गीता में योग का स्वReseller

गीता में योग का स्वReseller 

पाठको वही ज्ञान वास्तविक ज्ञान होता है जो ज्ञान मुक्ति के मार्ग की ओर अग्रसरित कराता है। अत: गीता में भी मुक्ति प्रदायक ज्ञान है। इस बात की पुष्टि स्वयं व्यास जी ने महाभारत के शान्तिपर्व में प्रकट Reseller है। ‘‘विद्या योगेन ऱक्षति’’ Meansात् ज्ञान की रक्षा योग से होती है। श्रीमद्भगवद् गीता को यदि योग का मुख्य ग्रन्थ कहा जाये तो कोर्इ अतिशयोक्ति नहीें होगी। योग के आदि प्रवक्ता स्वयं श्रीकृष्ण भगवान् है, इसलिए उन्हें योगेश्वर भी कहा गया है। आदि काल में भगवान् गीता का उपदेश Ultra site भगवान् को दिया, Ultra site ने अपने पुत्र वैवस्वत मनु से कहा और मनु ने अपने पुत्र King इक्ष्वाकु से कहा। इस प्रकार योग को ऋषियों ने जाना।

 इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवाहनहमव्ययम्। 

 विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेSब्रबीत् ।। गीता 4/1 

परन्तु इसके बाद यह योग बहुत काल से इस पृथिवि लोक में लुप्त प्राय हो गया। अत: तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है, इसिलिए वही यह पुरातन योग आज मैंने तुझको कहा है, क्योंकि यह बड़ा ही उत्तम रहस्य है Meansात् गुप्त रखने योग्य विषय है। श्रीमद्भगवद् गीता के प्रत्येक अध्याय को योग की संज्ञा दी गयी है। इस प्रकार अठारह अध्यायों को क्रमश: निम्न योगों से अभिहित Reseller गया है, जो इस प्रकार है- 1. अर्जुनविषाद योग, 2. सांख्य योग, 3. कर्मयोग, 4. ब्रह्मयोग, (ज्ञान कर्म सन्यास योग), 5. कर्म सन्यास योग, 6. आत्मसंयम योग, 7. ज्ञानविज्ञान योग, 8. अक्षरब्रह्म योग, 9. राजविद्याराजग्रह्य योग, 10. विभूति योग, 11. विश्वResellerदर्शन योग, 12. भक्तियोग, 13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग, 14. गुणत्रय विभाग योग. 15. पुरुषोत्तम योग, 16. दैवासुरसम्पद् विभाग योग, 17. श्रद्धात्रय विभाग योग And 18. मोक्षसन्यास योग।

यदि इन सब का विश्लेषण Reseller जाए तो प्रत्येक छ: अध्यायों में Single नवीन उपदेश है।

First छ: अध्यायों में पाँच की साधना प्रणाली का वर्णन है। जिन्हें कर्मयोग के अन्तर्गत रखा गया है। अगले छ: अध्यायों में भगवान् ने अपने उपदेश का मूल अथवा गीता हृदय खोल कर रख दिया है तथा अपने शिष्य को दिव्यदृष्टि प्रदान की है। इसमें भक्ति योग है। अन्त के छ: अध्यायों में भगवान् श्रीकृष्ण ने कुछ विशिष्ट And गूढ़ सिद्धान्तों की मीमांसा की है, जिन्हें समझने के लिए योग को पूर्णत: व्यवहार में लाने के लिए अत्यन्त आवश्यक है। यही ज्ञान योग है।

गीता में योग के विभिन्न Resellerों का वर्णन Reseller गया है, परन्तु गीता के अन्यान्य योगों में आपातत: योग के मुख्यत: तीन स्वReseller स्पष्ट दिखते हैं। इनका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है- गीता के Second अध्याय में योग के स्वReseller का वर्णन करते हुए कहा है कि

 ‘‘समत्त्वं योग उच्यते’’। गीता 2/48 

Meansात् जब साधक का चित्त सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धिवाला होता है, तब इस अवस्था में साधक का चित्त सुख-दु:ख, मान-अपमान, लाभ-हानि, जय-पराजय, शीत-उष्ण, तथा भूख-प्यास आदि द्वन्द्व में समान बना रहता है। इस अवस्था में साधक All पदार्थों में समान भाव रखता है। इस अवस्था के कारण उसका अज्ञान Destroy हो जाता है, All दु:ख समाप्त हो जाते हैं। इसी समत्त्व भाव का नाम योग है।

गीता के Second अध्याय में ही योग की Single अन्य परिभाषा देते हुए भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं-

 ‘‘ योग: कर्मसु कौशलम्’’। गीता 2/50 

इस कथन का अभिप्राय है फलासक्ति का त्याग करके कर्म करना ही कर्मकौशल है। कर्म करते हुए यदि कर्त्ता कर्म में आसक्त हो गया तो वह कर्मकौशल नहीं कहलाता है। कर्त्ता की कुशलता तो यह है कि कर्म करके उसको वहीं छोड़ दिया जाये। हानि और लाभ, जय अथवा पराजय, कार्य-सिद्धि या असिद्धि के विषय में चिन्ता ही न की जाये। कर्म करते हुए यदि कर्त्ता उस कर्म का दास होकर रह गया तो वह कर्त्ता का अस्वातन्त्रय हुआ। कर्त्ता तो स्वतन्त्र हुआ करता है।

यदि कर्म ने कर्त्ता को पराधीन कर दिया तो यह कर्म की विजय हुर्इ कर्त्ता की नहीं। कर्त्ता का स्वातन्त्रय तो तब सिद्ध होता है जब कर्त्ता स्वेच्छया से कर्म का और उसके फल का त्याग कर देता है। अत: फलासक्ति का त्याग करके कर्म करना ही कर्मकौशल है। दुष्कृत में आसक्ति की अपेक्षा भी सुकृत में आसक्ति को छोड़ना और कठिन है। किन्तु जिसको यह अनासक्ति योग की बुद्धि प्राप्त हो गर्इ, वह दुष्कृत को और विशालतर सुकृत में बन्धक लघुतर सुकृत को – इन दोनों को त्याग देता है। इसलिए तू इस अनासक्ति-योग की प्राप्ति के लिए जुट जा। जो लोग इस अनासक्ति योग को प्राप्त कर लेते हैं, वे जन्म के बन्धनों से घबड़ाते नहीं। विपरीत से विपरीत परिस्थितियों की दीवार को तोड़कर पार हो जाते हैं। इसी कुशलता का नाम योग है।

योग की Single अन्य महत्त्वपूर्ण परिभाषा देते हुए गीता के Sixth अध्याय में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं- मनुष्य जीवन पर्यन्त दु:खों से संयोग बना रहता है। दु:खों के इसी संयोग का पूर्णत: वियोग हो जाना, दु:खों की सदा के लिए समाप्ति हो जाना ही योग है, “दु:खसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम्।” गीता 6/23 क्योंकि जब दु:खों की आत्यन्तिक निवृत्ति हो जाती है तो वे पुन: उत्पन्न नहीं होते।

गीता में योग Word को अनेक Means में प्रयोग Reseller गया है, परन्तु मुख्य Reseller से गीता में ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग इन तीन योग मार्गों का विस्तृत Reseller में वर्णन Reseller गया है।

1. ज्ञानयोग 

ज्ञानयोग के माध्यम से गीता उपदेश देती है कि यह समस्त दृश्य जगत् परमात्मा से ही उत्पन्न होता है और अन्त में परमात्मा में ही लीन हो जाता है। Meansात् ऐसा समझना चाहिए कि सम्पूर्ण भूत प्रकृति से उत्पन्न हुआ है और सम्पूर्ण जगत् का उद्भव And प्रलय का मूल कारण परमात्मा है।

 एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय। 

 अहं कृत्स्नस्य जगत: प्रभव: प्रलयस्तथा।। गीता 7/6 

अब यहाँ यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि ज्ञानयोग का विषय क्या होना चाहिए? इस प्रश्न के उत्तर में यह कहा जा सकता है कि वह समग्र ज्ञान जिससे जीव परमपद् मोक्ष को प्राप्त कर सके। इसलिए मनुष्य को आत्मा, प्रकृति And र्इश्वर को जानना आवश्यक है जिसे जानकर मनुष्य अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है।

गीता के Sevenवें अध्याय में दो प्रकार के प्रकृति अपरा और परा प्रकृति के स्वReseller का वर्णन करते हुए कहा है कि Earth, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन बुद्धि और अहंकार यह आठ प्रकार से विभाजित मेरी जो प्रकृति है वह अपरा (जड़) प्रकृति है तथा दूसरी परा प्रकृति, जिससे यह सम्पूर्ण जगत् धारण Reseller जाता है, मेरी जीवResellerा परा Meansात् ( चेतन) प्रकृति है। आत्मा के स्वReseller का निResellerण गीता के Second अध्याय में Reseller गया है।

आत्मा के स्वReseller का वर्णन करते हुए कहा है कि यह आत्मा न तो किसी काल में जन्म लेता है और न ही मरता है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही है। क्योंकि यह आत्मा अजन्मा, नित्य, सनातन और पुराना है। यह शरीर के मारे जाने पर भी नहीं मारा जाता।

 न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूय:। 

 अजो नित्य: शाश्वतो•यं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।। गीता 2/20 

इसी अध्याय में आत्मा के अन्य स्वResellerों का वर्णन करते हुए कहा गया है कि यह आत्मा अच्छेद्य है, यह आत्मा अदाह्य, अक्लेद्य और नि:सन्देह अशोष्य है, तथा यह आत्मा नित्य सर्वव्यापी, अचल और स्थिर रहने वाला सनातन है।

 अच्छेद्योSयमदाह्योSयमक्लेद्योSशोष्य एव च। 

 नित्य: सर्वगत: स्थाणुरचलोSयं सनातन:।। गीता 2/24 

और यह आत्मा, अव्यक्त है, अचिन्त्य है तथा यह आत्मा विकाररहित है। इसलिए हे अर्जुन! इस आत्मा को उपर्युक्त प्रकार से जानकर तू शोक करने योग्य नहीं है, Meansात् तुझे शोक करना उचित नहीं है। इस प्रकार यह आत्मा ऐसी है, यह जानकर इस विषय में शोक करना योग्य नहीं है। आत्मा ‘सर्वगत्’ Meansात् सर्वव्यापक है।

योग का आचरण करने वाला शुद्धात्मा जिसने अपने आत्मा और इन्द्रियों पर विजय पा लिया है ऎसा श्रेष्ठ पुरुष कर्म करता हुआ भी कर्म में लिप्त नहीं होता। कर्म का लेप न होने के लिए इसे सर्वात्मभाव की सिद्धि प्राप्त होनी चाहिए।

 योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रिय:। 

 सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते।। गीता 5/7 

गीता के आठवें अध्याय में परमदिव्य पुरुष (र्इश्वर) के स्वReseller का वर्णन करते हुए कहा है कि र्इश्वर सर्वज्ञ है, अत: उससे कुछ भी अज्ञात नहीं है। वह प्राचीन है और प्राचीन काल से Meansात् सदा से ही सबका नियन्ता और शासनकर्त्ता है। वह सब जगत् का Only सर्वाधिकारी King है। वह सूक्ष्म से भी अतिसूक्ष्म है और सबका Only आधार है। उसके अखण्ड अनन्त स्वReseller का चिन्तन करना बहुत कठिन कार्य है। वह स्वयं अत्यन्त तेजस्वी है, इसलिए उसके पास अंधकार नहीं रह सकता । 

कविं पुराणमनुशासितारमणोरणीयांसमनुस्मेरद्य:। 

 सर्वस्य धातारमचिन्त्यResellerमादित्यवर्णं तमस: परस्तात्।। गीता 8/9 

इसी दिव्य परम पुरुष का सबको ध्यान करना चाहिए। प्रयाणकाल में, भक्तियुक्त होकर, भृकुटी में प्राणों को अच्छी प्रकार स्थापित करके, निश्चल मन से जो इसका ध्यान करता है, वह उस दिव्य परम श्रेष्ठ पुरुष (परमात्मा) को प्राप्त कर लेता है।

प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तौ योगबलेन चैव। 

 भु्रवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्।। गीता 8/10 

ऐसे समय ओंकार का जप और परमेश्वर का चिन्तन करता हुआ जो शरीर को त्याग कर जाता है, वह नि:सन्देह परमश्रेष्ठ गति को प्राप्त होता है।

इसी ज्ञानयोग की पुष्टि के लिए गीता कर्मयोग का भी उपदेश देती है, क्योंकि निष्काम भाव से कर्म करने पर ही ज्ञान की प्राप्ति होती है। तभी उस ज्ञान से परमात्मा को प्राप्त Reseller जा सकता है। अब यहाँ कर्मयोग का History Reseller जा रहा है-

2. कर्मयोग-

गीता के Third अध्याय में कर्मयोग का वर्णन Reseller गया है। गीता में कहा है कि मनुष्य में कर्म करने की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। Single क्षण भी मनुष्य कर्म किये बिना नहीं रह सकता।

 न हि कश्चित् क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्। 

 कार्यते ह्यवश: कर्म सर्व: प्रकृतिजैर्गुणै:।। गीता 3/5 

वह इच्छा से करे, अनिच्छा से करे, स्वभाव से करे अथवा कैसी भी वृत्ति से करे, उससे कर्म होना ही है। कुछ भी करो, कर्म छूटता नहीं। मनुष्य स्तब्ध रहा तो भी उस समय उससे स्तब्ध रहने का कर्म होता है। मनुष्य का शरीर स्तब्ध रखा गया, तो भी उसके मन के व्यापार बन्द नहीं होते, वह मन से मनन करके अनेक कर्म करता रहता है। निद्रा लेने का कर्म होता ही है तथापि उसमें स्वप्न आने लगे, तो वह स्वप्न देखने का भी कर्म करता है। यह कर्म कैसे रोका जाए? और यह सब न हुआ, ऐसा भी क्षणभर के लिए मान लीजिए; परन्तु हर Single प्राणी जीवित रहने का कार्य तो करता ही है। श्वास-प्रश्वास, हृदय की धड़कन, आँखों का खोलना और मूंदना, ये कर्म शरीर के स्वभाव से ही होते हैं; इसके अतिरिक्त शरीर का जीर्ण होना, रोगी होना, निरोग रहना आदि कर्म होते हैं। अत: मनुष्य का कर्मों का प्रारम्भ न करने का निश्चय और कर्मों के त्याग करने का निश्चय ये दोनों निश्चय अव्यवहार्य है। कर्म न करना तो Single क्षणमात्र भी संभवनीय नहीं है। मन से इन्द्रियों का संयम करके अनासक्त भाव से कर्म करने वाले की प्रशंसा करते हुए कहा है कि हे अर्जुन! जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है।

 यिस्त्वन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेSर्जुन। 

 कर्मेन्द्रियै: कर्मयोगमसक्त: स विशिष्यते।। गीता 3/7 

इसलिए तू शास्त्रविहित कर्त्तव्य कर्म कर; क्योंकि कर्म न करने की अपे़क्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर-निर्वाह भी सिद्ध नहीं होगा।

 नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मण:। 

 शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धेदकर्मण:।। गीता 3/8 

‘नियत कर्म’ का आशय दो प्रकार से व्यक्त हो सकता है। Single नियत कर्म वह है जो धर्मशास्त्र के द्वारा प्रत्येक मनुष्य के लिए निश्चित हो चुका है। शम-दम-तप आदि ब्राह्मण के लिए; शौर्य, Fight से अपलायन, दान आदि क्षत्रिय के लिए; कृषि, गौरक्षा, वाणिज्य वैश्य के लिए और कारीगरी तथा परिचर्यादि कर्म शूद्र के लिए धर्मशास्त्र द्वारा निश्चित किये हुए कर्म हैं। चार वर्णों में उत्पन्न हुए मनुष्यों के इस प्रकार के चतुर्विध कर्म धर्मशास्त्र द्वारा निश्चित है। ये ही कर्म नियत कर्म हैं। अपना वर्ण और अपना आश्रम इनके लिए जो कर्म धर्मशास्त्र से नियत हुआ है, वह उस मनुष्य को सदा करना चाहिए।

दूसरा नियत कर्म का आशय ‘सहज कर्म’ या ‘स्वकर्म’ से है। सहज कर्म का Means है- ‘अपने जन्म के साथ जन्मा हुआ कर्म’। प्रत्येक मनुष्य के साथ उसका कर्म निश्चित Reseller से जन्मता है। इसी प्रकार स्वकर्म का Means- ‘अपने भाव Meansात् जन्म के साथ नियत हुआ कर्म’। इन दोनों Wordों का Means प्राय: Single ही है।

गीता में यज्ञार्थ कर्म करने का भी उपदेश दिया गया है। यज्ञ के लिए जो कर्म किये जाते हैं, उन यज्ञ कर्मों से मनुष्य को बंधन नहीं होता, परन्तु जो Second कर्म मनुष्य करता है उनसे मनुष्य को बन्धन होता है। इस कारण यज्ञ के लिए आसक्ति छोड़कर कर्म कर। Meansात् यज्ञकर्म से मनुष्य बन्धन से छूटता है और यज्ञरहित अन्य कर्मों से मनुष्य को बन्धन होता है।

 यज्ञार्थात्कर्मणोSन्यत्र लोकोSयं कर्मबन्धन:। 

 तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंग: समाचर।। गीता 3/9 यहाँ यज्ञ Word का केवल होम हवन Means नहीं है। गीता के Fourth अध्याय में श्लोक संख्या 25 से 32 तक विविध यज्ञ कहे हैं। उनमें ये मुख्य हैं- इन्द्रियसंयमयज्ञ, द्रव्ययज्ञ, तपोयज्ञ, योगयज्ञ, स्वाध्याययज्ञ, ज्ञानयज्ञ इत्यादि। वेद में All श्रेष्ठ कर्मों को यज्ञ कहा है। “यज्ञौ वै श्रेष्ठतमं कर्म।” यज्ञों में होमहवन (अग्निहोत्र) भी Single यज्ञ है। मनुष्य के जीवन-व्यवहार में भी क्षणक्षण में यज्ञ होते रहते हैं। मनुष्य का बोलना, चलना, खाना, पीना, सोना और जागना सब यज्ञReseller होना चाहिए। भगवद्गीता का यही उपदेश प्रारम्भ से अन्त तक स्पष्ट रीति से दीखता है। इस प्रकार से यज्ञकर्म आसक्तिरहित होकर नि:स्वार्थ भाव से करनी चाहिए। इसलिए तू निरन्तर आसक्ति से रहित होकर सदा कर्त्तव्य कर्म को भलीभाँति करता रह, क्योंकि आसक्ति से रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।

तस्मादसक्त: सततं कार्यं कर्म समाचर। 

असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पुरुष:। गीता 3/19

3. भक्तियोग 

परन्तु ज्ञानयोग And कर्मयोग के लिए भक्ति का होना भी आवश्यक है, क्योंकि भक्ति के बिना निष्काम कर्म नहीं हो सकता। जब साधक भक्तियोग के माध्यम से अपना सर्वस्व भगवान् को अर्पित कर देता है तो उसकी सांसारिक पदार्थों में आसक्ति समाप्त हो जाती है। तभी परमात्मा को जान पाता है। गीता के बारहवें अध्याय में भगवान् श्रीकृष्ण र्इश भक्ति (उपासना) करने वाले योगियों की श्रेष्ठता का वर्णन करते हुए कहते हैं कि जो परमेश्वर के सगुण Reseller में मन लगाकर, नित्य परमेश्वर की सगुण भक्ति में तत्पर परमश्रद्धा से र्इश्वर की सगुण उपासना करते हैं, वे योगियों में श्रेष्ठ योगी हैं। यह अपना निज मत है Meansात् भगवान् श्रीकृष्ण के मत से ‘व्यक्त Reseller की उपासना करने वाले योगी श्रेष्ठ होते हैं।’

 मय्यावेश्य मनो ये मां नित्युक्ता उपासते। 

 श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मता:।। गीता 12/2 

श्रेष्ठ योगी होने के लिए तीन बाते आवश्यक हैं, वे ये हैं-

  1. मन: आवेश्य- र्इश्वर में मन लगाना।, 
  2. नित्ययुक्त: – र्इश्वर से नित्य योग संबंध करना, कुशलता के साथ कर्म करना।, 
  3. परया श्रद्धया उपेत: – श्रेष्ठ श्रद्धा से युक्त होना।   

र्इश्वर का Reseller वही है जो इस विश्व में दिखार्इ देता है। विश्व का वही Reseller परमात्मा का अखण्ड Reseller है। यह Reseller अनन्त है, उसमें जो अपनी उपासना के लिए योग्य है, वही लिया जावे और उसमें अपना मन पूर्णता के साथ लगाया जावे, जो कुछ Reseller जाए, वह अटल श्रद्धा से Reseller जावे। इस तरह जो भक्ति होती है, वही श्रेष्ठ भक्ति है। 

निराकार ब्रह्म के स्वReseller का कथन और उसकी उपासना से भगवत्प्राप्ति की बात बतलाते हुए गीता के इसी अध्याय में कहा है कि जो पुरुष इन्द्रियों के समुदाय को भलि प्रकार से वश में करके मन-बुद्धि से परे, सर्वव्यापी, अकथनीय, स्वReseller और सदा Singleरस रहने वाले नित्य, अचल, निराकार, अविनाशी ब्रह्म को निरन्तर Singleीभाव से ध्यान करते हुए भजते हैं, वे सम्पूर्ण भूतों के हित में रत और सब में समान भाववाले योगी मुझको ही प्राप्त होते हैं।

(क) ये ते त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते। 

सर्वत्रगमचिन्त्यं च कुटस्थमचलं ध्र्रुवम्।। 

(ख) सन्नियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धय:। 

ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रता:।। गीता 12/3-4 

ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग इन तीनों को Single साथ सिद्ध करने के लिए साधन के Reseller में गीता ध्यान योग का विस्तृत वर्णन करती है।

4. ध्यानयोग- 

 चित्त की चंचलता को दूर करने का सबसे उत्तम मार्ग ध्यानयोग है। ध्यान योग का वर्णन करते हुए गीता के Sixth अध्याय में कहते है कि Singleान्त में स्थित अकेला चित्त और आत्मा को वश में किये हुए, कामनाओं से रहित किसी भी प्रकार के दबाब से रहित योगी, अपने आप को निरन्तर परमात्मा में लगावे।

योगी युंजीत सततमात्मानं रहसि स्थित:। 

Singleाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रह:।। गीता 5/10 

वह ध्यान किस स्थान पर Reseller जाये इसका वर्णन करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं – पवित्र स्थान में, जिसके ऊपर क्रमश: कुशा, मृगछाला और वस्त्र बिछा हुआ हो। यह आसन न अधिक ऊँचा हो और न अधिक नीचा ऐसे आसन पर अपने शरीर को स्थिर करते हुए बैठकर साधना करनी चाहिए। आसन पर सिर और गर्दन Single सीध में रखते हुए चित्त और इन्द्रियों की क्रियाओं को वश में रखते हुए मन को Singleाग्र करके अन्त:करण की शुद्धि के लिए योग का अभ्यास करें।

(क) शुचौ देशे प्रतिष्ठाय स्थिरमासनमात्मन:। 

नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तम्।। गीता 6/11 

(ख) तत्रैकाग्रं मन: कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रिय:। 

उपविश्यासने युंजयाद्योगमात्मविशुद्धये।।

(ग) समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिर:। 

 सम्प्रेक्ष्य नासिकागं्र स्वं दिशश्चानवलोकयन्।। गीता 6/12-13 

सीधे बैठकर अपनी दृष्टि को नासिका के अग्र भाग पर स्थिर करते हुए ध्यान का अभ्यास करना चाहिए। इस प्रकार अभ्यास करने से साधक का मन सहज Reseller से Singleाग्र हो जाता है। ध्यानयोग के लिए उपयुक्त आहार-विहार तथा शयनादि नियम और उनके फल का प्रतिपादन करते हुए कहा है कि हे अर्जुन! योग न तो बहुत खाने वाले का सिद्ध होता है और न तो बहुत कम खाने वाले का होता तथा यह योग न तो ज्यादा सोने वाले का और न सदा जागते रहने वाले का सिद्ध होता है।

 नात्यश्नतस्तु योगोSस्ति न चैकान्तमनश्नत:। 

 न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन।। गीता 6/16 

योगसाधक का आहार-विहार उचित होना चाहिए। उसकी All क्रियाएँ यथायोग्य होनी चाहिए। उसका सोना, जागना भी समय पर होना चाहिए क्योंकि जो साधक इन बातों का पालन करता है उसके लिए योगमार्ग दु:खनाशक होता है।

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु। 

युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दु:खहा।। गीता 6/17 

ध्यानयोग का फल के बारे में बतलाते हुए गीता में कहा गया है कि वश में किये हुए मनवाला योगी इस प्रकार आत्मा को निरन्तर मुझ परमेश्वर के स्वReseller में लगाता हुआ मुझमें रहने वाली परमानन्द की पराकाष्ठाReseller शान्ति को प्राप्त होता है।

युंजन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानस:। 

 शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति।। गीता 6/15 

यही अन्तिम उच्चतम अवस्था है। ध्यानयोग के अन्तिम स्थिति को प्राप्त हुए पुरुषों के लक्षण के बारे में कहा गया है कि अत्यन्त वश में Reseller हुआ चित्त जिस काल में परमात्मा में ही भलीभाँति स्थित हो जाता है, उस काल में सम्पूर्ण भोगों से स्पृहारहित पुरुष योगयुक्त है, ऐसा कहा जाता है। भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में योग का फल बताते हुए कहा है कि जो साधक योग का आचरण करता है, जिसका हृदय शुद्ध है, जिसने अपने आपको जीत लिया है, जिसने अपने इन्द्रियों को जीत लिया है और जिसकी आत्मा सब भूतों की आत्मा बनी है, वह कर्म करता हुआ भी अलिप्त रहता है।

योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रिय:। 

सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्ननि न लिप्यते।। गीता 5/7 

इस प्रकार हम देखते है कि ‘गीता’ योगशास्त्र ही है। इसके All अध्यायों में योग की विस्तृत Discussion मिलती है। इसमें योग साधक के लिए विभिन्न योगमार्गों का वर्णन Reseller गया है, जिसके अनुReseller प्रत्येक मनुष्य कोर्इ Single मार्ग को अपनाकर परमलक्ष्य मोक्ष तक पहुँच सकता है।

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