसित होने लगती है।

बाल्यावस्था में सामाजिक विकास

बाल्यावस्था में समाजीकरण की गति तीव्र हो जाती है। बालक वाºय वातावरण के सम्पर्क में आता है। जिसके फलस्वReseller उसका सामाजिक विकास तीव्र गति से होता है। बाल्यावस्था में होने वाले सामाजिक विकास को इस  ढंग से व्यक्त Reseller जा सकता है।

  1. बालक किसी न किसी टोली या समूह का सदस्य बन जाता है। यह टोली अथवा समूह ही उसके खेलो, वस्त्रों की पसंद तक्षा अन्य उचित-अनुचित बातों का निर्धारण करते है।
  2. समूह के सदस्य के Reseller में बालक के अंदर अनेक सामाजिक गुणों का विकास होता है। उत्तरदायित्व, सहयोग, सहनशीलता, सद्भावना, आत्मनियन्त्रण, न्यायप्रियता आदि सामाजिक गुण बालक में धीरे-धीरे उदित होने लगते है।
  3. इस अवस्था में बालक तथा बालिकाओं की रूचियों में स्पष्ट अंतर दृष्टिगोचर होता है।
  4. बाल्यावस्था में बालक प्राय: घर से बाहर रहना चाहता है, और उसका व्यवहार शिष्टतापूर्ण होता है।
  5. इस अवस्था में बालक में सामाजिक स्वीकृति तथा प्रशंसा पाने की तीव्र इच्छा होती है।
  6. प्यार तथा स्नेह से वंचित बालक इस आयु में प्राय: उद्धण्ड हो जाते है।
  7. बाल्यावस्था में बालक मित्रों का चुनाव करते है। वे प्राय: कक्षा के सहपाठियों को अपना घनिष्ठ मित्र बनाते है।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि इस अवस्था में बालक के सामाजिक जीवन का क्षेत्र कुछ विस्तृत हो जाता है जिसके फलस्वReseller बालक – बालिकाओं के समाजीकरण के अवसर तथा सम्भावनायें बढ़ जाती है।

वयस्क अवस्था में सामाजिक विकास

वयस्क अवस्था सामाजिक विकास की यह अवस्था वास्तव में किशोरावस्था का परिणाम मात्र है। इस अवस्था में द्वितीयक समाजीकरण, विसमाजीकरण तथा पुर्नसमाजीकरण की प्रक्रिया मन्द गति से जारी रहती है। इस अवस्था की मुख्य विशेषता यह है कि यहां व्यक्ति वैवाहिक जीवन को निभाने में सक्रिय हो जाता है, जीविकोपार्जन भी इस अवस्था की मुख्य विशेषता है।

सामाजिक विकास के मूल आधार 

बालक के सामाजिक विकास का प्रक्रम अर्जित ही होता है अत: इसका स्वReseller इस तथ्य पर आधारित है कि बालक की अन्य व्यक्तियों के प्रति कैसी अभिवश्त्तियां है और स्वयं उसके इस संबन्ध के साथ अपने कैसे विशेष अनुभव है। आगे इसके अतिरिक्त उसे इस संबंध में विकास के कैसे अवसर मिले है। इस प्रकार Single बालक के सामाजिक विकास से संबन्धित विभिन्न मूल आधारों को इस प्रकार से व्यक्त Reseller जा सकता है –

  1. बालक को दूसरों के साथ रहने व व्यवहार के पर्याप्त अवसर मिलते रहने चाहिए।
  2. Single बालक को अन्य व्यक्तियों के साथ अपनी भावाभिव्यक्ति के अतिरिक्त Second व्यक्ति के रूचियों को भी समझना आवश्यक है। 
  3. बालक को सामाजिक बनने के लिए प्रेरणा देना चाहिये। 
  4. बालकों को मार्गदर्शन प्रदान करना चाहिए।

बालक के सामाजिक विकास की प्रमुख कसौटियां 

बालक के सामाजिक विकास के मूल्यांकन की प्रमुख कसौटियां होती है –

  1. सामाजिक अनुResellerता – Single बालक जितनी शीघ्रता व कुशलता से अपने समाज की परम्पराओं, नैतिक मूल्यों व आदर्शो के अनुReseller व्यवहार करना सीख लेता है। उसके सामाजिक विकास का स्तर भी प्राय: उतना ही अधिक उच्च होता है। स्पष्टत: यहां सामाजिक अनुResellerता व सामाजिक विकास में Single प्रकार का ध् ानात्मक सह-सम्बन्ध देखने में आता है। 
  2. सामाजिक समायोजन – Single बालक अपनी सामाजिक स्थितियों को जितनी अधिक सफलता व कुशलता से समझने व सुलझाने में सम्पन्न होता है, जितनी अधिक उसमें समायोजन की शक्ति होती है उसके सामाजिक विकास का स्तर भी प्राय: उतना ही अधिक होता है।
  3. सामाजिक अन्त: क्रियाएं – Single बालक की सामाजिक अन्त: क्रियाओं का स्तर जितना अधिक विस्तश्त व जटिल होता है, यह स्थिति भी लगभग उसी समानुपात में उसकी सामाजिक विकास के स्तर की द्योतक होती है।
  4. सामाजिक सहभागिता – Single बालक अथवा व्यक्ति जितने अधिक सहज भाव और जितने अधिक आत्मविश्वास के साथ सामाजिक गतिविधियां में भाग लेता जाता है, वह भी प्राय: उसके उच्च सामाजिक विकास का ही सूचक होता है।

सामाजिक विकास को प्रभावित करने वाले कारक 

वातावरण और संगठित साधनों के कुछ ऐसे विशेष कारक हैं जिनका बालक के सामाजिक विकास की दशा पर निश्चित और विशिष्ट प्रभाव पड़ता है।

  1. परिवार के वातावरण का स्वReseller- परिवार ही वह साधन है जहां बालक का सबसे First समाजीकरण होता है। जिस परिवार का वातावरण सामान्यत: पारस्परिक, सुखद और सुन्दर भावनाओं पर आधारित होता है व जिसमें बालकों के प्रति आवश्यक स्नेह व सहानुभूति बनी रहती है। तब ऐसे उत्साहपूर्ण व प्रेरक पारिवारिक परिवेश में बालक के व्यवहार में भी पारस्परिक आधार पर आदान-प्रदान की मधुर सामाजिक भावनाएं विकसित होती है। 
  2. पास-पड़ोस के परिवेश का प्रभाव-बच्चे का कुछ समय अपने पड़ोसियों के साथ गुजरता है। अत: पड़ोसियों के साथ पारस्परिक अन्त:क्रिया का प्रभाव उसके सामाजिक विकास पर पड़ता है। 
  3. वंशानुक्रुम – मनोवैज्ञानिकों के According सामाजिक विकास पर वंशानुक्रम का भी प्रभाव पड़ता है। वंशानुक्रम व्यक्ति को शारीरिक तथा मानसिक विकास के साथ-साथ उसके सामाजिक विकास को भी प्रभावित करता है। अनेक सामाजिक गुण व्यक्ति को वंश परम्परा के Reseller में अपने पूर्वजों से प्राप्त होते है।
  4. शारीरिक तथा मानसिक विकास – शारीरिक तथा मानसिक विकास का व्यक्ति के सामाजिक विकास से घनिष्ठ संबन्ध होता है। शारीरिक दृष्टि से स्वस्थ तथा विकसित मस्तिष्क वाले बालकों के समाजीकरण की सम्भावनायें अस्तिाक होती है, जबकि अस्वस्थ तथा कम विकसित मस्तिष्क वाले बालकों के समाजीकरण की सम्भावना कम होती है। बीमार, अपंग, शारीरिक दृष्टि से अनाकर्षक, विकश्त मस्तिष्क वाले, अल्प बुद्धि वाले बालक प्राय: सामाजिक अवहेलना तथा तिरस्कार सहते रहते है। जिसके फलस्वReseller उनमें हीनता की भावना विकसित हो जाती है तथा वे अन्य बालकों के साथ स्वयं को समायेाजित करने में कठिनार्इ का अनुभव करते हैं। 
  5. संवेगात्मक विकास  – सामाजिक विकास का Single महत्वपूर्ण आधार संवेगात्मक विकास होता है। संवेगात्मक तथा सामाजिक व्यवहार Single Second के अनुयायी होते हैं। जिन बालकों में प्रेम, स्नेह, सहयोग, हास-परिहास के भाव अद्धिाक होते हैं, वे All को अपनी ओर आकर्षित कर लेते हैं तथा स्नेह व आकर्षण का पात्र बन जाते हैं। इसके विपरीत जिन बालकों में र्इष्र्या, द्वेष, क्रोध, घश्णा, नीरसता आदि भाव होते हैं, वे किसी को भी अच्छे नही लगते हैं, तथा ऐसे बालकों की All उपेक्षा करते हैं।
  6. पालन-पोषण प्रणाली- बालकों में सामाजिक विकास उनके पालन-पोषण के ढंग द्वारा अधिक प्रभावित होता है। जिन बालकों के पालन पोषण में माता-पिता द्वारा उचित दुलार-प्यार दिया जाता है तथा बालकों की देख-रेख उनके द्वारा स्वयं की जाती है, उनमें सामाजिक नियमों को सीखने तथा उनके अनुReseller व्यवहार करने की तीव्र प्रेरणा होती है। अत: ऐसे बालकों का सामाजिक विकास अधिक तीव्र तथा संतोषजनक होती है। 
  7. सामाजिक वर्ग-भेद – सामाजिक आथिर्क स्थिति के आधार पर समाज को मुख्य मुख्य Reseller से तीन वर्गो Meansात निम्न, मध्य तथा उच्च वर्ग में विभाजित Reseller जा सकता है। प्रत्येक सामाजिक वर्ग के नियमों, मूल्यों, मानदण्डो, विश्वासों तथा लोकरीतियों में अंतर होता है, इस कारण भिन्न-भिन्न वर्गो के बच्चों के समाजीकरण में अंतर होता है। 
  8. समाज- समाज का भी बालक के समाजीकरण की प्रक्रिया में महत्वपूर्ण योगदान रहता है। सामाजिक व्यवस्था बालक के समाजीकरण को Single निश्चित दिशा प्रदान करती है। समाज के कार्य, आदर्श तथा प्रतिमान बालक के सामाजिक दृष्टिकोण का निर्माण करते हैं। 
  9. विद्यालय – बालक के सामाजिक विकास में उसके विद्यालय की उतनी ही Need होती है, जितना कि उसके परिवार की। विद्यालय में बालक नियम, आत्म संयम, अनुशासन, नम्रता जैसे गुणों को लगभग सहज Reseller से ही अधिगत कर लेता है। यदि विद्यालय का वातावरण जनतंत्रीय है, तो बालक का विकास अविराम गति से उत्तम Reseller ग्रहण करता चला जाता है। 
  10. अध्यापक- बालकों के सामाजिक विकास पर उनके अध्यापकों का महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। छात्र अपने अध्यापक से उसी के समान व्यवहार करना सीखते हैं। यदि अध्यापक शांत, शिष्ट तथा सहयोगी होता हैं तो छात्रों में भी शिष्टता, धैर्य तथा सहकारिता के गुण विकसित हो जाते हैं। इसके विपरीत यदि शिक्षक अशिष्ट, क्रोधी तथा असहयोगी हैं तो छात्र भी उसी के समान बन जाते हैं। 
  11. अभिजात समूह – बालक को सामाजिक विकास में उसके सगं ी-साथियों की मंडली की भी प्रभावशाली भूमिका रहती है। समान आयु के बच्चे Single अलग समूह का निर्माण कर लेते है, जो ऐच्छिक होता है। Single बालक की मित्र मंडली, जितनी बड़ी, विषम व जितनी अधिक विभिन्न अभिरूचियों व अभिवश्त्तियों वाली होती है। उतना ही बालक का सामाजिक विकास का क्षेत्र तद्नुसार अधिक देखने में आता है।
  12. संस्कृति – प्रत्येक सस्ंकृति के अपने कछु प्रतिमान, परम्पराएँ मूल्य होते हैं जिन्हें सांस्कृतिक प्रतिमान अथवा प्रतिReseller कहते है। बच्चे अपनी संस्कृति के इन प्रतिResellerों को माता-पिता, शिक्षक आदि के माध्यम से सीख लेते है। इस सीखने में समाजीकरण के कर्इ संरचन सहायक होते हैं, जिसमें प्रत्यक्ष निर्देशन, अनुकरण, निरीक्षण, प्रतिResellerण, प्रबलन आदि मुख्य हैं।
  13. प्रचार के माध्यम- बालकों के सामाजिक विकास पर प्रचार के भिन्न-भिन्न माध्यमों जैसे रेडियो, टेलीविजन, सिनेमा, अखबार, मैंगजीन आदि का भी प्रभाव पड़ता है। इन माध्यमों द्वारा भिन्न-भिन्न सामाजिक पहलुओं पर अपने-अपने ढंग से जोर डाला जाता है। बालकों को इन माध्यमों से तरह-तरह की बातें बतार्इ जाती हैं। इन बातों का वे तुलनात्मक अध्ययन And विश्लेषण करते हैं, जिससे उनमें सामाजिक सूझ भी विकसित हो जाती है, जो उन्हें विभिन्न तरह के सामाजिक व्यवहार सीखने में मदद करती है। 
  14. सामाजिक वंचन- जब बालक को अन्य साथियों And व्यक्तियों से मिलने जुलने का अवसर नही दिया जाता है तो इससे उनका सामाजिक विकास पर बुरा प्रभाव पड़ता है तथा इस स्थिति को सामाजिक वंचन कहा जाता है। कर्इ बार सामाजिक वंचन अधिक होने से बालकों में असामाजिकता का शीलगुण विकसित होने की सम्भावना बढ़ जाती है।

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