प्रबंध में श्रमिकों की सहभागिता का Means

औद्योगिक संबंध के दो महत्वपूर्ण पहलू होते है। ये है- संघर्ष तथा सहयोग के पहलू। आधुनिक उद्योग प्रबंध और श्रम के सहयोग के कारण ही चलते रहते हैं यह सहयोग नियोजन में अनौपचारिक Reseller से स्वत: होता रहता है। उद्योगों का चलते रहना दोनों के हितों में आवश्यक है। साथ ही, नियोजन और श्रमिकों के कुछ हितों में विरोध भी पाए जाते है। जिससे उनके बीच संघर्ष भी होता रहता है। नियोजक और नियोजितों के कर्इ हितों में विरोध नहीं होते, जिससे वे परस्पर सहयोग करते रहते है। इन्ही उभय हितों को ध्यान में रखते हुए श्रम-प्रबन्ध सहयोग की कर्इ औपचारिक संस्थाएँ स्थापित की गर्इ हैं, जो नियमित Reseller से उभय समस्याओं का समाधान करती है। इन संस्थाओ को कर्इ नाम से पुकरा जाता है; जैसे-श्रम-प्रंबध सहयोग,संयुक्त परामर्श, सह-निर्धारण,संयुक्त निर्णयन, उद्योग में श्रमिकों की सहभागिता,या प्रबंध में श्रमिकों की सहभागिता साधारणत: उपर्युक्त All Word-समूह का प्रयोग समान अथांर् े में Reseller जाता है, लेकिन उनमें कभी-कभी सहभागिता के विशिष्ट Resellerों, स्तरों या उसकी मात्रा के आधार पर अंतर बताने का प्रयास Reseller जाता है।

प्रबंध में श्रमिकों की सहभागिता का Means 

  1. जीOपीO सिन्हा और पी आर एन सिन्हा के According’’ श्रम-प्रबंध सहयोग से श्रम और पूँजी में दोनों की उभय समस्याओं के समाधान या उपचार के लिए संयुक्त प्रयासों का बोध होता है।’’ 
  2. वीO जीO मेहत्राज के मत में सहभागिता का Means होता है,’’ किसी औद्योगिक संगठन में साधारण कर्मियों द्वारा समुचित प्रतिनिधियों के जरिए प्रबंध के All स्तरों पर प्रबंधकीय क्रियाओं के समस्त क्षेत्र में निर्णयन के अधिकार में भाग लेना’’ 
  3. केO सीO अलेक्जेंडर के According, कोर्इ भी प्रबंध सहभागी तभी होता है, ‘‘जब वह किसी भी स्तर पर या क्षेत्र में अपने निर्णयन की प्रक्रिया को प्रभावित करने के लिए कर्मकारों को अवसर प्रदान करता है या जब वह अपने कुछ प्रबंधकीय परमाधिकारों में उनके साथ-साथ भाग लेता है।’’
  4. इआन क्लेग्ग के मत में, प्रबंध में श्रमिकों की सहभागिता से ‘‘ऐसी स्थिति का बोध होता है, जिसमें कामगारों के प्रतिनिधि कुछ हद तक प्रबंधकीय निर्णयन की प्रक्रिया में सम्मिलित होते है, लेकिन जहाँ अंतिम शक्ति प्रबंध के हाथों में ही रहती है।’’ 
  5. निल डब्यूO चैम्बरलेन ने सामूहिक सौदेबाजी और संघ-प्रबंध सहयोग के बीच अंतर बताने के सिलसिले में कहा है-संघ-प्रबंध सहयोग ‘‘स्पष्ट Reseller से उभय हितों से संबद्ध विषयों पर संयुक्त निर्णयन है।’’ 
  6. जेO आरO पीO फ्रेंच के According ‘‘भागीदारी वह प्रक्रिया है जिसमें दो या अधिक पक्षकार कतिपय योजनाएँ और नीति बनाते तथा निर्णय लेते समय Single-Second को प्रभावित करते रहते हैं। यह उन निर्णयों तक सीमित रहती है जिनका प्रभाव उन All पर पड़ता है जो निर्णय लेते हैं। तथा जिनका वे प्रतिनिधित्व करते है।’’ 

उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट हैं कि प्रबंध श्रमिकों की सहभागिता से ऐसी स्थिति का बोध होता है, जिसमे प्रबंध अपने परंपरागत परमाधिकारों में उन विषयों पर श्रमिकों के साथ संयुक्त निर्णयन करते हैं जिन्हे दोनो उभय हित में उपयोगी समझते हैं। सामूहिक सौदेबाजी में दोनों पक्षकार अपने विरोधी हितों के विषयों पर मोल-तोल करते हैं, लेकिन प्रबंध में श्रमिकों की सहभागिता में वे सौदेबाजी नहीं करते, बल्कि अपने उभय हितों पर संयुक्त निर्णय लेते हैं।

प्रबंध में श्रमिकों की सहभागिता के उद्देश्य 

1. उत्पादकता में वृद्धि –

उत्पादकता में वृद्धि प्रबंध और श्रम के उभय हित में है। उत्पादकता के बढ़ने से श्रमिकों की अधिक मजदूरी और विभिन्न प्रकार की सुविधाओं की उपलब्धि की संभावना होती है तथा नियोजक को अधिक लाभ की प्राप्ति हो सकती हैं श्रम-प्रबंध सहयोग से उत्पादकता या कौशल में वृद्धि की जा सकती है तथा उत्पादित वस्तुआं की गुणवत्ता में सुधार लाया जा सकता है। इससे बरबादी को रोकने तथा लागत कम करने में भी सहायता मिल सकती हें उत्पादकता में वृद्धि के फल के विभाजन के सिलसिलेमें श्रमिकों और प्रबंधकों या नियोजक के बीच मतभेद हो सकता है, लेकिन उसे बढ़ाने या उसमें सुधार लाने के संबंध में उनके बीच विरोध की बात नहीं उठती। जहाँ उत्पादकता-वृद्धि के फल के विभाजन की समुचित व्यवस्था है, वहाँ प्रबंध में श्रमिकों की सहभागिता की अधिकांश योजनओं में उत्पादकता-वृद्धि, यंत्रों और मशीनों या समुचित उपयोग, बरबादी की रोकथाम, उत्पादित वस्तुओं की गुणवत्ता बनाए रखने, उत्पादन-घंटो के अधिकाधिक उपयोग, विनिर्माण-प्रक्रिया तथा कार्य की भौतिक दशाओं में सुधार को विशेष Reseller से सम्मिलित Reseller जाता है

2. औद्योगिक प्रजातंत्र को प्रोत्साहन – 

कर्इ लोगों के मत में आधुनिक उद्योगों में उन विषयों के निर्धारण में श्रमिकों को सहभागिता के अवसर प्रदान करना आवश्यक है, जिनसे वे प्रत्यक्ष Reseller से सबंद्ध रहते हैं। सामूहिक सौदेबाजी में श्रमिक नियोजक पर दबाव डालकर बहुत कुछ ले लेते हैं, लेकिन इससे उन्हें प्रतिदिन के प्रबंध में भाग लेने का नियमित अवसर नहीं मिलता। सामूहिक सौदेबाजी के विकास, श्रमसंघों की शक्ति में वृद्धि तथा नियोजकों की प्रवृत्ति में परिवर्तन के कारण ऐसी संस्थाओं के गठन पर जोर दिया जाने लगा हैं, जिसमें श्रमिकों के प्रतिनिधि प्रबंधकों के साथ नियमित Reseller से बैठकर संयुक्त निर्णय ले सकें। इससे श्रमिकों के बीच प्रतिष्ठान के प्रति अस्था मजबूत होती है और उन्हें प्रबंध में भाग लेते रहने की संतुष्टि प्राप्त होती रहती है। सामजवादी देशों में तो प्रबंध के कर्इ क्षेत्रों में श्रमिकों की सहभागिता को प्रोत्साहित करने पर विशेष Reseller से जोर दिया जाता है। ऐसे कुछ देशों में श्रमिक उद्योग के विभिन्न स्तरों पर कर्इ महत्वपूर्ण विषयों पर प्रबंधकों के साथ संयुक्त निर्णय लेते है। इस तरह, प्रबंध में श्रमिकों की सहभागिता से औद्योगिक प्रजातंत्र की स्थापना को प्रोत्साहन मिलता है।

3. संघर्ष की रोकथाम-

श्रम और प्रबंध के बीच सहयोग से दोनों Single-Second की समस्याओं और स्थितियों से अच्छी तरह अवगत होते हैं और वे उनके समाधान के लिए मैत्री के वातावरण में पय्र ास करते हैं। इस तरह, श्रम-पब्र ंध सहयोग से उद्योग में अच्छे नियोजक-नियोजित सबंध की स्थापना होती है। संयुक्त निर्णयों द्वारा समस्याओं के समाधान के अनुभव से दोनों पक्षकार विवादास्पद विषयों के भी हल निकालने में सफल होते हैं। कोर्इ भी पक्ष संयुक्त निर्णयों से असंतुष्ट होने पर उनका विरोध नहीं करता, क्योंकि उनमें वह भी सक्रिय पक्षकार रहा है। इस तरह, प्रबंध में श्रमिकों की सहभागिता से औद्योगिक शांति बनाए रखने में प्रचुर सहायता मिलती है।

4. श्रमिकों के विकास And कार्यतोष में सहायक- 

प्रबंध में श्रमिकों की सहभागिता की योजनाओं से श्रमिकों को आत्माभिव्यक्ति और विचारों के आदान-प्रदान का प्रचुर अवसर मिलता है। उनके विचारों And सुझावों से संगठन के उद्देश्यों की पूर्ति में सहायता मिलती है तथा प्रबंध भी श्रमिकों के विकास के लिए सामुचित अवसर प्रदान करता रहता है। प्रबंध की सहनुभूतिपूर्ण प्रवृत्ति And संगठन में व्याप्त सहयोग के वातावरण से श्रमिकों के कार्यतोष में भी वृद्धि होती रहती है। साथ ही, श्रमिक समझते है कि इन योजनाओं के माध्यम से कार्य-स्थल पर उनके Humanीय अधिकारों पर ध्यान दिया जा रहा हैं। और वे सक्रिय भागीदार के Reseller में संगठन के उद्देश्यों की प्राप्ति में अपना योगदान देते रहते हैं।

5. प्रबंधकीय कौशल में वृद्धि – 

प्रबंध में श्रमिकों की भागीदारी से प्रबंध को उत्पादक तथा संगठन के अन्य उद्देश्यों की प्राप्ति में श्रमिकों के उपयोगी सुझाव मिलते रहते है। इन सुझावों को ध्यानमें रखते हुए प्रबंधक अपनी कार्य-प्रणाली And उत्पादन-प्रक्रियाओं में सुधार करते रहते हैं। सहभागिता की योजनाओं के लागू होने के फलस्वReseller दोषपूर्ण प्रबंधकीय क्रियाकलाप And तरीकों को त्यागे जाने And सही मार्गो के अपनाए जाने के कर्इ उदाहरण मिलते हैं। इस तरह, प्रबंधकीय कौशल में वृद्धि होती है और संगठन के उद्देश्य सहजता से प्राप्त होते है।

सहभागिता का स्तर या मात्रा 

प्रबंध में श्रमिकों की सहभागिता का स्तर या उसकी मात्रा Single समान नहीं होती। कहीं सहभागिता बहुत ही सीमित होती हैं, तो कहीं श्रमिक कर्इ पब्रधकीय क्षेत्रों में सक्रिय Reseller से भाग लेते हैं। विभिन्न देशों के प्रबंध में श्रमिकों की भागीदारी की योजनाओं के अध्ययन के आधार पर विद्धानों ने सहभागिता के विभिन्न स्तरों का History Reseller है। इन विद्वानों में अलेक्जेंडर, मेहत्राज, राघवन, दत्ता, टानिक आरै एडम सम्मिलित हैं। भागीदारी की योजनाओं के क्रियान्वयन को ध्यान में रखते हुए प्रबंध में श्रमिकों की सहभागिता के अग्रलिखित स्तरों या मात्रा का History Reseller जा सकता है-

1. सूचनात्मक सहभागिता –

सहभागिता के इस स्तर पर नियोजक उद्यम से सबंद्ध कुछ विशेष क्षेत्रों जैसे- व्यवसाय की दशाओं, उद्यम के भविष्य, उत्पादन-प्रणाली में परिवर्तन आदि के संबंध में सूचनाएँ उपलब्ध कराने के लिए Agree हो जाते है। सहभागिता का यह स्तर न्यूनतम होता है। सूचात्मक सहभागिता से कर्मचारी नियोजक की स्थिति से अवगत हो जाते है तथा उन्हें ध्यान में रखते हुए अपनी माँगों और सुझावों को प्रस्तुत करते हैं। इससे श्रमसंघ को अपनी नीतियों And कार्यक्रमों में संशोधन करने तथा कर्मचारियों की प्रवृत्तिमें परिवर्तन लाने में सहायता मिलती है। भारत में प्रबंध में श्रमिकों की भागीदारी की योजनाओं के अंतर्गत जिन क्षेत्रों में कर्मचारियों को सूचनाएँ उपलब्ध कराने की व्यवस्था की गर्इ है, उनमे मुख्य है- उद्यम की सामान्य आर्थिक स्थिति, उद्यम का संगठन और सामान्य संचालन, बाजार, विक्रय And उत्पादन की स्थिति, कार्य And विनिर्माण के तरीके, वार्षिक तुलन-पत्र तथा विस्तार And परिनियोजन-योजनाएँ।

2. समस्या-सहभागिता-

सहभागिता के इस स्तर पर नियोजक उत्पादन या उद्यम से संबद्ध विशेष समस्याओं के समाधान के लिए कर्मचारियों या श्रमसंघ से परामर्श करता है और इस संबंध में उनका सहयोग प्राप्त करता हैं इस स्तर की सहभागिता सामान्यत: Need पड़ने पर विशेष समस्याओं के समाधान के लिए अस्थायी Reseller से होती है। अनुभव के आधार पर इसे व्यापक और स्थायी Reseller दिया जा सकता है। संयुक्त राज्य अमेरिका के वस्त्र-उद्योग में इस तरह की सहभागिता के कर्इ उदाहरण मिलते है। भारत में प्रबंध में श्रमिकों की भागीदारी की योजनाओं में जिन समस्याओं के समाधान का History Reseller गया है, उनमें महत्वपूर्ण हं-ै निम्न-उत्पादकता, बरबादी, अनपु स्थिति, अनुशासनहीनता, दोषपूर्ण सेवा, चोरी और भ्रष्टाचार, प्रदूषण, मद्यपान और जुआबाजी।

3. परामश्र्ाी सहभागिता-

सहभागिता के इस स्तर या मात्रा में नियोजक और कर्मचारियों या श्रमसंघ के बीच कर्इ पूर्व-निर्धारित उभय विषयों पर औपचारिक And नियमित परामर्श की व्यवस्था की जाती है। इसके अंतर्गत नियोजक उद्यम से संबद्ध महत्वपूर्ण विषयों पर निर्णय लेने के First कर्मचारियों या श्रमसंघों से परामर्श कर लेता है और उनके दृष्टिकोणों को ध्यान में रखकर निर्णय लेने के First कर्मचारियों या श्रमसंघों नियोजक को अपने विचारों से अवगत कराते है और अपने सुझाव भी देते है, लेकिन उन्हें स्वीकार करने के लिए नियोजक को बाध्य नहीं करते। परामश्र्ाी सहभागिता में संयुक्त-निर्णयन नहीं होता। इस स्तर की सहभागिता से कर्मचारियों और श्रमसंघ की प्रस्थिति को निश्चित मान्यता मिलती है। भारत में प्रबंध में श्रमिकों की सहभागिता की योजनाओं में परामश्र्ाी सहभागिता के कुछ महत्वपूर्ण क्षेत्र हं-ै स्थायी आदेश उत्पादन And विनिर्माण के नए तरीके, बंदी तथा संचालन में रूकावट, अनुपस्थिति, Safty, अनुशासन, भौतिक दशाएँ, संचार, तथा उत्पादकता और गुणवत्ता।

4. प्रKingीय सहभागिता –

इस स्तर की सहभागिता में उद्यम से संबद्ध कुछ क्षेत्रों में प्रशासन का भार कर्मचारियों और पब्र ंधकों की संयुक्त समितियों को सांपै दिया जाता हैं। सहभागिता के इस स्तर में कर्मचारियों को अपेक्षाकृत अधिक जिम्मेदारी और अधिकार प्राप्त होते हैं तथा उन्हैं। प्रशासन और निरीक्षण-संबंधी कायांर् े में अधिक स्वायत्तता प्राप्त होती है। भारत की सहभागिता-योजनाओं में जिन क्षेत्रों में संयुक्त निकायों को प्रKingीय दायित्व सांपै े जाने की व्यवस्था है, उनमें महत्वपूर्ण हैं-Safty, कंटै ीन, कल्याण-सुविधाएँ, सुझाव, और शिक्षु तथा व्यावसायिक प्रशिक्षण। 5. निर्णयात्मक सहभागिता -यह प्रबंध में श्रमिकों की सहभागिता का उच्चतम स्तर है। इस स्तर में निर्णय की प्रक्रिया वास्तव में संयुक्त होती है। इसमें प्रबंध और श्रमसंघ या श्रमिकों के प्रतिनिधि दोनों को संयुक्त Reseller से निर्णय लेने के अवसर मिलते हैं और निर्णयों के परिणामों का दायित्व दोनों पर संयुक्त Reseller से रहता है। अधिकांश योजनाओं में संयुक्त-निर्णयन के क्षेत्र पूर्व-निर्धारित रहते हैं, लेकिन इन क्षेत्रों की व्यापकता या विषयों में अंतर पाया जाता है। निदेशक बोर्ड में श्रमिकों का प्रतिनिधित्व भी इस स्तर की सहभागिता का उदाहरण या विषयों में अंतर पाया जाता है। निदेशक बोर्ड में श्रमिकों का प्रतिनिधित्व भी इस स्तर की सहभागिता का उदाहरण है। भारत में संयुक्त-निर्णयन के क्षेत्र सीमित हैं, लेकिन जर्मनी, स्वेडेन, इटली, युगोस्लाविया, पोलैंड और जापान में ये व्यापक हैं।

कुछ लोग सामूहिक सौदेबाजी को भी निर्णयात्मक सहभागिता के Reseller में देखते है। लेकिन, प्रबंध में श्रमिकों की सहभागिता और सामूहिक सौदेबाजी में केवल विषयवस्तु के आधार पर ही अंतर नहीं होता, बल्कि दोनों के स्वReseller में भी अंतर होता है। सहभागिता मुख्यत: उभय हितों के विषयों पर ही होती है, जबकि सामूहिक सौदेबाजी मुख्यत:विरोधी हितों पर। प्रबंध में श्रमिकों की सहभागिता में सöावना And पारस्परिक विश्वास के आधार पर उभय हितों के विषयों पर सहयोग करना तथा उत्पादन-वृद्धि या कार्यकुशलता के सुधार करना आवश्यक तत्व होते हैं, लेकिन सामूहिक सादै ेबाजी दोनों पक्षकारों को उत्पीड़क शक्ति से उत्पन्न हो सकने वाले परिणामों पर आधृत रहता है।

भारत में प्रबंध में श्रमिकों की सहभागिता की योजनाएँ 

भारत में प्रबंध में श्रमिकों की सहभागिता का प्रारंभ मुख्यत: सरकार के तत्त्वावधान में हुआ। 1947 के औद्योगिक संधि-प्रस्ताव में श्रमिकों के कौशल तथा उत्पादकता में सुधार लाने के उद्देश्य से औद्योगिक प्रतिष्ठानों में इकार्इ-उत्पादन-समितियों के गठन पर जोर दिया गया। 1948 के औद्योगिक नीति प्रस्ताव में द्विदलीय उत्पादन-समितियों की स्थापना की अनुशंसा की गर्इ। 1948 में ही केन्द्रीय सरकार ने इकार्इ उत्पादन समितियों के गठन के लिए Single आदर्श प्राReseller तैयार Reseller। औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 के अंतर्गत गठित की गर्इ कार्य-समितियों द्वारा उत्पादन-समितियों के Reseller में काम करने पर भी जोर दिया गया। आदर्श प्राReseller के According इकार्इ-उत्पादन-समितियों का मुख्य कार्य उत्पादन की उन विशेष समस्याओं पर विचार-विमर्श करना तथा सलाह देना है, जिनसे श्रमिक प्रत्यक्ष Reseller से संबद्ध हो सकते हैं। प्रत्येक समिति में प्रतिष्ठान में नियोजित श्रमिकों के निर्वाचित प्रतिनिधि तथा प्रबंध द्वारा मनोनीत प्रतिनिधि होंगे। समितियों के क्रियाकलाप में जिन विशेष को सम्मिलित Reseller गया, उनमें मुख्य हैं- (i) मशीनों, यंत्रों और औजारों का अच्छा रख-रखाव, (ii) उत्पादन-समय का सर्वाधिक उपयोग, (iii) दोषपूर्ण कार्य And बरबादी की समाप्ति तथा (iv) Safty-साधनों And तरीकों का अधिक कुशलता से प्रयोग। योजना, विकास, उत्पादन के व्यापक कार्य, पूर्णत: प्रबंधकीय कार्य तथा श्रमसंघों द्वारा संपादित किए जाने वाले कार्य इन समितियों के दायरे से बाहर रखे गए। व्यवहार में, इन प्रयासों को कोर्इ सफलता नहीं मिली, लेकिन प्रबंध में श्रमिकों की सहभागिता के विचार को कर्इ मंचो पर स्वीकृति मिलती गर्इ। कालक्रम में देश में श्रम-प्रबंध सहयोग को प्रोत्साहित करने के लिए सरकार द्वारा कर्इ महत्वपूर्ण कदम उठाए गए।

1958 में देश में संयुक्त प्रबंध परिषदों की योजना अपनार्इ गर्इ। 1975 में कर्मशाला परिषदों तथा संयुक्त परिषदों की नर्इ योजनाएँ लागू की गर्इ। 1977 में सार्वजनिक क्षेत्र के वाणिज्यिक And सेवा संगठनों के लिए अलग से श्रम-प्रबंध सहयोग की संस्थाओं की स्थापना की गर्इ। 1977 में ही संविधान में संशोधन कर राज्य-नीति के निर्देशक सिद्धांतों के अंतर्गत अनुच्छेद 43श् को जोड़कर उपयुक्त विधान बनाकर या अन्य कारगर तरीके से उद्योग में लगें उद्यमों, स्थापनों तथा अन्य संगठनों में प्रबंध में इस संबंध में Single समिति गठित की गर्इ। समिति की सिफारिशों पर 1980 में श्रममंत्री रवीन्द्र वर्मा की अध्यक्षता में इस संबंध में Single समिति गठित की गर्इ। समिति की सिफारिशों पर 1980 में श्रममंत्रियों के सम्मेलन में विचार Reseller गया। इन सिफारिशों को ध्यान में रखते हुए, 1983 में केंद्रीय सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों के लिए 1975 और 1977 की योजनाओं के स्थान पर प्रबंध में कर्मचारियों की भागेदारी की Single नर्इ योजना शुरू की गर्इ। इनके अतिरिक्त, देश में सरकारी सेवाओं तथा कुछ निजी प्रतिष्ठानों में संयुक्त परिषदों की अलग से व्यवस्था है। भारत में प्रबंध में श्रमिकों की सहभागिता की संस्थाओं को निम्नलिखित श्रेणियों में रखा जा सकता है।

1. कार्य-समिति, 1947
2. संयुक्त प्रबंध परिषद, 1958
3. पुराने 20-सूत्री कार्यक्रम के अधीन प्रबंध में श्रमिकों की सहभागिता की संस्थाएँ, 1975
4. सार्वजनिक क्षेत्र के वाणिज्यिक And सेवा-संगठनों के लिए संस्थाएँ, 1977
5. सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के लिए प्रबंध में कर्मचारियों की भागीदारी योजनाओं के अंतर्गत संस्थाएँ, 1983
6. सरकारी सेवाओं में संयुक्त परिषद
7. कुछ निजी प्रतिष्ठानों में प्रबंध में श्रमिकों की सहभागिता की संस्थाएँ

प्रबंध में श्रमिकों की सहभागिता की उपर्युक्त संस्थाओं की विवेचना नीचे की जाती है।

1. कार्य-समिति, 1947-

औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 के अंतर्गत ऐसे किसी भी प्रतिष्ठान में, जिसमें 100 या इससे अधिक संख्या में कर्मकार नियोजित हैं। या पिछले बारह महीने में किसी भी दिन नियोजित रहे हों, अपने-अपने अधिकार-क्षेत्र के उद्योगों के संबंध में केंद्रीय And राज्य सरकारें कार्य-समिति के गठन की अपेक्षा कर सकती है। कार्य-समिति में नियोजक और कर्मकारों के प्रतिनिधि होते हैं, लेकिन कर्मकारों के प्रतिनिधियों की संख्या नियोजकों के प्रतिनिधियों की संख्या से कम नहीं हो सकती। कर्मकारों के प्रतिनिधियों का चयन संबद्ध प्रतिष्ठान के पंजीकृत श्रमसंघ के परामर्श से करना आवश्यक है। अधिनियम के According कार्य-समिति का कार्य नियोजक और कर्मकारों के बीच मैत्री और अच्छे संबंध बनाए रखने के लिए उपाय करना और इस उद्देश्य से उनके सामान्य हितों और संपर्कवाले मामलों पर टिप्पणी करना तथा मतभेदों को दूर करने के लिए प्रयास करना है।

औद्योगिक विवाद अधिनियम में कार्य-समिति के विशिष्ट कार्यो का description नहीं दिया गया है। इस संबंध में Indian Customer श्रम-सम्मेलन द्वारा 1959 में Single समिति गठित की गर्इ, जिसकी सिफारिशों की पुष्टि सम्मेलन ने अपनी 1961 की बैठक में की। समिति ने कार्य-समिति के कार्यों की विस्तृत सूची बनाना अव्यावहारिक समझा तथा इसमें लचीलेपन के तत्त्व को स्वीकार Reseller। फिर भी, समिति ने कार्य-समिति द्वारा किए जानेवाले कार्यों और नहीं किए जानेवाले कार्यों के क्षेत्रों की Single निदश्र्ाीं सूची तैयार की।

कार्य-समिति द्वारा किए जा सकनेवाले कार्यों के क्षेत्र में सम्मिलित विषय है-(i) कार्य की दशाएँ, जैसे-संवातन, तापमान, प्रकाश और सफार्इ, (ii) सुविधाएँ, जैसे- पेयजल की आपूर्ति, कंटै ीन, विश्राम-कक्षा, शिश-ु गृह, चिकित्सा And स्वास्थ्य सेवाएँ, (iii) Safty, दुर्घटनाओं की रोकथाम, व्यावसायिक रोग तथा संरक्षात्मक उपकरण, (iv) उत्सव तथा राष्ट्रीय अवकाश-दिन, (v) कल्याण And जुर्माना-कोष का प्रशास, (vi) शैक्षिक And मनोरंजनात्मक क्रियाकलाप तथा (vii) बचत और मितव्ययिता को प्रोत्साहन।

वे क्षेत्र जो कार्य-समिति के कार्यक्षेत्र के बाहर होंगे, हैं-(i) मजदूरी और भत्ते, (ii) बोनस तथा लाभ में भागीदारी की योजनाएँ, (iii) युक्तिकरण तथा कार्यभार का नियतन, (iv)मानक श्रम-शक्ति का नियतन, (v) योजना And विकास-कार्यक्रम, (vi) छँटनी And जबरी छुट्टी से संबंध विषय, (vii) श्रमसंघ कार्यकलाप के लिए उत्पीड़न, (viii) भविष्य-निधि, उपदान तथा अन्य सेवा-निवृि त्त योजनाएँ, (ix) अभिपेर्र णा-योजनाएँ तथा (x) आवास तथा परिवहन-सेवाएँ।

सरकार की श्रम-नीतियों And पंचवष्र्ाीय योजनाओं के अंतर्गत इस संस्था को शक्तिशाली बनाने पर जोर दिया गया, लेकिन कुछ अपवादों को छोड़कर देश में कार्य-समिति की संस्था पूरी तरह विफल रही है। राष्ट्रीय श्रम आयोग (1969) ने कार्य-समिति की असफलता के कारणों का History करते हुए कहा है, ‘‘हमारे समक्ष प्रस्तुत साक्ष्य में राज्य सरकारों ने यह मत प्रकट Reseller है कि सिफरिशों के सलाहकारी स्वReseller, उनके वास्तविक कार्यक्षेत्र और कार्यों के बारे में अस्पष्टता, संघों की आपस में चलने वाली प्रतिस्पर्धा, संघों का विरोध और नियोक्ताओं द्वारा इन तरीकों को अपनाने से इनकार करने के कारण ये समितियाँ आरै अधिक अप्रभावी होती जा रही हैं। नियोक्ताओं के संगठनों ने इन समितियाँ की असफलता का कारण ये समितियाँ और अधिक अप्रभावी होती जा रही हैं। नियोक्ताओं के संगठनों ने इन समितियाँ की असफलता का कारण संघों की आपसी प्रतिस्पर्धा, संघों का विरोध और सदस्यों (श्रमिक पक्ष के) द्वारा समिति में असंगत मामलों पर विचार-विमर्श शुरू करने की कोशिश जैसे तत्त्व रहे हैं। संघों के मतानुसार संघ और कार्य-समिति के कार्यक्षेत्रों-संबधी विवाद और नियोक्ताओं का असहयोगपूर्ण रवैया इन समितियों की असफलता का नाम कारण रहा है।’’

2. संयुक्त प्रबंध परिषद, 1958- 

भारत में प्रबंध में श्रमिकों की सहभागिता के महत्व को स्वीकार करते हुए 1956 के औद्योगिक नीति-प्रस्ताव में कहा गया, ‘‘समाजवादी प्रजातंत्र में विकास के सामान्य कार्य में श्रम साझेदार होता है तथा उसे इसमें उत्साह से भाग लेना चाहिए। इसके लिए संयुक्त परामर्श की Need है तथा जहाँ संभव हो कामगारों और शिल्पियों को प्रबंध में उत्तरोत्तर सम्मिलित Reseller जाना चाहिए।’’ द्वितीय पंचवष्र्ाीय योजना में भी बड़े उद्योगों में संयुक्त प्रबंध परिषदों की स्थापना की सिफारिश की गर्इ। इकार्इ-उत्पादन-समितियों की तुलना में इन परिषदों को अधिक व्यापक अधिकार देने का सुझाव दिया गया। द्वितीय पंचवष्र्ाीय योजना की सिफारिशों को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार ने यूरोपीय देशों में प्रबंध में श्रमिकों की सहभागिता की योजनाओं के अध्ययन के लिए Single दल भेजा। इस अध्ययन-दल की रिपोर्ट और उसके सुझावों पर Indian Customer श्रम-सम्मेलन के पंद्रहवें अधिवेशन के विस्तार से विचार-विमर्श हुआ। सम्मेलन ने अध्ययन-दल की रिपोर्ट और सिफारिशों को स्वीकार करते हुए प्रबंध में श्रमिकों की सहभागिता की विस्तार से योजना तैयार करने के लिए Single त्रिदलीय उपसमिति का गठन Reseller। 1958 में इस विषय पर Single राष्ट्रीय सेमिनार का भी आयोजन Reseller गया, जिसमें भारत के विशेष संदर्भ में संयुक्त प्रबंध परिषदों के गठन से संबद्ध कर्इ महत्त्वपूर्ण सुझाव दिए गये। सेमिनार में प्रबंध और श्रमसंघ के हितों को ध्यान में रखने के लिए संयुक्त प्रबंध परिषदों की स्थापना से संबद्ध Single आदर्श समझौते का प्राReseller भी तैयार Reseller गया। इन प्रयासों के फलस्वReseller भारत में संयुक्त प्रबंध परिषद की योजना तैयार की गर्इ और उसे लागू करने के लिए कदम उठाए गए। संयुक्त प्रबंध परिषदों के गठन और कार्यों की विवेचना नीचे की जाती है-

  1. संयुक्त प्रबंध परिषदों का गठन- संयुक्त प्रबंध परिषद में प्रबंध और कर्मचारियों के प्रतिनिधि बराबर-बराबर की संख्या में होगें। उनकी कुल संख्या बड़े प्रतिष्ठानों में अधिकतम 12 तथा छोटे प्रतिष्ठानों में अधितम 6 हो सकती है। जिस प्रतिष्ठान में कानून के अंतर्गत मान्यता-प्राप्त प्रतिनिधिं श्रमसंघ है, उसमें कर्मचारियों के प्रतिनिधियों का मनोनयन उसी संघ के द्वारा करना आवश्यक है। जहाँ इस प्रकार का श्रमसंघ नहीं है और वहाँ केवल Single श्रमसंघ है, तो कर्मचारियों के प्रतिनिधियों का मनोनयन उसी श्रमसंघ द्वारा Reseller जाएगा। जहाँ दो या दो से अधिक श्रमसंघ हैं, वहाँ कर्मचारियों के प्रतिनिधियों का मनोनयन उन संघों की Agreeि से Reseller जाएगा। श्रमसंघ अपने प्रतिनिधियों की कुल संख्या 25 प्रतिशत प्रतिनिधियों को गैर-कामगारों में से भी मनोनीत कर सकते हैं। प्रबंधकों के प्रतिनिधियों का मनोनयन प्रबंध द्वारा Reseller जाएगा।
  2. संयुक्त प्रबंध परिषदों कें उद्देश्य And कार्य- आदर्श समझौते के प्राReseller में संयुक्त प्रबंध परिषदों के कार्यो का विस्तार से History Reseller गया है। इस समझौते की प्रास्तावना में इन परिषदों के उद्देश्यों का भी History Reseller गया है, जिनमें मुख्य है- (1) उद्यम, कर्मचारियों तथा देश के सामान्य लाभ के लिए उत्पादकता बढ़ाने का प्रयास करना, (2) उद्योग के कार्यकरण तथा उत्पादन-प्रक्रिया में कर्मचारियों को उनकी भूमिका तथा उनके महत्व के बारे में अधिक समझ के अवसर प्रदान करना तथा (3) उनकी आत्माभिव्यक्ति की भावना को संतुष्ट करना। इन परिषदों के कुछ विशेष लक्ष्य है- (i) कर्मचारियों के कार्य And रहने की दशाओं में सुधार लाना, (ii) उत्पादकता में वृद्धि करना, (iii) कर्मचारियों के बीच से सु़झावों को प्रोत्साहित करना, (iv) कानूनों और समझौतों के प्रशासन में सहायता प्रदान करना, (v)प्रबंध और कर्मचारियों के बीच विश्वसनीय संचार-माध्यम का कार्य करना तथा (vi) कर्मचारियों में सहभागिता की सजीव भावना का सर्जन करना। संयुक्त प्रबंध परिषदों के विशिष्ट कार्यों को तीन मुख्य श्रेणियों में रखा गया है। यह हैं-(i) परामश्र्ाी कार्य ii) सूचना प्राप्त करने And सुझाव देने से संबद्ध कार्य तथा (iii) प्रशासनिक कार्य।
    1. परामश्र्ाी कार्य-प्रबंध के लिए संयुक्त प्रबंध परिषद से अग्रलिखित बातों पर परामर्श लेना आवश्यक है- 1. स्थायी आदेशों का सामान्य प्रशासन तथा उनका संशोधन, 2.उत्पादन और विनिर्माण के नए तरीकों का प्रयोग, जिससे श्रमिकों और मशीनों का पुन: परिनियोजन आवश्यक हो जाता हो 3. बंदी तथा संचालन में कमी या उसका रुक जाना।
    2. सूचना प्राप्त करने And सुझाव देने से संबद्ध कार्य- संयुक्त प्रबंध परिषदों को जिन विषयों पर सूचना प्राप्त करने तथा सुझाव देने के अधिकार होंगे वे है-1. प्रतिष्ठान की सामान्य आर्थिक स्थिति 2. उद्यम का संगठन तथा सामान्य संचालन 3. बाजार, उत्पादन तथा विक्रय-कार्यक्रमों की स्थिति, 4. उद्यम की आर्थिक स्थिति को प्रभावित करने वाली परिस्थितियाँ, 5. कार्य And विनिर्माण के तरीके, 6. वार्षिक तुलन-पत्र, लाभ-हानि का description और संबद्ध दस्तावेज 7. विस्तार And पुन: परिनियोजन की दीर्घकालीन योजनाएँ तथा 8. अन्य Agree विषय।
    3. प्रशासनिक कार्य- संयुक्त प्रबंध परिषदों के प्रशासनिक कायांर् े में सम्मिलित हैं- 1. कल्याणकारी कार्यक्रमों का प्रशासन, 2. Safty के उपायों का पर्यवेक्षण, 3. व्यावसायिक प्रशिक्षण एंव शिक्षु योजनाओं का संचालन, 4. कार्य के घंटों, अंतरालों तथा अवकाशों की अनुसूची तैयार करना, 5. कर्मचारियों से प्राप्त किए गए उपयोगी सुझावों के लिए परितोषिक का भुगतान तथा 6. अन्य विषय जिनके बारे में परिषद में Agreeि हो। सामूहिक सौदेबाजी के विषयों- जैसे मजदूरी, बोनस, भत्तों आदि को- संयुक्त प्रबंध परिषदों के अधिकार-क्षेत्र से बाहर रखा गया है। व्यक्तिगत परिवेदनाओं को भी इन परिषदों के दायरे में नहीं रखा गया है। संयुक्त प्रबंध परिषदों को प्रोत्साहित करने के लिए सरकार तथा त्रिपक्षीय निकायों द्वारा कर्इ तरह के प्रयास किए गये। देश की पंचवष्र्ाीय योजनाओं में उन्हें प्रोत्साहित करने के लिए नीति और कार्यक्रमों का History Reseller गया। इन प्रयासों के बावजूद देश में संयुक्त प्रबंध परिषदों की प्रगति अत्यंत ही असंतोषजनक रही है। 1966 से 1968 की अवधि को छोड़कर इन परिषदों की कुल संख्या देशभर में 100 से भी कम रही है। वर्तमान समय में देश में 80 से भी कम संयुक्त प्रबंध परिषदें कार्यरत हैं। जिन प्रतिष्ठानों में यह परिषदें है। उनमें भी व सुचारु Reseller से काम नहीं कर रहीं है।

3. पुनाने 20-सूत्री कार्यक्रम के अधीन प्रबंध में श्रमिकों की सहभागिता की संस्थाएँ, 1975- 

1975 के बीस-सूत्री कार्यक्रम के अधीन प्रबंध में श्रमिकों की सहभागिता की नर्इ योजनाएँ लागू करने के निदेश दिए गये थे।इन निदेशों को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार ने कर्मशाली-तल तथा प्रतिष्ठान या संयंत्र के स्तरों पर ‘उद्योग में श्रमिकों की सहभगिता’ निजी तथा सहकारी क्षेत्रों की ऐसी विनिर्माणी तथा खनन इकाइयों में लागू करने का निर्णय Reseller गया, जिनमें 500 से अधिक कामगार नियोजित हों। ये योजनाएँ विभागीय Reseller से संचालित इकाइयों के लिए भी थीं। इन योजनाओं के अंतर्गत कर्मशाला/विभाग के स्तर पर कर्मशाला परिषदों तथा उद्यम या प्रतिष्ठान के स्तर पर संयुक्त परिषदों की स्थापना की व्यवस्था की गर्इ।

1. कर्मशाला परिषद- 

ऐसी प्रत्येक औद्योगिक इकार्इ में, जिसमें 500 या अधिक कामगार नियोजित हैं, नियोजक के लिए प्रत्येक विभाग या कर्मशाला के लिए Single कर्मशाला परिषद का गठन करना आवश्यक है। विभिन्न विभागों या कर्मशालाओं में नियोजित कामगारों की संख्या को ध्यान में रखते हुए नियोजक Single से अधिक विभागों/कर्मशलाओं के लिए केवल Single ही कर्मशाला परिषद का गठन कर सकता है, लेकिन ऐसा करते समय उसे मान्यता-प्राप्त श्रमसंघ या विभिन्न पंजीकृत श्रमसंघों या कामगारों से परामर्श लेना आवश्यक है।

  • कर्मशाला परिषद- ऐसी प्रत्येक औद्योगिक इकार्इ में जिसमें 500या अधिक कामगार नियोजित हैं, नियोजक के लिए प्रत्येक विभाग या कर्मशाला के लिए Single कर्मशाला परिषद का गठन करना आवश्यक है। विभिन्न विभागों या कर्मशालाओं में नियोजित कामगारों की संख्या को ध्यान में रखते हुए नियोजक Single से अधिक विभागों/कर्मशालाओं के लिए केवल Single ही कर्मशाला परिषद का गठन कर सकता है, लेकिन ऐसा करते समय उसे मान्यता-प्राप्त श्रमसंघ या विभिन्न पंजीकृत श्रमसंघों या कामगारों से परामर्श लेना आवश्यक है।
  • गठन- प्रत्येक कर्मशाला परिषद में प्रबंध और श्रमिकों के प्रतिनिधि बराबर-बराबर की संख्या में रहेंगे। प्रबंध के प्रतिनिधि संबद्ध इकार्इ के प्रबंधकों में से नियोजक द्वारा मनोनीत किए जाएँगे। कर्मकारों के प्रतिनिधि संबद्ध विभाग या कर्मशाला में वास्तव में काम करनेवाले कर्मकारों में से होंगे। प्रत्येक कर्मशाला परिषदमें सदस्यों की संख्या का निर्धारण नियोजक द्वारा मान्यता-प्राप्त श्रमसंघ, पंजीकृत श्रमसंघों या कामगारों के परामर्श में सदस्यो की संख्या का निर्धारण नियोजक द्वारा मान्यता-प्राप्त श्रमसंघ, पंजीकृत श्रमसंघों या कामगारों के परामर्श से Reseller जाएगा। कर्मशाला परिषद में सदस्यों की कुल संख्या सामान्यत: 12 से अधिक नहीं हो सकती। कर्मशाला परिषद का अध्यक्ष प्रबंध द्वारा मनोनीत व्यक्ति होगा तथा उपाध्यक्ष का निर्वाचन परिषद के श्रमिकों के प्रतिनिधियों द्वारा होगा। 
  • कार्यविधि- कर्मशाला परिषद में निर्णय मतैक्य के आधार पर होगा न कि मतदान के आधार पर। किसी विषय पर मतभेद की स्थिति में उसे संयुक्त परिषद के विचारार्थ भेजा जाएगा। कर्मशाला परिषद के निर्णयों को निर्णय के दिन से Single महीने के अंदर लागू करना आवश्यक है, लेकिन सदस्यों की अनुमति सं इस अवधि के बढ़ाया जा सकता है। अगर किसी कर्मशाला परिषद के निर्णय से दूसरी कर्मशाला या संपूर्ण प्रतिष्ठान या उद्यम प्रभावित होता हो, तो उसे संयुक्त परिषद को निदेशित करना आवश्यक है। कर्मशाला परिषद का कार्यकाल उसकी स्थापना के दिन से 2 वर्षों के लिए होगा। परिषद की बैठक महीने में कम से कम Single बार अवश्य होनी चाहिए। 
    • कार्य- कर्मशाला परिषद कर्मशाला/विभाग के उत्पादन, उत्पादकता तथा कौशल में वृद्धि के उद्देश्य से निम्नलिखित कार्य संपदित कर सकती है- 
      • 1. उत्पादन के मासिक/वार्षिक लक्ष्यों की प्राप्ति में प्रबंध को सहायता प्रदान करना; 
      • उत्पादन, उत्पादकता तथा कौशल में सुधार लाने का प्रयास करना, जिसमें बरबादी का अंत तथा मशी की क्षमता और Human शक्ति का अनुकूलतम उपयोग भी शामिल है; 
      • निम्न-उत्पादकतावाले क्षेत्रों के विशेष Reseller से पहचान करना तथा उसके कारणों की समाप्ति के लिए कर्मशाला स्तर पर सुधारात्मक कदम उठाना। 
      • कर्मशाला/विभाग में अनुपस्थिति के कारणों का अध्ययन करना तथा उसे कम करने के लिए सुझाव देना 
      • Safty के उपय; 
      • कर्मशाला/विभाग में सामान्य अनुशासन बनाए रखने में सहायेता देना; 
      •  कार्य की भौतिक दशाएँ जैसे-प्रकाश, संवातन, ध्वनि, आदि, और थकान में कमी; 
      •  कर्मशाला/विभाग के सुचारु से संचालन के लिए कल्याण तथा स्वास्थ्य-संबधी कदम; तथा; 
      • श्रमिकों और प्रबंधको के बीच द्विमार्गीय संचार का समुचित प्रवाह सुनिश्चित करना, विशेषकर उत्पादन के आँकड़ों, उत्पादन-कार्यक्रम तथा लक्ष्यों की प्राप्ति की प्रगति से संबद्ध विषयों पर। 

2. संयुक्त परिषद-

  • गठन और कार्यविधि-संयुक्त परिषद की स्थापना उद्यम या प्रतिष्ठान के स्तर पर की जाएगी। इसकी संCreation और कार्यविधि कर्मशाला परिषद की तरह ही होगी। संयुक्त परिषद में केवल ऐसे सदस्य हो सकते हैं जो उद्यम या प्रतिष्ठान में वास्तव में नियोजित हों। परिषद की कार्याविधि 2 वर्षों की होगी। परिषद का अध्यक्ष उद्यम का प्रधान कार्यपालक होगी। उसके उपाध्यक्ष का निर्वाचन परिषद के कामगार-सदस्यों द्वारा होगा। संयुक्त परिषद के Single सदस्य को परिषद के सचिव के Reseller में नियुक्त Reseller जाएगा। सचिव के अपने कार्य सुचारु Reseller से चलाने के लिए समुचित सुविधाओं की व्यवस्था करना आवश्यक है। संयुक्त परिषद की बैठक तीन महीनों में कम-से-कम Single बार होगी। संयुक्त परिषद के निर्णय भी मतैक्य के आधार पर होंगे, न कि मतदान के आधार पर। परिषद के निणयों को भी निर्णय के दिन से Single महीने के अंदर लागू करना आवश्यक है। 
    • कार्य- संयुक्त परिषद निम्नलिखित विषयों पर निर्णय कर सकती है- 
      • पूरी इकार्इ के लिए अनुकूलतम उत्पादन, कौशल तथा उत्पादकता-मानकों का नियतन;
      • . कर्मशाला परिषदों के ऐसे कार्य, जिनसे दूसरी कर्मशाला या संपूर्ण इकार्इ प्रभावित होती हो; 
      • ऐसे मामले, जिनपर कर्मशाला परिषद में निर्णय करना संभव नहीं हो सका हो; 
      • संपूर्ण प्रतिष्ठान या इकार्इ से संबद्ध कार्य-योजना तथा उत्पादन-लक्ष्यों की प्राप्ति; 
      • कर्मचारियों के कौशल का विकास तथा प्रशिक्षण की समुचित सुविधाएँ; 
      • कार्य के घंटों तथा अवकाश-दिनों की अनुसूची का बनाया जाना; 
      • मूल्यवान तथा सर्जनात्मक सुझावों के लिए कर्मकारों को पारितोषिक; 
      • कच्चे माल का अनुकूलतम उपयोग तथा उत्पादों की गुणवत्ता तथा 
      • सामान्य स्वास्थ्य, कल्याण तथा Safty-संबंधी उपाय। 

पुराने बीस-सूत्री कार्यक्रम के अधीन प्रबंध में श्रमिकों की सहभागिता की उपर्युक्त संस्थाएँ भी सफल नहीं हो सकीं। प्रांरभ में तो इस तरह की संयुक्त परिषदों की स्थापना बड़ी संख्या में की गर्इ, लेकिन शीघ्र ही वे निष्क्रिय होती गर्इ। आज इस योजना के अंतर्गत स्थापित संयुक्त परिषदों की संख्या बहुत ही कम है।

4. सार्वजनिक क्षेत्र के वणिज्यिक And सेवा-संगठनों के प्रबंध में श्रमिकों की सहभागिता की संस्थाएँ, 1977-

1977 में भारत सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र के वणिज्यिक And सेवा संगठनों के लिए Single नर्इ योजना अपनार्इ। यह योजना मुख्यत: ऐसे संगठन के लिए है, जिनमें 100 से अधिक कर्मचारी नियोजित हैं। तथा जिसमें सार्वजनिक लेन-देन बड़ी मात्रा में होता हो। इस योजना को लागू करने के लिए अस्पतालों, डाक और तार कार्यालयों, रेलवे स्टेशनों, टिकट कार्यालय, बंकै ों तथा सार्वजनिक वितरण की संस्थाओं को प्राथमिकता दी गर्इ। यह योजना पर्याप्त Reseller से नम्य है तथा स्थानीय दशाओं को ध्यान में रखते हुए इसमें परिवर्तन लाना संभव है। इस योजना के अंतर्गत इकार्इ परिषदों की स्थापना की गर्इ। इन परिषदों का संक्षिप्त description नीचे दिया जाता है।

  • इकार्इ परिषद-इकार्इ परिषदों के गठन और कार्य बीस-सूत्री कार्यक्रम के अधीन स्थापित कर्मशाला परिषदों के गठन और कार्यों की तरह है। वे इनका मुख्य उद्देश्य दिन-प्रतिदिन के समस्याओं पर विचार-विमर्श करना तथा उनका हल ढूँढ निकालना है। इन परिषदों के मुख्य कार्य निम्नलिखित हं-ै 
    • अनुकूलतम कौशल तथा अच्छी ग्राहक-सेवा के लिए समुचित दशाओं का सर्जन करना और समय तथा सामानों की बरबादी को रोकना; 
    • खराब, अपर्याप्त तथा दोषपूर्ण सेवाओं के क्षेत्रों का पता लगाना तथा उनके कारणों को दूर करने के लिए सुधारात्मक कदम उठाना, जिससे संचालन समुचित Reseller से हो; 
    • अनुपस्थिति के कारणों का अध्ययन करना तथा उसे कम करने के लिए कदम उठाना; 
    • इकार्इ में अनुशासन बनाए रखना; 
    • चोरी और भ्रष्टाचार को समाप्त करना तथा इसके लिए पारितोषिक की व्यवस्था करना; 
    • कार्य की भौतिक दशाओं में सुधार लाने के लिए सुझाव देना;
    • प्रबंध और कर्मचारियों के बीच पर्याप्त द्विमार्गीय संचार का प्रवाह सुनिश्चित करना;
    • इकार्इ को समुचित Reseller से चलाने के लिए Safty, स्वास्थ्य तथा कल्याण-संबंधी कदमों में सुधार लाना; 
    • अच्छी ग्राहक-सेवा सुनिश्चित करने के लिए अन्य बातों पर विचार-विमर्श करना। 
  • संयुक्त परिषद- संयुक्त परिषद का गठन प्रभाग, क्षेत्र या मंडल के स्तरों पर होगा। Needनुसार, इसकी स्थापना किसी संगठन या सेवा की विशिष्ट शाखा में भी की जा सकती है। इन परिषदों के गठन कार्याविधि आदि से संबद्ध बातें बीस-सूत्री कार्यक्रम के अधीन गठित संयुक्त परिषदों की तरह है। संयुक्त परिषदों के मुख्य कार्य हैं- 
    • उन मामलों का निपटान करना, जिनका समाधान इकार्इ परिषद में नहीं हो सका है तथा दो या अधिक इकार्इ परिषदों की अंत: परिषदीय समस्याओं के समाधान के लिए संयुक्त बैठकें आयोजित करना; 
    • ग्राहक-सेवा में सुधार लाने तथा सामानों, यातायात, लेखा आदि से संबद्ध उपयुक्त तरीके के विकास के लिए इकार्इ परिषदों के कार्यों की समीक्षा करना; 
    • इकार्इ के स्तर की ऐसी All बातों पर विचार करना, जिनका संबंध दूसरी शाखाओं या संपूर्ण उद्यम से हो; 
    • कर्मकारों के कौशल का विकास करना तथा प्रशिक्षण की पर्याप्त सुविधाओं की व्यवस्था करना; 
    • कार्य की सामान्य दशाओं में सुधार लाने का प्रयास करना; 
    • कार्य के घंटों तथा अवकाश-दिनों की अनुसूची तैयार करना; 
    • पारितोषिक की व्यवस्था के जरिए कर्मचारियों के बीच से उपयोगी सुझावों को प्रोत्साहित करना; तथा
    • संगठन या सेवा के निष्पादन में सुधार तथा अच्छी ग्राहक-सेवा सुनिश्चित करने के लिए किसी भी विषय पर विचार-विमर्श करना। उपर्युक्त परिषदों की योजना मुख्य Reseller से केंद्रीय मंत्रालयों तथा विभागों, राज्य सरकारों, संघराज्य क्षेत्रों के प्रशासनों तथा अन्य सार्वजनिक निगमों और निकायों के लिए बनार्इ गर्इ थी। व्यवहार में, ये परिषदें भी निर्धारित लक्ष्यों की पूर्ति में व्यापक Reseller से विफल रहीं। 

5. सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के लिए प्रबंध में कर्मचारियों की भागीदारी योजना के अंतर्गत संस्थाएँ, 1983-

उद्योगों में सहभागी योजनाओं की प्रगति को ध्यान में रखते हुए प्रबंध में कर्मचारियों की सहभागिता की Single विस्तृत योजना तैयार की गर्इ। यह योजना, उन उद्यमों को छोड़कर, जिन्हें छूट दी गर्इ है, केंद्रीय सार्वजनिक क्षेत्र के All उद्यमों पर लागू की गर्इ। योजना के अंतर्गत कर्मशाला-तल तथा संयंत्र स्तरों पर निष्पक्षीय मंचों के गठन की व्यवस्था की गर्इ। इन संस्थाओं की संCreation और कार्यों का description है-

  1. संCreation- कर्मशाला-तल तथा संयंत्र-स्तर मंचों, दोनों में कर्मचारियेां और प्रबंधकों के प्रतिनिधि बराबर-बराबर की संख्या में होंगे। प्रत्येक पक्षकार की संख्या 5 और 10 के बीच श्रम-शक्ति के आकार के According होगी। उनकी वास्तविक संख्या उपक्रम के श्रमसंघ-नेताओं के परामर्श से प्रबंध द्वारा नियत की जाएगी। श्रमसंघ-नेताओं के परामर्श से ही विभिन्न श्रेणियों के कर्मचारियों के प्रतिनिधित्व का स्वReseller निर्धारित Reseller जाएगा। जहाँ स्त्री-कर्मकारों का अनुपात कुल कामगारों के 10 प्रतिशत से अधिक है, वहाँ इन संयुक्त निकायों पर उनके समुचित प्रतिनिधित्व की व्यवस्था की जाएगी। 
  2. कार्य (i) कर्मशाला-तल मंचों के कार्यक्षेत्र में सम्मिलित होनेवाले विषय हं-ै उत्पादन-सुविधाएँ, कर्मशाला में भंडारण-सुविधाएँ; सामग्रियों की मितव्ययिता; संचालन की समस्याएँ; बरबादी का नियंत्रण; खतरे और Safty की समस्याएँ; गुणवत्ता में सुधार; स्वच्छता; मासिक लक्ष्य तथा उत्पादन-अनुसूची, लागत-नियंत्रण कार्यक्रम; कार्यपद्धति का निर्माण और क्रियान्वयन; समूह-कार्य; कर्मशाला से संबद्ध कल्याकारी उपाय। 
  3. संयंत्र-स्तरीय मंचों के कार्यक्षेत्र के महत्वपूर्ण विषय हं-ै उत्पादन-योजनाओं का विकास; मासिक लक्ष्यों और अनुसूचियों से संबद्ध योजना,उसका क्रियान्वयन और पुनर्विलोकन; सामग्रियों की आपूर्ति; भंडारण; गृह-व्यवस्था; उत्पादकता में सुधार; सुझावों को प्रोत्साहन और उनपर विचार; गुणवत्ता और प्रौद्योगिकी में सुधार; मशीनों का उपयोग और नए उत्पादनों का ज्ञान और विकास; संचालन-संबंधी निष्पादन; दो या अधिक कर्मशालाओं से संबद्ध विषय या ऐसे विषय जिन्हें कर्मशाला स्तर पर नहीं तय Reseller गया हो; कर्मशाला-स्तरीय निकायों का कार्यकरण । संयंत्र-स्तरीय मंचों द्वारा निर्धारित किए जानेवाले आर्थिक और वित्तीय क्षेत्र हैं-लाभ-हानि और तुलन-पत्र; संचालन-संबंधी व्यय, वित्तीय परिणाम तथा विक्रय की लागतें; तथा संयंत्र में वित्तीय प्रशासन, श्रम और प्रबंधकीय लागत, बाजार की स्थिति। संयंत्र-स्तरीय मंचों द्वारा निर्धारित किए जानेवाले कार्मिक विषयों में मुख्य हैं- अनुपस्थिति; महिला-कर्मकारो की विशेष समस्याएँ; कर्मकारों के प्रशिक्षण -कार्यक्रम; तथा सामाजिक Safty-योजनाओं का क्रियान्वयन। इन मंचों के कल्याणकारी कार्यक्षेत्र हैं- कल्याण-सुविधाओं का संचालन, कल्याण-योजनाओं , चिकित्सकीय हिललाभ तथा यातायात-सुविधाओं को क्रियान्वयन ; Safty के उपाय; खेलकूद; आवास; नगरीय पश््र ाासन; कंटै ीन; जअु ाबाजी, मद्यपान और ऋणग्रस्तता का नियंत्रण। 

कर्मशाला और संयंत्र-स्तरीय मंचों द्वारा निर्णय Agreeि के आधार पर होंगे, लेकिन जब किसी विषय पर Agreeि नहीं हो पाती, तो उसे निर्णयन के उच्चतर मंच पर भेजा जाएगा। 

योजना के अंतर्गत बोर्ड-स्तरीय मंच के गठन की भी व्यवस्था की गर्इ है। बोर्ड पर कर्मचारियेां के प्िर तनिधि बोर्ड के All कायांर् े में भाग लेंगे। बोर्ड के कायांर् े में कर्मशाला और संयंत्र-स्तरीय मंचों के कार्यों का पुनविलोकन भी सम्मिलित है। योजना के प्रबोधन और पुनर्विलोकन के लिए श्रम मंत्रालय में Single त्रिदलीय तंत्र के गठन की भी व्यवस्था की गर्इ है। राज्य सरकारों से भी अनुरोध Reseller गया है कि वे अपने सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में इस योजना को लागू करें। इसे निजी क्षेत्र के उद्यमों में लागू कराने के लिए भी प्रयास किए जाएँेंगें। अगस्त, 1995 तथा कुल 236 केंद्रीय सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों में से 100 उद्यमों में कर्मशाला-तल और संयंत्र स्तरीय मंच बनाए गए थे। 

6. सरकारी सेवाओं में संयुक्त परिषद-

Second वेतन आयोग की सिफारिशों को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार ने 1966 में सरकारी विभागों में संयुक्त परिषदों की Single ऐच्छिक योजना लागू की। इस योजना के अंतर्गत राष्ट्रीय परिषद, विभागीय परिषद, क्षेत्रीय परिषद तथा कार्यालय परिषद की स्थापना की व्यवस्था की गर्इ है। प्रत्येक परिषद में सरकार द्वारा मनोनीत अधिकारी तथा कर्मचारियों के संगठनों के प्रतिनिधि होते हैं। इन परिषदों के कार्यों में मुख्य हैं- सेवा की शर्तों, कार्य की दशाओं, कर्मचारियों के कल्याण तथा कार्य के स्तरों में सुधार से संबंद्ध विषयों पर संयुक्त वार्ता तथा निर्णय करना। भरती, पदोन्नति तथा अनुशासन के मामलों पर परिषदों में केवल सैद्धांतिक पहलुओं पर ही विचार-विमर्श हो सकते हैं। इसके अतिरिक्त रेलवे, डाक और तार तथा Safty-स्थापनों में संयुक्त परामश्र्ाी तंत्रों की व्यवस्था First से ही चलती आ रही है। ये तंत्र सहयोग, परामर्श, विचार-विमर्श तथा वार्ता के कार्य साथ-साथ निष्पादित करते है। लेकिन मूल Reseller् से ये मतभेदों और विवादों के निपटान के मंच है। 

7. कुछ निजी औद्योगिक प्रतिष्ठानों में प्रबंध में श्रमिकों की सहभागिता की संस्थाएँ- 

निजी क्षेत्र के कुछ महत्वपूर्ण औद्यागिक प्रिष्ठानों में, प्रबंध में श्रमिकों की सहभागिता की योजनाएँ सामूहिक समझौतों के जरिए भी स्थापित की गर्इ हैं। उदाहरणार्थ, टाटा आइरन एंड स्टील कंपनी में 1956 के सामूहिक समझौते के अंतर्गत कुछ संयुक्त निकायों का गठन Reseller गया है; जैसे-संयुक्त विभागीय परिषद, संयुक्त कार्य-परिषद, संयुक्त नगर-परिषद तथा संयुक्त परामश्र्ाी प्रबंध-परिषद। समझौते में ही इन परिषदों के गठन और कार्यों का विस्तार से History Reseller गया है। इंडियन ऐलुमिनियम कंपनी में भी सामूहिक समझौते के जरिए 1956 में कर्इ संयुक्त समितियों की स्थापना की गर्इ; जैसे- संयुक्त कार्मिक संबंध-समिति, संयुक्त उत्पादन-समिति, संयुक्त कार्यमूल्यांकन-समिति, संयुक्त मानक-समिति, तथा संयुक्त कैंटीन-समिति। इसी तरह कर्इ अन्य औद्योगिक प्रतिष्ठानों में अलग-अलग विषयों पर संयुक्त समितियों का गठन Reseller गया है। इनमें अधिकांश संयुक्त समितियाँ कैंटीन, Safty, कल्याण तथा आवास से संबद्ध हैं।

उद्योग में श्रमिकों की सहभागिता पर वर्मा-समिति के सुझाव 

जैसा कि खंडऋ iv के आरंभ में कहा जा चुका है- 1977 में जनता-सरकार के शासनकाल में श्रममंत्री रवींद्र वर्मा की अध्यक्षता में प्रबंध में श्रमिकों की सहभागिता के विभिन्न पहलुओं का अध्ययन करने तथा इस संबंध में Single व्यापक योजना बनाने के लिए Single समिति का गठन Reseller गया। समिति ने अपनी रिपोर्ट 1079 में दी। समिति की मुख्य सिफारिशें थी-

  1. सहभागिता की त्रि-स्तरीय पद्धति (कर्मशाला, प्रतिष्ठान तथा निगम या बोर्ड के स्तरों पर) को अपनाया जाना चाहिए। 
  2. ऐसे All उद्यमों में, जिनमें 400 से अधिक कामगार नियोजित है, श्रमिकों की सहभागिता को काननू द्वारा लागू Reseller जाना चाहिए। लेकिन, इसे 100 से अधिक संख्या में कर्मकारों को नियोजित करनेवाले संस्थाओं में भी लागू करने की व्यवस्था चाहिए।
  3. सहभागी मंचों पर प्रतिनिधियों क निर्वाचन गुप्त मतदान से होना चाहिए। 
  4. सहभागी मंचों पर पर्यवेक्षकों तथा मध्यस्तरीय प्रबंधकों के प्रतिनिधित्व की व्यवस्था आवश्यक है, जिससे वे निर्णय -प्रक्रिया में सक्रिय Reseller से भाग ले सकें। 
  5. उच्च स्तर पर सहभागी मंचों में सम्मिलित किए जा सकनेवाले महत्त्वपूर्ण विषय हैं- सामान्य उत्पादन-सुविधाएँ, भंडारण-सुविधाएँ, माल की Safty, दस्तावेजों मे अशुद्धियाँ, संचालन-संबंधी समस्याएँ, बरबादी का नियंत्रण, Safty-संबंधी समस्याएँ, गुणवत्ता में सुधार, मासिक उत्पादन-कार्यक्रम, तकनीकी आविष्कार । 
  6. प्रतिष्ठान के स्तर पर सहभागिता के क्षेत्रों का विस्तार चाहिए। इनमें संचालन, आर्थिक पहलू, वित्त, कार्मिक, कल्याणकारी कदम तथा पर्यावरण को भी शमिल Reseller जाना चाहिए। प्रतिष्ठान के स्तर पर जिन विशिष्ट विषयों को सम्मिलित करने की अनुशंसा की गर्इ, उनमें मुख्य है- उत्पादन-वृद्धि के लाभों में साझेदारी, गुणवत्ता तथा प्रौद्यागिक में सुधार , अभिप्ररेणाएँ, बजट, लाभ-हानि description, विक्रय-लागत संचालन-व्यय, श्रम And प्रबंधकीय लागत, अतिकाल, अनुपस्थिति के कारण स्थानांतरण, पदोन्नति स्त्री-श्रमिकों की विशिष्ट समस्याएँ।
  7. निगम के स्तर पर सहभागिता के दायरे में जिन विषयों को शामिल करने का सुझाव दिया गया, वे है- वित्त, मजदूरी-संCreation, कल्याणकारी सुविधाएँ, चिकित्सकीय सुविधाएँ भरती And कार्मिक नीति। 
  8. संयुक्त निर्णयन को प्रभावी बनाने के लिए सूचनाएँ प्राप्त करने की समुचित व्यवस्था चाहिए। कुछ क्षेत्रों में सहभागिता-मंचों को प्रशासनिक अधिकार भी दिया जाना चाहिए। 
  9. श्रमिकों की सहभागिता की योजनाओं के कार्यान्वयन के प्रबोधन के लिए केंद्रीय And राजकीय स्तर पर अभिकरण की व्यवस्था होनी चाहिए। 

समिति की सिफारिशों पर 1980 में श्रममंत्रियों के 31वें सम्मेलन में विचार Reseller गया। सम्मेलन ने इन अनुशंसाओं का सामान्य तौर पर समर्थन Reseller, लेकिन सहभागिता-मंचों में कामगारों के प्रतिनिधित्व देने के प्रक्रिया के प्रश्न पर विरोधी विचार व्यक्त किए गए और उनके संबंध में कोर्इ Agreeि नहीं हो सकी। अंत में इस प्रश्न को सरकार के निर्णय पर छोड़ दिया गया ।

भारत में प्रबंध में श्रमिकों की सहभागिता की योजनाओं की असफलता के कारण 

जैसा कि उपर्युक्तववेचना से स्पष्ट है, 1958 के बाद देश में, प्रबंध में श्रमिकों की सहभागिता की कर्इ योजनाएँ बनार्इ गर्इ और उन्हें लागू करने के प्रयास किए गए लेकिन व्यवहार में इन All योजनाओं की प्रगति अत्यंत ही असंतोषजनक रही है। Single ओर तो कर्इ उद्यमों, प्रतिष्ठानों तथा संगठनों में इन योजनाओं को लागू ही नहीं Reseller गया, और दूसरी ओर जहाँ इन्हे लागू Reseller गया, वहाँ कर्इ सयुक्त मंच निष्क्रिय होते गए। जहाँ श्रम-प्रबंध सहयोग की संस्थाएँ स्थापित की गर्इ है, वहाँ उनमें अधिकांश अपने काय्र सुचारू Reseller से नहीं करती। भारत में, प्रबंध में श्रमिकों की सहभगिता की योजनाओं की विफलता के मुख्य कारण है।

  1. प्रबंध में श्रमिकों की सहभागिता की योजनाओं की असफलता का मूल कारण भागीदारी की अवधारणा मे ही निहित है। भागीदारी का Means होता है ।शक्ति या अधिकार में सहभागिता। यह प्रबन्ध और श्रमसंघ दोनों के साथ चरितार्थ होती है। नियोजक अपने उद्यम के प्रबन्धन में, अपनी सत्ता या परमाधिकार में दूसरों को भागीदार बनाने में अनिच्छुक रहते हैं। इसी तरह, कर्इ श्रमसंघ अपनी सौदेबाजी और दबाव डालने की शक्ति का परित्याग कर प्रबन्ध के साथ सहयोग के मंचों पर संयुक्त निर्णयन के लिए अकसर तैयार नहीं होते। नियोजकों और श्रमसंघों से अपने मतभेदों के भूलकर विभिन्न विषयों पर सद्भावना और सहयोग के वातावरण में संयुक्त निर्णय लेने की आशा करना भं्रातिपूर्ण है।
  2. देश में प्रबन्ध और श्रमसंघ दोनों विभिन्न प्रकार के संयुक्त निकायों की बहुलता के कारण भ्रामित से लगते हैं। कर्इ उद्योगों के लिए कानून या अन्य व्यवस्थाओं के अन्तर्गत विभिन्न प्रकार के संयुक्त निकायों का गठन Reseller गया हैं, जैसे- कार्य-समिति, सरु क्षा समिति, संयुक्त प्रबन्ध परिषद, कर्मशाला तल परिषद, इकार्इ, कंटै ीन समिति, परिवेदना निवारण समिति, संयुक्त औद्योगिक समिति आदि। अकसर विभिन्न निकायों के कार्यक्षेत्रों में अतिव्यप्ति पार्इ जाती है और उनकी व्यावहारिक उपयोगिता नगण्य रहती है।
  3. देश में प्रबन्ध में श्रमिकों की सहभागिता की अधिकांश योजनाएँ सरकार द्वारा प्रायोजित की जाती है इन योजनाओं को अपनाने के First नियोजकों और श्रमिकों की Agreeि के लिए प्रयास नहीं किए गए हैं। अधिकांश नियोजक तथा श्रमसंघ इन्हैं। बाहर से थोपे जानेवाले कार्यक्रम समझते हैं। ऐसी स्थिति में इनका विफल होना स्वाभाविक है। अनुभव बताता है कि श्रम प्रबन्ध सहयोग की जो योजनाएँ नियोजक और श्रमिकों के बीच समझौते के जरिए स्थापित की जाती है, वे अधिक स्थायी होती है और उनकी सफलता की संभावना अधिक होती है। प्रबन्ध में श्रमिकों की भागीदारी के लिए पक्षकारों में अधिक स्थायी होती है और उनकी सफलता की सम्भावना अधिक होती है। प्रबन्ध में श्रमिकों की भागीदारी के लिए पक्षकारों में अभिवृत्तीय परिवर्तन की Need होती है। प्रबन्ध में इसका ऐच्छिक आधार पर होना अधिक व्यवहारिक होगा। कानून या बाध्यता के आधार पर भागीदारी की योजनाओं का प्रवर्तन उनके वास्तविक लक्ष्यों And स्वReseller के प्रतिकूल होगा।
  4. प्रबन्ध में श्रमिकों की सहभागिता की योजनाएँ उन उद्योगों या प्रतिष्ठानों में अधिक सफल होती है, निमें सहभागिता के चलते होने वाले लाभ या उसके फल के पक्षकारों के बीच वितरण की समुचित व्यवस्था होती है। भारत में सहभागिता के फलस्वReseller होने वाले लाभों के प्रत्यक्ष या समुचित Reseller से वितरण की व्यवस्था नहीं है। इस कारण, श्रमिकों के बीच इन संस्थाओं के प्रति उत्साह का अभाव रहता है। कर्इ श्रमिकों के मत में ये संस्थाएँ केवल प्रबन्ध के हितों को ही ध्यान में रखकर बनार्इ गर्इ है।
  5. सहभागिता की संस्थाओं के सफल होने की सम्भावना उन उद्योगों या प्रतिष्ठानों में अधिक होती है, जिनमें श्रम संघों के बीच प्रतिस्पर्द्धा, प्रतिद्वंदिता या गुटबंदी की समस्याएँ जटिल नहीं होती। भारत में Single ही प्रतिष्ठान या उद्योग में कर्इ श्रमसंघ साथ-साथ कार्यशील है। उनके बीच प्रतिद्वंद्विता की समस्याा अत्यन्त ही गम्भीर है। Single ही श्रमसंघ में कर्इ गुट भी पाए जाते हैं। इन कारणों से सहभागिता की योजनाओं में श्रमिकों के प्रतिनिधित्व तथा संयुक्त निर्णयों के अनुपालन की समस्या सदा बनी रहती है। भारत में, प्रबन्ध में श्रमिकों की सहभागिता का Single महत्तवपूर्ण् कारण श्रमसंघों का बहुत्व तथा प्रतिनिधि श्रमसंघ की मान्यता की कानूनी व्यवस्था का आभाव है।
  6. यद्यपि राष्ट्रीय स्तर पर नियोजकाकं के संगठन और श्रमसंद्य भागीदारी की योजनाओं का समर्थन करते आए हैं, उद्यम या स्थापन के स्तर पर प्रबन्धकों के बीच इन योजनाओं के प्रति सामान्य उदासीनता पार्इ जाती है। नियोजकों और श्रमिकों के केन्द्रीय संगठनों द्वारा निम्न स्तर पर सम्बद्ध संगठनों की भागीदारी की उपयोगिता के बारे में उत्साहित करने के लिए विशेष कदम नहीं उठाए गए हैं।
  7. कर्इ नियोजक अब भी अपने कर्मचारियों के साथ समानता के स्तर पर विचार-विमर्श करना नहीं चाहते। कर्इ प्रबन्धकों और अधिकारियों के साथ भी यही बात लागू होती है। ऐसी स्थिति में प्रबन्ध में श्रमिकों की सहभागिता की संस्थाओं का विफल होना स्वाभाविक है।
  8. भारत में श्रमिकों के बीच शिक्षा का प्रसार समुचित नहीं हो पाया है। उनमें कर्इ अपने अधिकारों तथा दायित्वों के बारे में अनभिज्ञ रहते हैं। कर्इ श्रमिक उद्योग तथा नियोजक की समस्याओं को समझ नहीं पाते। अत: ऐसे श्रमिकों से प्रभावी सहभागिता की आशा नहीं की जा सकती । यही कारण है कि विगत वर्षों में केन्द्र सरकार द्वारा प्रबन्ध में श्रमिकों की भागीदारी की उपयोगिता को श्रमिक शिक्षा-कार्यक्रम में सम्मिलित Reseller गया है। भारत में प्रबन्ध में श्रमिकों की सहभागिता के विकास के मार्ग में कर्इ अन्य प्रकार की बाधाएँ है; जैसे- श्रमिकों का निम्न जीवन स्तर, संयुक्त निर्णयन की परम्परा का अभाव, सामूहिक सौदेबाजी का अपर्याप्त विकास तथा औद्योगिक सम्बन्ध के क्षेत्र में सरकार द्वारा अत्यधिक हस्तक्षेप।

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