श्वसन तन्त्र की संCreation And कार्य

श्वास-प्रश्वास मनुष्य के जीवन का लक्षण है। मनुष्य भोजन के अभाव में कुछ दिनों तक जीवित रह सकता है, जल के अभाव में कुछ घंटे बीता सकता है किन्तु श्वास-प्रश्वास अथवा वायु के अभाव में कुछ क्षणों में ही जीवन लीला पर प्रश्न चिºन स्थापित हो जाता है।शरीर विज्ञान के According यदि चार मिनट तक शरीर में श्वसन क्रिया नहीं होती तब शरीर की कोशिकाएं आक्सीजन के अभाव में मरने लगती है तथा सबसे First इसका प्रभाव मस्तिष्क And हृदय पर पड़ता है।

इसका कारण यह है कि श्वास के माध्यम से बाºय वायुमण्डल की आक्सीजन शरीर की आन्तरिक कोशिकाओं तक पहुंचती है तथा इस क्रिया के अभाव में आन्तरिक कोशिकाओं को आक्सीजन प्राप्त नहीं हो पाती तथा आक्सीजन के अभाव में कोषिका मे ऊर्जा उत्पत्ति की क्रिया (ग्लूकोज का आक्सीक्रण) नही हो पाती, परिणामस्वरुप ऊर्जा के अभाव में ये कोशिकाऐं में मरने लगती है।

‘‘शरीर में स्थित वह तंत्र जो वायुमण्डल की आक्सीजन को श्वास (Inspiration) के Reseller में ग्रहण कर शरीर की आन्तरिक कोशिकाओं तक पहुंचाने का कार्य करता है तथा शरीर की आन्तरिक कोशिकाओं में स्थित कार्बनडार्इआक्साइड को बाºय वायुमण्डल में छोड़ने (Expiration) का महत्वपूर्ण कार्य करता है, श्वसन तंत्र कहलता है’’।

Human श्वसन तंत्र की संCreation नासिका से प्रारम्भ होकर फेफड़ों And डायाफ्राम तक फैली होती है। जो श्वसन की महत्वपूर्ण क्रिया को सम्पादित करने का कार्य करती है। श्वसन उन भौतिक-रासायनिक क्रियाओं का सम्मिलित Reseller में होता है जिसके अन्तर्गत बाºय वायुमण्डल की ऑक्सीजन शरीर के अन्दर कोशिकाओं तक पहुंचती है और भोजन रस (ग्लूकोज) के सम्पर्क में आकर उसके ऑक्सीकरण द्वारा ऊर्जा मुक्त कराती है तथा उत्पन्न CO2 को शरीर से बाहर निकालती है।

मनुष्य में फेफड़ों द्वारा श्वसन होता है ऐसे श्वसन को फुफ्फुसीय श्वसन (Pulmonary Respiration) कहते हैं। जिस मार्ग से बाहर की वायु फेफड़ों में प्रवेश करती है तथा फेफड़ों से कार्बन-डार्इ-आक्साइड बाहर निकलती है उसे श्वसन मार्ग कहते हैं। मनुष्यों में बाहरी वायु तथा फेफड़ों के बीच वायु के आवागमन हेतु कर्इ अंग होते हैं। ये अंग श्वसन अंग कहलाते हैं। ये अंग परस्पर मिलकर श्वसन तंत्र का निर्माण करते हैं। इन अगों का वर्णन इस प्रकार है –

ये All अंग मिलकर श्वसन तंत्र बनाते हैं। इस तंत्र में वायुमार्ग के अवरूद्ध होने पर श्वसन क्रिया रूक जाती है जिसके परिणामस्वReseller कुछ ही मिनटों में दम घुटने से व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है। इन अंगों की संCreation और कार्यो का वर्णन इस प्रकार है –

Human श्वसन तंत्र का प्रारम्भ नासिका से होता है। नासिका के छोर पर Single जोड़ी नासिका छिद्र (External nostrils) स्थित होते हैं। नासिका Single उपास्थिमय (Cartilageous) संCreation है। नासिका के अन्दर का भाग नासिका गुहा कहलाता है। इस नासिका गुहा में तीन वक्रीय पेशियां Superior Nosal Concha, Middle Nosal Concha और Inferior Nosal Concha पायी जाती है। क्रोध And उत्तेजनशीलता की अवस्था में ये पेशियां अधिक क्रियाशील होकर तेजी से श्वसन क्रिया में भाग लेती है। इस नासिका गुहा में संवेदी नाड़िया पायी जाती हैं जो गन्ध का ज्ञान कराती है। इसी स्थान (नासा मार्ग) के अधर और पाश्र्व सतहों पर श्लेष्मा ग्रन्थियां (Mucas Glands) होती हैं जिनसे श्लेष्मा की उत्पत्ति होती है। नासिका गुहा के अग्र भाग में रोम केषों का Single जाल पाया जाता है।

नासिका And नासिका गुहा के कार्य – 

 नासिका गुहा आगे चलकर मुख में खुलती है। यह स्थान मुखीय गुहा अथवा ग्रसनी कहलाता है। यह कीप की समान आकृति वाली Meansात आगे से चौड़ी And पीछे से पतली Creation होता है। यह तीन भागों में बटी होती है- (क) नासाग्रसनी (Nossopharynx) (ख) मुखग्रसनी (Oropharynx) (ग) स्वरयंत्र ग्रसनी (Larynigospharynx) 

3. स्वर यंत्र की Creation And कार्य (Larynx) 

ग्रसनी के आगे का भाग स्वर यन्त्र (Larynx) कहलाता है। स्वर यन्त्र ऊपर मुख ग्रसनी से And नीचे की ओर श्वासनली से जुडा होता है। इसी स्थान पर थायराइड And पैराथायराइड नामक अन्त:स्रावी ग्रन्थियां उपस्थित होती हैं। यह गले का उभरा हुआ स्थान होता है अन्दर इसी स्थान में संयोजी उतक से निर्मित वाक रज्जु या स्वर रज्जू (Vocal Cords) पाये जाते हैं।

स्वर यन्त्र के कार्यस्वर-यन्त्र ऐसा श्वसन अंग है जो वायु का संवहन करने के साथ साथ स्वर (वाणी) को उत्पन्न करने का महत्वपूर्ण कार्य करता है। वास्तव में स्वर की उत्पत्ति वायु के द्वारा ही होती है। श्वास के द्वारा ली गर्इ वायु से यहां उपस्थित स्वर रज्जुओं में कम्पन्न उत्पन्न होते हैं और ध्वनि उत्पन्न होती है। इसी अंग की सहायता से हम विभिन्न प्रकार की आवाजें उत्पन्न करते हैं तथा बोलते हैं। स्वर रज्जुओं की तानता तथा उनके मध्य अवकाश पर ध्वनि का स्वReseller निर्भर करता है Meansात इसी कारण आवाज में मधुरता, कोमलता, कठोरता And कर्कशता आदि गुण प्रकट होते हैं। उच्च स्तरीय स्वरवादक (गायक) अभ्यास के द्वारा इन्हीं स्वर रज्जुओं पर नियंत्रण स्थापित कर अपने स्वर को मधुरता प्रदान करते हैं। 

4. श्वास नली की Creation And कार्य (Trachea)

यह स्वर यन्त्र से आरम्भ होकर फेफड़ों तक पहुंचने वाली नली होती है। यह लगभग 10 से 12 सेमी. लम्बी और गर्दन की पूरी लम्बी में स्थित होती है। इसका कुछ भाग वक्ष गुहा में स्थित होता है। इस श्वासनली (Trachea) का निर्माण 16-20 अगें्रजी भाषा के अक्षर ‘C’ के आकार की उपस्थियों के अपूर्ण छल्लों से होता है।इस श्वास नली की आन्तरिक सतह पर श्लेष्मा को उत्पन्न करने वाली श्लेष्मा ग्रन्थिया (Goblet cell) पायी जाती हैं। आगे चलकर यह श्वासनली क्रमश: दाहिनी और बायीं ओर दो भागों में बट जाती है, जिन्हें श्वसनी कहा जाता है।

श्वास नली के कार्य -इस श्वास नली के माध्यम से श्वास फेफड़ों तक पहुंचता है। इस श्वास नली में उपस्थित गोबलेट सैल्स (goblet cell) श्लेष्मा का स्त्राव करती रहती है, यह श्लेष्मा श्वास नलिका को नम And चिकनी बनाने के साथ साथ अन्दर ग्रहण की गर्इ वायु को भी नम बनाने का कार्य करती है, इसके साथ-साथ श्वास के साथ खींचकर आये हुए धूल के कण And सूक्ष्म जीवाणुओं भी श्वास इस श्लेष्मा में चिपक जाते हैं तथा अन्दर फेफड़ों में पहुचकर हानि नही पहुंचा पाते हैं। 

5. श्वसनी And श्वसनिकाओं की Creation And कार्य (Bronchi and Bronchioles)

श्वासनली वक्ष गुहा में जाकर दो भागों में बंट जाती है। इन शाखाओं को श्वसनी (Bronchi) कहते हैं। श्वासनली मेरुदण्ड के पांचवे थरेसिक ब्रटिबरा (5th thorasic vertebra) के स्तर पर दायें और बांये ओर दो भागों में विभाजित हो जाती है। प्रत्येक श्वसनी अपनी ओर के फेफड़े में प्रवेश करके अनेक शाखाओं में बंट जाती है। इन शाखाओं को श्वसनिकाएं (bronchioles) कहते हैं। इन पर अधूरे उपास्थीय छल्ले होते हैं। इस प्रकार श्वसनी आगे चलकर विभिन्न छोटी-छोटी Creationओं में बटती चली जाती है तथा इसकी सबसे छोटी Creation वायुकोष (Alveoli) कहलाती है।

कार्य – श्वासनली के द्वारा आया श्वास (वायु) श्वसनी And श्वसनिकाओं के माध्यम से फेफड़ों में प्रवेश करता है। 

6. वायुकोष (Alveoli) –

आगे चलकर प्रत्येक श्वसनी 2 से 11 तक शाखाओं में बट जाती है। श्वसनी पुन: शाखाओं And उपशाखाओं में विभाजित होती है। श्वसनी की ये शाखाएं वायु कोशीय नलिकाएं (Alveolar ducts) कहलाती हैं। इन नलिकाओं का अन्तिम सिरा फूलकर थैली के समान Creation बनाता है। यह Creation अति सूक्ष्म वायु कोष (air sacs) कहा जाता है। इस प्रकार यहाँ पर अंगूर के गुच्छे के समान Creation बन जाती है। ये Creation Single कोशीय दीवार की बनी होती है तथा यहां पर रूधिर वाहिनियों (Blood capillaries) का घना जाल पाया जाता है।

वायुकोषों के कार्य-ये वायुकोष Single कोशीय दीवारों के बने होते हैं तथा यहाँ पर रूधिर वाहिनियों का जाल पाया जाता है। इन वायुकोषों का कार्य आक्सीजन And कार्बनडार्इ आक्साइड का विनिमय करना होता है Meansात गैसों के आदान-प्रदान की महत्वपूर्ण क्रिया का सम्पादन इसी स्थान पर होता है। 

7 .फेफड़ों की Creation And कार्य (Lungs)

 मनुष्य में वक्षीय गुहा (Thorasic Cavity) में Single जोड़ी (संख्या में दो) फेफड़ों पाये जाते हैं। ये गुलाबी रंग के कोमल कोणाकार तथा स्पंजी अंग है। फेफड़े अत्यन्त कोमल व महत्वपूर्ण अंग हैं इसीलिए इनकी Safty के लिए इनके चारों ओर पसलियों का मजबूत आवरण पाया जाता है। प्रत्येक फेफड़े के चारों ओर Single पतला आवरण पाया जाता है जिसे फुफ्फुसावरण (Pleura) कहा जाता है। यह दोहरी झिल्ली का बना होता है तथा इसमें गाढ़ा चिपचिपा द्रव फुफ्फस द्रव (Pleural fluid) भरा होता है। इस द्रव के कारण फेफड़ों के क्रियाशील होने पर भी फेफड़ों में रगड़ उत्पन्न नहीं होती है। इन फेफड़ों में बांये फेफड़े की तुलना में दाहिना फेफड़ा अपेक्षाकृत बड़ा तथा अधिक फैला हुआ होता है। इसका कारण बांयी ओर हृदय की उपस्थिति होता है। फेफड़ों का निचला भाग डायाफ्राम नामक पेशीय Creation के साथ Added होता है। दाहिना फेफड़ा तीन पिण्डों (lobe) में तथा बांया फेफड़ा दो पिण्डों (lobe) में बटा होता है।

फेफड़ों के कार्य- मनुष्य के फेफड़ों में वायुकोषों का घना जाल होता है। इस प्रकार ये वायुकोश फेफड़ों में मधुमक्खी के छत्ते के समान Creation का निर्माण करते हैं। फेफड़ों का हृदय के साथ सीधा सम्बन्ध होता है। हृदय से कार्बन डार्इ आक्साइड युक्त रक्त लेकर रक्त वाहिनी(पलमोनरी र्आटरी) फेफड़ो में आकर अनेकों शाखाओं में बट जाती है। इस प्रकार बाºय वायु मण्डल की आक्सीजन And शरीर के अन्दर कोशिकाओं से रक्त द्वारा लायी गयी कार्बनडार्इ आक्साइड गैस मे विनिमय (आदान-प्रदान) का कार्य इन फेफड़ों में ही सम्पन्न होता है।

8. डायाफ्राम की Creation And कार्य (Diaphragm)

डायाफ्राम लचीली मांसपेशियों से निर्मित श्वसन अंग है। श्वसन मांसपेशियों में यह सबसे शक्तिषाली मांसपेषी होती है, जिसका सम्बन्ध दोनों फेफड़ों के साथ होता है। यह डायाफ्राम दोनों फेफड़ों को नीचे की ओर साधकर (Tone) रखता है।

डायाफ्राम के कार्य- यह डायाफ्राम वक्ष And उदर को विभजित करने का कार्य करता है। फेफड़ों का इस डायाफ्राम के साथ जुड़ने के कारण जब फेफड़ों में श्वास भरता हैं तब इसका प्रभाव उदर (पेट) पर पड़ता है तथा डायाफ्राम का दबाव नाचे की ओर होने के कारण उदर का विस्तार होता है जबकि इसके विपरित फेफड़ों से श्वास बाहर निकलने पर जब फेफड़ें संकुचित होते हैं तब डायाफ्राम का खिचाव ऊपर की ओर होने के कारण उदर का संकुचन होता है। इस प्रकार श्वसन क्रिया का प्रभाव उदर प्रदेष पर पडता है। 

श्वसन तंत्र की क्रियाविधि

 जिस समय नासिका से श्वास लिया जाता है उस समय बाºय वातावरण से वायु नासिका And नासिका गुहा में प्रवेश करती है। नासिका में गुहा में उपस्थित सूक्ष्म रोम केशों का जाल धूल And धुंए के कणों को छान देता है। यहां पर उपस्थित संवेदी नाड़ियां वायु की गन्ध का ज्ञान मस्तिश्क को करती है। यहां से आगे यह वायु ग्रसनी में पहुंच जाती है। ग्रसनी में उपस्थित कण्ठच्छद (Epiglottis) अन्न नलिका के द्वार को बन्द कर देता है जिससे यह वायु स्वर यन्त्र से होती हुर्इ ेश्वास नलिका में चली जाती है। श्वास नलिका में रोमिकाएं पायी जाती है तथा यहां पर श्लेष्मा ग्रन्थियां श्लेष्मा का स्रावण करती रहती है। इसके परिणामस्वReseller वायु के साथ आए धूल, धुंए, सूक्ष्म जीव आदि इस नलिका में चिपक जाते हैं। श्वास नलिका से वायु क्रमश: दाहिने And बाएं फेफड़ों में भर जाती है। श्वास नलिका से श्वसनी And श्वसनी से श्वसनिकाओं में होती हुर्इ यह वायु आगे चलकर वायु कोषों में भर जाती है। वायु भरने के कारण ये वायुकोष फूल जाते हैं। ये वायुकोष Singleकोशीय दीवारों के बने होते हैं तथा इन वायुकोषों के मध्य रक्तवाहिनीयों का घना जाल उपस्थित होता है। इन रक्तवाहिनीयों में हृदय से आया कार्बन डार्इ आक्साइड की अधिकता युक्त अशुद्ध रक्त भरा होता है। इस प्रकार यहां वायुकोषों And रक्त वाहिनीयों के मध्य गैसों का आदान प्रदान होता है।

गैसों के आदान-प्रदान के परिणामस्वReseller बाºय वायु मण्डल की आक्सीजन रक्तवाहिनीयों में चली जाती है And रक्त वाहिनीयों में उपस्थित कार्बन डार्इ आक्साइड वायु कोषों में भर जाती है। तत्पश्चात वाुयकोषों से कार्बनडार्इ आक्साइड श्वसनिकाओं में, श्वसनिकाओं से श्वसनी में, श्वसनी से श्वासनलिका में, श्वासनलिका से स्वर यन्त्र, ग्रसनी से होती हुर्इ नासिका के माध्यम से बाºय वायुमण्डल में भेज दी जाती है, श्वसन की यह क्रिया नि:श्वसन कहलाती है।

श्वसन दर-

 Single मिनट में Single मनुष्य जितनी संख्या में श्वास-प्रश्वास की क्रिया करता है, श्वसन दर कहलाती है। बाल्यावस्था के First पांच वर्शो में शरीर का विकास तेज होने के कारण श्वसन दर त्रीव जो आगे चलकर (व्यस्क अवस्था) 16-18 श्वास प्रति मिनट स्थिर हो जाती है। Single नवजात शिशु की श्वसन दर प्रति मिनट 40 होती है, यह श्वसन दर उम्र बढने के साथ कम होती हुर्इ 16-18 श्वास प्रति मिनट पर स्थिर हो जाती है। स्त्रियों में पुरूषों की तुलना में श्वसन दर कुछ अधिक होती है। इस श्वसन दर पर कार्य, परिस्थिति, स्थान आदि कारक सीधा प्रभाव रखते हैं। स्वच्छ वातावरण And शान्त अवस्था में श्वसन दर कम हो जाती है जबकि इसके विपरित प्रदूषित वातावरण, क्रोध And चिड़चिड़ाहट की स्थिति में श्वसन दर बढ़ जाती है।मनुष्यों में श्वसन क्रिया स्वचलित रुप में चलती रहती है। इस क्रिया पर कुछ काल तक ऎच्छिक नियंत्रण सम्भव होता है, किन्तु शरीर की कोशिकाओं में कार्बन डार्इ ऑक्साइड की मात्रा बढने पर श्वास लेने के लिये बाय होना पडता है। मनुष्य में श्वसन क्रिया का नियन्त्रण मस्तिष्क में स्थित मेड्यूला नामक स्थान से होता है। शरीर की विभिन्न अवस्थाओं में यह केन्द्र श्वसन दर को कम And अधिक बनाता हैं। शरीर के अधिक क्रियाशील होने पर श्वसन दर बढ जाती है जबकि शरीर द्वारा कार्य नही करने की दषा में श्वसन दर कम हो जाती है। कठिन श्रम की अवस्था में भी श्वसन दर बढ़ जाती है।

बाºय जीवाणु अथवा रोगाणु से संक्रमण की अवस्था में जब शरीर का तापक्रम बढ जाता है तब ऐसी अवस्था में श्वसन दर बढ जाती है। पहाड़ों में ऊँचे स्थानों पर जाने पर अथवा आक्सीजन की कमी वाले स्थानों पर जाने पर श्वसन दर बढ जाती है। क्रोध, भय And मानसिक तनाव आदि विपरित अवस्थओं में श्वसन दर त्रीव हो जाती है। इसके विपरित सहज And सकारात्मक परिस्थितियों में श्वसन दर कम And श्वास की गहरार्इ बढ जाती है।

श्वसन दर त्रीव होने पर फेफडे़ तेजी से कार्य करते हैं किन्तु इस अवस्था में फेफड़ों का कम भाग ही सक्रिय हो पाता है, जबकि लम्बी And गहरी श्वसन क्रिया में फेफडों का अधिकतम भाग सक्रिय होता है जिससे फेफड़ें स्वस्थ बनते हैं।

वायु की धारिता –

Single मनुष्य द्वारा प्रत्येक श्वास में जिस मात्रा में वायु ग्रहण की जाती है तथा प्रश्वास में जिस मात्रा में वायु छोड़ी जाती है इस मात्रा की नाप वायु धारिता कहलाती है। इसे नापने के लिए स्पाइरोमीटर (Spirometer) नामक यंत्र का प्रयोग Reseller जाता है। मनुष्य की वायु धारिता के कुछ महत्वपूर्ण बिन्दुओं का वर्णन इस प्रकार है- 

  1. प्राण वायु (Tidal volume) – वायु की वह मात्रा जो सामान्य श्वास में ली जाती है तथा सामान्य प्रश्वास में छोड़ी जाती है प्राण वायु कहलाती है। यह मात्रा 500उस होती है। यह मात्रा स्त्री और पुरुष दोनों में समान होती है
  2.  प्रश्वसित आरक्षित आयतन (Inspiratory Reserve Volume) – सामान्य श्वास लेने के उपरान्त भीे वायु की वह मात्रा जो अतिरिक्त Reseller से ग्रहण की जा सकती है। प्रश्वसित आरक्षित आयतन कहलाती है। वायु की यह मात्रा 3300 उस होती है।  
  3. निश्वसित आरक्षित आयतन (Expiratory Reserve Volume) – सामान्य प्रश्वास छोड़ने के उपरान्त भी वायु की वह मात्रा जो अतिरिक्त Reseller से बाहर छोड़ी जा सकती है, निश्वसित आरक्षित आयतन कहलाती है। वायु की यह मात्रा 1000 उस होती है। 
  4. अवशिष्ट आयतन (Residual Volume) – हम फेफड़ों को पूर्ण Reseller से वायु से रिक्त नहीं कर सकते अपितु गहरे प्रश्वास के उपरान्त भी वायु की कुछ मात्रा फेफड़ों में शेष रह जाती है, वायु की यह मात्रा अवशिष्ट आयतन कहलाती है। वायु की इस मात्रा का आयतन 1200 उस होता है। 
  5. फेफड़ों की प्राणभूत वायु क्षमता (Vital Capcity) – गहरे श्वास में ली गयी वायु तथा गहरे प्रश्वास में छोड़ी गयी वायु का आयतन फेफड़ों की प्राणभूत वायु क्षमता कहलाती है। वायु की यह मात्रा 4800 उस होती है। 
  6. फेफड़ों की कुल वायु धारिता (Total lung capacity) – फेफड़ों द्वारा अधिकतम वायु ग्रहण करने की क्षमता फेफड़ों की कुल वायु धारिता कहलाती है। वायु की यह मात्रा 6000 उस होती है।

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