ग्रामीण विकास क्या है ?

ग्रामीण विकास And बहुआयामी अवधारणा है जिसका विश्लेशण दो दृष्टिकोणों के आधार पर Reseller गया है: संकुचित And व्यापक दृष्टिकोण। संकुचित दृष्टि से ग्रामीण विकास का अभिप्राय है विविध कार्यक्रमेां, जैसे- कृषि, पशुपालन, ग्रामीण हस्तकला And उद्योग, ग्रामीण मूल संCreation में बदलाव, आदि के द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों का विकास करना।

वृहद दृष्टि से ग्रामीण विकास का Means है ग्रामीण जनों के जीवन में गुणात्मक उन्नति हेतु सामाजिक, राजनितिक, सांस्कृतिक, प्रोद्योगिक And संCreationत्मक परिवर्तन करना।

विश्व बैंक (1975) के According ‘‘ग्रामीण विकास Single विशिष्ट समूह- ग्रामीण निर्धनों के आर्थिक And सामाजिक जीवन को उन्नत करने की Single रणनीति है।’’ बसन्त देसार्इ (1988) ने भी इसी रुप में ग्रामीण विकास को परिभाशित करते हुए कहा कि, ‘‘ग्रामीण विकास Single अभिगम है जिसके द्वारा ग्रामीण जनसंख्या के जीवन की गुणवत्ता में उन्नयन हेतु क्षेत्रीय स्त्रोतों के बेहतर उपयोग And संCreationत्मक सुविधाओं के निर्माण के आधार पर उनका सामाजिक आर्थिक विकास Reseller जाता है And उनके नियोजन And आय के अवसरों को बढ़ाने के प्रयास किये जाते हैं।‘‘

क्रॅाप (1992) ने ग्रामीण विकास को Single प्रक्रिया बताया जिसका उद्देष्य सामूहिक प्रयासों के माध्यम से नगरीय क्षेत्र के बाहर रहने वाले व्यक्तियों के जनजीवन को सुधारना And स्वावलम्बी बनाना है। जान हैरिस (1986) ने यह बताया कि ग्रामीण विकास Single नीति And प्रक्रिया है जिसका आविर्भाव विष्वबैंक And संयुक्त राश्ट्र संस्थाओं की नियोजित विकास की नयी रणनीति के विशेष परिप्रेक्ष्य में हुआ है। ग्रामीण विकास की उपरोक्त परिभाशाओं के विष्लेशण में यह तथ्य Historyनीय है कि ग्रामीण विकास की रणनीति में राज्य की भूमिका को महत्वपूर्ण माना गया है। राज्य के हस्तक्षेप के वगैर ग्रामवासियों के निजी अथवा सामूहिक प्रयासों, स्वयंसेवी संगठनों के प्रयासों के आधार पर भी ग्रामीण जनजीवन को उन्नत करने के प्रयास होते रहे हैं, इन प्रयासों को ग्रामीण विकास की परिधि में शामिल Reseller जा सकता है। किन्तु नियोजित ग्रामीण विकास प्रारुप में राज्य की भूमिका महत्वपूर्ण मानी गयी है। इन परिभाशाओं के विष्लेशण से दूसरा महत्वपूर्ण तथ्य यह भी उभरता है कि ग्रामीण विकास सिर्फ कृषि व्यस्था And कृषि उत्पादन के साधन And सम्बन्धों में परिवर्तन तक ही सीमित नहीं है बल्कि ग्रामीण परिप्रक्ष्य में सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, प्रौद्योगिक, संCreationत्मक All पहलुओं में विकास की प्रक्रियायें ग्रामीण विकास की परिधि में शामिल हैं।

ग्रामीण पुनर्निर्माण के उपागम And रणनीतियाँ 

भारत में ग्रामीण विकास की रणनीति अलग-अलग अवस्थाओं में बदलती रही है। इसका कारण यह है कि ग्रामीण विकास के प्रति दृष्टिकोण बदलता रहा है। वस्तुत: ग्रामीण भारत को विकसित करने हेतु राज्य द्वारा अपनाये गये प्रमुख अभिगम (दृष्टिकोण)  हैं-

1. बहुद्देशीय अभिगम

बहुद्देशीय अभिगम की प्रमुख मान्यता यह थी कि गावों में लोगों के सामाजिक आर्थिक विकास हेतु यह आवश्यक है कि उनकी प्रवृत्तियों And व्यवहारों को बदलने का संगठित प्रयास Reseller जाय। इस दृष्टिकोण के आधार पर 1952 में सामुदायिक विकास कार्यक्रम की रणनीति अपनार्इ गयी जिसमें राज्य के सहयेाग से लोगों के सामूहिक And बहुद्देषीय प्रयास को शामिल करते हुए उनके भौतिक And Human संसाधनों को विकसित करने का लक्ष्य निर्धारित Reseller गया। इस प्रकार बहुद्देषीय उपागम के अन्तर्गत Single शैक्षिक And संगठनात्मक प्रक्रिया के रुप में सामाजिक आर्थिक विकास के अवरोधों को दूर करने पर बल दिया गया।

2. जनतांत्रिक विकेन्द्रीकरण अभिगम 

इस दृष्टिकोण की प्रमुख मान्यता यह थी कि ग्रामीण विकास के लिए प्रशासन का विकेन्द्रीकरण And लोगों की जनतांत्रिक सहभागिता का बढ़ाया जाना आवष्यक है। इस अभिगम के अनुरुप भारत में पंचायती राज संस्थाओं का विकास Reseller गया And क्षेत्रीय स्तर पर स्थानीय विकास कार्यक्रमों के निर्धारण And क्रियान्वयन के द्वारा ग्रामीण संCreation में परिर्वन की रणनीति अपनार्इ गयी।

3. अधोमुखी रिसाव (ट्रिकल डाउन) अभिगम 

स्वतंत्रता के बाद 1950 के आरम्भिक दशक में राज्य की रणनीति इन मान्यताओं पर आधारित थी कि जिस प्रकार बोतल के ऊपर रखी कुप्पी में तेल डालने पर स्वाभाविक रुप से उसकी पेंदी में पहुँच जाता है And तेल के रिसने की प्रक्रिया को कुछ देर जारी रखा जाय तो बोतल भर जाती है उसी प्रकार आर्थिक लाभ भी ऊपर से रिसते हुए ग्रामीण निर्धनों तक पहुँच जायेगा। 1950 के आरम्भ में पाश्चात्य आर्थिक विषेशज्ञों ने यह मत दिया कि ग्रामीण विकास समेत All प्रकार का विकास आर्थिक प्रगति पर ही आधारित है इसलिए कुल राष्ट्रीय आय में वृद्धि करके ग्रामीण निर्धनता को दूर Reseller जा सकता है। Single दषक के अनुभवों के आधार पर उन्हें यह आभास हुआ कि उनकी रणनीति ग्रामीण निर्धनता को दूर करने में असफल रही है। तत्बाद Meansषास्त्रियों And समाजवैज्ञानिकों का दृष्टिकोण बदला। नये दृष्टिकोण की मान्यता यह थी कि आर्थिक प्रगति के अलावा शिक्षा को माध्यम बनाना होगा And ग्रामीण जनता को शिक्षित करके उनमें जागरुकता लानी होगी। इस दृष्टिकोण पर आधारित प्रयास का परिणाम यह निकला कि षिक्षित ग्रामीणों ने हल चलाने And कृषि कार्य रकने से इन्कार कर दिया, उनकी अभिरुचि केवल “वेत वसन कार्य (व्हाइट कलर वर्क) करने की बन गयी। तब 1960 में यह दृष्टिकोण पनपा कि लोगों की अभिवृत्तियों And उत्प्रेरकों में परिवर्तन किये वगैर ग्रामीण विकास सम्भव नहीं। 1960 के दषक के परिणाम के आधार पर यह अनुभव हुआ कि कुछ प्रकार की आर्थिक प्रगति ने सामाजिक न्याय में वृद्धि की है किन्तु अन्य अनेक प्रकार की प्रगति ने सामाजिक असमानता को बढ़ाया है। 1970 के दषक में योजनाकारों And समाजवैज्ञानिकों का दृष्टिकोण बदला। इस नये दृष्टिकोण की मान्यता यह थी कि सामाजिक आर्थिक विकास के लाभ स्वत: रिसते हुए ग्रामीण निर्धनों तक पहुँचने की धारणा भ्रामक है। अत: ग्रामीण विकास हेतु भूमिहीनों, लघु किसानों And कृषि पर विषेश रुप से ध्यान केन्द्रित करना होगा। इस अभिगम के अन्तर्गत सामाजिक प्राथमिकताओं के निर्धारण And आर्थिक प्रगति And सामाजिक न्याय में संतुलन कायम रखने पर बल दिया गया।

4. जन सहभागिता अभिगम

जन सहभागिता उपागम की प्रमुख मान्यता यह थी कि ग्रामीण विकास की पूरी प्रक्रिया को जन सहभागी बनाना होगा। ग्रामीण विकास की पूरी प्रक्रिया को जन सहभागी बनाना होगा। ग्रामीण विकास के लिए किये जाने वाले प्रषासन को न सिर्फ लोगों के लिए बल्कि लोगों के साथ मिलकर किये जाने वाले प्रषासन के रुप में परिवर्तित करना होगा। ग्रामीण जनों से आषय यह है कि वे लोग जो विकास की प्रक्रिया से अछूते रह गये हैं तथा जो विकास की प्रक्रिया के षिकार हुए हैं अथवा ठगे गये हैं। सहीाागिता का आषय यह है कि ग्रामीण विकास हेतु स्त्रोतों के आवंटन And वितरण में इन ग्रामीण समूहों की भागीदारी बढ़ाना। जनसहभागिता अभिगम पर आधारित रणनीति को क्रियान्वित करने की दिषा में सामुदायिक विकास कार्यक्रमों के विस्तार, विभिन्न प्रकार की सहकारी समितियों के विकास, स्वयंसेवी संस्थाओं, संयुक्त समितियों, ग्राम पंचायतों, आदि को प्रोत्साहित करने के तमाम प्रयास किये गये।

5. लक्ष्य समूह अभिगम 

ग्रामीण विकास कार्यक्रमों के क्रियान्वयन से प्राप्त परिणामों के आधार पर यह अनुभव हो गया था कि ये कार्यक्रम ग्रामीण समुदाय में असमानता दूर करने में असफल रहे हैं। ग्रामीण विसंगतियों में सुधार हेतु यह दृष्टिकोण विकसित हुआ कि विविध समूहों- भूमिहीन मजदूरों, ग्रामीण महिलााओं, ग्रामीण षिषुओं, छोटे किसानों, जनजातियों, आदि को लक्ष्य बनाकर तदनुरुप विकास कार्यक्रम चलाने होंगे। इस दृष्टिकोण के आधार पर देा प्रकार के प्रयास किये गये: (अ) भूमि सुधार के माध्यम से भूमिहीनों को भू-स्वामित्व दिलाने के प्रयास किये गये, And (ब) मुर्गीपालन, पषुपालन तथा अन्य सहयोगी कार्यक्रमों के जरिये रोजगार के अवसर विकसित किये गये। ग्रामीण महिलाओं And षिषुओं, जनजातियों तथा अन्य लक्ष्य समूहों के लिए पृथक-पृथक कार्यक्रम चलाये गये।

6. क्षेत्रीय विकास अभिगम 

ग्रामीण विकास के क्षेत्रीय अभिगम की मान्यता यह थी कि भारत के विषाल भौगोलिक क्षेत्रों में अनेक गुणात्मक भिन्नतायें हैं। पर्वतीय क्षेत्र, मैदानी क्षेत्र, रेगिस्तानी क्षेत्र, जनजाति बहुल क्षेत्र आदि की समस्यायें समरुपीय नहीं हैं। अत: ग्रामीण विकास की रणनीति में क्षेत्र विषेश की समस्याओं को आधार बनाया जाना चाहिए। इस उपागम के अनुरुप अलग-अलग ग्रामीण क्षेत्रों के लिए पृथक-पृथक विकास कार्यक्रम निर्धारित किये गये तथा उनका क्रियान्वयन Reseller गया।

7. समन्वित ग्रामीण विकास अभिगम 

1970 के दषक के अन्त तक ग्रामीण विकास की रणनीतियों And कार्यक्रमों की असफलता से सबक लेते हुए Single नया दृष्टिकोण विकसित हुआ जो समन्वित ग्रामीण विकास अभिगम के नाम से जाना जाता है। इस अभिगम की मान्यता यह है कि ग्रामीण विकास के परम्परागत दृष्टिकोण में मूलभूत दोष यह था कि वे ग्रामीण निर्धनों के विपरीत ग्रामीण धनिकों के पक्षधर थे तथा उनके कार्यक्रमों And क्रियान्वयन पद्धतियों में कर्इ अन्य कमियॉ थीं जिसके परिणामस्वरुप अपेक्षित परिणाम नहीं मिल सका। समन्वित ग्रामीण विकास अभिगम के अन्तर्गत जहाँ Single ओर ग्रामीण जनजीवन के विविध पहलुओं- आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक, स्वास्थ्य, प्रौद्योगिक को Single साथ समन्वित करके ग्रामीण विकास के कार्यक्रमों के निर्धारण पर बल दिया गया वहीं दूसरी ओर विकस के लाभों के वितरण को महत्वपूर्ण माना गया। इन विविध अभिगमों के अवलोकन से यह स्पष्ट है कि भारत में ग्रामीण विकास के प्रति चिन्तन की दिषायें समय-समय पर बदलती रही हैं।

इन परिवर्तित दृष्टिकोणों पर आधारित रणनीतियों And ग्रामीण विकास कार्यक्रमों में भी तद्नरुप परिवर्तन होता रहा है।

8. स्वयं सेवा समूह And लघु वित्त अभिगम 

1990 के दशक के उत्तर्राद्ध से लेकर वर्तमान में ग्रामीण विकास की मुख्य रणनीति है स्वयं सहायता समूहों का निर्माण करना तथा वित्तीय संस्थाओं जैसे ग्रामीण बैंक, नाबार्ड, आदि द्वारा उन्हें लघु अनुदान प्रदान करते हुए स्वावलम्बी समूह के Reseller में उनका विकास करना। इस दृष्टि से ग्रामीण निर्धन महिलाओं And पुरूषों के छोटे-छोटे समूह, जिसमें 10-15 सदस्य शामिल हैं, विभिन्न प्रकार के उद्यम में संलग्न हैं तथा Single स्वयं सहायता समूह के Reseller में विकसित हो रहे हैं। इस अभिगम में वृहद् परियोजना And लागत की बजाय कम पूँजी And लघु परियोजनाओं को प्राथमिकता दी गर्इ है।

ग्रामीण पुनर्निर्माण का गांधीवादी उपागम 

ग्रामीण पुनर्निर्माण का आशय है गांवों को विकसित And Resellerान्तरित करते हुए उसका पुन: निर्माण करना। ग्रामीण विकास के उपागम विविध हैं। मोटे तौर पर इन उपागमों को दो श्रेणियों में बाँटा जा सकता है: संघर्षवादी And प्रकार्यवादी उपागम। संघर्षवादी प्राReseller में ग्रामीण पुनर्निर्माण की प्रक्रिया द्वन्द्वात्मक है। ग्रामीण Meansव्यवस्था में परिवर्तन के जरिये सम्पूर्ण ग्रामीण संCreation का पुनर्निर्माण संभव है जिसमें सामाजिक संघर्ष की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। इसके विपरीत प्रकार्यवादी प्राReseller में सामाजिक संघर्ष की बजाय अनुकूलन And सामंजस्य के द्वारा ग्रामीण संCreation का Resellerान्तरण And पुनर्निर्माण Reseller जाता है।

महात्मा गाँधी की ग्रामीण पुनर्निर्माण योजना को दो प्रमुख आधारों पर समझा जा सकता है: First यह कि गांधीं किस प्रकार का ग्राम बनाना चाहते थे? दूसरा यह कि उनकी ग्रामीण पुनर्निर्माण योजना वर्तमान समाज में कितनी प्रासंगिक है? वस्तुत: गांधी की ग्रामीण पुनर्निर्माण की परिकल्पना उनके विचारों And मूल्यों पर आधारित है। गांधी के विचार, दर्शन And सिद्धान्त के प्रमुख अवयव हैं: सत्य के प्रति आस्था, अहिंसा की रणनीति, विध्वंस And निर्माण की समकालिकता, साधन की पवित्रता के माध्य से लक्ष्य की पूर्ति, गैर प्रतिस्पर्द्धात्मक And अहिंसक समाज का गठन, धरातल बद्धमूल विकास, वृहद् उद्योगों की वजाय कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन, श्रम आधारित प्रौद्योगिकी की महत्ता, ग्रामीण गणराज्य And ग्राम स्वराज के आधार पर ग्राम स्वावलम्बन की स्थापना, इत्यादि।

गांधी की दृष्टि में विकेन्द्रित ग्रामीण विकास की रणनीति को ग्रामीण पुनर्निर्माण में आधारभूत बनाना अनिवार्य है। उन्होंने पंचायती राज के गठन पर बल दिया। गांधी ग्रामीण विकास को सम्पोषित स्वReseller प्रदान करना चाहते थे, इसलिए उन्होंने प्रकृति के दोहन की बजाय प्रकृति से तादात्म्य बनाने का सुझाव दिया। उनकी दृष्टि में नैतिक शिक्षा And प्रकृति से पेम्र करने की शिक्षा दी जानी चाहिए। सादा जीवन And उच्च विचार के अपने आदर्शों के अनुReseller उन्होंने लालच से बचने And अपनी Needओं को सीमित करने का सुझाव दिया। उन्होंने यह कहा कि प्रकृति के पास इतना पर्याप्त स्रोत है कि वह संसार के समस्त प्राणियों की Needओं की पूर्ति कर सकती है किन्तु लालच को पूरा कर पाने में सम्पूर्ण Earth भी अपर्याप्त है।

गांधी की दृष्टि में ग्रामीण Resellerान्तरण And ग्रामीण पुनर्निर्माण की सम्पूर्ण प्रक्रिया में गांव की स्वाभाविक विशिश्टता Windows Hosting बनाये रखना अनिवार्य है। ग्रामीण औद्योगिकरण के परिप्रेक्ष्य में उन्होंने खादी And ग्रामोद्योग को विकसित करने पर बल दिया। अपनी पुस्तक हिन्द स्वराज में गांधी ने ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा पोषित आधुनिक सभ्यता को आर्थिक क्लेश का प्रमुख कारक माना तथा इससे मुक्ति हेतु उन्होंने भारत की प्राचीन संस्कृति के मूल्यों-सत्य, अहिंसा, नैतिक प्रगति को पुनर्जीवित करते हुए Human विकास की परिकल्पना की। खादी आन्दोलन को औपनिवेशिक संघर्ष का माध्यम बनाते हुए उन्होंने महिलाओं And समस्त ग्रामीण जनसमूहों को न सिर्फ आर्थिक And राजनीतिक सक्रिय भागीदार बनाया बल्कि उन्हें सशक्त And स्वावलम्बी बनाने का प्रयास भी Reseller।

गांधी की परिकल्पना में ग्रामीण उद्योग की परिधि में वे समस्त गतिविधियां, कार्य And व्यवसाय सम्मिलित हैं जिसमें ग्राम स्तर पर ग्रामीणों के लिए वस्तुओं का उत्पादन Reseller जाता है, स्थानीय क्षेत्रों में उपलब्ध कच्चे माल का उपयेाग करते हुए सरल उत्पादन प्रक्रिया अपनार्इ जाती है, केवल उन्हीं उपकरणों का प्रयोग Reseller जाता है जो ग्रामीणों की सीमित आर्थिक क्षमता में सम्भव हैं, जिसकी प्रौद्योगिकी निर्जीव शक्ति-विद्युत, मोटर, इत्यादि की बजाय जीवित शक्तियों-मनुष्य, पशु, पक्षी द्वारा संचालित होती है तथा जिसमें Human श्रम का विस्थापन नहीं Reseller जाता है।

गांधी ने आधुनिक मशीन आधारित उत्पादन प्रणाली की बजाय Human श्रम आधारित उत्पादन प्रणाली पर बल दिया क्योंकि उनकी दृष्टि में भारत जैसी विशाल आबादी वाले देश में अधिकांश लोगों को रोजगार प्रदान करने का यह सर्वोत्तम विकल्प है। गांधी के ग्रामोद्योग की परिकल्पना ने जहाँ Single ओर हिंसारहित, शोषण विहीन, समानता के अवसर युक्त, प्रकृति को संरक्षित And संपोषित करने वाले ग्रामीण उद्योगों के विकास का पथ प्रदर्शित Reseller वहीं दूसरी ओर उत्पादन की प्रक्रिया में मशीनों के प्रयोग, बाजार And साख से जुड़े प्रश्न समेत अनेक वाद-विवाद भी उत्पादन Reseller।

स्वतंत्र भारत में बाजार के अनुभवों के आधार पर इस तरह के प्रश्न उभरे कि खादी And ग्रामोद्योग उत्पादों का बाजार अत्यन्त सीमित है, इनके उत्पादकों की आर्थिक दशा दयनीय है क्योंकि मशीन आधारित उत्पादकों से प्रतिस्पर्धा में वे पिछड़े हुए हैं, इत्यादि। इन प्रश्नों के उत्तर समय-समय पर गांधीवादी परिप्रेक्ष्य में संशोधित होते रहे हैं। आरम्भिक अवस्था में खादी हेतु बाजार का प्रश्न गांधी के लिए महत्वपूर्ण नहीं था। उन्होंने Indian Customerों को खादी वस्त्र धारण करने का संदेश दिया जिसमें खादी के लिए बाजार से जुड़े प्रश्न का उत्तर सन्निहित था। 1946 में गांधी ने बाजार की मांग के अनुReseller वाणिज्यक खादी And हैण्डलूम के अलावे पावरलूम को भी स्वीकृति दी। स्वतंत्र भारत में 1948 की First औद्योगिक नीति से लेकर 1991 की नर्इ लघु उद्यम नीति तक ग्रामीण रोजगार सृजन And ग्रामीण Meansव्यवस्था को समृद्ध करने हेतु खादी And ग्रामोद्योग को प्रोत्साहित Reseller गया। किन्तु व्यावहारिक स्तर पर गांधीवादी उपागम पर आधारित ग्रामीण औद्योगिकरण की प्रक्रिया भारत में ग्रामीण निर्धनता And बेरोजगारी उन्मूलन में पूर्णत: सफल नहीं हो सकी तथा विविध समस्यायें अभी भी बनी हुर्इ हैं, जैसे-

  1. खादी उत्पादकों की आय इतनी कम है कि इसके जरिये वे निर्धनता रेखा से उपर उठने में असमर्थ हैं। हाल ही में महिला विकास अध्ययन केन्द्र, गुजरात द्वारा किये गये सर्वेक्षण से प्राप्त तथ्य इस निष्कर्ष की पुष्टि करते हैं। 
  2. खादी उत्पादकों के लिए बाजार Single प्रमुख समस्या बनी हुर्इ है। 
  3. कोआपरेटिव संस्थाओं के जरिये खादी And

 अन्य कुटीर उत्पादों के बाजारीकरण And उत्पादक सम्बन्धी संस्थागत प्रयास प्राय: असफल ही रहे हैं। गांधी के ग्रामीण पुनर्निर्माण की रणनीति का आविर्भाव Single विशिष्ट ऐतिहासिक And सामाजिक आर्थिक परिपे्रक्ष्य में हुआ। यद्यपि ग्रामीण औद्योगिकरण की गांधीवादी परिकल्पना व्यवहार में बहुत सफल नहीं रही किन्तु इसका यह आशय नहीं कि गांधी का दृष्टिकोण अप्रासंगिक है। आधुनिकता के पक्षधर पंडित जवाहर लाल नेहरू ने यह स्वीकार Reseller कि तीव्र प्रगति हेतु आधुनिक मशीनों का उपयोग आवश्यक है किन्तु भारत की बहुसंख्यक आबादी के परिप्रेक्ष्य में गांधी का Human श्रम पर आधारित प्रौद्योगिकी को प्रोत्साहित करने सम्बन्धी दृष्टिकोण अत्यन्त प्रासंगिक है।

ग्रामीण विकास के विविध कार्यक्रम And उनका मूल्यांकन 

राज्य द्वारा ग्रामीण विकास के क्षेत्र में लागू किये गये कार्यक्रमों को मोटे तौर पर चार भागों में बाँटा जा सकता है: (अ) आय बढ़ाने वाले कार्यक्रम (ब) रोजगार उन्मुख कार्यक्रम (स) शिक्षा And कल्याण कार्यक्रम (द) क्षेत्रीय कार्यक्रम।

भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के पष्चात् विविध पंचवर्षीय योजनाओं के अन्तर्गत अनेकानेक ग्रामीण विकास कार्यक्रम चलाये गये, जिनमें से कुछ मुख्य कार्यक्रमों को तालिका संख्या 1 के आधार पर अवलोकित Reseller जा सकता है:

तालिका संख्या-1 

ग्रामीण विकास कार्यक्रम And उनका श्रेणीगत विभाजन 

कार्यक्रम लागू वर्ष
First पंचवर्षीय योजना
1. सामुदायिक विकास कार्यक्रम 1952
2. राष्ट्रीय विस्तार सेवा 1953
द्वितीय पंचवर्षीय योजना
3. खादी And ग्राम उद्योग आयोग 1957
4. बहुद्देशीय जनजातीय विकास प्रखण्ड 1959
5. पंचायती राज संस्था 1959
6. पैकेज कार्यक्रम 1960
7. गहन कृषि विकास कार्यक्रम 1960
तृतीय पंचवर्षीय योजना
8. व्यावहारिक पोशाहार कार्यक्रम 1960
9. गहन चौपाया पशु विकास कार्यक्रम 1964
10. गहन कृषि क्षेत्र कार्यक्रम 1964
11. उन्नत बीज किस्म योजना 1966
12. राष्ट्रीय प्रदर्शन कार्यक्रम 1966
वार्शिक योजना
13. कृशक प्रषिक्षण And षिक्षा कार्यक्रम 1966
14. कुँआ निर्माण योजना 1966
15. वाणिज्यिक अनाज विषेश कार्यक्रम 1966
16. ग्रामीण कार्य योजना 1967
17. अनेक फसल योजना 1967
18. जनजातीय विकास कार्यक्रम 1968
19. ग्रामीण जनषक्ति कार्यक्रम 1969
20. महिला And विद्यालय पूर्व षिषु हेतु समन्वित योजना 1969
चतुर्थ पंचवर्षीय योजना
21. ग्रामीण नियोजन हेतु कै्रष कार्यक्रम 1971
22. लघु कृशक विकास एजेन्सी 1971
23. सीमान्त कृशक And भूमिहीन मजदूर परियोजना एजेन्सी 1971
24. जनजातीय क्षेत्र विकास कार्यक्रम 1972
25. जनजातीय विकास पायलट परियोजना 1972
26. पायलट गहन ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम 1972
27. न्यूनतम आवष्यक कार्यक्रम 1972
28. सूखा उन्मुख क्षेत्र कार्यक्रम 1973
29. कमाण्ड क्षेत्र विकास कार्यक्रम 1974
पंचम पंचवर्षीय योजना
30. समन्वित बाल विकास सेवा 1975
31. पर्वतीय क्षेत्र विकास एजेन्सी 1975
32. बीस सूत्रीय आर्थिक कार्यक्रम 1975
33. विषेश पषु समूह उत्पादन कार्यक्रम 1975
34. जिला ग्रामीण विकास एजेन्सी 1976
35. कार्य हेतु अन्य येाजना 1977
36. मरुस्थल क्षेत्र विकास कार्यक्रम 1977
37. सम्पूर्ण ग्राम विकास योजना 1979
38. ग्रामीण युवा स्वरोजगार प्रषिक्षण कार्यक्रम 1979
षष्ठम पंचवर्षीय योजना
39. समन्वित ग्रामीण विकास कार्यक्रम 1980
40. राष्ट्रीय ग्रामीण नियोजन कार्यक्रम 1980
41. ग्रामीण महिला And षिषु विकास कार्यक्रम 1983
42. ग्रामीण भूमिहीन नियोजन प्रतिभू कार्यक्रम 1983
43. इन्दिरा आवास योजना 1985
सप्तम पंचवर्षीय योजना
44. मातृत्व And षिषु स्वास्थ्य कार्यक्रम 1985
45. सार्वभौमिक टीकारण कार्यक्रम 1985
46. जवाहर नवोदय विद्यालय योजना 1986
47. नया बीस सूत्रीय कार्यक्रम 1986
48. केन्द्र प्रायोजित ग्रामीण आरोग्य कार्यक्रम 1986
49. जन कार्यक्रम And ग्रामीण प्रोद्योगिकी उन्नयन परिशद्(कापार्ट) 1986
50. बंजर भूमि विकास परियोजना 1989
51. जवाहर रोजगार योजना 1989
अश्टम पंचवर्षीय योजना
52. षिषु संरक्षण And Windows Hosting मातृत्व कार्यक्रम 1992
53. प्रधानमंत्री रोजगार योजना 1993
54. नियोजन आष्वासन योजना 1993
55. राष्ट्रीय Human संसाधन विकास कार्यक्रम 1994
56. परिवार साख योजना 1994
57. विनियोग प्रोत्साहन योजना 1994
58. समन्वित बंजर भूमि विकास परियोजना 1995
59. राष्ट्रीय सामाजिक सहायता कार्यक्रम 1995
60. राष्ट्रीय वृद्ध पेंषन कार्यक्रम 1995
61. राष्ट्रीय परिवार लाभ कार्यक्रम 1995
62. राष्ट्रीय मातृत्व लाभ कार्यक्रम 1995
63. पल्स पोलियो टीकाकरण कार्यक्रम 1995
64. मिलियन कुँआ कार्यक्रम 1996
65. विद्यालय स्वास्थ्य परीक्षण विषेश कार्यक्रम 1996
66. परिवार कल्याण कार्यक्रम 1996
नवम पंचवर्षीय येाजना
67. गंगा कल्याण योजना 1997
68. बालिका समृद्धि योजना 1997
69. स्वर्ण जयन्ती ग्राम स्वरोजगार योजना 1999
70. जवाहर ग्राम समृद्धि योजना 1999
71. ग्रामीण आवास हेतु ऋण And सहायता योजना 1999
72. ग्रामीण आवास विकास हेतु उन्मेशीय स्त्रोत येाजना 1999
73. समग्र आवास योजना 1999
74. प्रधानमंत्री ग्रामोदय योजना 2000
दसवीं पंचवर्षीय योजना
75. ग्रामीण भण्डारण योजना 2002
76. सर्वशिक्षा अभियान 2002
77. सार्वजनिक स्वास्थ्य बीमा योजना 2003
78. कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय योजना 2004
79. आषा योजना 2005
80. राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन कार्यक्रम 2005
81. ज्ञान केन्द्र योजना 2005
82. महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी कार्यक्रम 2006

ग्रामीण विकास कार्यक्रमों का मूल्याँकन 

भारत में ग्रामीण विकास के विविध प्रयासों की सफलता And असफलता की समीक्षा करने पर यह स्पष्ट होता है कि ग्रामीण समाज And विशेशकर ग्रामीण निर्धनों पर ग्रामीण विकास कार्यक्रमेां की बहुत सीमित सफलता प्राप्त हुर्इ है। ग्रामीण विकास की नीतियों, कार्यक्रमों के निर्धारण And क्रियान्वयन में कमियों के कारण ग्रामीण रुपान्तरण की प्रक्रिया में महत्वपूर्ण परिणाम नहीं दृष्टिगोचर होता। कुछ महत्वपूर्ण कार्यक्रमों के लक्ष्यों And उपलब्धियों के आधार पर उनका मूल्याँकन Reseller जा सकता है।

ग्रामीण विकास में सहकारी संस्थाओं की भूमिका 

सहकारी समिति व्यक्तियों का Single स्वायत्त संगठन है जिसके सदस्य स्वेच्छया संयुक्त होकर अपनी सामान्य आर्थिक, सामाजिक And सांस्कृतिक Needओं And आकांक्षाओं की पूर्ति साझा स्वामित्व And जनतांत्रिक Reseller से नियंत्रित उद्यमों के आधार पर करते हैं।

भारत में औपचारिक सहकारी समितियों का प्रादुर्भाव 1904 में प्रमुखत: साख समितियों के Reseller में हुआ तथा 1912 से गैर साख सहकारी समितियाँ गठित होने लगीं। 1928 में रायल कमीशन ऑन एग्रीकल्चर ने सहकारिता के महत्व को स्पष्ट करते हुए कहा कि यदि सहयोग असफल होगा तो इसका आशय यह है कि ग्रामीण भारत में सर्वोत्तम आकांक्षाएं असफल होंगी। कृषक समाज के सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन में सहकारी संस्थाओं को Single महत्वपूर्ण अभिकरण माना गया।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सहकारिता को भारत की नियोजित आर्थिक विकास प्रक्रिया की रणनीति में शामिल Reseller गया तथा विभिन्न पंचवष्र्ाीय योजनाओं में सहकारी क्षेत्रों का विस्तार होता गया। First पंचवष्र्ाीय योजना में कृषि, बाजार, कुटीर उद्योग, प्रसंस्करण उद्योग तथा आन्तरिक व्यापार, इत्यादि क्षेत्रों में सहकारी संगठन विविध आर्थिक गतिविधियों के माध्यम बने। First पंचवष्र्ाीय योजना में सहकारी योजना समिति के इस सुझाव को स्वीकार Reseller गया कि भारत के 50 प्रतिशत गांवों में 30 प्रतिशत ग्रामीण आबादी को आगामी दस वर्षों में सहकारी क्षेत्रों से सम्बद्ध Reseller जाय। द्वितीय पंचवष्र्ाीय योजना में कोआपरेटिव के्रडिट सोसायटीज की संख्या 5 मिलियन से बढ़कर 15 मिलियन तक हो गर्इ। तृतीय पंचवष्र्ाीय योजना में सामाजिक स्थायित्व And आर्थिक संवृद्धि हेतु सहकारिता को महत्वपूर्ण कारक के Reseller में स्वीकारा गया। चतुर्थ पंचवष्र्ाीय येाजना में कृषि सहकारी समितियों And उपभोक्ता सहकारी समितियों ने सहकारिता आन्दोलन को प्रमुख Reseller से आगे बढ़ाया। पंचम पंचवष्र्ाीय योजना में क्षेत्रीय असंतुलन को दूर करने, सीमांत कृषकों And दुर्बल समूहों आदि लक्ष्यों पर केन्द्रीकरण करके सहकारी संस्थाओं को सुदृढ़ बनाने का प्रयास Reseller गया। छठवीं पंचवष्र्ाीय योजना में सहकारी संस्थाओं की सफलताओं And असफलताओं के मिश्रित परिणाम परिलक्षित हुए। Sevenवीं पंचवष्र्ाीय योजना में सहकारी इकार्इयों के गठन, पिछड़े राज्यों में विशेष कार्यक्रम बनाने तथा लोक वितरण प्रणाली का विस्तार करने की रणनीति बनार्इ गर्इ। आठवीं पंचवष्र्ाीय योजना में यह अनुभव Reseller गया कि सरकार की आर्थिक नीतियों में कृषि सहकारी समितियों की भूमिका महत्वपूर्ण बनी रहेंगी। नवीं And दसवीं पंचवष्र्ाीय योजनाओं में कृषि उत्पादों के बाजारीकरण, बाजार की संCreation के निर्माण, कृषि प्रसंस्करण इकार्इयों की स्थापना से लेकर गैर कृषि क्षेत्रों में सहकारी संस्थाओं की भूमिका का विस्तार हुआ। ग्यारहवीं पंचवष्र्ाीय योजना में भी सहकारी समितियाँ ग्रामीण क्षेत्रों की विविध गतिविधियों में संलग्न हैं।

1997-98 तक भारत में प्राथमिक सहकारी समितियों की संख्या 4.88 लाख तक पहुँच गर्इ जिसमें से 1.38 लाख कृषि सहकारी समितियाँ हैं। लगभग 207.57 मिलियन लोग विभिन्न सहकारी समितियों के सदस्य बने। ग्रामीण परिवारों की 67 प्रतिशत आबादी सहकारी क्षेत्रों से जुड़ी।

वैश्वीकरण के नये दौर की चुनौतियों से निबटने हेतु भारत सरकार ने अप्रैल 2002 में सहकारिता की राष्ट्रीय नीति बनार्इ जिसमें देश भर में सहकारी समितियों के चतुर्दिक विकास हेतु सहायता प्रदान करने को प्रमुखता दी गर्इ है। इस नीति के According जनसहभागिता And सामुदायिक प्रयास की Need वाले सहकारी संस्थाओं को स्वायत्त, जनतांत्रिक And उत्तरदायी बनाने हेतु आवश्यक सहकारी सहायता की जायेगी। सरकार का हस्तक्षेप सहकारी समितियों में समय से चुनाव कराने, लेखा जोखा करने तथा इसके सदस्यों के हितों की Safty करने तक ही सीमित रहेगा। सहकारी समितियों के प्रबन्धन And कार्यों में कोर्इ सरकारी दखलन्दाजी नहीं होगी। भारत सरकार ने सन् 2002 में नया बहुराज्यीय सहकारी समिति अधिनियम पारित Reseller है जिसका लक्ष्य सहकारी संस्थाओं को पूर्ण प्रकार्यात्मक स्वायत्तता प्रदान करना तथा इनका जनतांत्रिक प्रबन्धन करना है। भारत की सहकाारी नीति अन्तर्राष्ट्रीय सहकारिता के मान्य नियमों And आदर्शों-पंजीकरण को सरल बनाने, संशोधन करने, आदि को प्रतिबिम्बित करती है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सहकारी समितियाँ अपने स्रोतों And संसाधनों को बढ़ाने हेतु स्वतंत्र हैं तथा उनका दायित्व भी अपेक्षाकृत बढ़ गया है।

ग्रामीण विकास में सहकारी संस्थाओं की भूमिका महत्वपूर्ण है। सहकारी संस्थाएं कृषि And गैर कृषि समेत विविध क्षेत्रों में Historyनीय उपलब्धियाँ हासिल की हैं। उदाहरणार्थ 1940 के दशक में दुग्ध के वितरक व्यापारियों And ठेकेदारों द्वारा दुग्ध उत्पादकों का शोषण Reseller जाता था। इस शोषण के विरोध में गुजरात के कैरा जिला में सहकारी आन्दोलन शुरू हुआ, जिसके सुखद अनुभवों से प्रभावित होकर देश के विभिन्न हिस्सों में अबतक 75000 डेयरी कोपरेटिव सोसायटी की स्थापना हो चुकी है, जिसमें लगभग 10 मिलियन सदस्य हैं। विविध अध्ययनों से प्राप्त तथ्य यह प्रदर्शित करते हैं कि डेयरी कोआपरेटिव ने रोजगार के श्रृजन, बाजारीकरण And वितरण All दृष्टि से ग्रामीण क्षेत्र में संपोषित विकास Reseller है। सहकारी संस्था के अनुशासन, परिश्रम, सफार्इ, उन्नत प्रौद्योगिकी, महिलाओं की सक्रिय भागीदारी, जनतांत्रिक नियंत्रण, इत्यादि विशेषताओं के आधार पर अमूल डेयरी सफलता का पर्याय बन गया। इसी प्रकार कृषि And अन्य क्षेत्रों में भी कोआपरेटिव सोसायटी का Historyनीय योगदान रहा है। किन्तु दूसरी ओर यह भी Single तथ्य है कि उपभोक्ता क्षेत्रों से जुड़ी अनेक सहकारी समितियाँ सीमित व्यक्तियों को ही लाभान्वित करती रही हैं, आम जनों को इनका लाभ अपेक्षित Reseller में नहीं मिल सका है।

वैश्वीकरण के नये दौर में सहकारी संस्थाओं के समक्ष नर्इ चुनौतियाँ उत्पन्न हुर्इ हैं। उदाहरणार्थ डेयरी उद्योग में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों And निजी पूँजीपतियों द्वारा अत्यधिक पूँजीनिवेश के परिणामस्वReseller बाजार की नियंत्रण प्रणाली पर डेयरी सहकारी समितियों का प्रभूत्व नहीं रह गया बल्कि गुणवत्ता, सफार्इ, प्रसंस्करण के मानदंड, इत्यादि में प्रतिस्पर्द्धा बढ़ी है तथा बाजार व्यवस्था पर निजी पूँजी का वर्चस्व बढ़ा है। इस नये परिपे्रक्ष्य में सहकारी संस्थाओं को और अधिक सक्षम बनना होगा ताकि वे प्रतिस्पर्द्धा में अपना अस्तित्व Windows Hosting रख सकें।

ग्रामीण विकास से सम्बद्ध मुद्दे 

ग्रामीण विकास Single बहुआयामी प्रक्रिया है। भारत में ग्रामीण विकास के अबतक के प्रयास के बावजूद कुछ समस्यायें बनी हुर्इ हैं, जैसे- पर्यावरण का क्षरण, अशिक्षा/ निरक्षरता, निर्धनता, ऋणग्रस्तता, उभरती असमानता, इत्यादि। इन मुद्दों को भलीभाँति विश्लेषित कर ग्रामीण विकास की भावी रणनीति को अनुकूल बनाया जा सकता है।

(1) पर्यावरण का क्षरण – 

विकास के भौतिकवादी प्राReseller ने भूमि, वनों, प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध उपभोग And दोहन को बढ़ाया है जिसके परिणाम स्वरुप पर्यावरण का संतुलन बिगड़ा है। Human And अन्य प्राणियों-पशु, पक्षी आदि के समक्ष पर्यावरण के क्षरण के परिणामस्वReseller कर्इ समस्यायें उभरी हैं And पर्यावरण को संरक्षित करने हेतु वैश्विक And राष्ट्रीय प्रयास किये जा रहे हैं। Human द्वारा पर्यावरण के दोहन ने निम्न समस्यायें उत्पन्न की हैं: वैश्विक गर्मी, ओजोन परत में छिद्र होना, ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन, समुद्र के स्तरों में उभार, जल प्रदूषण, उर्जा संकट, वायु प्रदूषण से जुड़ी ब्याधियाँ जैसे अस्थमा में वृद्धि, लीड का विषाणुपन, जेनेटिक इंजीनियरिंग द्वारा संशोधित खाद्यानों के उत्पादन सम्बन्धी विवाद, प्लास्टिक And पोलीथिन के प्रयोग, गहन खेती, रासायनिक उर्वरकों के अधिकाधिक प्रयोग के परिणामस्वReseller भूमि का प्रदूषण And बंजर होना, नाभिकीय अस्त्र And नाभिकीय प्रकाश से जुड़ी दुर्घटनाएँ, अति जनसंख्या की त्रासदी, ध्वनि प्रदूषण, बड़े-बड़े बांध के निर्माण से उत्पन्न पर्यावरणीय प्रभाव, अति उपभोग की पूँजीवादी संस्कृति, वनों का कटाव, विशैली धातुओं के प्रयोग, क्षरण न होनेवाले कूड़े करकट का निस्तारण, इत्यादि। भारत में चिपको आन्दोलन, नर्मदा बचाओ आन्दोलन जैसे अनेक जनआन्दोलन किये गये हैं जिनमें पुरूषों And महिलाओं दोनों की सक्रिय भागीदारी परिलक्षित होती है। सुन्दरलाल बहुगुणा, मेधा पाटकर, गौरा देवी, सुनीता नारायण आदि के वैयक्तिक योगदान के अतिरिक्त कुछ स्वयंसेवी संगठनों की भूमिका Historyनीय है।

(2) अशिक्षा/निरक्षरता –

अशिक्षा वस्तुत: सामाजिक-आर्थिक विकास से सम्बन्धित All मुददों की जननी है जिसके परिणामस्वReseller निर्धनता, बेकारी, बाल श्रम, बालिका भ्रूण हत्या, अति जनसंख्या, जैसी अनेक समस्यायें गहरी हुर्इ हैं। सामाजिक विकास के पैमाने में शिक्षा को Single महत्वपूर्ण सूचक के Reseller में स्वीकारा गया है। भारत में हाल के दशकों में राष्ट्रीय साक्षरता मिशन, सर्वशिक्षा अभियान, नि:शुल्क प्राथमिक शिक्षा का अधिकार अधिनियम, अपरान्ह भोजन, दुर्बल समूहों को स्कालरशीप, वित्तीय सहायता, दाखिला में आरक्षण, जैसे अनेक सरकारी प्रयास किये गये हैं। दूसरी ओर अनेक गैर सरकारी संस्थाएं भी शिक्षा अभियान में सक्रिय भूमिका निभा रही हैं। इन सबके बावजूद विविध अध्ययनों से प्राप्त तथ्य यह प्रदर्शित करते हैं कि भारत, टर्की, इरान जैसे देशों में अभी भी निरक्षरों की संख्या काफी अधिक है जबकि श्रीलंका, म्यांमार, वियतनाम जैसे देशों ने अल्प समय में उच्च साक्षरता दर हासिल कर लिया है।

(3) ग्रामीण निर्धनता –

दुर्बल समूहों के उत्थान And गरीबी निवारण के विविध प्रयासों के बावजूद भारत में निर्धनता का उन्मूलन नहीं हो सका है। सन् 2005 के विश्व बैंक के आकलन के According भारत में 41.6 प्रतिशत Meansात 456 मिलियन व्यक्ति अन्तर्राष्ट्रीय गरीबी रेखा से नीचे (प्रतिदिन 1.25 डालर से कम आय वाले) हैं। 1981 में भारत में निर्धन व्यक्तियों की संख्या अन्तर्राष्ट्रीय मानकों के According 60 प्रतिशत थी जो 2005 तक घटकर 41 प्रतिशत हुर्इ है। भारत सरकार के योजना आयोग के आंकड़े यह दर्शाते हैं कि भारत में निर्धनों की आबादी 1977-78 में 51.3 प्रतिशत थी जो 1993-94 में घटकर 36 प्रतिशत हुर्इ तथा 2004-05 में 27.5 प्रतिशत आबादी ही निर्धन है। नेशनल काउंसिल फार एप्लायड इकोनोमिक रिसर्च के आकलन के According सन् 2009 में यह पाया गया कि भारत के कुल 222 मिलियन परिवारों में से पूर्णResellerेण निर्धन (जिनकी वार्षिक आय 45000 Resellerये से कम थी) 35 मिलियन परिवार हैं, जिनमें लगभग 200 मिलियन व्यक्ति सम्मिलित हैं। इसके अतिरिक्त 80 मिलियन परिवारों की वार्षिक आय 45000 से 90000 Resellerये के बीच है। हाल ही में जारी की गर्इ विश्व बैंक की रिपोर्ट में यह अनुमान लगाया गया है कि भारत में निर्धनता उन्मूलन के प्रयासों के बावजूद सन् 2015 तक 53 मिलियन व्यक्ति (23.6 प्रतिशत आबादी) पूर्णResellerेण निर्धन बने रहेंगे जिनकी आय 1.25 मिलियन डालर प्रतिदिन से कम होगी।

भारत में निर्धनता के तथ्य यह भी प्रदर्शित करते हैं कि निर्धनता की आवृत्ति जनजातियों, अनुसूचित जातियों में सर्वाधिक हैं। यद्यपि इस निष्कर्ष पर आम Agreeि है कि भारत में हाल के दशकों में निर्धनों की सख्ंया घटी है किन्तु यह तथ्य अभी भी विवादस्पद बना हुआ है कि निर्धनता कहाँ तक कम हुर्इ है। इस विवाद का मूल कारण विभिन्न अभिकरणों के द्वारा आकलन की पृथक-पृथक रणनीति अपनाया जाना है। न्यूयार्क टाइम्स ने अपने अध्ययन में यह दर्शाया है कि भारत में 42.5 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के आकलन के आधार पर विश्व बैंक ने यह निष्कर्ष दिया कि विश्व के सामान्य से कम भार वाले शिशुओं का 49 प्रतिशत तथा अवरूद्ध विकास वाले शिशुओं का 34 प्रतिशत भारत में रहता है।

इन तथ्यों से यह स्पष्ट है कि भारत में ग्रामीण विकास के तमाम प्रयासों के बावजूद ग्रामीण निर्धनता की समस्या का उन्मूलन नहीं हो पाया है। ग्रामीण विकास की भावी रणनीति में निर्धनता की समस्या को प्राथमिकता प्रदान करते हुए विकास कार्यक्रमों का क्रियान्वयन करना होगा।

(4) स्वास्थ्य समस्यायें 

ग्रामीण विकास के तमाम प्रयास के बावजूद ग्रामीण जनों हेतु स्वास्थ्य And चिकित्सा की पर्याप्त सुविधाएँ उपलब्ध नहीं है। ग्रामीण दूर दराज के क्षेत्रों में न सिर्फ विशेषज्ञ चिकित्सकों बल्कि सामान्य चिकित्सकों का भी अभाव है। परिणामस्वReseller ग्रामीण जनों की स्वास्थ्य की दशाएं दयनीय हैं। लगभग 75 प्रतिषत स्वास्थ्य संCreation,चिकित्सक And अन्य स्वास्थ्य सम्बन्धी स्रोत नगरों में उपलब्ध हैं जहाँ 27 प्रतिशत आबादी निवास कर रही है। ग्रामीण And नगरीय क्षेत्रों में स्वास्थ्य दशाओं के अन्तराल के कर्इ अन्य सूचक हैं, जिन्हें तालिका में देखा जा सकता है-

सूचक ग्रामीण नगरीय संदर्भ वर्ष
जन्म दर 30.0 22.6 1995
मृत्यु दर 9.7 6.5 1997
शिशु मृत्यु दर 80.0 42.0 1998
मातृ मृत्यु दर (प्रति Single लाख पर) 438 378 1997
अप्रशिक्षित दाइयों द्वारा प्रसव कराये जाने का प्रतिशत 71.0 27.0 1995
अप्रशिक्षित चिकित्सकों के कारण मृत्यु का प्रतिशत 60.0 22.0 1995
कुल प्रजनन दर 3.8 2.8 1993
12-13 माह की अवधि के बच्चे/बच्चियों का प्रतिशत
जिन्हें सम्पूर्ण टीकाकरण सुविध प्राप्त हुर्इ
31.0 51.0 1993
अस्पताल 3968
(31%)
7286
(69%)
1993
डिस्पेन्सरी 12284 (40%) 15710
(60%)
1993
डाक्टर 440000 660000 1994

स्रोत- सेम्पल रजिस्टे्रशन सिस्टम, भारत सरकार, 1997-98 And दुग्गल आर. (1997) हेल्थ केयर बजट्स इन ए चैन्जिंग पोलिटिकल इकोनोमी, इकोनोमिक एण्ड पोलिटिकल विकली, मर्इ 1997, 17-24

भारत में सन् 2000 तक सबके लिए स्वास्थ्य का लक्ष्य निर्धारित Reseller गया था, किन्तु यह लक्ष्य अभी तक प्राप्त नहीं Reseller जा सका है। नेशनल रूरल हेल्थ मिशन जैसे कार्यक्रमों के जरिये भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान की जा रही हं।ै समाजकार्य की दृष्टि से ग्रामीण आबादी की स्वास्थ्य की Needओं को पूरा करने हेतु वर्तमान जीव चिकित्सा प्राReseller (बायोमेडिकल माडल) की बजाय समाज सांस्कृतिक स्वReseller (सोसियोकल्चरल माडल) अपेक्षाकृत अधिक प्रासंगिक होगा। राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति के विस्तृत संशोधित प्राReseller में ग्रामीण नगरीय असमान संCreation के पहलुओं को ध्यान में रखते हुए दीर्घकालीन योजना बनानी होगी तथा ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाओं को अधिक सशक्त करना होगा।

Indian Customer ग्रामीण Meansव्यवस्था में ग्रामीण ऋणग्रस्तता Single गम्भीर समस्या है। ऋणग्रस्तता का आशय है ऋण से ग्रस्त व्यक्ति के लिए ऋण चुकाने की बाध्यता का होना। ग्रामीण भारत में निर्धन किसानों And मजदूरों द्वारा अपनी Needओं के कारण लिया जाने वाला कर्ज जब बढ़ जाता है And वे अपनी कर्ज अदायगी में असमर्थ हो जाते हैं तो यह स्थिति ग्रामीण ऋणग्रस्तता की समस्या उत्पन्न करती है। ग्रामीण ऋणग्रस्तता वस्तुत: हमारी कमजोर वित्तीय संCreation की सूचक है जो यह प्रदर्शित करती है कि हमारी आर्थिक व्यवस्था जरूरतमंद किसानों, भूमिहीनों And कृषक मजदूरों तक पहुँचने में दुर्बल है।

ग्रामीण ऋणग्रस्तता का प्रादुर्भाव कैसे होता है? इस प्रश्न का विश्लेषण यह है कि ग्रामीण कृषक And मजदूर कृषि कार्य हेतु अथवा अपने परिवार के भरण-पोषण, शादी-विवाह, बीमारी के इलाज And अन्य कार्य हेतु ऋण लेते हैं। अल्प आय, पारिवारिक व्यय, इत्यादि के कारण वे ऋण को चुकाने में असमर्थ हो जाते हैं तथा उन ऋणों पर सूद बढ़ता जाता है। वित्तीय संस्थाओं की जटिल औपचारिकताओं को पूरा न कर पाने And समय पर तत्काल ऋण प्राप्त न होने, आदि कारणों की वजह से निर्धन किसान And मजदूर निजी सूदखोरों And महाजनों से कर्ज लेते हैं जिनके द्वारा मनमाना सूद लेने, बेगार कराने, जैसे अनेक शोषण Reseller जाता है तथा ऋणग्रस्तता की समस्या पीढ़ी दर पीढ़ी बनी रहती है। रायल कमीशन ऑन लेबर, 1928 ने ब्रिटिश काल में किसानों की दशा पर अपनी रिपोर्ट में यह व्यक्त Reseller कि ‘‘Indian Customer किसान ऋण में पैदा होता है, ऋण में जीवन व्यतीत करता है तथा अपनी आगामी पीढ़ी को भी ऋणग्रस्तता की विरासत सौंप जाता है।’’

मोटे तौर पर ग्रामीण ऋणग्रस्तता के कारक हैं-

भारत सरकार के श्रम And नियोजन मंत्रालय से जारी प्रपत्र यह प्रदर्शित करते हैं ग्रामीण ऋणग्रस्तता वस्तुत: ग्रामीण विकास में Single महत्वपूर्ण बाधा/अवरोध है। ग्रामीण ऋणग्रस्तता न सिर्फ सामाजिक आर्थिक अवसरों में असमानता को बढ़ाती है बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों में संवृद्धि प्रक्रिया को बाधित करती है तथा ऋणग्रस्त परिवारों में कुंठा And अवसाद के कारण जनतांत्रिक प्रक्रियाओं में सहभागिता हेतु उनमें अन्तरपीढ़िगत विकलांगता उत्पन्न करती है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की रिपोर्ट यह प्रदर्शित करती है कि भारत में ऋणग्रस्तता से ग्रसित अवसादों के कारण 2005 में आत्म हत्या करने वाले व्यक्तियों में सीमांत किसानों And कृषक मजदूरों की संख्या 15 प्रतिशत से अधिक थी। नेशनल सैम्पल सर्वे आर्गानाइजेशन के आंकड़े यह दर्शाते हैं कि सन् 2002 में भारत के कुल कृषक परिवारों का 49 प्रतिशत ऋणग्रस्त है।

बर्लिन की दीवार के ध्वस्तीकरण (1989) एंव वैश्वीकरण (1991) के दौर में विश्व भर में लगभग 3 बिलियन पूँजीपति वैश्विक Meansव्यवस्था में शामिल हुए हैं। पूँजी के वर्चस्व ने भारत समेत विश्व के स्तर पर असमानता की खार्इ को बढ़ाया है। भारत के आम जन निर्धन हैं किन्तु भारत को उभरती आर्थिक And राजनीतिक शक्ति के Reseller मे पहचान मिली है। कम आय के बावजूद भारत के दक्ष तकनीकी समूह ने विकसित And पूँजीपति देशों के समक्ष Single विकट चुनौती उत्पन्न Reseller है।

विश्व की कुल आबादी में भारत लगभग 16.9 प्रतिशत आबादी का प्रतिनिधित्व करता है। भारत में लगभग 35 प्रतिशत आबादी अन्तर्राष्ट्रीय मानक प्रतिदिन 1 डालर से कम आय के According निर्धन हैं। 2001 के आंकड़ों के According यदि अन्तर्राष्ट्रीय निर्धनता रेखा को प्रतिदिन 2 डालर से कम आय पर निर्धारित कर दिया जाय तो भारत की 86.2 प्रतिशत आबादी निर्धनता रेखा के नीचे आ जायेगी। भारत में उभरती हुर्इ असमानता के कर्इ कारक हैं: First, भारत के कुल राष्ट्रीय उत्पाद में औद्योगिक And सेवा क्षेत्र तीव्रता से बढ़ा है किन्तु श्रमिकों की हिस्सेदारी अपेक्षित Reseller में नहीं बढ़ी है। द्वितीय उच्च विकास दर के बावजूद संगठित उद्योगों में रोजगार के नये अवसर स्थिर हो गए हैं, असंगठित क्षेत्र में रोजगार के अवसर अवश्य बढ़े हैं किन्तु असंगठित क्षेत्रों से अर्जित की गर्इ आय इतनी अल्प है कि निर्धनता रेखा से ऊपर लाने में असमर्थ है।

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