प्रयोगात्मक अनुसंधान क्या है ?

प्रयोगात्मक अनुसन्धान, अनुसन्धान की Single प्रमुख विधि है। प्रयोगात्मक अनुसन्धान में कार्य कारण सम्बन्ध स्थापित Reseller जाता है। कार्य-कारण सम्बन्ध स्थापित करने के लिये दो स्थितियों को संतुष्ट करना होता है। First तो यह सिद्ध करना होता है कि यदि कारण है तो उसका प्रभाव होगा। यह स्थिति आवश्यक है लेकिन पर्याप्त नहीं है। दूसरा हमें यह भी सिद्ध करना होता हैकि यदि कारण नहीं है तो प्रभाव भी नहीं होगा। यदि वही कारण न हो फिर भी प्रभाव हो तो इसका Means यह हुआ कि प्रभाव का वह कारण नहीं है जो हम अपेक्षा कर रहे थे। प्रयोगात्मक अनुसन्धान में कारण की उपस्थिति प्रभाव केा दिखाती है तथा कारण की अनुपस्थिति प्रभाव केा नहीं दिखाती है। इन्ही दो स्थितियों केा सन्तुष्ट करने के बाद हम सही कार्य-कारण सम्बन्ध स्थापित कर सकते हैं ।

प्रयोगात्मक अनुसन्धान, जान स्टुआर्ट के ‘‘Singleल चर के नियम’’ (Law of Single Variable) पर आधारित है। प्रयोगात्मक अनुसन्धान का आधार ‘‘अन्तर की विधि (Method of Difference ) है। इस विधि के According – ‘‘ यदि दो परिस्थितियां All दृष्टियों से समान है तथा यदि किसी चर को Single परिस्थिति में जोड़ दिया जाए तथा दूसरी स्थिति में नहीं जोड़ा जाए और यदि पहली परिस्थिति में केार्इ परिवर्तन दिखार्इ पड़े तो वह परिवर्तन उस चर के जोड़ने के कारण होगा। यदि किसी Single परिस्थिति में Single चर हटा लिया तथा दूसरी परिस्थिति में उस चर को न हटाए तब यदि पहली परिस्थिति में केार्इ परिवर्तन होगा तो वह उस चर के हटा लेने के कारण होगा।’’ चर  प्रयोगात्मक अनुसन्धान में चरों का वणर्न Reseller जाता है-

1. स्वतन्त्र चर –

जिस चर में प्रयोगकर्ता परिवर्तन या जोड़-तोड़ करता है, उसे स्वतन्त्र चर कहा जाता है। स्वतन्त्र चर को ‘कारण चर’ (cause variable) भी कहा जाता है। इसे ‘प्रभावित करने वाला चर’ (Influencing variable) कहा जाता है क्येांकि यह किसी Second चर को प्रभावित करता है। उदाहरण – पढ़ाने का तरीका, बुद्धि, अभिवृत्ति, व्यक्तित्व, प्रेरणा, आयु । स्वतन्त्र चर दो प्रकार के होते हैं –

  1. संचालित चर (Treatment variable)
  2. जैविक चर (organismic variable)

जिन चरों में शोधकर्ता द्वारा जोड़-तोड़ करना सम्भव होता है उसे संचालित चर कहते हैं, जैसे – पढ़ाने का तरीका, दण्ड, पुरस्कार आदि। जिन चरों में शोधकर्ता द्वारा परिवर्तन सम्भव नहीं होता है उन्हें जैविक चर कहते हैं जैसे -बुद्धि, प्रजाति, आयु आदि।

2. आश्रित चर – 

स्वतन्त्र चर में जोड़-तोड़ के बाद उसका प्रभाव जिस चर पर देखा जाता है उसे आश्रित चर कहा जाता है। इसी कारण आश्रित चर को ‘प्रभाव चर’ (Effect Variable) कहा जाता है। आश्रित चर के अवलोकन के बाद उसकी रिकार्डिग शोधकर्ता द्वारा की जाती है।यदि पढ़ाने की विधि के प्रभाव का अध्ययन हम शैक्षिक उपस्थित पर करना चाहते हैं तथा दो या तीन भिन्न-भिन्न विधियों से बच्चों को पढ़ाया जाए तथा इसका प्रभाव उनकी शैक्षिक उपलब्धि पर देखा जाए तो इस अध्ययन में ‘पढ़ाने की विधि’ Single स्वतन्त्र चर है तथा ‘शैक्षिक उपलब्धि’ Single आश्रित चर है।

 3. समाकलित चर –

किसी भी अध्ययन में स्वतऩ् चर के अतिरिक्त ऐसे कुछ चर होते हैं तो आश्रित चर केा प्रभावित करते हैं। स्वतन्त्र चर का प्रभाव हमें आश्रित चर पर देखना होता है। चयनित स्वतन्त्र चर के अतिरिक्त All चर भी आश्रित चर केा प्रभावित कर सकते हैं। इन चरों केा समाकलित चर कहा जाता है। समाकलित चर दो प्रकार के होते हैं –

  1. हस्तक्षेपी चर (Intervening Variable) – कुछ चर ऐसे होते हैं जिन्हें हम सीधे नियंत्रित नहीं कर सकते और न ही उनका मापन कर सकते हैं लेकिन उनकी उपस्थिति का आश्रित चर पर प्रभाव पड़ता है। इस प्रकार के चरों का उदाहरण -दुश्चिन्ता, प्रेरणा तथा थकान आदि है। इन चरों का अवलोकन तथा संक्रियात्मक परिभाषीकरण करना भी मुष्किल होता है लेकिन इनको अनदेखा नहीं Reseller जा सकता। उपयुक्त शोध-डिजाइन के प्रयोग द्वारा इन्हें हम नियन्त्रित कर सकते हैं।
  2. वाह्य चर (Extraneous Variable) – स्वतन्त्र चर का पभ््र ााव हम आश्रित चर पर देखते हैं। ऐसे चर जिनका अध्ययन हमे नहीं करना होता या “ाोध् ाकर्ता जिनमें केार्इ जोड़-तोड़ नहीं करना उनका प्रभाव भी आश्रित चर पर पड़ता है। इसलिये ऐसे चरों केा नियन्त्रित करना आवश्यक होता है। इन्हे ही वाह्य चर कहते हैं। वाह्य चरों पर नियन्त्रण कर्इ विधियों से Reseller जाता है। वाहय चर अध् ययन के परिणाम को प्रभावित करते हैं तथा यह स्वतन्त्र चर तथा आश्रित चर दोनो से सहसम्बन्धित होते हैं।

स्वतन्त्र चर – अध्यापक

आश्रित चर – परीक्षा परिणाम

वाहय चर – विद्यालय का वातावरण

4. प्रयोगात्मक समूह तथा नियन्त्रित समूह  – 

कार्य-कारण सम्बन्धों केा स्थापित करने के लिये हमें दो पारिस्थितियों केा संतुष्ट करना होता है। पहली परिस्थिति मे में यह देखना होता है यदि कारण है तो प्रभाव होगा तथा दूसरी परिस्थिति में हमें यह देखना हेाता है कि यदि कारण नहीं है तो प्रभाव भी नहीं हेागा। इसी कारण प्रयोगात्मक अनुसन्धान में दो समूह होते हैं – Single प्रयोगात्मक समूह तथा दूसरा नियन्त्रित समूह।

  1. प्रयोगात्मक समूह – इस समहू में शोधकर्ता द्वारा स्वतन्त्ऱ चर में जोड – तोड  Reseller जाता है। यह सिद्ध Reseller जाता है कि यदि कारण है तो इसका प्रभाव होगा। जोड़-तोड़ का प्रभाव आश्रित चर पर देखा जाता है।
  2. नियन्त्रित समूह – इस समहू में शोधकतार् द्वारा स्वतन्त्ऱ चर में कोर्इ जोड – तोड  नहीं Reseller जाता है। यह सिद्ध Reseller जाता है कि यदि कारण नहीं है तो इसका प्रभाव भी नहीं है।

प्रयोगात्मक अनुसन्धान की विशेषताएं –

प्रयोगात्मक अनुसन्धान की चार प्रमुख विशेषताएं होती है ।

1. नियन्त्रण –

नियन्त्रण प्रयोगात्मक अनुसन्धान की Single प्रमुख विशेषता है। प्रयोगात्मक अनुसन्धान में हमें स्वतन्त्र चर का प्रभाव आश्रित चर पर देखना होता है। विष्वसनीय परिणाम पाने के लिये वाहय चरों का नियन्त्रण अतिआवश्यक होता है। नियन्त्रण कर्इ विधियो से Reseller जा सकता है।

  1. विलोपन (Elimination) :- वाहय चरों को नियन्त्रित करने का सबसे आसान तरीका है कि इन चरो को अध्ययन से निष्कासित कर दिया जाए ताकि आश्रित चर पर उसके प्रभाव को विलोपित Reseller जा सके। यदि बुद्धि वाहय चर है तो दोनों समूहों में समान बुद्धिलब्धि (IQ) के प्रयोज्यों को रखकर इस चर केा नियन्त्रित Reseller जा सकता है। यदि आयु वाहय चर है तो Single समान आयु के प्रयोज्यों पर अध्ययन करके आयु को नियन्त्रित Reseller जा सकता है। परन्तु इस विधि से नियन्त्रण करने के बाद अध्ययन का सामान्यीकरण केवल उन प्रयोज्यों पर ही Reseller जा सकता है जिनकेा अध्ययन में शामिल Reseller गया है। अध्ययन के परिणाम में हम उसी आयु वर्ग में सामान्यीकृत Reseller जा सकेगा।
  2. यादृच्छिकीकरण (Randomization) :- यादृच्छिकीकरण केवल Single ऐसी विधि है जिसके द्वारा All वाहय चरों समूह तथा नियन्त्रित समूह असमतुल्य हो सकते है लेकिन फिर भी उनके समान होने की प्रायिकता बहुत अधिक होती है। जहां तक सम्भव हो प्रयोगात्मक समूह में यादृच्छिक ढ़ंग से प्रयोज्यों केा आबंटित Reseller जाना चाहिए तथा यादृच्छिक ढ़ंग से आबंटित स्थितियों को प्रयोगात्मक समूह केा दिया जाना चाहिए।
  3. वाह्यय चर को स्वतन्त्र चर के Reseller में बदलना (To convert the Extraneous variable into a independent variable) :- वाह्य चरों केा नियन्त्रित करने का Single तरीका यह भी है कि जिस वाहय चर को हमें नियन्त्रित करना है उसका हम अपने अध्ययन में शामिल कर लें। यदि आयु या बुद्धि हमारे अध्ययन में वाहय चर है तो हम इन चरों को भी अपने अध्ययन में शामिल कर लें। इन चरों (बुद्धि और आयु ) का प्रभाव आश्रित चर पर देंखे्रेगे तथा इन चरों की आपस में अन्तक्रिया का प्रभाव क्या होगा ? यह भी अध्ययन Reseller जाएगा।
  4. प्रयोज्यों को सुमेलित करना (Matching Cases) :- इस विधि में वाह्य चरों को नियन्त्रित करने में ऐसे प्रयोज्यों को लिया जाता है जो Single समान विशेषताएं रखते हैं तथा इनमें से कुछ को प्रयोगात्मक समूह में तथा कुछ को नियन्त्रित समूह में रखा जाता है।इस विधि की अपनी कुछ सीमाएं है जैसे Single से अधिक चरों के आधार पर प्रयोज्यों केा सुमेलित करना Single कठिन कार्य है। बहुत से प्रयोज्यों केा अध्ययन से अलग करना पड़ता है क्येांकि वह सुमेलित नहीं हो पाते ।
  5. समूहों को सुमेलित करना (Group Matching) :- इस विधि से वाह्य चरों केा नियन्त्रित करने में प्रयोगात्मक समूह तथा नियन्त्रित समूह में प्रयोज्यों को इस प्रकार आबंटित Reseller जाता है कि जहां तक सम्भव होता है दोनों समूहों का मध्यमान तथा प्रसरण लगभगसमान हो।
  6. सह प्रसरण विष्लेशण (Analysis of covariance ) :- वाहय चरों के आधार पर प्रयोगात्मक समूह तथा नियन्त्रित समूह में होने वाले प्रारम्भिक अन्तर केा सांख्यिकीय विधि से दूर Reseller जाता है।
    1. 2. जोड़़-तोड – 

    प्रयोगात्मक अनुसन्धान की प्रमुख विशेषता है – स्वतंत्र चर में जोड़-तोड़ करना। स्वतन्त्र चर में जेाड़-तोड़ करके उसके प्रभाव केा आश्रित चर पर देखा जाता है। स्वतन्त्र चर के उदाहरण है-आयु, सामाजिक-आर्थिक स्तर, कक्षा का वातावरण, व्यक्तित्व की विशेषता आदि। इनमें से कुछ चरों में शोधकर्ता के द्वारा परिवर्तन Reseller जा सकता है। जैसे-शिक्षण विधि तथा पढ़ाने का विषय आदि। कुछ चरों में सीधे परिवर्तन न करके चयन द्वारा परिवर्तन Reseller जाता है जैसे- आयु, बुद्धि, आदि। शोधकर्ता Single समय में Single या Single से अधिक स्वतन्त्र चरों में जोड़-तोड़ कर सकता है।

    3. अवलोकन – 

    प्रयोगात्मक अनुसन्धान में स्वतन्त्र चर मे जोड़-तोड़ करके उसके प्रभाव केा आश्रित चर पर देखा जाता है। आश्रित चर पर पड़ने वाले प्रभाव को सीधे नहीं देखा जा सकता। शैक्षिक उपलब्धि तथा अधिगम यदि आश्रित चर है तो इनकेा सीधे नहीं देखा जा सकता है। शैक्षिक उपलब्धि को परीक्षा में प्राप्त अंकों के अवलोकन के आधार पर देखा जाएगा।

    4. पुनरावृत्ति – 

    प्रयोगात्मक अनुसन्धान में यदि All वाहय चरों को नियन्त्रित करने का प्रयास Reseller गया तथा प्रयोज्यों को आबंटन यादृच्छिक विधि से Reseller जाए तब भी ऐसे बहुत से कारक हो सकते हैं जो अध्ययन के परिणामों केा प्रभावित कर सकते हैं। पुनरावृत्ति के द्वारा इस तरह के समस्या का समाधान Reseller जा सकता है । यदि किसी प्रयोग में 15-15 प्रयोज्य प्रयोगात्मक तथा नियन्त्रित समूह में है तथा उनका आबंटन यादृच्छिक विधि से Reseller गया है तो यह Single प्रयोग न होकर 15 समानान्तर प्रयोग होते हैं। प्रत्येक जोड़े को अपने आप में Single प्रयोग माना जाता है।

      प्रयोगात्मक अभिकल्प –

      जिस प्रकार केार्इ वास्तुकार किसी भवन के निर्माण के लिये First Single ब्लूप्रिन्ट तैयार करता है, उसी प्रकार Single शोधकर्ता शोध कार्य केा सुचारू Reseller से करने के लिए Single प्रयोगात्मक अभिकल्प (Research Design) तैयार करता है। प्रायोगिक अभिकल्प में उन चरों का वर्णन Reseller जाता है जिनका हमें अध्ययन करना हेाता है, चरों को मापने के लिए जिन उपकरणों का प्रयोग Reseller जाएगा उसका वर्णन Reseller जाता है, न्यादर्श जिसका हमें अध्ययन करना है उसका वर्णन Reseller जाता है, ऑकड़ों को इकट्ठा करने की विधि तथा आंकड़ो को विश्लेषित करने की सांख्यिकीय विधियों के बारे में बताया जाता है।

      1. प्रयोगात्मक अभिकल्प प्रसरण नियन्त्रण प्रणाली के Reseller में – 

    शोध अभिकल्प केा प्रसरण नियन्त्रण प्रणाली के Reseller में देखा जाता है। इसमें प्रसरण केा नियन्त्रित Reseller जाता है। प्रयोगात्मक प्रसरण (Experimental variance) या क्रमबद्ध प्रसरण (Systematic variance) को उच्चतम Reseller जाता है, त्रुटि प्रसरण (Error variance) केा निम्नवत Reseller जाता है तथा वाहय चरों (Extraneous variables) का नियन्त्रण Reseller जाता है। प्रायोगात्मक अभिकल्प के द्वारा प्रसरण को नियन्त्रित करने के सांख्यिकीय सिद्धान्त केा ‘‘अधिकतम-न्यूनतम-नियन्त्रण सिद्धान्त’’ (Principal of Max-Min-Con) कहा जा सकता है।

    2. प्रयोगात्मक प्रसरण को अधिकतम करना – 

    प्रयोगात्मक प्रसरण का Means है- आश्रित चर में उत्पन्न प्रसरण जो कि शोधकर्ता द्वारा स्वतन्त्र चर मे जोड़-तोड़ करके Reseller जाता है। शोध अभिकल्प का तकनीकी उद्देश्य होता है कि प्रयोगात्मक प्रसरण को अधिकतम Reseller जाए। शोध अभिकल्प ऐसा हेा जिसमें जहां तक सम्भव हो प्रयोगात्मक अवस्थाएं (Experimental Conditions) Single Second से अधिक से अधिक अन्तर रखती हों। प्रयोगात्मक अवस्थाएं जितनी अधिक से अधिक भिन्न होगी, आश्रित चर पर उतना ही अधिक प्रयोगात्मक प्रसरण देखा जा सकेगा।

    3. त्रुटि प्र्रसरण को निम्नतम करना – 

    प्रयोगात्मक अभिकल्प का उद्देश्य है त्रुटि प्रसरणको निम्नतम करना। किसीभी प्रयोग में त्रुटि प्रसरण को कम करने का प्रयास Reseller जाना चाहिए। त्रुटि प्रसरण वैसे प्रसरण को कहा जाता है जो शोध में ऐसे कारकों से उत्पन्न होता है जेा शोधकर्ता के नियन्त्रण से बाहर होता है। व्यक्तिगत विभिन्नताओं के कारण त्रुटि प्रसरण होता है जो शोधकर्ता के नियन्त्रण से बाहर होता है।त्रुटि प्रसरण का दूसरा कारक मापन त्रुटियों से सम्बन्धित होता है। ऐसे कारकों में Single प्रयास से Second प्रयास में होने वाली अनुक्रियाों में भिन्नता, प्रयोज्यों द्वारा अनुमान लगाना तथा थकान आदि है। त्रुटि प्रसरण केा प्रभावित करने वाले विभिन्न कारक Single Second से अन्तक्रिया करके Single-Second से प्रभाव को समाप्त करने की प्रवृत्ति रखते हैं। इस प्रवृत्ति के कारण त्रुटि प्रसरण को आत्मपूरक (Self-Compensating) कहा जाता है। त्रुटि प्रसरण यादृच्छिक त्रुटियों पर आधारित होता है इसलिये यह अपूर्वकथनीय (Unpredictable) होता है।त्रुटि प्रसरण को दो विधियों से कम Reseller जा सकता है।

    1. नियन्त्रित दषाओं में यदि प्रयोग Reseller जाए तो त्रुटि प्रसरण को कम Reseller जा सकता है।
    2. मापन की विश्वसनीयता को बढ़ाकर त्रुटि प्रसरण को निम्नतम किय जा सकता है।
      1. 4. वाह्य चरों को नियन्त्रित करना – 

      वाह्य चरों का जहां तक सम्भव हो नियन्त्रण Reseller जाना चाहिये। वाह्य चरों का नियन्त्रण कर्इ विधियों से Reseller जा सकता है, जैसे- विलोपन, यादृच्छिकीकरण, वाहय चर को स्वतन्त्र चर के Reseller में बदलकर, प्रयोज्यो केा सुम्ेालित करके, समूहों को सुमेलित करके तथा सह प्रसरण विष्लेशण।

        Single अच्छे प्रायोगिक अभिकल्प की कसौटी –

        1. उपयुक्तता – 

      प्रायोगिक अभिकल्प को उपयुक्त हेाना चाहिए तभी प्रयोग के विष्वसनीय परिणाम प्राप्त किये जा सकते हैं। प्रायोगिक अभिकल्प जटिल या सरल न हेाकर उपयुक्त होनी चाहिये। उपयुक्त अभिकल्प के चयन द्वारा शोधकर्ता अध्ययन की Need केा ध्यान में रखते हुए वस्तुनिष्ठ विधि से प्रयोगात्मक अवस्थाएं व्यवस्थित करता है।

      2. पर्याप्त नियन्त्रण  – 

      प्रायोगिक अभिकल्प ऐसा हेाना चाहिए जिसमें वाह्य चरों पर पर्याप्त नियन्त्रण Reseller जा सके। वाह्य चरों पर पर्याप्त नियन्त्रण से ही शोध के विश्वसनीय परिणाम प्राप्त किये जा सकते है। वाह्य चरों का नियन्त्रण कर्इ विस्थिायों से Reseller जाता है परन्तु यादृच्छिकीकरण के द्वारा All वाह्य चरों का नियन्त्रण Reseller जा सकता है।

      3. वैधता – 

      किसी भी प्रायोगिक अभिकल्प के लिये तीसरी कसौटी है- वैधता। प्रायोगिक अभिकल्प को वैध होना चाहिए। वैधता दो प्रकार की होती है-आन्तरिक वैधता तथा वाहय वैधता।

      1. आन्तरिक वैधता – 

      प्रयोगात्मक अनुसन्धान का उद्देश्य है कि स्वतन्त्र चर का प्रभाव आश्रित चर देखा जाए, इसके लिये All वाहय चरों पर नियन्त्रण Reseller जाए। किसी भी प्रयोगात्मक अभिकल्प में इस उद्देश्य को किस सीमा तक प्राप्त Reseller गया है, उसकी आन्तरिक वैधता केा बताता है। आन्तरिक वैधता मूलReseller से नियन्त्रण की समस्या से सम्बन्धित है। कैम्पबेल तथा स्टैनले के According आठ प्रकार के वाह्य चर किसी भी प्रायोगिक अभिकल्प की आन्तरिक वैधता को प्रभावित करते हैं।

      1. History (History) :- History का Means है कछु अपत््रयाशित घटनाएं जो प्रयोग के समय सकारात्मक Reseller से या नकारात्मक Reseller से आश्रित चर को प्रभावित करती हैं। यदि किसी शिक्षक केा प्रयोग के लिए प्रशिक्षित Reseller जाए लेकिन प्रयोग पूरा होने से First उसका स्थानान्तरण हो जाए तो प्रयोग का परिणाम प्रभावित होगा। यदि किसी राजनीतिक कारण से अप्रत्याशित Reseller से स्कूल बन्द हेा जाए प्रयोग के बीच में या छात्रों के द्वारा हड़ताल कर दी जाए तो यह All कारण प्रयोग के पारिणाम केा प्रभावित करेंगे । इन कारकों का प्रभाव भी आश्रित चर पर पड़ेगा।
      2. परिपक्वता (Maturity) :- लम्बे समय तक चलने वाले पय्रोगो में यह देखा जाता है कि प्रयोग की अवधि में प्रयोज्यों में परिवर्तन, परिपक्वता की वजह से हो जाते हैं। उक्त All आश्रित चर में होने वाले परिवर्तन के कारण हो सकते हैं तथा प्रयोग के परिणाम केा प्रभावित करते हैं। यदि किसी प्रशिक्षण का प्रभाव हमें शैक्षिक उपलब्धि पर देखना है तथा प्रशिक्षण एव वर्ष का हो तो शैक्षिक उपलब्धि में होने वाला परिवर्तन केवल प्रशिक्षण का प्रभाव नही हो सकता। Single वर्ष में छात्रों की मानसिक योग्यता का विकास अधिक हो सकता है, उसके कारण भी शैक्षिक उपलब्धि बढ़ सकती है।
      3. पूर्व-परीक्षण (Pre-testing ) :- बहतु से प्रयोगात्मक अनुसन्धान में पूर्व – परीक्षण किये जाते हैं तथा फिर उपचार देने के बाद (स्वतन्त्र चर में जोड़-तोड़ करने के बाद) उसी परीक्षण को उन्हीं प्रयोज्यों पर पुन: प्रशासित Reseller जाता है। सामान्य Reseller से यह देखने को मिलता है कि पूर्व-परीक्षण अभ्यास का कार्य करता है। पश्च-परीक्षण में जो प्राप्तांक आते हैं वह केवल उपचार के कारण न होकर पूर्व-परीक्षण का अभ्यास के Reseller में कार्य करने के कारण भी हो सकता है तथा आन्तरिक वैधता केा प्रभावित करते हैं।
      4. मापन त्रुटि (Measurement Error) :- किसी चर का मापन करने के लिए विभिन्न प्रकार के उपकरणों का प्रयोग Reseller जाता है। यदि प्रयोग मे लाए गये उपकरण विश्वसनीय नहीं है तो प्रयोग की आन्तरिक वैधता प्रभावित होती है। शोधकर्ता यदि उपकरण का सही तरीके से प्रयोग नहीं कर पाता तथा यदि परीक्षण को प्रशासित करने के लिए प्रशिक्षण नहीं दिया गया तो चर के मापन में त्रुटि हो सकती है।
      5. सांख्यिकीय प्रतिगमन (Statistical Regression) :- कछु पय्रोगों में पूर्व-परीक्षण तथा पश्च-परीक्षण दोनों करना आवश्यक हेाता है। यदि शोधकर्ता किसी ऐसे प्रयोज्य का चयन कर लेता है जो अपने गुणों में या तो अति श्रेश्ठ है या निकृष्ट (Extreme cases) तो सामान्य Reseller से ऐसा देखा जाता है कि जो प्रयोज्य पूर्व -परीक्षण पर निम्न अंक प्राप्त करते हैं वह पश्च-परीक्षण पर उच्च अंक प्राप्त करते हैं। जेा प्रयोज्य पूर्व-परीक्षण पर उच्च अंक प्राप्त करते हैं वह पश्र्च-परीक्षण पर निम्न अंक प्राप्त करते हैं इसे ही सांख्यिकीय प्रतिगमन कहते हैं। पश्च-परीक्षण पर प्राप्त अंक उपचार के कारण न हेाकर सांख्यिकीय प्रतिगमन के कारण हो सकते है। इस घटना से प्रयोग की आन्तरिक वैधता प्रभावित होती है।
      6. प्रायोगिक नश्वरता (Experimental Martality) :- जो पय्रोग लम्बे समय तक चलते हेैं उनमें सामान्य Reseller से यह देखा जाता है कि प्रयोग की अवधि में ही कुछ प्रयोज्यों की अनुपलब्धता हो जाती है। प्रयोगकर्ता प्रायोगिक समूह तथा नियन्त्रित समूह में यादृच्छिकीकरण विधि से प्रयोज्यों को आबंटित करता है लेकिन बीच में कुछ प्रयोज्यों केा छोड़ देने से प्रयोग के अन्तिम परिणाम प्रभावित होते हैं।
      7. चयन पूर्वाग्रह (Selection Bias) :- न्यादर्श को जनसख्ंया का प्िरतनिन्तिात्व करना चाहिए। यादृच्छिक न्यादर्श प्रविधियों के प्रयोग से ऐसा न्यादर्श चुना जा सकता है। यदि शोधकर्ता ने यादृच्छिक विधि से न्यादर्श चयन नही Reseller है या प्रयोगात्मक समूह तथा नियन्त्रित समूह को समतुल्य नहीं बनाया गया तो न्यादर्श का चयन सही नहीं होगा। इस कारण सही परिणाम नहीं प्राप्त हो सकेंगे।
      8. चयन तथा परिपक्वता की अन्त:क्रिया (Interaction Effect ) :- न्यादर्श का चयन तथा परिपक्वता का प्रभाव प्रयोग की आन्तरिक वैधता केा प्रभावित करता है लेकिन इन दोनेां की अन्तर्क्रिया का प्रभाव भी आन्तरिक वैधता पर पड़ता है। इस तरह की अन्तर्क्रिया का प्रभाव उस स्थिति में पड़ता है जब उपचार को यादृच्छिक ढ़ंग से न आंबटित करके प्रयोज्य स्वयं किसी Single प्रकार के उपचार का चयन कर लेते हैं। किसी विशेष प्रकार के उपचार के चयन का कारण आश्रित चर को प्रभावित कर सकता है। यदि दो विधियों से किसी Single प्रकरण को पढ़ाया जाए तथा इन विधियों की प्रभावशीलता का अध्यन Reseller जाए, तथा समूह का चयन ऐसे Reseller कि Single समूह में अधिक परिपक्व प्रयोज्य हो तो देानों विधियों की प्रभावशीलता का सही आंकलन नहीं Reseller जा सकता।
        1. 2. वाहय वैधता – 

        किसी भी प्रयोग के परिणामों को कितनी अधिक जनसंख्या में सामान्यीकृत Reseller जा सकता है यह उस प्रयोग की वाहय वैधता होती है। परिणामों को जितनी अधिक जनंसख्या पर सामान्यीकृत Reseller जा सकता है उस प्रयोग की वाहय वैधता उतनी ही अधिक होती है। वाहय वैधता केा कारक प्रभावित करते हैं।

        1. पूर्व-उपचार (Pre- treatment) :- जब Single ही समहू नियन्त्रित तथा प्रयोगात्मक दोनों Resellerों में कार्य करता है तो पूर्व-उपचार का प्रभाव वाहय वैधता पर पड़ता है। Single ही समूह केा बारी-बारी से नियन्त्रित समूह तथा प्रयोगात्मक समूह बनाया जाता है तो पूर्व-उपचार के प्रभाव केा पूरी तरह से समाप्त नहीं Reseller जा सकता। इस स्थिति में उन प्रयोज्यों पर परिणामों केा सामान्यीकृत नहीं Reseller जा सकता जिन पर पूर्व उपचार नहीं Reseller गया है।
        2. प्रयोग की कृत्रिम परिस्थिति (Artificiality of Experimental Setting)- पय्रोगशाला अनसु न्धान (Laboratory Experiment) में लगभग All वाहय चरों केा नियन्त्रित करने का प्रयास Reseller जाता है और यही नियन्त्रण प्रयोग केा कृत्रिम बनाता है। वास्तविक जीवन की स्थितियों में इस प्रकार की कृत्रिमता नहीं होती और न ही यह सम्भव है कि कृत्रिम स्थितियों केा उत्पन्न Reseller जा सके। इसी कारण इन कृत्रिम परिस्थितियों में किए गये अनुसन्धान के परिणामों केा सामान्यीकृत करने की बहुत सीमाएं हेाती है। इन परिस्थितियों में किए गये अनुसन्ध् ाानों की वाहय वैधता बहुत कम होती है।
          1. प्रायोगिक अभिकल्प के प्रकार –

            प्रायोगिक अभिकल्प विभिन्न प्रकार के हेाते हैं। इनमें अन्तर उनकी जटिलता तथा नियन्त्रण की पर्याप्तता का होता है। किसी भी प्रायोगिक अभिकल्प का चुनाव कुछ कारकों पर निर्भर करता है जैसे – प्रयोग के उद्देश्य तथा प्रकृति में, चरों के प्रकार पर जिन्हें संचालित (Monipulates) करना है, प्रयोग की सुविधा तथा प्रयोग की परिस्थितियों पर तथा शोधकर्ता की कार्यकुशलता पर। अभिकल्प Creation में सामान्यत: समूह के अक्षर G से, RG यादृच्छिक चयनित समूह, MG समेल समूह, T उपचार, C नियन्त्रण तथा O प्रेक्षण या निरीक्षण के लिये उपुयक्त किये जाते हैं। प्रायोगिक अभिकल्प को मुख्य Reseller से तीन भागों में वर्गीकृत Reseller जाता है-

            1. पूर्व- प्रायोगिक अभिकल्प –

          पूर्व प्रायोगिक अभिकल्प में वाहय चरों पर नियन्त्रण बहुत कम या बिल्कुल नहीं होता है। इसमें या तो नियन्त्रित समूह होता ही नही है और यदि होता भी है तो नियन्त्रित तथा प्रायोगिक समूह को समतुल्य नहीं बनाया जाता है । इस प्रकार के अभिकल्प सबसे कम प्रभावशाली होते हैं। यह तीन प्रकार के अभिकल्प होते हैं।

          1. Singleल प्रयास अध्ययन (One shot case study) :- इस पक्रार के अभिकल्प में शोधकर्ता द्वारा Single समूह का चयन Reseller जाता है तथा उसकेा उपचार दिया जाता है तथा उस समूह पर पश्च-परीक्षण Reseller जाता है तथा परिणाम केा उपचार का कारण माना जाता है । इस अभिकल्प से प्राप्त परिणामों केा सामान्यीकृत नहीं Reseller जा सकता है तथा इसमें आन्तरिक वैधता की कमी पायी जाती है।
          2. Singleल समूह पूर्व परीक्षण-पश्च परीक्षण अभिकल्प (The Single group Pre-test treatment Post-test design) :- इस प्रकार के अभिकल्प में Single समूह का चयन Reseller जाता है उस पर पूर्व परीक्षण Reseller जाता है तथा आश्रित चर का मापन Reseller जाता है। इसके बाद उस समूह केा उपचार (Treatment) दिया जाता है। उपचार के बाद पश्च-परीक्षण Reseller जाता है तथा फिर से आश्रित चर का मापन Reseller जाता है। पूर्व-परीक्षण के बाद तथा पश्च-परीक्षण के बाद आश्रित चर के मानों के अन्तर केा उपचार का प्रभाव माना जाता है। इस अभिकल्प में वाहय चरों पर कोर्इ नियन्त्रण नहीं Reseller जाता तथा इनमें केार्इ नियन्त्रित समूह नही होता है इसलिए प्रयोगात्मक अनुसन्धान की दूसरी शर्त कि यदि ‘‘कारण नही है तो प्रभाव भी नहीं’’ केा सत्यापित नहीं Reseller जा सकता।
          3. स्थिर समूह अभिकल्प (Static group comparision) :- इस पक्र ार के अभिकल्प में दो समूहों का चयन Reseller जाता है तथा Single समूह केा उपचार दिया जाता है तथा Second समूह को किसी भी प्रकार का उपचार नहीं दिया जाता है। पश्च-परीक्षण दोनो समूहों का Reseller जाता है। दोनो समूहों के पश्च-परीक्षण के परिणामों में अन्तर उपचार का प्रभाव होता है, ऐसा माना जाता है। यद्यपि इस अभिकल्प में Single नियन्त्रित समूह होता है लेकिन नियन्त्रित तथा प्रयोगात्मक समूह केा समतुल्य नहीं बनाया जाता। यदि दोनों समूह में शुरू से ही आश्रित चर पर अन्तर होता है तो पश्च-परीक्षण के परिणामों में अन्तर केा पूरी तरह से उपचार का प्रभाव नहीं माना जा सकता। इस प्रकार के अभिकल्प में आन्तरिक वैधता की कमी पायी जाती है।
            1. 2. प्रायोगिक कल्प अभिकल्प –

            प्रायोगिक कल्प अभिकल्प में जहां तक सम्भव होता है वाहय चरों को नियन्त्रित Reseller जाता है। प्रयोग में दो समूह होते हैं प्रयोगात्मक समूह तथा नियन्त्रित समूह, लेकिन प्रयोगात्मक समूह तथा नियन्त्रित समूहों में प्रयोज्यों का आबंटन यादृच्छिक तरीके से न हो पाने के कारण दोनों समूहों केा समतुल्य नहीं बनाया जा पाता। बहुत सी ऐसी परिस्थितियां हेाती है जब यादृच्छिकीकरण से न्यादर्श का चयन नहीं हो सकता तथा यादृच्छिक आबंटन की अनुमति भी नहीं मिल पाती। इन परिस्थितियों में केवल प्रयोगिक कल्प अभिकल्प का ही प्रयोग Reseller जा सकता है।

            1. असमतुल्य पूर्व परीक्षण-पश्च परीक्षण अभिकल्प (Non Equivalent Pretest –Posttest design) :- कभी -कभी व्यवहारिक Reseller से यह सम्भव नहीं होता है कि स्कूलों में या किसी स्कूल के दो वर्गो में यादृच्छिक आबंटन द्वारा दो समूह का निर्माण Reseller जा सके। इन परिस्थितियों में स्कूलों केा या किसी Single स्कूल के दो वर्गो को यादृच्छिक Reseller से Single स्कूल या Single वर्ग को प्रयोगात्मक समूह या Second स्कूल या Second वर्ग केा नियन्त्रित समूह मान लिया जाता है। पूर्व-परीक्षण दोनों समूहों का Reseller जाता है जबकि उपचार केवल प्रायोगिक समूह केा दिया जाता है। पश्च-परीक्षण दोनों समूहों का Reseller जाता है। प्रयोगात्मक समूह के पूर्व-परीक्षण तथा पश्च-परीक्षण के बीच अन्तर ज्ञात Reseller जाता है तथा इसी प्रकार नियन्त्रित समूह के पूर्व-परीक्षण तथा पश्च-परीक्षण के अन्तर केा ज्ञात Reseller जाता है। यदि इन दोनों के बीच का अन्तर सार्थक होता है तो यह निश्कर्ष निकलता है कि उपचार प्रभावी है। जब यादृच्छिक आबंटन सम्भव नहीं होता है तब इस अभिकल्प का प्रयोग Reseller जाता है। इस अभिकल्प की सबसे बड़ी सीमा यह है कि यदि दोनो समूहों में पूर्व-परीक्षण में आश्रित चर के मान में केार्इ अन्तर नहीं आता है तब तो ठीक है लेकिन यदि प्रारम्भिक अवस्था में दोनों समूहों में अन्तर आता है तो हम इस अन्तर केा सांख्यिकीय Reseller से सह प्रसरण विश्लेषण प्रविधि के द्वारा नियन्त्रित करने का प्रयास करते हैं।
            2. प्रति सन्तुलित अभिकल्प (Counter Balanced Design) :- जब हम समूहों केा यादृच्छिक Reseller से आबंटित नही कर सकते हैं तथा हमें दो या तीन प्रकार के उपचार देने हेाते हैं तो इस प्रकार के अभिकल्प का प्रयोग Reseller जाता है। इस अभिकल्प में All समूहों केा All तरह के उपचार यादृच्छिक Reseller से दिये जाते है। प्रत्येक समूह केा प्रत्येक तरह का उपचार क्रम बदल-बदल कर दिया जाता है। प्रयोग के शुरूआत में All समूहों पर पूर्व-परीक्षण Reseller जाता है तथा प्रत्येक समय अन्तराल के बाद पश्च-परीक्षण Reseller जाता है तथा अन्त में Single पश्च -परीक्षण All समूहों का Reseller जाता है। यदि चार प्रकार के उपचार है तो हमें चार समूह लेगे। इस अभिकल्प में उपचारों की संख्या तथा समूहों की संख्या को संतुलित Reseller जाता है इसलिये इसे प्रतिसंतुलित अभिकल्प कहा जाता है। इस अभिकल्प में उच्च केाटि की आन्तरिक वैधता होती है।

            3. वास्तविक प्रायोगिक अभिकल्प –

            वास्तविक प्रायोगिक अभिकल्प में प्रायोगिक समूह तथा नियन्त्रित समूह केा यादृच्छिक आबंटन के द्वारा समतुल्य बनाया जाता है। इसी कारण इस अभिकल्प में आन्तरिक वैधता के All कारकेां को नियन्त्रित Reseller जाता है। वास्तविक जीवन की परिस्थितियों में वास्तविक प्रायोगिक अभिकल्प का प्रयोग Single कठिन कार्य है क्योंकि इन परिस्थितियों में All चरों का नियन्त्रण सम्भव नहीं होता तथा यादृच्छिक आबंटन भी सम्भव नहीं हो पाता। इस अभिकल्प का प्रयोग Single कठिन कार्य है लेकिन जहाँ तक सम्भव हो इसी प्रकार के अभिकल्प का प्रयोग Reseller जाना चाहिए क्येांकि इसमें प्रयोगात्मक अनुसन्धान के All सिद्धान्तों का पालन Reseller जाता है।वास्तविक प्रयोगिक अभिकल्प कर्इ प्रकार के होते हैं :-

            1. केवल पश्च समतुल्य समूह अभिकल्प (The Post test only, Equivalent Groups Design) :- इस अभिकल्प में यादृच्छिक आबंटन के द्वारा दो समतुल्य समूह बनाए जाते हैं। किसी Single समूह केा यादृच्छिक Reseller से उपचार दिया जाता है तथा उसे प्रायोगिक समूह मान लिया जाता है तथा Second समूह को नियन्त्रित समूह मान लिया जाता है। उपचार केवल प्रायोगिक समूह केा दिया जाता है लेकिन आश्रित चर का मापान दोनों समूहों के लिये Reseller जाता है। दोनों समूहों में आने वाला अन्तर उपचार का प्रभाव माना जाता है। इस अभिकल्प में समूहों का निर्माण यादृच्छिक आबंटन के द्वारा होता है इसलिये इन दोनों समूहों में समतुल्यता होती है। इस कारण आश्रित चर में आने वाला अन्तर उपचार का प्रभाव ही माना जाता है
            2. पूर्व परीक्षण पश्च समतुल्ल्ल्य समूह अभिकल्प (The Pre-test – Post Test Equivalent Groups Design) :- यह अभिकल्प First वाले अभिकल्प से केवल इसमें अन्तर रखता है कि इसमें पूर्व परीक्षण भी Reseller जाता है। इस अभिकल्प में यादृच्छिक आबंटन के द्वारा प्रायोगिक समूह तथा नियन्त्रित समूह में प्रयोज्यों केा रखा जाता है तथा दोनों समूहों का पूर्व-परीक्षण Reseller जाता है। इसके बाद शोधकर्ता केवल प्रायोगिक समूह केा उपचार देता है। प्रयोग के अन्त में दोनों समूहों पर पश्च-परीक्षण Reseller जाता है । आश्रित चर का मापन Reseller जाता है। पूर्व-परीक्षण तथा पश्च-परीक्षण के बीच आने वाले अन्तर को उपयुक्त सांख्यिकीय प्रविधियों के द्वारा ज्ञात Reseller जाता है। यदि दोनों के बीच सार्थक अन्तर आता है तो इसे उपचार का प्रभाव माना जाता है।
            3. सोलोमन चार समूह अभिकल्प (Soloman Four Groups Design) :- कभी-कभी पूर्व परीक्षण का प्रभाव उपचार के प्रभाव केा प्रभावित करता है। पूर्व-परीक्षण के प्रभाव को ज्ञात करने के लिये इस अभिकल्प का प्रयोग Reseller जाता है। इस अभिकल्प में चार समूह होते हैं। दो प्रायोगिक समूह होते हैं जिसमें Single पर पूर्व-परीक्षण Reseller जाता है तथा Second समूह पर कोर्इ पूर्व परीक्षण नहीं Reseller जाता है। इसी प्रकार दो नियन्त्रित समूह होते हैं Single में पूर्व-परीक्षण Reseller जाता है तथा Second में केार्इ पूर्व-परीक्षण नहीं Reseller जाता है। इन All समूहों में प्रयोज्यों की आबंटन यादृच्छिक विधि से Reseller जाता है। पश्च परीक्षण चारों समूहेां पर Reseller जाता है।

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