आकाश तत्व क्या है ?

संसार में पंच महा भूतो में आकाश तत्व प्रधान होता है। यह सबसे अधिक उपयोगी And First तत्व हैै। जिस प्रकार परमात्मा असीम एंव निराकार है उसी प्रकार आकाश तत्व का असीम And निराकार है। आकाश तत्व का उसी प्रकार नाश नही हो सकता जिस प्रकार र्इश्वर को कभी नश्ट नहीं Reseller जा सकता। Indian Customer मान्यताओं के According आकाश में परमात्मा का देवी, देवताओं का वास माना जाता है इसलिये आकाश तत्व के द्वारा उसे धारण करके उसके द्वारा चिकित्सा द्वारा मनुष्य भी उत्तम स्वास्थ्य And दीर्घ जीवन प्राप्त कर पाता है।

जिस प्रकार हर ठोस वस्तु में Single अदृश्य शक्ति छीपी होती है और अदृश्य या निराकार वस्तु को देखने पर हमें कोर्इ ठोस वस्तु के दर्शन नहीं होते है। ठीक उसी प्रकार निराकार आकाश तत्व में भी होता है। निराकार से निराकार वस्तु की ही प्राप्ति होती है। आकाश निराकार है और इससे निराकार शक्ति की ही प्राप्ति होती है। यह शक्ति परम कल्याण कारी होती है।

Human शरीर Single अद्भूत यंत्र है, जिसकी संCreation And कार्य विचित्र है। Human शरीर को हम Single ब्रहमाण्ड Resellerी छोटी संCreation का Reseller कह सकते है।

वास्तविकता तो यह है कि यदि परमात्मा ने आकाश तत्व की उत्पत्ति नहीं की होती हो तो आज हमारा भी अस्तित्व नहीं होता। हम श्वास भी नहीं ले पाते। आन्तरिक स्फूर्ति And प्रसन्नता की अनुभूति आकाश तत्व से ही सम्भव होती है। Earth, जल, अग्नि, वायु ये चारों तत्व आकाश तत्व का आधार लेकर ही कार्य करते है। वे All आकाश तत्व पर ही निर्भर रहते है।

आकाश तत्व का Means

आकाश का Means ‘खाली जगह’ होता है इसे अवकाश देने वाला भी कहते है। जहाँ खाली स्थान होता है। वहाँ वायु होती है। ठीक इसी प्रकार में ही मनुष्य अपना जीवन यापन करता है। आकाश के बिना Human या अन्य प्राणियों की कल्पना नहीं की जा सकती। आकाश में ही प्राणी गति करते है। ठोस में गति करने के लिये अवकाश नहीं रहता है। जिस प्रकार पानी में मछली रहती है उसी प्रकार All जीव आकाश में अपना जीवन यापन करते है।

हम चारो ओर से आकाश तत्व द्वारा ही घिरे रहते है। हमारे शरीर के भीतर शरीर के बाहर आकाश ही है। हमारे शरीर के भीतर, रक्त गति करता है, असंक्ष्य कोश काये कार्य करती है, वायु गति करता है। इन सबको अपना कार्य सम्पन्न करने And अपने अस्तित्व के लिये आकाश तत्व की ही Need होती है। इसके अभाव में इनके कार्य एंव स्थिति सम्भव नहीं होती है।

आकाश तत्व Single मूल तत्व माना गया है। अत: वास्तु विषय मे इसे ब्रहम तत्व (मध्य स्थान) कहा जाता है। इस तत्व की पूर्ति करने के लिये पुराने जमाने में मकान के मध्य में खुला आंगन रखा जाता था, ताकि अन्य All दिशाओं में इस तत्व की आपूर्ति हो सके। आकाश तत्व से अभिप्राय यह है कि गृह निर्माण में खुलापन रहना चाहिये। मकान में कमरों की ऊचांर्इ और आंगन के आधार पर छत का निर्माण होना चाहिये। अधिक व कम ऊंचार्इ के कारण आकाश तत्व प्रभावित होता है। कर्इ मकानों में दूषित वायु (भूत-पे्रत) का प्रवेश And आवेश देखा गया है। इसका मूल कारण वायु तत्व और आकाश तत्व का सही निर्धारण नहीं होना ही पाया गया है। मानसिक रोगों का पनपना भी आकाश तत्व के दोष का ही नतीजा पाया जाता है।

Human शरीर की संCreation बहुत ही विचित्र है। जिस प्रकार शरीर के भीतर आकाश तत्व यानि खाली स्थान होता है उसी आधार पर अब वैज्ञानिक भी ठोस पदार्थ में आकाश तत्व की स्थिति को बताते है क्योंकि उनमें भी इलेक्ट्रोन तथा प्रोटोन परस्पर गतिशील रहते है। जब स्थूल सृष्टि की Creation होती है तब यह सबसे First शक्ति से उत्पन्न होता है और महाप्रलय के समय ही जब समस्त सृष्टि का अंत होता है तब यह शक्ति में ही विलीन हो जाता है। आकाश तत्व का सूक्ष्म विषय ‘‘Word’’ है यानि ‘‘Word’’ के माध्यम से ही आकाश तथा आकाश तत्व प्रधान वस्तुओं की जानकारी प्राप्त होती है। इस संसार में All प्रकार के सूचना प्रसारण तंत्रो का मुख्य आधार यही आकाश तत्व होता है।

आकाश तत्व की परिभाषा

महात्मा गाँधी जी ने आकाश तत्व को ‘आरोग्य सम्राट’ की संज्ञा दी है और बताया है कि र्इश्वर का भेद जानने के समान ही आकाश का भेद जानना है। ऐसे महान तत्व का जितना ही अभयास और उपयोग Reseller जायेगा उतना ही अधिक आरोग्य प्राप्त होगा। गाँधी जी के According ‘बिना घर बार अथवा वस्त्रो के इस अनन्त के साथ सम्बन्ध जुड जाये तो हमारा शरीर, बुद्धि और आत्मा पूर्ण रीति से आरोग्य भोगें। इस आदर्श को जानना, समझना और आदर करना आवश्यक है। वे कहते है कि घर-बार, साज समान और वस्त्र आदि के उपयोग में हमें काफी अवकाश (आकाश) रखना चाहिये। जो आकाश (अवकाश ) के साथ सम्बन्ध जोड़ता है, उसके पास कुछ नहीं होता और सब कुछ होता है।  बडे़-बडे़ विद्वान दार्शनिको ने भी अपने अनुभव से आकाश तत्व को परिभाशित Reseller है जिसका वर्णन इस प्रकार से है-

जैनो के According –आकाश वह है जो धर्म, अधर्म, जीव और पुदगल जैसे अस्तिकाय द्रव्यों को स्थान देता है आकाश अदृश्य है। आकाश का ज्ञान अनुमान से प्राप्त होता है। विस्तार युक्त द्रव्यों के रहने के लिये स्थान चाहिये। आकाश ही विस्तार युक्त द्रव्यो को स्थान देता है। आकाश दो प्रकार का होता है।

  1. लोकाकाश – इसमें जीव, पुदगल, धर्म और अधर्म निवास करते है। 
  2. अलोकाकाश – यह जगत के बाहर होता है।

आकाश तत्व का महत्व

आकाश को शास्त्रों में पिता भी माना गया है और यदि आकाश को पिता माना गया है आकाश हमारा पालन करता है, हमारी रक्षा करता है। आकाश हमारा पालन करता है वारिश मे धरती पर पानी बरसा कर और फिर उस बारिश से उगी फसलों से खाने लायक बनाने के लिए मौसम का परिवर्तन लाकर आकाश हमारी रक्षा करता है, Ultra site की उन All बुरी किरणों से जो हमें नुकसान पहुंचाती है और हम तक सिर्फ उन्हीं किरणों को जाने देता है जो हमारे लिए लाभदायक है।

आकाश ये सब ठीक उसी तरह करता है जिस तरह Single पिता अपने बच्चों के लिए सारी तकलीफे उठाता है और उनका पालन करता है जब तक बच्चे बडे न हो जाये। Indian Customer संस्कृति की प्रारम्भ मान्यता रही है कि आत्मा के बिना शरीर मिट्टी का खिलौना है और आत्मा अजय और अमर है किन्तु आज हम इस अजेय आत्मा Resellerी आकाश पर विजय पाने के लिये आकाश को ही घायल करते जा रहे हैं।

मनुष्य के सोने का स्थान आकाश के नीचे ही होना चाहिये। ओस, सर्दी, बरSeven आदि में बचाव के लिये ओढने के अतिरिक्त हर समय अगणित तारों से Added हुआ आकाश ही हमारे चारो ओर हमारी Need होना चाहिये।

आकाश हमारे भीतर-बाहर, ऊपर-नीचे चारों ओर है। त्वचा के Single छेद के बीच जहां है वहीं आकाश है। इस आकाश की खाली जगह को हमें भरने की कोशिश नहीं करनी चाहिये। यदि दैनिक दिनचर्या में हम बिना ठूसे भोजन करें तो पेट में रिक्त स्थान बचा रहेगा जो कि आकाश तत्व ही है। और साथ ही यह Single अच्छे स्वास्थ्य के लिये भी उत्तम रहता है। उत्तम स्वास्थ्य की प्राप्ति And रोग की निवृत्ति के लिये आकाश तत्व Single साधन के Reseller में कार्य करता है। आकाश तत्व की प्राप्ति विभिन्न साधनो द्वारा की जा सकती है। जैसे – उपवास , ब्रहमचर्य, संयम, सदाचार, मानसिक अनुशासन, मानसिक संतुलन, विश्राम या शिथिलीकरण, प्रसन्नता, मनोरंजन And गहरी निद्रा।

उपरोक्त साधन आकाश तत्व के महत्व को और बढ़ा देते है। इनके व्यवहार द्वारा व्यक्ति के जीवन में शारीरिक मानसिक अध्यात्मिक उन्नति के साथ-साथ भावनात्मक, क्रियात्मक विकास भी सम्भव है साथ ही सामाजिकता के निरवाह में भी यह All साधन अनुकूल प्रभाव डालते है। आइये अब आपको आकाश तत्व प्राप्ति कें साधनो के बारे में जानकारी देते है। जिससे आप आकाश तत्व के महत्व को और विस्तार से जान पायेगें।

उपवास- उपवास का Means भोजन की कमी से है। जिसमें व्यक्ति अपनी राजखाने की आदत में कमी करता है। सामान्यत: व्यक्ति की बार-बार खाने की आदत के कारण उसका पेट हमेशा भरा रहता है। जिससे पाचन संस्थान को विश्राम नहीं मिलता है। अपवास काल में व्यक्ति के पाचन संस्थान को विश्राम मिलता है। यह Single शारीरिक And मानसिक शुद्धि का साधन भी है। इस प्रकार उपवास द्वारा आकाा तत्व को प्राप्त करने से व्यक्ति के लिये उपवास का महत्व और ज्यादा बढ़ जाता है। शारीरिक शुद्धि शारीरिक रोगो से मुक्त करती है तथा मानसिक शुद्धि मन के विकारो को दूर कर दृढ़ मानासिक शक्ति प्रदान करती है। जिससे व्यक्ति Single सुखमय जीवन व्यतीत करता है।

उपवास शरीर के अंदर संचित विजातीय द्रव , हानिकारक विष तत्व और मृत कोशिकाओं, जो शरीर को अशुद्ध करके शरीर में रोग व विकृतियाँ उत्पन्न करते है ,को शरीर से निश्कासित करके शरीर को स्वच्छ ,निरोगी , सु–ढ़ व सशक्त बनाने का साधन है। उपवास शरीर के आंतरिक शोधन व सवाच्छिकरण की उत्तम विधि है।

उपवास शरीर के अंदर संचित विजातीय द्रव , हानिकारक विष तत्व और मृत कोशिकाओं, जो शरीर को अशुद्ध करके शरीर में रोग व विकृतियाँ उत्पन्न करते है ,को शरीर से निश्कासित करके शरीर को स्वच्छ ,निरोगी , सु–ढ़ व सशक्त बनाने का साधन है। उपवास शरीर के आंतरिक शोधन व सवाच्छिकरण की उत्तम विधि है।

उपवास का आरंभ भोजन छोड़ने से होता है । उपवास के समय चूँकि शरीर को भोजन के पचने के कार्य से अवकाश मिल जाता है अत: उपवास काल में , आंतों की सफार्इ का कार्य तेजी के साथ नियमबद्धता से होने लगता है जिससे जीवनी शक्ति रोगों को शरीर से बाहर निकलने के कार्य को सुचारू रुप से व सुगमता पूर्वक करने लगती है । रोग अवस्था में लिया गया भोजन विष बन जाता है जो प्राणघातक हो सकता है।

उपवास शरीर के अंदर संचित विजातीय द्रव , हानिकारक विष तत्व और मृत कोशिकाओं, जो शरीर को अशुद्ध करके शरीर में रोग व विकृतियाँ उत्पन्न करते है ,को शरीर से निश्कासित करके शरीर को स्वच्छ ,निरोगी , सु–ढ़ व सशक्त बनाने का साधन है। उपवास शरीर के आंतरिक शोधन व सवाच्छिकरण की उत्तम विधि है । उपवास का आरंभ भोजन छोड़ने से होता है । उपवास के समय चूँकि शरीर को भोजन के पचने के कार्य से अवकाश मिल जाता है अत: उपवास काल में , आंतों की सफार्इ का कार्य तेजी के साथ नियमबद्धता से होने लगता है जिससे जीवनी शक्ति रोगों को शरीर से बाहर निकलने के कार्य को सुचारू रुप से व सुगमता पूर्वक करने लगती है । रोग अवस्था में लिया गया भोजन विष बन जाता है जो प्राणघातक हो सकता है।

ब्रहमचर्य एंव संयम-ब्रहमचर्य Meansात ब्रहम का आचारण करना, ब्रहमचर्य को थोड़ा संसारिक स्तर में सोचें तो इन्द्रिय संयम ही ब्रहमचर्य है। कामवासनाओं पर नियन्त्रण करते हुए व्यिक्त् ब्रहमचर्य व्रत का पालन करता है।

ब्रहमचर्य दो प्रकार का होता है।

  1. उपकुवार्ण – जो व्यक्ति थोड़ा शास्त्र ज्ञान करके गुरू की आज्ञा से गृहस्थाश्रम में प्रवेश करता है उसे उपकुर्वाण ब्रहमचारी कहते है। 
  2. नैश्टिक – जो व्यक्ति जीवन भर ब्रहमचर्य व्रत स्वीकार कर लेता है उसे नैश्टिक ब्रहमचारी कहते है।

ब्रहमचय व्रत के पालन में स्त्री का संग, अश्लील एंव कामाद्दीपक बातो, स्त्री के Reseller की Discussion, मैथुन सम्बन्धि कल्पना आदि व्यवहार का त्याग करना आवश्यक होता है। इनके द्वारा व्यक्ति की शक्ति का संचार होता है तथा वह अन्नत जीवन जीता है।

जिस प्रकार दूध में मक्खन, तिल में तेल उपस्थित रहता है ठीक उसी प्रकार व्यिक्त् में रज एंव वीर्य उपस्थित रहता हैै। जो तेज, शौर्य, कान्ति, मेधा And बल की उत्पत्ति करते है। ब्रहमचर्य व्रत के पालन से इनमें वृद्धि होती है। सत्संग, स्वाध्याय, उचित दिनचर्या, पथ्य भोजन, आदि के द्वारा वीर्य पात से बचा जा सकता है।

संयम-ब्रहमचर्य के पालन में संयम का विषेश महत्व है। मन, विचार, इन्द्रिय आदि संयम द्वारा व्यक्ति अपने जीवन को उन्नत बना सकता है। मन के संयम द्वारा मनुष्य की उत्पत्ति चाहे जैसे भी हुर्इ हो ,परन्तु यदि किसी मनुष्य से यह कहा जाये कि तुम्हारे पास मन नही है तो वह स्वीकार नही कर सकता । मनुष्य Word का Means ही है मन वाला । जहाँ पशुता से ऊपर उठने के लिए मननशीलता का होना जरुरी है ,वहीँ परमात्मा तक पहुँचने के लिए मन का न होना यानि उमनी भाव दशा का होना आवश्यक है ।

मन के बारे में गीता(6-33,34) में अर्जुन भगवन कृष्ण से पूछते है कि हे कृष्ण यह मन बड़ा चंचल ,प्रमथन स्वाभाव वाला ,बड़ा मजबूत ,बलवान है। इसलिए इसको वश में करना वायु को रोकने की भांति अत्यंत दुश्कर है ।

तब भगवान कृष्ण गीता (6-35) में कहते है कि हे महाबाहो, निस्संदेह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला होता है , परन्तु इसे अभ्यास और वैराग्य से वश में Reseller जा सकता है । मन ही मनुष्य के बन्धन And मोक्ष का कारण होता है। आज व्यक्ति मन का दास हो गया है। उस व्यक्ति का पूरा जीवन मन के According चलने में ही निकल जाता है वह मन की चंचलता के कारण दास्य की तरह कायर्क् करता रहता है। अत्याधिक चंचल इन्द्रिय होने के कारण मन व्यक्ति के विचारो को अपने से हटाने ही नही देता अपने में ही उलझाकर रखता है। इस पर नियन्त्रण करके व्यक्ति अपने कल्याण के लिये प्रयास करता है। वाणी And कर्म संयम स्वत: सिद्ध ेहो जाता है।एंकान्तवास, र्इश्वरोपासना आदि द्वारा मन का संयम सम्भव है।

वाणी का संयम –वाणी में संयम होना व्यक्ति के लिये अत्यावश्यक होता है। ताना मारना, गाली देना, चिढ़ाना, घृणा करा भाव प्रदर्शित करना, बुरी निगाह से देखकर मजाक करना आदि असंयमित वाणी को ही दर्शाते है। वचन को संयमित करने के लिये ‘मौन’ Single मात्र उपाया है। मौन में बहुत शक्ति होती है। मौन को शान्ति के नाम से भी जाना जा सकता है। वेद-पुराणो में भी मौन को शान्ति कहा गया है। अपनी वाणी को संयमित करने के लिये इसका पालन आवश्यक होता है। इससे व्यक्ति के सामाजिक व्यवहार एंव व्यक्तित्व में गहरा प्रभाव पड़ता है। 

कर्म का संयम-सही And गलत के भेद को समझकर उसके According कर्म करना कर्म का संयम कहलाता है। Single कर्म योगी के रास्ते में चाहे जितनी भी बांधाऐं क्यों न आये। वह अपने कर्म मार्ग से विचलित नहीं होता है। निश्काम कार्य करने से ही कर्म का संयम है। कर्म में आसक्ति नहीं होनी चाहिये। अन्यता व्यक्ति बन्धन में बंध जाता है। कार्य का संयम और कर्म बन्धन दोनो अलग-अलग चीजे है।

सकाम क्रम ही भव बंधन का कारण है। जब तक मनुष्य शारीरिक सुख का स्तर बढ़ाने के उद्देश्य से कर्म करता रहता है तब तक वह विभीन प्रकार के शरिरो में देहान्तरण करते हुए भवबंधन को बनाये रखता है।भले ही मनुष्य का मन सकाम कर्मो में व्यस्त रहे और अज्ञान द्वारा प्रभावित हो, किन्तु उसे भगवन कि भक्ति के प्रति प्रेम उत्पन करना चाहिए द्य केवल तभी वह भवबंधन से छुटने का अवसर प्राप्त कर सकता है।

जो भक्ति भाव से संयम में रहते हुए कर्म करता है, जो विषुद्ध आत्मा है और अपने मन तथा इन्द्रियों को वश मर्इ रखता है, वह All को प्रिय होता है और All उसे प्रिये होते है द्य ऐसा व्यक्ति कर्म करता हुआ भी कभी भी कर्म बंधन में नहीं बंधता।

जीव के शरीर के भीतर वस् करने वाला भगवन ब्रह्मांड समस्त जीवो के नियंता है हम कह सकते है कि शरीर रुपी नगर का स्वामी देह धारी जीव आत्मा न तोह कर्म का सृजन करता है, न लोगो को कर्म करने के लिए प्रेरित करता है, और न ही कर्म फल कि रचन करता है द्य यह सब तोह प्रकृति के गुणों द्वारा हे Reseller जाता है।

आकाश तत्व की महत्ता में संयम Single महत्वपूर्ण साधन के Reseller में कार्य करता है। मन, कम, वचन को संयमित करके व्यक्ति अपनी जीवन में श्रेष्ठ अवस्था को प्राप्त करने में सक्षम होता है। व्यक्तिगत And सामाजिक दोनों जीवन में संयम Single प्रभावकारी सहायक सिद्ध होता है।

सदाचार- सत्पुरूषो के आचरण को सदाचार कहते है जिसमें शरीर और मन दोनो परिश्रम होते है। सद्विचार का बीजारोपण मानसिक शुचिता के क्षेत्र में होता है और वह क्षेत्र तैयार करता है सदाचार। सदाचार की भाषा मौन होने के बावजूद सदाचारी सारे विश्व को अपने साथ करने की हिम्मत रखता है। सदाचार से वियाक्तित्व निर्माण भी होता है। जीवन को सार्थक And समर्थ बनाने वाली क्षमता को अर्जित करने का दूसरा नाम सदाचार ही है ।सदाचर से ही वियक्ति संयमशील ,अनुशासित और सुव्यवस्थित क्रियाकलाप अपना सकता है ।सदाचार व्यक्तित्व को पवित्र ,प्रमाणिक प्रखर बनाने कि प्रक्रिया है । सदाचार अन्तरंग जीवन में सुसंस्कारिता की सुगंध फैलाती है और बहिरंग जीवन में सभ्यता Resellerी शालीन व्यवहार में निखरती है।

मानसिक अनुशासन And सन्तुलन –मनुष्य का मन Single प्रबल शक्तिशाली यन्त्र होता है। व्यक्ति का मन जैसा सोचता है व्यक्ति वैसा होता चला जाता है। व्यक्ति मन में जैसे विचार बार-बार लाता है वैसा ही माहौल वह अपने चारो ओर तैयार करता है। मन Single गुप्त शक्ति केन्द्र है। जिसका नियन्त्रण मस्तिष्क द्वारा होता है। मनुष्य की उन्नति, अवनति, सुख-दुख, मंगल- अमंगल सबका कारण मन ही है। मनोभाव व्यक्ति को रोग्रसित करने एंव रोगयुक्त रहने का कारण होते है। क्रोध, धृणा, र्इश्र्या, भय आदि के प्रभाव से शरीर में नकारात्मक प्रभाव पड़ता है शरीर रोगग्रस्त हो जाता है। यदि व्यक्ति उत्तम स्वास्थ्य का चिन्तन करता है सकारात्मक भावो को मन में रखता है तो व्यक्ति का मन उसके शरीर में सकारात्मक प्रभाव डालता है। आकाश चिकित्सा के अन्तर्गत मानसिक अनुशासन को रोग निवारण का Single प्रवल साधन माना है, जिसके द्वारा All रोग Destroy किये जा सकत है।

विश्राम – शरीर की थकावट दूर होना, मस्तिष्क की शांति या शरीर और मन को कुछ समय के लिये विराम देना ही विश्राम कहलाता है। विश्राम का Means केवल शरीर के विश्राम तक सीमित नहीं है। शरीर और मन दोनो को विश्राम ही वास्तव में पूर्ण विश्राम कहलाता है। कार्य की थकावट को दूर करने को विश्राम कहते है परन्तु बिना थकावट के Reseller गया विश्राम शरीर और मन में निश्क्रियता को बढ़ाता है इसे आलस्य कहते है। विश्राम स्फूर्ति प्रदान करता है। विश्राम के समय मनुष्य के मस्तिश्क और शरीर के सारे अवयव इन्द्रियाँ शिथिल हो जाती है विश्राम के बाद शरीर एंव मस्तिश्क में पुन: बल और ताजगी का अनुभव होने लगता है। परिश्रम में खोर्इ हुर्इ शक्ति को दोबारा प्राप्त करने के लिये विश्राम अति आवश्यक होता है।

नींद भी विश्राम का ही समानार्थक Word है Human का जीवन दिनोदिन कठिन होता जा रहा है आधुनिकता के इस दौर में हर व्यक्ति Single Second के आगे निकलने के लिए प्रयासरत है। जिसके कारण उसकी जीवन शैली में अनेको उलझनें उत्पन हुर्इ है। इन उलझनों को दूर करने के लिए विश्राम Single कारगर उपाय के Reseller में कार्य करता है ।

जब हमारे शरीर की नस, नाडियाँ, माँसपेशियाँ शारीरिक श्रम या मानसिक श्रम के कारण थकावट महसूस करती है तब विश्राम की अति आवशयकता होती है और हमरा शरीर मन की भाषा को अच्छी तरह समझता है । जब पूरा मन सोने की इच्छा पर लगता है तब हम सो जाते है ।

हमारे शरीर में उपस्थित अन्ताश्रवी ग्रंथियों में से Single ग्रंथि है पेनिअल ग्रंथि जो कि Single मेलाटोमिन नामक हारमोंस का स्राव करती है जो कि नींद आने में सहायक होता है। यदि व्यक्ति को नींद नहीं आती है तोह इससे हम समझ सकते है कि शरीर में मेलाटोमिन कि कमी है।आकाश तत्व प्राप्त करने का Single साधन विश्राम है जो कि रोग निवारण के लिये बहुत ही महत्वपूर्ण साधन है। संसार में जितने भी रोग है उनका कारण किसी न किसी प्रकार की थकावट ही है। शरीर का लचीलापन ही उत्तम स्वास्थ्य है और कड़ापन विजातीय पदार्थ या थकावअ का सूचक है। योगमुद्रा, शवासन आदि अभ्यास योग में पूर्ण विश्राम प्राप्त करने के लिये ही बताये गये है।

उपरोक्त वर्णन से हमें आकाश तत्व का साधन And आकाश तत्व के महत्व के बारे में पूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। आकाश तत्व चिकित्सा में व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक, वैचारिक आदि पक्षो को प्रीावित करके शारीरिक, मानसिक और मनोकायिक All रोगो का निवारण सम्भव होता है, साथ ही व्यक्ति सामाजिक एंव व्यक्तिगत स्तर में भी उन्नति करता है ।

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