Indian Customer दर्शन का वर्गीकरण And परिचय

Indian Customer दर्शन का वर्गीकरण And परिचय

By Bandey

अनुक्रम

इसे दो वर्गो में विभाजित Reseller गया है।(अ) आस्तिक दर्शन (ब) नास्तिक दर्शनवेदों पर विश्वास करने वाला आस्तिक है। तथा वेदों की निंदा करने वाला नास्तिक है। धर्म का ज्ञान जिसको प्राप्त है। वह वेद है। आस्तिक दर्शन के अंतर्गत सामान्यत: छ: दर्शन आते है- 1. न्यायदर्शन, 2. वैशेषिकदर्शन, 3. सांख्यदर्शन, 4. योंगदर्शन, 5.मीमांसादर्शन, 6. वेदांतदर्शन। नास्तिक दर्शन के अंतर्गत तीन दर्शन आते है- 1. चार्वाकदर्शन, 2. जैनदर्शन, 3. बौद्धदर्शन।

आस्तिक दर्शन

आस्तिक दर्शन का क्रमबद्ध वर्णन है-


1. न्यायदर्शन-

न्याय Word की उत्पित्त संस्कृत की नी धातु से हुई है जिसका Means Wordों और वाक्यों का निश्चित अथोर्ं में बोध होता है।3 मनु के According जो तर्क का आश्रय लेता है, वही Indian Customer धर्म का स्वReseller समझता है, 4 अन्य कोई नहीं। न्याय-दर्शन का History लगभग 200 वषोर्ं का है। न्याय-दर्शन पुन: दो भागों में विभाजित है-(क1) प्राचीन न्यायदर्शन(ख1) नव्य-न्यायदर्शन। 1 नास्तिको वेद निदक:। मनुस्मृति – 2/11 2 विदन्त्यनेन धर्मं वेद:। अमरकोष टीका – 1/5/3 3 ‘नियमेन ईयते इति’। पाणिनीसूत्र – 3/3/37 4 आर्षं धर्मोपदेशं च वेदशात्रा•विरोधिना। यस्तर्केषानुसन्धत्त्ो स धर्मं वेद नेतर:।। मनुस्मृति – 12/6 15 प्राचीन न्याय जहाँ प्रमेय प्रधान है वहीं नव्य न्याय प्रमाण प्रधान है। प्राचीन न्याय की शैली जहॉं सरल है, आडम्बर विहिन है। नवीन-न्याय की शैली विवेचना प्रधान विस्तृत आडम्बर पूर्ण है। न्याय-दर्शन के विभिन्न आचार्य व उनकी Creationएँप्राचीन न्याय सूत्र शैली (पद्धति में निबद्ध है इनके रचियता निम्न है- महर्षि गौतम- प्राचीन न्याय का आदिम ग्रंथ द्वितीय शताब्दी में गौतम विरचित ‘न्याय-सूत्रम्’ है। डा. याकोबी ने न्याय-सूत्रों की Creation का काल तीसरी शताबदी माना है पं. विद्याभूषण छठी शताब्दी मानते है। ब्रह्माण्डपुराण के अध्याय 23 के According गौतम का जन्म स्थान मिथिला (बिहार) है। वात्स्यायन- महर्षि वात्स्यायन ने न्याय-सूत्रों के गूढ़ रहस्यों (Meansों) को समझने के लिए भाष्य का प्रणयन Reseller, जिसे ‘न्याय-भाष्य’ कहते है। इनका समय विक्रम वर्ष 300 ई. में माना गया है। श्री वाचस्पति मिश्र- बौद्ध विद्वानों की न्यायवार्तिकों पर प्रतिकूल आलोचनाओं से बचने के लिए वाचस्पति मिश्र ने सन् 840 में ‘न्यायवार्तिक-तात्त्पर्य टीका’ लिखी। उद्योतकार- इन्होने 625 ई. में न्याय-सूत्रों के वात्स्यायन भाष्य पर ‘न्याय वार्तिकम् लिखा। जयन्त भÍ- इनकी Only Creation ‘न्याय मंजरी’ हैं। यह न्यायसूत्रों पर Single प्रमेय बहुला कृति है इनका काल नवम शतक माना जाता है। भासर्वज्ञ- इनकी Creation ‘न्याय-सार’ है। रत्नकीर्ति ने ऊपोह-सिद्धि में इनके ग्रंथ को उद्धृत Reseller है। इनका समय 9 वी शताब्दी के अन्त में है। उदयनाचार्य- वाचस्पति मिश्र की आलोचना बौद्ध दार्शनिकों ने की। इन आलोचनाओं से न्याय-सिद्धांतों की रक्षा करने के लिए इन्होने ‘न्याय 16 वार्तिक तात्त्पर्य टीका-परिशुद्धि’ नामक ग्रंथ की Creation की। इनका समय 10 वी शताब्दी माना जाता है। प्राचीन सूत्र पद्धति से ग्रंथ न लिखकर स्वतंत्र Reseller से गं्रथों का निर्माण नव्य-न्याय परम्परा में Reseller गया। इनके निम्नलिखित रचयिता हैं- गंगेश उपाध्याय- इनकी Creation ‘तत्व चिंतामणि’ है। यह नव्य-न्याय का आधारभूत ग्रंथ है। वर्द्धमान- यह गंगेश के पुत्र थे। इन्होने उदयन के ग्रंथो पर ‘न्याय-कुसुमांजली प्रकाश’ तथा गंगेश के ग्रंथो पर ‘तत्त्व चिंतामणि’ तथा वल्लभाचार्य के न्याय-लीलावती पर ‘प्रकाश’ नामक टीका लिखी। रघुनाथ शिरोमणि- इनका प्रमुख ग्रंथ गंगेश के ‘तत्त्व-चिंतामणि’ पर दीधिति टीका है। इनका काल 16वीं शताब्दी माना गया है। मथुरानाथ- इनका समय भी 16वीं शताब्दी माना जाता है। इन्होने ‘तत्व चिंतामणि आलोक दीधिति’, ‘किरणावली प्रकाश’ And ‘न्याय-लीलावति प्रकाश’ पर रहस्य टीकाएँ लिखी। जगदीशभÍाचार्य- इनका समय 17वीं शताब्दी माना गया है। इनकी प्रमुख Creation ‘दीधिति की Single वृहत्त्ार व्याख्या है, जिसे ‘गादाधारी’ की नाम से जानते है। विश्वनाथ पंचानन- ‘न्याय सिद्धांत मुक्तावली’ कारिकावली’ इनकी Creationएँ है। न्यायसूत्र पाँच अध्यायों में विभक्त है, प्रत्येक अध्याय दो आन्हिकों में विभक्त है। इनमें षोड्श पदार्थों के लक्षणों को परिभाषित Reseller गया है।प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धांत, अवयव, तर्क, निर्णय, 17 वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति, निग्रह स्थान इन तत्वों को जान लेने से मोक्षकी प्राप्ति सुलभ हो जाती है। 1 इन षोड्श पदार्थो के लक्षण निम्न है। प्रमाण- प्रमा किसी भी वस्तु या पदार्थ के स्वReseller के ज्ञान को कहा जाता है प्रमा Meansात् जो वस्तु जिस Reseller में है, उसे उसी Reseller में समझना प्रमा है। प्रमा के करण Meansात् साधन को प्रमाण कहते है।2 प्रमाण चार प्रकार के होते है, प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और Word।  प्रत्यक्ष प्रमाण- इन्द्रियों और Means के सम्बन्ध से उत्पन्न हुआ जो अWord (नाममात्र से न कहा हुआ), अव्यभिचारी (न बदलने वाला) और निश्चयात्मक हो वह प्रत्यक्ष प्रमाण कहलाता है।3  अनुमान प्रमाण- लक्षण को देखकर जिस किसी वस्तु का ज्ञान होता है उसे अनुमान प्रमाण कहते है। यह प्रमाण तीन प्रकार का होता है- पूर्ववत्, शेषवत्, सामान्यतोदृष्ट।4  उपमान प्रमाण- किसी पदार्थ में प्रसिद्ध पदार्थ के लक्षण हो और उसकी पहचान उस पदार्थ का नाम लेकर कह देने मात्र से हो जाय उपमान प्रमाण कहा जायेगा।5 1 प्रमााणप्रमेयसंशयप्रयोजनदृष्टान्तसिद्धान्ताव्यवतर्कनिर्णयवाद्जल्पवितण्डाहेत्वाभासछलजाति निग्रहस्थानानां तत्त्वज्ञानान्निश्रेयसाधिगम:। न्यायदर्शन – 1/1/1 पं. श्री राम शर्मा 2 प्रमाता येनार्थं प्रमिणोति तत्त्प्रमाणमिति। न्यायभाष्य – 1/1/1 3 प्रत्यक्षानुमानोपमानWordा: प्रमाणानि। न्यायदर्शन – 1/1/3, पं. श्री राम शर्मा 4 इंद्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेश्यमव्यभिचारि व्यवसायात्त्मक प्रत्यक्षम्। न्यायसूत्र – 1/1/4 5 अथ तत्पूर्वकं त्रिविधमनुमानं पूर्वच्छेषसामान्यतो दृष्टद्य। न्यायदर्शन – 1/1/5 पं. श्री राम शर्मा 18  आप्त प्रमाण- आप्त जनों के उपदेश को Word प्रमाण कहते है। 1 वह दो प्रकार का है- दृष्ट व अदृष्ट।2 प्रमेय-भार को मापने के साधन Reseller तराजू को तुला कहते है अैर परिमाण ज्ञान के विषय Meansात् भार Reseller सोना, चांॅदी आदि द्रव्य को प्रमेय कहते है।3 संशय- Single ही वस्तु में समान धर्म के प्रत्यक्ष होने और उसके विशेष धर्म अप्रत्यक्ष रहने से उसी वस्तु में दो परस्पर विरोधी भावों का उत्पन्न होना संशय या भ्रम हैं।4 प्रयोजन-ग्रहण और त्याग Reseller प्रवृित्त्ा को उत्पन्न करने वाली इच्छा ही Means अधिकार है। क्योंकि उस Means अधिकार के द्वारा ही हानि या लाभ की प्राप्ती कराने से संबन्धित विषय में प्रवृित्त्ा उत्पन्न होती है इसे ही प्रयोजन कहते है।5 दृष्टान्त-सांसारिक तथा परीक्षक दोनों प्रकार के मनुष्य की बुद्धि जिस विषय में समान हो उसे दृष्टान्त समझना चाहिए।6 सिद्धान्त-प्रमाण से सिद्ध हुआ निर्णय सिद्धांत है। यह तीन प्रकार के है-तंत्र, अधिकरण, अभ्युपगम।7 1 प्रसिद्धसाधम्र्यात्साध्यसाधनमुपमानम्। न्यायदर्शन – 1/1/6 पं. श्री राम शर्मा 2 आप्तोपदेश: Word:। न्यायदर्शन – 1/1/7, पं. श्री राम शर्मा 3 स द्विविधो दृष्टादृष्टार्थत्वात्। न्यायदर्शन – 1/1/8, पं. श्री राम शर्मा 4 समानानेकधर्मोपपत्त्तेर्विप्रतिपत्त्ोResellerलब्ध्यनुपलब्ध्य। व्यवस्थातश्चविशेषापेक्षो विर्मर्श: संशय: ।। न्यायदर्शन – 1/1/23, पं. श्री राम शर्मा 5 यमर्थमधिकृत्य प्रवर्त्त्ाते तत्प्रयोजनम्। न्यायदर्शन – 1/1/24, पं. श्री राम शर्मा 6 लौकिक परीक्षाणां यस्मिन्नर्थे बुद्धि साम्यं स दृष्टान्त:। न्यायदर्शन – 1/1/25, पं. श्री राम शर्मा 7 तन्त्राधिकरणाभ्युपगमसंस्थिति: सिद्धान्त:। न्यायदर्शन – 1/1/26, पं. श्री राम शर्मा 19 अवयव-प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय, निगमन अवयव कहलाता है। अनुमान वाक्य का Single देश अवयव कहलाता है।1 तर्क-किसी पदार्थ का वास्तविक Reseller अज्ञात है, परन्तु तत्त्व ज्ञान के लिये, उसकी सिद्धि में जिन कारणों की कल्पना की जाय उस कल्पना को तर्क कहते है।2 निर्णय-संशय उठा पक्ष-प्रतिपक्ष द्वारा Means का अवधारण निश्चय निर्णय कहलाता है।3 वाद-Single पदार्थ के विरोधी धमोर्ं के History द्वारा प्रमाण, तर्क, साधन और उसकी कमियॉं बतलाने के तत्व के पक्ष विपक्ष में प्रतिज्ञा आदि अनुमान के पाँचों अवयवों के आधार से प्रश्नोत्त्ार करने को वाद कहते है।4 जल्प-प्रमाण, तर्क आदि साधनों से युक्त जाति और निग्रह स्थानों के आक्षेप द्वारा अपनं-अपने पक्ष का समर्थन करना जल्प है।5 वितण्डा-जिसमें किसी पक्ष वाले का अपना कोई भी सिद्धांत न हो और प्रत्येक पक्ष अपने प्रतिपक्ष को ठहराने के लिए छल आदि से उसके मत का खण्डन करें, उसे वितण्डा कहते है।6 1 प्रतिज्ञा हेतूदाहरणोपनयनिगमनान्यवयवा:। न्यायदर्शन – 1/1/32, पं. श्री राम शर्मा 2 अविज्ञाततत्वेर्थे कारणोपपित्त्ास्तस्तत्व ज्ञानार्थमूहस्तर्क। न्यायदर्शन – 1/1/40, पं. श्री राम शर्मा 3 विमृष्य पक्षप्रतिपक्षाभ्यामर्थावधारणं निर्णय:। न्यायदर्शन – 1/1/41, पं. श्री राम शर्मा 4 प्रमाणतर्कसाधनोपालम्भ: सिद्धान्ताविरूद्ध: पंचावयवोपपन्नपक्ष प्रतिपक्ष परिग्रहोवाद:। न्यायदर्शन – 1/1/32 5 यथोक्तोपपन्नश्छलजाति निग्रह स्थान साधनोपालभ्भो जल्प:। न्यायदर्शन – 1/2/2 पं. श्री राम शर्मा 6 स प्रतिपक्षस्थापनाहीनों वितण्डा। न्यायदर्शन – 1/2/3 पं. श्री राम शर्मा 20 हेत्वाभास-जिसमें हेतु न हो ओर जो वास्तविक ज्ञान प्रत्यक्ष अथवा परम्परा से समर्थित अनुमिति का बाधक हो ये सव्यभिचारी, विरूद्ध, प्रकरणसम, साध्यसम, कालातीत हेत्वाभास है।1 छल-वाक्य कहने वाले का प्रयोजन कुछ हो और Means विपरीत कर दिया जाए छल कहलाता है।2 जाति- समान धर्म व विरूद्ध धर्म के द्वारा जो खण्डन Reseller जाय उसे जाति कहते हैं।3 निग्रहस्थान-किसी से कहे हुए उपदेश को न समझना या उसका उलटा Means समझना यह निग्रह स्थान कहा गया है।4 वैशेषिक दर्शन : इसे कणाद दर्शन भी कहते है क्योंकि कणाद उलूक नामक ऋषि के कुल में उत्पन्न हुए थे। स्वयं भगवान् ने उलूक Reseller में अवतीर्ण हो इन्हे पदार्थ का ज्ञान कराया था।5 विशेष नामक पदार्थ की विशिष्ट कल्पना के कारण इसेवैशेषिक संज्ञा प्राप्त हुई है।6 इस दर्शन के आचार्य निम्नलिखित है- • रावण-भाष्य-यह भाष्य ‘अद्यावधि’ अप्राप्य है। 1 सव्यभिचार विरूद्ध प्रकरण समसाध्य समातीत कालाहेत्वाभास:। न्यायदर्शन – 1/2/4 पं. श्री राम शर्मा 2 वचन व्याघातो•र्थ विकल्पोत्त्याछलम्। न्यायदर्शन – 1/2/10 पं. श्री राम शर्मा 3 साधम्र्य-वैधम्र्यायां प्रत्यवस्थानं जाति:। न्यायदर्शन – 1/2/18 पं. श्री राम शर्मा 4 विप्रतिपित्त्ारप्रतिपन्तिश्च निग्रह-स्थानम्। न्यायदर्शन – 1/2/19 पं. श्री राम शमा 5 तपस्विने कणादमुनये स्वयमीश्वर उलूकResellerधारी, प्रत्यक्षीभूय पदार्थष्ट्कमुपदि- देशेत्यैविह्य: श्रूयते। सर्वदर्शन संग्रह टीका, 12 शताब्दी माधवाचार्य 6 श्री दुर्गाधर झा, भूमिका, प्र. भा पृ. 1-2 21 प्रशस्तपाद-इनका ‘पदार्थधर्म-संग्रह’ वैशेषिक तत्वों के निResellerण के लिए अत्यन्त मौलिक Creation है इसे प्रशस्तपाद भाष्य कहते हैं। इस पर आधारित कई टीकाएॅं व टीकाकार निम्न हैं- • व्योमशिवाचार्य- प्रशस्तपाद भाष्य पर इनकी टीका ‘व्योमवती’ है। • उदयनाचार्य- इनकी टीका किरणावली है। • श्री धराचार्य- ‘न्याय कन्दली’ नामक टीका 911 ई. में लिखी। • श्री वत्स- ‘न्याय लीलावती’ इनकी टीका है। • वल्लभाचार्य- इनकी टीका ‘न्याय-लीलावती’ ‘किरणावली’ के समान प्रसिद्ध है इनका काल 12 वी शताब्दी का था। • पद्मनाभ मिश्र – इनकी टीका का नाम ‘सेतु’ है। • शंकर मिश्र- इनके ग्रंथ का नाम ‘कणाद-रहस्य’ है। • जगदीश भÍाचार्य- इनकी टीका ‘सूक्ति’ है। • मल्लिनाथ सूरी- इनकी टीका – ‘प्रशस्तभाष्य निकष’ है। • शिवादित्य मिश्र- इनकी Creation ‘सप्तपदाथ्र्ाी’ है। इसकी Creation 12वीं शताब्दी से पूर्व हुई है। • विश्वनाथ न्याय पंचानन- इनका समय 17वीं शताब्दी का था। इनका सुप्रसिद्ध गं्रथ ‘तर्क-संग्रह’ है। वैशेषिक-दर्शन दस अध्यायों में विभक्त है। इन All अध्यायों को मिलाकर 370 सूत्र है। पदार्थों के भेदों को बोधकवैशेषिक होता है। हेय, हेतु, हान तथा हानोपाथ इन चारों प्रतिपाद्य विषयों को समझने के लिये छ: पदार्थ वैशेषिक दर्शन में माने गये है। धर्म विशेष से उत्पन्न हुआ जो द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय पदार्थों का साधम्र्य और वैधम्र्य से तत्त्वज्ञान उससे मोक्ष होता है। द्रव्य, गुण, कर्म मुख्य पदार्थ है। इनसे प्रयोजन सिद्ध होता है शेष पदार्थ केवल Word व्यवहार के ही उपयोगी है। द्रव्य नौ प्रकार के हैं- द्रव्य-Earth, जल, अग्नि, वायु, आकाश, काल, दिशा, आत्मा, मन। क्रिया के गुणवत् समवायकारण ही ही द्रव्य का लक्षण है।3 गुण- द्रव्य का आश्रय गुण है जो संयोग विभाग के कारण से होता है। गुणों की संख्या चौबीस है- Reseller, रस, गंध, स्पर्श, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, गुरूत्व, द्रवत्व, स्नेह, Word, बुद्धि, सुख, दु:ख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म, संस्कार।5 कर्म- चलना Reseller कर्म है, यह उत्क्षेपण-अवक्षेपण, आकुंचन, प्रसारण, गमन आदि है। सामान्य- किसी Means की जो जाति किस्म है वह सामान्य है सामान्य के दो भेद हैं पर व अपर। Single व्यापक जाति जिसकी अवान्तर जातियाँ और भी हो, जैसे वृक्षत्व पर सामान्य तथा अवान्तर जैसे आम्रत्व अपर सामान्य कहलाती है।7 1 धर्माविशेषप्रसूताद् द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायानां पदार्थानां साधम्र्य वैधम्र्याभ्यां तत्वज्ञानान्नि: श्रेयसम। वैशेषिक सूत्र – 1/1/4 2 पृथिव्यापस्तेजोवायुराकाशं कालो दिगात्मा मन इति द्रव्याणि। वैशेषिक सूत्र – 1/1/5 3 क्रियागुणवत् समवायिकारणमिति द्रव्य लक्षणम्। वैशेषिक सूत्र – 1/1/15 4 द्रव्याश्रयगुणवान् संयोगविभागेष्वकारणमनपेक्ष इति गुण लक्षणम्। वैशेषिक सूत्र – 1/1/16 5 Reseller्रसगन्धस्पर्शा: संख्या: परिमाणानि पृथक्त्वं संयोगविभागौ परत्वापरत्वे बुद्धय: सुख दु:खे इच्छाद्वेषौ प्रयत्नाश्च गुणा:। वैशेषिक दर्शन -1/1/6 6 उत्क्षेपणमवक्षेपणमाकुंचनं प्रसारणं गमनमिति कर्माणि। वैशेषिक दर्शन – 1/1/7 7 Singleद्रव्यमगुणं संयोगविभागेष्वनप्रक्षकारणमिति कर्मलक्षणाम् द्रव्यगुणकर्मणां द्रव्यं कारणं सामान्यम्। वैशेषिक दर्शन – 1/1/8 23 विशेष- ऐसा पदार्थ जो पहचान का निमित्त्ा है, वही विशेष पदार्थ है। विशेष पदार्थ है। विशेष, अविशेष, लिंगमात्र और अलिंग-ये गुणों के पर्व है।1 समवाय- जहॉं गुण-गुणी का सम्बन्ध, वहांॅ सम्बन्ध को समवाय कहते है। ऐसे सम्बन्धो को संयोग भी कहते है। वैशेषिक प्रयत्न और अनुमान दो प्रमाणों को स्वतंत्र मानता है, उपमान व Word को अनुमान के अंतर्गत स्वीकार है। सांख्यदर्शन : सांख्यदर्शन में छ: अध्याय माने जाते है। तथा 527 सूत्र है। यह दर्शन आत्मा का ज्ञान कराता है तथा प्रकृति और चौबीस तत्त्वों का विवेचन करता है। इसलिये इसे सांख्य कहा गया है। 2 यहाँ संख्या की प्रधानता रहती है इसलिये इसे सांख्य दर्शन कहते है। सांख्य-दर्शन के मुख्य आचार्य निम्न है-मान्यतानुसार महामुनि कपिल सांख्य के First आचार्य माने जाते है। • आसुरि- ‘अज्ञातनामा वाड्मय’ इनका ही है जो लुप्त है। • पंचशिख- ‘भिक्षुसूत्र‘ सांख्यानुयायी भिक्षुओं के आचार के निदर्शन के लिए सांख्याचार्य पंचशिख द्वारा प्रणीत गं्रथ है जो अब लुप्त हो चुका है। • जैगीषव्य- अश्वघोष में बुद्धचरित (12/66) में प्राचीन आचार्य के Reseller में इन्हें निर्देशित Reseller है। इनकी कोई भी Creation उपलब्ध नहीं है। 1 विशेषाविशेषलिंगानि गुणपर्वाणि। व्यासभाष्य – 19 2 संख्या प्रकुर्वते चैव प्रकृतिं च प्रचक्षते। तत्त्वानि च चतुर्विशत् तेन सांख्या: प्रकीर्तिता:।। महाभारत-शांतिपर्व – 306/43.43 24 • वार्षगण्य- इनकी कोई भी Creation प्राप्त नहीं है इनके निर्देश विभिन्न ग्रंथो में प्राप्त होते है। • ईश्वरकृष्ण- इनकी Creation ‘सांख्यकारिका’ है। • विन्ध्यवासी- इनका समय ईसा की चतुर्थ शताब्दी के अंतिम भाग से लेकर • पंचम शताब्दी के मध्य तक माना जाता है। विभिन्न ग्रंथो में इनके निर्देश मिलते है। • विज्ञानभिक्षु- इन्होंने ‘सांख्य-प्रवचन सूत्रों पर सांख्य प्रवचन भाष्य लिखा है तथा सांख्यसार नामक प्रकरण गं्रथ भी लिखे है। • भावगणेश-इन्होनें ‘तत्वसंग्रह’ पर ‘तत्वयाथाथ्र्यदपिन’ नामक व्याख्या ग्रंथ लिखे है। सत्व, रज और तमो गुण की साम्यावस्था प्रकृति है। प्रकृति से महत्, महत् से अहंकार, अहंकार से पंचतन्मात्रायें और दोनों प्रकार की इन्द्रियॉ उत्पन्न होती है। तन्मात्राओं स्थूल-भूत उत्पन्न होते हैं इनके अतिरिक्त पुरूष पदार्थ को मिलाकर पच्चीस तत्वों का गण होता है। 1 महत् नामक पहला कार्य मनन व्यापारवाला ‘मन’ है। 2 महत् आदि के क्रम से पाँच भूतों की सृष्टि होती है।3 Earth, जल, तेज, आकाश व वायु पाँच तत्त्व है। अध्यवसाय (निश्चयात्मक वृित्त्ा) बुद्धि है। 4 अभिमान वृित्त्ा वाला अहंकार है। कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेदिं्रयों के साथ ग्यारहवा आंतरिक 1 सत्त्वरजस्र्तमसां साम्यावस्था प्रकृति: प्रकृतेर्महान् महतो अहंकारो•हंकारात् पंचतन्मात्राण्युभुयमिन्द्रियं तन्मात्रेभ्य: स्थूलभूतानि पुरूष इति पंचविंशतिर्गण:। सांख्यदर्शन -1/61 2 महदाख्यमांद्य कार्यं तन्मन:। सांख्यदर्शन – 1/71 3 महादादिक्रमेण पंचभूतानाम्। सांख्यदर्शन -2/10 4 अध्यवसायो बुद्धि:। सांख्यदर्शन – 2/13 25 इन्द्रिय ‘मन’ है। 1 कर्मेन्द्रियाँ- हाथ, पाँव, मुँह, गुदा, उपस्थ तथा ज्ञानेन्द्रियाँ जैसे- श्रोत्र, त्वक्, चक्षु, रसना, घ्राण। यहाँ तीन प्रमाण माने गये है- दोनों (बुद्धि और आत्मा) से Single (पुरुष) का अज्ञात Means का निश्चय ‘प्रमा’ कहलाता है, उस (प्रमा) का जो अतिशय साधक है वह त्रिविध प्रमाण कहलाता है।2 जिस (विषय) के साथ सम्बद्ध होता हुआ उसी के आकार को ग्रहण करने वाना जो ‘विज्ञान’ है वही प्रत्यक्ष-प्रमाण है। 3 व्याप्ति के ज्ञान से व्यापक का ज्ञान अनुमान व्याप्ति के ज्ञान से व्यापक का ज्ञान अनुमान प्रमाण है। आप्त का उपदेश Word प्रमाण है। योगदर्शन : ‘योगदर्शन’ पतंजलि का दर्शन है, जिसे राजयोग की संज्ञा मिली है पतंजलि ने इसे ही सजाकर अपने मौलिक विचारों के Reseller में व्यवस्थित Reseller है।योग का Means है जोड़ना Meansात् से परमात्मा को जोड़ना।इससे सम्बद्ध साहित्य व Creationकार निम्न है- • हिरण्यगर्भ-’योगदर्शन’ के प्राचीन Creationकार हिरण्यगर्भ को माना है। • पतंजलि-’योगदर्शन’ पतंजलि का ही मौलिक ग्रंथ स्वीकारा गया है ये योग के प्रवर्त्त्ाक, प्रचारक व संशोधक भी है। ‘योगसूत्र‘ के रचयिता पतंजलि ही है इस सूत्र की Creation विक्रमपूर्व द्वितीय शताब्दी में मानी गई है। • वाचस्पति मिश्र- इनकी ‘तत्ववैशारदी’ Creation प्रसिद्ध है। 1 कर्मेन्द्रियबुद्धीन्द्रियैरान्तरमेकादशकम्। सांख्यदर्शन – 2/19 2 द्वयोरेकतरस्य वा•प्यसन्निकृष्टार्थपरिच्छिति: प्रमा तत्सधकतमं यत् त्रिविधं प्रमाणम्। सांख्यदर्शन- 1/87 3 यत् सम्बंद्ध सत् तदाकारोल्लेखि विज्ञानं प्रत्यक्षम्। सांख्यदर्शन – 1/89 26 • विज्ञानभिक्षु- इनकी ‘योगवार्तिक’ Creation प्रसिद्ध है। • भोजकृत – इनकी ‘राजमार्तण्ड’ Creation प्रसिद्ध है। • भावागणेश- इनकी ‘वृित्त्ा’ Creation प्रसिद्ध है। • रामानंदयति- इनकी ‘मणिप्रभा’ Creation प्रसिद्ध है। • अनंत पंडित- इनकी ‘योगचंन्द्रिका’ Creation प्रसिद्ध है। • सदाशिवेन्द्र सरस्वती- इनकी ‘योगसुधारक’ Creation प्रसिद्ध है। योगदर्शन में चार पाद व 195 सूत्र है। प्रत्यक्ष, अनुमाण व आप्त ये तीन प्रमाण सांख्यदर्शन की भाँति ही है।1 योग का Means जोड़ना है Meansात् आत्मा से परमात्मा को जोड़ना। मीमांसा : इसका Means है विवेचन करना यह पूजार्थक मान धातु से जिज्ञासा Means में मीमांसा Word निष्पन्न हुआ है। 2 इसे पूर्व या कर्ममीमांसा भी कहते है। इसमें मंत्रो का विनियोग व आहुतियों को कर्म का विधान बतलाया है। यह Single प्रकार का नीतिशास्त्र भी है। इसकी Creation व Creationकार निम्न है- • महर्षि जैमिनी- इनकी Creation ‘मीमांसा सूत्र‘ है। ‘मीमांसासूत्र‘ के व्याख्याकार, भाष्यकार निम्न है। • उपवर्ष- शबरस्वामी ने मींमासाभाष्य (1/1/5) में तथा शंकराचार्य ने ‘शारीरिकभाष्य (3/3/53)’ में इनके मतों का History Reseller है। • भवदास- भवदास ने पूर्वमींमासा के 16 अध्यायों में ‘वृित्त्ागं्रथ’ लिखा है। • वृित्त्ाकार- वृित्त्ाकार का History शबरभाष्य (1/1/5) में हुआ है। 1 प्रत्यक्षानुमानागमा: प्रमाणनि। पातंजल योगसूत्र – 1/7 2 द्रष्टव्य:- ‘मानेर्जिज्ञासायाम्’, व्याकरण वार्तिक – 1 27 • बौधायन- इन्होने पूर्व व उत्तरमींमासा सूत्रों पर टीका लिखी। • कुमारिल भÍ- यह मींमासा के पुनरूद्धारक माने जाते है ब्रह्मटीका, मध्यटीका व अन्य कई ग्रंथ है। मीमांसा का अन्य भाग उत्त्ार मीमांसा Meansात् वेदान्त दर्शन कहलाता है। पूर्वमीमांसा में छ: प्रमाणों का History है। प्रत्यक्ष, अनुमान, Word, उपमान Meansापित्त्ा And अनुपलब्धि। जिस Means के बिना दृष्टा या श्रुत विषय की उपपित्त्ा न हो अथापित्त्ा किसी वस्तु के अभाव के साक्षात् ज्ञान को अनुपलब्धि प्रमाण कहते है। प्रत्यक्ष, अनुमान, Word व उपमान प्रमाण न्याय दर्शन जैसे है। उत्त्ारमीमांसा या वेदान्तदर्शन : Indian Customer अध्यात्मशास्त्र की All दार्शनिक प्रवृित्त्ायों और विचारधाराओं में वेदांतदर्शन सर्वश्रेष्ठ है। वेदान्त Meansात् वेदों का अंत-उत्त्ार भाग जहाँ वेदों का सम्पूर्ण सार आ जाता है। ब्रह्मज्ञान ही सत्य और अनन्त है। मनुष्य मात्र के लिए वेदों का सार Meansात् जीव में ब्रह्मैक्य का सम्पादन है। वेदान्त का भव्य-प्रसाद जिन भिित्त्ायों पर खड़ा है, वे तीन है- उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र तथा गीता। वेदों का सार ही उपनिषद् में described है। सम्पूर्ण वेदान्त दर्शन में अविद्या की निवृित्त्ा ही मोक्ष है वही ब्रह्म प्राप्ति हैं। इस दर्शन में तीन प्रमाण है। प्रत्यक्ष, अनुमान व आगम।1 वस्तु से सम्बद्ध होता हुआ जो विज्ञान सम्बद्ध वस्तु का आकार धारण कर लेता है वह विज्ञान Meansात् बुद्धिवृित्त्ा ही प्रत्यक्ष प्रमाण है- प्रतिबन्ध या व्याप्ति को देखकर प्रतिबद्ध या व्याप्य का ज्ञान करना अनुमान है। आप्त या आगम 1 तत्र प्रत्यक्षानुमानागमा: प्रमाणानि। योगसूत्र-1/7, पृ. 28 28 प्रमाण आप्त पुरूष का उपदेश जो All अस्तिक दर्शनों में Single समान है। इस दर्शन के आचार्य व उनकी Creationएँ निम्न है- • श्री व्यासजी- इन्होने First उत्त्ारमीमांसा वेदांतदर्शन की Creation की है। • बदरायण-’ब्रàसूत्र‘ की Creation की है जो वेदांतदार्शन का मूल ग्रंथ है। • शंकराचार्य- इनका समय (788-820 ई.) का है इनका ‘शारीरिक भाष्य’ नामक Creation है व अद्वैतवाद की स्थापना की है। • भास्कराचार्य- इनका भाष्य ‘भास्कर-भाष्य’ है इनका समय 1000 ई. का है। • रामानुज- इनका समय 1140 ई. है ‘विशिष्टद्वैवावाद’ इनकी Creation है। • माधवाचार्य- इनका समय 1238 ई. का है इन्होने द्वैतवाद मत की स्थापना की ‘पूर्णप्रज्ञा भाष्य’ इनका है। नास्तिक दर्शन : उपनिष्द् काल के तुरंत बाद ही नास्तिक दर्शन का जन्म हुआ। ये निम्न है- चार्वाक दर्शन : चार्वाक Word चर्व, धातु से बना है जिसका Means है-’चबाना’ इसमें भोजन, पान, भोग प्रभृति का उपदेश दिया गया है। चार्वी बुद्धि को कहते हैं और बुद्धि से सम्बद्ध होने के कारण इस आचार्य को चार्वी या चार्वाक कहते है।1 चार्वाक के According जब आत्मा है ही नही ंतो फिर परलोक, पुनर्जन्म धर्म-अधर्म और पाप-पुण्य की मान्यता 1 पिव खाद च जात शोभते। प्रबोधचन्द्रोदय -2/5 29 कैसी? इसलिए जब तक जीवन है, मनुष्य को सुखपूर्वक जीना चाहिए। मृत्यु के पश्चात मनुष्य जीवन धारण नही करता।1 चार्वाक Only प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानता है।2 चार्वाक दर्शन के साहित्य- ब्रर्हस्पत्य सूत्र ही चार्वाक दर्शन के सर्वस्व है। हरिभद्र सूरिरचित षड़्दर्शनसमुच्चय में भी चार्वाक की Discussion आई है। इसमें चार्वाक दर्शन की कल्पना है तथा आठ श्लोकों में इस साहित्य का description प्रस्तुत Reseller गया है। माधवाचार्य का सर्वदर्शन संग्रह जिसमें चार्वाक दर्शन के प्राय: All तथ्यों को संकलित करने की चेष्टा की गई है। जैनदर्शन : जिन लोगो द्वारा प्रविर्त्त्ात धर्म और दर्शन का नाम जैन है। ‘जि’ जये धातु से नक् (उणादि) प्रत्यय लगकर ‘जिन’ Word का निर्माण हुआ है इसी जिन Word का विशेषण ‘जैन’ हुआ। यह दर्शन वस्तुवादी तथा बहुसत्त्ाावादी है। इनके According जिन द्रव्यों को हम देखते है वे जीव और अजीव दोनों है। जैनदर्शन स्याद्वाद को अत्यधिक महत्व देता है। मोक्षतत्व के लिए दुद्गल से वियोग ही मोक्ष माना गया है। अन्य आस्तिक दर्शनों की तरह जैन दर्शन में भी प्रत्यक्षानुमान व Word प्रमाण स्वीकृत हुए हैं।जैन दर्शन में काल के आधार पर साहित्य तथा प्रर्वत्त्ाक- • आगमकाल- इस काल में श्वेतांबर And दिगंबरो के आगम साहित्य आते है। श्वेताम्बर मतानुसार प्रमुख ग्रंथ समवार्यांग, स्थानांग, नदी आदि। दिगम्बर मतानुसार प्रमुख गं्रथ कषायपाहुड़ महाबंध, नियमसार आदि। 1 नयते चार्वी लोकायते चार्वी बुद्धि: तत्सम्बन्धादाचार्यो•पि चार्वी, स च लोकायते शास्त्रे पदार्थन्नयते। कशिकावृित्त्ा – 1/3/36 2 यावज्जीवं सुखं जीवेन्नास्ति मृत्योरगोचर: भरमीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुत:।। सर्वदर्शन संग्रह -1 30 • अनेकांतस्थापनकार- इसमें सिद्धसेन व समंतभद्र दो मुख्य दार्शनिक हुए। सिद्धसेन की प्रमुख कृतियाँ है, सन्मति तर्क, न्यायावतार And बत्त्ाीसियां आदि। समंतभद्र की Creation आप्त-मीमांसा, युक्त्यनुशासन आदि। • प्रमाणशास्त्र व्यवस्थाकाल- हरिभद्र नामक दर्शनिक के गं्रथ-षड्दर्शनसम्मूचय, अनेकांतजयपताका है व अकलंक के ग्रंथ- लघीस्त्रय, न्यायविनिश्चय, तत्वार्थवार्तिक आदि है। • नवीनन्यायकाल- याशोविजय के ग्रंथ भाषारहस्य जैनतर्कभाषा, नयोपदेश, इनेकांतव्यवस्था आदि है। बौद्ध-दर्शन : समाज में व्याप्त अंधविश्वास व रूढियों के विरूद्ध बौद्ध-दर्शन का उद्भव हुआ। यह ‘विज्ञान-प्रवाह’ को मानता है। वर्तमान मानसिक अवस्था का कारण पूर्ववती मानसिक अवस्था बताया गया है। बौद्ध-दर्शन के दो संप्रदाय माने गये है- हीनयान व महायान। यहाँ निर्वाण (मोक्ष) के लिये विवादों के प्रति उदासीनता, निराशावद, यथार्थवाद, व्यवहारवाद पर अधिक बल दिया। इसमें प्रमाण व्यवस्थावादी है। दिंगनाग ने ‘‘अज्ञातार्थज्ञापकता’’ के कारण ही दो प्रमेयों का प्रतिपादन Reseller है स्वलक्षण व सामान्यलक्षण। अत: इन दानों के लिए प्रमाण भी दो प्रकार के माने गये है- प्रत्यक्ष And अनुमान। प्रत्यक्ष का विषय स्वलक्षण है तथा अनुमान का विषय सामान्य लक्षण है।1 बौद्धदर्शन के सम्प्रदाय And शाखाओं के आधार पर ग्रंथ तथा गं्रथाकार विभाजित है- 1 प्रत्यक्षमनुमानंच प्रमाणं द्विलक्षणम। प्रमेयं तत्प्रयोगार्थं न प्रमाणान्तरं भवेत् ।। अत्र प्रमाणं द्विविधमेव। कुतश्चेत् द्विलक्षणं प्रमेयं। स्वसामान्यलक्षणाभ्यां भिन्नलक्षणं प्रमेयान्तरं नास्ति।। प्रमाणसमुच्चयवृित्त्ा: – 2, पृ. 4 31 • गौतमबुद्ध- बौद्ध-दर्शन के प्रर्ततक गौतक बुद्ध ही थे। इन्होंने अपने उपदेश पालि भाषा में लिखे है। • आनंद- इन्होंने ‘सुत्त्ापिटक’ का संकलन Reseller। • उपालि- इन्होंने ‘विनयपिटक’ का संकलन Reseller। • नागार्जुन-’मूल माध्यमिक कारिका’ का संकलन Reseller।

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