भाषा की परिभाषा, प्रकृति, महत्व And विशेषताएँ

किसी वस्तु या Word की पूर्ण स्पष्ट तथा वैज्ञानिक परिभाषा करना अत्यंत दुष्कर कार्य है। न्यायशास्त्र में आदर्श परिभाषा की अव्याप्ति, अतिव्याप्ति और असंभव दोषों से मुक्त होना आवश्यक कहा गया है। इन्हीं तथ्यों को ध्यान में रखकर समय-समय पर भाषा की परिभाषा की गई है।

भाषा की परिभाषा

भाषा की परिभाषा – भाषा Word संस्कृत की भाष् धातु से निर्मित है। इसका शाब्दिक Means है-व्यस्त वाणी Meansात् बोलना या कहना। भाषा की परिभाषा इस प्रकार दी गई है-

संस्कृत आचार्यों की परिभाषाएँ

महर्षि पतंजलि ने पाणिनि की अष्टाध्यायी के महाभाष्य में भाषा की परिभाषा इस प्रकार दी गई है-

व्यक्ता वाचि वर्णा येषां त इमे व्यक्तवाच:।

भतरृहरि ने Word उत्पत्ति और ग्रहण के आधार पर भाषा को परिभाषित Reseller है-

Word कारणमर्थस्य स हि तेनोपजन्यते।

तथा च बुद्धिविषयादर्थाच्छब्द: प्रतीयते।

बुद्धयर्थादेव बुद्धयर्थे जाते तदानि दृश्यते।

अमर कोष में भाषा की वाणी का पर्याय बताते हुए कहा गया है-

ब्राह्मी तु भारती भाषा गीर् वाक वाणी सरस्वती।

आधुनिक Indian Customer वैयाकरणों, भाषाविदों की परिभाषाएँ

आधुनिक युग में भाषा की परिभाषा पर कुछ नए ढंग से विचार करने के प्रयत्न किए गए हैं। इस संदर्भ की कुछ परिभाषाएँ इस प्रकार हैं-

  1. कामताप्रसाद गुरु ने अपनी पुस्तक हिंदी-व्याकरण’ में भाषा की परिभाषा इस प्रकार दी है-भाषा वह साधन है जिसके द्वारा मनुष्य अपने विचार दूसरों पर भली-भांति प्रकट कर सकता है और दूसरों के विचार आप स्पष्टतया समझ सकते हैं।
  2. दुनीचंद ने हिंदी-व्याकरण’ में भाषा की परिभाषा को इस प्रकार लिपिबद्ध Reseller है-हम अपने मन के भाव प्रकट करने के लिए जिन सांकेतिक ध्वनियों का उच्चारण करते हैं, उन्हें भाषा कहते हैं।
  3. आचार्य किशोरीदास के According विभिन्न Meansों में सांकेतिक Word-समूह ही भाषा है जिसके द्वारा हम अपने विचार या मनोभाव दूसरों के प्रति बहुत सरलता से प्रकट करते हैं।
  4. डॉ. राम बाबू सक्सेना के मतानुसार-जिन ध्वनि-चिन्हों द्वारा मनुष्य परस्पर विचार-विनिमय करता है, उसे भाषा कहते हैं।
  5. श्यामसुन्दर दास ने ‘भाषा-विज्ञान’ में भाषा के विषय में लिखा है-मनुष्य और मनुष्य के बीच वस्तुओं के विषय में अपनी इच्छा और मति का आदान-प्रदान करने के लिए व्यक्त ध्वनि-संकेतों का जो व्यवहार होता है, उसे भाषा कहते हैं।
  6. डॉ. भोलानाथ ने भाषा को परिभाषित करते हुए ‘भाषा-विज्ञान’ में लिखा है-भाषा उच्चारण अवयवों से उच्चारित मूलत: प्राय: यादृच्छिक ध्वनि-प्रतीकों की वह व्यवस्था है, जिसके द्वारा किसी भाषा समाज के लोग आपस में विचारों का आदान-प्रदान करते हैं।
  7. आचार्य देवेन्द्रनाथ शर्मा ने ‘भाषा-विज्ञान की भूमिका’ में लिखा-उच्चारित ध्वनि-संकेतों की सहायता से भाव या विचार की पूर्ण अभिव्यक्ति भाषा है।
  8. डॉ. सरयूप्रसाद के According-भाषा वाणी द्वारा व्यक्त स्वच्छंद प्रतीकों की वह रीतिबद्ध पद्धति है, जिससे Human समाज में अपने भावों का परस्पर आदान-प्रदान करते हुए Single-Second को सहयोग देता है।
  9. डॉ. देवीशंकर के मतानुसार-भाषा यादृच्छिक वाक्यप्रतीकों की वह व्यवस्था के, जिसके माध्यम से Human समुदाय परस्पर व्यवहार करता है।

पाश्चात्य विद्वानों की परिभाषाएँ

पाश्चात्य विद्वानों ने भी भाषा को परिभाषित करने का प्रयत्न Reseller है। कुछ प्रमुख भाषा की परिभाषा इस प्रकार हैं-

  1. प्लेटो ने विचार को भाषा का मूलाधार मानते हुए कहा है-विचार आत्मा की मूक बातचीत है, पर वही जब ध्वन्यात्मक होकर होंठों पर प्रकट है, तो उसे भाषा की संज्ञा देते हैं।
  2. मैक्समूलर के According-भाषा और कुछ नहीं है, केवल Human की चतुर बुद्धि द्वारा आविष्कृत ऐसा उपाय है जिसकी मदद से हम अपने विचार सरलता और तत्परता से दूसरों पर प्रकट कर सकते हैं और चाहते हैं, कि इसकी व्याख्या प्रकृति की उपज के Reseller में नहीं बल्कि मनुष्यकृत पदार्थ के Reseller में करना उचित है।
  3. ब्लाक और ट्रेगर के Wordों में “A language is a system of arbitrary vocal symbols by means of which a social group co-operates” Meansात् भाषा, मुखोच्चरित यादृच्छिक ध्वनि-प्रतीकों की वह व्यवस्था है, जिसके माध्यम से Single समुदाय के सदस्य परस्पर विचार विनिमय करते हैं।
  4. हेनरी स्वीट का कथन है-“Language may be defined as expression of thought by means of speech-sound.” Meansात् जिन व्यक्त ध्वनियों द्वारा विचारों की अभिव्यक्ति होती है, उसे भाषा कहते हैं।
  5. ए. एच. गार्डियर का मंतव्य है-“The common definition of speech is the use of articulate sound symbols for the expression of thought.” Meansात् विचारों की अभिव्यक्ति के लिए जिन व्यक्त And स्पष्ट ध्वनि-संकेतों का व्यवहार Reseller जाता है, उनके समूह को भाषा कहते हैं।

भाषा की प्रकृति (विशेषताएँ)

भाषा के सहज गुण-धर्म को भाषा की प्रकृति कहते हैं। इसे ही भाषा की विशेषता या लक्षण कह सकते हैं। भाषा-प्रकृति को दो भागों में विभक्त कर सकते हैं। भाषा की First प्रकृति वह है जो All भाषाओं के लिए मान्य होती है इसे भाषा की सर्वमान्य प्रकृति कह सकते हैं। द्वितीय प्रकृति वह है जो भाषा विशेष में पाई जाती है। इससे Single भाषा से दूसरी भाषा की भिन्नता स्पष्ट होती है। हम इसे विशिष्ट भाषागत प्रकृति कह सकते हैं। यहाँ मुख्यत: ऐसी प्रकृति के विषय में विचार Reseller जा रहा है, जो विश्व की समस्त भाषाओं में पाई जाती है-

1. भाषा सामाजिक संपत्ति है- सामाजिक व्यवहार, भाषा का मुख्य उद्देश्य है। हम भाषा के सहारे अकेले में सोचते या चिंतन करते हैं, किंतु वह भाषा इस सामान्य यादृच्छिक ध्वनि-प्रतीकों पर आधरित भाषा से भिन्न होती है। भाषा आद्योपांत सामज से संबंध्ति होती है। भाषा का विकास और अर्जन समाज में होता है और उसका प्रयोग भी समाज में ही होता हैं यह तथ्य द्रष्टव्य है कि जो बच्चा जिस समाज में पैदा होता तथा पलता है, वह उसी समाज की भाषा सीखता है।

2. भाषा पैतृक संपत्ति नहीं है- कुछ लोगों का कथन है कि पुत्र की पैतृक संपत्ति (घर, धन, बाग आदि) के समान भाषा की भी प्रापित होती है। अत: उनके According भाषा पैतृक संपत्ति है, किंतु यह सत्य नहीं हैं यदि किसी Indian Customer बच्चे को Single-दो वर्ष की अवस्था (शिशु-काल) मं किसी विदेशी भाषा-भाषी के लोगों के साथ कर दिया जाए, तो वह उनकी ही भाषा बोलेगा। इसी प्रकार यदि विदेशी भाषा-भाषी परिवार के शिशु का हिंदी भाषी परिवार में पालन-पोषण करें, तो वह सहज Reseller में हिंदी भाषा ही सीखेगा और बोलेगा। यदि भाष पैतृक संपत्ति होती, तो वह बालक बोलने के यौग्य होने पर अपने माता-पिता की ही भाषा बोलता, किंतु ऐसा नहीं होता है।

3. भाषा व्यक्तिगत संपत्ति नहीं है- भाषा सामाजिक संपत्ति है। भाषा का निर्माण भी समाज के द्वारा होता है। कोई भी साहित्यकार या भाषा-प्रेमी भाषा में Single Word को जोड़ या उसमें से Single Word को भी घटा नहीं सकता है। इससे स्पष्ट होता है कि कोई साहित्यकार या भाषा-प्रेमी भाषा का निर्माता नहीं हो सकता है। भाषा में होने वाला परिवर्तन व्यक्तिकृत न होकर समाजकृत होता है।

4. भाषा अर्जित संपत्ति है- भाषा परंपरा से प्राप्त संपत्ति है, किंतु यह पैतृक संपत्ति की भाँति नहीं प्राप्त होती है। मनुष्य को भाषा सीखने के लिए प्रयास करना पड़ता है। प्रयास के अभाव में विदेशी और अपने देश की भाषा नहीं, मातृभाषा का भी ज्ञान असंभव है। भाषा-ज्ञानार्जन का सतत प्रयास उसमें गंभीरता और परिपक्वता लाता है। निश्चय ही भाषा-ज्ञान प्रयत्नज है ओर भाषा ज्ञान प्रयत्न की दिशा और गति के According शिथिल अथवा व्यवस्थित होता है। मनुष्य अपनी मातृभाषा के समान प्रयत्न कर अन्य भाषाओं को भी प्रयोगार्थ सीखता है। इससे स्पष्ट होता है, भाषा अर्जित संपत्ति है।

5. भाषा व्यवहार-अनुकरण द्वारा अर्जित की जाती है- शिशु बौद्धिक विकास के साथ अपने आस-पास के लोगों की ध्वनियों के अनुकरण के आधार पर उन्हीं के समान प्रयोग करने का प्रयत्न करता है। प्रारंभ में वह प, अ, ब आदि ध्वनियों का अनुकरण करता है, पिफर सामान्य Wordों को अपना लेता हैं यह अनुकरण तभी संभव होता है जब उसे सीखने योग्य व्यावहारिक वातावरण प्राप्त हो। वैसे व्याकरण, कोश आदि से भी भाषा सीखी जा सकती है, किंतु व्यावहारिक आधार पर सीखी गई भाषा इनकी आधार भूमि हैं। यदि किसी शिशु को निर्जन स्थान पर छोड़ दिय जाए, तो वह बोल भी नहीं पाएगा, क्योंकि व्यवहार के अीााव में उसे भाषा का ज्ञान नहीं हो पाएगा। हिंदी-व्यवहार के क्षेत्र में पलने वाला शिशु यदि अनुकरण आधार पर हिंदी सीखता है, तो पंजाबी-व्यवहार के क्षेत्र का शिशु पंजाबी ही सीखता है।

6. भाषा सामाजिक स्तर पर आधरित होती है- भाषा का सामाजिक स्तर पर भेद हो जाता है। विस्तृत क्षेत्र में प्रयुक्त किसी भी भाषा की आपसी भिन्नता देख सकते हैं। सामान्य Reseller में All हिंदी भाषा-भाषी हिंदी का ही प्रयोग करते हैं, किंतु विभिन्न क्षेत्रों की हिंदी में पर्याप्त भिन्नता है। यह भिन्नता उनकी शैक्षिक, आर्थिक, व्यावसायिक तथा सामाजिक आदि स्तरों के कारण होती है। भाषा के प्रत्येक क्षेत्र की अपनी Wordावली होती है, जिसके कारण भिन्नता दिखाई पड़ती है। शिक्षित व्यक्ति जितना सतर्क रहकर भाषा का प्रयोग करता है, सामान्य अािवा अशिक्षित व्यक्ति उतनी सतर्कता से भाषा का प्रयोग नहीं कर सकता है। यह स्तरीय तथ्य किसी भी भाषा के विभिन्न कालों के भाषा-प्रयोग से भी अनुभव कर सकते हैं। गाँव की भाषा शिथिल व्याकरणसम्मत होती है, तो शहर की भाषा का व्याकरणसम्मत होना स्वाभाविक है।

7. भाषा सर्वव्यापक है- यह सर्वमान्य है कि विश्व के समस्त कार्यों का संपादक प्रत्यक्ष या परोक्ष Reseller से भाषा के ही माध्यम से होता है। समस्त ज्ञान भाषा पर आधरित हैं वयक्ति-व्यक्ति का संबंध या व्यक्ति-समाज का संबंध भाषा के अभाव में अंतर है। भतर्ृहरि ने वाक्यपदीय में इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए कहा है-

न सोक्ष्स्ति प्रत्ययो लोके य: Wordानुगमादृते।

अनुबिद्धमिव ज्ञानं सर्वं Wordेन भासते। (वाक्यपदीय 123-24)

मनुष्य के मनन, चिंतन तथा भावाभिव्यक्ति का मूल माध्यम भाषा है, यह भी भाषा की सर्वव्यापकता का प्रबल प्रमाण है।

8. भाषा सतत प्रवाहमयी है- मनुष्य के साथ भाषा सतत गतिशील रहती है। भाषा की उपमा प्रवाहमान जलस्रोत नदी से दी जा सकती है, जो पर्वत से निकलकर समुद्र तक लगातार बढ़ती रहती है, अपने मार्ग में वह कहीं सूखती नहीं है। समाज के साथ भाषा का आरंभ हुआ और आज तक गतिशील है। Human समाज जब तक रहेगा तब तक भाषा का स्थायित्व पूर्ण निश्चित हैं किसी व्यक्ति या समाज के द्वारा भाषा में अल्पाध्कि परिवर्तन Reseller जा सकता है, किंतु उसे समाप्त करने की किसी में शक्ति नहीं होती है। भाषा की परिवर्तनशीलता को व्यक्ति या समाज द्वारा रोका नहीं जा सकता है।

9. भाषा संप्रेषण मूलत: वाचिक है- भाव-संप्रेषण सांकेतिक, आंगिक, लिखित और यांत्रिक आदि Resellerों में होता है, किंतु इनकी कुछ सीमाएँ हैं Meansात् इन All माध्यमों के द्वारा पूर्ण भावाभिव्यक्ति संभव नहीं है। स्पर्श तथा संकेत भाषा तो निश्चित Reseller से अपूर्ण है, साथ ही लिखित भाषा से भी पूर्ण भावाभिव्यक्ति संभव नहीं है। वाचिक भाषा में आरोह-अवरोह तथा विभिन्न भाव-भंगिमाओं के आधार पर सर्वाधिक सशक्त भावाभिव्यक्ति संभव होती है। इन्हीं विशेषताओं के कारण वाचिक भाषा को सजीव तथा लिखित आदि भाषाओं को सामान्य भाषा कहते हैं। वाचिक भाषा का प्रयोग सर्वाधिक Reseller में होता है। अनेक अनपढ़ व्यक्ति लिखित भाषा से अनभिज्ञ होते हैं, किंतु वाचिक भाषा का सहज, स्वाभाविक तथा आकर्षक प्रयोग करते हैं।

10. भाषा चिरपरिवर्तनशील है- संसार की All वस्तुओं के समान भाषा भी परिवर्तनशील है। किसी भी देश के Single काल की भाषा परवर्ती काल में पूर्ववत नहीं रह सकती, उसमें कुछ न कुछ परिवर्तन अवश्य हो जाता है। यह परिवर्तन अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण होता है। संस्कृत में ‘साहस’ Word का Means अनुचित या अनैतिक कार्य के लिए उत्साह दिखना था, तो हिंदी में यह Word अच्छे कार्य में उत्साह दिखाने के Means में प्रयुक्त होता है। भाषा अनुकरण के माध्यम से सीखी जाती है। मूल (वाचिक) भाषा का पूर्ण अनुकरण संभव नहीं है। इसके कारण हैं-अनुकरण की अपूर्णता, शारीरिक तथा मानसिक भिन्नता And भौगोलिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक परिस्थितियों की भिन्नता। इन्हीं आधारों पर भाषा प्रतिपल परिवर्तित होती रहती है।

11. भाषा का प्रारंभिक Reseller उच्चरित होता है– भाषा के दो Reseller मुख्य हैं- मौखिक तथा लिखित। इनमें भाषा का प्रारंभिक Reseller मौखिक है। लिपि का विकास तो भाषा के जन्म के पर्याप्त समय बाद हुआ है। लिखित भाषा में ध्वनियों का ही अंकन Reseller जाता है। इस प्रकार कह सकते हैं, कि ध्वन्यात्मक भाषा के अभाव में लिपि की कल्पना भी असंभव हैं उच्चरित भाषा के लिए लिपि आवश्यक माध्यम नहीं। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि आज भी ऐसे अनगिनत व्यक्ति मिल जाएँगे जो उच्चरित भाषा का सुंदर प्रयोग करते हैं, किंतु उन्हें लिपि का ज्ञान नहीं होता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि भाषा का प्रारंभिक Reseller उच्चरित या मौखिक है और उसका परवर्ती-विकसित Reseller लिखित है।

12. भाषा का आरंभ वाक्य से हुआ है- सामान्यत: भाव या विचार पूर्णता के द्योतक होते हैं। पूर्ण भाव की अभिव्यक्ति सार्थक, स्वतंत्र और पूर्ण सार्थक इकाई-वाक्य से ही संभव है। कभी-कभी तो Single Word से भी पूर्ण Means का बोध होता है यथा- ‘जाओ’, ‘आओ’ आदि। वास्तव में ये Word न होकर वाक्य के Single विशेष Reseller में प्रयुक्ति हैं। ऐसे वाक्यां में वाक्यांश छिपा होता है। यहाँ पर वाक्य का उद्देश्य-अंश ‘तुम’ छिपा है। श्रोता ऐसे वाक्यों को सुनकर प्रसंग-आधार पर व्याकरणिक ढंग से उसकी पूर्ति कर लेता है। श्रोता ऐसे वाक्यों को सुनकर प्रसंग-आधार पर व्याकरणिक ढंग से उसकी पूर्ति कर लेता है। इस प्रकार ये वाक्य बन जाते हैं- ‘तुम आओ।’ ‘तुम जाओ।’ बच्चा Single ध्वनि या वर्ण के माध्यम से भाव प्रकट करता है। बच्चे की ध्वनि भावात्मक दृष्टि से संबंध्ति होने के कारण Single सीमा में पूर्ण वाक्य के प्रतीक Reseller में होती है यथा-’प’ से भाव निकलता है- ‘मुझे प्यास लगी है या मुझे दूध दे दो या मुझे पानी दे दो।’ यहाँ ‘खग खने ख की भाषा’ का सिद्धांत अवश्य लागू होता है। जिसके हृदय में ममता और वात्सल्य का भाव होगा, वह ही बच्चे के ऐसे वाक्यों की Means-अभिव्यक्ति को ग्रहण कर सकेगा। प्रसंग के ज्ञान के बिना Means-ग्रहण संभव नहीं होता है।

13. भाषा मानकीकरण पर आधरित होती है- भाषा परिवर्तनशील है, यही कारण है कि प्रत्येक भाषा Single युग के पश्चात Second युग में पहुँचकर पर्याप्त भिन्न हो जाती है। इस प्रकार परिवर्तन के कारण भाषा में विविधता आ जाती है। यदि भाषा-परिवर्तन पर बिलकुल ही नियंत्रण न रखा जाए तो तीव्रगति के परिवर्तन के परिणामस्वReseller कुछ ही दिनों में भाषा का Reseller अबोध्य हो जाएगा। भाषा-परिवर्तन पूर्ण Reseller से रोका तो नहीं जा सकता, किंतु भाषा में बोधगम्यता बनाए रखने के लिए उसके परिवर्तनक्रम का स्थिरीकरण अवश्य संभव है। इस प्रकार की स्थिरता से भाषा का मानकीकरण हो जाता है।

14. भाषा संयोगावस्था से वियोगावस्था की ओर बढ़ती है- विभिन्न भाषाओं के प्राचीन, मध्ययुगीन तथा वर्तमान Resellerों के अध्ययन से यह तथ्य स्पष्ट होता है कि भाषा का प्रारंभिक Reseller संयोगावस्था में होता है। इसे संश्लेषावस्था भी कहते हैं। धीरे-धीरे इसमें परिवर्तन आता है और वियोगावस्था या विश्लेषावस्था आ जाती हैं भाषा की संयोगावस्था में वाक्य के विभिन्न अवयव आपस में मिले हुए लिखे-बोले जाते हैं। परवर्ती अवस्था में यह संयोगावस्था धीरे-धीरे शिथिल होती जाती है यथा-

रमेशस्य पुत्र: गृहं गच्छति।

रमेश का पुत्र घर जाता है।

‘रमेशस्य’ तथा ‘गच्छति’ संयोगावस्था में प्रयुक्त पद हैं। जबकि परवर्ती भाषा हिंदी में ‘रमेश का’ और ‘जाता है।’ वियोगावस्था में है।

15. भाषा का अंतिम Reseller नहीं है- वस्तु बनते-बनते Single अवस्था में पूर्ण हो जाती है, तो उसका अंतिम Reseller निश्चित हो जाता हैं भाषा के विषय में यह बात सत्य नहीं है। भाषा चिरपरिवर्तनशील हैं इसलिए किसीभी भाषा का अंतिम Reseller ढूँढ़ना निरर्थक है और उसका अंतिम Reseller प्राप्त कर पाना असंभव है। यहाँ यह भी ध्यातव्य है कि यह प्रकृति जीवित भाषा के संदर्भ में ही मिलती है।

16. भाषा का प्रवाह कठिन से सरलता की ओर होता है- विभिन्न भाषाओं के ऐतिहासिक अध्ययन के पश्चात यह स्पष्ट Reseller से कहा जा सकता है कि भाषा का प्रवाह कठिनता से सरलता की ओर होता है। मनुष्य स्वभावत: अल्प परिश्रम से अधिक कार्य करना चाहता है। इसी आधार पर Reseller गया प्रयत्न भाषा में सरलता का गुण भर देता है। उच्चरित भाषा में इस प्रकृति का उदाहरण द्रष्टव्य है-डॉक्टर साहब > डाक्टर साहब > डाक्ट साहब > डाक्ट साब > डाक साब > डाक्साब

17. भाषा नैसर्गिक क्रिया है- मातृभाषा सहज Reseller में अनुकरण के माध्यम से सीखी जाती है। अन्य भाषाएँ भी बौद्धिक प्रयत्न से सीखी जाती हैं। दोनों प्रकार की भाषाओं के सीखने में अंतर यह है कि मातृभाषा तब सीखी जाती है जब बुद्धि अविकसित होती है, Meansात् बुद्धि-विकास के साथ मातृभाषा सीखी जाती है। इससे ही इस संदर्भ में होने वाले परिश्रम का ज्ञान नहीं होता है। हम जब अन्य भाषा सीखते हैं, तो बुद्धि-विकसित होने के कारण श्रम-अनुभव होता है। किसी भाषा के सीख लेने के बाद उसका प्रयोग बिना किसी कठिनाई से Reseller जा सकता है। जिस प्रकार शारीरिक चेष्टाएँ स्वाभाविक Reseller से होती हैं, ठीक उसी प्रकार भाषा-विज्ञान के पश्चात उसका भी प्रयोग सहज-स्वाभाविक Reseller होता है।

18. भाषा की निश्चित सीमाएँ होती हैं- प्रत्येक भाषा की अपनी भौगोलिक सीमा होती है, Meansात् Single निश्चित दूरी तक Single भाषा का प्रयोग होता है। भाषा-प्रयाग के विषय में यह कहावत प्रचलित है- फ्चार कोस पर पानी बदले, आठ कोस पर बानी। Single भाषा से अन्य भाषा की भिन्नता कम या अध्कि हो सकती है, किंतु सीमा प्रारंभ हो जाती है यथा-असमी भाषा असम-सीमा में प्रयुक्त होती है, उसके बाद बंगला की सीमा शुरू हो जाती है। प्रत्येक भाषा की अपनी ऐतिहासिक सीमा होती है। Single निश्चित समय तक भाषा प्रयुक्त होती है, उससे पूर्ववर्ती तथा परवर्ती भाषा उससे भिन्न होती है। संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश तथा हिंदी के निश्चित प्रयोग-समय से यह तथ्य सुस्पष्ट हो जाता है।

भाषा का महत्व

भाषा मनोगत भाव प्रकट करने का सर्वोत्कृष्ट साधन है। यद्यपि आँख, सिर और हाथ आदि अंगों के संचालन से भी भाव प्रकट किए जा सकते हैं। किंतु भाषा जितनी शीघ्रता, सुगमता और स्पष्टता से भाव प्रकट करती हैं उतनी सरलता से अन्य साधन नहीं। यदि भाषा न होती तो मनुष्य, पशुओं से भी बदतर होताऋ क्योंकि पशु भी करुणा, क्रोध्, प्रम, भय आदि कुछ भाव अपने कान, पूँछ हिलाकर या गरजकर, भूँककर व्यक्त कर लेते हैं। भाषा के अविर्भाव से सारा Human संसार गूंगों की विराट बस्ती बनने से बच गया।

ईश्वर ने हमें वाणी दी और बुद्धि भी। हमने इन दोनों के उचित संयोग से भाषा का अविष्कार Reseller। भाषा ने भी बदले में हमें इस योग्य बनाया कि हम अपने मन की बात Single Second से कह सके। परंतु भाषा की उपयोगिता केवल कहने-सुनने तक ही सीमित नहीं हैं कहने सुनने के साथ-साथ यह भी आवश्यक है कि हम जो कुछ कहना चाहें वह सब ऐसे नपे-तुले Wordों में इस ढंग से कह सके कि सुनने वाला Wordों के सहारे हमारी बात ठीक-ठीक समझ जाए। ऐसा न हो कि हम कहें खेत की वह सुने खलिहान की। बोलने और समझने के अतिरिक्त भाषा का उपयोग पढ़ने और लिखने में भी होता है। कहने और समझन भाँति लिखने और पढ़ने में भी उपयुक्त Wordों के द्वारा भाव प्रकट करने उसे ठीक-ठीक पढ़कर समझने की Need होती है। अत: भाषा मनुष्य के लिए माध्यम है ठीक-ठीक बोलने, समझने, लिखने और पढ़ने का।

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