रक्त परिसंचरण तंत्र क्या है ?

रक्त परिसंचरण तंत्र शरीर के भीतर जो Single लाल रंग का द्रव-पदार्थ भरा हुआ है, उसी को रक्त (Blood) कहते हैं। रक्त का Single नाम रुधिर भी है रुधिर को जीवन का रस भी कहा जा सकता है। यह संपूर्ण शरीर में निरन्तर भ्रमण करता तथा अंग-प्रत्यंग को पुष्टि प्रदान करता रहता है। जब तक शरीर में इसका संचरण रहता है तभी तक प्राणी जीवित रहता है। इसका संचरण बन्द होते ही व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है। अब प्रश्न उठता है कि रुधिर की उत्पत्ति कैसे होती है। पाठको रुधिर की उत्पत्ति भू्रण की मीसोडर्म से होती है। रुधिर मूल Reseller से Single तरल संयोजी ऊतक (Fluid Connective Tissue) होता है।

सामान्यत: मनुष्य शरीर में रक्त की मात्रा 5-6 लीटर होती है। Single अन्य मत के According मनुष्य के शारीरिक भार का 20वाँ भाग रक्त होता है। रक्त पूरे शरीर में दौड़ता रहता है। परिसंचरण तंत्र में मुख्य Reseller से हृदय, फेफड़े, धमनी व शिरा महत्वापूर्ण भूमिका निभाती है। हमारा हृदय Single पम्पिंग मशीन की तरह कार्य करता है जो अनवरत अशुद्ध रक्तम को फेफड़ों में शुद्ध करने तथा फिर शुद्ध रक्त को पूरे शरीर में भेजता रहता है।

रक्त के अवयव 

रक्त (रूधिर) Single तरल संयोजी ऊतक (Fluid Connective Tissue) होता है। इसका Ph -7-3 से 7.5 के बीच होता है। रक्त का आपेक्षिक गुरूत्व 1.065 होता है। मनुष्य शरीर के भीतर इसका तापमान 100 डिग्री फा.हा. रहता है, परन्तु रोग की हालत में इसका तापमान कम अथवा अधिक भी हो सकता है। इसका स्वाद कुछ ‘नमकीन’ सा होता है। इसका कुछ अंश तरल तथा कुछ गाढ़ा होता है। रक्त में निम्नलिखित पदार्थों का मिश्रण पाया जाता है। 1. प्लाज्मा (Plasma) 2. रक्त कणिकायें (Blood Corpuscles) इनके विषय में विस्तारपूर्वक description निम्नानुसार है-

1. प्लाज्मा – 

यह रक्त का तरल अंश है। इसे रक्त -वारि’ भी कहते हैं। यह हल्के पीले रंग की क्षारीय वस्तु है। इसका आपेक्षिक घनत्व 1.026 से 1.029 तक होता है। 100 सी.सी. प्लाज्मा में निम्नलिखित वस्तुएँ अपने नाम के आगे लिखे प्रतिशत में पायी जाती हैं-
 (1) पानी: 90%
 (2) प्रोटीन: 7%
 (3) फाइब्रीनोजिन: 4%
 (4) एल्फा ग्लोब्युलिन: 0-46%
 (5) बीटा ग्लोब्युलिन: 0-86%
 (6) गामा ग्लोब्युलिन: 0-75%
 (7) एलब्युमिन: 4-00%
 (8) रस: 1-4%
 (9) लवण: 0-6%

‘प्लाज्मा’ रक्त कणिकाओं को बहाकर इधर-उधर ले जाने का कार्य करता है तथा उन्हें Destroy होने से बचाता है। यह रक्त को हानिकर प्रतिक्रियाओं से बचाता है, विशेष कर इसके ‘एल्फा ग्लोब्युलिन’ सहायक वस्तुओं को उत्पन्न करके रक्त को बाह्य-जीवाणुओं से बचाते हैं। किसी संक्रामक रोग के उत्पन्न होने पर रक्त में इनकी संख्या स्वत: ही बढ़ जाती है। इसका ‘फाइब्रोनोजिन’ रक्तस्राव के समय रक्त को जमाने का कार्य करता है, जिसके कारण उसका बहना रूक जाता है। प्रदाह तथा रक्तस्राव के समय यह Single स्थान पर Singleत्र हो जाता है। प्लाज्मा’ के कार्बनिक पदार्थ जो इसके घटक (Constituents) भी होते है जो इस प्रकार है।

  1. प्लाज्मा- प्रोटीन (Plasma Proteins) प्लाज्मा प्रोटीन की मात्रा लगभग 300 से 350 ग्राम होती है। जिसमें  प्रोटीन प्रमुख है। 
    1. एल्बूमिन (Albumin) 
    2. ग्लोूब्यूरमिन (Globulins) 
    3. प्रोथ्राम्बिन (Prothrombin) 
    4. पाइब्रिनोजन (Fibrinogen) 
  2. उत्सर्जी पदार्थ – Human शरीर कोशिकाओं से मिलकर बना होता है। कोशाओं से निकाली गर्इ अमोनिया तथा यकृत कोशाओं से मुक्त किये यूरिया, यूरिक अम्ल,क्रिटीन,क्रिटिनीन आदि होते है जिसे रक्त से किडनी ग्रहण करती है तथा इनका निष्काशन होता है। 
  3. पचे हुए पोषक पदाथ– इसमें ग्लूकोज,बसा, बसीय अम्ल, ग्लिसरॉल,अमीनों अम्ल,विटामिन,कोलेस्टाइल आदि होते है जिसे शरीर की सारी कोशायें Needनुसार रक्त से लेती रहती रहती है। 
  4. हारमोंन्स- ये अन्तरूसावी ग्रन्थियों से सीधे रक्त में सीधे साव्रित होतें है। शरीर की कोशिकाये इन्हे रक्त से ग्रहण करती है।
  5. गैसे- प्लाज्मा में जल लगभग 0.25उस आक्सीाजन व.5उस नाइटोजन व.5 तथा कार्बन आदि गैसे घुली रहती है। 
  6. Saftyत्मक पदार्थ– प्लाज्मो में कुछ Saftyत्मक पदार्थ (प्रतिरक्षी पदार्थ ) होते है। जैसे लाइसोजाइम, प्रोपरडिन, जो जीवाणुओं तथा विषाणुओं को Destroy करने में सहायक है।
  7. प्रतिजामन– प्लाज्मा में हिपेरिन नामक संयुक्त पालीसैकराइड मुक्त करती है जिस कारण रक्त को जमने से रोका जा सकता है। 

2. रक्त -कणिकाएँ – 

ये तीन प्रकार की होती हैं-

  1. लाल रक्त कण(Red Blood Corpuscles) 
  2.  श्वेवत रक्त कण (White Blood Corpuscles) 
  3. प्लेटलेट्स (Platelets) 
  4. स्पिन्डटल कोशिकाये (Spindle Cell) 

इनके विषय में अधिक जानकारी इस प्रकार है-

1. लाल रक्त कण- लाल रक्त कणो को (Erythrocytes) कहा जाता है। रूधिर में 99% RBCs होते है। ये आकार में गोल, मध्य में मोटे तथा चारों किनारों पर पतले होते हैं। इनका व्यास 1/3000 इंच होता है। इनका व्यास-आवरण रंगहीन होता है, परन्तु इनकी भीतर Single प्रकार का तरल द्रव भरा होता है, जिसे ‘हीमोग्लोबिन’ (Haemoglobin) कहते हैं। हीम (Heam) Meansात् लोहा तथा ‘ग्लोबिन’ (Globin) Meansात् Single प्रकार की प्रोटीन। इन दोनों से मिलकर ‘हीमोग्लोबिन’ Word बना है। ये रक्तकण, जिन्हें रक्त -कोषा (Blood Cell) कहना अधिक उपयुक्त रहेगा, लचीले होते हैं तथा Needनुसार अपने स्वReseller को परिवर्तित करते रहते हैं। ‘हीमोग्लोबिन’ की उपस्थिति के कारण ही इन रक्त कणों का रंग लाल प्रतीत होता है। हीमोग्लोबिन की सहायता से ये रक्त -फेफड़ों से अॉक्सीजन (Oxygen) Meansात् प्राण वायु प्राप्तं करके उसे शुद्ध रक्त के Reseller में सम्पूर्ण शरीर में वितरित करते रहते हैं, जिसके कारण शरीर को कार्य करने की शक्ति प्राप्त होती है। अॉक्सीजन युक्त हीमोग्लोबिन को (oxi Haemoglobin) अॉक्सी हीमोग्लोबीन कहा जाता है। हीमोग्लोबीन के हीम अणुओ के लौह (Iron) में आक्सीजन के साथ Single ढीला और सुगमतापूर्वक खुला हो जाने वाला Meansात प्रतिवर्ती वॅान्डस (Reversible Bond) बना लेने की Single विशेष क्षमता होती है। अत फेफड़ों में आक्सीजन ग्रहण कर RBCs रूधिराणु इसका सारे शरीर में संवहन करते है और ऊतक द्रव्य के माध्यण्म से कोशाओं तक पहॅुचाते है इसलिए त्ठब्े को आक्सीजन का वाहक कहा जाता है। हीमोग्लोबीन के प्रत्येक अणु में ग्लोबीन की चार कुण्डलित पालीपेप्टाइड श्रखलायें तथा हीम के चार अणु होते है। 

 4 Molecules of Globin + 4 Molecules of Heam —→ Haemglobin (Hbu)

2. श्वेवत रक्त कण- श्वेवत रक्त अणुओं (Leucocytes) भी कहते है।ये रक्त कण प्रोटोप्लाज्म द्वारा वाहक निर्मित हैं। इनका कोर्इ निश्चित आकार नहीं होता है। Needनुसार इनके आकार में परिवर्तन भी होता रहता है। इनका कोर्इ रंग नहीं होता Meansात् ये सफेद रंग के होते हैं। लाल रक्त -कणों की तुलना में, शरीर में इनकी संख्या कम होती है। इनका अनुपात प्राय: 1:500 का होता है। Single स्वस्थ मनुष्य के रक्त की 1 बूँद में इनकी संख्या 5000 से 8000 तक पार्इ जाती है। इनका निर्माण अस्थि मज्जा (Bone Marrow), लसिका ग्रंथियाँ (Lymph Glands) तथा प्लीहा (Spleen) आदि अंगों में होता है। रक्त के प्रत्येक सहस्रांश मीटर में जहाँ रक्त कणों की संख्या 500000 होती है वहाँ श्वेवत कणों की संख्या 6000 ही मिलती है। इनकी लम्बार्इ लगभग 1/2000 इंच होती है तथा सूक्ष्मदशÊ यंत्र की सहायता के बिना इन्हें भी नहीं देखा जा सकता। इनका आकार थोड़ी-थोड़ी देर में बदलता रहता है। साथ ही दिन में कर्इ बार इनकी संख्या में घट-बढ़ भी होती रहती है। प्रात: काल सोकर उठने से पूर्व इनकी संख्या 6000 घन मि.मी. होती है। इन श्वेवतकणों का कार्य शरीर की रक्षा करना है। बाहरी वातावरण से शरीर में प्रविष्ट होने वाले विकारों तथा विकारी-जीवाणुओं के आक्रमण के विरूद्ध ये रक्षात्मक ढंग से Fight करते हैं और उनके चारों ओर घेरा डालकर, उन्हें Destroy कर डालते हैं। इसी कारण इन्हें शरीर-रक्षक (Body Guards) भी कहा जाता है। यदि दुर्भाग्यवश कभी इनकी पराजय हो जाती है तो शारीरिक-स्वास्थ्य Destroy हो जाता है और शरीर बीमारी का शिकार बन जाता है। परन्तु उस स्थिति में भी ये शरीर के भीतर प्रविष्ट होने वाली बीमारी के जीवाणुओं से Fight करते ही रहते हैं तथा अवसर पाकर उन्हें Destroy कर देते हैं तथा पुन: स्वास्थ्य-लाभ कराते हैं। यदि रक्त में इन श्वेवतकणों का प्रभाव पूर्णत: Destroy हो जाता है तो शरीर की मृत्यु हो जाती है।
काम करते समय, भोजन के पश्चात गर्भावस्था में And एड्रीनलीन (Adrenaline) के इंजेक्शन के बाद शरीर में इन श्वेवतताणुओं की संख्या बढ़ जाती है। संक्रामक रोगों के आक्रमण के समय इनकी संख्या में अत्यधिक वृद्धि होती रहती है। न्यूमोनिया होने पर इनकी संख्या डîौढ़ी वृद्धि तक होती हुर्इ पार्इ गयी है। परन्तु इन्फ्रलुऐंजा में इनकी संख्या कम हो जाती है। रक्त में श्वेवतकणों की संख्या में वृद्धि को श्वेवतकण बहुलता (Leucocytosis) तथा हृास को श्वेवतकण अल्पता (Leucopening) कहा जाता है। संक्रामक रोगों के आक्रमण के समय ये श्वेवतकण विशैले जीवाणुओं से लड़ने के लिए कोशिकाओं की दीवार से भी पार निकलकर बाहर चले जाते हैं, जबकि उस समय लाल रक्तकण नलिकाओं तथा कोशिकाओं में ही बने रहते हैं। इन श्वेवतकणों के निम्नलिखित भेद माने जाते हैं- 

  1. कणिकामय श्वेवतरूघिराणु या ग्रैन्यूजलोसाइटस (Granulocytes) 
  2. कणिकाविहीन श्वेवतरूघिराणु या अग्रैन्यू्लोसाइटस (Aranulocytes) 
    1. कणिकामय श्वेवतरूघिराणु (Granulocytes)- ये लगभग 10 से 15 तक व्यास के गोल से सक्रिय Reseller से अमीबॉएड Meansात विचरणशील होते है। इनके कोशाद्रव्य में अनेंकों कणिकायें होती है। ये तीन प्रकार के होते है। 
      1. ऐसिडोफिल्सक या इओसिनोफिल्सय (Acidophils or Eosinophils)-ये W-B-C- में 1 से 4 % तक होते है तथा ये शरीर में प्रतिरक्षण, ऐलजÊ And अतिसंवेदनशीलता का कार्य करते है।
      2. बेसोफिल्सं (Basophils)-ये W-B-C- की कुल संख्या का 0-5 से 2 तक होते है। इनकी कणिकायें मास्ट कोशिकाओं द्वारा स्रावित हिपैरिन, हिस्टेसिन And सिरोटोनिन का वहन करती है। 
      3. हिटरोफिल्स या न्यूैटरोफिल्स ( Heterophils or Neutrophils)- W-B-C में इनकी संख्या सबसे अधिक 60 %से 70% तक होती है। 
  3. कणिकाविहीन श्वेवतरूघिराणु कोशाद्रब्य. में कणिकायें हल्की नीली रंग की संख्या में कम होती है। इन्हे Amononuclear रूधिराणु भी कहते है। ये दो प्रकार की होती है। 
    1. लिम्फोसाइटस (Lymphocytes) ये छोटे 6 से 16 व्यास के होते है। ये W-B-C की संख्या का 20: से 40: होते है। इनका केन्द्रक बडा या पिचका होता है। इनमें भ्रमण की क्षमता कम होती है। इनका कार्य शरीर की प्रतिरक्षी प्रतिक्रियाओं के लिए आवश्यक प्रतिरक्षी प्रोटीन्स बनाना होता है। इसकी खोज नोबल पुरस्कार प्राप्त एमिल बॉन बेहरिग ने 1891 में की थी।
    2. मोनोसाइटस (Monocytes) ये संख्या में कम W-B-C की कुल संख्या का 5: होते है। इनका व्यास 12 से 22 तक होता है। ये सक्रिय भ्रमण And भक्षण करते है। 
  4. प्लेटलेट्स :- प्लेटलेट्स को (Thrombcytes) थ्रोम्बोसाइट या बिम्बाणु भी कहा जाता है । इनकी उत्पत्ति अस्थि-रक्त मज्जा (Red Bone Marrow) में लोहित कोशिकाओं (MEGAKARYOCYTES) द्वारा होती है। इनका लगभग 2.5 (E;w) होता है। इनकी संख्या लगभग 250,000 (150,000 से 350000) तक होती है। इनकी लगभग 1/10 संख्या प्रतिदिन बदलती रहती है और रक्त में नवीन आती रहती है इनके प्रमुख कार्य है। 
    1. रक्त कोशिकाओं के endothelium की क्षति की क्षतिपूर्ति। 
    2. अवखण्डित होने पर हिस्टीमीन की उत्पत्ति करना। 
    3. रक्त वाहिकाओं के अन्त स्तर में अथवा ऊतकों में क्षति हो जाने पर, यदि रक्तस्राव की सम्भावना हो या स्राव हो रहा हो तो प्लेटलेट्स रक्त स्कन्दन की क्रिया प्रारम्भ हो जाती है। 
    4. स्पिन्डल कोशिकाये (Spindle Cell) ये स्तनियो के अतिरिक्त अन्य All कशेरूकियों में प्लेटलेटस के स्थान पर पायी जाती है। Human शरीर में ये नही पायी जाती है पर इनका वही कार्य है जो कार्य प्लेटलेटस का होता है।

रक्त के कार्य 

  1. आहार- नलिका से भोजन तत्वों को शोषित कर, उन्हें शरीर के सब अंगों में पहुँचाना इस प्रकार उनकी भोजन संबंधी Need की पूर्ति करना। 
  2. फेफड़ों की वायु से अॉक्सीजन लेकर, उसे शरीर के प्रत्येक भाग में पहुँचाना और अॉक्सीकृत किये हुए अंग ही शरीर को शक्ति प्रदान करते हैं। 
  3. शरीर के प्रत्येक भाग से कार्बन डार्इ अॉक्साइड, यूरिया, यूरिक एसिड तथा गन्दा पानी आदि दूषित पदार्थों को अपने साथ लेकर उन अंगों तक पहुँचाना, जो इन दूषित पदार्थों को निकालने का कार्य करते हैं।
  4. शरीरस्थ नि:स्रोत ग्रंथियों द्वारा होने वाले अन्त:स्रावों और अॉक्सीकृत किये हुए अंग ही शरीर को शक्ति प्रदान करते हैं। 
  5. शरीरस्थ नि:स्रोत ग्रंथियों द्वारा होने वाले अन्त:स्रावों (Horomones) को अपने साथ लेकर शरीर से विभिन्न भागों में पहुँचाना। 
  6. संपूर्ण शरीर के तापमान को सम बनाये रखना।
  7. बाह्य जीवाणुओं के आक्रमण से शरीर के स्वास्थ्य को Windows Hosting रखने हेतु “वेत कणिकाओं को शरीर के विभिन्न भागों में पहुँचाते रहना। 
  8. रक्त टूटी – फूटी तथा मृत कोशिकाओं को यकृत और प्लीेहा में पहुँचाता है, जहॉं वे Destroy हो जाती है।
  9. रक्त अपने आयतन में परिवर्तन लाकर ब्लैडप्रेशर पर नियन्त्रण रखता है। 
  10. रक्त जल – संवहन के द्वारा शरीर के ऊतकों को सूखने से बचाता है और उन्हे नम And मुलायम रखता है।
  11. रक्त शरीर के अंगों की कोशिकाओं की मरम्मत करता है तथा कोशिकाओं के Destroy हो जाने पर उसका नव-निर्माण भी करता है। 
  12. रक्त शरीर के विभिन्न भागों से व्यर्थ पदार्थो को उत्सर्जन – अंगों तक ले जाकर उनका निष्कासन करवाता है। 

रक्त संचरण में सहायक प्रमुख अवयव 

• हृदय (Heart) • धमनिया (Arteties) • शिराऐं (Veins) • कोशिकाऐं तथा लसिकाऐं (Capillaries, Lymphatics) • फेफड़े (Lungs) • महाधमनी तथा महाशिरा इन सबके विषय में विस्तारपूर्वक वर्णन निम्नानुसार है-

1. हृदय – 

रक्त संचरण क्रिया का यह सबसे मुख्य अंग है। यह नाशपाती के आकार का मांसपेशियों की Single थैली जैसा होता है। हाथ की मुट्ठी बाँधने पर जितनी बड़ी होती है, इसका आकार उतना ही बड़ा होता है। इसका निर्माण धारीदार (Striped) And अनैच्छिक मांसपेशी ऊतकों (Involuntary Muscles) द्वारा होता है। वक्षोस्थि से कुछ पीछे की ओर तथा बायें हटकर दोनों फेफड़ों के बीच इसकी स्थिति है। यह पांचवी, छठी, Sevenवी, तथा आठवीं पृष्ठ देशीय-कशेरूका के पीछे रहता है। इसका शिरोभाग बायें क्षेपक कोष्ठ से बनता है। निम्न भाग की अपेक्षा इसका ऊपरी भाग कुछ अधिक चौड़ा होता है। इस पर Single झिल्लीमय आवरण चढ़ा रहता है। जिसे ‘हृदयावरण’ (Pericaerdium) कहते हैं। इस झिल्ली से Single प्रकार का रस निकलता है, जिसके कारण हृत्पिण्ड का उपरी भाग आर्द्र (तरल) बना रहता है। हृत्पिण्ड का भीतरी भाग खोखला रहता है। यह भाग Single सूक्ष्म मांसपेशी की झिल्ली से ढ़का तथा चार भागों में विभक्त रहता है। इस भाग में क्रमश: ऊपर-नीचे तथा दायें-बायें 4 प्रकोष्ठ (Chamber) रहते हैं। ऊपर के दायें-बायें हृदकोषों को ‘उध्र्व हृदकोष्ठ’ अथवा ‘ग्राहक-कोष्ठ’ (Auricle) कहा जाता है तथा नीचे के दायें-बायें दोनों हृदकोष्ठों को ‘क्षेपक कोष्ठ’ (Ventricle) कहते हैं। इस प्रकार हृत्पिण्ड दोनों ओर दायें तथा बायें ग्राहक कोष्ठ तथा क्षेपक कोष्ठों को अलग करने वाली पेशी से बना हुआ है। ग्राहक कोष्ठ से क्षेपक कोष्ठ में रक्त आने के लिए हर ओर Single-Single छेद रहता है तथा इन छेदों में Single-Single कपाट (Valve) रहता है। ये कपाट Single ही ओर इस प्रकार से खुलते हैं कि ग्राहक कोष्ठ से रक्त क्षेपक कोष्ठ में ही आ सकता है, परन्तु उसमें लौटकर जा नहीं सकता, क्योंकि उस समय यह कपाट अपने आप बन्द हो जाता है। दायीं ओर के द्वार में तीन कपाट है। अत: इसे ‘त्रिकपाट’ कहते हैं। बायीं ओर के द्वार में केवल दो ही कपाट हैं, अत: इसे ‘द्विकपाट’ कहा जाता है।

इसके ग्राहक कोष्ठों का काम ‘रक्त को ग्रहण करना’ तथा क्षेपक कोष्ठों का काम ‘रक्त को निकालना’ है। दायीं ओर हमेशा अशुद्ध रक्त तथा बायीं ओर शुद्ध रक्त भरा रहता है। इन दोनों कोष्ठों का आपस में कोर्इ संबंध नहीं होता।

हृदय को शरीर का ‘पम्पिंग स्टेशन’ कहा जा सकता है। हृदय की मांसपेशियों द्वारा ही रक्त संचार की शुरूआत होती है। हृदय के संकोच के कारण ही उसके भीतर भरा हुआ रक्त महाधमनी तथा अन्य धमनियों में होकर शरीर के अंग-प्रत्यंग तथा उनकी कोषाओं (Cell) में पहुँचकर, उन्हें पुष्टि प्रदान करता है तथा उनके भीतर स्थित विकारों को अपने साथ लाकर, उत्सर्जन अंगों को सौंप देता है, ताकि वे शरीर से बाहर निकल जायें।शरीर में रक्त -संचरण धमनी, शिराओं तथा कोशिकाओं द्वारा होता रहता है। ये All शुद्ध रक्त को हृदय से ले जाकर शरीर के विभिन्न भागों में पहुँचाती हैं तथा वहाँ से विकार मिश्रित अशुद्ध रक्त को लाकर हृदय को देती रहती हैं। शुद्ध रक्त का रंग चमकदार लाल होता है तथा अशुद्ध रक्त बैंगनी रंग का होता है। हृदय से निकलकर शुद्ध रक्त जिन नलिकाओं द्वारा शरीर के विभिन्न भागों में जाता है उन्हें क्रमश: धमनी (Artery) तथा केशिकाऐं (Capillaries) कहते हैं तथा अशुद्ध रक्त लौटता हुआ जिन नलिकाओं में होकर हृदय में पहुँचता है, उन्हें ‘शिरा’ (Veins) कहते हैं।

शिराओं द्वारा लाए गए अशुद्ध रक्त को हृदय शुद्ध होने के लिए फेफड़ों में भेज देता है। वहाँ पर अशुद्ध रक्त बैंगनी रंग का अपने विकारों की फेफड़ों से बाहर जाने वाली हवा (नि:Üवास) के साथ मिलकर, मुँह अथवा नाक के मार्ग से बाह्य-वातावरण में भेज देता है तथा “वास के साथ भीतर आर्इ हुर्इ शुद्ध वायु से मिलकर पुन: हृदय में लौट आता है और वहाँ से फिर सम्पूर्ण शरीर में चक्कर लगाने के लिए भेज दिया जाता है। इस क्रम की निरंतर पुनरावृत्ति होती रहती है इसी को ‘ रक्त परिभ्रमण क्रिया’ (Blood Circulation) कहा जाता है।

2. धमनियाँ (Arteries)- 

इनमें शुद्ध रक्त बहता है। ये रक्त नलिकाऐं लम्बी मांसपेशियों द्वारा निर्मित होती हैं। ये हृदय से आरम्भ होकर कोशिकाओं में समाप्त होती हैं। इनका संचालन अनैच्छिक मांसपेशियों द्वारा होता है। ये Needनुसार फैलती तथा सिकुड़ती रहती हैं। इनके संकुचन से रक्त-परिभ्रमण में सरलता आती है। ‘पल्मोनरी धमनी’ तथा ‘ रक्त धमनी’ के अतिरिक्त शेष All धमनियाँ ‘शुद्ध रक्त का वहन करती हैं। इनकी दीवारें मोटी तथा लचीली होती हैं। छोटी धमनियों को ‘धमनिका’ कहते हैं।

3. शिराऐं (Veins)- 

इनमें अशुद्ध रक्त बहता है। ये नलिकाऐं पतली होती हैं। इनकी दीवारें पतली तथा कमजोर होती हैं, जो झिल्ली की बनी होती हैं। इनकी दीवारों में स्थान-स्थान पर प्यालियों जैसे चन्द्र कपाट बने रहते हैं। इनकी सहायता से रक्त उछलकर नीचे से ऊपर की ओर जाता है। इन पर मांस का आवरण नहीं रहता। अत: ये कट भी जाती हैं। जब ये ऊतकों में पहुँचती हैं, तब बहुत महीन हो जाती हैं तथा इनकी दीवारें भी पतली पड़ जाती हैं। ‘फुफ्फुसी शिरा’ And ‘वृक्क शिरा’ के अतिरिक्त अन्य All धमनियों में अशुद्ध रक्त बहता है। ये सब अशुद्ध रक्त को हृदय में पहुँचाने का कार्य करती हैं।

4. केशिकाऐं तथा लसिकाऐं (Capillaries)- 

अत्यन्त महीन शिराओं को, जो Single कोशिका वाली दीवार में भी प्रविष्ट हो जाये, कोशिका कहा जाता है। इन्हें धमनियों की क्षुद्र शाखाऐं भी कहा जा सकता है। ये शरीर के प्रत्येक कोष में शुद्ध रक्त पहुँचाती हैं तथा वहाँ से अशुद्ध रक्त को Singleत्र कर शिराओं के द्वारा हृदय में पहुँचा देती हैं। जब रक्त कोशिकाओं में बहता है, तो उनकी पतली दीवारों से उसका कुछ लाल भाग होता है। इस तरल पदार्थ को ही ‘लसिका’ कहते हैं। इसमें शक्कर, प्रोटीन, लवण आदि पदार्थ पाये जाते हैं। शरीर की कोशाए ‘लसिका’ में भीगी रहती हैं तथा इन्हीं लसिकाओं द्वारा कोशिकाओं का पोषण भी होता है।

5. फेफड़े- 

फेफड़े परिसंचरण में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है। फुफ्फुसो में रक्त शुद्ध होता है फुफ्फुसो को रक्त पहॅुचाने का कार्य फुफ्फुसीय परिसंचरण के द्वारा सम्पन्न होता है। वाहिकाए अशुद्ध रक्त को हृदय से फुफ्फुसो तक ले जाती है वहॉं रक्त शुद्ध होकर उसे पुनरू हृदय में ले जाती है यहॉं से आक्सीजन युक्त रक्त शेष शरीर में वितरित होता है। फुफ्फुसीय परिसंचरण में 4 से 8 सेकण्ड का समय लगता है। हृदय के दाये निलय से फुफ्फुसीय धमनी के द्वारा फुफ्फुसीय रक्त परिसंचरण का आरम्भ होता है।

6. महाधमनी (Aorta) तथा महाशिरा 

(Venacava) की कार्य प्रणाली – यह सबसे बड़ी धमनी है। इसके द्वारा शुद्ध रक्त सम्पूर्ण शरीर में फैलता है। इसकी कार्य प्रणाली निम्नानुसार है- यकृत के भीतर से जाकर हृत्पिण्ड के दायें ‘ग्राहक कोष्ठ’ में खुलने वाली ‘अधोगा महाशिरा’ (Inferior Venacava) में शरीर के संपूर्ण निम्न भाग के अंगों का रक्त Singleत्र होकर ऊपर को जाता है। शरीर के All भागों से अशुद्ध रक्त ‘उध्र्व महाशिरा’ (Superior Venacava) में आता है। यह महाशिरा उस रक्त को हृदय के दायें ग्राहक कोष्ठ को दे देती है। रक्त से भरते ही वह कोष्ठ सिकुड़ने लगता है तथा Single दबाव के साथ उसे दायें क्षेपक कोष्ठ में फेंक देता है। दायां त्रिकपाट (Tricuspid Valve) इसके बाद ही बन्द हो जाता है और वह रक्त को पीछे नहीं जाने देता Meansात् दायें क्षेपक कोष्ठ से दायें ग्राहक कोष्ठ में नहीं पहुँच सकता। फिर, ज्यों ही दायां क्षेपक कोष्ठ भरता है, त्यों ही वह रक्त को वृहद् पल्मोनरी धमनी द्वारा शुद्ध होने के लिए फेफड़ों में भेज देता है। फेफड़ों में शुद्ध हो जाने पर, शुद्ध रक्त दायें तथा बायें फेफड़े द्वारा वृहद् पल्मोनरी धमनी द्वारा दायें ग्राहक कोष्ठ में भेज दिया जाता है। इसके बाद यह रक्त दायें ग्राहक कोष्ठ से दबाव के साथ बायें क्षेपक कोष्ठ में आता है, जिसे यहाँ स्थित Single द्वि-कपाट (Biscuspid valve) उसको पीछे नहीं लौटने देता। फिर, जब वह दायां क्षेपक कोष्ठ भरकर सिकुड़ने लगता है, तब शुद्ध रक्त महाधमनी में चला जाता है और वहाँ से सम्पूर्ण शरीर में फैल जाता है। ‘महाधमनी’ से अनेक छोटी-छोटी धमनियाँ तथा महाशिरा से अनेक छोटी-छोटी शिराऐं निकली होती हैं, जो निरंतर क्रमश: रक्त को ले जाने तथा लाने का कार्य करती हैं। रक्त का संचरण दो घेरों में होता है- (1) छोटा घेरा तथा (2) बड़ा घेरा। छोटा घेरा, हृदय, पल्मोनरी धमनी, फेफडों तथा पल्मोनरी के सिरे से मिलकर बनता है तथा बड़ा घेरा महाधमनी And शरीर भर की कोशिकाओं तथा ऊतकों से मिलकर तैयार हुआ है। ग्राहक कोष्ठों (Atrium) को ‘अलिन्द’ तथा क्षेपक कोष्ठों (Ventricle) को ‘निलय’ कहा जाता है।

जब अशुद्ध रक्त उध्र्व तथा अध:महाशिरा द्वारा हृदय के दक्षिण अलिन्द में प्रविष्ट होता है तब वह धीरे-धीरे फैलना आरम्भ कर देता है तथा पूर्ण Reseller से भर जाने पर सिकुड़ना शुरू करता है फलस्वReseller अलिन्द के भीतर के दबाव में वृद्धि होकर, महाशिरा का मुख बन्द हो जाता है तथा ‘त्रिकपाट’ खुलकर, रक्त दक्षिण निलय में प्रविष्ट हो जाता है। दक्षिण निलय भी भर जाने पर जब सिकुड़ना आरम्भ करता है तब द्विकपाट बन्द हो जाता है तथा पल्मोनरी धमनी कपाट (Pulmonary Valve) खुल जाता है। उस समय शुद्ध रक्त के दक्षिण निलय से निकल कर पल्मोनरी धमनी (Pulmonary Artery) द्वारा वाम अलिन्द में गिरता है। इस क्रिया को ‘छोटे घेरे में रक्त संचरण’ (Circulation of Blood through Pulmonary circuit) नाम दिया गया है।

पल्मोनरी धमनी द्वारा वाम अलिन्द में रक्त के भर जाने पर वह सिकुड़ना प्रारंभ कर देता है और उसके भीतर दबाव बढ़ जाता है, फलस्वReseller द्विकपदी कपाट खुलकर रक्त वाम निलय में पहुँच जाता है। वाम निलय के भर जाने पर वह भी सिकुड़ना प्रारंभ कर देता है, तब द्विकपदी कपाट बन्द हो जाता है तथा महाधमनी कपाट खुल जाता है, फलत: वह शुद्ध रक्त महाधमनी में पहुँच कर सम्पूर्ण शरीर में भ्रमण करने के लिए विभिन्न धमनियों तथा कोशिकाओं में जा पहुँचता है। इस प्रकार रक्त संपूर्ण शरीर में घूम कर शिराओं से होता हुआ अन्त में उध्र्व महाशिरा तथा अध:महाशिरा से होकर दक्षिण अलिन्द में पहुँच जाता है। रक्त भ्रमण की इस क्रिया को ‘बड़े घेरे का रक्त -संचरण’ (Circulation of Blood through Larger Circuit) कहते हैं।

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