योग का उद्भव And विकास

योग Indian Customer संस्कृति का Single आधार स्तम्भ हैं । जो प्राचिन काल से आधुनिक काल तक हमारे काल से जुडा हुआ है । इस योग का महत्व प्राचिन काल से भी था तथा आधुनिक काल में भी इसका महत्व और अधिक बडा है। प्रिय पाठको योग Single ऐसी विद्या है जिसके द्वारा मन को अविद्या,अस्मिता आदि द्वेषो से बचाकर वृत्तियों से रहित कर परमात्मा में लीन करने का ज्ञान प्राप्त होता है Single सामान्य ज्ञान से लेकर उच्च कोटि के साधको के लिए योग के अलग-अलग मार्गो का निर्देश अलग-अलग भागो में Reseller गया है इन All मार्गो में साधना And साधन की विधि अलग-अलग हो सकती है किन्तु इन All का अन्तिम उद्देश्य परम तत्व को प्राप्त करना होता है।
योग का उद्भव वेदों से होता है तथा इसके विकास की Single क्रमबद्ध श्रृखंला प्रारम्भ होती है वेद के उपरान्त उपनिषदो तथा भिन्न-भिन्न स्मृतियो में स्मृतियों के उपरान्त विभिन्न दर्शनो एंव यौगिक ग्रन्थों में तत्पश्चात गीता में तथा वर्तमान में आधुनिक काल तक इसके विकास की Single क्रमबध श्रृखंला हैं।

योग का उदभव 

योग के उदभव का Means योग के प्रारम्भ अथवा उत्पन्न होने से लिया जा सकता है योग का प्रारम्भ आदी काल से ही है सृष्टि के आदि ग्रन्थ के Reseller मे वेदो का वर्णन आता है। वेद वह र्इश्वरी ज्ञान है। जिसमे Human जीवन के प्रत्येक पक्ष पर प्रकाश डाला गया है तथा जीवन को सुखमय बनाते हुए जीवन के चरम लक्ष्य मुक्ति के मार्ग को समझाया गया है। इस मुक्ति के मार्ग के साधन के Reseller मे योग मार्ग का History Reseller जाता हो सर्वपथम ऋग्वेंद में कहा गया है-

यञजते मन उत यृञजते धियों विप्रा विप्रस्थ बृहतो विपश्रिचत:।। 

Meansात जीव (मनुष्य) को परमेश्वर की उपासना नित्य करनी उचित है वह मनुष्य अपने मन को सब विद्याओं से युक्त परमेश्वर में स्थित करें। यहॉ पर मन को परमेश्वर में स्थिर करने का साधन योगाभ्यास का निर्देश दिया गया है
अन्यत्र यजुर्वेद में पुन:कहा गया-

 योगे योगें तवस्तंर वाजे वाजे हवामहे। 

 सखाय इन्द्रमूतये।। 

Meansात बार-बार योगाभ्यास करते और बार-बार शारीरिक एंव मानसिक बल बढाते समय हम सब परस्पर मित्रभाव से युक्त होकर अपनी रक्षा के लिए अनन्त बलवान, ऐष्वर्यषाली र्इश्वर का ध्यान करते है तथा उसका आवाहन करते है । योग के उदभव अथवा First वक्ता के याजवल्वय स्मृति में कहा गया है-

हिरण्यगर्यो योगास्थ वक्ता नास्य:पुरातन:।  

Meansात हिरण्यगर्म ही योग के सबसे पुरातन अथवा आदि प्रवक्ता है। महाभारत में भी हिरण्यगर्म को ही योग के आदि के Reseller मे स्वीकार करते हुए कहा गया-

सांख्यस्य वक्ता कपिल: परमर्शि:स उच्यते। 

हिरण्यगर्यो योगस्य वक्ता नास्य:पुरातन:। 

Meansात साख्य के वक्ता परम ऋषि मुनिवर कपिल है योग के आदि प्रवक्ता हिरण्य गर्भ है। हिरण्यगर्भ को वेदो में स्पष्ट करते हुये कहा गया है कि हिरण्यगर्भ परमात्मा का ही Single विश्लेषण है Meansात परमात्मा को ही हिरण्यगर्म के नाम से पुकारा जाता है।

इससे स्पष्ट होता है कि योग के आदि वक्ता परमात्मा (हिरण्यगर्भ) है जहॉ से इस बात का ज्ञान का उदभव हुआ तथा वेदो के माध्यम से इस विद्या का प्रादुर्भाव संसार में हुआ। योग के प्रसिद्व ग्रन्थ हठ प्रदीपिका के प्रारम्भ में आदिनाथ शिव को योग के प्रर्वतक के Reseller में नमन करते हुये कहा गया है-

श्री आदिनाथ नमोस्तु तस्मै येनोपदिष्य

Meansात उन भगवान आदिनाथ को नमस्कार है जिन्होने हठयोग विद्या की शिक्षा दी । कुछ विद्वान योग के उद्भव को सिन्धु घाटी सभ्यता के साथ भी जोडते है तथा इस सभ्यता के अवशेषो मे प्राप्त विभिन्न आसनों के चित्रों एंव ध्यान के चित्रों से यह अनुमान करते है कि योग का उद्गम इसी सभ्यता के साथ हुआ है।

योग का विकास क्रम 

जिज्ञासु पाठको पूर्व का अध्ययन इस तथ्य को स्पष्ट करते है कि योग विद्या का उद्देश्य हिरण्यगर्भ (परमात्मा) द्वारा Reseller गया तथा वेदो मे इसका वर्णन प्राप्त हुआ वेदो के उपरान्त इस विद्या का प्रचार प्रसार संसार मे हुआ तथा यह विकास अभी तक चलता आ रहा है अब हम इसी विकास क्रम पर दृष्टिगत करते है

1. वेदो में योग का विकास क्रम- 

वेद ससार के आदि ग्रन्थ है सृष्टि के आरम्भ में अग्नि, वायु, आदित्य, And अंगीरा नामक ऋशियों ने परमात्मा से प्राप्त प्रेरणा के आधार पर वेदों की Creation की इसी कारण वेद को परमात्मा की वाणी की संज्ञा दी जाती है वेदो में योग विद्या का वर्णन भिन्न-भिन्न स्थानों पर Reseller गया जिनमें से कुछ का वर्णन इस प्रकार है।

योगे -योगे तवस्तरं वाजे वाजे हवामहे 

सखाय इन्द्र भूतयें।। 

Meansात हम योग में तथा हर मुसीबत के परम ऐष्वर्यवान इन्द्र का आवाहन करते है । यजुर्वेद में कहा है –

यृञजान: Firstं मनस्तत्वाय सविता धियम्। 

अग्नेज्र्योतिर्निचास्य अध्याभरत्।। यजु 0 11/1 

Meansात योग को करने वाले मनुष्य ब्रहमज्ञान के लिए जब अपने मन को परमेश्वर में युक्त करते है तब परमेश्वर उनकी वृद्वि को अपनी कृपा से अपने मे युक्त कर लेते है फिर वें परमात्मा के प्रकाश को धारण करते है। अथर्ववेद मे शरीस्थ च्रकों पर प्रकाश डालते हुए कहा गया-

अष्टचक्र नवद्वारा देवातां पूरयोधया 

तस्ंया हिरण्यभय: कोश: स्वर्गो ज्योतिशावृत:।। अथर्ववेद 10/1/31 

Meansात आठ च्रको And नौ द्वारों से युक्त यह शरीर Single अपराजेय देव नगरी है इसमें हिरण्यभय कोश है जो ज्योति एंव आनन्द से परिपूर्ण है ।

2. उपनिषदों में योग का विकास क्रम- 

उपनिषदो का Wordिक Means उप शद के Reseller में Reseller जा सकता है उप का Means समीप (ब्रहम अथवा परमात्मा के समीप) जबकि शद का Means है निश्चित ज्ञान से आता है Meansात परमात्मा के समीप बैठकर निश्चित ज्ञान की प्राप्ति की उपनिषद है।

उपनिषद साहित्य पर वेदों की विचारधारा का पूर्ण से प्रभाव परिलक्षित होता है तथा उपनिषद को वैदिक ज्ञान काण्ड की संज्ञा भी दी जाती है इन्हे ही वेदान्त भी कहा जाता है।

योग विद्या का उपनिषद साहित्य में भिन्न-भिन्न स्थानों पर वर्णन प्राप्त होता है उपनिषद में कुछ उपनिषद तो योग विषय पर ही करते है जबकि कुछ उपनिषद के स्थान के विषय मे समझाया गया है। योग के संदर्भ में उपनिषद में इस प्रकार वर्णन आता है।

योगशिखोउपनिषद में योग को परिभाषित करते हुए कहा गया है – 

योगपान प्राणियोंर्ऐक्यं स्थरजो रेतसोस्तथा। 

Ultra site चन्द्रमसों योर्ं गादृृ जीवात्म परमात्मनो।। 

एंव तु इन्द्र जलास्य संयोगों योग उच्यतें।। 

अथार्त प्राण वायु का अपान वायु में मिलन स्वरज Resellerी कुण्डलिनी शक्ति का रेत Resellerी आत्मतत्व से मिलन, Ultra site स्वर का चन्द्रस्वर से मिलन तथा जीवात्मा का परमात्मा से मिलन होता है ।

अमृतनादोपनिषद में योग के अंगो पर प्रकाश डालते हुए कहा गया –

प्रत्याहारस्तथा ध्यानं प्राणायार्मोश्थ धारणा तर्कश्चैव समाधिश्च शडंगोयोग उच्यते।

त्रिषिखबाह्मणोंपनिषद में कहा गया है 

ध्यानस्य विस्मृति: सम्यक् समाधिरभिधीयते।। 

 Meansात ध्यान का पूर्ण Resellerेण विस्मरण Meansात ध्यान में पूर्ण Reseller से डूब जाना ही समाधि की अवस्था है। “वेताष्वतर उपनिषद में कहा गया है

 न तस्य रोगो न जरा न मृत्यु 

 प्राप्तस्य योगाग्निमयं शरीरम् 

Meansात वह शरीर जो योग की अग्नि में तप जाता है उसें कोर्इ रोग नही होता,बुढापा नही आता तथा वह शरीर को मृत्यु को भी प्राप्त नही होता हैं इस प्रकार उपनिषद साहित्य में योग के स्वReseller को अलग-अलग ढग से समझाया गया है इस सदर्भ में अमृतादोपनिषद में योग के छह: अंगों का History Reseller गया तो त्रिशिखबाह्मणोंपनिषद में यम और नियम की संख्या दस-दस बतलार्इ परन्तु इस All योग का मूल उदृदेष्य आत्मतत्व को शुद्व कर परमात्मा के साथ इसका संयोग करना ही रहा है।

3. स्मृतियों मे योग का विकास क्रम- 

स्मृतियों का वैदिक साहित्य के अपना विशिष्ट स्थान है मनु द्वारा रचित याजवल्लभ स्मृति का महत्च वर्तमान समय में भी है इन All स्मृतियों में योग के स्वReseller को इस प्रकार स्पष्ट Reseller गया –

सुक्ष्मतां चान्ववेक्षेत योगेन परमात्मन:। 

 देहेषु च समुत्पन्तिमुन्तष्वधमेषु च।। 

Meansात योगाभ्यास से परमात्मा की सुक्ष्मता को जाना जाता है। मनुस्मृति में प्राणायाम द्वारा इन्द्रियों की शुद्वि का निर्देश भी इस प्रकार Reseller गया दहयन्ते ध्मायमानानां धातूनां हि यथा मला:। तथेन्द्रियाणां दहायन्ते दोषा: प्राणास्य निग्रहातृ Meansात जिस प्रकार अग्नि में तपाने से धातुओं के मल Destroy हो जाते है उसी प्रकार प्राणायाम Resellerी अग्नि में तपाने से इन्द्रियों के दोष समाप्त हो जाते है। Meansात यहा पर प्राणायाम की महत्व को दर्शाया गया ह।ै याजवल्वन्य स्मृति में ‘‘संयागों योग इत्यक्तो जीवोत्मनो’’ कहकर जीवात्मा का परमात्मा से संयोग को योग कहा गया है।

4. दर्शनों मे योग का विकास क्रम- 

वैदिक दशर्नो में छ: दशर्नो का वर्णन आता है इन छ: दशर्नो में योगदर्शन, साख्यदर्शन, न्याय दर्शन, वैशेषिक दर्शन, मीमांसा दर्शन, And वेदान्त दर्शन आता है इन शड दर्शनों को आस्तिक दर्शनों की सज्ञां दी जाती है इनके अतिरिक्त बौद्ध दर्शन, जैन दर्शन एंव चार्वाक दर्शन इन तीनो दर्शनो को नास्तिक दर्शन के अन्तर्गत रखा गया है इन All दर्शनों में योग को अलग-अलग Resellerो में प्रस्तुत Reseller गया है इन All दर्शनों में पतंजलि कृत योग दर्शन में योग के स्वReseller की स्पष्ट एंव सुन्दर व्याख्ंया की गयी है। यह दर्शन समाधिपाद, साधनपाद विभूति पाद तथा कैवल्य पाद के नाम से चार अध्यायों में विभक्त है इन अध्यायों में क्रमश: 51, 55, 55, 34, =195 सूत्र हैं।इस दर्शन में प्रष्नोंत्तरात्मक शैली में योग के स्वReseller की व्यांख्या की गयी है यहॉ पर योग को परिभाषित करते हुए कहा गया है।

योगष्चित्त वृत्ति निरोध: पा0 योग सू0 1/2 

Meansात चित्त वृत्तियॉ का निरोध ही योग है

चित्त वृत्तियों का निरोध के साधन के साथ-साथ अष्टांग योग का वर्णन करते हूए योग दर्शन में कहा गया है- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान तथा समाधि ये योग के आठ अंग है।

सॉख्य दर्शन में मुनिवर कपिल ने 25 तत्वों की संख्या की गणना की। तथा इन तत्वों का ज्ञान कर परमात्मा को प्राप्त करने का उपदेश दिया।इन दर्शन में कार्य कारण सिद्वान्त तथा सत्कार्यवाद को भी समझाया गया है। न्याय दर्शन में गौतम ऋषि द्वारा किसी भी वस्तु अथवा का सही ज्ञान प्राप्त कर उसके ज्ञान का उपदेश दिया गया है। वैशेषिक दर्शन में कणाद मुनि द्वारा प्रकृति का विवेचन कर परमात्म को प्राप्त करने का उपदेश दिया गया है 

मीमासां दर्शन में महर्षि जैमिनी ने गहन चिन्तन अथवा अनुसन्धान द्वारा परमात्मा तत्व को प्राप्त करने का उपदेश Reseller गया वेदान्त दर्शन में आचार्य शंकर आत्मा के स्वReseller को प्रतिपादित करते है तथा इसकी मुक्ति के साधनों का History करते है इस प्रकार इन शडदर्शनों में भिन्न-भिन्न मार्गो से आत्मा को परमात्मा से जोडने के मार्गो का History Reseller गया है।

जैन दर्शन में वर्धमान महावीर ने सम्यक दर्शन सम्यक ज्ञान एंव सम्यक चरित्र के Reseller में आत्म विकास का उपदेश दिया गया जबकि बौद्व दर्शन में महात्मा बुद्व द्वारा अष्टांग योंग के समान साधना के आठमागोर्ं का वर्णन Reseller गया इन मार्गो में सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वाक, सम्यक कर्म, सम्यक आजीव, सम्यक व्यायाम, सम्यक स्मृति And सम्यक समाधि का वर्णन Reseller गया है। इस प्रकार दर्शन काल में योग की अलग-अलग Resellerों में प्रकाशित Reseller गया।

5. हठ प्रदीपिका And घेरण्ड सेहिता में योग- 

हठप्रदीपिका एंव घेरण्ड संहिता में योग के स्वReseller पर प्रकाश डालते हुए कहा गया- प्रणम्य श्रीगुरू नाथ स्वात्मारामेण योगिना। केवलं राजयोगाय हठविद्योपदिष्यतें।। Meansात श्रीनाथ गुरू कों प्रणाम करके योगी स्वात्माराम केवल राजयोग की प्राप्ति की प्राप्ति के लिए हठविद्या का उपदेश करते है। घेरण्ड संहिता में हठयोग के सप्त साधनों पर प्रकाश डालते हुए कहा गया-

 शोधनं ढृढता चैवं स्थैर्य धैर्य च लाद्यवम्। 

 प्रत्यक्षं च निर्लिप्तं च घटस्य सप्तसाधनम्। 

Meansात शोधन, धैर्य, लाघव, प्रत्यक्ष, और निलिप्ता ये Seven शरीर शुद्वि के साधन है जिन्हें सामान्यत: सप्तसाधन की संज्ञा दी जाती है इन सप्तसाधनों के लाभों पर प्रकाश डालते हुए घेरण्ड ऋर्षि कहते है-

 शट्कर्मणा शोधंन च आसनेन भवेद्ढृढम्। 

 मुद्रेया स्थिरता चैव प्रत्याहारेण धीरता। 

 प्राणायामाल्लाघवं च ध्यानात्प्रत्यक्षमात्मन:। 

 समाधिना निर्लिप्तं च मुक्तिरेव न संशय:।। 

Meansात शट्रकर्मो से शरीर का शोधन आसनों से ढृढता, मुद्वाओं से स्थिरता प्रत्याहार से धैर्य, प्राणायाम से हल्कापन, ध्यान से आत्म साक्षात्कार एव समाधि से निर्लिप्तता के भाव उत्पन्न होते है इन साधनों का अभ्यास करने वाले साधन की मुक्ति में कोर्इ संशय नही रहता है। इस प्रकार घेरण्ड संहिता एंव हठयोग प्रदीपिका में योग के स्वReseller को हठयोग के Reseller में described Reseller गया।

6. गीता मे योग का विकास क्रम-  

गीता अर्जुन को समझाते हुए में योग के सदंर्भ मे भगवान श्रीकृष्ण कहते है –

योगस्थ कुरूकर्मार्णि संगत्यक्यक्त्वा धनरजय ।  

सिदयसिद्वयोसमो भूत्वा समत्ंव योग उच्चते।। (गीता 2/48) 

Meansात अर्जुन तुम कर्म फलों की आसक्ति को त्यागकर, सिद्धि और असिद्धि जय और पराजय, मान और अपमान में समभाव रखते हुए कार्य कर क्योकि यह समत्वं की भावना ही योग है।
पुन:भगवान श्रीकृष्ण कर्मयोग पर प्रकाश डालते हुए कहते है-

बुद्वियुक्तो जहातीह उमे सुकृत दृष्कृते। 

तस्माधोगाय युजस्व योग: कर्मसुु कोशलम्।। 

 Meansात हे अर्जुन बुद्विमान पुरूष अच्छे एंव बुरे दोनो ही कर्मो को इसी लोक में त्याग देते है तथा आसक्तिरहित होकर कर्म करते है क्योकि कर्मो में कुशलता ही योग है। यद्यपि गीता को कर्मयोग का सर्वोतम शास्त्र माना गया है किन्तु कर्मयोग के साथ-साथ इस ग्रन्थ में भक्तियोग, ज्ञानयोग, सन्यासयोग, मंत्रयोग And ध्यानयोग आदि योग के अन्यमार्गो का History भी प्राप्त होता है।

7. आधुनिक युग में योग का विकास क्रम- 

आधुनिक युग के योगी महर्षि योग को सांसारिक जीवन एंव आध्यात्मिक जीवन के मध्य सामंजस्य स्थापित करने का साधन मानते है आधुनिक युग में योग को Single नर्इ दिशा देने वाले स्वामी रामदेव योग को स्वास्थ मानसिक जोडते हुए शारीरिक मानसिक एंव आध्यात्मिक स्वास्थ प्राप्त करने का साधन होता है। शिक्षा के क्षेत्र में बच्चों पर बढ़ते तनाव को योगाभ्यास से कम Reseller जा रहा है। योगाभ्यास से बच्चों को शारीरिक ही नहीं बल्कि मानसिक Reseller से भी मजबूत बनाया जा रहा है। स्कूल व महाविद्यालयों में शारीरिक शिक्षा विषय में योग पढ़ाया जा रहा है। वहीं योग-ध्यान के अभ्यास द्वारा विद्यार्थियों में बढ़ते मानसिक तनाव को कम Reseller जा रहा है। साथ ही साथ इस अभ्यास से विद्यार्थियों की Singleाग्रता व स्मृति शक्ति पर भी विशेष सकारात्मक प्रभाव देखे जा रहे हैं। आज कम्प्यूटर, मनोविज्ञान, प्रबन्धन विज्ञान के छात्र भी योग द्वारा तनाव पर नियन्त्रण करते हुए देखे जा सकते हैं। 

शिक्षा के क्षेत्र में योग के बढ़ते प्रचलन का अन्य कारण इसका नैतिक जीवन पर सकारात्मक प्रभाव है आजकल बच्चों में गिरते नैतिक मूल्यों को पुन: स्थापित करने के लिए योग का सहारा लिया जा रहा है। योग के अन्तर्गत आने वाले यम में दूसरों के साथ हमारे व्यवहार व कर्तव्य को सिखाया जाता है, वहीं नियम के अन्तर्गत बच्चों को स्वयं के अन्दर अनुशासन स्थापित करना सिखाया जा रहा है। विश्वभर के विद्वानों ने इस बात को माना है कि योग के अभ्यास से शारीरिक व मानसिक ही नहीं बल्कि नैतिक विकास होता है। इसी कारण आज सरकारी व गैरसरकारी स्तर पर स्कूलों में योग विषय को अनिवार्य कर दिया गया है।

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