बोध का Means और परिभाषा
बोध का Means और परिभाषा
‘बोध’ Word संस्कृत की ‘बुध’ धातु से बना है जो भ्वादिगण और दिव्यादिगण की धातु है; जिसका Means है जानना। ‘संस्कृत Wordार्थ-कौस्तुभ’ में बोध का Means इस प्रकार दिया है – “जानना, समझना, पहचानना, ध्यान देना, सोचना, विचारना, जागना, होश में आना।” इसी कोश में ‘बोध’ Word के विषय में यह Means- विवेचन दृष्टव्य है- ‘बोध’ (पु.) बोल (बुध धातु + घञ) जानकारी। ज्ञान। विचार। बुद्धि। समझ। जागृति। सांत्वना। खिलना। निर्देश। अनुमति। उपाधि, संज्ञा।” अंग्रेजी में बोध के पर्याय हैं अवेयरनेस (Awareness) कांशसनेस (Conciousness) तथा फैसिलिटी (Sensibility)। बोध Word से तात्पर्य किसी वस्तु, विषय, धारा, व्यवहार का ज्ञान माना जाता है। ‘बोध’ Word अत्यंत व्यापक Means देता है, इसे चेतना का समानार्थक कह सकते हैं। ‘बोध’ अथवा ‘चेतना’ की प्रमुख विशेषता है निरन्तर परिवर्तनशीलता। बोध स्वयं को और अपने आस-पास के वातावरण को समझने तथा उसकी बातों का मूल्यांकन करने की शक्ति का नाम है।”
डॉ. रामविलास शर्मा का विचार है कि ‘बोध’ की परिभाषा की अपेक्षा उसका वर्णन-विश्लेषण अथवा व्याख्या ही अधिक तर्कसंगत जान पड़ती है। वे लिखते हैं कि “वैज्ञानिक भौतिकवाद के According मनुष्य प्रकृति की उपज है और बोध मस्तिष्क में निहित पदार्थ का गुण है अत: प्रकृति के Single अंश का गुण है।” डॉ. मदनमोहन भारद्वाज का मत है कि, “वस्तुत: यह बोध Resellerी शक्ति Human-मस्तिष्क की ही देन है। उसके लिए Human चेतना और बाह्य जगत में सम्पर्क होना आवश्यक है। इस कारण बोध का आधार मनुष्य का प्रत्येक अनुभव है और इसके व्यवहार से ही मनुष्य अपने ज्ञान की समृद्धि करता है।” बोध शक्ति Human चेतना की देन है। निरंतर परिवर्तनशीलता अथवा प्रवाह बोध का मूलाधार है।
मनोविज्ञान के According Human में उपस्थित वह महत्वपूर्ण तत्व है जिसके कारण ही उसे विविध प्रकार की अनुभूतियां प्राप्त होती हैं। ज्ञानात्मक, भावात्मक And क्रियात्मक चेतना का समावेश Humanीय बोध में होता है। यह मनुष्य की वह विशिष्टता है जो उसे व्यक्तिगत तथा वातावरण के विषय में ज्ञान कराती है। इस प्रकार के ज्ञान को विचार या बुद्धि कहा जाता है। मनुष्य की सारी क्रियाओं और गतिशील प्रवृत्तियों का मूल कारण बोध ही है। बोध का विकास सामाजिक वातावरण के सम्पर्क से होता है। मनुष्य वातावरण के प्रभाव से नैतिकता, औचित्य और व्यवहारकुशलता प्राप्त करता है। यह बोध का विकास कहा जाता है।
डॉ. जयनाथ नलिन लिखते हैं कि, “इन्द्रियों द्वारा विषय को ग्रहण करने को ‘बोध’ कहते हैं। इन्द्रियों, मन, बुद्धि और हृदय द्वारा गृहित या ग्राह्य पदार्थ विषय हैं। विषय के ग्रहण की क्रिया की प्रक्रिया, विषय-विश्लेषण, समता-विषमता की परख, खोज, मूल्य और महत्व, Humanीकरण, ग्रहण और त्याग का निर्णय All ‘बोध’ के अंतर्गत आते हैं। सामान्य Reseller से यों समझिए किसी पदार्थ के स्वरुप को मन में बैठाना और इन्द्रियों द्वारा अनुभव करना ‘बोध’ कहलाता है।” यह ‘बोध’ सदा Single सा नहीं रहता। इसमें सदैव परिवर्द्धन और परिवर्तन होते ही रहते हैं। जिस प्रकार नदी का जल Single ही स्थान पर सदा Single सा नहीं रहता, उसी प्रकार Single युग विशेष में भी विभिन्न दशकों आदि के अन्तर्गत बोध का स्वReseller विषम हो सकता है।
अनुभवों की विचित्रता और पृथकता के कारण भी बोध का स्वReseller कालानुसार अपना चेहरा बदलता रहा है और यही जीवन और जगत् की परिवर्तनशीलता है जिसकी ओर कामायनीकार ने ‘कामायनी’ में इस प्रकार संकेत Reseller था – “चिति का स्वReseller यह नित्य जगत वह Reseller बदलता है शत-शत।” इस प्रकार किसी भी विषय का ग्रहण मात्र ही ‘बोध’ नहीं होता। इसके अंतर्गत वस्तुत: उस विषय के प्रति व्यक्ति की प्रतिक्रिया और उससे उत्पन्न विचारधारा, भाव आदि के द्वारा मूल्यांकन और विश्लेषण करने की प्रवृत्ति भी समाहित है। बोध के अन्तर्गत मात्र यथार्थ का ग्रहण ही नहीं होता, अपितु Human की कल्पना, संवेदना आदि को भी विशेष महत्व दिया जाता है।