संज्ञानात्मक विकास का Means And सिद्धान्त

संज्ञानात्मक विकास मनुष्य के विकास का महत्वपूर्ण पक्ष है। ‘संज्ञान’ Word का Means है ‘जानना’ या ‘समझना’। यह Single ऐसी बौद्धिक प्रक्रिया है जिसमें विचारों के द्वारा ज्ञान प्राप्त Reseller जाता है। संज्ञानात्मक विकास Word का प्रयोग मानसिक विकास के व्यापक Meansो में Reseller जाता है जिसमें बुद्धि के अतिरिक्त सूचना का प्रत्यक्षीकरण, पहचान, प्रत्याºवान और व्याख्या आता है। अत: संज्ञान में Human की विभिन्न मानसिक गतिविधियों का समन्वय होता है।

मनोवैज्ञानिक ‘संज्ञान’ का प्रयोग ज्ञान प्राप्त करने की प्रक्रिया के Reseller में करते हैं। ‘संज्ञानात्मक मनोविज्ञान’ Word का प्रयोग Vlric Neisser ने अपनी पुस्तक ‘संज्ञानात्मक मनोविज्ञान’ में सन् 1967 र्इ0 में Reseller था। संज्ञानात्मक विकास इस बात पर जोर देता है कि मनुष्य किस प्रकार तथ्यों को ग्रहण करता है और किस प्रकार उसका उत्तर देता है। संज्ञान उस मानसिक प्रक्रिया को सम्बोधित करता है जिसमें चिन्तन, स्मरण, अधिगम और भाषा के प्रयोग का समावेश होता है। जब हम शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में संज्ञानात्मक पक्ष पर बल देते है तो इसका Means है कि हम तथ्यों और अवधारणाओं की समझ पर बल देते हैं।

यदि हम विभिन्न अवधारणाओं के मध्य के सम्बन्धों को समझ लेते हैं हमारी संज्ञानात्मक समझ में वृद्धि होती है संज्ञानात्मक सिद्धान्त इस बात पर बल देता है कि व्यक्ति किस प्रकार सोचता है, किस प्रकार महसूस करता है और किस प्रकार व्यवहार करता है। यह सम्पूर्ण प्रक्रिया अपने अन्दर ज्ञान के All Resellerों यथा स्मृति, चिन्तन, प्रेरणा और प्रत्यक्षण को शामिल करती है।

पियाजे का संज्ञानात्मक विकास का सिद्धान्त

संज्ञानात्मक मनोविज्ञान के क्षेत्र में सबसे महत्वपूर्ण स्थान Jean Piaget का है। उन्होंने अपने तीन बच्चों और Single भतीजे के विकास का अध्ययन Reseller और बताया कि बच्चों का संज्ञानात्मक विकास बड़ों के संज्ञानात्मक विकास से अलग होता है। बच्चों का संज्ञानात्मक विकास यथार्थ की Single अलग समझ पर आध रित होता है जो कि परिपक्वता और अनुभव के साथ धीरे-धीरे बदलता जाता है। इन All बदलावों को आयु के आधार पर अवस्थाओं में बांटा जा सकता है।

1. संवेदी-गामक अवस्था

यह अवस्था जन्म से दो वर्ष तक चलती है। इस अवस्था का बालक चीजों को इधर-उधर करना, वस्तुओं को पहचानने की कोशिश करना, किसी चीज को पकड़ना, मुंह में डालना आदि क्रियाएं करता है। इन क्रियाओं के माध् यम से शिशु अपने आस-पास के वातावरण का संवेदी-गामक ढांचा बनाता है Meansात उसकी संवेदनाएँ परिष्कृत होती है तथा पेशीयों में मजबूती व गत्यात्मक क्रियाओं में नियन्त्रण आना प्रारम्भ हो जाता है। शिशु असहाय जीवधारी से गतिशील, अर्द्ध-भाषी तथा सामाजिक प्राणी बनने की प्रक्रिया में होते हैं। वे आवाज व प्रकाश के प्रति प्रतिक्रिया करते है। रूचिकर कार्यों को करते रहने की कोशिश करते है व वस्तुओं को स्थिर मानते है।

2. पूर्व संक्रियात्मक अवस्था

यह अवस्था दो वर्ष से Seven वर्ष तक चलती है। इस अवस्था की दो प्रमुख विशेषताएं होती है First, संवेदी-गामक संगठन का संवर्धन तथा दूसरा, कार्यो के आत्मीकरण का प्रारम्भ जिससे संक्रियाओं का निर्माण होने लगे। साथ ही, इस अवस्था में संकेतात्मक कार्यो का प्रादुर्भाव तथा भाषा का प्रयोग भी होता है। इस अवस्था को दो भागों में बांटा जा सकता है –

  1. पूर्व-प्रत्ययात्मक काल
  2. आंत-प्रज्ञ काल

        पूर्व-प्रत्यात्मक काल लगभग 2 वर्ष से 4 वर्ष तक चलता है। इस स्तर का बच्चा सूचकता विकसित कर लेता है Meansात किसी भी चीज के लिए प्रतिभा, Word आदि का प्रयोग कर लेता है। छोटा बच्चा माँ की प्रतिमा रखता है। बालक विभिन्न घटनाओं और कार्यो के संबंध में क्यों और कैसे जानने में रूचि रखते हैं। इस अवस्था में भाषा विकास का विशेष महत्व होता है। दो वर्ष का बालक Single या दो Wordों के वाक्य बोल लेता है जबकि तीन वर्ष का बालक आठ-दस Wordों के वाक्य बोल लेता है। आंत-प्रज्ञ चिन्तन की अवस्था 4 वर्ष से 7 वर्ष तक चलती है। बालक वातावरण में जैसा दिखता है वैसी प्रतिक्रिया देता है। उसमें तार्किक चिन्तन की कमी होती है। Meansात बालक का चिन्तन प्रत्यक्षीकरण से प्रभावित होती है। उदाहरण के लिए Single गिलास पानी को यदि किसी चौड़े बर्तन में लोट देते हैं और बच्चे से पूछे कि “पानी की मात्रा उतनी ही है या कम या अधिक हो गयी। तो बच्चा कहेगा “चौड़े बर्तन में पानी कम है। क्योंकि इस पानी की सतह नीची है।” ऐसा बालक द्वारा कारण व परिणाम को अलग न कर पाने के कारण होता है।

        3. मूर्त संक्रियात्मक अवस्था 

        यह अवस्था Seven वर्ष से बारह वर्ष तक चलती है। इस अवस्था में यदि समस्या को स्थूल Reseller में बालक के सामने प्रस्तुत Reseller जाता है जो वह समस्या का समाधान कर सकते हैं तथा तार्किक संक्रियाएँ करने लगते हैं। इस अवस्था में बालक गुणों के आधार पर वस्तुओं को वर्गीकृत कर सकते है जैसे Single गुच्छे में गुलाब व गुल्हड़ के फूल Single साथ हैं। बालक इनको अलग-अलग रख सकता है। वे चीजों को छोटे से बड़े के क्रम में ठीक प्रकार लगा लेते हैं। प्याजे ने इस अवस्था की सबसे बड़ी उपलब्धि बालक के द्वारा संरक्षण के प्रत्यय की प्राप्ति माना है। मूर्त संक्रियावस्था में बालकों में आत्मकेन्द्रित प्रवृत्ति कम होने लगती है और वे अपने बाºय जगत को अधिक महत्व देने लगते है। जब मूर्त सक्रियाएं बालकों की समस्या का समाधान करने की दृष्टि से उपयुक्त नही रह पाती है तब बालक बौद्धिक विकास के अन्तिम चरण की ओर अग्रसर होने लगता है।

        4. औपचारिक संक्रिया की अवस्था 

        औपचारिक सक्रिया की अवस्था ग्यारह वर्ष से पन्द्रह वर्ष तक चलती है। चिन्तन ज्यादा लचीला तथा प्रभावशाली हो जाता है। बालक अमूर्त बातों के सम्बन्ध में तार्किक चिन्ता करने की योग्यता विकसित कर लेता है। Meansात शाब्दिक व सांकेतिक अभिव्यक्ति का प्रयोग तार्किक चिन्तन में करता है। बालक परिकल्पना बनाने लगता है, व्याख्या करने लगता है तथा निष्कर्ष निकालने लगता है। तर्क की अगमन तथा निगमन दोनों विधियों का प्रयोग वह करता है। अब समस्या को मूर्त Reseller में प्रस्तुत करना जरूरी नही है। बालक का चिन्तन पूर्णत: क्रमबद्ध हो जाता है अत: दी गयी समस्या का तार्किक Reseller से सम्भावित समाधान ढूंढ लेता है। प्याजे के According संज्ञानात्मक विकास की ये चार अवस्थाएं क्रम में होती है। दूसरी अवस्था में पहुंचने से First पहली अवस्था से गुजरना आवश्यक है। Single अवस्था से दूसरी अवस्था तक पहुंचने के क्रम में बालक में सोचने में मात्रात्मक के साथ-साथ गुणात्मक वृद्धि होती है।

        वायगास्की का संज्ञानात्मक विकास का सिद्धान्त

        वायगास्की ने सन 1924-34 में इंस्टीट्यूट आफ साइकोलाजी (मास्को) में अध्ययन Reseller। यहां पर उन्होंने संज्ञानात्मक विकास पर विशेष कार्य Reseller विशेषकर भाषा और चिन्तन के सम्बन्ध पर। उनके अध्ययन में संज्ञान के विकास के ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और सामाजिक कारकों के प्रभाव का वर्णन Reseller गया है। वायगास्की के According भाषा समाज द्वारा दिया गया प्रमुख सांकेतिक उपकरण है जो कि बालक के विकास में विशेष Reseller से महत्वपूर्ण है। जिस प्रकार हम जल के अणु का अध्ययन उसके भागों ( H2 & H2 ) के द्वारा नहीं कर सकते हैं उसी प्रकार व्यक्ति का अध्ययन भी उसके वातावरण से पृथक होके नही Reseller जा सकता है। व्यक्ति का उसके सामाजिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और राजनैतिक सन्दर्भ में अध्ययन ही हमें उसकी समग्र जानकारी प्रदान करता है। वायगास्की ने संज्ञानात्मक विकास के अध्ययन के दौरान प्याजे का अध्ययन Reseller और फिर अपना दृष्टिकोण विकसित Reseller। Piaget के According विकास और अधिगम दो अलग धारणाएं हैं जिनमें संज्ञान भाषा के विकास को Single प्राकृतिक प्रक्रिया के Reseller में प्रभावित करता है। विकास हो जाने के बाद उस विशेष अवस्था में आवश्यक कौशलों की प्राप्ति ही अधिगम है। इस प्रकार Piaget के सिद्धान्त के According विकास, अधिगम की पूर्वावस्था है न कि इसका परिणाम। Meansात् अधिगम का स्तर विकास के ऊपर है। Piaget के According अधिगम के लिए First Single निश्चित विकास स्तर पर पहुंचना आवश्यक है।

        वायगास्की के According अधिगम और विकास पारस्परिक प्रक्रिया में बालक की सक्रिय भागीदारी होती है जिसमें भाषा का संज्ञान पर सीधा प्रभाव होता है। अधिगम और विकास अन्तर्सम्बन्धित प्रक्रियाएं है। जो कि छात्र के जीवन के First दिन से प्रारम्भ हो जाती है। वायगास्की के According विभिन्न बालकों के अलग-अलग विकास स्तर पर अधिगम की व्यवस्था समReseller तो हो सकती है किन्तु SingleReseller नही क्योंकि All बच्चों का सामाजिक अनुभव अलग होता है। उनके According अधिगम विकास को प्रेरित करता है। उनका यह दृष्टिकोण Piaget And अन्य सिद्धान्तों से भिन्न है। वायगास्की अपने सामाजिक-सांस्कृतिक सिद्धान्त के लिए जाने जाते है। इस सिद्धान्त के According सामाजिक अन्र्तक्रिया ही बालक की सोच व व्यवहार में निरन्तर बदलाव लाता है और जो Single संस्कृति से Second में भिन्न हो सकता है। उनके According किसी बालक का संज्ञानात्मक विकास उसके अन्य व्यक्तियों से अन्तर्सम्बन्धों पर निर्भर करता है। वायगास्की ने अपने सिद्धान्त में संज्ञान और सामाजिक वातावरण का सम्मिश्रण Reseller। बालक अपने से बड़े और ज्ञानी व्यक्तियों के सम्पर्क में आकर चिन्तन और व्यवहार के संस्कृति अनुReseller तरीके सीखते है। सामाजिक-सांस्कृतिक सिद्धान्त के कर्इ प्रमुख तत्व है। First महत्वपूर्ण तत्व है- व्यक्तिगत भाषा। इसमें बालक अपने व्यवहार को नियंत्रित और निर्देशित करने के लिए स्वयं से बातचीत करते है।

        सामाजिक-सांस्कृतिक सिद्धान्त का दूसरा महत्वपूर्ण तत्व है-निकटतम विकास का क्षेत्र। वायगास्की ने शिक्षक के Reseller में अनुभव के दौरान यह जाना है कि बालक अपने वास्तविक विकास स्तर से आगे जाकर समस्याओं का समाधान कर सकते है। यदि उन्हें थोड़ा निर्देश मिल जाए। इस स्तर को वायगास्की ने सम्भावित विकास कहा। बालक के वास्तविक विकास स्तर और सम्भावित विकास स्तर के बीच के अन्तर/क्षेत्र को वायगास्की ने निकटतम विकास का क्षेत्र कहा।

        जेरोम ब्रूनर  का संज्ञानात्मक विकास का सिद्धान्त 

        बू्रनर ने संज्ञानात्मक विकास का माडल प्रस्तुत Reseller। उनके According यह वह माडल है जिसके द्वारा मनुष्य अपने वातावरण से सामंजस्य स्थापित करता है। ब्रूनर ने अपना संज्ञान सम्बन्धी अध्ययन First प्रौढ़ो पर Reseller, तत्बाद विद्यालय जाने वाले बालकों पर, फिर तीन साल के बालकों पर और फिर नवजात शिशु पर Reseller।

        1. प्रतिनिधित्व –

        प्रतिनिधित्व का बू्रनर के सिद्धान्त में महत्वपूर्ण स्थान है। प्रतिनिधित्व उन नियमों की व्यवस्था है जिनके द्वारा व्यक्ति अपने अनुभवों को भविष्य में आने वाली घटनाओं के लिए संरक्षित करता है। यह व्यक्ति विशेष के लिए उसके संसार को/वातावरण का प्रतिनिधित्व करता है। प्रतिनिधित्व तीन प्रकार से हो सकता है – 1. संक्रियानात्मक प्रतिनिधित्व 2. दृश्यप्रतिमा प्रतिनिधित्व 3. प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व।

        1. सक्रियता प्रतिनिधित्व-यह प्रतिनिधितव की सबसे प्रारम्भिक अवस्था है जो जीवन के First वर्ष के उत्तरार्द्ध में पाया जाता है। इसके अन्तर्गत वातावरणीय वस्तुओं पर बालक की प्रतिक्रिया आती है। इस प्रकार का प्रतिनिधित्व संवेदी-गामक अवस्था की पहचान हैं यह व्यक्ति पर केन्द्रित होता है। अत: इसे आत्म केन्द्रित भी कह सकते है।
        2. दृश्यप्रतिमा प्रतिनिधित्व –यह प्रत्यक्षीकरण को क्रिया से अलग करता है। क्रियाओं की पुनरावृत्ति द्वारा ही बालक के मन में क्रियाओं की अवधारणा का विकास होता है। Meansात् क्रियाओं को स्थानिक परिपेक्ष्य में समझना आसान हो जाता है। इस प्रकार इस प्रतिनिधित्व में क्रियामुक्त अवधारणा का विकास होता है। यह प्रतिनिधित्व First वर्ष के अन्त तक पूर्णतया विकसित हो जाता है।
        3. सांकेतिक प्रतिनिधित्व –यह किसी अपरिचित जन्मजात प्रतीकात्मक क्रिया से प्रारम्भ होता है जो कि बाद में विभिन्न व्यवस्थाओं में Resellerान्त्रित हो जाता है। क्रिया और अवधारणा प्रतिकात्मक क्रियाविधि को प्रदर्शित कर सकती है। लेकिन भाषा प्रतिकात्मक क्रिया का सबसे अधिक विकसित Reseller है।

        2. प्रतिनिधित्वों के मध्य सम्बन्ध और अन्त: क्रिया

        यह तीनों प्रतिनिधित्व वैसे तो Single Second से पृथक व स्वतन्त्र है किन्तु यह Single Second में तब्दील भी हो सकते है। यह स्थिति तब होती है जब बालक के मन में कोर्इ दुविधा होती है और वह अपनी समस्या को सुलझाने के लिए All प्रतिनिस्थिात्वों की पुनरावृत्ति करता है। यह तीन प्रकार से हो सकता है –

        1. मिलान द्वारा
        2. बेमिलान द्वारा
        3. Single Second से स्वतन्त्र रहकर

        अगर दो प्रतिनिधित्व आपस में मिलान करते है तो व्यक्ति को दुविधा नहीं होती है और वह सामान्य प्रक्रियाओं को करते हुए अपनी समस्याओं को सुलझा लेता है। जब दो प्रतिनिधित्व में बेमिलान होता है तो किसी Single में सुधार Reseller जाता है या उसे दबा कर दिया जाता है। पूर्व किशोरावस्था में यह दुविधा क्रिया और दृश्य व्यवस्था के बीच होती है जिनमें उन्हें Single या अन्य चुनना होता है। बार-बार समस्या समाधान करते-करते उनमें प्राथमिकता का विकास होता है। क्रिया और प्रतिनिधित्व Single Second से स्वतन्त्र नहीं हो सकते है किन्तु प्रतिकात्मक प्रतिनिधित्व उन दोनों से स्वतन्त्र हो सकता है। प्रतिनिधित्व के माध् यम के Reseller में भाषा अनुभव से अलग होती है और जब यह अनुभव और चिन्तन के आधार पर प्रयोग Reseller जाता है तो उच्च स्तर की मानसिक क्रियाओं को करने में सक्षम होती है।

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