जैन दर्शन में योग का स्वReseller

जैन दर्शन में योग का स्वReseller 

भारतवर्ष में जिस समय बौद्ध दर्शन का विकास हो रहा था उसी समय जैन दर्शन भी विकसित हो रहा था। दोनों दर्शन छठी शताब्दी में विकसित होने के कारण समकालीन दर्शन कहे जा सकते हैं।

जैन मत के विकास और प्रचार का श्रेय अन्तिम तीर्थंकर महावीर को दिया जाता है। इन्होंने ने ही जैन धर्म को पुष्पित And पल्लवित Reseller। जैन मत मुख्यत: महावीर के उपदेशों पर ही आधारित है।

जैन दर्शन का साहित्य अत्यन्त विशाल है। आरम्भ मे जैनों का दार्शनिक साहित्य प्राकृत भाषा में था। आगे चलकर जैनों ने सस्ंकृत को अपनाया जिसके फलस्वReseller जैनों का साहित्य संस्कृत में विकसित हुआ। संस्कृत में ‘तत्त्वार्थाधिगम सूत्र‘ अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण दार्शनिक ग्रन्थ है।

जैन धर्म में दो सम्प्रदाय स्वीकार किये गये हैं, पहला दिगम्बर और दूसरा श्वेताम्बर। जो श्वेत वस्त्रों को धारण करते हैं, उसे श्वेताम्बर सम्प्रदाय समझा जाता है तथा जो नग्न अवस्था में रहते हैं, उसे दिगम्बर सम्प्रदाय समझा जाता है। दिगम्बर सम्प्रदाय में धार्मिक नियमों की उग्रता दिखार्इ पड़ती है, पर श्वेताम्बर ने Human कमजोरियों का स्मरण कर कुछ अंशों में कठोर नियमों में शिथिलता ला दी है।

जैन परम्परा का आधार प्राचीन वैदिक संस्कृति ही है तथापि नि:सन्देह कहा जा सकता है कि जैनाचार्यों ने प्राचीन परम्परा का पुनरुत्थान कर, दार्शनिक वाद-विवाद में न पड़कर, श्रमण मुनि And निवृति मार्गी यतियों की परम्परा में मूल आधार योग के प्रचार प्रसार में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। जैन सम्प्रदाय द्वारा प्रवर्तित योग विद्या का अनुसरण कर अनेक जैनाचार्यों ने निर्वाण की प्राप्ति की है। यह तथ्य प्रसिद्ध जैनाचार्य ‘कुन्दकुन्द’ की कृति ‘नियमसार’ के इस कथन से प्रमाणित हो जाता है- ‘वृषभादि जिनवरेन्द्र इस प्रकार योग की उत्तम भक्ति करके निवृत्ति सुख को प्राप्त हुए हैं, इसलिए योग की उत्तम भक्ति तू भी कर।

जैन धर्म के वास्तविक And अन्तिम तीर्थंकर महावीर का जीवन चरित्र योग का ज्वलंत उदाहरण है। इन्होंने पूर्व जन्मों में संस्कार वश, युवावस्था में ही विरक्त होकर, गृहत्याग करके तपस्या करते हुए बारह वर्ष से अधिक समय तक मौन धारण करके, अत्यन्त कठोर तप का अनुसरण कर, योगाभ्यास द्वारा आत्मज्ञान को प्राप्त कर निर्वाण लाभ Reseller। इस प्रकार उपर्युक्त उदाहरण से स्पष्ट होता है कि जैन धर्म में भी योग-विद्या का स्वReseller किसी न किसी Reseller में अवश्य प्राप्त होता है।

योग Word ‘युज्’ धातु से बना है। यह धातु मुख्य Reseller से दो Meansों में प्रयुक्त की गयी है। Single धातु का Means मिलन या संयोग तथा दूसरी धातु का Means समाधि से लिया गया है। इनमें से First Means मिलन या संयोग को जैन आचार्यों ने योग के Reseller में स्वीकार Reseller है। अनेक योग सम्प्रदायों की भाँति जैन सम्प्रदायों में भी आत्मा And परमात्मा के संयोग को ही योग माना गया है।

योग को परिभाषित करते हुए नियमसार में कहा है कि आत्मप्रयत्न सापेक्ष विशिष्ट जो मनोगति है, उसका ब्रह्म में संयोग होना योग कहलाता है।

जो यह आत्मा, आत्मा को आत्मा के साथ निरन्तर जोड़ता है, वह मुनीश्वर निश्चय ही योग भक्ति वाला है। 

आत्मप्रयत्नसापेक्षा विशिष्टा या मनोगति:।

तस्या ब्रह्मणि संयोगो योग इत्यभिधीयते।। 

आत्मानमात्मायं युतक्त्येव निरन्तरम्। 

स योग भक्तियुत: स्यान्निश्चयेन मनुीश्वर:।। नियमसार: कुन्दकुन्द, प0भ0अ0गा0 137 

जैन सम्प्रदाय में यह स्वीकार Reseller गया है कि निर्मल मन द्वारा ही आत्मस्वReseller प्रकाशित हो सकता है।

पातंजल योगदर्शन में योग का लक्षण बताते हुए कहा है – चित्त वृत्तियों का निरोध ही योग है। योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:। (यो0 सू0 1/2)। इसी को जैन सम्प्रदाय में इस प्रकार कहा है-

जिसका मन Resellerी जल विषय कषाय Resellerी प्रचण्ड पवन से नहीं चलायमान होता है, उसी भव्य जीव की आत्मा निर्मल होती है And शीघ्र प्रत्यक्ष हो जाती है। जिसने शीघ्र ही मन को वश में करके यह आत्मा परमात्मा में नहीं मिलाया, वह योग से क्या कर सकता है? इसी बात को और स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जिन पुरुषों ने विषय कषायों में जाता हुआ मन कर्म Resellerी अंजन से रहित भगवान् में युक्त Reseller ( वे ही मोक्ष कारण के अनुयायी हैं) यही मोक्ष का कारण है, दूसरा अन्य कोर्इ भी तन्त्र अथवा मन्त्र नहीं है।

आशय यह है कि जो कोर्इ भी संसारी जीव शुद्धात्मभावना से उल्टे विषयकषायों में जाते हुए मन को वीतराग-निर्विकल्प स्वसंवेदन ज्ञान द्वारा पीछे हटाकर निज शुद्धात्म द्रव्य में स्थापन करता है, वही मोक्ष पाता है। दूसरा कोर्इ मन्त्र, तन्त्रादि में चतुर होने पर भी मोक्ष का अधिकारी नहीं होता है। 

जेण णिरंजणि मणु धरिउ विसय-कसायहिं जंतु। 

मोक्खहं कारणु एत्तहु अण्णु ण तंतु ण भंतु।। 

परमात्मप्रकाश: जुइन्दु देव, अध्याय-1, दोहा 123 

जैन दर्शन में यम-नियम निरुपण 

जिस प्रकार अन्य योग ग्रन्थों में यम-नियम का पालन Firstत: अनिवार्य माना गया है, उसी प्रकार जैन-शास्त्र में भी पंचमहाव्रत का अनुष्ठान First आवश्यक Reseller से अपेक्षित है। ये पंचमहाव्रत इस प्रकार हैं- 1. अंहिसाजन्यव्रत, 2. सत्यव्रत, 3. अस्तेयव्रत, 4. ब्रह्मचर्यव्रत, 5. अपरिग्रहव्रत।

तत्त्वार्थसूत्र में इन व्रतों का History करते हुए कहा गया है कि हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन, ब्रह्मचर्य, परिग्रह इनसे मन, वचन, काय का निवृत्त होना ही व्रत है।

हिंसानृतस्तेयाब्रह्मयर्चपरिग्रहेभ्यो विरतिवर््रतम्। तत्त्वार्थसूत्र: उमास्वाति 7/1

अब यहाँ पंच-महाव्रतों का वर्णन Reseller जा रहा है-

1. अंहिसाव्रत 

मनुष्य, जानवर, पक्षी अथवा स्थावर प्राणियों को मन, वचन और काय से किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं पहुँचाना अंहिसा है। मूलाचार में इस व्रत का स्पष्टीकरण करते हुए कहा गया है कि Singleेन्द्रिय आदि जीव पाँच प्रकार के होते हैं। पाप भीरु को सम्यक् प्रकार से मन, वचन, कायपूर्वक सर्वत्र इन जीवों की कदापि हिंसा नहीं करनी चाहिए।

एइंदियादिपाणां पंचविहाज्जभिरुणां सम्मं। 

ते खलु ण हि सिदत्वा मणवचिकायेण सत्वत्थ।। मूलाचार, प0 अ0 गा0 289 

अहिंसा व्रत का अबाध Reseller से पालन हो सके इसलिए All व्रतों की पाँच-पाँच भावनाएं निर्धारित की गयी हैं जो इस प्रकार है-

  1. वाग्गुप्ति-वचन द्वारा विषयों में जाने वाली इन्द्रियों की प्रवृति से आत्मा की रक्षा करना। 
  2. मन के द्वारा विषयों में जाने वाली प्रवृत्ति से आत्मा की रक्षा करना। 
  3. जन्तुओं की रक्षा करते हुए सावधानी पूर्वक गमन करना। 
  4. आसनादि को देखकर सतर्कता पूर्वक ग्रहण करना। 
  5. देखकर किसी वस्तु को खाना या पीना। 

2. सत्यव्रत –

All कालों में सर्वदा प्रिय, परिणाम में सुखद, कल्याणकारी वचन बोलना सत्य महाव्रत है। सत्यव्रत का स्वReseller निश्चित करते हुए नियमसार में उल्लिखित है कि रागद्वेष अथवा मोह से होने वाले मृषा भाषा के परिणाम को जो साधु छोड़ता है, उसी को सदा दूसरा व्रत होता है।

राणेण वा दासेण मोहेण वा मोसभांसपरिणामं। 

जो पजहादि साहु सया विदियवद होर्इ तस्सेव।। नियमसार: कुन्दकुन्द, व0 अ0 गा0 -57 

मूलाचार में सत्यव्रत की पांच भावनाओं का निदर्शन इस प्रकार Reseller गया है- 1. वाणी विवेक, 2. क्रोध त्याग. 3. लोभ त्याग. 4. भय त्याग. 5. हास्य त्याग। Meansात् हास्य, भय, क्रोध और लोभ से मन, वचन के द्वारा All काल में असत्य नहीं बोले, क्योंकि वैसा करने वाला असत्यभाषी होता है। 

हस्सभ्यकोहलोहो मणिवचिकायेण सव्वालम्मि। 

मोसं ण हि भासिज्जो पंचयघादी हवदि एसो।। मूलाचार: प0 गा0 290 

3. अस्तेयव्रत – 

अस्तेयव्रत का निरुपण करते हुए मूलाचार में कहा है कि ग्राम में, नगर में तथा अरण्य में जो भी स्थूल सचित्त और बहुल तथा इनसे प्रतिपक्ष सूक्ष्म अचित्त और अल्प वस्तु है उनका बिना किसी के दिये मन, वचन, कायपूर्वक त्याग करना चाहिए। गामेणगरे रण्णे थूलं सचित्तं बहु सपडिवक्खं। तिविहेण वज्जिदव्वं अदिण्णगहणं च तण्णिचं।। मूलाचार, प0 गा0 291 अस्तेय व्रत की पाँच भावनाओं का History तत्त्वार्थसूत्र में निम्न प्रकार Reseller है जो इस प्रकार है-

  1. अनुविचिग्रहयाचन:- सम्यक् विचार करके उपयोग के लिए आवश्यक अवग्रह-स्थान की याचना करना अनुविचिग्रहयाचन है। 
  2. अभीक्ष्य अवग्रहयाचन:- King, कुटुम्बादि से जो स्थान (वस्तु) मांगने में विशेष औचित्य हो, उनसे वही स्थान मांगना तथा Single बार देने के बाद मालिक ने वापिस ले लिया हो, फिर भी रोगादि के कारण विशेष आवश्यक होने पर उसके स्वामी से इस प्रकार बार-बार लेना कि उसको क्लेश न होने पाये, अभीक्ष्य-अवग्रहयाचन है। 
  3. अवग्रह धारण :- मालिक से मांगते समय अवग्रह का परिमाण निश्चित कर कोर्इ वस्तु ग्रहण करना अवग्रह धारण है। 
  4. साधर्मिक अवग्रहयाचन:- अपने से First Second किसी समानधर्मी ने कोर्इ वस्तु ले ली हो और उसी वस्तु को उपयोग में लाने का प्रसंग आ जाय तो उस साधर्मिक से ही याचना करना साधर्मिक अवग्रह याचन है। 
  5. अनुज्ञापितपान भोजन :- विधिपूर्वक अन्नपानादि लाने के बाद गुरु के समक्ष रखकर उनकी अनुज्ञापूर्वक ही उपयोग करना अनुज्ञापितपान भोजन है। 

4. ब्रह्मचर्यव्रत – 

ब्रह्मचर्यव्रत के स्वReseller पर प्रकाश डालते हुए निमयसार में कहा गया है कि स्त्रियों का Reseller देखकर उनके प्रति वांछाभाव की निवृत्ति अथवा मैथुन संज्ञारहित जो परिणाम है वह ब्रह्मचर्य व्रत है। ब्रह्मचर्य व्रत का स्थान साधना मार्ग में महत्त्वपूर्ण है। मूलाचार में ब्रह्मचर्य व्रत के फल का History करते हुए कहा है कि चिरकाल तक ब्रह्मचर्य का उपासक शेषकर्म को दूर करके क्रम से विशुद्ध होता हुआ शुद्ध होकर सिद्ध गति को प्राप्त कर लेता है। 

चिरउसिदवं भयारी पप्फोदेदूण सेसयं कम्मं। 

अणुपुव्वीय विसुद्धो सुद्धो सिद्धिगदिं जादि।। मूलाचार: वट्टकेराचार्य, प0 गा0 102 

5. अपरिग्रह – 

मूलाचार में अपरिग्रहव्रत के स्वReseller का वर्णन करते हुए कहा है कि ग्राम, नगर, अरण्य, स्थूल सचित्त और बहुत तथा स्थूलादि से विपरीत सूक्ष्म अचित्त ऐसे अन्तरंग, बहिरंग परिग्रह को मन, वचन, काय द्वारा छोड़ देवें।

गामं णगरं रण्णं थूलं सच्चित्तं वहु सपडिवक्खं। 

अज्झत्थ बहिरत्थं तिविहेण परिग्गहव्वजे।। मूलाचार: वट्टकेयराचार्य, प0 गा0 213 

‘योगसार’ में अपरिग्रहव्रत के फल का निरुपण करते हुए कहा है कि जितेन्द्र देव का कथन है कि यदि व्रत And संयम से युक्त होकर जीव निर्मल आत्मा को पहचानता है तो शीघ्र ही सिद्धि सुख पाता है।

जर्इ जिम्मल अप्पा मुणइ वय-संजमा-संजुत्तु। 

तो लहु पावइ सिद्धि सुह इड जिणणाहहं उत्तु।। योगसार: आचार्य जुइन्दु, दोहा 30 पृ0 366 

अपरिग्रहव्रत की पाँच भावनांए निम्नलिखित है-

  1. श्रोत्रेन्द्रिय के विषय Word के प्रति रागद्वेष रहितता। 
  2. चक्षुरिन्द्रिय के विषय Reseller के प्रति अनासक्त भाव। 
  3. घ्राणेन्द्रिय के विषय गन्ध के प्रति अनासक्त भाव। 
  4. रसनेन्द्रिय के विषय रस के प्रति अनासक्त भाव। 
  5. स्पर्शनेन्द्रिय के विषय स्पर्श के प्रति अनासक्त भाव।

इस प्रकार अहिंसाादि ये पंचमहाव्रत को योग सम्प्रदायों में यम कहा गया है। पातंजल योग मे तो स्पष्ट Reseller से यमों को सार्वभौम महाव्रत की संज्ञा दी गयी है।

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