प्रजातंत्र / लोकतंत्र का Means व परिभाषा

लोकतंत्र के Means पर सर्वाधिक मतभेद है। इसकी अनेक परिभाषाएं व व्याख्याएं की गर्इ हैं। इसको आडम्बरमय कहने से लेकर सर्वोत्कृष्ट तक कहा गया है। सारटोरी तो यहां तक कहने में नहीं हिचकिचाए हैं कि “लोकतंत्र को ऐसी वस्तु के आडम्बरमय नाम के Reseller में परिभाषित Reseller जा सकता है, जिसका वास्तव में कोर्इ अस्तित्व नहीं है।” अत: लोकतंत्र के Means व परिभाषा पर सामान्य Agreeि का प्रयास करना निरर्थक होगा। वर्तमान में हर शासन व्यवस्था को लोकतान्त्रिक कहा जाता है। यहां तक कि Single बार हिटलर ने लोकतान्त्रिक शासन की बात कहते हुए अपने शासन को ‘जर्मन लोकतंत्र‘ कहना पसन्द Reseller था। आज प्रजातंत्र के नाम कों इतना पवित्र बना दिया गया है कि कोर्इ भी अपने आपको अलोकतांत्रिक कहने का दुस्साहस नहीं कर सकता। मोटे तौर पर लोकतंत्र शासन का वह प्रकार होता है, जिसमें राज्य के शासन की शक्ति किसी विशेष वर्ग अथवा वर्गो में निहित न होकर सम्पूर्ण समाज के सदस्यों में निहित होती है। डायसी ने लोकतंत्र की परिभाषा करते हुए लिखा है कि “लोकतंत्र शासन का वह प्रकार है, जिसमें प्रभुत्व शक्ति समष्टि Reseller में जनता के हाथ में रहती है, जिसमें जनता शासन सम्बन्धी मामले पर अपना अन्तिम नियंत्रण रखती है तथा यह निर्धारित करती है कि राज्य में किस प्रकार का शासन-सूत्र स्थापित Reseller जाए। राज्य के प्रकार के Reseller में लोकतंत्र शासन की ही Single विधि नहीं है, अपितु वह सरकार की Appointment करने, उस पर नियंत्रण रखने तथा इसे अपदस्थ करने की विधि भी है।”

अगर अब्राहम लिंकन की परिभाषा को लें तो “लोकतंत्र शासन वह शासन है जिसमें शासन जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा हो।” इन परिभाषाओं को अस्वीकार करते हुए कुछ विचारक लोकतंत्र को शासन तक ही सीमित न रखकर इसे व्यापक Means में देखने की बात कहते हैं।

गिडिंग्स का कहना है कि “प्रजातंत्र केवल सरकार का ही Reseller नहीं है वरन राज्य और समाज का Reseller अथवा इन तीनों का मिश्रण भी है।” मैक्सी ने इसे और भी व्यापक Means में लेते हुए लिखा है कि “बीसवीं सदी में प्रजातंत्र से तात्पर्य Single राजनीतिक नियम, शासन की विधि व समाज के ढांचे से ही नहीं है, वरन यह जीवन के उस मार्ग की खोज है जिसमें मनुष्यों की स्वतंत्र और ऐच्छिक बुद्धि के आधार पर उनमें अनुResellerता और Singleीकरण लाया जा सके।” डा0 बेनीप्रसाद ने तो लोकतंत्र को जीवन का Single ढंग माना है।

उपर्युक्त Means व परिभाषाओं से लोकतंत्र Single विशद And महत्वाकांक्षी विचार लगता है परन्तु उपरोक्त विवेचन से लोकतंत्र का Means स्पष्ट होने के स्थान पर कुछ भ्रांति ही बढ़ी है। लोकतंत्र की अवधारणा या प्रत्यय के Reseller में Single Means नहीं है वरन इसके तीन अन्त:सम्बन्धित Means किये जाते हैं। यह Means हैं- (क) यह निर्णय करने की विधि है, (ख) यह निर्णय लेने के सिद्धान्तों का समूह या सेट है, और (ग) यह आदश्र्ाी मूल्यों का समूह है।

इनका तात्पर्य है कि लोकतान्त्रिक व्यवस्था में लोकतंत्र को निर्देशित करने वाले मूल्यों व निर्णय लेने की प्रक्रिया का मोटा उद्देश्य वर्तमान के आदर्शमय नैतिकता के अन्तर्गत ही समस्त सार्वजनिक कार्यो का दिन-प्रतिदिन सम्पादन हो। हर राजनीतिक समाज में अंतिम गन्तव्यों का निर्धारण करना होता है। यह गन्तव्य क्या हों? इन गन्तव्यों का निर्धारण कौन और किस प्रकार करें? हर राजनीतिक समाज के सामने मौलिक प्रश्न यही होते हैं। इन्हीं गन्तव्यों के अन्तिम उद्देश्यों को समाज के आदर्शो का नाम दिया जाता है। हर समाज में इन आदर्शो की रक्षा व प्राप्ति के लिए संCreationत्मक व्यवस्थाएं रहती हैं। यह लोकतंत्रों में ही नहीं, तानाशाही व्यवस्था में भी रहती हैं। परन्तु इन संCreationत्मक व्यवस्थाओं से सम्बन्धित प्रक्रियाएं लोकतंत्र में और प्रकार की तथा तानाशाही व्यवस्था में और प्रकार की होती हैं। अगर सम्पूर्ण समाज के लिए किए जाने वाले निर्णयों को लेने के सिद्धान्त और विधियां ऐसी हों जिसमें सम्पूर्ण समाज सहभागी रहें तो वह राजनीतिक व्यवस्था लोकतांत्रिक कही जाती है, परन्तु अगर Single ही व्यक्ति या व्यक्ति-समूह सम्पूर्ण समाज के लिए निर्णय लेता है तो वह व्यवस्था तानाशाही मानी जाती है। अत: लोकतंत्र का महत्वपूर्ण पक्ष निर्णय लेने का ढंग या तरीका है।

(1) निर्णय करने के ढंग में लोकतंत्र-यहां यह प्रश्न उठता है कि किस प्रकार और किसके द्वारा लिये गये निर्णयों को ही लोकतान्त्रिक विधि से लिये गये निर्णय माना जाए? इन्हीं प्रश्नों का उत्तर आज से करीब दो हजार वर्ष पूर्व अरस्तू ने भी दिया था जो बहुत कुछ आज भी वैध कहा जा सकता है। अरस्तू ने कहा था कि “निर्णय लेने के लोकतान्त्रिक ढंग में पदाधिकारियों का चुनाव सब में से सबके द्वारा तथा सबका हर Single पर और प्रत्येक का सब पर शासन होता है,” Meansात् लोकतान्त्रिक ढंग से Reseller गया निर्णय सम्पूर्ण समाज के द्वारा लिया गया निर्णय ही कहा जा सकता है। इससे तात्पर्य यह है कि लोकतंत्र प्रकृति में राजनीतिक समाज में निर्णय लेने का Single विशेष ढंग और उसकी विशेष पूर्व शर्ते होती हैं। इनका विवेचन करके ही यह समझा जा सकता है कि लोकतंत्र का निर्णय लेने के Reseller में क्या Means है? Meansात् वही निर्णय लोकतान्त्रिक ढंग से लिये हुए कहे जाते हैं जिन में-

  1. विचार-विनिमय व अनुनयनता, 
  2. जन-सहभागिता, 
  3. बहुमतता, 
  4. संवैधानिकता और 
  5. अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा होती है।

लोकतान्त्रिक ढंग से लिये गये निर्णयों का आधार खुला विचार-विनिमय होता है। सम्पूर्ण राजनीतिक समाज के लिए किये जाने वाले निर्णयों में अनुनयन की बहुत बड़ी भूमिका रहती है। लोकतंत्र में निर्णय चाहे किसी भी स्तर पर लिये जायें, उनमें जोर-जबरदस्ती के तत्व के बजाय विचार-विमर्श, वाद-विवाद और समझाने-बुझाने का अंश प्रधान रहता है। चुनाव भी Single तरह से विचार-विनिमय द्वारा निर्णय लेना ही है। अत: स्वतंत्र व उन्मुक्त प्रचार पर आधारित चुनाव लोकतान्त्रिक निर्णय प्रक्रिया का महत्वपूर्ण आधार माने जाते हैं। इस प्रकार निर्णय लेने के ढंग के Reseller में लोकतंत्र का आशय विचार-विमर्श और Agreeि से राजनीतिक समाज से सम्बन्धित All निर्णय लेना है।

विचार-विमर्श और Agreeि की निर्णय प्रक्रिया में कुछ या अधिकांश लोगों का सम्मिलित होना किसी निर्णय ढंग को लोकतान्त्रिक नहीं बनाता है। इसके लिए निर्णय प्रक्रिया में सारे जन-समाज की सहभागिता का होना अनिवार्य है, Meansात् निर्णय लेने में राजनीतिक व्यवस्था के All नागरिकों का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सम्मिलन आवश्यक है। अगर किसी निर्णय विधि से अधिकांश व्यक्तियों को वंचित रखा गया हो तो वह निर्णय प्रक्रिया लोकतान्त्रिक नहीं कही जा सकती। यहां यह ध्यान रखना है कि जनता के निर्णय प्रक्रिया में सम्मिलित होने के अवसर होने पर भी अगर बहुत बड़ा जन-भाग उससे उदासीन रहकर विलग रहे तो इसे निर्णयों की लोकतान्त्रिका पर आंच नहीं माना जाता है। यहां महत्वपूर्ण बात यह नहीं है कि समाज के कितने लोग निर्णय प्रक्रिया में सहभागी होते हैं वरन यह तथ्य महत्वपूर्ण है कि कितने लोगों को ऐसा करने के साधन व अवसर प्राप्त हैं। निर्णय प्रक्रिया में सम्पूर्ण समाज को सहभागी बनाने का दूसरा नाम ही लोकतंत्र है। नियतकालिक चुनाव तथा वयस्क मताधिकार, जन-सहभागिता के उपकरण हैं।

विचार-विमर्श तथा जन-सहभागिता के सबको समान अवसर निर्णय विधि को अवश्य ही लोकतान्त्रिक बनाते हैं परन्तु शायद ऐसा सम्भव नहीं कि समाज से सम्बन्धित हर निर्णय पर समस्त जनता की Agreeि होती हो। इस Agreeि के अभाव में निर्णय लेने की कौन-सी विधि अपनार्इ जाए कि निर्णय प्रक्रिया की लोकतान्त्रिक प्रकृति बनी रहे और शीघ्रता से निर्णय लिये जा सकें। वैसे तो समस्त जनता की Agreeि से लिया गया निर्णय आदर्श कहा जा सकता है, पर व्यवहार में सबके सब निर्णयों पर Agreeि असम्भव नही ंतो दुष्कर अवश्य लगती है। इसलिए सबकी Agreeि के अभाव में निर्णय बहुमत के आधार पर किये जाते हैं। इस प्रकार बहुमत के आधार पर किए गए निर्णय लोकतांत्रिक ही माने जाते हैं, क्योंकि इन निर्णयों में अधिकांश लोगों की Agreeि सम्मिलित रहती है। यहां यह बात ध्यान देने की है कि बहुमत के आधार पर निर्णय लेना, सबकी Agreeि के बाद, निर्णय लेने की श्रेष्ठतम विधि कहा जाता है। अगर बहुमत के आधार पर निर्णय नहीं लिये जाएं तो निर्णय की प्रक्रिया अलोकतान्त्रिक कहलाती है। साथ ही निर्णयों में बहुमत के आधार का परित्याग करना, लोकतान्त्रिक निर्णय प्रक्रिया का ही, परित्याग कहा जा सकता है। यही कारण है कि लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में चुनाव परिणामों से लेकर विधान मण्डलों व मंत्री परिषदों तक में निर्णय बहुमत के आधार पर किये जाते हैं। अभी तक मनुष्य निर्णय लेने का इससे श्रेष्ठतर विकल्प नहीं खोज पाया है। अत: लोकतांत्रिक निर्णय प्रक्रिया की यह आवश्यक शर्त है कि हर स्तर पर निर्णय बहुमत के आधार पर लिये जाएं। यहां यह भी ध्यान रखना है कि बहुमत के Means पर गम्भीर विवाद है। हम इस विवाद में नहीं पड़कर इतना ही कहेंगे कि लोकतंत्र में विभिन्न विकल्पों में से जिसका सापेक्ष बहुमत होता है वही विकल्प निर्णय मान लिया जाता है।

उपरोक्त तथ्य निर्णय के प्रक्रियात्मक पहलुओं से सम्बद्ध है, पर निर्णय प्रक्रियाओं को व्यावहारिकता प्रदान करने के लिए संCreationत्मक आधार भी होना चाहिए। इसलिए ही हर लोकतान्त्रिक समाज में निर्णय लेने की प्रक्रियाओं के संCreationत्मक आधार संविधान द्वारा निर्धारित किये जाते हैं। उदाहरण के लिए, यह कहा जा सकता है कि जन-सहभागिता को सम्भव बनाने के लिए All लोकतान्त्रिक संविधानों में नियतकालिक चुनावों की व्यवस्था की जाती है। लोकतान्त्रिक ढंग से लिया गया निर्णय संविधान द्वारा व्यवस्थित साधनों की परिधि में ही Reseller जाता है। हड़ताल, हिंSeven्मक तोड़-फोड़ व धरनों के द्वारा Kingों को निर्णय विशेष लेने के लिए बाध्य करना वास्तव में असंवैधानिक साधनों के प्रयोग के कारण निर्णय का अलोकतान्त्रिक ढंग माना जाता है। निर्णय प्रक्रिया को लोकतान्त्रिक बनाने के लिए यह आवश्यक है कि संविधान में निम्नलिखित व्यवस्थाएं हों-

  1. जनता के सामने प्रतियोगी पसंदों के अनेक विकल्प, 
  2. मताधिकार की पूर्ण समानता,
  3. निर्वाचन व निर्वाचित होने की पूर्ण स्वतंत्रता, और 
  4. प्रतिनिधित्व की अधिकतम समResellerता हो।

इस प्रकार किसी भी राजनीतिक व्यवस्था में निर्णय की विधि को लोकतान्त्रिक बनाने के लिए संवैधानिकता ही निर्णयों का Single मात्र आधार होती है। जब किसी राजनीतिक समाज में बहुमत के आधार पर निर्णय लिये जाते हैं तो यह सम्भावना तो रहती ही है कि कुछ लोग इन निर्णयों से Agree नहीं हों। ऐसी अवस्था में बहुमत के निर्णय ऐसे नहीं होने चाहिए कि उनसे अल्पसंख्यकों का अहित हो। अनेक समाजों में अनेक वर्ग, धर्म, जातियां तथा संस्कृतियां Single साथ विद्यमान रहती हैं। बहुमत के आधार पर कुछ धर्मो, जातियों या भाषाओं के लोगों के हितों के प्रतिकूल भी निर्णय लिये जा सकते हैं। बहुमत के द्वारा लिये गये निर्णयों से अल्पसंख्यकों के अधिकारों व स्वतंत्रताओं का हनन भी Reseller जा सकता है। ऐसे बहुमत के निर्णय लोकतन्त्र की भावना के प्रतिकूल माने जाते हैं। अत: निर्णय प्रक्रिया की लोकतान्त्रिकता के लिए आवश्यक है, कि बहुमत के बलबूते पर ऐसे निर्णय नहीं लिये जाएं जिनमें कुछ लोगों के उचित हितों की अवहेलना हो। यह तभी सम्भव होता है जब बहुमत द्वारा लिए गए निर्णयों में अल्पसंख्यकों के हितों की भी Safty की व्यवस्था निहित हो।

लोकतान्त्रिक निर्णय प्रक्रिया के लिए यह आवश्यक है कि Single सीमा तक विचार-विमर्श, बहस व वाद-विवाद की छूट रहे और अन्त में बहुमत के आधार पर निर्णय ले लिए जाएं तथा बहुमत द्वारा लिए गए ऐसे निर्णय सब स्वीकार कर लें। अल्पसंख्यकों को भी बहुमत के ऐसे निर्णय स्वीकार होंगे, क्योंकि इनसे उनके हितों को नुकसान पहुंचने की सम्भावना नहीं होती। परन्तु बहुमत के आधार पर किए गए निर्णय कुछ लोगों का अहित करने वाले होने पर लोकतान्त्रिक निर्णय प्रक्रिया के प्रतिकूल माने जाने लगते हैं। इससे समाज में Agreeि तथा आधारभूत मतैक्य समाप्त हो जाता है और समाज के टूटने का मार्ग खुल जाता है। इससे लोकतंत्र का आधार लुप्त हो जाता है। अत: गहरार्इ से देखने पर पता चलता है कि लोकतान्त्रिक राजनीतिक प्रक्रिया वस्तुत: विचार-विमर्श, वाद-विवाद, सामंजस्य और लेन-देन की ही प्रक्रिया है। जिस राजनीतिक समाज में निर्णय लेने का ढंग उपरोक्त तथ्यों के अनुReseller रहता है तो वह राजनीतिक व्यवस्था लोकतान्त्रिक तथा उस समाज के लोगों द्वारा लिए गए निर्णय लोकतान्त्रिक ढंग से लिए गए निर्णय कहे जाएंगे। इन तथ्यों में से किसी Single की अवहेलना या अभाव सम्पूर्ण व्यवस्था की प्रकृति में ही मौलिक परिवर्तन ला देता है। अत: लोकतान्त्रिक व्यवस्था के लिए यह अनिवार्य है कि निर्णय, आपसी विचार-विमर्श, जन सहभागिता और बहुमत के आधार पर लिए जाएं अगर ऐसे निर्णय संवैधानिकतायुक्त व अल्पसंख्यकों के हितों के पोषक हों तो वह लोकतंत्र के सुदृढ़ आधार स्तम्भ हो जाते हैं। इस तरह, निर्णय लेने के ढंग के Reseller में लोकतंत्र ऐसी व्यवस्था है जिसमें समाज के लिए व्यवहार के मानदंड स्थापित होते हैं और व्यक्ति की राजनीतिक गतिविधियों का सुनिश्चित प्रतिमान प्रकट होता है।

(2) निर्णय लेने के सिद्धान्तों के Reseller में लोकतंत्र- समाज में जो भी राजनीतिक निर्णय लिए जाएं उनका कुछ सिद्धान्तों पर आधारित होना आवश्यक है अन्यथा निर्णयों में न तो समResellerता रहेंगी और न ही निर्णय दिशात्मक Singleता-युक्त बन पाएंगे। इसीलिए हर राजनीतिक समाज में कुछ निश्चित सिद्धान्तों की परिधि होती है जिसके दायरे में लिए गए निर्णय ही दिशात्मक Singleता का लक्षण परिलक्षित कर सकते हैं। Single निश्चित सिद्धान्त लोकतंत्रों व निरंकुशतंत्रों में अनिवार्यत: पाये जाते हैं। दोनों प्रकार की प्रणालियों में इन सिद्धान्तों की मौलिक असमानताएं इन दोनों को भिन्न-भिन्न ही नहीं बनाती हैं, अपितु इन्हें Single Second के प्रतिकूल प्रणालियां बना देती हैं। लोकतान्त्रिक प्रणाली उस राजनीतिक व्यवस्था में विद्यमान रह सकती हैं जहां समाज के सम्बन्ध में निर्णय लेने के आधार स्वReseller कुछ सिद्धान्त व्यवहार में प्रयुक्त होते हैं। इन सिद्धान्तों पर आधारित निर्णय ही लोकतान्त्रिक ढंग से लिए गए निर्णय कहे जा सकते हैं।

प्रजातंत्र के सिद्धान्त

  1. प्रतिनिधि सरकार का सिद्धान्त। 
  2. उत्तरदायी सरकार का सिद्धान्त।
  3. संवैधानिक सरकार का सिद्धान्त। 
  4. प्रतियोगी राजनीति का सिद्धान्त। 
  5. लोकप्रिय सम्प्रभुता का सिद्धान्त।

किसी भी King व्यवस्था को लोकतान्त्रिक तभी कहा जाता है जब राजनीतिक व्यवस्था में निर्णय लेने का कार्य जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा ही सम्पादित हो, Meansात लोकतान्त्रिक व्यवस्था में सरकार का गठन प्रतिनिधित्व के सिद्धान्त पर आधारित होना चाहिए। आधुनिक लोकतंत्रों में नीति-निर्माताओं अथवा शासन प्रतिनिधियों को Single निश्चित अवधि के लिए जनता द्वारा चुना जाता है। इस निश्चित अवधि की समाप्ति पर शासन प्रतिनिधियों को फिर जनता के सामने पेश होना पड़ता है तथा जनता उसके द्वारा किये गये कार्यो का लेखा-जोखा लेकर उन्हें पुन: निर्वाचित कर सकती है या उनके स्थान पर नेताओं का दूसरा सैट ला सकती है। अत: नियतकालिक चुनाव शासन कर्त्ताओं को सही Meansो में जनप्रतिनिधि बनाए रखने की व्यवस्था करता है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में अंतिम सत्ता जनता में निवास करती है। जनता की यह सत्ता निर्वाचन के माध्यम से प्रतिनिधियों को प्रदान कर दी जाती है। अत: प्रतिनिधि सरकार का होना लोकतंत्र की व्यवस्था करता है, क्योंकि राजनीतिक समाज में निर्णयकर्त्ता केवल जनप्रतिनिधि होते हैं।

शासन का प्रतिनिधि स्वReseller ही किसी राजनीतिक व्यवस्था को लोकतान्त्रिक कहने के लिए पर्याप्त नहीं है। इसके लिए यह भी आवश्यक है कि शासन-शक्ति के धारक अपने हर निर्णय व कार्य के लिए जनता की धरोहर के Reseller में प्राप्त रहती है तथा इस सत्ता का उन्हें जनता के हित में, जनता की उन्नति व प्रगति के लिए ही प्रयोग करना होता है। अगर King ऐसा नहीं करते हैं तो वह न जनता के सही प्रतिनिधि रह पाते हैं और न ही उत्तरदायी कहे जा सकते हैं। केवल वही राजनीतिक समाज लोकतान्त्रिक माने जाते हैं। जहां King निरन्तर उत्तरदायित्व निभाते हैं। अगर King उत्तरदायित्व न निभाएं तो उनको हटाने की व्यवस्था रहती है। नियतकालिक चुनाव Kingों को प्रभावशाली ढंग से नियन्त्रित रखने का अवसर प्रदान करते हैं। यही कारण है कि स्वतंत्र व नियतकालिक चुनाव व्यवस्था को लोकतंत्र की जीवनरक्षक ‘डोर’ का नाम दिया जाता है। चुनाव दोहरे ढंग से किसी व्यवस्था को लोकतान्त्रिक बनाने की भूमिका अदा करते हैं। First, तो इससे लोकप्रिय नियन्त्रण की व्यवस्था होती है तथा Second इससे जनता के प्रतिनिधि ही Kingों के Reseller में रहते हैं।

लोकतंत्र में हर व्यक्ति को राजनीतिक स्वतंत्रता रहती है। वह अपने हितों की रक्षा के लिए किसी भी दल का सदस्य बन सकता है तथा किसी भी व्यक्ति को अपने प्रतिनिधि के Reseller में निर्वाचित करने के लिए मत दे सकता है। राजनीतिक स्वतंत्रता की व्यावहारिकता ही प्रतियोगी राजनीति कही जाती है। राजनीतिक व्यवस्था में प्रतियोगी राजनीतिक के लिए यह आवश्यक है कि अनेक संगठन, दल व समूह, प्रतियोगी Reseller में उस व्यवस्था में सक्रिय रहें। राजनीतिक स्वतंत्रता की अवस्था में ही राजनीतिक दल बनकर जनता के सामने भिन्न-भिन्न प्रकार के दृष्टिकोण And नीति सम्बन्धी विकल्प प्रस्तुत कर सकते हैं। इनके द्वारा चुनावों में जनता के सामने अनेक विकल्पों की व्यवस्था होती है तथा जनता इनमें में किसी Single को पसंद करके अपने मन की अभिव्यक्ति करती है। अगर किसी समाज में केवल Single ही विकल्प हो और इस विकल्प के कारण जनता को इसी का समर्थन करना पड़ता हो तो ऐसी राजनीति को प्रतियोगी राजनीति नहीं कहा जा सकता और इसके अभाव में लोकतंत्र नहीं हो सकता है। अत: लोकतंत्र की ‘जीवनरेखा’ ही प्रतियोगी राजनीति है। राजनीतिक समाज में प्रतियोगी राजनीति की व्यवस्था करने के लिए अनिवार्यताएं होती हैं-

  1. राजनीतिक गतिविधियों की पूर्ण स्वतंत्रता, 
  2. दो या दो से अधिक प्रतियोगी दलों या समूहों के Reseller में वैकल्पिक पसंदों की विद्यमानता, 
  3. मताधिकार की पूर्ण समानता Meansात सर्वव्यापी वयस्क मताधिकार की व्यवस्था, 
  4. प्रतिनिधित्व की अधिकतम SingleResellerता, और 
  5. नियतकालिक चुनाव।

उपरोक्त व्यवस्थाओं के अभाव में किसी भी देश की राजनीति प्रतियोगी नहीं बन सकती है। साम्यवादी राज्यों या अन्य Singleदलीय व्यवस्थाओं वाले राज्यों में प्रतिनिधि सरकार, उत्तरदायी सरकार तथा संवैधानिक सरकार की संCreationत्मक व्यवस्थाएं रहती हैं परन्तु प्रतियोगी राजनीति का अभाव इनको लोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं की श्रेणी में नहीं आने देता है। जैसे साम्यवादी राज्यों में नियतकालिक चुनाव होते हैं तथा मतदान प्रतिशत भी करीब-करीब शत-प्रतिशत रहता है। परन्तु मतदाता के सामने चुनाव उम्मीदवार के Reseller में Single ही व्यक्ति के होने के कारण कोर्इ विकल्प नहीं रहता हैं। इससे इसी प्रत्याशी का, जो Only उम्मीदवार के Reseller में खड़ा है, समर्थन करना उसकी पसंद का सही प्रकाशन नहीं है। इसके लिए कर्इ प्रत्याशियों का होना आवश्यक है। इससे स्पष्ट है कि लोकतंत्र की ‘संजीवनी’ प्रतियोगी राजनीति ही होती है।

लोकतंत्र की परिभाषा में यह स्पष्ट Reseller गया है कि इस व्यवस्था में शक्ति का स्रोत जनता होती है। जब हम यह कहते हैं कि जनता अपने मत सम्बंधी अधिकार के प्रयोग द्वारा संविधान को अपनी इच्छा के अनुकूल बना सकती है अथवा वह उसके द्वारा अपने प्रतिनिधियों पर नियंत्रण रख सकती है तो इसका तात्पर्य यही होता है कि संप्रभुत्वशक्ति जनता के हाथों में रहती है। इसका यह Means है कि राज्य में जनता सर्वोपरि And संप्रभु होती है। क्योंकि उसकी ही इच्छा के According राज्य शक्ति का प्रयोग करता है। मताधिकार के कारण शासन-सम्बन्धी अन्तिम शक्ति जनता में निहित रहती है। अत: हम जनता को संप्रभु कहते हैं और उसमे निहित शक्ति को जनता की सम्प्रभुता कहा जाता है। लोकतान्त्रिक समाज की पहचान ही जनता की सम्प्रभुता है। इसके माध्यम से ही जनता सरकार को प्रतिनिधि, उत्तरदायी रखने की प्रभावशाली व्यवस्था माना गया है। अत: लोकतान्त्रिक व्यवस्था में जनता की सम्प्रभुता का सिद्धान्त अत्यधिक महत्व का है।

आदर्शी मूल्यों के Reseller में प्रजातंत्र

लोकतान्त्रिक शासन प्रणाली की आधारभूत कसौटी इसकी मूल्य व्यवस्था में निहित है। इन्ही मूल्यों के आधार पर किसी व्यवस्था को लोकतांत्रिक या अलोकतांत्रिक कहा जा सकता है। कोरी तथा अब्राहम ने लोकतान्त्रिक समाज के निम्नलिखित मूल्यों को आधारभूत बताया है-(1) व्यक्तिगत व्यक्तित्व का सम्मान, (2) व्यक्तिगत स्वतंत्रता, (3) विवेक में विश्वास, (4) समानता, (5) न्याय और (6) विधि का शासन या संविधानवाद।

Human समाजों में कुछ आदर्शो व मूल्यों की व्यवस्था से उनसे भी उच्चतर आदर्श उपलब्ध हो जाते हैं। हर समाज में कुछ ऐसे मूल्य होते हैं जिनकी व्यवस्था ही इसलिए की जाती है कि जिससे समाज उनसे भी श्रेष्ठतर मूल्यों को प्राप्त करने के मार्ग पर आगे बढ़ सकें। व्यक्ति का स्वतंत्रता व सामाजिक समानता में विश्वास ही इसलिए होता है कि इनके सहारे उसके व्यक्तित्व के विकास का सर्वश्रेष्ठ वातावरण प्रस्तुत होता है। व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास के लिए यह अनिवार्य है कि व्यक्तिगत व्यक्तित्व का सम्मान Reseller जाय जिससे हर व्यक्ति अपने ढंग से, बेरोकटोक अपनी पूर्णता के मार्ग पर आगे बढ़ सके। लोकतान्त्रिक समाज का यह आदर्श या मूल्य सर्वाधिक महत्व का माना जाता है। हर व्यक्ति के लिए स्व-अभिव्यक्ति का अवसर व साधन महत्व रखते हैं। मनुष्य के विकास में व्यक्तित्व के भौतिक व बाहरी पहलुओं से कहीं अधिक महत्व उसके आंतरिक पहलुओं का है। मनुष्य चाहता है कि वह परिपूर्ण बने। इसके लिए यह आवश्यक कि उसके व्यक्तिगत व्यक्तित्व का मान-सम्मान हो। इसके अभाव में व्यक्ति के पास सब कुछ होते हुए भी उसे रिक्तता या कुछ कमी महसूस होती है। अत: लोकतंत्र के दृष्टिकोण में, सर्वोच्च मूल्य व राजनीतियों का अन्तिम ध्येय, व्यक्ति की मुक्ति व व्यक्तित्व का सम्मान करना है। यहां यह ध्यान रखना होगा कि व्यक्तिगत व्यक्तित्व के सम्मान का मूल्य राजनीतियों में अन्य मूल्यों की विद्यमानता को अस्वीकार नहीं करता है। व्यक्तियों व समूहों के और भी श्रेष्ठतर आदर्श हो सकते हैं। ये मूल्य वास्तव में इनका विरोध नहीं है। यह तो वास्तव में अन्य आदर्शो व मूल्यों की प्राप्ति के लिए व्यक्ति को अनिवार्यत: उन्मुक्त बना देता है। अत: लोकतंत्र व्यवस्था का सबसे अधिक महत्वपूर्ण मूल्य, जिससे अन्य मूल्यों की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त होता है, व्यक्तिगत व्यक्तित्व का सम्मान है। वास्तव में लोकतान्त्रिक व्यवस्था का यह ऐसा आधार स्तम्भ है जिसके सहारे अन्य मूल्य भी प्राप्त किये जा सकते हैं।

लोकतान्त्रिक समाज का दूसरा महत्वपूर्ण मूल्य स्वतंत्रता का है। लोकतंत्र के विचार के History में इस Word का कर्इ Meansो में प्रयोग हुआ है। Single राजनीतिक आदर्श के Reseller में स्वतंत्रता के नकारात्मक और सकारात्मक दो पहलू माने जाते हैं। इसके नकारात्मक पहलू में स्वतंत्रता का Means बन्धनों का अभाव है, तथा सकारात्मक Reseller में इसका Means जीवन की उन परिस्थितियों व स्थितियों के होने से लिया जाता है जिसमें व्यक्ति अपने सही स्वReseller को प्राप्त कर सकता है। इसके Means के नकारात्मक व सकारात्मक पहलू आपस में बेमेल पड़ते हैं। इसलिए स्वतंत्रता यह Means All प्रकार के प्रतिबन्धों का अभाव, अराजकता व अव्यवस्था का मार्ग तैयार करता है जो इसके Second Means को अव्यावहारिक बना देता है। अत: लोकतान्त्रिक मूल्य में स्वतंत्रता का सही Means समझना आवश्यक है।

सीले के According ‘स्वतंत्रता अति शासन का विलोम है।’ लास्की की मान्यता है कि स्वतंत्रता वह स्थिति है जिसमें व्यक्ति बिना किसी बाहरी बाधा के अपने जीवन के विकास के तरीके को चुन सकता है। अत: स्वतंत्रता सब प्रकार के प्रतिबंधों का अभाव नहीं, अपितु अनुचित के स्थान पर उचित प्रतिबंधों की व्यवस्था है, Meansात् स्वतंत्रता का तात्पर्य नियंत्रणों के अभाव, उच्छंृखलता से न होकर उस नियंत्रित स्वतन्त्रता से है जो उचित प्रतिबंधों द्वारा मर्यादित हो। लोकतंत्र में स्वतंत्रता का यही Means लिया जाता है। इसी Means में यह लोकतान्त्रिक समाजों में सर्वप्रिय मूल्य के Reseller में अपनाया जाता है। अत: स्वतंत्रता का लोकतान्त्रिक मूल्य के Reseller में तात्पर्य वैयक्तिक व्यवहार की नियमितता और मर्यादा से है। इसका सम्बन्ध आवश्यक Reseller से समाज की इकार्इ के Reseller में व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास से होता है जिससे व्यक्तिगत व्यक्तित्व का सम्मान हो सके।

अब्राहम का कहना है कि ‘लोकतांन्त्रिक आदर्श में यह धारणा सन्निहित है कि मनुष्य Single विवेकशील प्राणी है जो कार्य करने के सिद्धान्तों का निर्णय करने और अपनी निजी इच्छाओं को उन सिद्धान्तों के अधीनस्थ बनाए रखने में समर्थ है। वास्तव में यह धारणा अपने आप में बड़ी महत्वपूर्ण है, क्योंकि यदि व्यक्ति विवेक की पुकार नहीं सुनेंगे तो लोकतंत्र Single स्थायी शासन प्रणाली कभी नहीं बन सकेगी। व्यक्तियों के परस्पर विरोधी दावों, उद्देश्यों और हितों में विवाद और वार्त द्वारा तब तक कभी सामंजस्य स्थापित नहीं हो सकता जब तक कि ऐसे सामान्य स्वीकृत नियमों का अस्तित्व न हो, जिनके आधार पर वार्ता या विवाद में किस पक्ष की जीत मानी जाएगी इसका, निर्णय न Reseller जा सके। इन नियमों में सबसे साधारण और स्पष्ट नियम तो यही है कि बहुमत का निर्णय और विचार ही मान्य होना चाहिए। यहां यह ध्यान रखना होगा कि बहुमत का कोरा सिद्धान्त भी उसी प्रकार अविवेकपूर्ण है जिस प्रकार कि ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ वाली धारणा। मनुष्य केवल विवेकी यंत्र ही नहीं है अपितु वह भावनाओं का पुतला भी है। अत: लोकतान्त्रिक आदर्श को यह मानकर चलना होगा कि प्रयत्नों से मनुष्य को भावनाओं के स्तर से विवेक के स्तर पर लाया जा सकता है जिससे वह अपने मतभेदों को बातचीत करके या कुछ सिद्धान्तों का सहारा लेकर तय कर सके। इस प्रकार लोकतान्त्रिक आदर्श में मनुष्य की विवकेशीलता की धारणा सन्निहित होनी चाहिए। अगर मनुष्य की विवेकशीलता की बात छोड़ दी जाय तो लोकतान्त्रिक समाज के स्थान पर अराजक समाज ही स्थापित होगा।

ऐसा कहा जाता है कि स्वतंत्रता समानता से अविच्छिन्न Reseller से सम्बन्धित है। इसलिए ही शायद आशीर्वादम ने यह कहा है कि ‘फ्रांस के क्रान्तिकारियों ने जब Fight घोषणा करते हुए स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व का नारा लगाया था तब वे न तो पागल थे और न मूर्ख। इसका संकेत इस बात की ओर है कि स्वतंत्रता के मूल्य की क्रियान्विति के लिए समानता के मूल्य का अस्तित्व आवश्यक है। समानता प्रजातंत्र की स्थापना का Single प्रधान तत्व है। इसका सामान्य Means उन विषमताओं के अभाव से लिया जाता है जिसके कारण असमानता पनपती है। समाज में दो प्रकार की असमानता पार्इ जाती है। Single प्रकार असमानता वह है जिसका मूल व्यक्तियों की प्राकृतिक असमानता है, परन्तु इस प्रकार की असमानता का कोर्इ निराकरण सम्भव नहीं हो सकता। इसलिए इस समानता से किसी को शिकायत नहीं रहती है। Second प्रकार असमानता वह है जिसका मूल समाज द्वारा उत्पन्न की हुर्इ विषमता होती है। हम देखते है कि बुद्धि, बल और प्रतिभा की दृष्टि से अच्छे होने पर भी निर्धन व्यक्तियों के बच्चे अपने व्यक्तित्व का वैसा विकास नहीं कर पाते, जैसा विकास बुद्धि, बल और प्रतिभा की दृष्टि से निम्नतर स्तर के होते हुए भी, धनिकों के बच्चे कर लेते हैं। इस प्रकार की असमानता का कारण समाज द्वारा उत्पन्न परिस्थितियों का वह वैषम्य होता है जिसके कारण सब लोगों को व्यक्तित्व विकास का समान अवसर प्राप्त नहीं हो पाता है। अत: राजनीतिक समाज में समानता का तात्पर्य ऐसी परिस्थितियों के अस्तित्व से होता है, जिसके कारण सब व्यक्तियों को व्यक्तित्व विकास के समान अवसर प्राप्त हो सकें।

लोकतान्त्रिक दृष्टि से समानता का राजनीतिक पहलू महत्वपूर्ण है। समानता के राजनीतिक Reseller का Means यह है कि राजनीतिक व्यवस्था में All वयस्क नागरिकों को समान नागरिक और राजनीतिक अधिकार उपलब्ध हों। राजनीतिक समानता का यह आशय नहीं है कि राज्य में प्रत्येक व्यक्ति समान राजनीतिक अधिकारो का प्रयोग कर सके। समानता का यह पक्ष किसी समाज के नागरिकों को शासन-प्रक्रिया में सम्मिलित करने की व्यवस्था मानता है। इससे All व्यक्तियों को समान Reseller से शासन में भाग लेने का अवसर मिल जाता है। इसमें वोट देना, निर्वाचित पद के लिए उम्मीदवार होना व सरकारी पद प्राप्त करना प्रमुख है। इन सब में सबको अवसरों की समानता देना ही राजनीतिक समानता कही जाती है। यह लोकतंत्र का आधार मानी जाती है। समानता का दूसरा पक्ष नागरिक समानता है। उसका तात्पर्य All को नागरिकता के समान अवसर प्राप्त होने से होता है। नागरिक समानता की अवस्था में व्यक्ति के मूल अधिकार Windows Hosting होने चाहिए तथा All को कानून का संरक्षण समान Reseller से प्राप्त होना चाहिये।

लोकतंत्र शासन व्यवस्था की श्रेष्ठता को All स्वीकार करते हैं। शायद इसलिए ही आज दुनिया का हर राज्य लोकतान्त्रिक होने का दावा करने लगा है। इस प्रणाली के गुणों की विद्वानों ने लम्बी-लम्बी सूचियां प्रस्तुत की हैं। इसके पक्ष में व्यावहारिक तर्को से लेकर नैतिक तथा मनोवैज्ञानिक तर्क तक दिये गये हैं। प्रो0 डब्लू0 र्इ0 हाकिंग ने तो लोकतंत्र व्यवस्था के पक्ष को पुष्ट करते हुए यहां तक कहा है कि सी0डी0 बन्र्स ने लोकतंत्र का गुणगान करते हुए लिखा है कि लोकतंत्र आत्म शिक्षा का सर्वोत्तम साधन है। इससे स्पष्ट है कि लोकतंत्र प्रणाली की श्रेष्ठता तथा इससे होने वाले लाभों को All स्वीकार करते हैं। संक्षेप में, इस शासन व्यवस्था के गुण निम्नलिखित माने जा सकते हैं-

  1. King जन-कल्याण के प्रति सजग, अनुक्रियाशील तथा जागरूक रहते हैं।
  2. जन शिक्षण का श्रेष्ठतम माध्यम है। 
  3. सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक सुधार के लिए समुचित वातावरण की व्यवस्था होती है। 
  4. उच्च कोटि का राष्ट्रीय चरित्र विकसित करने में सहायक है। 
  5. स्वावलम्बन व व्यक्तिगत उत्तरदायित्व की भावना का विकास करता है। 
  6. देशभक्ति का स्रोत है। 
  7. क्रान्ति से Safty प्रदान करता है। 
  8. शासन कार्यो में जन-सहभागिता की व्यवस्था करता है। 
  9. व्यक्ति की गरिमा का सम्मान तथा समानता का आदर्श प्रस्तुत करता है।

लोकतंत्र प्रणाली के उपरोक्त गुण यह स्पष्ट करते हैं कि इस व्यवस्था में कोर्इ भी व्यक्ति यह शिकायत नहीं कर सकता कि उसे अपनी बात कहने का अवसर नहीं मिला है। क्योंकि लोकतान्त्रिक व्यवस्था का पहला काम यही है वह जनता को अपनी बात कहने के अधिकाधिक अवसर दे तथा जनता की जिज्ञासा का समाधान करें। हरमन फाइनर का कहना है कि ‘प्रजातंत्र शासन प्रणाली में तो रहन-सहन के स्तर का विकास असामान्य Reseller से अधिक होता है। ऐसा दो कारणों से है- First, जबरन लादी गर्इ योजना की अपेक्षा लोकतंत्र के अन्तर्गत Kingीय नियंत्रण और क्रियाकलापों सहित नवीन साहसिक व्यापार करने की स्वतंत्रता होती है। द्वितीय, यह भी सत्य है कि कुछ राजनीतिक दल, सम्भवत: All आवश्यक Reseller से निरन्तर ही रहन-सहन के उच्च-स्तर की उपयोगिता व महत्व की सीख देते रहते है। अत: यह कहना गलत नहीं होगा कि लोकतंत्र व्यवस्था सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक सुधारों के लिए समुचित वातावरण बनाने में बहुत सफल रहती है। लोकतंत्र शासन व्यवस्थाओं के यह गुण अधिकांशत: सैद्धान्तिक ही रह जाते हैं। व्यवहार में इनकी उपलब्धि असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है। केवल अवसर या वातावरण ही काफी नहीं होता है। फिर यह प्रश्न उठता है कि क्या व्यवहार में समानता, न्याय तथा जन-सहभागिता की लोकतंत्र में व्यवस्था हो पाती है? इस सम्बन्ध में यही कहा जा सकता है कि इसमें लोकतंत्र व्यवस्था का कोर्इ दोष नहीं है। अगर कोर्इ सैद्धान्तिक व्यवस्था व्यावहारिक नहीं बन पाती है तो दोष उन व्यक्तियों का है जो उसे क्रियान्वित करते हैं न कि उस व्यवस्था का। लोकतंत्र के लाभ व्यवहार में प्राप्त हो सकें इसके लिए नागरिकों का र्इमानदार, कर्त्तव्यपरायण व समझदार होना ही पर्याप्त नहीं होता है। इसके लिए आर्थिक विषमताओं का अभाव, सामाजिक समानता, राजनीतिक स्वतंत्रता तथा सहिष्णुता का होना भी अनिवार्य है।

प्रजातंत्र के गुण

लोकतंत्र शासन व्यवस्था की श्रेष्ठता को All स्वीकार करते हैं। शायद इसलिए ही आज दुनिया का हर राज्य लोकतान्त्रिक होने का दावा करने लगा है। इस प्रणाली के गुणों की विद्वानों ने लम्बी-लम्बी सूचियां प्रस्तुत की हैं। इसके पक्ष में व्यावहारिक तर्को से लेकर नैतिक तथा मनोवैज्ञानिक तर्क तक दिये गये हैं। प्रो0 डब्लू0 र्इ0 हाकिंग ने तो लोकतंत्र व्यवस्था के पक्ष को पुष्ट करते हुए यहां तक कहा है कि लोकतंत्र चेतन और उपचेतन मन की Singleता है । सी0डी0 बन्र्स ने लोकतंत्र का गुणगान करते हुए लिखा है कि लोकतंत्र आत्म शिक्षा का सर्वोत्तम साधन है। इससे स्पष्ट है कि लोकतंत्र प्रणाली की श्रेष्ठता तथा इससे होने वाले लाभों को All स्वीकार करते हैं। संक्षेप में, इस शासन व्यवस्था के गुण निम्नलिखित माने जा सकते हैं-

  1. King जन-कल्याण के प्रति सजग, अनुक्रियाशील तथा जागरूक रहते हैं। 
  2. जन शिक्षण का श्रेष्ठतम माध्यम है। 
  3. सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक सुधार के लिए समुचित वातावरण की व्यवस्था होती है।
  4. उच्च कोटि का राष्ट्रीय चरित्र विकसित करने में सहायक है।
  5. स्वावलम्बन व व्यक्तिगत उत्तरदायित्व की भावना का विकास करता है। 
  6. देशभक्ति का स्रोत है।
  7. क्रान्ति से Safty प्रदान करता है। 
  8. शासन कार्यो में जन-सहभागिता की व्यवस्था करता है। 
  9. व्यक्ति की गरिमा का सम्मान तथा समानता का आदर्श प्रस्तुत करता है।

लोकतंत्र प्रणाली के उपरोक्त गुण यह स्पष्ट करते हैं कि इस व्यवस्था में कोर्इ भी व्यक्ति यह शिकायत नहीं कर सकता कि उसे अपनी बात कहने का अवसर नहीं मिला है। क्योंकि लोकतान्त्रिक व्यवस्था का पहला काम यही है वह जनता को अपनी बात कहने के अधिकाधिक अवसर दे तथा जनता की जिज्ञासा का समाधान करें। हरमन फाइनर का कहना है कि ‘प्रजातंत्र शासन प्रणाली में तो रहन-सहन के स्तर का विकास असामान्य Reseller से अधिक होता है। ऐसा दो कारणों से है- First, जबरन लादी गर्इ योजना की अपेक्षा लोकतंत्र के अन्तर्गत Kingीय नियंत्रण और क्रियाकलापों सहित नवीन साहसिक व्यापार करने की स्वतंत्रता होती है। द्वितीय, यह भी सत्य है कि कुछ राजनीतिक दल, सम्भवत: All आवश्यक Reseller से निरन्तर ही रहन-सहन के उच्च-स्तर की उपयोगिता व महत्व की सीख देते रहते है। अत: यह कहना गलत नहीं होगा कि लोकतंत्र व्यवस्था सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक सुधारों के लिए समुचित वातावरण बनाने में बहुत सफल रहती है। लोकतंत्र शासन व्यवस्थाओं के यह गुण अधिकांशत: सैद्धान्तिक ही रह जाते हैं। व्यवहार में इनकी उपलब्धि असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है। केवल अवसर या वातावरण ही काफी नहीं होता है। फिर यह प्रश्न उठता है कि क्या व्यवहार में समानता, न्याय तथा जन-सहभागिता की लोकतंत्र में व्यवस्था हो पाती है? इस सम्बन्ध में यही कहा जा सकता है कि इसमें लोकतंत्र व्यवस्था का कोर्इ दोष नहीं है। अगर कोर्इ सैद्धान्तिक व्यवस्था व्यावहारिक नहीं बन पाती है तो दोष उन व्यक्तियों का है जो उसे क्रियान्वित करते हैं न कि उस व्यवस्था का। लोकतंत्र के लाभ व्यवहार में प्राप्त हो सकें इसके लिए नागरिकों का र्इमानदार, कर्त्तव्यपरायण व समझदार होना ही पर्याप्त नहीं होता है। इसके लिए आर्थिक विषमताओं का अभाव, सामाजिक समानता, राजनीतिक स्वतंत्रता तथा सहिष्णुता का होना भी अनिवार्य है।

प्रजातंत्र के दोष

लोकतंत्र प्रणाली को कार्यReseller देने में व्यावहारिक कठिनाइयों के कारण कुछ विचारक केवल इसके विपक्ष को ही सबल मानते हैं। इन व्यावहारिक कठिनाइयों के कारण लोकतंत्र की कड़ी आलोचना की जाती रही है। कुछ विद्वान तो यहां तक कहने लगे हैं कि लोकतंत्र का अब कोर्इ उपयोग नही रहा है क्योंकि अब कहीं भी सच्चे Means में लोकतान्त्रिक व्यवस्था नहीं पार्इ जाती है। यह सही है कि सैद्धान्तिक श्रेष्ठता के बावजूद लोकतंत्र का क्रियान्वयन कर्इ दोषों का सृजन कर देता है। लॉर्ड ब्राइस ने इसके निम्नलिखित दोष बतलाए हैं-

  1. शासन-व्यवस्था या विधान को विकृत करने में धन-बल का प्रयोग। 
  2. राजनीति को कमार्इ का पेशा बनाने की ओर झुकाव। 
  3. शासन-व्यवस्था में अनावश्यक व्यय। 
  4. समानता के सिद्धान्त का अपव्यय और प्रKingीय पटुता या योग्यता के उचित मूल्य का न आंका जाना। 
  5. दलबन्दी या दल संगठन पर अत्यधिक बल।
  6. विधान सभाओं के सदस्यों तथा राजनीतिक अधिकारियों द्वारा कानून पास कराते समय वोटों को दृष्टि में रखना और समुचित व्यवस्था के भंग को सहन करना।

लोकतंत्र की सैद्धान्तिक व्यवस्था को व्यावहारिक Reseller देने में आने वाली कठिनार्इयों के कारण ही प्लेटो और अरस्तू ने इस प्रणाली को शासन का विकृत Reseller बतलाया था। कोर्इ भी विचार सैद्धान्तिक श्रेष्ठता के कारण ही व्यवहार में श्रेष्ठतर नहीं रह जाता है। लोकतंत्र की अव्यावहारिकता के कारण ही आलोचक यह कहते हैं कि लोकतंत्र के सिद्धान्त अत्यधिक आदर्शवादी और कल्पनावादी हैं। व्यवहार में लोकतंत्र शासन कार्य का भार सम्पूर्ण जनता पर आधारित करके ‘निर्धनतम, अनभिज्ञतम तथा अयोग्यतम लोगों का शासन’ हो जाता है, क्योंकि आम जनता शासन की पेचीदगियों से अनभिज्ञ ही नहीं होती है वरन शासन करने के योग्य भी नहीं होती है। लोकतंत्र व्यवस्था की यही सबसे बड़ी विडम्बना है कि इसमें योग्यतम व्यक्ति-अभिजन वर्ग, जो शासन शक्ति के क्रियान्वयन में सक्रिय होते हैं, अयोग्यतम व्यक्ति-जनसाधारण, द्वारा नियंत्रित किये जाते हैं। अगर वह नियंत्रण व्यवहार में प्रभावी हो जाता है तो लोकतंत्र सही Meansो में भीड़तंत्र बन जाता है। अत: दोष लोकतंत्र व्यवस्था में नहीं, इस व्यवस्था को क्रियान्वित करने में सम्मिलित शासनकर्ताओं और शासितों में होते हैं। वस्तुत: व्यवहार में लोकतंत्र में यह दोष इसलिए आ जाते हैं कि उसे व्यवहार में लाने वाले लोग अपने को उस स्तर का नहीं रख पाते हैं, जिस स्तर की लोकतंत्र की सफलता के लिए Need होती है। परन्तु लोकतंत्र के आलोचकों को Single बात तो माननी ही होगी कि इस प्रणाली के इन दोषों के बावजूद यह प्रणाली अन्य All प्रणालियों से श्रेष्ठतर है। यही कारण है कि दुनिया के अनेक राज्यों में लोकतंत्र व्यवस्था को कुछ महत्त्वाकांक्षी राजनेताओं द्वारा उखाड़ फेंकने के बाद भी इसकी स्थापना के फिर प्रयत्न होते रहे हैं। अनेक समाजों में नागरिकता क्रान्ति तक का सहारा लेकर पुन: लोकतान्त्रिक शासन स्थापित करते रहे हैं। लोकतंत्र के आलोचक इस बात से भी इनकार नहीं कर सकते कि All दोषों के होने पर भी शायद लोकतान्त्रिक व्यवस्था ही Human की गरिमा, उसके व्यक्तित्व के सम्मान और शासन कार्य में उसकी सहभागिता सम्भव बनाने का श्रेष्ठतम साधन है। यह केवल शासन का ही Reseller नहीं, यह जीवन का ढंग है। इसमें व्यक्ति की सम्पूर्णता का आशय निहित है। यह व्यक्ति जीवन के विभिन्न पहलुओं को अलग-अलग करके नहीं, सम्मिलित Reseller से विकसित होने का अवसर प्रदान करने वाली व्यवस्था है। लोकतंत्र की श्रेष्ठता का संकेत मिल के इस निष्कर्ष से मिलता है जिसमें उसने कहा है कि ‘लोकतंत्र के विरोध में दी जाने वाली युक्तियों में जो कुछ सुधार प्रतीत हुआ, उसको पूरा महत्व देते हुए भी मैंने सहर्ष उसके पक्ष में ही निश्चय Reseller।’

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