श्री अरविन्द का जीवन-दर्शन And शिक्षा-दर्शन

श्री अरविन्द ने योग दर्शन के महत्व को रेखांकित करते हुए आधुनिक परिवेश के अनुReseller उसकी पुनव्र्याख्या की। उनके दर्शन को अनुभवातीत सर्वांग योग दर्शन के नाम से जाना जाता है क्योंकि उन्होंने अपने विचार को योग की संकुचित व्याख्या तक सीमित रखने की जगह सत्य तक पहुँचने के लिए विभिन्न मार्गों को समन्वित Reseller में बाँधकर देखने का प्रयास Reseller।

अरविन्द के According जीवन Single अखण्ड प्रक्रिया है। चेतना के अनेक स्तर हैं। इसे निम्नत्तर स्तर से उठाकर उच्चतम स्तर तक ले जाया जा सकता है। उन्होंने अनुभव Reseller कि आधुनिक युग में मस्तिष्क And बुद्धि की दृष्टि से विकास चरम को प्राप्त कर चुका है। अब दैवी समाज की कल्पना साकार की जा सकती है। अगर इससे आगे नहीं बढ़ा गया तो ह्रास या पराभव निश्चित है। अत: इस चेतन तत्व को प्रकाश, शक्ति And सत्य से समन्वित करना आवश्यक है। क्योंकि इसी के माध्यम से वह Human जीवन के प्रमुख उद्देश्य अनुभवातीत सत्य-चेतन-तत्व में संपूर्ण Reseller से Resellerान्तरित हो सकती है।

श्री अरविन्द के According इस सृष्टि के रचयिता, पालनकर्ता और संहारक र्इश्वर है। जिसे धर्म में र्इश्वर कहा जाता है उसे ही दर्शन में ब्रह्म कहा गया है। र्इश्वर सृष्टि का कर्ता, सनातन और सर्वात्मा है। र्इश्वर परमपुरूष है, ब्रह्म निर्विकार And निराकार है किन्तु अन्तत: दोनों Single हैं। र्इश्वर द्वारा इस जगत के निर्माण की प्रक्रिया का विश्लेषण श्री अरविन्द ने दो प्रकार से Reseller है। विकास की दो विपरीत दिशाएँ हैं- अवरोहण And आरोहण। ब्रह्म अवरोहण द्वारा अपने को वस्तु जगत में परिवर्तित करता है। इसके Seven सोपान हैं- सत्, चित्त, आनन्द, अतिमानस, मानस, प्राण And द्रव्य। दूसरी प्रक्रिया है आरोहण की। इसमें द्रव्य Reseller इस जगत में मनुष्य अपने द्रव्य Reseller से आरोहण द्वारा सत् की ओर क्रमश: चलायमान होता है। इसके भी Seven चरण हैं द्रव्य, प्राण, मानस, अतिमानस, आनन्द, चित्त और सत्। अरविन्द आत्मा को परमात्मा से इस Means में भिन्न मानते हैं कि आत्मा में परमात्मा के दो गुण- आनन्द और चित्त तो होते हैं पर सत् नहीं। विभिन्न योनियों से होते हुए आत्मा मनुष्य योनि में प्रवेश करती है और आनन्द और चित्त के साथ सर्वोच्च उद्देश्य सत् को प्राप्त करती है। श्री अरविन्द भौतिक And आध्यात्मिक दोनों ही तत्वों के मूल में ब्रह्म को पाते हैं। अत: दोनों ही तरह के ज्ञान के Singleात्मकता को जानना ही ज्ञान है। व्यावहारिक दृष्टि से ज्ञान को उन्होंने अन्य Indian Customer मनीषियों की तरह दो भागों में बाँटा है- द्रव्यज्ञान (या अपरा विद्या) And आत्म ज्ञान (परा विद्या)। द्रव्यज्ञान प्रारम्भ है जिसकी परिणति आत्मज्ञान में होनी चाहिए। द्रव्यज्ञान प्राप्त करने का साधन इन्द्रियाँ हैं और आत्मज्ञान प्राप्त करने का साधन अन्त:करण है। आत्मतत्व का ज्ञान योग के द्वारा ही संभव है। श्री अरविन्द के According Human जीवन का उद्देश्य सत् चित्त And आनन्द की प्राप्ति है। इस महान लक्ष्य को गीता में प्रतिपादित कर्मयोग And ध्यानयोग द्वारा प्राप्त Reseller सकता है। संसार से पलायन की जगह निष्काम भाव से कर्म करने से ही सत्, चित्त And आनन्द की प्राप्ति की जा सकती है। पर इसके लिए स्वस्थ शरीर, विकार रहित मन And संयमित आचार-विचार आवश्यक है। योग के द्वारा Human अपने शरीर, सोच , विचार And कार्य पर नियंत्रण रख उन्हें उचित दिशा में ले जा सकता है।

श्री अरविन्द का दर्शन इस धारणा पर आधारित है कि Human का बौद्धिक विकास अपने चरम बिन्दु पर पहँुच गया है। इसके आगे आन्तरात्मिक और आध्यात्मिक विकास होना चाहिए। यदि Human इस दिशा में नहीं बढ़ता है तो न केवल उसका विकल्प क्रम अवरूद्ध होगा वरन् वह पतन की ओर अग्रसर हो जायेगा।

इन्द्रियानुभव को श्री अरविन्द सर्वोच्च ज्ञान नहीं मानते थे, वरन् उसे निम्न कोटि का ज्ञान मानते थे। उनके According ज्ञान की अनेक कोटियाँ है और सर्वोच्च कोटि आध्यात्मिक अनुभूति है जिसे हम इस जगत में प्राप्त कर सकते हैं।

अरविन्द मनुष्य के Singleांगी विकास को हानिप्रद मानते थे। वे स्वस्थ समाज के निर्माण हेतु Human के सर्वांगीण विकास पर जोर देते थे। इसके लिए उन्होंने प्राच्य And पाश्चात्य संस्कृतियों के समन्वय पर जोर दिया। उनके दर्शन में न तो प्राचीन Indian Customer संस्कृति से पलायन का भाव है न ही पाश्चात्य संस्कृति का अन्धानुकरण। दोनों का समन्वित Reseller ही बेहतर शिक्षा व्यवस्था का विकास कर सकता है।

1907 में श्री अरविन्द ने ‘ए सिस्टम ऑफ नेशनल एडुकेशन’ नामक निबन्ध लिखा। इसमें उन्होंने अपनी शिक्षा की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए कहा ‘‘प्रत्येक Human के अन्दर कुछ र्इश्वर प्रदत्त दिव्य शक्ति है, कुछ जो उसका अपना है, जिसे पूर्णता की ओर अग्रसर Reseller जा सकता है। शिक्षा का कार्य है इसे चिन्हित करना, विकसित करना And उपयोग में लाना। शिक्षा का सर्वप्रमुख लक्ष्य होना चाहिए विकसित होती आत्मा की अन्तर्निहित शक्ति को पूर्णत: विकसित कर श्रेष्ठ कार्य हेतु तैयार करना।’’ 1910 में अपने Single Second बहुचर्चित लेख में अरविन्द ने Single ऐसा वाक्य लिख जो शिक्षा का सूत्र वाक्य बन गया। उन्होंने लिखा ‘‘सही शिक्षा का First सिद्धान्त है कि कुछ भी पढ़ाया नहीं जा सकता है।’’

इस प्रकार स्पष्ट है कि श्री अरविन्द के विचार में हर व्यक्ति की आत्मा में ज्ञान अन्तर्निहित है। उन्होंने सही शिक्षा को उद्घाटित करने का साधन अन्त:करण को माना। श्री अरविन्द के According अन्त:करण के चार पटल हैं- चित्त, मानस, बुद्धि और अन्तदर्ृष्टि। चित्त वस्तुत: भूतकालिक मानसिक संस्कार है। जब कोर्इ व्यक्ति कोर्इ बात याद करता है तो वह छन कर चित्त में संग्रहित होती है। इसी से क्रियाशील स्मृति Need And क्षमतानुसार कभी-कभी कुछ चीजों को चुन लेती है। सही चुनाव हेतु उपयुक्त शिक्षा And प्रशिक्षण की Need पड़ती है। Second पटल मानस को मस्तिष्क कहा जा सकता है। यह ज्ञानेन्द्रियों से तथ्यों को प्राप्त कर उसे विचार का Reseller देता है। ज्ञानेन्द्रियों के अतिरिक्त मस्तिष्क स्वंय भी तथ्यों या संप्रत्ययों को ग्रहण करता है। अत: ज्ञानेन्द्रियों And मस्तिष्क का प्रशिक्षण लाभदायक है। अन्त:करण के Third पटल ‘बुद्धि’ की भूमिका शिक्षा में अधिक महत्वपूर्ण है। मस्तिष्क द्वारा प्राप्त किए ज्ञान को व्यवस्थित करना उनका विश्लेषण And संश्लेषण कर निष्कर्ष पर पहुँचने का कार्य बुद्धि का है। अन्त:करण का चतुर्थ पटल ‘अन्तदर्ृष्टिपरक प्रत्यक्षीकरण’ की शक्ति है। इससे ज्ञान का प्रत्यक्ष दर्शन होता है और Human भविष्य के बारे में भी जान सकता है। पर Human का अन्त:करण इस शक्ति को अभी तक जागृत नहीं कर सका है। यह विकास की अवस्था में है और भविष्य में सद्शिक्षा द्वारा इस अन्तर्निहित शक्ति को Human प्राप्त कर सकता है।

श्री अरविन्द ने शिक्षा के निम्नलिखित महत्वपूर्ण उद्देश्य बतायें-

बालक का सर्वांगीण विकास-श्री अरविन्द के According शिक्षा का उद्देश्य शरीर, मस्तिष्क तथा आत्मा का सर्वांगीण विकास करना है। ताकि इनका उपयोग वे स्वंय में निहित दैवी सत्य को प्राप्त करने में उपकरण के Reseller में कर सकें। शिक्षा छात्रों को स्वंय का समग्र Reseller से विकास करने में सहायता प्रदान करती है। वे बालक के शरीर, प्राण, मन, बुद्धि, आत्मा आदि विभिन्न पक्षों के समन्वित विकास पर बल देते हैं। श्री अरविन्द एसेज ऑन द गीता में लिखते हैं ‘‘बालक की शिक्षा उसकी प्रकृति में जो कुछ सर्वोत्तम, सर्वाधिक शक्तिशाली, सर्वाधिक अन्तरंग और जीवन पूर्ण है, उसको अभिव्यक्त करने वाली होनी चाहिए। मानस की क्रिया और विकास जिस साँचे में ढ़लनी चाहिए, वह उनके अन्तरंग गुण और शक्ति का साँचा है। उसे नर्इ वस्तुएँ अवश्य प्राप्त करनी चाहिए, परन्तु वह उनको सर्वोत्तम Reseller से और सबसे अधिक प्राणमय Reseller में स्वयं अपने विकास, प्रकार और अन्तरंग शक्ति के आधार पर प्राप्त करेगा।’’

आत्म-तत्व की शिक्षा-अरविन्द शिक्षा का उद्देश्य सूचनाओं को Singleत्र करना नहीं मानते। उनके According शिक्षा का उद्देश्य है आत्म-तत्व की शिक्षा या आत्म-शिक्षा प्रदान करना। जिससे Human आत्म तत्व को परमात्मा के साथ Singleाकार कर सके।

विद्याथ्री का सामाजिक विकास-अरविन्द ने शिक्षा का Single महत्वपूर्ण लक्ष्य बालकों में सामाजिक पक्ष के विकास को माना। वे Single दैवी समाज और दैवी Human की कल्पना करते हैं। उनकी दृष्टि में शिक्षा का उद्देश्य ऐसे सर्वांग पूर्ण मनुष्य का विकास करना है, जो केवल व्यक्ति के Reseller में ही नहीं बल्कि समाज के सदस्य के Reseller में विकसित होता है।

राष्ट्रीयता की शिक्षा-श्री अरविन्द का दृढ़ विश्वास था कि Human की ही तरह प्रत्येक राष्ट्र की भी आत्मा होती है जो Human-आत्मा And सार्वभौमिक-आत्मा के मध्य की कड़ी है। बीसवीं शताब्दी के First दशक में चल रहे राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन को अरविन्द ने नेतृत्व प्रदान Reseller था। अत: वे Single ऐसी राष्ट्रीय शिक्षा पद्धति का विकास करना चाहते थे जो Indian Customer संस्कृति And परम्पराओं के अनुReseller हों। उनका कहना था कि ‘‘हम जिस शिक्षा की खोज में हैं, वह Single Indian Customer आत्मा और Need तथा स्वभाव और संस्कृति के उपयुक्त शिक्षा है, केवल ऐसी शिक्षा नहीं है जो भूतकाल के प्रति भी आस्था रखती हो, बल्कि भारत की विकासमान आत्मा के प्रति, उसकी भावी Needओं के प्रति, उसकी आत्मोत्पत्ति की महानता के प्रति और उसकी शाश्वत आत्मा के प्रति आस्था रखती है।’’

सामन्जस्य की शिक्षा-श्री अरविन्द बाह्य Reseller से विरोधी दिख रहे तत्वों में Single व्यापक सामन्जस्य की संभावना देखते थे। उनके विचारों में हम ज्ञान, भक्ति, कर्म का समन्वय, निर्गुण और सगुण का समन्वय, द्वैत और अद्वैत का समन्वय आसानी से देख सकते है। श्री अरविन्द शिक्षा के द्वारा सामन्जस्य और समन्वय की प्रक्रिया को Human मात्र के कल्याण के लिए और आगे ले जाना चाहते थे। इस प्रकार से श्री अरविन्द ने शिक्षा के द्वारा व्यक्तित्व के सर्वांगीण और समन्वित विकास पर बल दिया। वे शिक्षा को सौंदर्य पर आधारित करना चाहते थे ताकि सत्य की अनुभूति हो सके। इस प्रकार उनकी शिक्षा का लक्ष्य सत्य, शिव और सुन्दर के समन्वित Reseller को प्राप्त करना था।

पाठ्यक्रम 

पाठ्यक्रम निर्माण के सन्दर्भ में अरविन्द के आधारभूत तीन सिद्धान्त हैं:-

  1. बालक स्वयं सीखता है, अध्यापक उसकी सहायता सुषुप्त शक्तियों के समझने में करता है। 
  2. पाठ्यक्रम बच्चे की विशिष्टताओं को ध्यान में रख कर बनाना चाहिए। यह आत्मानुभूति के महान उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए आवश्यक है। 
  3. पाठ्यक्रम निर्माण में वर्तमान से भविष्य तथा समीप से दूर का सिद्धान्त अपनाना चाहिए। शिक्षा ‘स्वदेशी’ सिद्धान्तों पर आधारित होनी चाहिए। पूर्व तथा पश्चिम के ज्ञान के समन्वय पर अरविन्द जोर देते थे- पर उनका मानना था कि First स्वदेशी ज्ञान में विद्याथ्री की नींव मजबूत कर ही पाश्चात्य ज्ञान की शिक्षा दी जानी चाहिए। वे कहते हैं ‘‘सच्ची राष्ट्रीय शिक्षा का लक्ष्य और सिद्धान्त निश्चय ही आधुनिक सत्य और ज्ञान की अवहेलना करना नहीं है, बल्कि हमारी नींव को हमारे अपने विश्वास, हमारे अपने मस्तिष्क, हमारी अपनी आत्मा पर आश्रित करना है।’’ 

श्री अरविन्द ने अपनी सर्वांग विचारधारा के अनुReseller शिक्षा क्रम की Single वश्हद पन्चमुखी योजना प्रस्तुत की। ये पाँच पक्ष हैं- भौतिक, प्राणिक, मानसिक, अन्तरात्मिक तथा आध्यात्मिक। ये पाँचों पक्ष उत्तरोत्तर विकास की अवस्थाएँ हैं। साथ ही प्रारम्भ होने के उपरांत प्रत्येक पक्ष का विकास आजीवन होता रहता है।

  • शारीरिक शिक्षा:- शरीर Human के All कर्मों का माध्यम है। श्री अरविन्द का योग दर्शन में स्वस्थ शरीर को बहुत महत्व दिया गया है। शारीरिक शिक्षा के तीन पक्ष हैं- (अ) शारीरिक क्रियाओं को संयमित करना (ब) शरीर के All अंगों और क्रियाओं का समन्वित विकास (स) शारीरिक दोषों को खत्म करना। शारीरिक विकास हेतु श्री अरविन्द आश्रम में योग, व्यायाम और विभिन्न प्रकार के खेलों की समुचित व्यवस्था है।
  • प्राणिक शिक्षा:- प्राणिक शिक्षा के अन्तर्गत इच्छा-शक्ति को दृढ़ करने का अभ्यास कराया जाता है। तथा चरित्र निर्माण पर जोर दिया जाता है। इन दोनों उद्देश्यों की प्राप्ति उपदेशों या व्याख्यानों से नहीं हो सकती है। अध्यापकों को आदर्श-व्यवहार प्रस्तुत करना होता है ताकि छात्र उनकी अच्छाइयों को ग्रहण कर सकें। साथ ही महापुरूषों के आदर्श उपस्थित करने होते हैं। छात्र स्वाध्याय And संयम से भी इन गुणों को प्राप्त करता है।
  • मानसिक शिक्षा:- मन अत्यधिक चंचल होता है इसलिए इसे नियंत्रित करना कठिन है। पुस्तकीय ज्ञान या तथ्यों के संकलन से यह कार्य नहीं हो सकता है। मानसिक शिक्षा स्वस्थ संस्कृति के निर्माण And बेहतर सामाजिक सम्बन्धों के लिए आवश्यक है। श्री माताजी के According मन की शिक्षा के पाँच अंग हैं- 
    1. Singleाग्रता की क्षमता को जाग्रत करना। 
    2. मन को व्यापक, विस्तृत और समृद्ध बनाना। 
    3. उच्चतम लक्ष्य का निर्धारण कर समस्त विचारों को उसके साथ सुव्यवस्थित करना। 
    4. विचारों पर संयम रखना तथा गलत विचारों का त्याग करना। 
    5. मानसिक स्थिरता, पूर्ण शान्ति तथा सर्वोच्च सत्ता से आने वाली अंत:प्रेरणाओं को सही स्वReseller में ग्रहण करने की क्षमता का विकास करना। 

मानसिक विकास के लिए योग को अपनाना आवश्यक है। यम, नियम, आसान और प्राणायाम विद्याथ्री की Singleाग्रता बढ़ाने में सहायक होते हैं।

  • आन्तरात्मिक शिक्षा:- आन्तरात्मिक शिक्षा के अन्तर्गत उन शाश्वत दार्शनिक प्रश्नों का उत्तर प्राप्त करने का प्रयास Reseller जाता है जो Human मन में प्रारम्भ से ही मथता रहा है जैसे जीवन का लक्ष्य क्या है? Earth पर मनुष्य के अस्तित्व का क्या कारण है? Human और शाश्वत सत्ता का क्या सम्बन्ध है? आदि। अन्तरात्मा के विकास के बिना Human के संपूर्ण विकास की कल्पना नहीं की जा सकती है। अन्तरात्मा के विकास से ही Human जीवन-लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। अन्तरात्मा के विकास के लिए योग-साधना आवश्यक है। 
  • आध्यात्मिक शिक्षा:- आध्यात्मिक शिक्षा शिक्षा प्रक्रिया का उच्चतम शिखर है। इसके माध्यम से शिक्षाथ्री सार्वभौम सत्ता के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित करता है। श्री माताजी के According आध्यात्मिक शिक्षा प्राप्त कर लेने पर ‘‘सहसा Single आन्तरिक कपाट खुल जाएगा और तुम सब ऐसी ज्योति में प्रवेश करोगे जो तुम्हें अमरता का आश्वासन प्रदान करेगी तथा स्पष्ट अनुभव कराएगी कि तुम सदा ही जीवित रहे हो और सदा ही जीवित रहोगे। नाश बाह्य Resellerों का होता है और अपनी वास्तविक सत्ता के सम्बन्ध में तुम्हें यह भी पता लगेगा कि ये Reseller वस्त्रों के समान हैं, जिन्हें पुराने पड़ जाने पर फेंक दिया जाता है।’’ 

श्री अरविन्द मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा देने के प्रबल पक्षधर थे। उनका मानना था कि विदेशी भाषा के Wordों का संदर्भ भिन्न होता है अत: विदेशी भाषा का उपयोग विद्याथ्री का ध्यान शिक्षण-तत्व से हटाती है और वह Singleाग्र होकर शिक्षा ग्रहण नहीं कर पाता है। पर श्री अरविन्द अन्तर्राष्ट्रीय भाषाओं के विरोधी भी नहीं थे। वे चाहते थे छात्र अन्तर्राष्ट्रीय भाषाओं को सीखें।

विभिन्न विषयों के शाब्दिक ज्ञान के साथ-साथ श्री अरविन्द ने पाठ्यक्रम में विभिन्न क्रियाओं को महत्वपूर्ण स्थान दिया। उन्होंने विद्यालय को समुदाय के सामाजिक-आर्थिक परिवेष से जोड़ने पर बल दिया। वे शिल्प की शिक्षा पर बल देते थे। वे काव्य, कला और संगीत की शिक्षा आवश्यक मानते थे। इन सबसे सृजनात्मकता और कल्पनाशीलता का विकास होता है। श्री अरविन्द विज्ञान की शिक्षा के महत्व को स्वीकार करते हैं। विज्ञान से अन्वेषण, विश्लेषण, संश्लेषण तथा समालोचना की शक्ति का विकास होता है। प्रकृति के विभिन्न जीवों, पादपों And पदार्थों के अवलोकन And अध्ययन से मानसिक शक्तियों का विकास होता है और संवेदनशीलता बढ़ती है।

वस्तुओं के उपरांत Wordों और विचारों पर ध्यान केन्द्रित करने की Need है। वे राष्ट्रीय साहित्य और History का शिक्षण आवश्यक मानते थे। वे राष्ट्र को भूमि के टुकड़े से बहुत अधिक मानते थे। History के माध्यम से वे विद्यार्थियों में राष्ट्रप्रेम की भावना का विकास करना चाहते थे। उन्होंने राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन के दौरान विद्यार्थियों की Single सभा को सम्बोधित करते हुए कहा: ‘‘Single राष्ट्र के History में कभी-कभी ऐसे समय भी आते है, जबकि दैव उसके सम्मुख Single ऐसा कार्य, Single ऐसा लक्ष्य उपस्थित कर देता है जिसके सामने प्रत्येक वस्तु त्याग देनी होती है- चाहे वह कितनी भी ऊँची और पवित्र क्यों न हो। हमारी मातृभूमि के लिए भी ऐसा समय आ गया है, जबकि उसकी सेवा से अधिक प्रिय और कुछ नहीं है, जबकि अन्य सबकुछ को इसी लक्ष्य की ओर निर्देशित Reseller जाना चाहिये। तुम अध्ययन करते हो तो उसी के लिए अध्ययन करो। अपने शरीर, मन और आत्मा को उसी की सेवा के लिए प्रशिक्षित करो। तुम अपनी आजीविका कमाओगे, ताकि तुम उसके लिए जीवित रह सको। तुम विदेशों को जाओगे ताकि तुम ज्ञान के साथ वापस लौट सको जिससे कि तुम उसकी सेवा कर सको।’’

श्री अरविन्द नैतिक शिक्षा को आवश्यक मानते हैं। वे राजनीति को भी नीति पर आधारित करना चाहते थे। वे धर्म के मूल तत्वों को पाठ्यक्रम में सम्मिलित करने का सुझाव देते हैं। वे धर्म को आत्मा और प्रकृति के बीच मध्यस्थ के Reseller में देखते हैं। जैसा कि हम देख चुके हैं श्री अरविन्द शारीरिक शिक्षा पर बल देते हैं क्योंकि शरीर ही सारे धर्म और कर्म का आधार है। वे योग के द्वारा मन, मस्तिष्क और शरीर तीनों का सही दिशा में सामन्जस्यपूर्ण विकास पर बल देते हैं।

शिक्षण-विधि 

यद्यपि अरविन्द ने शिक्षण विधि के बारे में स्पष्ट नीति या कार्ययोजना का विकास नहीं Reseller पर उनके कार्यों से उनकी शिक्षण विधि के संदर्भ में मूलभूत सिद्धान्तों का विश्लेषण Reseller जा सकता है।

श्री अरविन्द का यह मानना था कि छात्र को कुछ भी ऐसा नहीं सिखाया नहीं जा सकता जो First से उसमें निहित नहीं है। छात्र को सीखने की स्वतंत्रता होनी चाहिए- शिक्षक का कर्तव्य है कि वह उपयुक्त परिस्थितियों का निर्माण करे। शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में बच्चे की इच्छा And रूचि अधिक महत्व रखता है। विद्याथ्री जिस विषय की शिक्षा में रूचि रखता हो उसे उस विषय की शिक्षा देनी चाहिए। साथ ही शिक्षण विधि का चयन छात्र की रूचि के According होनी चाहिए। शिक्षक को इस तरह से शिक्षण कार्य करना चाहिए कि छात्र पढ़ाये जा रहे पाठ And विषय में रूचि ले।

श्री अरविन्द ने इस बात पर जोर दिया कि बच्चे की शिक्षा वर्णमाला से प्रारम्भ नहीं होनी चाहिए। उसे प्रारम्भ में प्रकृति के विभिन्न Resellerों- पेड़- पौधों, सितारों, सरिता, वनस्पतियों And अन्य भौतिक पदार्थों का निरीक्षण करने का अवसर देना चाहिए। इससे विद्यार्थियों में निरीक्षण शक्ति, संवेदनशीलता, सहयोग And सहअस्तित्व का भाव विकसित होता है। इसके बाद अक्षरों या वर्णों को सिखाना चाहिए। फिर Wordों का Means बताकर उनका विभिन्न तरीकों से प्रयोग करना सिखाना चाहिए। Word प्रयोग द्वारा साहित्यिक क्षमता का विकास होता है।

विज्ञान-शिक्षण में छात्र की जिज्ञासा प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करना चाहिए। इसके लिए आस-पास के वातावरण में स्थित जीव-जन्तु, पेड़- पौधे, मिÍी-पत्थर, तारे-नक्षत्र आदि का निरीक्षण कर प्रकृति के रहस्यों का उद्घाटन कर विभिन्न विज्ञानों की शिक्षा ग्रहण करने की प्रवृत्ति को बढ़ाना चाहिए।

छात्रों को दर्शन पढ़ाते समय छात्रों में बौद्धिक चेतना का विकास करने का प्रयास करना चाहिए। History इस तरह से पढ़ाया जाना चाहिए कि विद्यार्थियों में राष्ट्रीयता की भावना का विकास हो। श्री अरविन्द शिक्षा के माध्यम के Reseller में मातृभाषा के उपयोग पर बल देते थे। इससे राष्ट्रीय साहित्य And History को समझने में आसानी होती है, साथ ही चारों ओर के परिवेश का भी बेहतर ज्ञान मिलता है।

अरविन्द ने ऐसी शिक्षण-विधि अपनाने पर जोर दिया जिससे छात्र शिक्षा का Means केवल सूचनाओं का संग्रह न माने। वह रटने पर जोर न दे वरन् ज्ञान प्राप्त करने के कौशलों को महत्वपूर्ण मानकर उनका विकास करे। विद्यार्थियों में समझ, स्मृति, निर्णय क्षमता, कल्पना, तर्क, चिन्तन जैसी शक्तियों का विकास Reseller जाना चाहिए।

श्री अरविन्द धार्मिक शिक्षा को आवश्यक मानते थे, पर उनका यह स्पष्ट मत है कि सप्ताह के कतिपय दिनों में कुछ कालांशों को धार्मिक शिक्षा के लिए तय कर उसकी शिक्षा देना उचित या लाभदायक नहीं है। धार्मिक शिक्षा बाल्यावस्था से ही पवित्र, शान्त And शुद्ध प्राकृतिक वातावरण में दी जानी चाहिए। आस्था से पूर्ण जीवन ही धार्मिक शिक्षा का बेहतर माध्यम है।

अरविन्द की दृष्टि में अध्यापक 

अध्यापक मात्र ‘इन्स्ट्रक्टर’ नहीं है। उसका सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य ‘‘अपने आपको समझने’’ में छात्र की सहायता करना है। वह सूचनाओं को विद्यार्थियों के समक्ष परोसने वाला नहीं वरन् मार्ग-दर्शक है। अध्यापक विद्यार्थियों की क्रियात्मक And Creationत्मक शक्तियों के विकास में सहायता प्रदान करता है।

महर्षि अरविन्द के According शिक्षक को राष्ट्रीय संस्कृति के माली के Reseller में कार्य करना चाहिए। उसका कर्तव्य है संस्कार की जड़ों में खाद देना। और जड़ों को सींच-सींच कर विद्याथ्री को महा-Human बनाना।

महर्षि अरविन्द की शिष्या श्री माँ ने माता-पिता के कर्तव्यों के संदर्भ में जो बाते कहीं वह अध्यापकों पर भी पूर्णत: लागू होती है। वे कहती हैं ‘‘बच्चे को शिक्षा देने की योग्यता प्राप्त करने के लिए First कर्तव्य है अपने आप को शिक्षित करना, अपने बारे में सचेतन होना और अपने ऊपर नियन्त्रण रखना, जिससे हम अपने बच्चे के सामने कोर्इ बुरा उदाहरण प्रस्तुत न करें। उदाहरण द्वारा ही शिक्षा फलदायी होती है। अगर तुम चाहते हो कि तुम्हारा बच्चा तुम्हारा आदर करे, तो अपने लिए आदर भाव रखो और हर क्षण सम्मान के योग्य बनो। कभी भी स्वेच्छाचारी, अत्याचारी, असहिष्णु और क्रोधित मत होओ। जब तुम्हारा बच्चा तुमसे कोर्इ प्रश्न पूछे, तब तुम यह समझकर कि वह तुम्हारी बात नहीं समझ सकता, उसे जड़ता और मूर्खता के साथ कोर्इ उत्तर मत दो। अगर तुम थोड़ा कष्ट उठाओ तो तुम्हारी बात वह हमेशा समझ सकेगा।’’

अरविन्द आश्रम, पाण्डिचेरी में कार्य करने वाले अध्यापकों को अलग से कोर्इ वेतन नहीं दिया जाता है। श्री अरविन्द शिक्षा को धन के आदान प्रदान से जोड़ कर इसे व्यापार का Reseller देने के विरोधी थे। अत: आश्रम- विद्यालय और विश्वविद्यालय के कार्यरत अध्यापकों की Need को आश्रम उसी तरह से पूरा करता है जैसे अन्य साधकों की। यह प्राचीन Indian Customer शिक्षा व्यवस्था के महान आदर्श पर आधारित है जब गुरू शिष्यों से अध्ययन काल के दौरान कोर्इ आर्थिक माँग नहीं करते थे।

छात्र-संकल्पना 

श्री अरविन्द विद्याथ्री को प्रछन्न Reseller में ‘सर्वशक्तिमान चैतन्य’ मानते हैं। वे विद्याथ्री को केवल शरीर के Reseller में ही नहीं देखते हैं। शरीर के साथ-साथ प्राण, मन, बुद्धि, आत्मा आदि विभिन्न पक्षों को समान महत्व देते हैं। इन सबका वे समन्वित विकास चाहते हैं। महर्षि अरविन्द शिक्षा में अन्त:करण को महत्वपूर्ण मानते हैं। जैसा कि हम लोग First ही देख चुके हैं अन्त:करण के कर्इ स्तर होते हैं। अन्त:करण का First स्तर ‘‘चित्त’’ कहलाता है। यह स्मृतियों का संचय स्थल है। द्वितीय स्तर ‘‘मन’’ कहलाता है। यह इन्द्रियों से सूचनाओं And अनुभवों को ग्रहण कर उन्हें संप्रत्ययों And विचारों में परिवर्तित करता है। अन्त:करण का तृतीय स्तर ‘‘बुद्धि’’ है। जिसका शिक्षा प्रक्रिया में अत्यधिक महत्व है। यह सूचनाओं And ज्ञान-सामग्रियों को व्यवस्थित करता है, निष्कर्ष निकालता है और सामान्यीकरण करता है। इस तरह से बुद्धि सिद्धान्त निResellerण करता है। अन्त:करण का सर्वोच्च स्तर ‘‘साक्षात अनुभूति’’ है। श्री अरविन्द का स्पष्ट मत है कि ‘‘मस्तिष्क को ऐसा कुछ भी सिखाया नहीं जा सकता, जो कि बालक में सुप्त ज्ञान के Reseller में First से ही विद्यमान न हो।’’ अध्यापक इन अन्तर्निहित शक्तियों को जागृत करता है, बाहर से वह कुछ भी आरोपित नहीं कर सकता है।

बालक के All शारीरिक तथा मानसिक अंग उसके स्वयं के वश में होने चाहिए, न कि अध्यापक के नियन्त्रण में। बालक की रूचियों And Needओं के अनुReseller उन्हें कार्य मिलना चाहिए।

अरविन्द आश्रम की सारी शिक्षा-व्यवस्था नि:शुल्क है। विद्याथ्री Single बार अगर प्रवेश पा लेता है तो उसे कोर्इ शुल्क नहीं देना पड़ता है। यह प्राचीन गुरूकुल व्यवस्था के अनुReseller है। श्री अरविन्द विद्यार्थियों में स्वअनुशासन की भावना जगाना चाहते थे। आश्रम का सम्पूर्ण वातावरण आध्यात्मिक है अत: स्वभाविक है कि यहाँ के विद्यार्थियों की चेतना का स्तर ऊँचा हो।

शिक्षण-संस्स्थायें 

राजनीति से सन्यास ग्रहण करने के उपरांत 1910 में श्री अरविन्द पाण्डिचेरी आ गये। वे यहीं साधना-रत हो गये। धीरे-धीरे साधकों And अरविन्द के अनुगामियों की संख्या बढ़ती गर्इ। 1926 में यहाँ अरविन्द आश्रम की स्थापना की गर्इ। 1940 से साधकों को आश्रम में बच्चों को रखने की अनुमति दे दी गर्इ। बच्चों की Need को देखते है श्री अरविन्द ने 1943 में आश्रम विद्यालय की स्थापना की।

6 जनवरी, 1952 को श्री माँ ने ‘श्री अरविन्दो इन्टरनेशनल यूनिवर्सिटी सेन्टर’ की स्थापना की- जिसे बाद में ‘श्री अरविन्द इन्टरनेशनल सेन्टर ऑफ एडुकेशन’ के नाम से जाना गया। यह पाण्डिचेरी के योगाश्रम का अविभाज्य अंग है क्योंकि योग और शिक्षा का उद्देश्य समान है- सम्पूर्णता की प्राप्ति कर शाश्वत सार्वभौमिक सत्ता से आत्मतत्व का मिलन। इस तरह यहाँ प्रारम्भिक शिक्षा से लेकर उच्च स्तर की शिक्षा And शोध की व्यवस्था है।

चूँकि शिक्षा का उद्देश्य है आत्मतत्व की जागश्ति And विकास, अत: लड़कों And लड़कियों की शिक्षा के केन्द्र में कोर्इ कश्त्रिम अन्तर नहीं Reseller जाता है। अत: अरविन्द अन्तर्राष्ट्रीय शिक्षा के केन्द्र में लड़कियों के लिए भी वही शैक्षिक कार्यक्रम है जो लड़कियों के लिए। यहाँ तक कि शारीरिक शिक्षा में भी भिन्नता नहीं है। इसके बावजूद विकल्प बहुत अधिक हैं पर चयन का आधार लिंग या परम्परागत निषेध न होकर आन्तरिक अभिरूचि है।

आधुनिक शिक्षा व्यवस्था बहुत हद तक वाणिज्य का Reseller ले चुकी है जहाँ अध्यापक Meansिक लाभ के लिए अध्यापन करता है और छात्र पैसा चुका कर अन्य चीजों की तरह शिक्षा को खरीदते हैं। आश्रम में Single बार प्रवेश के बाद शिक्षा पूर्णत: नि:शुल्क है। और अध्यापक भी अन्य साधकों की ही तरह आश्रम की व्यवस्था से अपनी Needओं को पूरा करता है। उन्हें अलग से कोर्इ वेतन नहीं दिया जाता है। वे प्रेम और सत्य की खोज के सहयात्री हैं न कि ज्ञान का बेचने और खरीदने वाले। शिक्षा केन्द्र Single समुदाय And Single चेतना के Reseller में कार्य करता है जिसके केन्द्र में समर्पण का भाव है। 1973 में अपने शरीर-त्याग के पूर्व श्री माँ ने शिक्षा केन्द्र की जड़ें मजबूत कर दी थी। उनके बाद भी अरविन्द के आदर्शों के अनुReseller शिक्षा केन्द्र शिक्षण- अधिगम के क्षेत्र में नये-नये प्रयोग कर रहा है।

1968 में श्री माँ ने ‘ओरोविले’ की स्थापना की। यह जाति, धर्म, भाषा, प्रजाति से ऊपर उठकर संपूर्ण नगर के सामूहिक निवास And शिक्षा का अद्भुत प्रयोग है। यह Human के भविष्य में विश्वास की अभिव्यक्ति है। ओरोविले जीने की Single ‘नर्इ शैली’ के विकास का प्रयास है जो श्री अरविन्द के ‘नर्इ Humanता’ के संप्रत्यय पर आधारित है।

श्री अरविन्द का जीवन-दर्शन And शिक्षा-दर्शन

श्री अरविन्द ने योग दर्शन के महत्व को रेखांकित करते हुए आधुनिक परिवेश के अनुReseller उसकी पुनव्र्याख्या की। उनके दर्शन को अनुभवातीत सर्वांग योग दर्शन के नाम से जाना जाता है क्योंकि उन्होंने अपने विचार को योग की संकुचित व्याख्या तक सीमित रखने की जगह सत्य तक पहुँचने के लिए विभिन्न मार्गों को समन्वित Reseller में बाँधकर देखने का प्रयास Reseller।

अरविन्द के According जीवन Single अखण्ड प्रक्रिया है। चेतना के अनेक स्तर हैं। इसे निम्नत्तर स्तर से उठाकर उच्चतम स्तर तक ले जाया जा सकता है। उन्होंने अनुभव Reseller कि आधुनिक युग में मस्तिष्क And बुद्धि की दृष्टि से विकास चरम को प्राप्त कर चुका है। अब दैवी समाज की कल्पना साकार की जा सकती है। अगर इससे आगे नहीं बढ़ा गया तो ह्रास या पराभव निश्चित है। अत: इस चेतन तत्व को प्रकाश, शक्ति And सत्य से समन्वित करना आवश्यक है। क्योंकि इसी के माध्यम से वह Human जीवन के प्रमुख उद्देश्य अनुभवातीत सत्य-चेतन-तत्व में संपूर्ण Reseller से Resellerान्तरित हो सकती है।

श्री अरविन्द के According इस सृष्टि के रचयिता, पालनकर्ता और संहारक र्इश्वर है। जिसे धर्म में र्इश्वर कहा जाता है उसे ही दर्शन में ब्रह्म कहा गया है। र्इश्वर सृष्टि का कर्ता, सनातन और सर्वात्मा है। र्इश्वर परमपुरूष है, ब्रह्म निर्विकार And निराकार है किन्तु अन्तत: दोनों Single हैं। र्इश्वर द्वारा इस जगत के निर्माण की प्रक्रिया का विश्लेषण श्री अरविन्द ने दो प्रकार से Reseller है। विकास की दो विपरीत दिशाएँ हैं- अवरोहण And आरोहण। ब्रह्म अवरोहण द्वारा अपने को वस्तु जगत में परिवर्तित करता है। इसके Seven सोपान हैं- सत्, चित्त, आनन्द, अतिमानस, मानस, प्राण And द्रव्य। दूसरी प्रक्रिया है आरोहण की। इसमें द्रव्य Reseller इस जगत में मनुष्य अपने द्रव्य Reseller से आरोहण द्वारा सत् की ओर क्रमश: चलायमान होता है। इसके भी Seven चरण हैं द्रव्य, प्राण, मानस, अतिमानस, आनन्द, चित्त और सत्। अरविन्द आत्मा को परमात्मा से इस Means में भिन्न मानते हैं कि आत्मा में परमात्मा के दो गुण- आनन्द और चित्त तो होते हैं पर सत् नहीं। विभिन्न योनियों से होते हुए आत्मा मनुष्य योनि में प्रवेश करती है और आनन्द और चित्त के साथ सर्वोच्च उद्देश्य सत् को प्राप्त करती है। श्री अरविन्द भौतिक And आध्यात्मिक दोनों ही तत्वों के मूल में ब्रह्म को पाते हैं। अत: दोनों ही तरह के ज्ञान के Singleात्मकता को जानना ही ज्ञान है। व्यावहारिक दृष्टि से ज्ञान को उन्होंने अन्य Indian Customer मनीषियों की तरह दो भागों में बाँटा है- द्रव्यज्ञान (या अपरा विद्या) And आत्म ज्ञान (परा विद्या)। द्रव्यज्ञान प्रारम्भ है जिसकी परिणति आत्मज्ञान में होनी चाहिए। द्रव्यज्ञान प्राप्त करने का साधन इन्द्रियाँ हैं और आत्मज्ञान प्राप्त करने का साधन अन्त:करण है। आत्मतत्व का ज्ञान योग के द्वारा ही संभव है। श्री अरविन्द के According Human जीवन का उद्देश्य सत् चित्त And आनन्द की प्राप्ति है। इस महान लक्ष्य को गीता में प्रतिपादित कर्मयोग And ध्यानयोग द्वारा प्राप्त Reseller सकता है। संसार से पलायन की जगह निष्काम भाव से कर्म करने से ही सत्, चित्त And आनन्द की प्राप्ति की जा सकती है। पर इसके लिए स्वस्थ शरीर, विकार रहित मन And संयमित आचार-विचार आवश्यक है। योग के द्वारा Human अपने शरीर, सोच , विचार And कार्य पर नियंत्रण रख उन्हें उचित दिशा में ले जा सकता है।

श्री अरविन्द का दर्शन इस धारणा पर आधारित है कि Human का बौद्धिक विकास अपने चरम बिन्दु पर पहँुच गया है। इसके आगे आन्तरात्मिक और आध्यात्मिक विकास होना चाहिए। यदि Human इस दिशा में नहीं बढ़ता है तो न केवल उसका विकल्प क्रम अवरूद्ध होगा वरन् वह पतन की ओर अग्रसर हो जायेगा।

इन्द्रियानुभव को श्री अरविन्द सर्वोच्च ज्ञान नहीं मानते थे, वरन् उसे निम्न कोटि का ज्ञान मानते थे। उनके According ज्ञान की अनेक कोटियाँ है और सर्वोच्च कोटि आध्यात्मिक अनुभूति है जिसे हम इस जगत में प्राप्त कर सकते हैं।

अरविन्द मनुष्य के Singleांगी विकास को हानिप्रद मानते थे। वे स्वस्थ समाज के निर्माण हेतु Human के सर्वांगीण विकास पर जोर देते थे। इसके लिए उन्होंने प्राच्य And पाश्चात्य संस्कृतियों के समन्वय पर जोर दिया। उनके दर्शन में न तो प्राचीन Indian Customer संस्कृति से पलायन का भाव है न ही पाश्चात्य संस्कृति का अन्धानुकरण। दोनों का समन्वित Reseller ही बेहतर शिक्षा व्यवस्था का विकास कर सकता है।

1907 में श्री अरविन्द ने ‘ए सिस्टम ऑफ नेशनल एडुकेशन’ नामक निबन्ध लिखा। इसमें उन्होंने अपनी शिक्षा की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए कहा ‘‘प्रत्येक Human के अन्दर कुछ र्इश्वर प्रदत्त दिव्य शक्ति है, कुछ जो उसका अपना है, जिसे पूर्णता की ओर अग्रसर Reseller जा सकता है। शिक्षा का कार्य है इसे चिन्हित करना, विकसित करना And उपयोग में लाना। शिक्षा का सर्वप्रमुख लक्ष्य होना चाहिए विकसित होती आत्मा की अन्तर्निहित शक्ति को पूर्णत: विकसित कर श्रेष्ठ कार्य हेतु तैयार करना।’’ 1910 में अपने Single Second बहुचर्चित लेख में अरविन्द ने Single ऐसा वाक्य लिख जो शिक्षा का सूत्र वाक्य बन गया। उन्होंने लिखा ‘‘सही शिक्षा का First सिद्धान्त है कि कुछ भी पढ़ाया नहीं जा सकता है।’’

इस प्रकार स्पष्ट है कि श्री अरविन्द के विचार में हर व्यक्ति की आत्मा में ज्ञान अन्तर्निहित है। उन्होंने सही शिक्षा को उद्घाटित करने का साधन अन्त:करण को माना। श्री अरविन्द के According अन्त:करण के चार पटल हैं- चित्त, मानस, बुद्धि और अन्तदर्ृष्टि। चित्त वस्तुत: भूतकालिक मानसिक संस्कार है। जब कोर्इ व्यक्ति कोर्इ बात याद करता है तो वह छन कर चित्त में संग्रहित होती है। इसी से क्रियाशील स्मृति Need And क्षमतानुसार कभी-कभी कुछ चीजों को चुन लेती है। सही चुनाव हेतु उपयुक्त शिक्षा And प्रशिक्षण की Need पड़ती है। Second पटल मानस को मस्तिष्क कहा जा सकता है। यह ज्ञानेन्द्रियों से तथ्यों को प्राप्त कर उसे विचार का Reseller देता है। ज्ञानेन्द्रियों के अतिरिक्त मस्तिष्क स्वंय भी तथ्यों या संप्रत्ययों को ग्रहण करता है। अत: ज्ञानेन्द्रियों And मस्तिष्क का प्रशिक्षण लाभदायक है। अन्त:करण के Third पटल ‘बुद्धि’ की भूमिका शिक्षा में अधिक महत्वपूर्ण है। मस्तिष्क द्वारा प्राप्त किए ज्ञान को व्यवस्थित करना उनका विश्लेषण And संश्लेषण कर निष्कर्ष पर पहुँचने का कार्य बुद्धि का है। अन्त:करण का चतुर्थ पटल ‘अन्तदर्ृष्टिपरक प्रत्यक्षीकरण’ की शक्ति है। इससे ज्ञान का प्रत्यक्ष दर्शन होता है और Human भविष्य के बारे में भी जान सकता है। पर Human का अन्त:करण इस शक्ति को अभी तक जागृत नहीं कर सका है। यह विकास की अवस्था में है और भविष्य में सद्शिक्षा द्वारा इस अन्तर्निहित शक्ति को Human प्राप्त कर सकता है।

श्री अरविन्द ने शिक्षा के निम्नलिखित महत्वपूर्ण उद्देश्य बतायें-

बालक का सर्वांगीण विकास-श्री अरविन्द के According शिक्षा का उद्देश्य शरीर, मस्तिष्क तथा आत्मा का सर्वांगीण विकास करना है। ताकि इनका उपयोग वे स्वंय में निहित दैवी सत्य को प्राप्त करने में उपकरण के Reseller में कर सकें। शिक्षा छात्रों को स्वंय का समग्र Reseller से विकास करने में सहायता प्रदान करती है। वे बालक के शरीर, प्राण, मन, बुद्धि, आत्मा आदि विभिन्न पक्षों के समन्वित विकास पर बल देते हैं। श्री अरविन्द एसेज ऑन द गीता में लिखते हैं ‘‘बालक की शिक्षा उसकी प्रकृति में जो कुछ सर्वोत्तम, सर्वाधिक शक्तिशाली, सर्वाधिक अन्तरंग और जीवन पूर्ण है, उसको अभिव्यक्त करने वाली होनी चाहिए। मानस की क्रिया और विकास जिस साँचे में ढ़लनी चाहिए, वह उनके अन्तरंग गुण और शक्ति का साँचा है। उसे नर्इ वस्तुएँ अवश्य प्राप्त करनी चाहिए, परन्तु वह उनको सर्वोत्तम Reseller से और सबसे अधिक प्राणमय Reseller में स्वयं अपने विकास, प्रकार और अन्तरंग शक्ति के आधार पर प्राप्त करेगा।’’

आत्म-तत्व की शिक्षा-अरविन्द शिक्षा का उद्देश्य सूचनाओं को Singleत्र करना नहीं मानते। उनके According शिक्षा का उद्देश्य है आत्म-तत्व की शिक्षा या आत्म-शिक्षा प्रदान करना। जिससे Human आत्म तत्व को परमात्मा के साथ Singleाकार कर सके।

विद्याथ्री का सामाजिक विकास-अरविन्द ने शिक्षा का Single महत्वपूर्ण लक्ष्य बालकों में सामाजिक पक्ष के विकास को माना। वे Single दैवी समाज और दैवी Human की कल्पना करते हैं। उनकी दृष्टि में शिक्षा का उद्देश्य ऐसे सर्वांग पूर्ण मनुष्य का विकास करना है, जो केवल व्यक्ति के Reseller में ही नहीं बल्कि समाज के सदस्य के Reseller में विकसित होता है।

राष्ट्रीयता की शिक्षा-श्री अरविन्द का दृढ़ विश्वास था कि Human की ही तरह प्रत्येक राष्ट्र की भी आत्मा होती है जो Human-आत्मा And सार्वभौमिक-आत्मा के मध्य की कड़ी है। बीसवीं शताब्दी के First दशक में चल रहे राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन को अरविन्द ने नेतृत्व प्रदान Reseller था। अत: वे Single ऐसी राष्ट्रीय शिक्षा पद्धति का विकास करना चाहते थे जो Indian Customer संस्कृति And परम्पराओं के अनुReseller हों। उनका कहना था कि ‘‘हम जिस शिक्षा की खोज में हैं, वह Single Indian Customer आत्मा और Need तथा स्वभाव और संस्कृति के उपयुक्त शिक्षा है, केवल ऐसी शिक्षा नहीं है जो भूतकाल के प्रति भी आस्था रखती हो, बल्कि भारत की विकासमान आत्मा के प्रति, उसकी भावी Needओं के प्रति, उसकी आत्मोत्पत्ति की महानता के प्रति और उसकी शाश्वत आत्मा के प्रति आस्था रखती है।’’

सामन्जस्य की शिक्षा-श्री अरविन्द बाह्य Reseller से विरोधी दिख रहे तत्वों में Single व्यापक सामन्जस्य की संभावना देखते थे। उनके विचारों में हम ज्ञान, भक्ति, कर्म का समन्वय, निर्गुण और सगुण का समन्वय, द्वैत और अद्वैत का समन्वय आसानी से देख सकते है। श्री अरविन्द शिक्षा के द्वारा सामन्जस्य और समन्वय की प्रक्रिया को Human मात्र के कल्याण के लिए और आगे ले जाना चाहते थे। इस प्रकार से श्री अरविन्द ने शिक्षा के द्वारा व्यक्तित्व के सर्वांगीण और समन्वित विकास पर बल दिया। वे शिक्षा को सौंदर्य पर आधारित करना चाहते थे ताकि सत्य की अनुभूति हो सके। इस प्रकार उनकी शिक्षा का लक्ष्य सत्य, शिव और सुन्दर के समन्वित Reseller को प्राप्त करना था।

पाठ्यक्रम 

पाठ्यक्रम निर्माण के सन्दर्भ में अरविन्द के आधारभूत तीन सिद्धान्त हैं:-

  1. बालक स्वयं सीखता है, अध्यापक उसकी सहायता सुषुप्त शक्तियों के समझने में करता है। 
  2. पाठ्यक्रम बच्चे की विशिष्टताओं को ध्यान में रख कर बनाना चाहिए। यह आत्मानुभूति के महान उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए आवश्यक है। 
  3. पाठ्यक्रम निर्माण में वर्तमान से भविष्य तथा समीप से दूर का सिद्धान्त अपनाना चाहिए। शिक्षा ‘स्वदेशी’ सिद्धान्तों पर आधारित होनी चाहिए। पूर्व तथा पश्चिम के ज्ञान के समन्वय पर अरविन्द जोर देते थे- पर उनका मानना था कि First स्वदेशी ज्ञान में विद्याथ्री की नींव मजबूत कर ही पाश्चात्य ज्ञान की शिक्षा दी जानी चाहिए। वे कहते हैं ‘‘सच्ची राष्ट्रीय शिक्षा का लक्ष्य और सिद्धान्त निश्चय ही आधुनिक सत्य और ज्ञान की अवहेलना करना नहीं है, बल्कि हमारी नींव को हमारे अपने विश्वास, हमारे अपने मस्तिष्क, हमारी अपनी आत्मा पर आश्रित करना है।’’ 

श्री अरविन्द ने अपनी सर्वांग विचारधारा के अनुReseller शिक्षा क्रम की Single वश्हद पन्चमुखी योजना प्रस्तुत की। ये पाँच पक्ष हैं- भौतिक, प्राणिक, मानसिक, अन्तरात्मिक तथा आध्यात्मिक। ये पाँचों पक्ष उत्तरोत्तर विकास की अवस्थाएँ हैं। साथ ही प्रारम्भ होने के उपरांत प्रत्येक पक्ष का विकास आजीवन होता रहता है।

  • शारीरिक शिक्षा:- शरीर Human के All कर्मों का माध्यम है। श्री अरविन्द का योग दर्शन में स्वस्थ शरीर को बहुत महत्व दिया गया है। शारीरिक शिक्षा के तीन पक्ष हैं- (अ) शारीरिक क्रियाओं को संयमित करना (ब) शरीर के All अंगों और क्रियाओं का समन्वित विकास (स) शारीरिक दोषों को खत्म करना। शारीरिक विकास हेतु श्री अरविन्द आश्रम में योग, व्यायाम और विभिन्न प्रकार के खेलों की समुचित व्यवस्था है।
  • प्राणिक शिक्षा:- प्राणिक शिक्षा के अन्तर्गत इच्छा-शक्ति को दृढ़ करने का अभ्यास कराया जाता है। तथा चरित्र निर्माण पर जोर दिया जाता है। इन दोनों उद्देश्यों की प्राप्ति उपदेशों या व्याख्यानों से नहीं हो सकती है। अध्यापकों को आदर्श-व्यवहार प्रस्तुत करना होता है ताकि छात्र उनकी अच्छाइयों को ग्रहण कर सकें। साथ ही महापुरूषों के आदर्श उपस्थित करने होते हैं। छात्र स्वाध्याय And संयम से भी इन गुणों को प्राप्त करता है।
  • मानसिक शिक्षा:- मन अत्यधिक चंचल होता है इसलिए इसे नियंत्रित करना कठिन है। पुस्तकीय ज्ञान या तथ्यों के संकलन से यह कार्य नहीं हो सकता है। मानसिक शिक्षा स्वस्थ संस्कृति के निर्माण And बेहतर सामाजिक सम्बन्धों के लिए आवश्यक है। श्री माताजी के According मन की शिक्षा के पाँच अंग हैं- 
    1. Singleाग्रता की क्षमता को जाग्रत करना। 
    2. मन को व्यापक, विस्तृत और समृद्ध बनाना। 
    3. उच्चतम लक्ष्य का निर्धारण कर समस्त विचारों को उसके साथ सुव्यवस्थित करना। 
    4. विचारों पर संयम रखना तथा गलत विचारों का त्याग करना। 
    5. मानसिक स्थिरता, पूर्ण शान्ति तथा सर्वोच्च सत्ता से आने वाली अंत:प्रेरणाओं को सही स्वReseller में ग्रहण करने की क्षमता का विकास करना। 

मानसिक विकास के लिए योग को अपनाना आवश्यक है। यम, नियम, आसान और प्राणायाम विद्याथ्री की Singleाग्रता बढ़ाने में सहायक होते हैं।

  • आन्तरात्मिक शिक्षा:- आन्तरात्मिक शिक्षा के अन्तर्गत उन शाश्वत दार्शनिक प्रश्नों का उत्तर प्राप्त करने का प्रयास Reseller जाता है जो Human मन में प्रारम्भ से ही मथता रहा है जैसे जीवन का लक्ष्य क्या है? Earth पर मनुष्य के अस्तित्व का क्या कारण है? Human और शाश्वत सत्ता का क्या सम्बन्ध है? आदि। अन्तरात्मा के विकास के बिना Human के संपूर्ण विकास की कल्पना नहीं की जा सकती है। अन्तरात्मा के विकास से ही Human जीवन-लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। अन्तरात्मा के विकास के लिए योग-साधना आवश्यक है। 
  • आध्यात्मिक शिक्षा:- आध्यात्मिक शिक्षा शिक्षा प्रक्रिया का उच्चतम शिखर है। इसके माध्यम से शिक्षाथ्री सार्वभौम सत्ता के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित करता है। श्री माताजी के According आध्यात्मिक शिक्षा प्राप्त कर लेने पर ‘‘सहसा Single आन्तरिक कपाट खुल जाएगा और तुम सब ऐसी ज्योति में प्रवेश करोगे जो तुम्हें अमरता का आश्वासन प्रदान करेगी तथा स्पष्ट अनुभव कराएगी कि तुम सदा ही जीवित रहे हो और सदा ही जीवित रहोगे। नाश बाह्य Resellerों का होता है और अपनी वास्तविक सत्ता के सम्बन्ध में तुम्हें यह भी पता लगेगा कि ये Reseller वस्त्रों के समान हैं, जिन्हें पुराने पड़ जाने पर फेंक दिया जाता है।’’ 

श्री अरविन्द मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा देने के प्रबल पक्षधर थे। उनका मानना था कि विदेशी भाषा के Wordों का संदर्भ भिन्न होता है अत: विदेशी भाषा का उपयोग विद्याथ्री का ध्यान शिक्षण-तत्व से हटाती है और वह Singleाग्र होकर शिक्षा ग्रहण नहीं कर पाता है। पर श्री अरविन्द अन्तर्राष्ट्रीय भाषाओं के विरोधी भी नहीं थे। वे चाहते थे छात्र अन्तर्राष्ट्रीय भाषाओं को सीखें।

विभिन्न विषयों के शाब्दिक ज्ञान के साथ-साथ श्री अरविन्द ने पाठ्यक्रम में विभिन्न क्रियाओं को महत्वपूर्ण स्थान दिया। उन्होंने विद्यालय को समुदाय के सामाजिक-आर्थिक परिवेष से जोड़ने पर बल दिया। वे शिल्प की शिक्षा पर बल देते थे। वे काव्य, कला और संगीत की शिक्षा आवश्यक मानते थे। इन सबसे सृजनात्मकता और कल्पनाशीलता का विकास होता है। श्री अरविन्द विज्ञान की शिक्षा के महत्व को स्वीकार करते हैं। विज्ञान से अन्वेषण, विश्लेषण, संश्लेषण तथा समालोचना की शक्ति का विकास होता है। प्रकृति के विभिन्न जीवों, पादपों And पदार्थों के अवलोकन And अध्ययन से मानसिक शक्तियों का विकास होता है और संवेदनशीलता बढ़ती है।

वस्तुओं के उपरांत Wordों और विचारों पर ध्यान केन्द्रित करने की Need है। वे राष्ट्रीय साहित्य और History का शिक्षण आवश्यक मानते थे। वे राष्ट्र को भूमि के टुकड़े से बहुत अधिक मानते थे। History के माध्यम से वे विद्यार्थियों में राष्ट्रप्रेम की भावना का विकास करना चाहते थे। उन्होंने राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन के दौरान विद्यार्थियों की Single सभा को सम्बोधित करते हुए कहा: ‘‘Single राष्ट्र के History में कभी-कभी ऐसे समय भी आते है, जबकि दैव उसके सम्मुख Single ऐसा कार्य, Single ऐसा लक्ष्य उपस्थित कर देता है जिसके सामने प्रत्येक वस्तु त्याग देनी होती है- चाहे वह कितनी भी ऊँची और पवित्र क्यों न हो। हमारी मातृभूमि के लिए भी ऐसा समय आ गया है, जबकि उसकी सेवा से अधिक प्रिय और कुछ नहीं है, जबकि अन्य सबकुछ को इसी लक्ष्य की ओर निर्देशित Reseller जाना चाहिये। तुम अध्ययन करते हो तो उसी के लिए अध्ययन करो। अपने शरीर, मन और आत्मा को उसी की सेवा के लिए प्रशिक्षित करो। तुम अपनी आजीविका कमाओगे, ताकि तुम उसके लिए जीवित रह सको। तुम विदेशों को जाओगे ताकि तुम ज्ञान के साथ वापस लौट सको जिससे कि तुम उसकी सेवा कर सको।’’

श्री अरविन्द नैतिक शिक्षा को आवश्यक मानते हैं। वे राजनीति को भी नीति पर आधारित करना चाहते थे। वे धर्म के मूल तत्वों को पाठ्यक्रम में सम्मिलित करने का सुझाव देते हैं। वे धर्म को आत्मा और प्रकृति के बीच मध्यस्थ के Reseller में देखते हैं। जैसा कि हम देख चुके हैं श्री अरविन्द शारीरिक शिक्षा पर बल देते हैं क्योंकि शरीर ही सारे धर्म और कर्म का आधार है। वे योग के द्वारा मन, मस्तिष्क और शरीर तीनों का सही दिशा में सामन्जस्यपूर्ण विकास पर बल देते हैं।

शिक्षण-विधि 

यद्यपि अरविन्द ने शिक्षण विधि के बारे में स्पष्ट नीति या कार्ययोजना का विकास नहीं Reseller पर उनके कार्यों से उनकी शिक्षण विधि के संदर्भ में मूलभूत सिद्धान्तों का विश्लेषण Reseller जा सकता है।

श्री अरविन्द का यह मानना था कि छात्र को कुछ भी ऐसा नहीं सिखाया नहीं जा सकता जो First से उसमें निहित नहीं है। छात्र को सीखने की स्वतंत्रता होनी चाहिए- शिक्षक का कर्तव्य है कि वह उपयुक्त परिस्थितियों का निर्माण करे। शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में बच्चे की इच्छा And रूचि अधिक महत्व रखता है। विद्याथ्री जिस विषय की शिक्षा में रूचि रखता हो उसे उस विषय की शिक्षा देनी चाहिए। साथ ही शिक्षण विधि का चयन छात्र की रूचि के According होनी चाहिए। शिक्षक को इस तरह से शिक्षण कार्य करना चाहिए कि छात्र पढ़ाये जा रहे पाठ And विषय में रूचि ले।

श्री अरविन्द ने इस बात पर जोर दिया कि बच्चे की शिक्षा वर्णमाला से प्रारम्भ नहीं होनी चाहिए। उसे प्रारम्भ में प्रकृति के विभिन्न Resellerों- पेड़- पौधों, सितारों, सरिता, वनस्पतियों And अन्य भौतिक पदार्थों का निरीक्षण करने का अवसर देना चाहिए। इससे विद्यार्थियों में निरीक्षण शक्ति, संवेदनशीलता, सहयोग And सहअस्तित्व का भाव विकसित होता है। इसके बाद अक्षरों या वर्णों को सिखाना चाहिए। फिर Wordों का Means बताकर उनका विभिन्न तरीकों से प्रयोग करना सिखाना चाहिए। Word प्रयोग द्वारा साहित्यिक क्षमता का विकास होता है।

विज्ञान-शिक्षण में छात्र की जिज्ञासा प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करना चाहिए। इसके लिए आस-पास के वातावरण में स्थित जीव-जन्तु, पेड़- पौधे, मिÍी-पत्थर, तारे-नक्षत्र आदि का निरीक्षण कर प्रकृति के रहस्यों का उद्घाटन कर विभिन्न विज्ञानों की शिक्षा ग्रहण करने की प्रवृत्ति को बढ़ाना चाहिए।

छात्रों को दर्शन पढ़ाते समय छात्रों में बौद्धिक चेतना का विकास करने का प्रयास करना चाहिए। History इस तरह से पढ़ाया जाना चाहिए कि विद्यार्थियों में राष्ट्रीयता की भावना का विकास हो। श्री अरविन्द शिक्षा के माध्यम के Reseller में मातृभाषा के उपयोग पर बल देते थे। इससे राष्ट्रीय साहित्य And History को समझने में आसानी होती है, साथ ही चारों ओर के परिवेश का भी बेहतर ज्ञान मिलता है।

अरविन्द ने ऐसी शिक्षण-विधि अपनाने पर जोर दिया जिससे छात्र शिक्षा का Means केवल सूचनाओं का संग्रह न माने। वह रटने पर जोर न दे वरन् ज्ञान प्राप्त करने के कौशलों को महत्वपूर्ण मानकर उनका विकास करे। विद्यार्थियों में समझ, स्मृति, निर्णय क्षमता, कल्पना, तर्क, चिन्तन जैसी शक्तियों का विकास Reseller जाना चाहिए।

श्री अरविन्द धार्मिक शिक्षा को आवश्यक मानते थे, पर उनका यह स्पष्ट मत है कि सप्ताह के कतिपय दिनों में कुछ कालांशों को धार्मिक शिक्षा के लिए तय कर उसकी शिक्षा देना उचित या लाभदायक नहीं है। धार्मिक शिक्षा बाल्यावस्था से ही पवित्र, शान्त And शुद्ध प्राकृतिक वातावरण में दी जानी चाहिए। आस्था से पूर्ण जीवन ही धार्मिक शिक्षा का बेहतर माध्यम है।

अरविन्द की दृष्टि में अध्यापक 

अध्यापक मात्र ‘इन्स्ट्रक्टर’ नहीं है। उसका सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य ‘‘अपने आपको समझने’’ में छात्र की सहायता करना है। वह सूचनाओं को विद्यार्थियों के समक्ष परोसने वाला नहीं वरन् मार्ग-दर्शक है। अध्यापक विद्यार्थियों की क्रियात्मक And Creationत्मक शक्तियों के विकास में सहायता प्रदान करता है।

महर्षि अरविन्द के According शिक्षक को राष्ट्रीय संस्कृति के माली के Reseller में कार्य करना चाहिए। उसका कर्तव्य है संस्कार की जड़ों में खाद देना। और जड़ों को सींच-सींच कर विद्याथ्री को महा-Human बनाना।

महर्षि अरविन्द की शिष्या श्री माँ ने माता-पिता के कर्तव्यों के संदर्भ में जो बाते कहीं वह अध्यापकों पर भी पूर्णत: लागू होती है। वे कहती हैं ‘‘बच्चे को शिक्षा देने की योग्यता प्राप्त करने के लिए First कर्तव्य है अपने आप को शिक्षित करना, अपने बारे में सचेतन होना और अपने ऊपर नियन्त्रण रखना, जिससे हम अपने बच्चे के सामने कोर्इ बुरा उदाहरण प्रस्तुत न करें। उदाहरण द्वारा ही शिक्षा फलदायी होती है। अगर तुम चाहते हो कि तुम्हारा बच्चा तुम्हारा आदर करे, तो अपने लिए आदर भाव रखो और हर क्षण सम्मान के योग्य बनो। कभी भी स्वेच्छाचारी, अत्याचारी, असहिष्णु और क्रोधित मत होओ। जब तुम्हारा बच्चा तुमसे कोर्इ प्रश्न पूछे, तब तुम यह समझकर कि वह तुम्हारी बात नहीं समझ सकता, उसे जड़ता और मूर्खता के साथ कोर्इ उत्तर मत दो। अगर तुम थोड़ा कष्ट उठाओ तो तुम्हारी बात वह हमेशा समझ सकेगा।’’

अरविन्द आश्रम, पाण्डिचेरी में कार्य करने वाले अध्यापकों को अलग से कोर्इ वेतन नहीं दिया जाता है। श्री अरविन्द शिक्षा को धन के आदान प्रदान से जोड़ कर इसे व्यापार का Reseller देने के विरोधी थे। अत: आश्रम- विद्यालय और विश्वविद्यालय के कार्यरत अध्यापकों की Need को आश्रम उसी तरह से पूरा करता है जैसे अन्य साधकों की। यह प्राचीन Indian Customer शिक्षा व्यवस्था के महान आदर्श पर आधारित है जब गुरू शिष्यों से अध्ययन काल के दौरान कोर्इ आर्थिक माँग नहीं करते थे।

छात्र-संकल्पना 

श्री अरविन्द विद्याथ्री को प्रछन्न Reseller में ‘सर्वशक्तिमान चैतन्य’ मानते हैं। वे विद्याथ्री को केवल शरीर के Reseller में ही नहीं देखते हैं। शरीर के साथ-साथ प्राण, मन, बुद्धि, आत्मा आदि विभिन्न पक्षों को समान महत्व देते हैं। इन सबका वे समन्वित विकास चाहते हैं। महर्षि अरविन्द शिक्षा में अन्त:करण को महत्वपूर्ण मानते हैं। जैसा कि हम लोग First ही देख चुके हैं अन्त:करण के कर्इ स्तर होते हैं। अन्त:करण का First स्तर ‘‘चित्त’’ कहलाता है। यह स्मृतियों का संचय स्थल है। द्वितीय स्तर ‘‘मन’’ कहलाता है। यह इन्द्रियों से सूचनाओं And अनुभवों को ग्रहण कर उन्हें संप्रत्ययों And विचारों में परिवर्तित करता है। अन्त:करण का तृतीय स्तर ‘‘बुद्धि’’ है। जिसका शिक्षा प्रक्रिया में अत्यधिक महत्व है। यह सूचनाओं And ज्ञान-सामग्रियों को व्यवस्थित करता है, निष्कर्ष निकालता है और सामान्यीकरण करता है। इस तरह से बुद्धि सिद्धान्त निResellerण करता है। अन्त:करण का सर्वोच्च स्तर ‘‘साक्षात अनुभूति’’ है। श्री अरविन्द का स्पष्ट मत है कि ‘‘मस्तिष्क को ऐसा कुछ भी सिखाया नहीं जा सकता, जो कि बालक में सुप्त ज्ञान के Reseller में First से ही विद्यमान न हो।’’ अध्यापक इन अन्तर्निहित शक्तियों को जागृत करता है, बाहर से वह कुछ भी आरोपित नहीं कर सकता है।

बालक के All शारीरिक तथा मानसिक अंग उसके स्वयं के वश में होने चाहिए, न कि अध्यापक के नियन्त्रण में। बालक की रूचियों And Needओं के अनुReseller उन्हें कार्य मिलना चाहिए।

अरविन्द आश्रम की सारी शिक्षा-व्यवस्था नि:शुल्क है। विद्याथ्री Single बार अगर प्रवेश पा लेता है तो उसे कोर्इ शुल्क नहीं देना पड़ता है। यह प्राचीन गुरूकुल व्यवस्था के अनुReseller है। श्री अरविन्द विद्यार्थियों में स्वअनुशासन की भावना जगाना चाहते थे। आश्रम का सम्पूर्ण वातावरण आध्यात्मिक है अत: स्वभाविक है कि यहाँ के विद्यार्थियों की चेतना का स्तर ऊँचा हो।

शिक्षण-संस्स्थायें 

राजनीति से सन्यास ग्रहण करने के उपरांत 1910 में श्री अरविन्द पाण्डिचेरी आ गये। वे यहीं साधना-रत हो गये। धीरे-धीरे साधकों And अरविन्द के अनुगामियों की संख्या बढ़ती गर्इ। 1926 में यहाँ अरविन्द आश्रम की स्थापना की गर्इ। 1940 से साधकों को आश्रम में बच्चों को रखने की अनुमति दे दी गर्इ। बच्चों की Need को देखते है श्री अरविन्द ने 1943 में आश्रम विद्यालय की स्थापना की।

6 जनवरी, 1952 को श्री माँ ने ‘श्री अरविन्दो इन्टरनेशनल यूनिवर्सिटी सेन्टर’ की स्थापना की- जिसे बाद में ‘श्री अरविन्द इन्टरनेशनल सेन्टर ऑफ एडुकेशन’ के नाम से जाना गया। यह पाण्डिचेरी के योगाश्रम का अविभाज्य अंग है क्योंकि योग और शिक्षा का उद्देश्य समान है- सम्पूर्णता की प्राप्ति कर शाश्वत सार्वभौमिक सत्ता से आत्मतत्व का मिलन। इस तरह यहाँ प्रारम्भिक शिक्षा से लेकर उच्च स्तर की शिक्षा And शोध की व्यवस्था है।

चूँकि शिक्षा का उद्देश्य है आत्मतत्व की जागश्ति And विकास, अत: लड़कों And लड़कियों की शिक्षा के केन्द्र में कोर्इ कश्त्रिम अन्तर नहीं Reseller जाता है। अत: अरविन्द अन्तर्राष्ट्रीय शिक्षा के केन्द्र में लड़कियों के लिए भी वही शैक्षिक कार्यक्रम है जो लड़कियों के लिए। यहाँ तक कि शारीरिक शिक्षा में भी भिन्नता नहीं है। इसके बावजूद विकल्प बहुत अधिक हैं पर चयन का आधार लिंग या परम्परागत निषेध न होकर आन्तरिक अभिरूचि है।

आधुनिक शिक्षा व्यवस्था बहुत हद तक वाणिज्य का Reseller ले चुकी है जहाँ अध्यापक Meansिक लाभ के लिए अध्यापन करता है और छात्र पैसा चुका कर अन्य चीजों की तरह शिक्षा को खरीदते हैं। आश्रम में Single बार प्रवेश के बाद शिक्षा पूर्णत: नि:शुल्क है। और अध्यापक भी अन्य साधकों की ही तरह आश्रम की व्यवस्था से अपनी Needओं को पूरा करता है। उन्हें अलग से कोर्इ वेतन नहीं दिया जाता है। वे प्रेम और सत्य की खोज के सहयात्री हैं न कि ज्ञान का बेचने और खरीदने वाले। शिक्षा केन्द्र Single समुदाय And Single चेतना के Reseller में कार्य करता है जिसके केन्द्र में समर्पण का भाव है। 1973 में अपने शरीर-त्याग के पूर्व श्री माँ ने शिक्षा केन्द्र की जड़ें मजबूत कर दी थी। उनके बाद भी अरविन्द के आदर्शों के अनुReseller शिक्षा केन्द्र शिक्षण- अधिगम के क्षेत्र में नये-नये प्रयोग कर रहा है।

1968 में श्री माँ ने ‘ओरोविले’ की स्थापना की। यह जाति, धर्म, भाषा, प्रजाति से ऊपर उठकर संपूर्ण नगर के सामूहिक निवास And शिक्षा का अद्भुत प्रयोग है। यह Human के भविष्य में विश्वास की अभिव्यक्ति है। ओरोविले जीने की Single ‘नर्इ शैली’ के विकास का प्रयास है जो श्री अरविन्द के ‘नर्इ Humanता’ के संप्रत्यय पर आधारित है।

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