श्री अरविन्द का जीवन परिचय

श्री अरविन्द का जन्म 15 अगस्त, 1872 को कलकत्ता में हुआ था। वे तीन भार्इयों में कनिष्ठ थे। उनके पिता कृष्णधन घोष Single प्रसिद्ध चिकित्सक थे। उन्होंने इंग्लैंड में चिकित्साशास्त्र का अध्ययन Reseller था। वे पाश्चात्य संस्कृति को श्रेष्ठ मानते थे और उसी रंग में रंगे हुए थे। उनकी माता श्रीमती स्र्वणलता देवी प्रसिद्ध राष्ट्रवादी राजनारायण बोस की पुत्री थी। अरविन्द के पिता ने प्रारम्भ से यह प्रयास Reseller कि उनके बच्चों पर Indian Customer संस्कृति का प्रभाव न पड़े- वे पश्चिमी संस्कृति के अनुReseller पलें-बढ़ें। अत: उन्होंने बाल्यवस्था में ही अरविन्द को दार्जिलिंग के आइरिश र्इसार्इ स्कूल, लॉरेटो कान्वेन्ट में प्रवेश दिलाया जहाँ अधिकांशत: अंग्रेजों के बच्चे थे। जब अरविन्द केवल Seven वर्ष के ही थे तो उनके पिता ने उन्हें दोनों भार्इयों सहित इंग्लैंड में श्रीमती ड्रेवेट के संरक्षण में आचार-विचार और शिक्षा ग्रहण करने के लिए छोड़ दिया। 1885 र्इ0 में अरविन्द का प्रवेश लन्दन के प्रसिद्ध सेन्टपॉल स्कूल में कराया गया। पाँच वर्ष की अल्पअवधि में ही उन्होंने पाश्चात्य शास्त्रीय भाषाओं- ग्रीक और लैटिन में दक्षता प्राप्त कर ली। साथ ही यूरोप की आधुनिक भाषाओं अंग्रेजी, फ्रेंच, इटालियन, जर्मन और स्पेनिश का भी उन्होंने अध्ययन Reseller। इतनी भाषाओं पर अधिकार कोर्इ अत्यन्त ही कुशाग्र बुद्धि का छात्र कर सकता है।

1889 र्इ0 में उन्होंने कैम्ब्रिज के किंग्स कालेज में प्रवेश लिया। यहाँ अध्ययन के दौरान उन्होंने आर्इ0सी0एस0 की परीक्षा की तैयारी की। आर्इ0सी0एस0 की नौकरी को अधिक सम्मान प्राप्त था- वस्तुत: भारत में ये सर्वोच्च नौकरशाह होते थे। और इसमें प्राय: अंग्रेज ही सफल होते थे। इस परीक्षा में अरविन्द ने ग्यारहवां स्थान प्राप्त कर Historyनीय सफलता पार्इ। पिता का स्वप्न तो पूरा हो रहा था पर पुत्र को अंग्रेजों की दासता स्वीकार नहीं थी। अत: वे जानबूझ कर घुड़सवार की परीक्षा में अनुपस्थित रहे- इस तरह से उन्होंने आर्इ0सी0एस0 की नौकरी का स्वेच्छा से त्याग कर दिया।

अरविन्द विद्याथ्री जीवन से ही भारत की परतंत्रता को अत्यन्त ही दुर्भाग्यपूर्ण मानते थे। स्वतंत्रता हेतु संघर्षरत राजनीतिक संस्थाओं ‘इंडियन मजलिस’ तथा ‘द लौटस एण्ड डैगर’ के सम्पर्क में इंग्लैंड में आये। इंग्लैंड के प्रभुत्व के विरूद्ध संघर्ष कर रहे आयरिश स्वतंत्रता सेनानियों ने भी अरविन्द को उत्कट देशप्रेम की भावना से ओत-प्रोत कर दिया।

1893 में भारत लौटने पर अरविन्द ने बड़ौदा के उदार And प्रगतिशील महाKing सयाजीराव के यहाँ तेरह वर्षों तक विभिन्न प्रशासनिक And अकादमिक पदों पर कार्य Reseller। इस दौरान उन्होंने बंगला And संस्कृत का गहन अध्ययन Reseller। उन्होंने कालिदास And भतर्श्हरि के कार्यों का अंग्रेजी में अनुवाद Reseller।

उपनिषदों, पुराणों और Indian Customer दर्शन के अध्ययन ने उनके मानस को गहरार्इ से प्रभावित Reseller। वे अपनी स्थिति के बारे में लिखते है ‘‘मुझमें तीन तरह के पागलपन हैं- First, मैं मानता हूँ कि सारी सम्पत्ति प्रभु की है और उसे प्रभु के कार्य में लगाना चाहिए। दूसरा पागलपन यह है कि चाहे जैसा हो, मैं भगवान का साक्षात् दर्शन करना चाहता हूँ और तीसरा पागलपन यह है कि मैं अपने देश की नदियों, पहाड़ों, भूमि And जंगलों को Single भौगोलिक सत्तामात्र नहीं मानता। मैं इसे माता मानता हूँ और इसकी पूजा करता हूँ।’’

1901 में अरविन्द का विवाह मृणालिनी देवी से हुआ। अरविन्द का जीवन अब भी योगी की तरह सादगी पूर्ण रहा। बंगाल में बढ़ती राष्ट्रीयता की भावना को दबाने के लिए 1905 में लार्ड कर्जन ने बंगाल का विभाजन कर दिया। पूरे भारत और विशेषकर बंगाल में अंग्रेजी सरकार के इस कदम का उग्र विरोध हुआ। अरविन्द बंगाल लौट आए और सक्रिय राजनीति में कूद पड़े। स्वदेशी आन्दोलन और राष्ट्रीय शिक्षा के प्रसार में अरविन्द ने अहम भूमिका निभार्इ। कल्र्क पैदा करने वाली औपनिवेशिक शिक्षा के विकल्प के Reseller में राष्ट्रवादी Indian Customerों ने कलकत्ता में ‘‘नेशनल कौंसिल ऑफ एजुकेशन’’ का गठन Reseller। श्री अरविन्द Single राष्ट्रीय महाविद्यालय के प्राचार्य बने। विपिन चन्द्र पाल द्वारा शुरू की गयी राष्ट्रीय पत्रिका वन्दे मातरम् के सम्पादक श्री अरविन्द नियुक्त किए गए। इनके सम्पादकत्व में वन्दे मातरम राष्ट्रीय पुनरूत्थान And क्रान्तिकारी विचारों का सर्वप्रमुख वाहक बन गया। साथ ही ‘युगान्तर’ जैसी क्रान्तिकारी विचारधारा की पत्रिकाओं में भी वे लगातार अपने ओजस्वी विचार रख रहे थे। इसी दौरान उन्होंने स्वंय अंग्रेजी में ‘कर्मयोगिन’ नामक पत्रिका का सम्पादन और प्रकाशन प्रारम्भ Reseller। बाद में बंगला भाषा में ‘धर्म’ नामक साप्ताहिक का सम्पादन And प्रकाशन Reseller। अब श्री अरविन्द की ख्याति पूरे देश में Single अग्रणी राजनेता और प्रखर विचारक के Reseller में होने लगी। स्वतंत्रता सेनानी उनसे प्रेरणा ग्रहण करते थे। 1908 में मुजफ्फरपुर में खुदीराम बोस द्वारा अंग्रेजों पर बम फेंके जाने वाले मामले में श्री अरविन्द को भी गिरफ्तार कर लिया गया। 1909 में जेल से रिहा हुए। कर्मयोगिन में प्रकाशित Single लेख के आधार पर अरविन्द पर राजद्रोह के मुकदमे की तैयारी होने लगी। इस दौरान वे राजनीति से सन्यास लेकर First चन्द्रनगर फिर पाण्डिचेरी चले गए। पाण्डिचेरी अब उनकी कर्मभूमि And तपोभूमि बन गर्इ।

1910 से 1917 तक सार्वजनिक जीवन का पूर्णत: त्याग कर अरविन्द गम्भीर साधना में लीन रहे। फ्रांस में जन्मी मीरा रिचार्ड 1914 में श्री अरविन्द के सम्पर्क में आर्इ। 1920 से आश्रम उन्हीं की देख रेख में आगे बढ़ता गया। उन्हें ‘श्री माँ’ के नाम से पुकारा जाने लगा। उन्हीं के सुझाव पर श्री अरविन्द ने ‘आर्य’ नामक Single मासिक पत्रिका निकालना प्रारम्भ Reseller। इसमें अरविन्द के प्रमुख कार्यों का प्रकाशन हुआ। पाण्डिचेरी में अरविन्द के साथ अनेक उपासक, साधक And उनके अनुगामी रहने लगे। 1926 र्इ0 में अरविन्द आश्रम की स्थापना की गर्इ। अरविन्द पाण्डिचेरी में चार दशक तक सर्वांग योग की साधना में रत रहे। इस महायोगी ने 5 दिसम्बर, 1950 को रात्रि में चिर- समाधि ले ली।

महर्षि अरविन्द Single महान लेखक थे। उनकी पहली पुस्तक कविता-संग्रह थी जो सन् 1995 में प्रकाशित हुर्इ और अंतिम कृति ‘सावित्री’ थी जो 1950 में प्रकाशित हुर्इ। उन्होंने कविताओं And नाटकों के अतिरिक्त धर्म, अध्यात्म, योग, संस्कृति And समाज पर अनेक पुस्तकों And निबन्धों को लिखा। उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं दि लाइफ डिवाइन, दि सिन्थिसि ऑफ योग, एसेज ऑन दि गीता, दि फाउन्डेशन्स ऑफ इन्डियन कल्चर, दि फ्यूचर पोयट्री, दि ह्यूमन साइकिल, दि आइडियल ऑफ ह्यूमन यूनिटी, सावित्री आदि।

श्री अरविन्द का भारत आगमन

बड़ौदा के महाKing सायाजी राव गायकवाड़ इंग्लैण्ड गये हुये थे। वह भारत के Kingओं में सर्वाधिक प्रबुद्ध और प्रतिभा सम्पन्न King थे और अपने कर्मचारियों का सावधानी और विवेक से चुनाव करने के लिए प्रसिद्ध थे। माहाKing ने श्री अरविन्द का इन्टरव्यू लिया और परिणामस्वReseller श्री अरविन्द बड़ौदा राजय की सेवा में लिये गये। इस प्रकार भारत आने के पूर्व ही उनकी Appointment हो गयी।

Fourteen वर्ष तक विदेष में रहकर 1893 में श्री अरविन्द भारत लौट आये और नौकरी करने बड़ौदा पहुँचे। वह 1907 तक लगातार तेरह वर्ष वहाँ नौकरी करते रहे। जब तक श्री अरविन्द बड़ौदा की नौकरी में रहे, प्रत्यक्ष Reseller से राजनीति में भाग नहीं ले सके थे। यद्यपि बाद के वर्षों में राष्ट्रीय गतिविधियों में भाग लेने के लिये वह लम्बी-लम्बी छुिट्ट्याँ लेते थे। उन्होंने प्रच्छन्न Reseller से राजनीतिक गतिविधियों का संचालन करना उचित समझा ताकि प्रकट Reseller से उनका नाम भी मालूम न हो सके।

बड़ौदा में दो-तीन सरकारी पदों पर काम करने के पष्चात् उनको वहाँ के कालेज में फ्रांसीसी भाषा का प्रोफेसर बना दिया गया। कॉलेज में भी वे निरन्तर उन्नति करते गये और सन् 1906 में जब राजनैतिक कार्य करने के लिये उन्होंने कॉलेज को छोड़ा तब वे वाइस प्रिंसिपल के पद पर काम कर रहे थे। उन्हें उस समय 750 रू मासिक वेतन मिल रहा था जो आज के सापेक्ष लगभग 95000 (पंचानवे हजार Resellerये) था। बड़ौदा पहुंचते ही अरविन्द Indian Customer भाषाओं संस्कृति, History और धर्म के अध्ययन में मग्न हो गये वह पाष्चात्य परम्परा के प्रकाण्ड थे ही। उन्होंने हिन्दी का भी अध्ययन Reseller। उन्होंने संस्कृत भाषा के माध्यम से बंगला भाषा ही नहीं सीखी बल्कि अंग्रजी भाषा के माध्यम से संस्कृत सीखी।

बड़ौदा में All साहित्यों का ऐतिहासिक तुलनात्मक अध्ययन करने के उपरान्त उन्होंने बेदों के महत्व को अनुभव करना आरम्भ कर दिया था। पारस्परिक पाश्चात्य बौद्धिक परम्परा में रंगे श्री अरविन्द के मन पर Indian Customer दर्शन के मूल स्त्रोत के अध्ययन का गहरा असर पड़ा। बड़ौदा रहते हुए भी बंगाल के क्रांतिकारी आन्दोलन के बौद्धिक नेता श्री अरविन्द ही थे। बड़ौदा राज्य की नौकरी 8 फरवरी 1893 को स्वीकार की थी और से वहाँ से 18 जून 1907 को त्यागपत्र देकर वह सेवामुक्त हुये। इस तरह बड़ौदा में उनका कुल आवास काल 13 वर्ष 5 महीने और 18 दिनों का रहा जो सम्भवत: उनके इंग्लैण्ड प्रवास के लगभग ही था।

वैवाहिक जीवन

सन् 1907 में श्री अरविंद का विवाह राँची, बिहार के निवासी श्री भूपालचन्द्र बोष की कन्या मृणालिनी देवी से हो गया। यद्यपि अपनी पत्नी के साथ श्री अरविन्द का व्यवहार सदैव प्रेम पूर्ण रहा, पर ऐसे असाधारण व्यक्तित्व वाले महापुरूष की सहधर्मिणी होने से उसे सांसारिक दृष्टि से कभी इच्छानुसार सुख की प्राप्ति नहीं हुर्इ। First तो राजनीतिक जीवन की हलचल के कारण उन्हें पति के साथ रहने का अवसर कम ही मिल सका फिर आर्थिक दृष्टि से भी श्री अरविन्द का जीवन जैसा सीधा-सादा था, उसमें उसे कभी वैभवपूर्ण जीवन के अनुभव करने का अवसर नहीं मिला, केवल जब तक वे बड़ौदा में रहे, वह कभी-कभी उनके साथ सुखपूर्वक रह सकीं। लेकिन जब समय तथा परिस्थितियों की माँग के According पॉण्डिचेरी जाकर रहने लगे तो उनकी बढ़ी हुर्इ योग-साधना की दृष्टि से पत्नी का साथ निरापद नहीं था तो भी कर्तव्य भावना से उन्होंने पॉण्डिचेरी आने को कह दिया पर उसी अवसर पर इनफ्लुएंजा की महामारी से आक्रमण से उनका देहावसना हो गया। श्री अरविन्द ने प्रारम्भ में ही मृणालिनी को अपने तीन पागलपन के बारे में बताया था-

  1. मुझे जो र्इष्वर ने दिया है उसमें से केवल निर्वाह हेतु अपने पास रखकर बाकि सब दुसरों को देना चाहता हूँ यदि र्इष्वर का अस्तित्व सत्य है तो। 
  2. मैं र्इष्वर का साक्षात्कार करना चाहता हूँ। 
  3. मैं भारत को अपनी माँ मानता हूँ और उसे पूजना चाहता हूँ। मेरे पास जो कुछ भी वह भारत माता का ही है। ये तीन पागलपन अरविन्द के जीवन में अत्यन्त Historyनी प्रसंग है। 

राजनैतिक जीवन से अध्यात्मिक जीवन में प्रवेश

श्री अरविन्द की जीवन यात्रा में अब राजनैतिक क्रान्ति की अग्नि प्रज्वलित होने लगी। उनके व्यक्तित्व में भरे हुए साहस, कौषल तथा देषप्रेम की भावना इस घटनाओं से मुखरित होते हैं। 30 अप्रैल को Single घोड़ा गाड़ी पर यह समझ कर बम फेंका गया कि उसमें किंग्स फोर्ड बैठे हैं जबकि मुजफ्फरपुर नगर कल्ब से दो महिलायें अपने घर जा रही थीं। मि. फोर्ड तो बच गये पर दोनों महिलाओं की मृत्यु हो गर्इ। इस उपद्रव से क्षुब्ध होकर ब्रिटिष सरकार ने 2 मर्इ को कलकत्ता में उन अनेक स्थानों की तलाष करवायी जिन पर First से ही निगरानी की जा रही थी। ये विभिन्न स्थान थे 32 मुरारी पुक्कुर गार्डन, 15 गोपी मोहन दत्ता लेन, 33/4 Kingनावाक्रिस्ता स्ट्ीट, 430/2 तथा 134 हैरीसन रोड, 48 ग्रे स्टीट रोड इत्यादि। इन सबमें श्री अरविन्द का कलकत्ता का निवास स्थान सबसे ऊँचा था। बाग में श्री अरविन्द घोष सहित 13 षड्यंत्रकारियों को पकड़ा गया।

8 मर्इ प्रात: 5 बजे अरविन्द को उसके घर से गिरफ्तार कर लिया गया। जिसका वर्णन उन्होंने कारा-कहानी नामक पत्र में Reseller था। Single दिन हवालात में रहने के पष्चात श्री अरविन्द को अलीपुर जेल भेजा गया। अरविन्द को जमानत में भी नहीं छोड़ा गया। 19 अगस्त 1908 मुकदमा सेषन के सुपुर्द Reseller गया पैसा खत्म होने के कारण अरविन्द के वकील ने पैरवी करनी छोड़ दी। ऐसे में चितरंजन दास नामक वकील ने नि:षुल्क मुकदमें की पैरवी की। इस मुकदमें में 206 साक्षियों के बयान लिये गये 4000 दस्तावेज पेष किये गये बम, बन्दूक, गोला आदि विस्फोटक विषैले अम्ल और अन्य प्रस्फोटक मिलाकर 5000 वस्तुऐ साक्ष्य सामग्री के Reseller में प्रस्तुत की गर्इ थी मुकदमा सेषन जज की बीच कम्पाट की अदालत में था जो कि कैम्ब्रिज में अरविन्द के सहपाठी थे ग्रीक की परीक्षा में उनके बाद दूसरा स्थान पा सके थे। 136 दिन तक सुनवार्इ चली 9 दिन तक चितरंजन दास ने भाषण दिया जो कि अद्वितीय था। 6 मर्इ 1909 को अदाल ने अपना निर्णय दिया जिसमें अरविन्द को बरी कर दिया गया।

श्री अरविन्द के जीवन को भी अलीपुर कारागार के ‘ आश्रमवास’ ने Single नयी दिषा दी। जेल में श्री अरविन्द का योगाभ्यास, दैवी अनुभूतियाँ, आत्मचिन्तन और गीता उपनिषद् पर विचार चलता रहा। वहां ध्यानस्थ मुद्रा में उन्हें विवेकानन्द की वाणी भी सुनार्इ दी। अपने सब अनुभवों का description श्री अरविन्द ने बाद में पांडिचेरी में साधकों के साथ बातचीत करते हुए समय-समय पर सुनाया था। 14 मर्इ 1909 को उन्होंने देषवासियों के नाम Single पत्र में कृतज्ञता व्यक्त की और लिखा कि जिन लोगों ने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष Reseller में मेरे प्रवास के दौरान मेरी मदद की हैं, मैं उनका अभारी हूँ। यदि देष के प्रति मेरे प्रेम ने मुझे खतरे में डाला था तो देषवासियों के प्रेम ने मुझे उस खतरे से Windows Hosting निकाल लिया है।

30 मर्इ 1909 को श्री अरविन्द में उत्तरपाड़ा अभिभाषण में Single जनसभा को सम्बोधित Reseller। उनका यह उत्तरपाड़ा अभिभाषण बहुत प्रसिद्ध है। अपने जेल प्रवास की अनुभूतियों का description और भावी कार्यक्रम की Resellerरेखा का संकेत करते हुए श्री अरविन्द ने उत्तरपाड़ा में कहा था- भारत का उठना Second देषों की तरह नहीं है। वह अपने लिये नहीं उठ रहा है कि दुर्बलों को कुचले। वह संसार पर उस शाष्वत प्रकाष को फैलाने के लिए उठ रहा है, जो उसे सौंपा गया है। भारत का अस्तित्व सदा से ही Humanता के लिए रहा है, अपने लिए नहीं, अत: यह आवष्यक है कि वह महान- बने अपने लिए नहीं Humanता के लिए।

बाद में भारत के वायसराय लार्ड मिन्टों के अरविन्द को देष निकाला दिया जाने का प्रस्ताव ठुकरा दिया गया। अरविन्द ने Single दिन की घटना को बताते हुए कहा है कि- मै आगामी घटनाओं के बारे में अपने मित्रों की जोषपूर्ण टिप्पणियाँ सुन रहा था कि मुझे,ऊपर से मेरे सुपरिचित स्वर में Single आज्ञा मिली, केवल तीन Wordों में ‘चन्द्रनगर को जाओं’। बस, कोर्इ 10 मिनट के अन्दर में चन्द्रनगर जाने वाली नाव में सवार था। उसके बाद उसी ‘ आज्ञा’ के According मैं चन्द्रनगर भी छोड़कर 4 अप्रैल 1910 को पॉडिचेरी जा पहुँचा, पॉडिचेरी पहुँच कर श्री अरविन्द ने राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेना छोड़ दिया। वह पुन: भार आने के उद्देष्य से गये थे परन्तु Human जाति के लिए 19वीं शताब्दी में होने वाली भौतिक क्रान्ति के साथ वह बौद्धिक क्रान्ति की आवष्यकता का अनुभव कर रहे थे। उनकी दृष्टि में भारत अब भी अपने गौरवमय अतीत में Humanता के भविष्य में कुंजी लिये हुए था। अत: उन्होंने अपनी शक्ति को राजनीतिक गतिविधियों से हटाकर इस दूसरी दिषा में लगा दिया। 1905 से 1910 तक की अपनी क्रान्तिकारी गतिविधियों के परिणामों पर प्रकाष डालते हुए 1914 में हिन्दू पत्र के संवाददाता को बताते हुए उन्होंने कहा-1905 से 1910 तक की गतिविधयों की उपलब्धि भारत में संपूर्ण Humanता से अलग राष्ट्रीय स्तर को प्राप्त करना था। उस आन्दोलन ने उस कार्य की पूर्ति कर दी। भविष्य के लिए Single अच्छी नींव का निर्माण कर दिया। वास्तव में कहा जा सकता है कि 1910 तक वह संकुचित Meansवाली राजनीति से ऊपर उठ गये थे। इस तरह श्री अरविन्द के रानीतिक दर्शन की टेक, आध्यात्मिक राष्ट्रवाद-अन्त में उनको यहां तक ले गर्इ कि वह रानीति को ही त्यागकर आध्यात्मिक उन्नति के माध्यम से अन्तिम समाधान की खोज में लग गए केवल अपने लिए नहीं, बंगाल के लिये नहीं, भारत के लिये नहीं बल्कि सम्पूर्ण Humanता के लिये। 1910 से 1950 तक उनके जीवन के अन्तिम चालीस वर्ष इस महान और उच्च आदर्ष को यथाषीघ्र प्राप्त करने के प्रयत्न में ही बीते। 18 वर्ष की उम्र में श्री अरविन्द ने ‘हकोवा’ नामक ग्रीक अनुच्छेद का अनुवाद Reseller था। अकसर वह ग्रीक और लैटिन भाषा में लिखा करते थे। इंग्लैण्ड में लिखी गयी उनकी प्रारम्भिक कविताओं के संग्रह का नाम ‘सांग्स टू मर्टिला’ है।

पत्रकारिता के क्षेत्र में योगदान

श्री अरविन्द ने पत्रकारिता के क्षेत्र में आष्चर्य जनक ख्याति प्राप्त की थी। उनका Single-Single लेख ऐसा प्रतीत होता था जैसे कि शीघ्र ही ब्रिटिष शासन की नींव भारत से लिने वाली है। 1886 में लन्दन के स्कूल से ही उन्होंने कविताऐं लिखनी शुरू कर दी थीं, 64 वर्ष की आयु में 1950 में उन्होंने सावित्री महाकाव्य ग्रन्थ का प्रकाषन Reseller। अलीपुर केन्द्रीय जेल के अनुभव पर कारा कहानी नामक लेख बंगाली भाषा में लिखा जहाँ पर वे 1908-1909 तक बन्दी रहे थे।

1893-1909 तक समस्त लेख बंगाली में ही होते थे। इसके अतिरिक्त अपने जीवन के 78 वर्ष के दौरान अंग्रेजी भाषा में ही लेख लिखे थे। 1893-94 के दौरान उन्होंने बहुत से लेख Single सामान्य शीर्षक पुरानों के लिये नये दीप के अन्तर्गत इन्दुप्रकाष बम्बर्इ के मराठी पत्र को दिए। 1905 में उन्होंने बंगाल में बन्दे मातरम् पत्र का सम्पादन भी Reseller। वीरेन्द्र कुमार घोष द्वारा प्रकाषित बंगाल के प्रसिद्ध क्रांतिकारी साप्ताहिक ‘युगान्तर’ में भी अरविन्द के पत्र छपते थे। अलीपुर बम केस से मुक्त होने के बाद 9 जून 1909 अरविन्द ने साप्ताहिक पत्रिका ‘कर्मयोगिनी’ का पहला अंक प्रारम्भ की। 1909 में साप्ताहिक पत्रिका धर्म जो की बंगाली में भी प्रारम्भ थी। 

अरविन्द ने 1906-1910 तक 5 वर्ष तक सम्पादन कार्य Reseller। यत्र-तत्र वह विभिन्न पत्रिकाओं में बिना अपना नाम दिये हुऐ सम्पादकीय देते रहे। अपने लेख और पत्रिकाओं के माध्यम से अरविन्द का स्वReseller सामने आया उसने उन्हें राष्ट्रीय पत्रकारों की First श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया। उनका लोहा अंग्रजी सरकार के पत्र और प्रषासन भी मानने लगे।

श्री अरविन्द Single राष्ट्रीय पत्रकार के Reseller में अग्रणी और सर्वमान्य ही नहीं, वह प्रतीक के Reseller में है। उन्होंने अपने लेखों और पत्रकारिता के माध्यम से नवचेतना को जाग्रत की ही, नवयुवकों और देष को Single नया दृष्टिकोण प्रदान Reseller। अरविन्द द्वारा लिखित प्रमुख ग्रन्थ के नाम है- दिव्य जीवन, योग समन्वय, वेद रहस्य, गीता प्रबन्धन, केन उपनिषद्, र्इशोपनिषद्, योग के आधार, Human Singleता का आदर्ष, Human विकास चक्र, भावी कविता दिसम्बर, द सैसांज इन इण्डिसा, इज इण्डिजा सिविलाइज्ड, Indian Customer संस्कृति की तर्क बुद्धि परक समीक्षा, Indian Customer संस्कृति के बचाव में आदि।

यौगिक And साधनात्मक जीवन

श्री अरविन्द जब भारत आये तब वे आध्यात्मिक विषयों से बिल्कुल अनजान थे। हिन्दू धर्म संस्कति से उन्हें जरा भी परिचय नहीं था। श्री अरविन्द फरवरी 1893 में भारत लौटे। भारत की धरती पर पांव रखते ही श्री अरविन्द ने अनुभव Reseller के उन पर Single गंभीर शांति का अवतरण हुआ है और वह शांति उन्हें चारों ओर से लपेटे रहती थी। स्वयं उन्होंने Single Discussion में बताया था “भारत में आने के बाद से मेरा जीवन और मेरा योग दोनों ही, Single साथ लौकिक और परलौकिक रहे हैं, अपोलो बंदरगाह पर पैर रखते ही मुझे आध्यात्मिक अनुभूतियां होने लगी थीं लेकिन ये संसार से अलग ले जाने वालीं न थीं।” यह 1893 का वर्ष भारतवर्ष के लिए शुभ वर्ष सिद्ध हुआ। क्योंकि इसी वर्ष में श्री अरविन्द ने भारत में पदार्पण Reseller था, इसी वर्ष में स्वामी विवेकानन्द षिकागों के सर्वधर्म सम्मेलन में भाग लेने के लिए अमेरिका गये और इसी वर्ष गांधीजी Indian Customerों के मामले को हाथ में लेकर दक्षिण अफ्रीका गये और इसी वर्ष भगिनी निवेदिता भारतवर्ष आयी।

Single समय श्री अरविन्द घोड़ा-गाड़ी में बैठकर कहीं जा रहे थे। घोड़ा-गाड़ी कमाटी बाग के पास आर्इ तब उनके अंतर में अचानक ऐसा लगा कि घोड़ा Single कदम आगे बढ़ा तो दुर्घटना हो जायेगी। उनके अंतर में इस दुर्घटना का दृष्य Single क्षण में स्पष्ट हो गया, परंतु उनके आष्चर्य के बीच, उनके अंदर से तेजोमय पुरूष बाहर आया और घोड़े की लगाम हाथ में लेकर खींच ली, घोड़े पर काबू कर लिया और घोड़ा रूक गया। वह Single कदम भी आगे नहीं बढ़ सका।

श्री अरविन्द का भारत में आगमन ही आध्यात्मिक अनुभूति से हुआ। इस सपरम शांति के अपने भीतर अवतरण के साथ Single दूसरी अनुभूति भी हुर्इ। दार्जलिंग के स्कूल में जिस तमस ने घेर लिया था और जो पूरे इंग्लैण्ड में निवास के दौरान समया रहा। वह इस शान्ति के आते ही चला गया। शरीर छोड़कर चली गयी आत्माओं का जगत में से बुलाकर उनके साथ संपर्क हो सकता हैं इसका अनुभव भी श्री अरविन्द को बड़ौदा में हुआ। प्लेन्चेट के प्रयोग द्वारा टेबल पर टकोर करके, उसके द्वारा प्रश्नों के उत्तर प्राप्त करते थे। वे प्लेन्चेट द्वारा आत्माओं को बुलाते थे। Single बार श्रीरामकृष्ण परमहंस की आत्मा को बुलाया गया था। वे कुछ बोले नहीं थे, जाते-जाते उन्होंने मात्र इतना कहा था, ‘मंन्दिर बनाओ-मन्दिर बनाओ’। उस समय भवानी मन्दिर की योजना सबके मन में चल रही थी। इसलिए इन Wordों का Means ‘भवानी’ मन्दिर का निर्माण करों ऐसा सबने लिया, परंतु वर्ष बाद यौगिक सिद्धियाँ प्राप्त करने के बाद श्री अरविन्द में इन Wordों का सही Means करते हुए बताया कि ‘मन्दिर बनाओ’, इसका Means है कि तुम अपने अंदर माँ का मन्दिर बनाओ। अपने आप को ऐसा Resellerान्तरिक कर दो कि वह माँ के मन्दिर का Reseller बन जाये।

अनन्त ब्रह्म के साक्षात्कार की अनुभूति भी उनके जीवन में अनायास उत्तर आयी थी। उस समय वे महाKing सयाजीराव गायकवाड़ के साथ कष्मीर गये थे, तब उन्हें निर्वाण या ब्रह्म के विषय कोर्इ ज्ञान नहीं था। उन्होंने शास्त्रों का ऐसा कोर्इ अध्ययन भी नहीं Reseller था फिर भी तख्त-ए-सुलेमान की टेकरी, जिसे शंकर आचार्य की टेकरी भी कहते हैं उसी पर अनन्त ब्रह्म का अनुभव हुआ। इस अनुभूति के विषय में उन्होंने षिष्यों से वार्तालाप में कहा था, काष्मीर में तख्त-ए-सुलेमान की टेकरी पर शून्य में All वस्तुएँ लोप होने लगीं, मैं स्वयं और समग्र विष्व Single सर्व-व्यापी अगम्य शून्य में विलीन हो रहे हैं, ऐसा मुझे लगा था। इस अनुभव का व्यक्त करते हुए उन्होंने अद्वैत नाम की कविता भी लिखी थी।

इसी प्रकार पत्थर की मूर्ति में भगवान हो सकते हैं, ऐसा First श्री अरविन्द को स्वीकार नहीं था। परंतु चांदौर-करनाली में Single छोटे काली मन्दिर में गये वहाँ उन्होंने माँ काली की पाषाण प्रतिमा की ओर देखा तो वह मात्र पाषाण प्रतिमा न थी, अपितु साक्षात माँ काली थीं। इस आध्यात्मिक अनुभव से मूर्तिपुजा के विषय में उनकी शंका निर्मूल हो गर्इ। तो इस प्रकार अनायास हुए सब आध्यात्मिक अनुभवों ने श्री अरविन्द के यूरोपियन संस्कार संपन्न मानस में आध्यात्मिक जगत के प्रति आकर्षण जगा दिया। उनके अंतर को मोड़ दी जिसने उन्हें योग के मार्ग पर सहज Reseller में अतंत: ला ही दिया।

श्री अरविन्द की मौन साधना

इस आध्यात्मिक अनुभूतियों ने श्री अरविन्द को योग के गहरे आयामों को जानने के लिए प्रेरित Reseller, जिससे योग में श्री अरविन्द की रूचि जागी। श्री अरविन्द जगत का त्याग करके योग मार्ग पर जाने के बिलकुल भी इच्छुक न थे। उस समय तो उनका Only ध्येय भारत की स्वतंत्रता था और इस कार्य के लिए उन्हें आध्यात्मिक शक्ति की आवष्यकता महसूस होने लगी थी। इस बात के लिए तब वे और अधिक प्रेरित हुए, जब उनके छोटे भार्इ वीरेन्द्र, भवानी मन्दिर की स्थापना के लिए विन्ध्य के जंगल गये थे। वहाँ से विषैला बुखार लेकर बड़ौदा आये। यह बुखार किसी भी प्रकार से उतर नहीं रहा था। उसी समय Single नागा संन्यासी श्री अरविन्द के घर आया। वीरेन्द्र की बिगड़ी स्थिति में वहीं सोये पड़े थे तभी नागा सन्यासी की दृष्टि उन पर पड़ी और श्री अरविन्द से पूछा कौन सोया है। तब श्री अरविन्द ने बताया कि वीरेन्द्र के स्वास्थ्य की स्थिति काफी चिंताजनक है। तब नागा साधु ने Single प्याला भर जल मंगाया तथा उसे मंत्र शंक्ति से अभिमंत्रित Reseller और उसे वीरेन्द्र को पीने के लिए दे दिया, तत्पष्चात वीरेन्द्र का बुखार उतर गया। इस घटना से श्री अरविंद ने अनुभव Reseller कि योग शक्ति का व्यवहार में उपयोग कर सकते हैं तो क्यों न इस शक्ति का प्रयोग देष की स्वतंत्रता के लिए Reseller जाये।

श्री अरविन्द ने विधिवत Reseller से योग साधना आरंभ करने का संकल्प लिया उस समय प्राणायाम को विषेष योग पद्धति के Reseller में जाना जाता था। तो फिर श्री अरविन्द ने अपनी योग साधना का प्रारंभ प्राणायाम से ही Reseller। उनके मित्र बाबाजी देवधर इंजीनियर स्वामी ब्रह्मानन्द के षिष्य थे। वे प्राणायाम के सत्त अभ्यासी थे, श्री अरविन्द ने इनसे ही प्राणायाम की विधित पद्धति सीख ली थी। वे प्रतिदिन लगभग पांच घण्टे प्राणायाम करते थे। सुबह तीन घंटे तथा शाम को दो घंटे अभ्यास Reseller करते थे इस प्राणायाम की शक्ति का अनुभव बताते हुए वे बताये थे- “ मेरा अनुभव है कि इससे बुद्धि और मस्तिष्क प्रकाषमय बनते हैं। जब मै बड़ौदा में प्राणायाम का अभ्यास करता था तो प्रतिदिन 5-6 घंटे करता था। तब मन में बहुत प्रकाष और शान्ति छा गर्इ हो ऐसा लगता था। मैं उस समय कविता लिखता था First रोग 5-6 पंक्तियाँ और महीनें में दो सौ पंक्तियाँ लिखी जाती थी। प्राणायाम के बाद में दो सौ पक्तियाँ आधे घंटे में लिख सकता था। मेरी स्मरण शक्ति First मंद थीं प्राणायाम के अभ्यास के बाद जब प्रेरणा होती तब All पंक्तियाँ अनुक्रम के According याद रख लेता था। साथ ही मुझे मस्तिष्क के चारों ओर विद्युतषक्ति का चक्र अनुभव होता था। प्राणायाम के करने के बाद अथक परिश्रम करने की शक्ति भी आ गर्इ थी। First बहुत काम करने पर थकान लगती थी प्राणायाम से शरीर स्वस्थ हो गया। Single बात और प्राणायाम करते समय मच्छर बहुत हो तो भी मेरे पास फटकते भी नहीं थे।” अब अनुभूतियां इतनी प्रगाढ़ होने लगीं कि विश्वास हो गया कि हिन्दू धर्म का मार्ग सत्यान्वेषण का ही मार्ग है तथा उन्होंने माँसाहार का भी त्याग कर दिया तथा Single माह के भीतर ही सूक्ष्म जगत आंखों के सामने प्रकट होने लगा। अन्र्तदृष्टि जाग्रत होने लगी।

30 दिसम्बर 1907 में श्री अरविन्द बड़ौदा आये और यही पर उनकी मुलाकात महाराष्ट्र के सिद्ध योगी श्री विष्णु भास्कर लेले से हुर्इ। गिरनार पर्वत पर उन्होंने कठोर साधना की थी। भगवान दत्तात्रेय की साधना करते हुए उन्हें भगवान दत्तात्रेय के बाल स्वReseller के दर्शन हुए थे तथा योग विद्या भी उनकी कृपा से ही मिली थी। वे वीरेन्द्र को नवसारी में मिले थे। बड़ौदा में खासीराव यादव के घर पर श्री अरविन्द तथा योगी लेले की मुलाकत हुर्इ वहां दोनों ने लगभग आधे धंटे पर बातचीत की तथा श्री अरविन्द को उन्होंने कहा कि साधना में निष्चित परिणाम प्राप्त करने के लिए तुम्हें राजनीतिक प्रवृतियों को छोड़ना पड़ेगा। तब श्री अरविन्द ने कुछ दिनों के लिए राजनीतिक प्रवृत्ति बन्द कर दी, और उनकी योगसाधना नये आयामों की ओर मुड़ चली । इस विषय में श्री अरविन्द ने स्वयं लिखा है- ‘ योगी लेले ने मुझसे कहा, बैठ जाओ, देखा और तुम्हें पता चलेगा कि तुम्हारे विचार बाहर से तुम्हारे भीतर आते हैं। उनके घुसने से First ही उन्हें दूर फेंक दो, मैं बैठ गया और देखा, यह जानकर चकित रह गया कि सचमुच बात ऐसी ही है, मैंने स्पष्ट Reseller से देखा और अनुभव Reseller कि विचार पास आ रहा है, मानों सिर के भीतर से या ऊपर से घुसना चाहता हो और उसके भीतर आने के पूर्व ही मैं स्पष्ट Reseller में उसे पीछे धकेल देने में सफल हुआ। तीन दिन में वस्तुत: Single ही दिन में मेरा मन शाष्वत शांति से परिपूरित हो गया- वह शांति अभी तक विद्यमान है।’ इस प्रकार उन्होंने बताया की किस प्रकार अकल्पनीय ढंग से मुझे निर्वाण का अनुभव हो गया, बहुत लम्बे समय तक यह अनुभव मेरे अंदर रहा। मुझे लगा कि अब मैं चाहूँ तो भी उससे छूट नहीं सकता था। दूसरी प्रवृत्तियों में लगा रहने पर भी यह अनुभव मुझमें स्थायी Reseller से बना रहा। इस अनुभव से श्री अरविन्द का मानस जगत समाप्त हुआ तथा ब्रह्म जगत अब उद्घटित हो गया। अब उनकी विचार करने की पद्धति ही बदल गयी। तीन ही दिन में चेतना इतनी परिवर्तित हो जायेगी, इसका ध्यान न लेले को था ना ही स्वयं श्री अरविन्द को। इस बारे में श्री अरविन्द ने लिखा है- “ First फल था अत्यंत शक्तिशाली अनुभूतियों की Single श्रृंखला और चेतना में कुछ ऐसे आमूल परिवर्तन, जिनकी लेले ने कल्पना भी न की थी और जो मेरे निजी विचारों के सर्वथा विपरीत थी, क्योंकि उन्होंने मुझे विस्मय जनक तीव्रता सहित स्पष्ट दिखा दिखा दि कि यह संसार परब्रह्म निराकार सर्वव्यापकता में चलचित्रवत् शून्य आकृतियों की लीला के समान है।”

वेदान्त दर्शन की चरमावस्था की साधना का First सोपान बना परंतु उन्हें Single प्रकार की समस्या का भी अनुभव हुआ क्योंकि ज्योंही वे तीन दिन बाद बाहर आये उन्हें मुम्बर्इ के राष्ट्रीय पक्ष की ओर से भाषण देने का निमंत्रण मिला, परंतु श्री अरविन्द की समग्र चेतना नीरव ब्रह्म के साथ Singleाकार थी, वे बोलते भी तो क्या बोलते? यह समस्या श्री अरविन्द ने योगी लेले के समक्ष रखी। उन्होंने कहा कि All जाकर श्रोताओं को नारायण मानकर नमस्कार करो और फिर ऊपर से आने वाली प्रेरणा के लिये शांत होकर प्रतीक्षा करों, तुम्हें जो बोलना होगा वह वाणी अपने आप उतर आयेगी। फिर इसके बाद श्री अरविन्द ने जो भी व्याख्यान दिये वे सब इसी प्रकार ऊध्र्व से उतर आयी। योगी लेले और श्री अरविन्द दोनों में से किसी को यह पता नहीं था कि परमात्मा का महान कार्य करने की पूर्व तैयारी का तो यह First चरण है। अब श्री अरविन्द चौबीसों घंटे ध्यान की स्थिति में रहते थे और सारे कार्य अंतर्यामी के आदेश से होने लगे। श्री अरविन्द ने अपने इस बदली हुर्इ स्थिति के बारे में Single पत्र में मृणालिनी को बताया था-” तुमसे मिलने के लिये 4 जनवरी का दिन निश्चित था, पर मैं आ नहीं सका, यह मेरी अपनी इच्छा से नहीं हुआ हैं जहाँ भगवान मुझे ले जाना चाहते हैं, वहाँ मुझे जाना पड़ता है, उस समय मैं अपने काम से नहीं गया था, भगवान के काम से गया था, मेरे मन की दषा Singleदम बदल गयी है अभी तो इतना ही कह सकता हूँ कि मैं मेरा स्वामी नहीं हूँ। भगवान मुझे जहाँ ले जाएं वहां कठपुतली की तरह जाना है। भगवान जो कुछ करवाना चाहते हैं मुझे कठपुतली की तरह करना है। अब से मैं बिल्कुल मुक्त नहीं हूँ। अब से जो कुछ कर रहा हूँ उसका आधार मेरे संकल्प से नहीं परंतु यह सब भगवान की आज्ञा से हो रहा है।” र्इ.सं. 1910 से 1914 तक का समय श्री अरविन्द की मौन साधना का काल था। श्री अरविन्द ने सन् 1908 में योग में पद्धतिपूर्वक प्रवेश Reseller था। र्इ.सं. 1914 तक छ: वर्ष के अन्तराल में उनके समझ नर्इ चेतना का अवतरण की साधना का कार्य स्पष्ट हो गया। 

उत्कट साधना के लिए श्री अरविन्द 1926 में Singleान्त में चले गए थे। 1926 से 1938 तक का बारह वर्ष के उनके जीवन का कालखण्ड अभेद्य था। उनके सेवक श्री चंपकलला और श्री माता जी के सिवाय उस Singleांत में किसी का प्रवेष नहीं था। दुर्घटना जिसमें उनके जांघ की हड्डी टूट गर्इ थी, कुछ षिष्यों का उनके करीब जाने का अवसर मिला था। छ: माह में वे पूर्ण स्वस्थ हो गए थे किन्तु प्राणपण से सेवा करने वाले षिष्यों को वह विदा नहीं कर सके। 1938 से 1950 दूसरा बारह वर्ष का समय श्री अरविन्द की साधना काल का अनोखा समय था। सुबह नौ, दस बजे तक वे हिन्दू समाचार पत्र पढ़ते थे और फिर दोपहर तीन, चार बजे तक लम्बा विराम होता था, जिसमें वे विशेष योग साधनायें करते थे। वे अक्सर आराम कुर्सी पर या बिस्तर या खुली आँखों से जाग्रत समाधि में करते थे।

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