रवीन्द्रनाथ टैगोर का जीवन परिचय And शिक्षा दर्शन

रवीन्द्रनाथ टैगोर का जन्म बंगाल के Single अत्यंत ही सम्पन्न And सुसंस्कृत परिवार में 6 मर्इ, 1861 को हुआ था। धर्मपरायणता, साहित्य में अभिरूचि तथा कलाप्रियता उन्हें विरासत में मिली। वे महर्षि देवेन्द्रनाथ टैगोर के कनिष्ठ पुत्र थे। महर्षि देवेन्द्रनाथ टैगोर अपने समय के प्रसिद्ध विद्वान And उत्साही समाज सुधारक थे। इन्होंने ही First 1863 र्इ0 में बोलपुर के पास अपनी साधना के लिए Single आश्रम की स्थापना की। कालान्तर मे यही स्थल रवीन्द्रनाथ टैगोर की कर्मस्थली बनी। यहीं पर गुरूदेव ने शांतिनिकेतन, विश्वभारती, श्रीनिकेतन जैसी विश्व प्रसिद्ध संस्थाओं की स्थापना की।

समृद्ध परिवार में जन्म लेने के कारण रवीन्द्रनाथ का बचपन बड़े आराम से बीता। पर विद्यालय का उनका अनुभव Single दु:स्वप्न के समान रहा जिसके कारण भविष्य में उन्होंने शिक्षा व्यवस्था में सुधार लाने के लिए अभूतपूर्व प्रयास किए। कुछ माह तक वे कलकत्ता में ओरिएण्टल सेमेनरी में पढ़े पर उन्हें यहाँ का वातावरण बिल्कुल पसंद नहीं आया। इसके उपरांत उनका प्रवेश नार्मल स्कूल में कराया गया। यहाँ का उनका अनुभव और कटु रहा। विद्यालयी जीवन के इन कटु अनुभवों को याद करते हुए उन्होंने बाद में लिखा ‘‘जब मैं स्कूल भेजा गया तो, मैने महसूस Reseller कि मेरी अपनी दुनिया मेरे सामने से हटा दी गर्इ है। उसकी जगह लकड़ी के बेंच तथा सीधी दीवारें मुझे अपनी अंधी आखों से घूर रही है।’’ इसीलिए जीवन पर्यन्त गुरूदेव विद्यालय को बच्चों की प्रकृति, रूचि And Need के अनुReseller बनाने के प्रयास में लगे रहे।

इस प्रकार रवीन्द्रनाथ को औपचारिक विद्यालयी शिक्षा नाममात्र की मिली। पर घर में ही उन्होंने संस्कृत, बंगला, अंग्रेजी, संगीत, चित्रकला आदि की श्रेष्ठ शिक्षा निजी अध्यापकों से प्राप्त की।

उच्च शिक्षा प्राप्त करने के उद्देश्य से वे 1878 में इंग्लैंड गये। वहाँ भी वे कुछ ही दिन तक बाइटन स्कूल के विद्याथ्री के Reseller में रह पाये। अंतत: वे भारत लौट आये। पुन: 1881 र्इ0 मे कानून की पढ़ार्इ के विचार से वे विलायत गये। पर वहाँ पहुंचने के उपरांत वकालत की पढार्इ का विचार उन्होंने त्याग दिया, और वे स्वदेश वापस आ गये। इस प्रकार उन्होंने औपचारिक शिक्षा तो प्राप्त नही की, पर पूर्व और पश्चिम की संस्कृतियों का उन्हें प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त करने का अवसर मिला। दोनों ही संस्कृतियों का सर्वश्रेष्ठ तत्व गुरूदेव के व्यिक्त्व का हिस्सा बन गया।

1901 में बोलपुर के समीप रवीन्द्रनाथ टैगोर ने ब्रह्मचर्य आश्रम के नाम से Single विद्यालय की स्थापना की, जिसे बाद में शान्तिनिकेतन के नाम से पुकारा गया। तत्पश्चात उन्होंने अपने को पूर्णत: शिक्षा साहित्य And समाज की सेवा में अर्पित कर दिया।

गुरूदेव को सक्रिय राजनीति मे रूचि नहीं थी, पर जब अंग्रेजों ने अन्याय पूर्वक बंगाल का विभाजन Reseller तो गुरूदेव ने इसके विरूद्ध चलने वाले स्वदेशी आन्दोलन का नेतृत्व Reseller। वे कलकत्ता की गलियों में Singleता, स्वतंत्रता And बंधुत्व का गीत गाते हुए निकल पड़े। बंगाल का विभाजन रद्द हुआ।

कवि, साहित्यकार, अध्यापक And समाजसेवी के Reseller में रवीन्द्रनाथ टैगोर की ख्याति बढ़ती गयी। 1913 में उन्हें ‘गीतांजली’ नामक काव्य पुस्तक पर साहित्य का विश्वप्रसिद्ध नोबेल पुरस्कार मिला। वे एशिया के First व्यक्ति थे, जिन्हें यह विश्व प्रतिष्ठित पुरस्कार मिला था। अब पूरा विश्व उन्हें विश्वकवि के Reseller में देखने लगा। उन्होंने अमेरिका, एशिया And यूरोप के अनेक देशों का भ्रमण Reseller। 1915 में अंग्रेजी सरकार ने उन्हें ‘नाइटहुड’ की उपाधि प्रदान की।

1919 में जब जालियाँवाला बाग में हजारों निहत्थे Indian Customerों की औपनिवेशिक सरकार द्वारा हत्या की गर्इ, तो रवीन्द्रनाथ टैगोर ने ‘नाइटहुड’ की उपाधि लौटा दी और वे पीड़ित Indian Customerों के साथ खड़े हो गये। इस प्रकार रवीन्द्रनाथ टैगोर ने देश को राजनीतिक नेतृत्व भी प्रदान Reseller। सन् 1941 में इस महान कवि And ऋषि तुल्य गुरूदेव का देहावसान हो गया। उनकी मृत्यु पर गुरूदेव के प्रशंसक महात्मा गाँधी ने कहा था ‘‘गुरूदेव के पार्थिव शरीर की राख Earth में मिल गर्इ है, लेकिन उनके व्यिक्त्व का प्रकाश Ultra site की ही तरह तब तक बना रहेगा जब तक Earth पर जीवन है… गुरूदेव Single महान अध्यापक ही नहीं थे वरन् Single ऋषि थे।’’

शिक्षा संबन्धी कश्त्तियां 

गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर Single महान Creationकार थे। उनकी Creationओं का संसार बहुत ही विस्तृत था। शिक्षा से संबंधित उनकी चार महत्वपूर्ण पुस्तकें है। सबसे अधिक प्रसिद्ध पुस्तक ‘शिक्षा’ है जो First बार 1908 में प्रकाशित हुर्इ। प्रारंभ में इसमें Seven निबंध थे, बाद में इसमें गुरूदेव द्वारा लिखित 16 अन्य निबंधों को भी संकलित Reseller गया। अन्य तीन पुस्तकें है- ‘शान्तिनिकेतन ब्रह्मचर्य आश्रम’, ‘आश्रम रेर Reseller वो विकास’ तथा ‘विश्वभारती’। इसके अतिरिक्त सौ से भी अधिक प्रकाशित निबंध And व्याख्यान है- जिनका अनुवाद विश्व की अनेक भाषाओं में हो चुका है।

शिक्षा से संबंधित गुरूदेव की Creationंए शिक्षा के विभिन्न स्तरों And पक्षों- ‘प्राथमिक-उच्च’, ‘ग्रामीण-शहरी’, ‘व्यक्ति-समुदाय’ का चित्रण करते है। उनकी कर्इ कवितांए शिक्षा की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। लिपिका में संग्रहित ‘तोता कहानी’ वर्तमान शिक्षा व्यवस्था पर सर्वाधिक तीखा व्यंग है। यह दर्शाता है कि विभिन्न स्तरों पर शिक्षा की व्यवहारिक समस्याओं की उनको कितनी गहरी समझ थी।

जीवन-दर्शन 

गुरूदेव का जीवन-दर्शन प्राचीन ऋषियों की तरह व्यापक था। उनका व्यापक जीवन-दर्शन उपनिषदों के गहन चिन्तन-मनन के परिणाम स्वReseller विकसित हुआ था। उपनिषदों में विवेचित विश्वबोध की भावना ने गुरूदेव के व्यिक्त्व सोच और कार्य को अत्यधिक प्रभावित Reseller। वे सम्पूर्ण जीव-जगत में इस सत्ता को महसूस करते हैं। इसीलिए गुरूदेव को Human मात्र की Singleता में अनन्त विश्वास है। उन्हें विश्व की बाह्य विविधताओं के मध्य Singleता नजर आती है। उनका विश्वास है कि र्इश्वर सम्पूर्णता का अनन्त आदर्श है और मनुष्य उस पूर्णता को प्राप्त करने की शाश्वत प्रक्रिया है। Single और अनेक का मिलना तथा बाह्य का आंतरिक से समन्वय, इन दोनों के बारे में गहन सोच तथा इन्हें जीवन में प्रयुक्त करने हेतु व्यवहारिक मार्ग की खोज गुरूदेव के जीवन का परम लक्ष्य था।

टैगोर के जीवन दर्शन में Human करूणा का महत्वपूर्ण स्थान है। वे Indian Customerों की गरीबी से अत्यधिक द्रवित हो जाते थे। इसने उनकी जीवन दृष्टि को व्यापक Reseller से प्रभावित Reseller। गुरूदेव के व्यिक्त्व का दूसरा पक्ष भी अत्यन्त महत्वपूर्ण था। उन्हें Human की निर्णय लेने And उसे क्रियान्वित करने की इच्छा शक्ति पर दृढ़ विश्वास था। उनका मानना था कि ‘‘हम जो भी नवनिर्माण करना चाहते है, उसमें व्यक्ति या समाज किसी के भी आत्मसम्मान को ठेस नहीं पहुँचना चाहिए तथा ऐसा कोर्इ कार्य नहीं चाहिए जिससे जीवन के आध्यात्मिक और संसारिक पक्षों में दुराव हो।

अपने निबन्ध ‘द पोएट्स स्कूल’ मे गुरूदेव ने लिखा ‘‘Human इस संसार में इसलिए नहीं आया है कि वह इसके बारे में सारी सूचनांए Singleत्रित करे तथा उसे अपना दास बनाए, वह इसे यहाँ अपना घर बनाने आया है, वह यहाँ जीव मात्र का सहयोगी और वसुधा का पूजक बनने आया है, वह यहाँ प्रेम, कलात्मक Creationत्मकता तथा आनन्द के द्वारा अपनी इच्छा को पूर्ण करने आया है। गुरूदेव की दृष्टि में इन सब को जीवन के प्रति सम्पूर्ण उपागम को अपनाकर पाया जा सकता है, न कि आंशिक विकास And स्वार्थ के द्वारा।’’

टैगोर को Human की क्षमता में पूर्ण विश्वास था। उन्होंने व्यिक्त्व के सामन्जस्यपूर्ण विकास पर बल दिया। द्वितीय विश्वFight के दौरान जब Human जाति पर गंभीर संकट आया उस समय भी महाकवि ने Human के विवेक पर आस्था जताते हुए कहा कि हम इस संकट को पार कर सृजनात्मक जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करेंगे। टैगोर व्यक्ति के सम्मान और उसकी स्वतंत्रता में आस्था रखते थे।

रवीन्द्रनाथ टैगोर Indian Customer ग्राम जीवन And संस्कृति का पुनरूत्थान चाहते थे। 1905 में उन्होंने ‘स्वदेश समाज’ नाम से Single लम्बा निबंध लिखा। इसमें कृषि, शिल्प, ग्रामोद्योग आदि के पुनर्विकास पर जोर दिया गया। स्वप्रबन्धित समाज के निर्माण पर उन्होंने अत्यधिक बल दिया। इस संदर्भ में गुरूदेव के प्रयासों की सराहना करते हुए महात्मा गाँधी ने कहा ‘‘उन्होंने (रवीन्द्रनाथ टैगोर ने) भारत की निर्धनता का कारण समझा तथा इसे कैसे समाप्त Reseller जाया, इस संदर्भ में उनके पास पैनी दृष्टि थी। इस कार्य हेतु उन्होंने सबसे अधिक बल शिक्षा पर दिया- न केवल बच्चों की शिक्षा बल्कि प्रौढ़ों की भी शिक्षा। भारत अपना परम्परागत गौरव हासिल कर सके इसके लिए उन्होंने संभावनाओं को तलाशा तथा राह गढ़े।’’

टैगोर दर्पपूर्ण राष्ट्रवाद के घोर विरोधी थे। वे All संस्कृतियों के मध्य सहयोग And समन्वय की कामना रखते थे। उन्होंने विश्वभारती विश्वविद्यालय को All संस्कृतियों का मिलन स्थल बनाया। इस विश्वविद्यालय का ध्येय वाक्य ‘यत्र विश्वम् भवेत्य नीड़म्’’ टैगोर के आदर्शो को परिलक्षित करता है। वास्तव में गुरूदेव Single विश्व नागरिक थे और वे Human को उसकी क्षुद्र सीमाओं से निकाल कर उन्हें ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’’ की भावना से ओत-प्रोत करना चाहते थे।

शिक्षा दर्शन 

अनेक विद्वान रवीन्द्रनाथ टैगोर को Single क्रांतिकारी शिक्षाशास्त्री के Reseller में देखते हैं। उनका शिक्षा दर्शन और शिक्षा विधि इतना Meansपूर्ण और उपयोगी है कि उन्हें अलग से भी देखा जाये तो उनका महत्व कम नहीं होता है।

शिक्षा संबंधी गुरूदेव के मूल विचार उनके प्रसिद्ध लेख ‘तपोवन’ (1909) में देखे जा सकते हैं। उनके शिक्षा दर्शन का निर्माण मूलत: Indian Customer दार्शनिक परम्परा विशेषत: उपनिषदों द्वारा हुआ था। गुरूदेव पर प्राचीन Indian Customer शिक्षण पद्धति का गहरा प्रभाव था। उनके विचारों की झलक ‘तपोवन’, ‘तपस्या’, ‘आश्रम’, ‘संगम’, ‘ब्रह्मचर्य’ जैसे महत्वपूर्ण Wordों के प्रयोग में मिलती है। इस दृष्टि से रवीन्द्रनाथ टैगोर निश्चित Reseller से आदर्शवादी शिक्षाशास्त्री कहे जा सकते हैं। उनका मानना था कि र्इश्वर ने अपनी योजना के तहत ही बच्चे को नैसर्गिक प्रतिभा प्रदान कर धरती पर भेजा है। टैगोर बालकों में उदात्त भावनाओं को जागृत कर उन्हें आध्यात्मिक भूमि पर लाना चाहते थे।

टैगोर को कुछ विद्वान प्रकृतिवादी शिक्षाशास्त्री मानते हैं पर टैगोर का प्रकृतिवाद पश्चिम के प्रकृतिवाद से बिल्कुल भिन्न है। गुरूदेव के शैक्षिक सिद्धान्त का सार मनुष्य और प्रकृति के बीच अध्यात्मिक Singleता है। टैगोर की दृष्टि में बच्चों का विकास नैसर्गिक Reseller से प्रकृति की गोद में होना चाहिए। टैगोर पर रूसो And अंग्रेजी रूमानी कवियों, जैसे शेली और वर्ड्सवर्थ का प्रभाव देखा जा सकता है। वे कहा करते थे कि ‘‘शिक्षा फैक्टरी में काम करने की दक्षता हासिल करने के लिए नहीं है, और न ही विद्यालयों और महाविद्यालयों में परीक्षा में पास करने के लिए है। सच्ची शिक्षा तपोवन में प्रकृति के साथ SingleReseller हो तपस्या के माध्यम से शुद्ध होकर ही प्राप्त की जा सकती है।’’

बच्चे की स्वतंत्रता 

गुरूदेव के According प्रत्येक व्यक्ति का जन्म किसी न किसी लक्ष्य प्राप्ति के लिए होता है। प्रत्येक बालक अपनी लक्ष्य-प्राप्ति की दिशा में बढ़ सके, इसके लिए उसे योग्य बनाना शिक्षा का महत्वपूर्ण कार्य है। उन्होंने अपनी दो कविताओं ‘पॉवर ऑफ अफेक्सन’ तथा ‘बंगमाता’ मेंं इस तथ्य को स्पष्ट Reseller है कि हर बच्चे का अपना व्यिक्त्व होता है, जिसके विकास को किसी भी संस्था द्वारा बाधित नहीं Reseller जाना चाहिए। यह आधुनिक शिक्षा सिद्धान्त को दर्शाता है। माँ को बच्चे को अपने गर्भ के कैद से मुक्त करने के उपरांत अपने स्नेह के कारागार में बंद न कर स्वतंत्र Reseller से विकसित होने का अवसर देना चाहिए। उनकी दृष्टि में हर बच्चा स्वंय का, वसुधा का तथा सार्वभौम सत्ता (र्इश्वर) का है। हर व्यक्ति को Human होने का अधिकतम लाभ उठाना चाहिए।

गुरूदेव टैगोर के According शिक्षा केवल वही नहीं है जिसे विद्यालय में दी जाती है- न ही कुछ इस तरह की चीज है जिसे प्रत्येक सप्ताह कुछ ही घंटो में दे दी जा सकती है। शिक्षा को व्यिक्त्व के अन्य पक्षों से अलग वस्तु मानना गलत है।

Indian Customer शैक्षिक परम्परा के पक्षधर 

अपने व्यक्तिगत अनुभव से रवीन्द्रनाथ ने अनुभव Reseller कि पश्चिमी/अंग्रेजी शिक्षा का उद्देश्य औपनिवेशिक शासन हेतु कल्र्क तैयार करना था और जहाँ तक संभव हो तथाकथित शिक्षित Indian Customerों में Indian Customer संस्कृति और दर्शन के प्रति हीनता की भावना पैदा करना था। गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने भारत की गरीबी और पश्चिमी देशों की समृद्धि देखी थी। उन्होंने महसूस Reseller कि भारत इन देशों से बहुत कुछ सीख सकता है। इसके बावजूद उनकी जड़ें Indian Customer संस्कृति और परम्परा में जमी रहीं। शिक्षा और संस्कृति (1935) में उन्होंने लिखा ‘‘जब भारत की संस्कृति अपने सर्वोच्च अवस्था में थी वह कभी धन की कमी के कारण हतोत्साहित या शर्मिन्दा नहीं हुर्इ। इसका कारण यह था कि उस संस्कृति का उद्देश्य आत्मिक जीवन का विकास करना था, भौतिक सम्पदा का संग्रहण नहीं। शिक्षा का उद्देश्य इसी लक्ष्य को प्राप्त करना होना चाहिए…इसी उद्देश्य को ध्यान में रख कर विभिन्न विषयों का शिक्षण Reseller जाना चाहिए। वह इसलिए कि Human का स्तर या सम्मान व्यवहारिकता तथा सामाजिक कल्याण के समन्वय पर निर्भर करता है।’’

आधुनिक शिक्षा की मशीनों पर निर्भरता के कविवर विरोधी थे। वे इसे शिक्षा के लिए हानिप्रद मानते थे। उनका कहना था कि जीवित पांव किसी भी वाहन से अधिक महत्वपूर्ण है। शिक्षा ऐसी हो जो पांव यानि Human को मजबूत बनाये मशीन को नहीं।

अन्तर्राष्ट्रीयता की भावना 

गुरूदेव में अन्र्तराष्ट्रीयता की भावना कुट-कुट कर भरी थी। यूरोप की अच्छार्इयों को ग्रहण करने में उन्हें कोर्इ हिचक नहीं थी। वे कहते है ‘हमलोग यह कहने के लिए व्यग्र हो जाते है कि हम सबकुछ जानते है।’’ जबकि हमें पूरे आत्मविश्वास के साथ कहना चाहिए कि ‘‘हम सब कुछ कर सकते है’’। आज यूरोप का यही धर्म बन गया है। उनके आत्मसम्मान की कोर्इ सीमा नहीं है। उन्होंने जल, धरती और आकाश सब पर विजय प्राप्त कर लिया है। दूसरी ओर हमलोग र्इश्वर से प्रार्थना भर करते रहे। फलत: देवताओं ने भी हमे धोखा दिया।’ लेकिन वे यूरोपीय सभ्यता के अंधभक्त भी नहीं थे। उनका माना था कि All आधुनिक भौतिक साधनों के बावजूद बिना सांस्कृतिक चेतना के Human जीवन व्यर्थ है।

परम्परागत विद्यालयों मे र्इश्वर की योजना And बच्चे के व्यक्तित्व की विशेषताओं को ध्यान में रखे बिना वर्कशाप की तरह All बच्चों को Single सा बनाने का प्रयास Reseller जाता है। अगर कहीं से विरोध होता है तो अनुशासन के नाम पर उस आवाज को दबा दी जाती है। कविवर के According जीवन इस तरह से सीधी रेखा में नहीं चलता। रवीन्द्रनाथ के According विद्यालय शिक्षा देने की विशेष संस्था है। यह प्रौढ़ों के लिए तो उपयुक्त हो सकता है पर बच्चों के लिए नहीं। बच्चे तपस्वी नहीं हैं जो पाठशाला Resellerी मठ में प्रवेश लेकर तत्काल शिक्षा ग्रहण करने लगे।

सूचना शिक्षा नहीं 

गुरूदेव शिक्षा में सूचनाओं को इकट्ठा करने की प्रवृत्ति के विरोधी थे। उनका कहना था कि ‘‘हमलोग Earth पर इस दुनिया को स्वीकार करने आये है, केवल जानने के लिए नहीं। हम ज्ञान के द्वारा शक्तिशाली बन सकते है पर सहानुभूति के द्वारा हम सम्पूर्णता को प्राप्त कर सकते है। सर्वोच्च शिक्षा वह है जो हमें केवल सूचनांए ही नहीं देता है वरन् हमारे जीवन को सम्पूर्ण वसुधा से जोड़ता है पर हम पाते है कि वर्तमान शिक्षा सहानुभूति की न केवल लगातार योजनाबद्ध ढंग से उपेक्षा करती है वरन् दबाती भी है। प्रारंभ से ही बच्चे को प्रकृति से अलग कर दिया जाता है। बच्चे से हम उसकी Earth छिन लेते हैं भूगोल पढ़ाने के लिए, वाणी छिन लेते है व्याकरण पढ़ाने के लिए, उसकी भूख महाकाव्यों की कथाओं की है पर हम उसे ऐतिहासिक तथ्यों की सारणी And तिथियां परोसते है। वह Human जगत में पैदा हुआ पर उसे हम मशीनों की दुनिया में देशनिकाला देते है। बच्चे की प्रकृति इसके विरूद्ध सहने की अपनी पूरी ताकत के साथ विरोध करती है। पर अंत में उसे दण्ड के द्वारा शान्त कर दिया जाता है।’’ आज शिक्षालय के स्तर को मापने का आधार विद्यालय भवन की भव्यता, पुस्तकों की संख्या तथा शैक्षिक उपकरणों की उपलब्धता है जबकि रवीन्द्रनाथ ने शिक्षा के वास्तविक पक्ष पर ध्यान दिया। इन भौतिक सम्पदाओं से लालच And स्वार्थ तो फल-फूल सकता है पर सामाजिक मूल्य नहीं, जो कि सही शिक्षा का लक्ष्य है।

शिक्षा के उद्देश्य 

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि रवीन्द्रनाथ टैगोर बच्चों के सर्वांगीण विकास को शिक्षा का मुख्य उद्देश्य मानते थे। टैगोर थोपी हुर्इ शिक्षा के विपरीत, प्रकृति के मुक्त वातावरण में बच्चों की इच्छा के अनुReseller शिक्षा देने के पक्षधर थे।

गुरूदेव Human के विभिन्न पक्षों का समन्वित विकास चाहते थे। शिक्षा का उद्देश्य मात्र परीक्षा उत्तीर्ण करना नहीं वरन् बेहतर Human का निर्माण करना है। इसके लिए मस्तिष्क के साथ-साथ भावात्मक And शारीरिक पक्ष के समन्वित विकास का लक्ष्य रखा गया ।

गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर शिक्षा And प्रशिक्षण के द्वारा Indian Customer ग्राम्य संस्कृति को पुन: जीवित कर शक्तिशाली बनाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने कृषि, ग्रामोद्योग आदि की शिक्षा पर काफी बल दिया।

रवीन्द्रनाथ टैगोर शिक्षा के द्वारा Human और प्रकृति के आदि सम्बन्ध को और मजबूत करना चाहते थे। वे Human को शिक्षा के द्वारा प्रकृति के प्रति संवेदनशील बनाना चाहते थे।

गुरूदेव आत्म अनुशासन पर बल देते थे। वे हिंसा के द्वारा बच्चों पर अनुशासन थोपने के खिलाफ थे। शान्तिनिकेतन में बच्चों को स्वतंत्रता देने के पीछे इसी स्वअनुशासन का सिद्धान्त काम करता था।

गुरूदेव शिक्षा द्वारा प्राच्य And पाश्चात्य संस्कृतियों में सहयोग चाहते थे। प्राच्य जगत पश्चिम का विज्ञान And तकनीक ग्रहण करे तथा पाश्चात्य जगत को अपनी आध्यात्मिक And सांस्कृतिक वैभव प्रदान करे।

गुरूदेव शिक्षा के द्वारा बालकों And युवकों का नैतिक And आध्यात्मिक विकास चाहते थे। वे इसके लिए युवकों को तपस्या And भक्ति के मार्ग का अवलम्बन करने का सुझाव देते हैं। नैतिक And आध्यात्मिक विकास ही Human को सच्चे अथोर्ं में स्वतंत्र कर सकता है।

Fightरत Human समाज में सहयोग And सामन्जस्य का भाव विकसित करने के लिए रवीन्द्रनाथ टैगोर छात्रों And अध्यापकों में अन्तर्राष्ट्रीयता की भावना का विकास करना चाहते थे।

पाठ्यक्रम 

रवीन्द्रनाथ टैगोर ने पाठ्यक्रम के संदर्भ में व्यवस्थित विचार नहीं दिए पर उनकी Creationओं And कार्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि वे पाठ्यक्रम को विस्तृत बनाने के पक्षधर थे ताकि जीवन के All पक्षों का विकास हो सके। वे Humanीय And सांस्कृतिक विषयों को महत्वपूर्ण स्थान देते है। विश्वभारती में History, भूगोल, विज्ञान, साहित्य, प्रकृति अध्ययन आदि की शिक्षा तो दी ही जाती है, साथ ही अभिनय, क्षेत्रीय अध्ययन, भ्रमण, ड्राइंग, मौलिक Creation, संगीत, नृत्य आदि की भी शिक्षा दी जाती है।

विश्वभारती में प्राच्य संस्कृतियों के अध्ययन पर विशेष जोर दिया गया। चीन की शिक्षा का अलग पाठ्यक्रम है। विभिन्न भाषाओं की शिक्षा की व्यवस्था है। रवीन्द्रनाथ टैगोर शिक्षा को पुस्तक केन्द्रित बनाने के विरोधी थे। वे अनुभव केन्द्रित And क्रिया प्रधान शिक्षा पर बल देते थे। छोटे बच्चों पर पाठ्य पुस्तकों के बोझ को वे डालना नहीं चाहते थे। उनके According प्रकृति से बच्चा जीवन की सही शिक्षा प्राप्त कर सकता है। ऊँची कक्षाओं में पाठ्य पुस्तकों का प्रयोग Reseller जा सकता है।

शिक्षा के तीन केन्द्र 

गुरूदेव के शिक्षा सिद्धान्त And शिक्षा सम्बंधी कार्यों का गहन विश्लेषण Reseller जाये तो हम पाते है कि उनके According Human के तीन जीवन केन्द्र या शिक्षा केन्द्र है- (अ) Human स्वंय, Second All से भिन्न And विलग; (ब) समुदाय, जिसमें Human दूसरों के साथ सहयोग से रहता है; तथा (स) प्रकृति या वसुधा- जिसमें कभी Human स्वंय में रहता है तो कभी दूसरों के साथ जिनमें प्रकृति के समस्त तत्व And शक्तियां है- सजीव-निर्जीव, गुरू-लघु, भैतिक या अध्यात्मिक। इन तीनों के मध्य का सम्बन्ध प्रत्येक क्षण परिवर्तित रहने के बावजूद स्थायी होता है। इन तीनों के मध्य का सम्बन्ध जब टूटता है तो व्यक्ति और समाज के जीवन में विकृति आती है। आज प्रकृति और Human के मध्य सहयोग की जगह संघर्ष And शोषण का सम्बन्ध बन गया है। अत: Human जितना ही अधिक पाता है उतना ही अधिक लालची बन जाता है। गुरूदेव की दृष्टि में शिक्षा के तीनों केन्द्रों में सहयोग रहने पर ही Human And समाज का कल्याण संभव है।

सरलता And निर्धनता 

रवीन्द्रनाथ टैगोर के According सरल जीवन Creationत्मक जीवन होता है। किसी वस्तु का निर्माण कर के जो आनन्द प्राप्त होता है, उसे बिना परिश्रम किए प्राप्त कर लेने में नहीं। जीने की शैली ऐसी होनी चाहिए कि वह स्वंय में शिक्षा बन जाये। उनका यह मानना था कि वास्तविक शिक्षा समृद्धि And विलासिता के वातावरण में नहीं मिल सकती है, न ही इसे बिना कठिन परिश्रम के प्राप्त Reseller जा सकता है। सही शिक्षा स्वंय स्वीकृत निर्धनता से ही आती है।

‘मार्इ स्कूल’ (1916) में रवीन्द्रनाथ ने निर्धनता को ऐसी पाठशाला बताया जिसमें बच्चा जीवन का First पाठ पढ़ता है तथा सर्वोत्तम प्रशिक्षण पाता है। सम्पन्न व्यक्ति के बच्चों को भी निर्धनतम माता-पिता के बच्चों की तरह चलना सीखना होता है। निर्धनता हमें जीवन तथा संसार के सम्पूर्ण संपर्क मे लाता है। टैगोर अध्यापकों को दी जाने वाली अत्यंत ही अल्प सुविधाओं के संबंध में कहते है ‘‘मैं अपने विद्यालय के महान अध्यापकों को न्यूनतम सुविधायें ही प्रदान करता हूँ- इसलिए नही कि यह गरीबी है- वरन् इसलिए कि यह व्यक्ति को विश्व का बेहतर अनुभव प्रदान करता है।’’ इन्हीं आदर्शों को ध्यान में रखकर शान्तिनिकेतन का जीवन आरामदायक नहीं बनाया गया।

शिक्षा का माध्यम 

गुरूदेव ने शिक्षा के तीन महत्वपूर्ण माध्यम बताये। ये हैं: मातृभाषा, सृजन And प्रकृति।

मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा

गुरूदेव ने प्रारम्भ से ही यह महसूस Reseller कि अंग्रेजी भाषा के माध्यम से दी जाने वाली शिक्षा ने शिक्षित Indian Customerों और जनसामान्य के बीच की खार्इ गहरी कर दी है। साथ ही वे अंग्रेजों द्वारा भारत की परम्परागत शिक्षा को समाप्त करने की दुखद प्रक्रिया से परिचित थे। उनका मानना था कि जब Indian Customer मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा ग्रहण करते थे तो उनका मस्तिष्क चैतन्य And क्रियाशील रहता था। अत: उन्होंने मातृभाषा के बजाए माध्यम के Reseller में अंग्रेजी के प्रयोग की आलोचना की। कवि And अध्यापक रवीन्द्रनाथ भाव विह्वल होकर मातृभाषा का समर्थन करते है। वे लिखते है ‘‘शिक्षाय मातृभाषा मातश्दुग्ध।’’ शिक्षा में मातृभाषा माता के दुध के समान है । वे तो शिक्षा के उच्चतम चरण तक मातृभाषा लागू करने के पक्ष में थे। यहाँ तक कि वे मातृभाषा की माध्यम से ही अंग्रेजी पढ़ाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने Single प्राइमर ‘‘इंग्राजी सोपान’’ लिखा। उनके विचार में औपनिवेशिक शिक्षा प्रणाली गहन अंधेरे में से गुजरती ट्रेन के प्रकाशित डिब्बे के समान थी। कुछ विशेष लोग ही पढ़ पा रहे थे। और भारी संख्या में जनता पीछे छुटती जा रही थी । उनकी दृष्टि में जब तक मातृभाषा माध्यम न बने तब तक शिक्षा का प्रसार नही हो सकता।

गुरूदेव मानते थे कि सफल आत्म प्रकाशन केवल अपनी भाषा के माध्यम से ही हो सकती है। यह समाज के विकास And सुप्रबन्ध के लिए आवश्यक है। रवीन्द्रनाथ के According भारत को मातृभाषा को अपने पुनर्जागरण का प्रतीक बनाना चाहिए। मातृभाषा को उसका उचित स्थान देना, गुरूदेव की दृष्टि में अपने आत्मसम्मान And आत्मविश्वास को पुनस्र्थापित करना है।

सृजन: शिक्षा का श्रेष्ठ माध्यम 

Human के जीवन में पूर्णता की हेतु रवीन्द्रनाथ ने शिक्षा में Creationत्मक कार्यों पर अत्यधिक जोर दिया। व्यक्ति And प्रकृति के मध्य की Singleता को सुदृढ़ करने के अतिरिक्त कला, संगीत And साहित्य Human की असामाजिक व विध्वंSeven्मक प्रवृतियों को उचित दिशा प्रदान करती है। कला व्यक्ति की आन्तरिक शक्तियों का विकास कर उसे पूर्ति And परितोष का भाव प्रदान करता है। व्यिक्त्व के विकास में लय And लालित्य का गुरूदेव ने बड़ा ही महत्वपूर्ण स्थान माना। कला व्यक्ति को प्रकृति के समीप ले जाकर उसमें सौन्दर्यानुभूति बढ़ाती है। रवीन्द्रनाथ शरीर, मस्तिष्क तथा हृदय का समन्वित विकास चाहते थे। इसके लिए उन्होंने कला को शिक्षा का प्रभावशाली माध्यम माना। शिक्षा का Single उद्देश्य आत्म प्रकाशन है। आत्म प्रकाशन हेतु Wordों के अतिरिक्त रेखाओं And रंगो, ध्वनि And लय की भाषा को भी जानना जरूरी है।

गुरूदेव ने कला का फार्इन आटर््स (ललित कला) And अप्लायड आर्टस (प्रयुक्त कला) में विभाजन को गलत माना। वे बौद्धिक पक्ष को अधिक महत्व देने तथा संवेदनात्मक पक्ष की उपेक्षा के विरोधी थे। वे सृजनशील कलाकार को दार्शनिक की तुलना में कम महत्वपूर्ण माने जाने के विरोधी थे।

प्रकृति शिक्षा का प्रभावशाली माध्यम 

गुरूदेव के मन में प्रकृति के प्रति अगाध श्रद्धा थी। यह श्रद्धा उनके कवि या कलाकार हाने के नाते कम और Single संवेदनशील Human होने के नाते अधिक थी। Human के पास इस बात का विकल्प रहता है कि वह Earth पर Creationत्मक जीवन जिये या विध्वंSeven्मक। वह Single बेहतर जीवन शैली का विकास कर सकता है। जिसमें प्रकृति माता है और अन्य All जीवों के साथ समन्वय And सहानुभूति का व्यवहार करते हुए जीवन के श्रेष्ठ लक्ष्यों को प्राप्त कर सकता है। पर अगर वह अपने को प्रकृति का स्वामी मानता है और उसका शोषण करता है तो व्यक्ति और समाज दोनों के लिए विनाश का कारण बन सकता है। अत: वे चाहते थे कि Human प्रकृति के सौन्दर्य And दयालुता के प्रति चैतन्य रहे। इस कार्य के लिए प्रकृति के प्रति प्रेम और सम्मान शिक्षा का अनिवार्य हिस्सा होना चाहिए। शान्तिनिकेतन की स्थानीय नदी कोपार्इ, लाल बालू से ढ़की समतल भूमि तथा विस्तृत क्षितिज बच्चों के लिए आर्कषण का केन्द्र था। बच्चा वृक्षों, पशुओं, झाड़ियों के मध्य दौड़ना, खेलना, कूदना चाहता है। शहर के विद्यालयों की चाहरदीवारी के अन्दर उसे कैद रखना वस्तुत: उसे अशिक्षित बनाए रखना है। ऐसी शिक्षा गुरूदेव की दृष्टि में आत्मा या जीवन रहित होती है।

गुरूदेव की छात्र संकल्पना 

रवीन्द्रनाथ टैगोर शिशु को र्इश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति मानते हैं। उनके हृदय में बालक के प्रति अनंत प्रेम, प्रगाढ़ सहानुभूति तथा निश्छल करूणा सदैव प्रवाहित होती है। घर में बालक पर रखी जाने वाली कश्त्रिम नियंत्रण तथा विद्यालय के कठोर अनुशासन से उसकी आत्मा कराह उठती है। सामाजिक कश्त्रिमता बच्चे के प्रकृत गुणों को दबा देते है। टैगोर की दृष्टि में बालक की सच्ची शिक्षा उसके प्रकृत गुणों की रक्षा तथा उसके विकास में निहित है।

बाल्यकाल में विद्याथ्री को प्राकृतिक जीवन के समीप रहने का अवसर मिलना चाहिए। इससे उसका शारीरिक, मानसिक, भावात्मक And बौद्धिक विकास समन्वित और स्वस्थ ढ़ंग से हो पाता है। प्रकृति के रहस्यों को जानने के लिए उसके साथ समरस होना पड़ता है। कवि की दृष्टि में ‘‘चारों ओर फैली हुर्इ प्रकृति हमारी महान शिक्षिका है। वह हमारे जीवन को सौन्दर्य और आनन्द, समरसता और मधुर भावनाओं के साँचे में ढ़ालती है, इसके साथ ही हमें अपनी अन्तरात्मा के प्रति मनन करने की प्रेरणा देती है।’’ शान्तिनिकेतन में गुरूदेव ने प्रकृति के माध्यम से बच्चों को शिक्षा देने का प्रयोग Reseller। स्वंय उन्हीं के Wordों में ‘‘मेरे विद्यालय में विद्यार्थियों ने वृक्ष के Reseller विज्ञान का ज्ञान सहज रूचि से अर्जित Reseller है। नाममात्र के स्पर्श से वे पता लगा सकते हैं कि प्रत्यक्ष Reseller से आतिथ्य प्रकट करने वाले तने पर वे कहाँ पैर जमा सकते हैं… मेरे बच्चे फल Singleत्रित करने, विश्राम लेने तथा अवांछनीय तत्वों से स्वंय को छिपाने आदि के लिए वृक्षों का सर्वश्रेष्ठ सम्भव उपयोग करने में समर्थ है।’’

गुरूदेव की दृष्टि में अध्यापक 

गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर अध्यापक के Reseller में ऐसे व्यक्ति की कल्पना करते है जो छात्रों को उपदेश देने की जगह अपने व्यवहार And कार्य से उसे सद्मार्ग पर ले जाये। अध्यापक का अपना जीवन तथा सत्य खोज की लगन इस तरह होनी चाहिए कि छात्र सत्य And प्रकृति को सम्मान देने की भावना को आत्मSeven कर ले। यह तभी संभव है जब गुरू And शिष्य Single-Second के साथ रहें। उनके According अध्यापक का छात्र से सम्बन्ध केवल देने का नहीं है वरन् जीवन के सत्य को साथ-साथ अनुभव करने का है। गुरू And शिष्य का व्यक्तिगत घनिष्ठ सम्बन्ध शिक्षा देने का सर्वाधिक महत्वपूर्ण साधन है।

टैगोर यह मानते थे कि वही व्यक्ति बच्चों को सही ढ़ंग से शिक्षा दे सकता है जिसमें बालक की निश्छलता And मृदुलता बनी रहती है। वे लिखते हैं ‘‘जिस अध्यापक के अन्दर का बाल्य मन मर गया वह बच्चों की जिम्मेदारी लेने का अधिकारी नहीं है। अध्यापक के अन्दर का स्थायी बालक बच्चों की Single आवाज पर बाहर आ जाता है। इसकी Single ही आवाज में Single मृदुल, जीवित मुस्कुराहट आ जाती है। अगर बच्चा उसे अपनी ही तरह का Single सदस्य न मानकर प्रागैतिहासिक काल का अपरिचित विशाल जानवर मानता हो तो वह अपने कोमल हाथों को बिना भय के उसकी ओर नहीं बढ़ा पाएगा।’’ बच्चे सबसे अच्छी शिक्षा प्यार, विश्वास And प्रसन्नता के माहौल में ही प्राप्त कर सकते हैं।

रवीन्द्रनाथ इस बात को बर्दाश्त कर सकते थे कि ऊँची कक्षाओं में अच्छे अध्यापक न हों पर वे छोटे बच्चों के लिए सर्वाधिक अनुभवी And संवेदनशील अध्यापकों को ही रखते थे। रवीन्द्रनाथ अध्यापकों Single ही मंत्र दिया करते थे ‘‘कश्पया सिद्धान्तों की शिक्षा बच्चों को न दे, इसके बजाए अपने को पूर्णत: उनके अनुराग में समर्पित कर दे।’’

रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा स्थापित शैक्षिक संस्थायें 

रवीन्द्रनाथ टैगोर उन महान शिक्षाशास्त्रियों में से Single है जिन्होंने शिक्षा से सम्बन्धित केवल सिद्धान्त ही प्रतिपादित नही किए वरन् उन्हें व्यवहारिक Reseller भी देने का प्रयास Reseller। इस क्रम में गुरूदेव ने अनेक शैक्षिक संस्थाओं की स्थापना की, जो निम्नलिखित है-

शान्तिनिकेतन- 

1901 मे रवीन्द्रनाथ टैगोर ने ब्रह्मचर्य आश्रम की स्थापना बोलपुर के पास की। बाद में इसका नाम उन्होंने शान्तिनिकेतन रखा। यह Single दिलचस्प तथ्य है कि जिस समय ब्रह्मचर्य विद्यालय की स्थापना की गर्इ उस समय टैगोर नेवैद्य नामक कवितांए लिख रहे थे। जिस पर उपनिषद् के आर्दशों का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है। उसी समय ब्रह्मबांधव उपाध्याय ने टैगोर को ‘गुरूदेव’ कहा और वे अंत तक गुरूदेव बने रहे। टैगोर विद्यालयों के नियमों को संहिता पर आधारित करना चाहते थे ताकि Indian Customer परम्परा के According विद्यालय का संचालन Reseller जा सके।

प्रारंभ में शान्तिनिकेतन को रवीन्द्रनाथ टैगोर के दो पुत्रों रतिन्द्रनाथ तथा समिन्द्रनाथ के साथ प्रारंभ Reseller गया। बाद में छात्रों तथा अध्यापकों की संख्या बढ़ती गर्इ। 1913 तक गुरूदेव ने स्वंय ही इस संस्था का व्यय वहन Reseller। 1913 में नोबेल पुरस्कार मिलने के उपरांत आर्थिक संकट कम हुआ। अमेरिका, यूरोप, चीन, जापान आदि देशों के भ्रमण करने से गुरूदेव के शैक्षिक विचारों में परिपक्वता आर्इ। शान्तिनिकेतन विश्वभर की संस्कृतियों का मिलन स्थल बन गया जहाँ कोर्इ भी बिना धर्म, देश या संस्कृति के भेदभाव के सम्मानपूर्वक शिक्षा ग्रहण कर सकता था।

टैगोर शान्तिनिकेतन से कुछ हद तक निराश हुए। उन्हें लगा कि उसमें उनके विचारो पर अमल नहीं Reseller जा रहा है। वे कहते हैं ‘‘अभिभावकों की अवसरवादिता परीक्षा प्रणाली लागू करने के लिए जिम्मेवार है। इसने Single प्रकार से आजादी और स्वत: स्फूर्तता का वातावरण कमजोर Reseller।’’

शिक्षा सत्र- 

अपना प्रयोग जारी रखने के लिए टैगोर ने 1924 में ‘शिक्षा सत्र‘ के नाम से Single और स्कूल प्रारम्भ Reseller। इसमें ऐसे बच्चे शामिल किए गये जो अनाथ थे या जिनके माता-पिता इतने गरीब थे कि वे उन्हें किसी भी स्कूल में नही भेज सकते थे। उन्हें इस स्कूल से बड़ी आशाएं थी। वस्तुत: उन्हें उम्मीद थी कि शान्तिनिकेतन की कमियां इस विद्यालय में नही आयेंगी और यह विद्यालय उनके विचारों का सही Meansों मे मूर्तReseller होगा। लेकिन ‘शिक्षा सत्र‘ के महत्वपूर्ण शैक्षिक प्रयोगों को टैगोर के उपरांत विस्मश्त कर दिया गया और वह Single सामान्य विद्यालय बन गया।

श्रीनिकेतन- 

गुरूदेव Indian Customer ग्राम्य जीवन को पुन: उसकी गौरवशाली परम्पराओं के आधार पर पुनर्जीवित करना चाहते थे। 1905 में उन्होंने ‘स्वदेश समाज’ नामक निबन्ध में कृषि, शिल्प, ग्रामोद्योग को पुन: विकसित करने पर जोर दिया। इन्हीं सपनों को वास्तविक Reseller देने के लिए शान्तिनिकेतन के Single मील की दूरी पर, ‘सुरूल’ नामक स्थान में ग्रामीण पुनर्Creation के लिए उन्होंने श्रीनिकेतन की स्थापना की।

यह Single दिलचस्प तथ्य है कि 1920 के दशक के मध्य उन्होंने दो प्रसिद्ध नाटक उस समय लिखे जब श्रीनिकेतन का प्रयोग चल रहा था। ये थे 1922 में लिखी गर्इ मुक्तोधारा और 1924 में लिखी गर्इ रक्तकरबी। दोनों में ही मशीनी सभ्यता के प्रति विरोध का भाव है। वे प्रकृति पर मशीनी टेक्नोलॉजी के प्रभुत्व से चितिंत थे। तकनीकी प्रभुत्व वाले समाज के शोषण के चरित्र के प्रति तिरस्कार की भावना स्पष्ट है। श्रीनिकेतन का प्रयोग आरम्भ करने के लिए उन्हें विदेश से एमहस्र्ट द्वारा लार्इ गर्इ वित्तीय सहायता पर निर्भर होना पड़ा था। श्रीनिकेतन प्रयोग के दौरान ग्रामीण समाज की विशेष जरूरत के आधार पर विकसित आत्म सहायता और सहयोग के जरिए सामुदायिक विकास पर ध्यान दिया गया।

विश्वभारती – 

1921 के अंत में शान्तिनिकेतन का विस्तार ‘विश्वभारती’ विश्वविद्यालय के Reseller में Reseller गया। यह विश्वविद्यालय अपने आदर्श वाक्य ‘यत्र विश्वम् भवेत्य नीड़म्’ को साकार करता है। सच ही यहाँ सम्पूर्ण वसुधा ‘विश्वभारती’ नामक घोसले में समा जाती है। यह Single ऐसी संस्था है जहाँ पूर्व की All संस्कृतियों का मिलन होता है, जहाँ दर्शन और कला की हर परम्परा Single Second से सम्बन्ध बनाती है, जहाँ पूर्व और पश्चिम के दार्शनिक, साहित्यकार And कलाकार अपनत्व महसूस करते है।

विश्वभारती Single आवासीय विश्वविद्यालय है जहाँ सह-शिक्षा की व्यवस्था है। राष्ट्रीयता, धर्म, जाति, भाषा के आधार पर विद्यार्थियों And अध्यापकों में कोर्इ भेदभाव नहीं है। All र्इश्वर की उत्कश्“ट Creation Human के Reseller में सम्मान के साथ अध्ययन करते हैं। सन् 1951 में Indian Customer संसद मे ‘विश्वभारती’ को केन्द्रीय विश्वविद्यालय के Reseller में मान्यता दी। इससे आर्थिक सुदृढ़ता तो आयी पर अन्य सरकार पर आधारित अन्य विश्वविद्यालयों की तरह इसमें भी नवीनता And सृजनात्मकता पर जोर क्रमश: कम होने लगा।

विश्वभारती में अनेक विभाग है, जिन्हें ‘भवन’ कहा जाता है। ये भवन निम्नलिखित है-

  1. पाठ भवन- यह उच्च विद्यालय स्तर तक की शिक्षा बंगला भाषा में प्रदान करता है। 
  2. शिक्षा भवन- इसमें इण्टर तक की शिक्षा दी जाती है। बंगला, अंग्रेजी, हिन्दी, संस्कृत, तर्कशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, History, Meansशास्त्र, गणित, भूगोल, विज्ञान आदि विषयों की शिक्षा की व्यवस्था है। 
  3. विद्या भवन- इसमें स्नातक स्तर का तीन वर्षीय पाठ्यक्रम, दो वर्षों का एम0ए0 तथा एम0एस-सी0 का पाठ्यक्रम और पी-एच0डी0 की व्यवस्था है। 
  4. विनय भवन- यह अध्यापक शिक्षा विभाग है। जिसमें बी0एड्0, एम0एड0 And शिक्षाशास्त्र में पी-एच0डी0 की व्यवस्था है। 
  5.  कला भवन- कला तथा शिल्प में दो वर्ष का पाठ्यक्रम हार्इस्कूल के उपरांत चार वर्षीय डिप्लोमा तथा स्त्रियों के लिए दो वर्ष का सर्टिफिकेट कोर्स कला भवन में उपलब्ध है। इस भवन में अपना पुस्तकालय And संग्रहालय है। 
  6.  संगीत विभाग- इसमें संगीत और नृत्य से सम्बन्धित विभिन्न तरह के पाठ्यक्रम संचालित किए जाते है। 
  7. चीन भवन- इसमें चीनी भाषा और संस्कृति, History के बारे में शिक्षा दी जाती है। 
  8.  हिन्दी भवन- इस भवन में हिन्दी भाषा And साहित्य की उच्च स्तरीय शिक्षा की व्यवस्था है। 
  9. इस्लाम अनुसंधान विभाग- इसमें इस्लाम धर्म के अध्ययन और अनुसंधान का प्रबन्ध Reseller गया है। 

इस प्रकार विश्वभारती में विद्यालय स्तर से लेकर उच्च स्तर के शिक्षा की समुचित व्यवस्था है।

महात्मा गाँधी ने गुरूदेव द्वारा स्थापित संस्थाओं के बारे में कहा ‘‘गुरूदेव की शक्ति नर्इ चीजों के निर्माण में थी। उन्होंने शान्तिनिकेतन, श्रीनिकेतन, विश्वभारती जैसी संस्थाओं की स्थापना की। इन संस्थाओं में गुरूदेव की आत्मा निवास करती है। ये संस्थायें केवल बंगाल की ही नहीं वरन् पूरे भारत की धरोहर हैं।’’

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