अश्वगंधा की खेती कैसे करें

अश्वगंधा (असगंध) जिसे अंग्रेजी में विन्टर चैरी कहा जाता है तथा जिसका वैज्ञानिक नाम विदानिया सोम्नीफेरा (Withania somnifera)है, भारत में उगार्इ जाने वाली महत्वपूर्ण औषधीय फसल है जिसमें कर्इ तरह के एल्केलॉइड्स पाये जाते है। अश्वगंधा को शक्तिवर्धक माना जाता है। भारत के अलावा यह औषधीय पौधा स्पेन, फेनारी आर्इलैण्ड, मोरक्को, जार्डन, मिस्र, पूर्वी अफ्रीका, बलुचिस्तान (पाकिस्तान) और श्रीलंका में भी पाया जाता है। भारतवर्ण में यह पौधा मुख्यतय: गुजरात, मध्यप्रदेश, राजस्थान, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा के मैदानों, महाराष्ट्र, पश्चिमी बंगाल, कर्नाटक, केरल And हिमालय में 1500 मीटर की ऊँचार्इ तक पाया जाता है। मध्य प्रदेश में इस पौधे की विधिवत् खेती मन्दसौर जिले की भानपुरा, मनासा, And जादव तथा नीमच जिले में लगभग 3000 हेक्टेयर क्षेत्रफल में की जा रही है।

अश्वगंधा के पौधे
अश्वगंधा के पौधे

अश्वगंधा के पौधे 1 से 4 फीट तक ऊँचे होते है। इसके ताजे पत्तों तथा इसकी जड़ को मसल कर सूँघने से उनमें घोड़े के मूत्र जैसी गंध आती है। संभवत: इसी वजह से इसका नाम अश्वगंधा पड़ा होगा। इसकी जड़ मूली जैसी परन्तु उससे काफी पतली (पेन्सिल की मोटार्इ से लेकर 2.5 से 3.75 अश्वगंधा के पौधे से0मी0 मोटी) होती है तथा 30 से 45 से0मी0 तक लम्बी होती है। यद्यपि यह जंगली Reseller में भी मिलती है परन्तु उगार्इ गर्इ अश्वगंधा ज्यादा अच्छी होती है।

अश्वगंधा में विथेनिन और सोमेनीफेरीन एल्केलार्इड्स पाए जाते हैं जिनका उपयोग आयुर्वेद तथा यूनानी दवाइयों के निर्माण में Reseller जाता है। इसके बीज, फल, छाल And पत्तियों को विभिन्न शारीरिक व्याधियों के उपचार में प्रयुक्त Reseller जाता है। आयुर्वेद में इसे गठिया के दर्द, जोड़ों की सूजन, पक्षाघात तथा रक्तचाप आदि जैसे रोगों के उपचार में इस्तेमाल किए जाने की अनुशंसा, की गर्इ है। इसकी पत्तियाँ त्वचारोग, सूजन And घाव भरने में उपयोगी होती हैं। विथेनिन And सोमेनीफेरीन एल्केलाइड्स के अलावा निकोटीन सोमननी विथनिनार्इन एल्केलाइड भी इस पौधे की जड़ों में पाया जाता है। अश्वगंधा पर आधारित शक्तिवर्धक औषधियाँ बाजार में टेबलेट, पावडर And कैप्सूल फार्म में उपलब्ध हैं। इन औषधियों को भारत की समस्त अग्रणी आयुर्वेदिक कम्पनियों द्वारा शक्तिवर्धक कैप्सूल या टेबलेट फार्म में विभिन्न ब्राण्डों जैसे वीटा-Single्स गोल्ड, शिलाजीत, रसायन वटी, थ्री-नॉट-थ्री, थर्टीप्लस, एनर्जिक-31 आदि के Reseller में विक्रय Reseller जाता है। इन औषधियों में लगभग 5-10 मिलीग्राम अश्वगंध पावडर का उपयोग Single कैप्सूल या टेबलेट में Reseller जाता है। जिसका बाजार विक्रय मूल्य 10 से 15 Resellerये प्रति कैप्सूल होता है, जबकि अश्वगंधा की तैयार फसल का विक्रय मूल्य मात्रा 40. 00 Resellerये से 80.00 Resellerये प्रति किलो तक मिलता है। Meansात् अश्वगंधा फसल के बिक्री मूल्य की तुलना में अश्वगंधा से तैयार औषधि का विक्रय मूल्य लगभग दस गुना अधिक होता है। मध्यप्रदेश में उत्पन्न होने वाली समस्त अश्वगंधा की फसल स्थानीय मण्डियों के माध्यम से न्यूनतम 4000 Resellerये प्रति क्विंटल पर अन्य प्रदेशों में स्थापित औषधि निर्माण कम्पनियों को भेजी जाती है। मध्यप्रदेश के मन्दसौर जिले में स्थापित Single कम्पनी द्वारा औषधि का निर्माण न करते हुए केवल अश्वगंधा पावडर को तैयार करके ही बड़ी कम्पनियों को बेचा जाता है। मध्यप्रदेश में अश्वगंधा का इतने व्यापक स्तर पर उत्पादन Reseller जा रहा है कि यहाँ पर अश्वगंधा पर आधारित औषधियों को निर्मित करने अथवा अश्वगंधा का पावडर तैयार करने की इकाइयाँ स्थापित करने की भी व्यापक संभावना है। इसके साथ-साथ इसकी व्यवसायिक खेती को भी Single लाभकारी स्वरोजगार के Reseller में अपनाया जा सकता है।

अश्वगंधा के औषधीय उपयोग 

अश्वगंधा का पत््र यके भाग-जडे़ पत्ते, फल, बीज आदि औषधीय उपयोग हेतु प्रयुक्त Reseller जाता है परन्तु सर्वाधिक औषधीय उपयोग इसकी जड़ों के हैं तथा बाजार में सर्वाधिक मांग भी इसकी जड़ों की ही है। वस्तुत: Single टॉनिक के Reseller में इसकी जड़ें प्रत्येक व्यक्ति के लिए चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, बच्चे हों या वृद्ध, सबके लिए उपयोगी होती है। अश्वगंधा की जड़ के चूर्ण का तीन महीने तक सेवन करने से कमजोर बच्चों के शरीर का सही विकास होता है तथा उनका शरीर हष्टपुष्ट बनता है। सामान्य व्यक्ति द्वारा लेने पर उनके शरीर में स्फूर्ति, शक्ति, चैतन्यता तथा कांति आ जाती है। इसी प्रकार यह All प्रकार के वीर्य विकारों को मिटा करके बल-वीर्य बढ़ाता है तथा धातुओं को पुष्ट करता है। इसके सेवन से शरीर का दुबलापन मिटता है तथा यह मांसवर्धन का कार्य भी करता है। यह नस-नाड़ियों को तो सुसंगठित करता ही है परंतु इसके सेवन से मोटापा नहीं आता। गठिया, धातु, मूत्र तथा पेट के रोगों के निवारण में इसने अपनी उपयोगिता सर्वत्र सिद्ध की है। खांसी, श्वास तथा खुजली के उपचार में भी यह उपयोगी पाया गया है। इसके नियमित सेवन से व्यक्ति में रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है, उसे लंबे समय तक चिरयौवन की प्राप्ति होती है तथा वृद्धावस्था के रोग व्यक्ति से काफी समय तक दूर रहते हैं। महिलाओं की बीमारियों में भी यह काफी उपयोगी पाया गया है। इसके नियमित उपयोग से नारी की गर्भधारण क्षमता बढ़ती है, प्रसवोपरांत उनमें दूध की वृद्धि होती है तथा उनकी श्वेत प्रदर, कमरदर्द And सामान्य शारीरिक कमजोरी आदि से जुड़ी समस्त समस्याएं दूर होती हैं।

अश्वगंधा के चिकित्सीय उपयोगों के वैज्ञानिक परिणाम जानने हेतु कर्इ शोधकर्ताओं ने विभिन्न रोगों के उपचारों हेतु इसका उपयोग Reseller है। इनमें से डॉ. कुप्पुराजन तथा उनके सहयोगियों ने वर्ष 1980 में 50 से 60 वर्ष के बीच के पुरुषों पर अश्वगंधा का प्रभाव देखने के उद्देश्य से उन्हें Single वर्ष तक अश्वगंधा के मूल का Single-Single ग्राम चूर्ण दिन में तीन बार Single वर्ष तक दिया। इस Single वर्ष के अध्ययन में उन्होंने पाया कि जिन व्यक्तियों को अश्वगंधा चूर्ण दिया गया था उनके हिमोग्लोविन तथा लाल रक्त कणों की संख्या में उन व्यक्तियों की तुलना में जिन्हें अश्वगंधा चूर्ण नहीं दिया गया था, Historyनीय सुधार देखा गया। रक्त से संबंधित इन सुधारों के साथ-साथ इन व्यक्तियों के बालों का कालापन भी बढ़ा, उनकी झुकी हुर्इ कमर की हालत में भी सुधार हुआ तथा उनके खड़े होने का तरीका भी सुधरा। अश्वगंधा के सेवन से इन व्यक्तियों का सीरम कालेस्ट्रॉल भी कम हुआ। इसी प्रकार विद्या प्रभु तथा उनके सहयोगियों नें वर्ष 1990 में पाया कि अश्वगंधा के सेवन से व्यक्ति की सामान्य बुद्धि का विकास होता है जबकि उमा देवी तथा उनके सहयोगियों ने 1993 में पाया कि अश्वगंधा कैंसर से लड़ने की क्षमता विकसित करता है। वर्ष 1982 में किए गए Single अध्ययन में बी.पी.शॉ And एल. एन. मैती ने अमलपित्त पर अश्वगंधा का प्रभाव जानने हेतु ऐसे 91 व्यक्तियों को अश्वगंधा का सेवन करवाया गया जो गैस्ट्राइटस, एसिडिटी तथा अल्सर से पीड़ित थे। इस अध्ययन के अंतर्गत इन व्यक्तियों को अश्वगंधा तथा मुलैठी का नियमित सेवन करवाने पर यह पाया गया कि इससे इन व्यक्तियों की गैस्ट्राइटस, एसिडिटी तथा अल्सर जैसे समस्याओं में Historyनीय सुधार हुआ। इससे पूर्व वर्ष 1977 में श्री एस.पी. सिंह तथा उनके सहयोगियों ने अपने शोधकार्य में पाया कि अश्वगंधा दर्दनाशक होने के साथ-साथ जोड़ों के दर्द के उपचार में भी लाभकारी है तथा इसमें सूजन कम करने के गुण भी पाए जाते हैं। अश्वगंधा के सेवन से उत्तेजना तथा अवसाद भी कम होते हैं। ये निष्कर्ष Single महत्वपूर्ण अध्ययन 1979 में श्री आर.एच. सिंह ने Single बड़े समूह पर किए गए प्रयोगों के आधार पर निकाले।

उच्च रक्तचाप पर अश्वगंधा का क्या प्रभाव पड़ता है यह जानने के लिए कर्इ शोध कार्य हो चुके हैं परन्तु इस संदर्भ में श्री सी.एल. मल्होत्रा तथा उनके सहयोगियों द्वारा वर्ष 1962 तथा 1965, And श्री अहमादा एफ द्वारा वर्ष 1990 में किए गए अध्ययन अपेक्षाकश्त ज्यादा व्यवस्थित थे। इन दोनों ही शोधकर्त्ताओं ने यह पाया कि अश्वगंधा के सेवन से विभिन्न समूहों के उच्च रक्तचाप में Historyनीय कमी आर्इ। इसी प्रकार एस.लक्कड़ ने वर्ष 1981 में घुटने के अस्थिसंधि रोग (Osteoarthitis) से पीड़ित Single समूह को Single निश्चित अवधि तक अश्वगंधा का सेवन करवाने पर यह पाया कि समूह में से 61 प्रतिशत व्यक्तियों को इससे काफी अधिक लाभ हुआ। महिलाओं की बीमारियों के उपचार में अश्वगंधा के सेवन का प्रभाव जानने हेतु र्इ. राज्यलक्ष्मी ने वर्ष 1980 में महिलाओं के Single समूह के साथ किए गए Single अध्ययन में यह पाया कि ल्यूकोरिया से पीड़ित जिन महिलाओं को अश्वगंधा का सेवन करवाया गया था उनमें से 80 प्रतिशत महिलाओं की ल्यूकोरिया की समस्या पूर्णतया समाप्त हो गर्इ तथा काफी समय तक यह दोबारा नहीं देखी गयी। इस प्रकार जहां विभिनन बीमारियों के उपचार में अश्वगंधा की उपयोगिता पार्इ गर्इ है वहीं वैज्ञानिक Reseller से संचालित किए गए अध्ययनों And शोधकार्यों में भी यह सिद्ध हो चुका है कि अश्वगंधा के नियमित सेवन से हिमोग्लोविन तथा लाल रक्त कणों की संख्या में वृद्धि होती है; इससे दुर्बलता दूर होती है; सामान्यत: व्यक्ति की बुद्धि का विकास होता है; कैन्सर से लड़ने की क्षमता विकसित होती है; गैस्ट्राइटस, एसि डिटी, अल्सर में सुधार होता है तथा स्त्रियों की बीमारियों विशेषतया ल्यूकोरिया से निजात मिलती है। इस प्रकार अश्वगंधा Single अत्यधिक उपयोगी औषधीय पौधा है जिसकी राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ती जा रही मांग की पूर्ति इसकी वृहद स्तर पर खेती करके ही की जा सकती है।

अश्वगंधा की खेती की विधि 

अश्वगंधा मूलत: शुष्क प्रदेशों का औषधीय पौधा है। संभवतया यह कहना अनुचित नहीं होगा कि वर्तमान में जिन औषधीय पौधों की खेती काफी बड़े स्तर पर हो रही है उनमें अश्वगंधा अपना प्रमुख स्थान रखता है। Single अनुमान के According वर्तमान में हमारे देश के विभिन्न भागों में लगभग 4000 हैक्टेयर के क्षेत्र में इसकी खेती हो रही है जिसके कर्इ गुना अधिक बढ़ाए जा सकने की संभावनाएं हैं। वर्तमान में इसकी व्यापक स्तर पर खेती मध्य प्रदेश के विभिन्न भागों के साथ-साथ राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक आदि राज्यों में होने लगी है। इन क्षेत्रों में हुए किसानों के अनुभवों के आधार पर अश्वगंधा की कृषि तकनीक निम्नानुसार समझी जा सकती है-

अश्वगंधा का जीवन चक्र 

अश्वगंधा Single बहुवष्रीय पौधा है तथा यदि इसके लिए निरंतर सिंचार्इ आदि की व्यवस्था होती रहे तो यह कर्इ वर्षों तक चल सकता है परंतु इसकी खेती Single 6-7 माह की फसल के Reseller में ली जा सकती है। प्राय: इसे देरी की खरीफ (सितम्बर माह) की फसल के Reseller में लगाया जाता है तथा जनवरी-फरवरी माह में इसे उखाड़ लिया जाता है। इस प्रकार इसे Single 6-7 माह की फसल के Reseller में माना जा सकता है जिसकी बिजार्इ का सर्वाधिक उपयुक्त समय सितम्बर का महीना होता है।

उपयुक्त जलवायु 

अश्वगंधा शुष्क And समशीतोष्ण क्षेत्रों का पौधा है। इसकी सही बढ़त के लिए शुष्क मौसम ज्यादा उपयुक्त होता है। प्राय: इसे अगस्त-सितम्बर माह में लगाया जाता है तथा फरवरी माह में इसे उखाड़ लिया जाता है। इस दौरान इसे दो या तीन हल्की सिंचार्इयों की Need होती है। यदि शीत ऋतु के दौरान 2-3 बारिशें निश्चत अंतराल पर पड़ जाएं तो अतिरिक्त सिंचार्इ की Need नहीं रहती तथा फसल भी अच्छी हो जाती है। वैसे इस फसल को ज्यादा सिंचार्इ की Need नहीं होती तथा यदि बिजार्इ के समय भूमि में उचित नमी (उगाव के लिए) हो तथा पौधों के उगाव के बाद बीच में (पौधे उगने के 35-40 दिन बाद) यदि Single बारिश/सिंचार्इ हो सके तो इससे अच्छी फसल प्राप्त होने की अपेक्षा की जा सकती है।

भूमि का प्रकार

Single जड़दार फसल होने के कारण अश्वगंधा की खेती उन मिट्टियों में ज्यादा सफल हो सकती है जो नर्म तथा पोली हों ताकि इनमें फसल की जड़ें ज्यादा गहरार्इ तक जा सकें। इस प्रकार रेतीली दोमट मिट्टियां तथा हल्की लाल मिट्टियां इसकी खेती के लिए उपयुक्त मानी जाती हैं प्राय: 5.6 से 8.5 पी.एच तक की मिट्टियों में इसकी सही बढ़त होती है तथा इनसे उत्पादन भी काफी अच्छा मिलता है। यह भूमि ऐसी होनी चाहिए जिसमें से जल निकास की समुचित व्यवस्था हो तथा पानी भूमि में न रुकता हो। अश्वगंधा की खेती के संदर्भ में यह बात विशेष Reseller से देखी गर्इ है कि यह भारी मश्दाओं की अपेक्षा हल्की मश्दाओं में ज्यादा उत्पादन देती है। प्राय: देखागया है कि भारी मश्दाओं में पौधे तो काफी बड़े-बड़े हो जाते हैं (हर्बेज बढ़ जाती है) परंतु जड़ों का उत्पादन अपेक्षाकश्त कम ही मिलता है। इस प्रकार अश्वगंधा की खेती के लिए कम उपजाऊ, उचित जल निकास वाली, रेतीली-दोमट अथवा हल्की लाल रंग की मिट्टी जिसमें पर्याप्त जीवांश की मात्रा हो, उपयुक्त मानी जाती है।

अश्वगंधा की प्रमुख उन्नतशील किस्में 

अश्वगंधा की मुख्यतया दो किस्में ज्यादा प्रचलन में हैं जिन्हें ज्यादा उत्पादन देने वाली किस्में माना जाता है ये किस्में हैं- जवाहर असगंध-20, जवाहर असगंध-134 तथा डब्ल्यू. एस.-90-100, वैसे वर्तमान में अधिकांशत: जवाहर असगंध-20 किस्म किसानों में ज्यादा लोकप्रिय है।

अश्वगंधा की रासायनिक सरंचना 

अश्वगंधा में अनेकों प्रकार के एल्केलाइड्स पाए जाते हैं जिनमें मुख्य हैं- विथानिन तथा सोमनीफेरेन। इनके अतिरिक्त इनके पत्तों में पांच एलकेलाइड्स (कुल मात्रा 0.09 प्रतिशत) भी पाए जाने की पुष्टि हुर्इ है, हालांकि अभी उनकी सही पहचान नहीं हो पार्इ है। इनके साथ-साथ विदानोलाइड्स, ग्लायकोसाइड्स, ग्लूकोज तथा कर्इ अमीनों एसिड्स भी इनमें पाए गए हैं। क्लोनोजेनिक एसिड, कन्डेन्स्ड टैनिन तथा फ्लेवेलनायड्स की उपस्थिति भी इसमें देखी गर्इ है। अश्वगंधा का मुख्य उपयोगी भाग इसकी जड़ें होती हैं। Indian Customer परिस्थितियों में प्राप्त होने वाली अश्वगंधा की जड़ों में 0.13 से 0.31 प्रतिशत तक एल्केलाइड्स पाए जाते हैं (जबकि किन्हीं दूसरी परिस्थितियों में इनकी मात्रा 4.3 प्रतिशत तक भी देखी गर्इ है) इसकी जड़ों में से जिन 13 एल्केलाइड्स को पृथक Reseller जा सकता है, वे हैं- कोलीन, ट्रोपनोल, सूडोट्रोपनोल, कुसोकाइज्रीन, 3-ट्रिगलोज़ाइट्रोपाना, आइसोपैलीटरीन, एनाफ्रीन, एनाहाइग्रीन, विदासोमनाइन तथा कर्इ अन्य स्ट्रायोयडल लैक्टोन्स। एल्केलाइड्स के अतिरिक्त इसकी जड़ों में स्टॉर्च, रीड्यूसिंग सुगर्म, हैन्ट्रियाकोन्टेन, ग्लाइकोसाइड्स, डुल्सिटॉल, विदानिसिल, Single अम्ल तथा Single उदासीन कम्पाउन्ड भी पाया जाता है

बिजार्इ से पूर्व खेती की तैयारी 

यद्यपि वतर्मान में अश्वगंधा की खेती कर रहे अधिकांश किसानों द्वारा इस फसल के संदर्भ में केार्इ विशेष तैयारी नहीं की जाती तथा इसे Single ‘‘नॉनसीरियस’’ फसल के Reseller में लिया जाता है, परंतु व्यवसायिकता तथा अधिकाधिक उत्पादन की दृष्टि से यह आवश्यक होगा यदि All कृषि क्रियाएं व्यवस्थित Reseller से की जाए। इसके लिए First जुलार्इ-अगस्त माह में Single बार आड़ी-तिरछी जुतार्इ करके खेत तैयार कर लिया जाता है। तदुपरांत प्रति Singleड़ Single से दो ट्राली गोबर खाद डालना फसल की अच्छी बढ़त के लिए उपयुक्त रहता है। यद्यपि अश्वगंधा की फसल को खाद की अधिक मात्रा की Need नहीं पड़ती परंतु फिर भी 1 से 2 टन प्रति Singleड़ तो खाद डालनी ही चाहिए। हां यदि पूर्व में ली गर्इ फसल में ज्यादा खाद डाला गया हो तो इसके पूर्वावशेष (रैसीड्यूज़) से भी काम चलाया जा सकता है। खाद खेत में मिला दिए जाने के उपरान्त खेत में पाटा चला दिया जाता है।

अश्वगंधा के बीज

बिजार्इ की विधि 

अश्वगंधा की बिजार्इ दोनों प्रकार से की जा सकती है- (क) सीधी खेत में बुआर्इ तथा (ख) नर्सरी बनाकर पौधों को खेत में ट्रांसप्लांट करना। इन दोनों विधियों के description निम्नानुसार हैं-

(क) सीधी खेत में बिजार्इ : सीधी खेत में बिजार्इ करने के विधि में मुख्यतया दो प्रक्रियाएं अपनार्इ जाती हैं- (क) छिटकवां विधि तथा लाइन से बिजार्इ। ज्यादातर किसान इनमें से छिटकवां विधि अपनाते हैं। क्योंकि अश्वगंधा के बीज काफी हल्के होते हैं अत: इनमें पांच गुना बालू रेत मिला ली जाती है। तदुपरांत खेत में हल्का हल चला करके अश्वगंधा बालू मिश्रित बीजों को खेत में छिड़क दिया जाता है तथा ऊपर से पाटा दे दिया जाता है। Single Singleड़ के लिए 5 कि.ग्रा. बीज पर्याप्त होते हैं। अश्वगंधा के पके सूख्ूखे फल अश्वगंधा के सूख्ूखे कच्चे फल लाइन से बिजार्इ करने की दशा में गेहूं अथवा सोयाबीन की बिजार्इ की तरह सीड ड्रिल, देशी हल अथवा दुफन से बिजार्इ की जाती है। दोनों में से विधि चाहे जो भी अपनाएं परंतु यह ध्यान रखना चाहिए कि बीज जमीन में ज्यादा गहरा (3 से 4 से.मी. से ज्यादा गहरा नहीं) न जाए। इस विधि से बिजार्इ करने पर लाइन से लाइन की दूरी 30 से.मी. तथा पौधे तथा पौधे से पौधे की दूरी 4 से.मी. रखनी उपयुक्त रहती है।

(ख) नर्सरी बनाकर खेत में पौधे लगाना : इस विधि से बिजार्इ करने की दशा में First रेज्ड नर्सरी बेड्स बनाए जाते हैं जिन्हें खाद आदि डालकर अच्छी प्रकार तैयार Reseller जाताहै। तदुपरांत इन बेड्स में 4 कि.ग्रा. प्रति Singleड़ की दर से अश्वगंधा का बीज डाला जाता है जिसे हल्की मिट्टी डाल करके दबा दिया जाता है। लगभग 10 दिनों में इन बीजों का उगाव हो जाता है तथा छ: सप्ताह के उपरांत जब ये पौधे लगभग 5-6 सें.मी. ऊंचे हो जाए तब इन्हें बड़े खेत में ट्रांसप्लांट कर दिया जाता है।

कौन सी विधि ज्यादा उपयुक्त है- सीधी बिजार्इ अथवा नर्सरी विधि? 

यद्यपि नर्सरी में पौधे तैयार करके इनको खते में ट्रासं प्लाटं करना कर्इ मायनों में लाभकारी हो सकता है परंतु जहां तक उत्पादन तथा जड़ों की गुणवत्ता का प्रश्न है तो सीधी बिजार्इ से प्राप्त उत्पादन ज्यादा अच्छा होना पाया गया है। विभिन्न अनुसंधानों में यह देखा गया है कि सीधी बिजार्इ करने पर मूसला जड़ की वृद्धि अच्छी होती है तथा बहुधा Single शाखा वाली सीधी जड़ प्राप्त होती है। जबकि रोपण विधि से तैयार किए गए पौधों में देखा गया है इनमें मूसला जड़ का विकास तो रुक जाता है जबकि दूसरी सहायक जड़ों का विकास अधिक होता है। इस प्रकार के पौधों में सहायक जड़ों की औसतन संख्या 8 तक पार्इ गर्इ है। इसी प्रकार सीधी बिजार्इ करने पर जड़ों की औसतन लंबार्इ 22 से.मी. तथा मोटार्इ 12 मि.मीतक पार्इ गर्इ है जबकि रोपण विधि से तैयार पौधेां में जड़ों की औसतन लंबार्इ 14 सें.मी. तथा मोटार्इ 8 मि.मी. तक पार्इ गर्इ है। इसके अतिरिक्त यह भी देखा गया है कि सीधी बिजार्इ करने पर जड़ों में रेशों की मात्रा कम आती है तथा तोड़ने पर ये जड़े आसानी से टूट जाती हैं जबकि रोपण विधि से तैयार पौधों की जड़ों में रेशा अधिक पाया जाता है तथा ये जड़ें आसानी से टूट नहीं पाती हैं। इस प्रकार इन अनुसंधानों के परिणामों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जाता है कि अश्वगंधा की बिजार्इ हेतु रोपण (नर्सरी) विधि की अपेक्षा सीधी बिजार्इ करना प्रत्येक दृष्टि से ज्यादा लाभकारी है। अत: किसानों द्वारा यही विधि अपनाने की सलाह दी जाती हैं।

बिजार्इ से पूर्व बीजों का उपचार 

अश्वगंधा के सदंर्भ में डार्इ बकै अथवा सीड रॉटिंग बीमारियां काफी सामान्य हैं तथा इनसे उगते ही पौधे झुलसने से लगते हैं। जिससे प्रारंभ में ही पौधों की संख्या काफी कम हो जाती है। इस रोग के निवारण की दृष्टि से आवश्यक होगा यदि बीजों का उपयुक्त उपचार Reseller जाए। इसके लिए बीजों का कैप्टॉन, थीरम अथवा डायथेन एम-45 से 3 ग्राम प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से उापचार करने से इन रोगों से बचाव हो सकता है। जैविक विधियों के अंतर्गत बीज का गौमूत्र से उपचार Reseller जाना उपयोगी रहता है। बायोवेद शोध संस्थान, इलाहाबाद ने अपने शोध प्रयोगों के उपरान्त पाया कि ट्राइकोडरमा 5 ग्राम प्रति कि.ग्रा. बीज का शोधन सबसे उपयुक्त है बायोनीमा 15 कि.ग्रा. प्रति Singleड़ के प्रयोग जहां Single ओर विभिन्न रोगों के नियन्त्रण में सहायक हैं वहीं जड़ों के विकास में भी सहायक है से बीज उपचारित करने के भी काफी अच्छे परिणाम देखे गये हैं।

पौधों का विरलन 

सीधी विधि विशेषतया छिटकवां विधि से बिजार्इ करने की दशा में प्राय: पौधों का विरलीकरण करना आवश्यक हो जाता है। यह विरलीकरण बिजार्इ के 25-30 दिन के बाद कर दिया जाना चाहिए। यह विरलीकरण इस प्रकार Reseller जाना चाहिए कि पौधे से पौधे की दूरी 4 से.मी. तथा कतार से कतार की दूरी 30 से.मी. से ज्यादा न रहे।

खरपतवार नियत्रंण 

अन्य फसला ें की तरह अश्वगंधा की फसल में भी खरपतवार आ सकते हैं जिनके नियंत्रण हेतु हाथ से ही निंरार्इ-गुड़ार्इ की जानी चहिए। यह निंरार्इ कम से कम Single बार अवश्य की जानी चाहिए तथा जब पौधे लगभग 40-50 दिन के हो जाएं तब खेत की हाथ से निंरार्इ कर दी जानी चाहिए। पौधों के विरलीकरण तथा खरपतवार नियंत्रण का कार्य साथ-साथ भी Reseller जा सकता है।

खाद की Need 

अश्वगंधा की फसल को ज्यादा खाद की Need नहीं पड़ती तथा यदि इससे पूर्व में ली गर्इ फसल में खाद का काफी उपयोग Reseller गया हो तो उस फसल में प्रयुक्त खाद के बचाव से ही अश्वगंधा की फसल ली जा सकती है। इस फसल को ज्यादा नाइट्रोजन की Need नहीं पड़ती क्योंकि ज्यादा नाइट्रोजन देने से पौधे पर ‘‘हर्बेज’’ तो काफी आ सकती है परंतु जड़ों का पर्याप्त विकास नहीं हो पाता। वैसे इस फसल के लिए जो खाद की प्रति Singleड़ अनुशंसित मात्रा है, वह है- 8 किग्रा. नाइट्रोजन, 24 कि.ग्रा. फास्फोरस तथा 16 कि.ग्रा. पोटाश। इन अवयवों की पूर्ति जैविक विधि से तैयार खादों से भी की जा सकती है।

फसल से संबंधित प्रमुख बीमारियां तथा रोग 

अश्वगंधा की फसल में मुख्यतया माहू-मोला का प्रकोप हो सकता है जिसे मैटासिस्टोक्स की 1.50 मिली मात्रा Single लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करने से नियंत्रित Reseller जा सकता है। इसके अतिरिक्त होने वाले रोग अथवा बीमारियाँं जिनमें जड़ सड़ने, पौध गलन तथा झुलसा रोग प्रमुख हैं (विशेषतया जब मौसम में आर्दता तथा गर्मी अधिक हो) के नियंत्रण का सर्वाधिक उपयुक्त उपचार है बीजों को उपचारित करके बिजार्इ करना जिसका description पीछे दिया गया है। इसके उपरांत भी जब पौधे बड़े हो जाएं (20-25) दिन के तो 15-15 दिन के अंतराल पर गौमूत्र अथवा डयथेन एम-45 का छिड़काव Reseller जाना फसल को अधिकांश रोगों से मुक्त रखेगा। अश्वगंधा की फसल पर कीट व्याधी का कोर्इ विशेष असर नहीं होता है। कभी-कभी इस फसल में माहू कीट तथा पौध झुलसा व पर्ण झुलसा लग सकता है जिसके नियंत्रण हेतु क्रमश: मैलाथियान या मोनोक्रोटोफास And बीज उपचार के अलावा डायथेन एम-45, 3 ग्राम प्रति लीटर पानी घोल में दोयम दर्जेे की जड़ अच्छी गुण्ुणवत्ता वाली जड़ अश्वगंधा की पूण्ूर्ण तिकसित जड़ तैयार कर बुआर्इ के 30 दिन के उपरान्त छिड़काव Reseller जा सकता है। Need पड़ने पर 15 दिन के अन्दर पुन: छिड़काव Reseller जाना उपयोगी होता है।

सिंचार्इ की व्यवस्था 

अश्वगंधा काफी कम सिंचार्इ में अच्छी उपज देने वाली फसल है। Single बार अच्छी प्रकार उग जाने (बिजार्इ के समय भूमि में पर्याप्त नमी होनी चाहिए) के उपरांत बाद में इसे मात्र दो सिंचार्इयों की Need होती है- Single उगने के 30-35 दिन के बाद तथा दूसरी उससे 60-70 दिन के उपरांत। इससे अधिक सिंचार्इ की Need इस फसल को नहीं होती।

फसल का पकना तथा जडा़ें की खुदार्इ (हारवेस्टिगं) 

बिजार्इ के लगभग 5-5) माह के उपरांत (प्राय: फरवरी माह की 15 तारीख के करीब) जब अश्वगंधा की पत्तियांँ पीली पड़ने लगे तथा इनके ऊपर आए फल (बेरिया) पकने लगे अथवा फलों के ऊपर की परत सूखने लगे तो अश्वगंधा के पौधों को उखाड़ लिया जाना चाहिए। यदि सिंचार्इ की व्यवस्था हो तो पौधों को उखाड़ने से पूर्व खेत में हल्की सिंचार्इ दी जानी चाहिए। हालांकि यदि सिंचार्इ की व्यवस्था हो तथा फसल को निरंतर पानी दिया जाता रहे तो पौधे हरे ही रहेंगे परंतु फसल को अधिक समय तक खेत में लगा नहीं रहने दिया जाना चाहिए क्योंकि इससे जड़ों में रेशे की मात्रा बढ़ेगी जोकि फसल की गुणवत्ता को प्रभावित करेगी। उखाड़ने के तत्काल बाद जड़ों को पौधों (तने) से अलग कर दिया जाना चाहिए तथा इनके साथ लगी रेत मिट्टी को साफ कर दिया जाना चाहिए। काटने के उपरांत इन्हें लगभग 10 दिनों तक छाया वाले स्थान पर सुखाया जाता है तथा जब ये जड़ें तोड़ने पर ‘‘खट’’ की आवाज से टूटने लगें तो समझ लिया जाना चाहिए कि ये बिक्री के लिए तैयार हैं।

जडा़ें की ग्रेडिंग

सुखाने के बाद यूं तो वैसै भी जडें बेची जा सकती हैं परंतु उत्पादन का सही मूल्य प्राप्त करने की दृष्टि से यह उपयुक्त होता है कि जड़ों को ग्रेडिंग करके बेचा जाए। इस दृष्टि से जड़ों को निम्नानुसार 3-4 ग्रेड़ों में श्रेणीक त Reseller जा सकता है-

  • ‘अ’ ग्रेड़ – इस श्रेणी में म ख्यतया जड का ऊपर वाला भाग आता है जो प्राय: चमकीला तथा हल्के छिलके वाला होता है। जड़ का यह भाग अंदर से ठोस तथा सफेद होता है तथा इसमें स्टार्च अधिक तथा एल्केलाइड्स कम पाए जाते हैं। इस भाग की औसत लंबार्इ 5 से 7 सेमी. तथा इसका व्यास 10 से 12 मि.मी. रहता है।
  • ‘ब’ ग्रेड़ – इस श्रेणी में जड का बीच वाला हिस्सा आता है। जड़ के इस भाग की औसतन लंबार्इ 3.5 से.मी. तथा इसका व्यास 5 से 7 मिमी. रहता है। इस भाग में स्टार्च कम होती है जबकि इसमें एल्केलाइड्स ज्यादा होते हैं।
  • ‘स’ ग्रेड़ – जड़ के निचले आखिरी किनारे का श्रेणीकरण ‘स’ गे्रड में Reseller जाता है।

इसके अतिरिक्त पतले रेशे भी इसी श्रेणी में आते हैं। इस भाग में एल्केलाइड्स की मात्रा काफी अधिक होती हैं। तथा ‘‘Single्सट्रेक्स’’ निर्माण की दृष्टि से जड़ का यह भाग सर्वाधिक उपयुक्त होता है। इसके अतिरिक्त अधिक मोटी, ज्यादा काष्ठीय, कटी-फटी तथा खोखली जड़ों तथा उनके टुकड़ों को ‘द’ श्रेणी में रखा जाता है। इस प्रकार श्रेणीकरण कर लेने से फसल का अच्छा मूल्य मिल जाता है।

अश्वगंधा के जडें

उत्पादन तथा प्राप्तियां

मध्य प्रदेश के मंदसौर तथा नीमच जिले में किसानों द्वारा बड़े स्तर पर की जा रही अश्वगंधा की फसल के परिणाम दर्शाते हैं कि यहां पर किसान औसतन Single से डेढ़ क्विंटल जड़ें प्रति Singleड़ प्राप्त करते हैं। हालांकि वस्तुस्थिति देखने पर यह अंदाजा स्वयं ही लगाया जा सकता है कि इन क्षेत्रों में अश्वगंधा की खेती अधिकांशत: ‘‘नॉन सीरियसली’’ की जाती है तथा उपयुक्त कृषि क्रियाओं पर कोर्इ विशेष ध्यान नहीं दिया जाता। यदि समस्त उपयुक्त कृषि क्रियाएं अपनाते हुए अश्वगंधा की खेती की जाए तो Single Singleड़ से औसतन 2 क्विंटल जड़ें किसान को प्राप्त हो सकती हैं। इनके साथ-साथ प्रति Singleड़ लगभग 25 से 30 कि.ग्रा. बीज भी किसान को प्राप्त होता है। जहां तक इससे होने वाली प्राप्तियों का प्रश्न है तो अश्वगंधा की फसल से तीन प्रकार की प्राप्तियां हो सकती हैं- जड़ की बिक्री से प्राप्तियां, बीज की बिक्री से प्राप्तिया। Single औसत दर के According अश्वगंधा की जड़ें 5500 रु. प्रति क्विंटल की दरसे बिक सकती है जिनसे 1.5 क्विंटल उत्पादन होने पर लगभग 8250 रु. की प्राप्तियां होंगी। बीज की बिक्री 40 रु. प्रति किग्रा. की दर से लगभग 1000रु. की प्राप्ति होती है। हालांकि अभी अश्वगंधा के पत्तों का निश्चित बाजार नहीं है तथा जरूरी नहीं कि इनकी मांग हो ही परंतु यदि इनकी बिक्री हो जाए तो लगभग 1000 से 1500 रु. की अतिरिक्त प्राप्तियां हो सकती हैं। वैसे जड़ तथा बीज की बिक्री से प्रति Singleड़ लगभग 9250 रु. की प्राप्तियां हो सकती हैं जिसमें से यदि 1545 रु. का व्यय कम कर दिया जाए तो किसान को इस Single Singleड़ की फसल से लगभग 7705 रु. का शुद्ध लाभ होगा।

अश्वगंधा की बिक्री की व्यवस्था 

अश्वगंधा उन कछु गिनी-चनु ी फसलों में से है जिनका विपणन आसान तथा सुनिश्चित है। Single तरफ जहां स्थानीय बाजारों में लगभग अधिकांश वैद्य इसकी खरीदी करते हैं वहीं अश्वगंधा का Single्सट्रेक्ट बनाने वाली कर्इ इकाइयां इसके थोक खरीददार हैं। इसके अतिरिक्त मध्य प्रदेश के नीमच तथा मंदसौर जिलों में यह कृषि उपज मंडियों के माध्यम से भी बेचा जा सकता है। इस प्रकार अश्वगंधा का विपणन काफी आसान है।

अश्वगंधा की खेती के आर्थिक पहलू

छ: माह की अवधि की अश्वगंधा की खेती पर प्रति Singleड़ लगभग 6,000/- रू0 की लागत आती है जबकि इसके उत्पादों से लगभग 20,000/- रू. की प्राप्तियाँ होती है। यदि खेती कार्बनिक पद्धति से की जाए तो फसल की 30 प्रतिशत अधिक कीमत मिल सकती है। अश्वगंधा Single बहुउपयोगी औषधीय फसल है जिसे कृषक वर्ग व्यवसायिक खेती के Reseller में अपनाकर अधिकाधिक लाभ प्राप्त कर सकता है। अश्वगंधा की खेती से सम्बन्धित प्रति Singleड आय-व्यय का ब्यौरा क्र. लागत का ब्यौरैरा 1. खेत की तैयारी पर व्यय 500/- 2. बीज की लागत 500/- (5 किग्रा0 बीज 500 रू0 प्रति किग्रा0 की दर से) 3. खाद तथा कीटनाणकों की लागत 500/- 4. पानी देने निरार्इ, गुड़ार्इ तथा पौध संरक्षण पर व्यय 500/- 5. जड़ें इकट्ठी कर साफ करने, ग्रेडिंग करने तथा पैकिंग पर व्यय 1,000/- योगेगेग 3,000/- ख. प्राप्तियाँ 1. जड़ों की बिक्री से प्राप्तियाँ 12,000/- (तीन कुन्तल जड़ें 4,000/-रू0 प्रति कुन्तल की दर से) 2. बीजों के Reseller में प्राप्तियाँ 2,000/- (20 किग्रा0 बीज 100/- रू0 प्रति किग्रा0 की दर से) योगेगेग 14,000/- ग. लाभ प्र्िर्िरति Singleड़ 11,000/-

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