Single्यूपंक्चर के सिद्धान्त And Single्यूपंक्चर द्वारा रोग निदान विधि

Single्युपंक्चर विज्ञान Single निश्चित नियमों And सिद्धान्तों पर आधारित है। इनमें First सिद्धान्त है – यिन-यांग की चिकित्सा का।

1. यिन-यांग सिद्धान्त –

चायनीज Single्युपंक्चर के According सम्पूर्ण बह्माण्ड का संतुलन स्थूल रुप से दो परस्पर विरोधी स्वरुप के होते हुए भी Single Second के पूरक बलों पर आधरित है। इसे यिन यांग की संज्ञा दी है। सृष्टि की सर्जना किसी भी धर्म के According दो परस्पर विपरीत बलों के समागम के फलस्वरुप हुर्इ है। यह प्रकृति नियमन का प्रमुख नियम है। सृष्टि के प्रत्येक वस्तु को हम यिन-यांग (Yin Yang) के अन्तर्गत विभाजित कर सकते है। यिन और यांग चीनी भाषा के दो Word हैं। ये दोनों Word कुछ विशिष्ट गुणों को अभिव्यक्त करते हैं। यिन Word लगातार, क्रमिक, अंधेरा, ज्ञात होना, छुपा रहना आदि Single समान गुणों वाले समूह को व्यक्त करता है किन्तु यांग इसके विपरीत प्रवृत्तियों के समूह जैसे-अनियमित, अज्ञात, अचानक, खुला हुआ, दिन आदि को व्यक्त करता है। यिन-यांग दो ऐसी विपरीत प्रवृत्तियाँ हैं जिनके बिना प्रकृति का नियमन संभव नहीं है। जैसे दिन के बाद रात का होना।

चायनीज Single्युपंक्चर के According यिन वह बल है जो क्षमता के Reseller में किसी भी वस्तु अथवा व्यक्ति में विद्यमान है दूसरी तरफ यांग वह बल है जो कार्य के Reseller में अथवा अभिव्यक्ति के Reseller में प्रकट हो चुका है। यिन-यांग Single सापेक्ष अवधारणा है। प्रकृति में निरपेक्ष Reseller से केवल यिन अथवा निरपेक्ष Reseller से यांग का अस्तित्व संभव नहीं है। सृश्टि की प्रत्येक वस्तु अथवा व्यक्ति में इन दोनों बलों का किसी न किसी अनुपात में रहना अनिवार्य है। चायनीज Single्युपंक्चर में इस स्थिति को व्यक्त करने के लिए सृश्टि को निम्न चित्र के माध्यम से अभिव्यक्त Reseller जाता है। अत: सम्पूर्ण जगत् के भौतिक And पराभौतिक गतिविधियों को निम्न प्रकार Yin Yang के Reseller में जान सकते हैं।

यिन और यांग

यिन और यांग में अन्तर

यिन (Yin) यांग (Yang)
1. इसमें ठोस अंग (Solid Organ)
आते हैं।
इसमें खोखले अंग (Hollow Organ)
आते हैं।
2. मादा (Female) नर (Male)
3. जीर्ण अवस्था (Chronic) तीव्र अवस्था (Acute)
4. हाथ तथा पैर में अन्दर की तरफ स्थित रहते हैं।  इसमें बाहर की तरफ स्थित रहते हैं।
5. रात या काला  दिन या सफेद
6. निर्बल बलवान
7. नीचे ऊपर
8. स्थिर अस्थिर
9. क्षैतिज  उध्र्व
10. दांयें बांयें
11. शीततर  ऊष्णतर

यिन और यांग के अंग

यिन (Yin) यांग (Yang)
1. जिगरयकृत (liver) पित्ताशय (Gall Bladder) 
2. हृदय (Heart)  छोटी आंत (Small Intestine) 
3. प्लीहा (Spleen)  जठर (Stomach) 
4. फेफड़े (Lung) बड़ी आंत (Large Intestine)
 5. मूत्रपिंड गुर्दा (Kidney) मूत्राशय (Urinary Bladder) 
6. हृदयावरण (Pericardium)  तीनखाली जगह(Triple Warmer)

ऊपर लिखित यिन तथा यांग अवयवों का Single Second के साथ सम्बन्ध रहता है। यिन-यांग दो परस्पर विपरीत संज्ञाएँ हैं परन्तु Single-Second के पूरक भी हैं। इन्हें हम चित्र के माध्यम से समझ सकते हैं। यिन काला हिस्सा तथा यांग सफेद हिस्सा दर्शाता है। अत: यिन या यांग सम्पूर्ण Reseller से रह नहीं सकता। प्रत्येक यिन में कुछ यांग होता है और प्रत्येक यांग में कुछ यिन होता है। तभी इस सृष्टि का संतुलन संभव है। उदाहरण : मौसम में सर्दी यिन है और गर्मी यांग है। अत: यदि निरन्तर सर्दी/गर्मी बनी रहे तो प्रकृति असंतुलित हो जायेगी। इसी प्रकार हमारे शरीर में यिन-यांग समान Reseller में विद्यमान हैं। जैसे अमाशय यांग क्योंकि वह तभी काम करता है जब भोजन आता है परन्तु वह निरन्तर खून के दौरे से प्रभावित रहता है, उसकी संCreation निश्चित रहती है। अत: वह यिन है। किसी भी व्यक्ति/वस्तु के कार्य को यांग दर्शाता है और उसके आकार को यिन दर्शाता है।

 जैसे – Stucture is Yin & Function is Yang

यिन-यांग के सिद्धान्त को हम दो के सिद्धान्त से भी समझ सकते हैं। प्रत्येक व्यक्ति/ वस्तु Single समय पर यिन हो तो दूसरी व्यक्ति/वस्तु के सापेक्ष वह यांग हो जाती है। जैसे कुर्सी, पलंग की तुलना में यांग है और पलंग बड़े आकार के कारण यिन है। अत: बड़ा यिन और छोटा यांग। इसी कुर्सी को यदि हम Single डिब्बे से तुलना करें तो कुर्सी यिन और डिब्बा यांग होगा। अत: Single वस्तु किसी दूसरी वस्तु की तुलना में यिन या यांग हो सकती है।

इसी प्रकार हम अपने शरीर में Yin Yang Duality के सिद्धान्त को पहचान सकते हैं। उदाहरण हृदय का कार्य है रक्त को पूरे शरीर में संवितरित करना जो हृदय की यांग क्रिया है। साथ ही हृदय रक्त को पूरे शरीर से वापस Singleत्र करता है अत: ये यिन क्रिया भी दर्शाता है। हृदय में हम दोनों क्रियाओं को देख सकते हैं परन्तु मुख्यत: हृदय निरन्तर कार्य करता है अत: यह Single यिन अंग है। यदि हृदय की वास्तविक संCreation में कोर्इ परिवर्तन आता है तो उसका यिन प्रभावित है और यदि उसके क्रियाशीलता या कार्य में अनियमितता आर्इ तो उसका यांग प्रभावित हुआ है। अत: प्रत्येक व्यक्ति/वस्तु में यिन और यांग अपना स्थान बदलता रहता है। इसका उपचार सरल Reseller में प्रतिबिम्ब केन्द्रों द्वारा Reseller जाता है। मनुष्य की स्वस्थ अवस्था में ‘ची’ Meansात जीवनीय शक्ति का बिना किसी रुकावट के शरीर में अविरत संचार होता रहता है। इसकी शुरूआत फेफड़ों से होती है। ये शक्ति All मेरेडियान में बहती रहती है। ‘ची’ के संचार में रुकावट होने से ही रोग उत्पन्न होते हैं।

यिन और यांग का शरीर में संतुलित स्थिति में रहना ‘‘स्वास्थ्य’’ है और इनमें से किसी Single का कम होना और Second का अधिक प्रमाण में रहना ‘‘रोगावस्था’’ कहलाती है। Single्यूप्रेशर और Single्यूपंचर के द्वारा इस जीवनीय शक्ति के संचार को संतुलित Reseller जाता है।

यिन-यांग सिद्धान्त का प्रयोग हम अनेक बीमारियों के उपचार में कर सकते हैं। जैसे यिन – लगातार काम करने वाले अंग यकृत, हृदय, मस्तिष्क, प्लीहा, फेफडे़, गुर्दा आदि हैं। वैसे ही कभी-कभी काम करने वाले अंग यांग कहलाते हैं जैसे- पित्ताशय, छोटी आंत, रीढ़, आमाशय, बड़ी आंत, मूत्राशय आदि। इनका उपचार इन प्रतिबिम्ब केन्द्रों पर दबाव देकर करते हैं। यदि यकृत के सादृश्य पर दबाव देने से दर्द हो तो यकृत (Liver) का रोग हो सकता है। इसी प्रकार यदि गुर्दा (Kidney) के सादृश्य बिन्दु पर दबाव देने से दर्द महसूस हो तो गुर्दे के रोग की सम्भावना होती है। अत: इन बिन्दुओं पर नियमित दबाव देकर हम किसी भी गम्भीर यिन रोग के प्रवेश से बच सकते हैं। अत: यिन और यांग हमारे शरीर में Single महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यदि यांग तकलीफ या बिमारी पर नियन्त्रण न पाया गया तो वह यिन में परिवर्तित होकर Single गम्भीर Reseller धारण कर लेती है। जैसे – साधरण सर्दी-खांसी यांग Reseller में होती है परन्तु यदि ये नियमित बनी रहे तो यिन अंग फेफड़े की बिमारी में परिवर्तित होकर टी.बी., अस्थमा आदि बन जाती है।

2. पंचतत्व का सिद्धान्त :-

Single्युपंक्चर And Single्यूप्रेषर के सिद्धान्त के According हमारा शरीर ही नहीं बल्कि समस्त संसार पंच तत्वों से निर्मित है। शरीर के प्रमुख 12 अवयव भी इन्हीं पंच महाभूतों से निर्मित है। चीन का ग्रन्थ Nei Jing के According ये पंच तत्व हैं, लकड़ी (Wood) अग्नि (Fire), Earth (Earth), जल (Water) And धातु (Metal)। इन्हीं पंच तत्वों से सृष्टि के सारे पदार्थ निर्मित हैं। Earth पर उत्पन्न होने वाले All पदार्थ इन पंच तत्वों में से Single या अनेक से सम्बन्धित रहते हैं।

भारत की प्राचीन चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद में भी पंच तत्वों का वर्णन विस्तृत Reseller से Reseller गया है। ये पंच तत्व वायु, अग्नि, जल Earth और आकाष है। इन पंचतत्वों का वर्णन तैत्तिरीयोपनिशद में निम्न प्रकार से मिलता है।

आत्मनो आकाश: सम्भूत:।  आकाशात वायु:।
वायोरग्नि: अग्ने: आप । अदभ्य: Earth ।
प्रथिव्यो औषधय:। औषधीभ्योन्नं। अन्नात् पुरुष:।।

Meansात आत्मा से आकाष पैदा हुआ तथा आकाष से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल, जल से Earth, Earth से औषधियाँ, औषधियों से अन्न तथा अन्न से पुरुष मात्र की उत्पत्ति हुर्इ। Meansात यह सम्पूर्ण Humanीय देह इन पंच महाभूतों का ही संधात याने समन्वित Reseller है।

पंच तत्त्व सिद्धान्त ,Single्युप्रेशर उपचार पद्यति का प्रमुख आधार है। ये पांच तत्त्व, शरीर के नियामक है। इन तत्त्वों से बना शरीर यिन-यांग के सिद्धान्त And इन तत्त्वों से सम्बन्धित ऊर्जाएँ – वायु (चंचलता), उष्णता, आद्रता, भावुकता (रूखापन) And शीतलता पर आधारित है। चीन देश के दार्शनिकों ने पंच तत्त्वों में थोड़ा सा परिर्वतन करके वायु के स्थान पर काष्ठ (Wood) तथा आकाश (Space) के स्थान पर धातु (Matel) प्रस्थापित Reseller है। इन पांचों ऊर्जाओं के समवेद स्वReseller को जैव ऊर्जा (Bio energy) कहते हैं जो विभिन्न देशों में विभिन्न नामों जैसे- चीन में ‘ची’, जापान में ‘की’, भारत में ‘प्राण’ तथा पाश्चात्य देशों में ‘Vital force’ से जाना जाता है। इस प्रकार Single्युपंक्चर चिकित्सा पद्यति पूर्णतया प्रकृति के सिद्धान्तों पर आधरित है।

इस चक्र द्वारा तत्त्व व ऊर्जा दो विभिन्न यिन-यांग Resellerों में प्रकट होती है। प्रत्येक वस्तु अथवा व्यक्ति जिस तत्त्व से निर्मित हैं, वही ऊर्जा प्रकट करते हैं। अत: हम कह सकते हैं ‘तत्त्व’ यिन गुण है और ‘ऊर्जा’ यांग गुण है। जहाँ तत्त्व किसी वस्तु के निर्माण (Structure) का ज्ञान कराता है वहीं ऊर्जा उसकी क्रियाशीलता (Function) दर्शाती है। अत: तत्व-ऊर्जा यिन-यांग सिद्धान्त के समReseller हैं व पंचतत्व सिद्धान्त का प्रकृति संतुलन में विशेष भूमिका प्रमाणित करते हैं।

पंच तत्त्व सिद्धान्त का सार –

1. हमारा शरीर पंच तत्त्वों से निर्मित है। 2. पंच तत्त्वों की सम्यावस्था ही स्वास्थ्य है। 3. इनमें से किसी Single या Single से अधिक तत्वों के असंतुलन ही रोग का कारण है।

प्राचीन समय से ऐसा माना जाता है कि मनुष्य का शरीर पांच तत्वों से मिलकर बना हुआ है। Earth, जल, अग्नि, वायु And आकाश। प्रत्येक तत्वों का हमारे शरीर में अपनी तरह से अलग-अलग प्रभाव है। प्रत्येक व्यक्ति में इन पांच तत्वों में से किसी Single तत्व का प्रभाव ज्यादा होता है। इसलिये प्रभावी तत्वों का असर उस व्यक्ति के गुण व्यवहार में दिखार्इ देते हैं। जब इनमें से कोर्इ भी तत्व शरीर में असंतुलित हो जाता है यानि उस तत्व विशेश की मात्रा शरीर में Need से कम अथवा अधिक हो जाती है तो शरीर बीमार हो जाता है और व्यक्ति असहज महसूस करने लगता है। ऐसे में असंतुलित तत्व को यदि संतुलित कर दिया जाये तो बीमारी पर नियन्त्रण पाया जा सकता है। उदाहरण के तौर पर यदि शरीर में जल तत्व बढ़ जाये तो शरीर के विभिन्न अंगों में सूजन आ सकती है और उन अंगों को दबाने से वहाँ गड्ढा पड़ने लगता है। इसका उपचार शरीर में जल तत्व की मात्रा को घटाकर और संतुलित कर शरीर के अंगों की सूजन को मिटाया जा सकता है। इसी प्रकार यदि शरीर में Earth तत्व बढ़ गया है तो व्यक्ति मांसल तथा मोटा हो जाता है। ऐसे में Earth तत्व का संतुलन कर मोटापा घटाया जा सकता है। Need है जानने की उन Single्युप्रेशर-Single्युपंक्चर बिन्दुओं की, जिन पर उपचार कर इन पाँच तत्वों को संतुलित Reseller जा सके। इसी का सम्यक् ज्ञान कराता है – पंच तत्वों का सिद्धान्त (Five Element Theory) Need है जानने की, हमारे शरीर के उन अवयवों की, जो इन पांच तत्वों से सम्बन्ध रखते हैं। इन Organs का उपचार कर हम शरीर में पाँच तत्वों का संतुलन स्थापित कर सकते है। साथ ही उन अन्त:ग्रन्थियों की जो इन पाँच तत्वों का हमारे शरीर में Hormonal स्राव द्वारा संतुलन बनाये रखती है।

इन पाँच तत्वों के संतुलन से हम शरीर की पुरानी तथा घातक बीमारियों का उपचार कर सकते हैं। भविश्य में बीमारी न आये, इसके लिये रोग प्रतिरोधक क्षमता का विकास भी कर सकते है। यहाँ तक कि आने वाली शताब्दी की घातक से घातक बीमारियों उपचार भी इस पंच तत्व नियमन सिद्धान्त में समाहित है। Need है इन तत्वों को भली भांति जानने की तथा शरीर संचालन में इनकी महत्ता को समझने की। उन लक्षणों को जानना जरूरी है जिनसे पता चलता है कि कौन सा तत्व हमारे शरीर में असंतुलित हुआ है ? असंतुलन कितना है ? असंतुलन किस प्रकार का है ? क्या यह असंतुलन पुराना है अथवा नया ? अगर असंतुलन पुराना है तो क्या उपचार होगा तथा अगर असंतुलन Acut है तो क्या उपचार होगा।

चीन में पाँच तत्व जिनसे स्वर्ग, Earth और मनुश्य बने हैं वे इस प्रकार है जल (Water), काश्ठ (Wood), अग्नि (Fire), Earth (Earth), और धातु (Metal) । इसमें आकाश तत्व को धातु के Reseller में And वायु तत्व को काश्ठ के Reseller में माना गया है। इसमें काश्ठ तत्व को प्रधान तत्व माना जाता है। अब हमें यह जानना है कि हमारे शरीर का कौन सा Organ इन पांच तत्वों में किससे संबन्धित है। इसकी तालिका है –

 Yin Organs Yang Organs Related element
1 Liver Gall Bladder Wood
2 Heart Small Intestine Fire
3 Spleen/Pancreas Stomach Earth
4 Lungs Large Intestine Metal
5 Kidney Urinary Bladder Water

लीवर Wood Element (काश्ठ) है। इसलिये इसे Master of Metabolic Organ कहा गया है। लीवर ही अपने आप में Single ऐसा अंग है जिससे पुर्नउत्पन्न शक्ति (Regenerative Power) है।

चीन में Wife Organ को Yin कहते है तथा Husband Organ को Yang कहते है। ये Wife Organ जिन्हें Solid Organ भी कहते है वे इस प्रकार हैं – gs, Kidney & Liver, ये Organs मनुश्य के जन्म से लेकर मृत्यु तक अनवरत बिना रूके कार्य करते रहते है और जब ये Organs कार्य करना बंद कर देते है तो व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है। जैसे हृदय-जब हम पैदा हुए थे, तब से हमारे हृदय ने धड़कना प्रारम्भ कर दिया था तथा यह लगातार धड़कता रहता है और जब यह धड़कना बंद कर देता है तब हम मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। यानि हृदय Single ऐसा Organ है जो जन्म से मृत्यु पर्यन्त बिना रूके चौबीसों घंटे लगातार प्रतिपल कार्य करता रहता है।

जो Husbend Organ उन्हें Hollow Organs भी कहते है। ये इस प्रकार हैं, Stomach, Large Intestine, Urinary Bladder आदि। इन Husbend organs के पास जब जब कार्य करने को आता है तो यह कार्य करते है और जब कार्य करने को नहीं रहता है तो ये विश्राम करते है। जैसे जब हम भोजन करते हैं तो वह पेट में पाचन के लिये जाता है। पेट उसे चार घंटे ते पचाने का कार्य करता है और इसके बाद उसे आगे Small Intestine में भेज देता है तथा स्वयं पेट विश्राम करने लगता है। फिर हम खाते हैं तो फिर पेट काम करने लगता है। जिस दिन हम उपवास करते हैं उस दिन पेट विश्राम करता है इस प्रकार इन Husbend organs के पास काम आया तो कर दिया और अगर काम नहीं आया तो विश्राम करते हैं। इन पाँचों तत्वों में दो प्रकार के चक्र होते हैं – 1. निर्माणकारी चक्र (Creative Cycle) 2. विनाशकारी चक्र (Destructive Cycle)
इन चक्रों द्वारा तत्व, ऊर्जा, और अंग का संबंध बतलाया गया है
5 Elements – Wood, Fire, Earth, Metal, Water
5 Energy – Wind, Heat, Humidity, Dryness, Coldness
5 Pairs of Organs _ Liv/GB, H/Si, Sp/St, Lu/Li, K/UB

Single्युपंक्चर द्वारा रोग निदान विधि

जब शरीर का कोर्इ अवयव रोगग्रस्त होता है तब उस अवयव के पैर के तलुवे And हाथ की हथेली पर स्थित प्रतिनिधि बिन्दुओं पर दर्द होता है जो बिन्दु को दबाने पर विषेषत: महसूस होता है। कर्इ बार रोग के आरम्भ के दिनों में कोर्इ प्रत्यक्ष लक्षण दिखार्इ नहीं देते। ऐसी परिस्थिति में रोग का निदान करना अत्यन्त कठिन हो जाता है। ऐसी स्थिति में Single्युपंक्चर का उपयोग सही मायने में होता है। Single्युपंक्चर बिंदु रोग की प्रारम्भिक अवस्था में ही वेदनाग्रस्त हो जाते हैं और यह बात रोग निदान करने के लिये महत्वपूर्ण होती हैं। रोग की प्रारम्भिक अवस्था में ही निदान हो जाने से तुरन्त उपचार शुरू Reseller जा सकता है तथा रोग के लक्षण धीरे-धीरे कम किए जा सकते हैं।

1. Single्यु बिंदु मापन विधि

यदि कोर्इ अवयव रोगग्रस्त हैं तो उससे सम्बन्धित बिन्दु अत्यन्त संवेदनषील और वेदना युक्त हो जाती है। बिंदु के आसपास का भाग कम वेदनायुक्त रहता है। बिंदु का सही स्थान निष्चित करना उतना ही आवष्यक है जितना कि किसी रोग को मापने के लिए निम्नांकित विधि अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं।

  1. रोगी के अंगूठे के First जोड़ की चौड़ार्इ को 1 च्युन माना जाता है। 
  2. दो उंगलियां (तर्जनी और मध्यमा, अनामिका) की चौड़ार्इ के प्रमाण को 1.5 च्युन माना जाता है।
  3. तीन अंगुलियों (तर्जनी, मध्यमा, अनामिका) की चौड़ार्इ के प्रमाण को 2 च्युन माना जाता है।
  4. चार अंगुलियों (तर्जनी, मध्यमा, अनामिका और कनिष्ठिका) की चौड़ार्इ के प्रमाण को ‘‘3च्युन कहते हैं।

यह च्युन का नाप लेने के लिए ‘‘च्युनोमीटर नामक Single उपकरण मिलता है। किन्तु सर्वसाधारण तौर पर रोगी की अंगुली से च्यून का मापना अधिक युक्तिसंगत और सही मापदण्ड है।

  1. बिन्दु के ऊपर की त्वचा पर कभी कभी सूजन रहती है।
  2. बिन्दु के ऊपर का तापमान अन्य स्थान की अपेक्षा अधिक हो सकता है।
  3. बिन्दु का सही स्थान निश्चित करने के लिये कुछ विशेषज्ञ ‘‘प्वाइंट डिटेक्टर’’ का प्रयोग करते हैं।

2. उपचार विधि

उपचार की मुख्यत: 3 क्रम होते हैं :- 1. पूर्व कर्म 2. प्रधान कर्म 3. बाद कर्म

  1. पूर्व कर्म :- मुख्य विधि करने से पूर्व की जाने वाली क्रिया को पूर्व कर्म कहते हैं। इसके मुख्यत: 2 भाग होते हैं। क. रोगी सम्बन्धित ख. विषेषज्ञ सम्बन्धित रोगी को सांत्वना देकर 3-5 मिनट तक आराम करने दें। हो सके तो योगासन में described मकरासन And शवासन का अभ्यास करायें। उसके पष्चात रोगानुसार तय किये गए बिन्दुओं का निष्चितीकरण करते हैं। रोगी की शारीरिक स्थिति आरामदायक तथा सुखकारक होनी चाहिए। रोगी तथा विषेषज्ञ की सुविधानुसार बैठाकर या लिटाकर उपचार कर सकते हैं। उपचार शुरू करने से पूर्व रोगी को सबसे प्रभावषाली ‘‘सिम्पैथी’’ (Sympathy) देनी चाहिए। जिससे कि रोगी का मनोबल बढ़े And उसका रोग अवष्य ही इस पद्धति से दूर होगा, ऐसा उसे विष्वास हो जाये।
  2. प्रधान कर्म :- Single्युपंक्चर रोगी के शरीर के जिस स्थान पर करना हो वह स्थान विषेषज्ञ के करीब होना चाहिए। इसमें बिन्दु की स्थिति, रोगी की शारीरिक स्थिति, संघटन, बल, आयु और रोग के प्रकार, इन सब बातों पर विषेषत: ध्यान देना चाहिए। काल अवधि :- प्रत्येक बिंदु पर 10 से 15 मिनट तक सुर्इ लगाना चाहिए। यह क्रिया दिन में दो बार दे सकते हैं। Single्युपंक्चर निम्न स्थितियों में नहीं लेना चाहिए
    1. बहुत ज्यादा पसीना बह रहा हो या फिर बहुत से पैदल चलकर आने पर जब सांस फूल रही हो और नाड़ी भी तेज हो तो थोड़ी देर रूक कर उपचार करायें।
    2. बहुत तेज भूख लगी हो या उपवास के दिन हो तब न लें।
    3. भोजन करने के तुरन्त बाद भी न लें।
    4. किसी प्रकार की दवार्इ के सेवन करने के 1 या 2 घण्टे के पष्चात ही Single्युपंक्चर लेना चाहिए।
    5. ठंडे या गर्म पानी से स्नान करने के तुरन्त बाद न लें।
    6. गर्भावस्था में Single्युपंक्चर का उपचार लेना लाभप्रद है। क्योंकि इस काल में अन्य औषधि And उपचार वर्जित होते हैं। यही प्राकृतिक And सरल विधि है, जो इस काल में उपयुक्त है। 
    7. जल जाने पर, त्वचा पर आघात होने पर या किसी हड्डी के टूट जाने पर भी यह उपचार नहीं लेना चाहिए।

      Single्युपंक्चर लेने के प्रारम्भिक काल में कभी-कभी रोगी को कुछ अस्थायी लक्षण उत्पन्न हो सकते हैं। जैसे सिर दर्द, सर्दी आदि। यह लक्षण कुछ दिनों के बाद स्वत: शान्त हो जाते हैं। विषेषज्ञ उनको शुभ संकेत मानते हैं। किसी-किसी रोगी में यह लक्षण उत्पन्न भी नहीं होते हैं।

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