महामना पं0 मदनमोहन मालवीय का जीवन परिचय

महामना के समय भारत की राजनीतिक-सामाजिक स्थिति 

पूरी उन्नीसवीं शताब्दी भारत में अंग्रेजी साम्राज्य के विस्तार का History है। इस शताब्दी में लगभग संपूर्ण भारत पर अंग्रेजो का प्रभुत्व स्थापित हो गया। देशी रियासतों में भी वास्तविक सत्ता अंग्रेज अधिकारियों के हाथों में ही थी। Indian Customerों की हर प्रकार की स्वतंत्रता छीन ली गर्इ थी। वे हर तरह से गोरों के गुलाम हो चुके थे।

अपने ही देश में Indian Customer Second दर्जे की प्रजा हो चुके थे। गोरे अपने को Indian Customerों से श्रेष्ठ प्रजाति मानते थे। अत: वे Indian Customerों को घृणा के भाव से देखते थे। शहर में अंग्रेजों की बस्तियां अलग थी। उनके साथ Indian Customer यात्रा नहीं कर सकते थे। अंग्रेजो के पार्क, मनोरंजन स्थल आदि में Indian Customer प्रवेश तक नहीं पा सकते थे। अंग्रेजो के सामने Indian Customer घोड़े या किसी अन्य वाहन पर चढ़ कर नहीं जा सकते थे।

परम्परागत Indian Customer उद्योगों का अंग्रेजो ने जान-बूझ कर विनाश Reseller। भारत से कच्चे माल को इंग्लैंड ले जाकर वे वहाँ से तैयार माल भारत लाकर ऊँचे दामों पर बेचते थे। सोने की चिड़िया भारत संसार के निर्धनतम देशों मे से Single होता गया।

अंग्रेजों के पूर्व King या राजवंश के परिर्वतन से Indian Customer कश्“ाकों पर कोर्इ प्रभाव नही पड़ता था। वे अपनी भूमि के स्वामी बने रहते थे। कृषि उनके लिए केवल Single आर्थिक क्रिया-कलाप नहीं वरन् जीने की शैली थी। पर अंग्रेजों ने किसानों के शोषण के लिए नर्इ भूमि व्यवस्था लागू की। स्थायी बन्दोबस्त, महलवारी And रैयतवारी व्यवस्थाओं के द्वारा भूमि पर किसानों का परम्परागत अधिकार समाप्त कर दिया गया। अब जमीन पर उसी का अधिकार था जो अंग्रेजी सरकार को सबसे अधिक लगान दे सके। खुशहाल Indian Customer किसान दरिद्र होता गया। आश्चर्य नहीं कि अंग्रेजों के काल में अनेक दुर्भिक्ष हुए- जिनसें लाखों किसानों, उनके बच्चों और औरतों की मौत हुर्इ। Historyकार विपन चन्द्र के According पूरा गंगा-यमुना का दोआब अकाल मृत्यु के शिकार हुए किसानों की हड्डियों से श्वेत हो गया।

शैक्षिक-सांस्कृतिक क्षेत्र में भी अंग्रेज Indian Customerों को हमेशा के लिए मानसिक और बौद्धिक Reseller से गुलाम बनाए रखना चाहते थे। वे Indian Customerों को ‘श्वेत लोगो का बोझ’ मानते थे। जिसे ‘व्हाइट मेनस् बर्डेन’ के नाम से History में जाना जाता है। चाल्र्स ग्रांट (1792) से लेकर लार्ड मैकाले (1835) तक All Indian Customerों को निम्न सामाजिक, सांस्कृतिक और शैक्षिक स्तर के व्यक्ति मानते थे। मैकाले तो Indian Customerों को स्थायी Reseller से बौद्धिक गुलामी के लिए तैयार कर रहे थे। इन सबके विरूद्ध 1857 में Indian Customer जनमानस ने अंग्रेजों के विरूद्ध क्रांति की घोषणा कर दी। पर 1857 के संघर्ष में Indian Customer असफल रहे और अंग्रेजी सत्ता को दी जा रही चुनौती समाप्त हो गर्इ।

जीवन-वृत्त 

1857 की क्रांति की असफलता के बाद Indian Customer जनमानस निराश सा हो गया था। ऐसे में 25 दिसम्बर, 1861 को तीर्थराज प्रयाग में बालक मदन मोहन का जन्म हुआ। इन्होंने आगे चलकर न केवल Indian Customer संस्कृति का संरक्षण Reseller वरन् शिक्षा के द्वारा परम्परागत तथा आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के समन्वित विकास And प्रसार से पराधीन राष्ट्र के आत्मविश्वास And स्वाभिमान को बढ़ाया।

मदन मोहन मालवीय के पितामह प्रेमधर जी संस्कृत के बड़े विद्वान थे। धर्म के प्रति उनकी बड़ी गहरी निष्ठा थी। पितामह की तरह पितामही भी धर्मनिष्ठ और शील सम्पन्न थी। मदन मोहन के पिता पं0 ब्रजनाथ पं0 प्रेमधर की ही तरह धर्मनिष्ठ,जव संस्कृत के विद्वान तथा राधाकृष्ण के अनन्य भक्त थे। परिवार की आर्थिक दशा काफी दयनीय होते हुए भी वे कभी दान नहीं लेते थे। मदन मोहन की माता श्रीमती मूना देवी जी स्वभाव की बड़ी सरल और हृदय की बड़ी कोमल थी।

मदन मोहन पर परिवार की आर्थिक दशा का, माता के शील तथा स्नेह का, पिता और पितामह के धर्म के प्रति अनुराग का गहरा प्रभाव पड़ा। उनका जीवन धर्मनिष्ठ, भगवद्भक्ति, दीनबन्धु समाजसेवी के Reseller में विकसित हुआ। उन्होंने अपनी पिचहत्तरवीं वर्षगांठ पर कहा ‘‘पितामह, पितामही, पिता और माता बड़े धर्मात्मा, सदाचार और नि:स्वार्थ ब्राह्मण थे, उन्हीं के प्रसाद से मैं इतना काम कर सका हूँ।’’

मदन मोहन को पाँच वर्ष की आयु में विद्यारंभ कराया गया। उन्हें प्राच्य और पाश्चात्य दोनों ही तरह की शिक्षाओं का गहरार्इ से अनुशीलन करने का अवसर मिला। पहाड़ा And सामान्य गणित पढ़ने वे Single महाजनी पाठशाला में जाते थे। उसके उपरांत उन्होंने धर्मज्ञानोपदेश पाठशाला में संस्कृत, धर्म और शारीरिक शिक्षा पार्इ। फिर वे धर्म प्रविर्द्धनी पाठशाला के विद्याथ्री बने। इस प्रकार उन्हें परम्परागत Indian Customer ज्ञान, धर्म, दर्शन का अच्छा अभ्यास हो गया।

सन् 1868 में प्रयाग में गर्वनमेण्ट हार्इस्कूल खुला। मदन मोहन ने इसमें प्रवेश लिया। यहाँ बड़े परिश्रम से अंग्रेजी की शिक्षा ग्रहण की। साथ ही साथ वे संस्कृत का भी ज्ञान प्राप्त करते रहे। एन्ट्रेस उत्तीर्ण करने के उपरांत मदन मोहन म्योर सेन्ट्रल कॉलेज में पढ़ने लगे। मासिक छात्रवृत्ति मिल जाने से उनका आर्थिक संकट कुछ हद तक कम हुआ। 1881 में एफ0ए0 की परीक्षा उत्तीर्ण की और 1884 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से बी0ए0 की परीक्षा विशेष योग्यता के साथ उत्तीर्ण की। पारिवारिक जिम्मेदारियों के कारण वे एम0ए0 की परीक्षा में नही बैठ सके। उन्होंने सरकारी उच्च विद्यालय में First 40 Resellerये और बाद में 60 रू0 मासिक वेतन पर अध्यापक पद स्वीकार कर लिया।

समाज सेवा के प्रति मदन मोहन मालवीय की लगन छात्र जीवन से ही दिखती है। समाज सेवा हेतु छात्र जीवन में ही उन्होंने ‘साहित्य सभा’ And ‘हिन्दू समाज’ नामक संस्थाओं की स्थापना की थी। सरकारी नौकरी महामना को बाँधे नही रख सकी। तीन वर्षों तक सरकारी नौकरी में रहने के बाद उन्होंने नौकरी छोड़ दी। 1886 में कांग्रेस के द्वितीय अधिवेशन में महामना के भाषण ने राष्ट्रीय नेताओं को काफी प्रभावित Reseller। अब वे कालाकाँकर आकर दैनिक समाचार पत्र ‘हिन्दुस्तान’ का सम्पादन करने लगे। 1887 से 1889 तक इस कार्य को सफलता पूर्वक Reseller। महामना की बहुमुखी प्रतिभा इसी तथ्य से स्पष्ट है कि समाचार पत्र के सम्पादन के साथ-साथ उन्होंने वकालत की पढ़ार्इ जारी रखी। 1891 में वकालत की परीक्षा उत्तीर्ण कर आप इलाहाबाद उच्च न्यायालय में वकालत करने लगे।

अधिवक्ता के Reseller में महामना को बहुत अधिक सफलता मिली और उनकी ख्याति चारों ओर फैल गर्इ। अब उनका सामाजिक-राजनीतिक कार्य क्षेत्र काफी विस्तृत हो गया था। वे देश को राजनीतिक नेतृत्व देने के लिए तैयार थे। 1909 और 1918 में वे कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए। इस प्रकार वे देश के अग्रणी नेता के Reseller में कांग्रेस और देश को नेतृत्व प्रदान करते रहे। महामना मूलत: Single शिक्षाविद् और Single अध्यापक थे। भारत राष्ट्र की नींव को मजबूत करने हेतु वे शिक्षा का प्रचार-प्रसार चाहते थे। इसी सपने को साकार करने के लिए 4 फरवरी, 1916 को विद्या की नगरी बनारस में उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की। जीवन पर्यन्त वे देश, समाज और राष्ट्र की सेवा करते रहे। अन्तत: 12 नवम्बर, 1946 Ultra site के अवसान बेला में इस महाHuman का देहावसान हो गया।

जीवन-दृष्टि 

महामना की जीवन-दृष्टि के दो आधार थे: र्इश्वर भक्ति और देश भक्ति। इन दोनों का उत्कृष्ट संश्लेषण, र्इश्वरभक्ति का देशभक्ति में अवतरण तथा देशभक्ति की र्इश्वरभक्ति में परिपक्वता उनकी जीवन-दृष्टि का विशेष पक्ष था। महामना का विश्वास था कि मनुष्य के पशुत्व को र्इश्वरत्व में परिणत करना ही धर्म है।

महामना सच्चो Meansों में तपस्वी थे। Seven्विक तप के सारे पक्ष उनमें विद्यमान थे। श्रीमद्भगवतगीता में described कायिक, वाचिक और मानसिक तप के वे साधक थे। काम-क्रोध-लोभ-मोह से स्वंय को बचाना, सदा शुद्ध संकल्पयुक्त रहना, विषयवृत्ति पर विजय प्राप्त करना, व्यवहार में छल-कपट से अपने को दूर रखना उनका मानसिक तप था। असत्य, दु:खदायी, अप्रिय और खोटे वचनों का त्याग; तथा प्रिय, सत्य, मधुर Wordों का प्रयोग उनका वाचिक तप था।

दूसरों की सहायता करना, समाज की सेवा करना, देश और जाति के लिए अपने शरीर को होने वाले कष्टों की परवाह न करना उनका शारीरिक तप था। महामना प्रखर राष्ट्रवादी और उच्चकोटि के देशभक्त थे। देश की स्वतंत्रता, राष्ट्र के गौरव की वृद्धि, तथा जनता की सर्वागींण उन्नति उनकी देश सेवा के मुख्य लक्ष्य थे। वे जाति, भाषा, सम्प्रदाय, क्षेत्र के आधार पर Indian Customerों के मध्य बढ़ते दुराव को समाप्त कर भारत को Single शक्तिशाली राष्ट्र और संप्रभु देश के Reseller में देखना चाहते थे।

महामना का कार्यक्षेत्र अत्यन्त ही विस्तृत और व्यापक था। समाजसेवा का शायद ही ऐसा कोर्इ पक्ष हो जो उनके कार्य परिधि में न आया हो। सनातन धर्म का प्रचार, प्राचीन Indian Customer संस्कृति का उत्थान, हिन्दू हितों की रक्षा, हिन्दी का प्रचार, गौमाता की सेवा, सामाजिक कुरीतियों का विरोध, स्वंय सेवकों का संगठन, ज्ञान-विज्ञान की विभिन्न शाखाओं की वृद्धि, शिक्षा का विस्तार, मल्ल-शालाओं का उद्घाटन, वंचितों के कष्टों का निवारण, हरिजनों का उत्थान, लोकतांत्रिक मर्यादाओं की प्रतिष्ठा, राष्ट्रीयता की भावना का विकास, प्रगतिशील सिद्धान्तों का प्रतिपादन, देश-काल के अनुकूल संस्कृति का विकास आदि All क्षेत्रों में उनका योगदान अत्यधिक महत्वपूर्ण है।

महामना आदर्शवादी विचारक 

महामना के आर्दशवादी विचारक And शिक्षाशास्त्री होने में कोर्इ सन्देह नहीं है। वे शिक्षा को अध्यात्म से अलग नही करते थे। उन्हें सनातन या शाश्वत जीवन मूल्यों पर पूर्ण विश्वास था। सत्य को उन्होंने कभी भी परिवर्तनशील नहीं माना। महामना ऐसी शिक्षा के पक्षपाती थे जो विद्याथ्री में आत्म-अनुशासन की भावना बढ़ाये तथा व्यक्तित्व का सर्वागींण विकास करे। महामना चाहते थे कि विद्याथ्री में नैतिकता, Humanता, दृढ़ संकल्प, नि:स्वार्थ सेवा के गुण हों। वे उच्च चरित्र को अत्यधिक महत्व प्रदान करते थे। महामना का स्पष्ट मत था कि जो व्यक्ति अपने धर्म में विश्वास करेगा, धर्म के मार्ग का अनुसरण करेगा उसमें Humanता होगी और वह स्वयं तथा समाज के लिए उत्तरदायी होगा। महामना मालवीय में ये सारे गुण थे।

सनातन धर्म का उपासक 

महामना सनातन धर्मावलम्बी थे। सनातन धर्म का Means है: शाश्वत धर्म या शाश्वत नियम। इनका आधार Human जाति का प्राचीनतम ग्रंथ वेद है। वे सनातन या हिन्दू धर्म के प्रबल समर्थक थे। परन्तु महामना ने हिन्दू धर्म को संकीर्ण Reseller में नहीं देखा। सनातन धर्म के मूलभूत सिद्धान्तों की उनकी व्याख्या निश्चय ही बहुत उदार थी। उनके According Humanता की भावना, सार्वभौमिक प्रेम तथा Humanमात्र के प्रति उनकी गहरी निष्ठा ने संभवत: उन्हें उस हद सामाजिक सुधार करने से रोका जिस हद तक वे सक्षम थे।

निस्वार्थ सेवा भाव 

महामना व्यक्ति को समष्टि का अंग मानते थे और नि:स्वार्थ सेवा द्वारा जीवन में समष्टि को आत्मSeven करना Human का पुनीत कर्त्तव्य मानते थे। उनका जीवन समाजिकता से ओत प्रोत था। महामना सच्चे Meansों में युगपुरूष थे। उन्होंने देश की Needओं तथा जनता के कष्टों को अपने जीवन में आत्मSeven कर जनता की आकांक्षाओं की पूर्ति में तथा देश के गौरव की वृद्धि में अपना सारा जीवन लगा दिया। उनका त्याग और सेवा भाव उनके समकालीन राजनेताओं के लिए Single उदाहरण था। गोपाल कृष्ण गोखले ने महामना के संदर्भ में कहा ‘‘त्याग तो मालवीय जी महाराज का है। वे निर्धन परिवार में उत्पन्न हुए और बढ़ते-बढ़ते प्रसिद्ध वकील होकर सहस्त्रों Resellerया मासिक कमाने लगे। उन्होंने वैभव का स्वाद लिया और जब हृदय से मातृभूमि की सेवा की पुकार उठी, तो उन्होंने सब कुछ त्याग कर पुन: निर्धनता स्वीकार कर ली।’’

स्वदेशी आन्दोलन 

महामना का मानना था कि स्वदेशी आन्दोलन को बल प्रदान करना भारतवासियों का धार्मिक कर्त्तव्य हैं। वे कहते थे कि स्वदेशी ही देश के आर्थिक संकटों के निवारण का Only साधन है। इसके मूल में दुर्भावना अथवा घृणा नहीं है और न इसमें राजनीतिक विद्वेष है। देश की निर्धनता को कम करने तथा देशवासियों को रोजगार और भोजन देने के लिए स्वदेशी ही अंगीकार करना भारतवासियों का धार्मिक कर्त्तव्य है।

राष्ट्रीय पुनर्निमाण का कार्यक्रम 

महामना ने राष्ट्रीय पुनर्निमाण के लिए व्यापक सिद्धान्त का प्रतिपादन Reseller। उनका कहना था कि देश के नैतिक, बौद्धिक और आर्थिक साधनों का परिवर्धन करने के लिए राजनीतिक सुधारों के आन्दोलन के अतिरिक्त लोगों में लोक कल्याण और लोक सेवा की भावना उत्पन्न करना आवश्यक है। देश के विकास के लिए शैक्षिक तथा औद्योगिक कार्यकलाप आवश्यक है। उन्होंने औद्योगिक आयोग (1916-18) के समक्ष अपने प्रतिवेदन में कहा कि यथोचित आधार पर उद्योगों के लिए आवश्यक पूँजी देश में जमा की जा सकती है। महामना चाहते थे कि देश के राजनीतिक पुनर्निमार्ण और प्रगति के लिए धार्मिक उत्साह और समर्पण की भावना से काम करना आवश्यक है। गुरू गोविन्द सिंह ने जिस भक्ति भावना से अपना काम Reseller और अपने अनुयायियों के साथ समानता का जो व्यवहार Reseller उससे महामना अत्यधिक प्रभावित थे।

जनतंत्र मे आस्था 

महामना को र्इश्वर की सर्वव्यापकता में अटूट विश्वास था। उन्होंने भारत में सर्वत्र स्वतंत्रता, समानता तथा न्याय के सिद्धान्तों को अपनाये जाने पर बल दिया। 1918 में दिल्ली कांग्रेस में अपने अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने इस तथ्य पर जोर देते हुए कहा ‘‘मेरा निवेदन है कि आप अपनी पूरी शक्ति के साथ इस बात की माँग करने का संकल्प लें कि अपने देश में आपको भी विकास की वे ही सुविधायें मिले जो इंग्लैंड में अंग्रेजो को मिली है। यदि आप इतना संकल्प कर लें और अपनी जनता में स्वतंत्रता, समानता तथा बंधुत्व के सिद्धान्तों को फैलायें तथा प्रत्येक को यह अनुभव करने दें कि उसमें भी वही र्इश्वरीय प्रकाश की किरण विद्यमान है, जो उच्च से उच्च स्थिति के व्यक्ति में विद्यमान है… तो निश्चय समझिए कि आपने अपने भविष्य का निर्णय स्वंय कर लिया है।’’

हिन्दी आन्दोलन के प्रणेता 

महामना के समय सर्वत्र अंग्रेजी का वर्चस्व था। शिक्षा का माध्यम, विशेष Reseller से उच्च शिक्षा का, अंग्रेजी था। उच्च न्यायालयों में जहाँ अंग्रेजी भाषा में ही सारे कार्यों का सम्पादन होता था, वहीं निम्नस्तरीय न्यायालयों में उर्दू भाषा को यह गौरव प्राप्त था। इस तरह हिन्दी अपने ही देश में पूर्णत: उपेक्षित थी। महामना हिन्दी को उसका उचित स्थान दिलाने के लिए जीवन पर्यन्त आन्दोलनरत रहे। इन सबका चरम 2 मार्च, सन् 1898 का स्मृतिपत्र था जो उन्होंने संयुक्त प्रांत (वर्तमान उत्तर प्रदेश) के गर्वनर सर एण्टनी मैकडानल को सौंपा। इसमें इन्होनें आँकड़ों And आधिकारिक विद्वानों की उक्तियों के सहारे हिन्दी को उसका उचित स्थान देने का आग्रह करते हुए कहा ‘‘पश्चिमोत्तर प्रांत तथा अवध (वर्तमान उत्तर प्रदेश) की जनता में शिक्षा का प्रसार करना आवश्यक है। गुरूत्तर प्रमाणों से यह सिद्ध Reseller जा चुका है कि इस कार्य में तभी सफलता प्राप्त होगी जब कचहरियों और सरकारी कार्यालयों में नागरी अक्षरों का प्रयोग Reseller जाने लगेगा। अत: इस शुभ कार्य में जरा-सा भी विलम्ब नही होना चाहिए और न राज्य कर्मचारियों तथा अन्य लोगों के विरोध पर ही ध्यान देना चाहिए। हमें आशा है कि बुद्धिमान और दूरदश्र्ाी King जिनके प्रबल प्रताप से लाखों जीवों ने इस घोर अकाल Resellerी काल से रक्षा पार्इ है, अब नागरी अक्षरों को जारी करके इन लोगों की भावी उन्नति और वृद्धि के बीज बोएँगे और विद्या के सुखकर प्रभाव के अवरोधों को अपनी क्षमता से दूर करेंगे।’’ अत: 1900 र्इ0 में कचहरियों की भाषा हिन्दी भी कर दी गर्इ। यह महामना और उनके सहयोगियों की महान सफलता थी। अब हिन्दी भाषा और नागरी में बड़ी संख्या में विद्याथ्री शिक्षा ग्रहण करने लगे।

महामना आजीवन हिन्दी का प्रचार-प्रसार करते रहे। वे 1884 में ही हिन्दी उद्धारिणी प्रतिनिधि सभा के सक्रिय सदस्य बनें जो बाद में नागरी प्रवर्धन सभा कहलायी। 10 अक्टूबर, 1910 को मालवीय जी की अध्यक्षता में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का पहला अधिवेशन हुआ। महामना और राजर्षि पुरूषोत्तम दास टंडन के नेतृत्व में हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने हिन्दी और नागरी के प्रचार हेतु भगीरथ प्रयास किये।

महामना हिन्दी को शिक्षा का सशक्त माध्यम बनाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने हिन्दी भाषा में उच्चस्तरीय पाठ्य पुस्तकों की Creation करने और अन्य भाषाओं की अच्छी पुस्तकों का हिन्दी में अनुवाद करने पर जोर दिया। उन्हीं के Wordो में ‘‘जो स्कूल-कालेज स्थापित किए गए है, उनमें लड़के हिन्दी पढ़ें। यूरोपीय History, काव्य, कला-कौशल आदि की पुस्तकें हिन्दी में अनुवादित हों। हिन्दी में उपयोगी पुस्तकों की संख्या बढ़ार्इ जाये। सरकार ने हिन्दी जारी कर दी है। अब हमें चाहिए, हम हिन्दी की उत्तमोत्तम पाठ्य-पुस्तकें तैयार करें।’’

अपने वचनों के अनुReseller ही महामना ने हिन्दी के विकास के लिए अनवरत कार्य Reseller। उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हिन्दी And संस्कृत के पठन-पाठन की उत्तम व्यवस्था की। हिन्दी के अनेक गणमान्य विद्वान And Creationकार यथा श्यामसुन्दर दास, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, अयोध्या सिंह उपाध् याय ‘हरिऔध’, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हिन्दी का अध्यापन कर अपने को धन्य माना।

पत्रकारिता के भी माध्यम से महामना हिन्दी का अनवरत विकास करते रहे। वे हिन्दी के First दैनिक समाचार पत्र हिन्दुस्तान के सम्पादक रहे। इसमें पं0 प्रताप नारायण मिश्र And बालमुकुन्द गुप्त उनके सहयोगी थे। 1908 में उन्होंने ‘अभ्युदय’ नामक सप्ताहिक पत्र निकाला जो क्रांति के संदेश का वाहक था। इसके अतिरिक्त अनेक पत्र-पत्रिकाओं जैसे- मर्यादा, अभ्युदय, सनातन धर्म, गोपाल आदि के प्रेरणास्रोत महामना ही थे।

शिक्षा सिद्धान्त 

महामना सही Meansों में शिक्षा को सर्वाधिक प्रभावशाली शक्ति मानते थे। वे भारत के सांस्कृतिक-सामाजिक और राजनीतिक-आर्थिक पराभव का कारण Indian Customerों की निरक्षरता And अशिक्षा को मानते थे। उनका कहना था कि ‘‘यदि देश का अभ्युदय चाहते हो तो सब प्रकार से यत्न करो कि देश में कोर्इ बालक या बालिका निरक्षर न रहे।’’ उनके According देश की दुर्दशा को समाप्त करने का Only साधन साक्षरता And शिक्षा है। अत: उन्होंने अपने जीवन के अधिक महत्वपूर्ण भाग को शिक्षा में लगाया।

महामना शिक्षा को Human-जीवन के सर्वागींण विकास का साधन मानते थे। उनकी दृष्टि में शिक्षा वह है जो विद्याथ्री की शारीरिक, बौद्धिक तथा भावात्मक शक्तियों को परिपुष्ट और विकसित कर सके तथा भविष्य में किसी व्यवसाय द्वारा र्इमानदारी से जीवन-निर्वाह करने के योग्य बना सके। महामना शिक्षा के द्वारा युवा वर्ग को कलात्मक और सौन्दर्यपूर्ण जीवन के लिए तैयार करना चाहते थे। वे शिक्षा को राष्ट्रप्रेम जागृत करने वाली शक्ति बनाना चाहते थे ताकि नर्इ पीढ़ी निस्वार्थ भाव से समाज And राष्ट्र की सेवा कर सके।

मदन मोहन मालवीय शिक्षा को Human मात्र का अधिकार मानते थे तथा इसका समुचित प्रबन्ध करना राज्य का कर्त्तव्य मानते थे। वे शिक्षा की Single ऐसी राष्ट्रीय प्रणाली विकसित होते देखना चाहते थे जिसमें प्रारम्भिक और माध्यमिक विद्यालयों में शिक्षा नि:शुल्क हो। वे कहते थे ‘‘सब स्तर पर शिक्षा का ऐसा प्रबन्ध हो कि कोर्इ बच्चा निर्धन होने के कारण उससे वंचित न रह पाये।’’ उनका मानना था कि शिक्षा के व्यापक विस्तार से सामाजिक कुरीतियों और आर्थिक विषमताओं को दूर Reseller जा सकता है।

महामना पुरूषों की शिक्षा से अधिक महत्वपूर्ण स्त्रियों की शिक्षा को मानते थे। इसका कारण यह है कि वे ही देश की भावी संतान की मातांए हैं। उनकी इच्छा थी कि राष्ट्रीय कार्यक्रम के आधार पर स्त्रियों को इस तरह शिक्षित Reseller जाये कि उनमें प्राचीन तथा आधुनिक संस्कृतियों के बेहतर पक्षों का समन्वय हो। वे नारियों को इतना सबल बनाना चाहते थे कि वे भारत के पुनर्निमाण में वे महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकें।

शिक्षा का उद्देश्य 

महामना को शिक्षा में वह शक्ति दिखती थी जो व्यक्ति, समाज और राष्ट्र तीनों के विकास के लिए आवश्यक है। इसके लिए उन्होंने शिक्षा के व्यापक उद्देश्य निर्धारित किए।

  1. व्यक्तित्व का सर्वागींण विकास- महामना शिक्षा के द्वारा सम्पूर्ण व्यक्तित्व का विकास चाहते थे। केवल बौद्धिक विकास को वे Meansहीन मानते थे। विद्याथ्री के बौद्धिक, शारीरिक, मानसिक And भावात्मक पक्षों के समन्वित विकास को महामना ने शिक्षा का परम लक्ष्य माना।
  2. शारीरिक विकास- महामना का मानना था कि दुर्बल शरीर वाले व्यक्ति सबल राष्ट्र का निर्माण नहीं कर सकते। उनके According शिक्षा व्यवस्था का Single महत्वपूर्ण उद्देश्य शारीरिक विकास है। ‘मेरा बचपन’ नामक लेख में महामना ने लिखा ‘‘स्वास्थ्य के तीन खम्भे हैं- आहार, शयन और ब्रह्मचर्य। तीनों की युक्तिपूर्वक सेवन करने से स्वास्थ्य अच्छा रहेगा।’’ वे चाहते थे कि प्रत्येक विद्याथ्री पच्चीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करे तथा प्रतिदिन नियम से व्यायाम करे। उनका मानना था कि ब्रह्मचर्य ही व्यक्ति को आत्मबल देता है, जिसके द्वारा व्यक्ति संसार में सब कष्टों और कठिनार्इयों का साहस के साथ सामना कर सकता है।
  3. चरित्र गठन हेतु शिक्षा- महामना की दृष्टि में चरित्र गठन शिक्षा का सर्वप्रमुख उद्देश्य है। विनम्रता विहीन ज्ञान, उनकी दृष्टि में निरर्थक है। वे व्यक्ति के उत्कर्ष और राष्ट्र की उन्नति के लिए उज्ज्वल चरित्र को बौद्धिक तथा व्यवसायिक विकास से कहीं अधिक महत्वपूर्ण मानते थे। उनके According सदाचार मनुष्य का परमधर्म है, उसका पालन मनुष्य का पुनीत कर्तव्य तथा उसकी वृद्धि उसका पुरूषार्थ है।
  4. राष्ट्रीयता की भावना का विकास- महामना मालवीय ने शिक्षा के Single महत्वपूर्ण उद्देश्य राष्ट्रभक्ति की भावना का विकास बताया। उनके According शिक्षित व्यक्ति को राष्ट्र के प्रति नि:स्वार्थ भक्ति भाव रखना चाहिए। उन्होंने कहा ‘‘यह भारत हमारा देश है। All बातों के विचार से इसके समान संसार में कोर्इ दूसरा देश नहीं है। हमको इस बात के लिए कृतज्ञ और गौरवान्वित होना चाहिए कि उस कृपालु परमेश्वर ने हमें इस पवित्र देश में पैदा Reseller।’’ महामना ने Indian Customer राष्ट्रीयता का आधार ‘हिन्दुत्व’ माना। अत: वे हिन्दुत्व पर आधारित राष्ट्रभक्ति की शिक्षा का उद्देश्य बनाना चाहते थे। यहाँ यह तथ्य Historyनीय है कि महामना की ‘हिन्दू’ की धारणा बड़ी व्यापक थी। भारत के All निवासियों को वे हिन्दू मानते थे। वस्तुत: हिन्दुत्व को वे Single श्रेष्ठ जीवन शैली के Reseller में देखते थे। वे हिन्दुत्व पर आधारित Indian Customer संस्कृति का हर तरह से विकास करना चाहते थे।
  5. सेवा भावना का विकास- महामना की दृष्टि में सेवा से बड़ा कोर्इ धर्म नहीं है। वे All जीवों में र्इश्वर का अंश देखते थे। उनका मानना था कि पीड़ित, वंचित, दुखी व्यक्ति की सेवा वस्तुत: ब्रह्म प्राप्ति का सबसे उपयुक्त साधन है। वे विद्याथ्री में सेवा And सदाचार का भाव प्रारम्भ से ही विकसित करना चाहते थे। इस प्रकार महामना मदन मोहन मालवीय ने शिक्षा का अत्यन्त ही विस्तृत उद्देश्य रखा। वे शिक्षा द्वारा राष्ट्रभक्त, सदाचारी, चरित्रवान, स्वावलम्बी Indian Customer नागरिक का निर्माण करना चाहते थे।

पाठ्यक्रम 

पाठ्यक्रम का निर्माण शैक्षिक आदर्शों और उद्देश्यों की पूर्ति के लिए Reseller जाता है। पाठ्यक्रम से ही इस तथ्य का निर्धारण होता है कि किस स्तर पर किस चीज की शिक्षा देनी है। पाठ्यक्रम कोर्इ निर्धारित वस्तु नही है जो हर समय हर स्थान पर Single जैसी रहे। हर समाज और देश अपनी Needनुसार पाठ्यक्रम निर्धारित करता है। Meansात् देश, काल और परिस्थिति के According पाठ्यक्रम का निर्माण होता है और नर्इ परिस्थितियों में पाठ्यक्रम में संशोधन और परिमार्जन होता रहता है।

महामना ने यह महसूस Reseller कि संकुचित पाठ्यक्रम द्वारा राष्ट्रीय उद्देश्यों को प्राप्त नहीं Reseller जा सकता है। अत: उन्होंने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में अत्यन्त ही लचीले पाठ्यक्रम को अपनाया। महामना ने अपने विश्वविद्यालय में प्राचीन से लेकर अर्वाचीन- All उपयोगी विषयों को स्थान देने का प्रयास Reseller। महामना देश के विकास हेतु विज्ञान की शिक्षा आवश्यक मानते थे, अत: उन्होंने आधुनिक विज्ञान की शिक्षा पर जोर दिया।

व्यक्ति आत्मनिर्भर बने अत: बुनार्इ, रंगार्इ, धुलार्इ, धातुकर्म, काष्ठ-कला, मीनाकारी आदि की शिक्षा पर मालवीय ने बल दिया। भारत Single कृषि प्रधान देश है अत: महामना ने इस ओर विशेष ध्यान देते हुए कृषि के आधुनिकतम उपकरणों के प्रयोग की शिक्षा की उच्चतम व्यवस्था की। वे चाहते थे कि माध् यमिक स्तर पर कृषि सम्बन्धी शिक्षा दी जाये तथा उच्च स्तर पर भी इस विषय में अनुसन्धान किये जाये।

इसके साथ-साथ महामना ने चिकित्सा विज्ञान, आयुर्वेद, नक्षत्र विज्ञान, भाषा आदि All की शिक्षा पर जोर दिया जिससे विद्याथ्री अपनी रूचि के According शिक्षा प्राप्त कर सके। महामना ने वस्तुत: बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय को प्राचीन And नवीन ज्ञान का संगम स्थल बना दिया। प्राचीन Indian Customer आयुर्वेद के साथ आधुनिक शल्यशास्त्र का मेल, आयुर्वेदिक औषधियों का वैज्ञानिक परीक्षण तथा उन पर अनुसन्धान, विभिन्न विषयों पर प्राच्य और पाश्चात्य ज्ञान का तुलनात्मक और समन्वयात्मक अध्ययन, प्राचीन Indian Customer संस्कृति, दर्शनशास्त्र, साहित्य और History के गम्भीर अध्ययन-अध्यापन, वेद-वेदांग तथा संस्कृत साहित्य की शिक्षा के अतिरिक्त आधुनिक ज्ञान-विज्ञान, धातु विज्ञान, खनन कार्य, इंजीनियरिंग तथा कृषि विज्ञान का अध्ययन इसकी विशेषता थी।

महामना मालवीय चाहते थे कि विद्यालय में संगीत, काव्य, नाट्यकला, चित्रकला, मूर्तिकला, वास्तुकला आदि ललितकलाओं की शिक्षा का प्रबन्ध हो। उनके विचार में कला विहीन जीवन शुष्क और नीरस होता है, जबकि ललितकलाओं का ज्ञान उनको परखने की क्षमता तथा शुद्ध भावनाओं के साथ उनके प्रति अभिरूचि और उनका सम्यक अभ्यास जीवन को सरस और आनन्दमय बनाता है।

महामना के According धार्मिक शिक्षा ही चरित्र निर्माण का आधार है। अत: वे शिक्षा में धर्म को उचित स्थान देना चाहते थे। पर धर्म का उनका संप्रत्यय अत्यन्त ही उदार था। वे धार्मिक असहिष्णुता के विरूद्ध थे। जिस धर्म की शिक्षा वे देना चाहते थे उसके संदर्भ में वे कहते हैं ‘‘धर्म यह है कि प्राणी को प्राणी के साथ सहानुभूति हो, Single-Second को अच्छी अवस्था में रखकर प्रसन्न हों और गिरी हुर्इ अवस्था में सहायता दें।’’

अध्यापकों And छात्रों के कर्तव्य 

वे विश्वविद्यालय के माध्यम से काशी को सरस्वती की अमरावती बना देने का पावन उद्देश्य रखते थे। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उन्होंने अध्यापकों के कर्तव्य बताये-

  1. धर्म और शास्त्र का पालन करेंगे।
  2. सदाचारी रहेंगे 
  3. देश सेवा के कार्यों में रत रहेंगे। 
  4. विद्याथ्री के सर्वांगिण विकास हेतु हर संभव प्रयास करेंगे। 

छात्रों को कार्यों हेतु निर्देश दिये गये-

  1. व्यायाम करके शरीर को बलशाली बनायें।
  2. First स्वास्थ्य सुधारें फिर विद्या पढ़ें। 
  3. शाम को खेलें, मैदान में विचरें। 
  4. जल्दी भोजन करें और नियम से नित्य अध्ययन करें।
  5. धार्मिक उत्सवों, Singleादशी कथा तथा गीता प्रवचनों आदि में उपस्थित रहें। 
  6. अपनी रक्षा आप करें। 
  7. समय के पाबन्द बनें और इसे Destroy न करें। 

महामना अध्यापकों में उच्च चरित्र देखना चाहते थे ताकि छात्र उनसे प्रेरणा ग्रहण कर स्वंय चरित्रवान, सदाचारी और समाजसेवी बन सके। इसी उद्देश्य से विश्वविद्यालय को आवासीय बनाया गया।

इस प्रकार महामना अध्यापक And विद्याथ्री दोनों से ही उत्तम चरित्र और श्रेष्ठ व्यवहार की आशा रखते थे।

महामना द्वारा स्थापित शैक्षिक संस्थायें 

महामना मदन मोहन मालवीय शिक्षा को राष्ट्र की उन्नति का अमोघ अस्त्र मानते थे। अत: उन्होंने शैक्षिक संस्थाओं की स्थापना अपने जीवन का महत्वपूर्ण लक्ष्य बनाया। इसके लिए वे किसी से भी दान लेने में संकोच नही करते थे, पर दान के धन को शैक्षिक संस्थाओं की स्थापना और विकास पर ही लगाते थे, व्यक्तिगत कार्यों हेतु नहीं। उन्होंने निम्नलिखित प्रमुख शैक्षिक संस्थाओं का निर्माण कराया-

हिन्दू बोर्डिंग हाउस 

महामना उचित शिक्षा हेतु छात्रावास के महत्व को समझते थे। अत: उन्होंने 1901 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के म्योर सेन्ट्रल कॉलेज के लिए 230 कमरों का Single विशाल छात्रावास का निर्माण कराया। यह छात्रावास 1903 में बनकर तैयार हुआ। इसके निर्माण में ढ़ार्इ लाख से अधिक Resellerये खर्च हुए थे, जिसमें Single लाख Resellerये की राशि उन्हें प्रान्तीय सरकार से मिली थी, शेष राशि उन्होंने चन्दा से इकट्ठा Reseller। प्रारम्भ में इस छात्रावास का नाम ‘मैकडोनल हिन्दू बोर्डिंग हाउस’ रखा गया पर महामना के देहावसान के उपरांत इसका नाम बदलकर मालवीय हिन्दू बोर्डिंग हाउस कर दिया गया।

गौरी पाठशाला 

महामना सारे समाज की उन्नति के लिए नारी शिक्षा को आवश्यक मानते थे। वे देश सेवा के लिए नारी को भी उतना ही महत्वपूर्ण मानते थे जितना पुरूष को। वे तेजस्वी और सुशील मातांए चाहते थे।

महामना छात्राओं के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य और चरित्र गठन पर पढ़ार्इ से कम जोर नहीं देते थे। वे कहते थे ‘‘वही (चरित्र) तो स्त्री-शिक्षा का पावन स्रोत है। स्रोत कलुषित होने से शिक्षा विकृत होकर हानि पहुँचाती है।’’ सन् 1904 में मालवीय जी ने राजर्षि पुरूषोत्तम दास टंडन और बालकृष्ण भट्ट के सहयोग से गौरी पाठशाला की स्थापना की। यह आजकल उच्चतर माध्यमिक महाविद्यालय हो गया है। इसमें Single हजार से भी अधिक लड़Resellerँ पढ़ती हैं।

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय 

अपने सपनों And उद्देश्यों को साकार Reseller देने के लिए तथा शिक्षा के व्यापक प्रचार-प्रसार के लिए महामना ने काशी में हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की। 1 अक्टूबर, 1915 को बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी Single्ट पास हुआ और 4 फरवरी, 1916 को भारत के वायसराय लार्ड हार्डिंग ने इसका शिलान्यास Reseller।

यह विश्वविद्यालय अपने में कर्इ महत्वपूर्ण विशेषतायें समाहित किये हुये है। अंग्रेजी साहित्य तथा आधुनिक Humanिकी और विज्ञान के साथ-साथ हिन्दू धर्म And विज्ञान, Indian Customer History And संस्कृति And विभिन्न प्राच्य विधाओं का अध्ययन इस विश्वविद्यालय की विशेषता है।

कला संकाय में विभिन्न विषयों के पाठ्यक्रम में आधुनिक पाश्चात्य विद्वानों के साथ ही साथ प्राचीन Indian Customer विद्वानों के विचारों और सिद्धान्तों का ज्ञान भी शामिल था। दर्शनशास्त्र के विद्यार्थियों को कांट और हीगल के साथ अनिवार्यत: कपिल और शंकर के सिद्धान्तों का भी अध्ययन करना होता था। राजनीति के विद्यार्थियों को Indian Customer राजनीतिक विचारों और संस्थाओं का अध्ययन करना होता था।

महामना स्वतंत्र विचारों के निभ्र्ाीक व्यक्ति थे। उनके योग्य संरक्षण में विश्वविद्यालय के राजनीतिशास्त्र विभाग में स्वतंत्रता प्राप्ति के डेढ़ दशक पूर्व ही Indian Customer राष्ट्रीय आन्दोलन का History, आधुनिक Indian Customer सामाजिक और राजनीतिक विचार तथा समाजवादी सिद्धान्तों का History आदि विषयों का अध्यापन स्वतंत्रता के वातावरण में, पूरी निष्ठा के साथ Reseller जाता था। Second विश्वविद्यालयों के लिए यह अकल्पनीय बात थी।

महामना आर्थिक विकास में आधुनिक विज्ञान और तकनीक की भूमिका से भली भाँति परिचित थे। धन की कमी होने के बावजूद महामना ने विश्वविद्यालय में धातु विज्ञान, खनन विज्ञान, भू विज्ञान, विद्युत इंजीनियरिंग, यांत्रिक इंजीनियरिंग, रसायन विज्ञान, शिल्प, औषधि निर्माण, चिकित्सा की शिक्षा आदि की समुचित व्यवस्था करायी।

विश्वविद्यालय का निरन्तर विकास हो रहा है। इसके तीन संस्थान- इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज और इंस्टीट्यूट ऑफ एग्रीकल्चर साइंसेज काफी प्रसिद्ध है। विश्वविद्यालय में वर्त्तमान में Fourteen संकाय और सौ से भी अधिक विभाग है। मुख्य परिसर से लगभग साठ किलोमीटर दूर मिर्जापुर के समीप Single नवीन परिसर, ‘राजीव गाँधी परिसर’ ने काम करना प्रारम्भ कर दिया है। भय यह है कि विकास की इस रफ्तार में कहीं काशी हिन्दू विश्वविद्यालय महामना के उद्देश्यों को विस्मश्त न कर बैठे।

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