उत्पाद जीवन चक्र की अवधारणा, Means, परिभाषा And विशेषताएँ

उत्पाद जीवन-चक्र की अवधारणा 

उत्पाद जीवन चक्र Single विशिष्ट अवधारणा है जो किसी उत्पाद के जीवन की विभिन्न अवस्थाओं को प्रकट करती है। जिस प्रकार Single Human का जीवन चक्र विभिन्न क्रमागत अवस्थाओं से बना हुआ है, ठीक उसी प्रकार Single उत्पाद का जीवन-चक्र भी विभिन्न अवस्थाओं से बना हुआ है। Single Human जीवन में क्रमश: जन्म, बाल्यावस्था, किशोरावस्था, युवावस्था, वृद्धावस्था आती है। उसी प्रकार Single उत्पाद के जीवन में भी प्रस्तुतीकरण, विकास, परिपक्वता, संतृप्ति, पतन आदि अवस्थाएँ आती है।

उत्पाद जीवन चक्र का Means

उत्पाद जीवन चक्र किसी उत्पाद के जीवन की उन अवस्थाओं का क्रमागत अनुक्रम है जिन्हें उत्पाद अपने जीवन काल के दौरान पूरा करता है। उत्पाद जीवन चक्र की विभिन्न अवस्थाओं में उत्पाद प्रस्तुतीकरण से लेकर बाजार पतनावस्था तक उत्पाद विक्रय का क्रम आता है। अत: Single उत्पाद का अपने जीवनकाल में प्रस्तुतीकरण, विकास, परिपक्वता, संतृप्ति, पतन आदि अवस्थाओं से गुजरना ही उत्पाद जीवन चक्र कहलाता है।

जिस प्रकार Single Human को अपने जीवनकाल में शैषव, बाल्यावस्था, किशोरावस्था, प्रौढ़ावस्था And वृद्धावस्था से गुजरना पड़ता है, उसी प्रकार प्रत्येक उत्पाद को भी विभिन्न अवस्थाओं – प्रस्तुतीकरण, विकास, परिपक्वता, पतन And अप्रचलन से गुजरना पड़ता है, इसे ही उत्पाद जीवन चक्र कहते है। किन्तु, कभी-कभी Human जीवन चक्र की तरह उत्पाद जीवन भी अचानक ही किसी भी अवस्था में समाप्त हो सकता है।

उत्पाद जीवन-चक्र की परिभाषा

  1. फिलिप कोटलर के According, ‘‘उत्पाद जीवन-चक्र किसी उत्पाद के विक्रय History की विभिन्न अवस्थाओं को जानने का प्रयास है।’’ 
  2. आर्क पैटन के According, ‘‘Single उत्पाद का जीवन-चक्र अनेक बातों में Humanीय जीवन-चक्र के साथ समानता रखता है, उत्पाद का जन्म होता है, उसकी आवेगपूर्ण वृद्धि होती है, प्रबल परिपक्वता पर पहुँचता है और तत्बाद पतन को प्राप्त होता है।’’ 
  3. लिपसन And डारलिंग के According, ‘‘उत्पाद जीवन-चक्र से आशय बाजार स्वीकरण की उन अवस्थाओं से है जिनमें Single उत्पाद की अपने बाजार प्रस्तुतकीरण से लेकर बाजार-विकास बाजार संतृप्ति, बाजार पतन And बाजार मृत्यु की अवस्थाएँ सम्मिलित होती है।’’ 

इस प्रकार उत्पाद जीवन चक्र से आशय कोर्इ भी वस्तु जिसे कि अपने जीवनकाल में विभिन्न स्थितियों में से गुजरना पड़ता है, वह उत्पाद जीवन चक्र कहलाता है। यह हो सकता है कि अलग-अलग वस्तुओं का जीवन चक्र अलग-अलग हो। क्योंकि कुछ वस्तुएँ तो नाशवान होती हैं तो कुछ टिकाऊ होती है। उदाहरण- फैशनेवल कपड़े, जो कि फैशन परिवर्तन के कारण शीघ्र ही अप्रचलित हो जाते है। इसके विपरीत मशीन, टेलीफोन, पंखा And अन्य औद्योगिक माल का जीवन चक्र कर्इ दशकों तक रहता है। इसके अतिरिक्त कुछ उत्पाद ऐसे होते है, जिन्हें प्रारम्भिक अवस्था को पूरा करने में ही कर्इ वर्ष लग जाते है जबकि कुछ उत्पाद कुछ सप्ताह में ही प्रारम्भिक अवस्था को पूरा कर लेते है। यह आवश्यक नही है कि All उत्पाद प्रारम्भिक अवस्था में सफल हो, कुछ असफल भी हो जाते है।

उत्पाद जीवन चक्र की विशेषताएँ

उत्पाद जीवन चक्र अवधारणा के सम्बन्ध में इसकी कुछ प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार है –

  1. प्रत्येक उत्पाद का जीवन चक्र ठीक उसी तरह से चलता है जिस प्रकार किसी जीवित प्राणी का जीवन चक्र चलता है। 
  2. प्रत्येक उत्पाद का जीवन चक्र सामान्यत: विभिन्न क्रमागत अवस्थाओं को पार करता हुआ आगे बढ़ता है। 
  3. सामान्यत: प्रत्येक उत्पाद के जीवन चक्र की कुछ प्रमुख अवस्थाएँ होती है, उनमें प्रमुख हैं : उत्पाद जन्म And प्रस्तुतीकरण, बाजार विकास, परिपक्वता, संतृप्ति तथा पतन। 
  4. इन विभिन्न अवस्थाओं में उत्पाद का विक्रय And उससे अर्जित लाभ बढ़ता तथा घटता है।
  5. All उत्पादों के जीवन चक्र की प्रत्येक अवस्था की आयु Singleसमान नहीं होती है। प्रत्येक अवस्था की आयु उत्पाद की नवीनता से बढ़ायी जा सकती है। 
  6. कोर्इ भी उत्पाद अपने जीवन चक्र की विभिन्न अवस्थाओं को Singleसमान गति से पार नहीं करता है। 
  7. जीवन चक्र की प्रत्येक अवस्था में उत्पाद की बाजार स्थिति बाजार परिस्थितियों से प्रभावित होती है। 
  8. उत्पाद का जीवन चक्र जीवित प्राणी की तुलना में प्राय: सीमित होता है। 
  9. प्रत्येक उत्पाद के जीवन चक्र की विभिन्न अवस्थाओं में भिन्न-भिन्न प्रकार की उत्पादन, विपणन, वित्तीय, Human संसाधन व्यूहCreationओं की Need पड़ती है। 

उत्पाद जीवन चक्र की अवस्थाएँ 

उत्पाद विकास अवस्था से लेकर पतन से मृत्यु तक की उत्पाद जीवन-चक्र अवधारणा को छ: अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है, जो  है –

1. उत्पाद विकास अवस्था – 

इसे उत्पाद की जन्मावस्था भी कह सकते है। उत्पाद जीवन चक्र का प्रारम्भ उत्पाद विकास की प्रक्रिया के साथ ही प्रारम्भ हो जाता है। उत्पाद विकास प्रक्रिया में उत्पाद की First जाँच विपणन की जाती है। तत्बाद उसका व्यवसायीकरण Reseller जाता है। इस अवस्था में उत्पाद का विक्रय प्रारम्भ नहीं होता है। जबकि निवेश लागतें बहुत अधिक होती हैं। फलत: इस अवस्था में उत्पाद से लाभ होने का तो प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता है।

2. प्रस्तुतीकरण अवस्था – 

उत्पाद विकास की प्रक्रिया सम्पन्न होने के साथ ही उत्पाद को बाजार में प्रस्तुत Reseller जाता है। यह उत्पाद की ‘‘बाल्यावस्था’’ है। इस अवस्था में बहुत कम उपभोक्ता And व्यापारी इसे जानते है। इसके गुणों से भी बहुत लोग परिचित नहीं होते हैं। अत: इस अवस्था में उत्पाद का बाजार में कोर्इ विशेष स्थान नहीं होता है। फलत: इसकी माँग भी बहुत सीमित होती है। संक्षेप में, इस अवस्था में सामान्यत: उत्पाद की स्थिति इस प्रकार होती है-

  1. उत्पाद की मांग बहुत कम होती है।
  2. उत्पाद की माँग में वृद्धि दर भी बहुत कम होती है। 
  3. माल की माँग भी कुछ उपभोक्ताओं तक ही सीमित होती है।
  4.  उत्पाद से लाभ बहुत कम होते हैं या उससे हानि भी हो सकती है। 
  5. कम लाभों या हानि का प्रमुख कारण उत्पादन And संवर्द्धन लागतों का अधिक होना ही होता है।
  6. माल के वितरण के लिए मध्यस्थों को आकर्षित करने तथा माल का भंडार बनाने के लिए बहुत अधिक धन की Need पड़ती है। 
  7. संवर्द्धनात्मक साधनों पर भी व्यय अधिक होता है। 

3. विकास अवस्था – 

यदि उत्पाद बाजार में प्रवेश करने के बाद उपभोक्ताओं को अपेक्षित संतुष्टि प्रदान कर पाता है, तो वह विकास अवस्था को प्राप्त करता है। इस अवस्था में उत्पाद का विक्रय तीव्र गति से बढ़ता है। विद्यमान उपभोक्ता तो उत्पाद का क्रय करते ही है साथ ही नये उपभोक्ता भी उत्पाद क्रय करने लगते हैं। संतुष्ट उपभोक्ताओं द्वारा उत्पाद की प्रशंसा करने से उत्पाद का विक्रय और भी तीव्र गति से बढ़ता है। उत्पाद का विक्रय बढ़ते जाने से बाजार में नर्इ प्रतिस्पध्र्ाी संस्थाए भी जन्म लेते लगती हैं। वे अपने उत्पादों को नवीन लक्षणों के साथ प्रस्तुत करती है। इससे बाजार का विस्तार होने लगता हैं। बाजार में मध्यस्थों की संख्या भी बढ़ती है तथा इनके पास भी स्टॉक रहने से उत्पाद का विक्रय और अधिक बढ़ जाता हैं। इस अवस्था में उत्पाद का मूल्य, संवर्द्धनात्मक व्यय आदि का स्तर भी सामान्यत: पूर्ववत् ही बना रहता है।

उत्पाद विकास अवस्था में लाभों में वृद्धि होती है। इसका प्रमुख कारण विक्रय संवर्द्धन And उत्पादन की लागतें समान बनी रहती हैं जबकि विक्रय अधिक होने से प्रति इकार्इ लागत कम हो जाती है। इस अवस्था में संस्था अपने विकास को तीव्र करने पर ध्यान देने लगती है। वह उत्पादों की किस्म सुधारने तथा उत्पादों में नवीन लक्षणों का विकास करने पर ध्यान भी देती है। इतना ही नहीं, संस्था नये बाजार क्षेत्रों में प्रवेश करने तथा वितरण के नये माध्यमों को अपनाने का भी प्रयास करती हे। समय आने पर संस्था अपने उत्पादों के मूल्यों में भी कमी करती है ताकि अधिकाधिक ग्राहकों को आकर्शित Reseller जा सकें।

4. बाजार परिपक्वता अवस्था – 

प्रत्येक उत्पाद के जीवन में Single ऐसी अवस्था भी आती है, जब उसके विक्रय की विकास की गति स्थिर हो जाती है तथा धीरे धीरे कम होने लगती है। यही अवस्था उत्पाद की परिपक्वता की अवस्था के नाम से जानी जाती है। इससे उसके लाभ भी कम होने लगते है तथा प्रतिस्पर्धा भी तीव्र होने लगती है। ऐसे में संस्था को संवर्द्धनात्मक साधनों का उपयोग बढ़ाना पड़ता है, जिससे लाभों पर और भी दबाव बढ़ जाता है। ऐसी स्थिति में उत्पाद पंक्ति को भी ऊपर And नीचे बढ़ाया जाता है। किन्तु इसके परिणामस्वReseller भी लागतों में वृद्धि होती है तथा लाभों पर और दबाव बढ़ता है। विक्रय वृद्धि दर में गिरावट होने से बाजार में उत्पादों And उत्पादकों दोनों की ही संख्या में वृद्धि होती है। इससे प्रतिस्पर्धा बढ़ती है, मूल्यों में गिरावट आने लगती है तथा विज्ञापन And विक्रय संवर्द्धन व्ययों में वृद्धि होने लगती हैं। इतना ही नहीं, प्रतिस्पर्धा में टिके रहने के लिए उत्पाद में सुधार करने हेतु शोध And विकास के व्यय भी करने पड़ते है। इस सबका अन्तोगत्वा प्रभाव लाभों में कमी के Reseller में ही होता है। ऐसे में कमजोर उत्पादकों को प्रतिस्पध्री से बाहर होना पड़ता है। केवल सुदृढ़ संस्थाएँ ही ऐसी प्रतिस्पर्धा में टिकी रहती है।

5. बाजार संतृप्ति अवस्था – 

उत्पाद ज्यों-ज्यों संतुष्टि अवस्था की ओर अग्रसर होता है, त्यों-त्यों परिपक्वता की स्थिति में पायी जाने वाली All स्थितियाँ और अधिक प्रखर होने लगती हैं। Second Wordों में, प्रतिस्पर्धा और तीव्र हो जाती है, सम्पूर्ण बाजार अनेक ब्राण्ड के उत्पादों से संतृप्त हो जाता है। ऐसी स्थिति में संस्थाएँ विद्यमान उत्पादों के नये उपयोग खोजकर या फैशन में परिवर्तन करके उत्पादों का विक्रय करने का प्रयास करती हैं। ऐसे में मध्यस्थों की भूमि भी बढ़ जाती है। तब संस्थाएँ अपनी लागतों को घटानें के तरीके ढूँढ़ने लगती है।

6. बाजार पतन अवस्था – 

जीवन-चक्र की इस अवस्था में उत्पाद का चमकता Ultra site डुबने की ओर बढ़ता हैं। नये या प्रतिस्थापन उत्पाद बाजार में आने से विद्यमान उत्पादों का विक्रय निरन्तर गिरता जाता है। उत्पाद के इस अवस्था में पहुँचने पर विक्रय गिरने के कुछ भिन्न कारण होते हैं। जैसे-उपभोक्ताओं की रूचि में परिवर्तन, तकनीक में परिवर्तन, अत्यधिक प्रतिस्पर्धा आदि। इन सब कारणों से विक्रय तथा लाभों में भारी कमी होने लगती हैं। ऐसे में कर्इ संस्थाएँ अपना कारोबार भी बन्द कर देती है। जो संस्थाएँ टिकी रहती हैं, वे भी अपने उत्पादों की संख्या को घटा लेती हैं इतना ही नही वे छोटे बाजार क्षेत्रों तथा छोटे मध्यस्थों को भी छोड़ देती हैं। वे अपने संवर्द्धनात्मक व्ययों में भी कटौती कर लेती हैं। अन्तत: वे अपने उत्पादों के मूल्य को भी घटा लेती है।

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