अवसाद का Means, लक्षण, प्रकार And कारण

मनोदशा विकृतियों में अवसाद Single प्रमुख रोग है। विषाद या अवसाद से आशय मनोदशा में उत्पन्न उदासी से होता है अथवा यह भी कहा जा सकता है कि अवसाद से तात्पर्य Single नैदानिक संलक्षण से है, जिसमें सांवेगिक अभिप्रेरणात्मक, व्यवहारात्मक, संज्ञानात्मक And दैहिक या शारीरिक लक्षणों का मिश्रित स्वReseller होता हे। इसे ‘‘ नैदानिक अवसाद’’ (clinical Depression) की संज्ञा भी दी जाती है। अत: स्पष्ट है कि यहाँ अवसाद का Means मनोदशा में उत्पन्न सामान्य उदासी से न होकर नैदानिक अवसाद से है।

अवसाद के लक्षण –

1. सांवेगिक लक्षण –

अवसाद ग्रस्त लोग सांवेगिक दृष्टि से अत्यन्त नकारात्मक हो जाते हैं। अवसाद के सांवेगिक लक्षणों में उदासी, निराशा, दु:खी रहना, लज्जालूपन, बेकारी का भाव, दोषभाव इत्यादि प्रमुख है। इन All लक्षणों में उदासी सर्वाधिक सामान्य सांवेगिक लक्षण है। मनोवैज्ञानिकों ने अपने अध्ययन के आधार पर बताया है कि अवसाद की स्थिति में कुछ लोग तो इतने ज्यादा उदास And दु:खी हो जाते है कि बिना रोये किसी से बात ही नहीं कर पाते है। अवसाद ग्रस्त रोगी में उदासी के साथ – साथ चिन्ता का भाव भी अत्यन्त प्रधान होता है। ऐसे व्यक्ति की जिन्दगी के प्रति अभिरूचि समाप्त होने लगती है। इन्हें अपना जीवन अपने शौक, परिवार All Meansहीन नजर आते है। जीने की अभिप्रेरणा खत्म होने लगती है। यहाँ तक की दैनिक क्रियाकलाप जैसे भूख, प्यास, नींद, यौन आदि में भी इन्हें कोर्इ रूचि नहीं रह जाती है और इनमें निश्क्रियता का भाव प्रबल होने लगता है। प्रमुख मनोवैज्ञानिकों क्लार्क, बेक And बेक (1994) के According -अवसाद रोगियों में 92 प्रतिशत ऐसे रोगी देखने को मिलते हैं, जिनकी अपने जीवन में कोर्इ मुख्य अभिरूचि नहीं रह जती है And 64 प्रतिशत रोगी ऐसे होते हैं, जिनमें दूसरों के प्रति भावशून्यता उत्पन्न हो जाती है।

2. संज्ञानात्मक लक्षण – 

 मनोवैज्ञानिकों ने अपने अध्ययन के आधार पर यह भी बताया है कि अवसाद में रोगी का विचार तंत्र या संज्ञानात्मक क्रियायें नकारात्मक ढंग से बहुत बुरी तरह प्रभावित होती है। अवसादी व्यक्ति का अपने प्रति And अपने जीवन के प्रति दृष्टिकोण पूरी तरह नकारात्मक हो जाता है। वह स्वयं को हीन, बेकार And अयोग्य समझता है और प्रत्येक कार्य And स्थिति में स्वयं में कमियाँ देखता है। उसमें आत्मदोष का भाव प्रबलता से विद्यमान रहता है। ऐसे लोग असफल होने पर उसकी पूरी जिम्मेदारी स्वयं पर लेते हैं। इसके साथ ही अपने भविष्य को लेकर भी इनका दृष्टिकोण उदासी And निराशा से भरा होता हैै और अपनी बातों को सही सिद्ध करने के लिये ये लोगों को विभिन्न तर्क भी देते हैं। अवसादी लोगों की मानसिकता इस प्रकार की हो जाती है कि इन्हें लगता है, इनकी मानसिक क्षमतायें धीरे – धीरे कम होती जा रही हैं। तब इन्हें कुछ भी ठीक तरह से याद नहीं रहता। ये किसी भी समस्या का समाधान नहीं कर सकते, ठीक प्रकार से निर्णय लेने में भी अक्षम है इत्यादि। इस प्रकार स्पष्ट है कि अवसादी व्यक्ति का चिन्तन हर दृष्टि से नकारात्मक होने लगता है।

3. अभिप्रेरणात्मक लक्षण  –

अवसादी रोगियों की अपनी दिनचर्या के कार्यो और जिन्दगी के प्रति अभिरूचि समाप्त होने लगती है और इसलिये ये जीवन को ही समाप्त करने का प्रयास करने लगते है। कहने का आशय यह है कि अवसादग्रस्त रोगियों में आत्महत्या की प्रवृृत्ति अत्यन्त प्रधान Reseller से देखने को मिलती हेै। कोरियेल And विनोकुर (1992) के मतानुसार ‘‘ आत्महत्या करने वालों में से आधे ऐसे होते हैं, जो अवसादी होते हैं। ‘‘ अवसादग्रस्त व्यक्तियों में स्वेच्छा, पहल करने की प्रवृत्ति, प्रणोद आदि की कमी हो जाती हैे। ऐसे लोगों का कार्य करने के लिये प्रेरित करने हेतु अत्यन्त दबाव डालना पड़ता है। ये स्वेच्छा से किसी भी काय्र को करने के लिये तैयार नहीं होते है। ऐरोन बेक ने ऐसी स्थिति को ‘‘इच्छाओं का पक्षाघात (Paralysis of will) नाम दिया है।’’

4. व्यवहारपरक लक्षण  –

मनश्चिकित्सकों ने अवसादी लोगों के कुछ व्यवहारपरक लक्षण भी बताये हैं। जैसे – ऐसे लोग बहुत धीरे – धीरे चलते हैं, मानो उनमें चलने के लिये भी न तो रूचि है और न ही ऊर्जा। इसके अतिरिक्त ये बोलते भी बहुत धीरे – धीरे हैं और किसी से भी सीधे आँखें मिलाकर बात नहीं कर पाते। ये या तो आँखें झुकाकर अथवा मुँह फेरकर बात करते है। वैवसर (1974) के According – ‘‘ विषादी लोग अविषादी व्यक्तियों की अपेक्षा साक्षात्कारकर्ता के साथ सीधे आँख सम्पर्क स्थापित करके बातचीत नहीं करते हैं तथा प्राय: मुँह फरकर किसी प्रश्न का जवाब देते देखे जाते हैैं।’’ इस प्रकार स्पष्ट है कि अवसादी व्यक्तियों में निश्क्रियता की प्रधानता होने से उनकी उत्पादकता का स्तर अत्यन्त कम हो जाता है।

4. दैहिक अथवा शारीरिक लक्षण  –

अवसाद की स्थिति में रोगी का शरीर भी बहुत बुरी तरह प्रभावित होता है। अवसाद की स्थिति में पाये जाने वाले प्रमुख शारीरिक लक्षण हेैं –

  1. भूख तथा नींद में कमी अथवा क्षुब्धता
  2.  सिरदर्द 
  3. अपच 
  4. शक्तिहीनता 
  5. कब्ज 
  6. थकान
  7.  छाती में दु:खद संवेदन
  8. पूरे शरीर में दर्द इत्यादि

कभी-कभी शरीर में इन लक्षणों का उत्पन्न होना मेडिकल समस्या मान ली जाती है। अत: अवसाद के शारीरिक लक्षणों को गंभीरता से देखना और समझना आवश्यक है। अवसादी व्यक्तियों में पायी जाने वाली थकान का स्वReseller ऐसा होता है कि बहुत समय तक सोने तथा आराम करने के बावजूद वह दूर नहीं होती।

काजेस And उनके सहयोगियों के According -’’अवसादी व्यक्तियों में अन्य दैहिक लक्षणों की तुलना में भूख And नींद में कमी या क्षुब्धता प्रमुख होती है।’’ अत: ये स्पष्ट है कि अवसाद ग्रस्त रोगियों को प्राय: अनिद्रा की शिकायत रहती है, किन्तु अवसाद के कुछ ऐसे केस भी देखने में आये हैं, जिनमें रोगियों का बहुत ज्यादा नींद आती हेै, किन्तु ऐसे उदाहरण प्राय: कम देखने को मिलते हैं।

वालेनगर के मतानुसार (1998) – ‘‘ करीब 9 प्रतिशत अवसादी व्यक्ति ऐसे भी होते हैं, जिन्हें नींद काफी आती है। इस प्रकार स्पष्ट है कि अवसाद ग्रस्त व्यक्तियों में अनेक प्रकार के लक्षण देखने को मिलते हैं, जिनका स्वReseller सांवेगिक, अभिप्रेरणात्मक, संज्ञानात्मक, व्यवहारपरक And दैहिक है। अवसाद की स्थिति में व्यक्ति की मानसिक स्थिति में इतना ज्यादा नकारात्मक परिवर्तन होता है कि इससे उसकी मानसिक क्रियाओं के साथ-साथ समूचा शारीरिक तंत्र And व्यवहार भी प्रभावित होने लगता है।

अवसाद के प्रकार –

अवसाद या अवसादी विकृति को Single ध्रुवीय अवसाद भी कहा जाता है। मनश्चिकित्सकों And मनोरोग विशेषज्ञों ने Singleधु्रवीय अवसाद विकृति के दो प्रकार बताये हैं – 1. डायस्थाइमिक विकृति (Dysthymic Disorder) 2. बड़ा अवसादी विकृृति (Major Depressive disorder)

1. डायस्थाइमिक विकृति  –

डायस्थाइमिक Word ग्रीक Word ‘‘डायस्थामिया’’ (Dysthmia) से बना है, जिसका Means है – अग्ण अथवा दोषपूर्ण मनोदशा’’ (Diseased mood) डायस्थाइमिक Single ऐसी विशदी विकृति है, जिसमें अवसादी मनोदशा का स्वReseller चिरकालिक होता है Meansात् रोगी गत कर्इ वर्षो से अवसाद से ग्रस्त रहता है। इसलिये किसी भी अवसादी मनोदशा को डायस्थाइमिक विकृति तभी माना जा सकता है, जब अवसाद के लक्षण व्यक्ति में पिछले कर्इ सालों से मौजूद हों। इस विकृति में ऐसा भी संभव है कि कुछ दिनों के लिये बीच – बीच में व्यक्ति की मनोदशा थोड़ी सामान्य लगे, किन्तु मूलReseller में उनमें अवसादी मनोवृत्ति प्रबल Reseller से तब भी बनी रहती है। डायस्थाइमिक रोग में रोगी पूरे दिन अवसादी मनोवृत्ति से ग्रस्त रहते हैं। इन रोग के कुछ प्रमुख लक्षण –

  1. अत्यधिक नींद आना या बहुत कम नींद आना। 
  2. भोजन से संबधित कठिनार्इयाँ। 
  3. थकान का लगातार बने रहना। 
  4. निर्णय लेने में कठिनार्इ। 
  5. Singleाग्र न हो पाना। 
  6. उदासी
  7. निराशा का भाव 
  8. आत्मदोष And आत्महीनता का भाव आदि ।

इस रोग की अवधि 2 – 20 वर्ष तक की मानी गर्इ है। केलर (1990) के According . इसकी माध्यिका अवधि (Median Duration) करीब 5 वर्षो की होती है।’’ डायस्थाइमिक रोग प्राय: 18 – 64 वर्ष की आयु वाले व्यक्तियों में देखने को मिलता है। इसके बाद इसका प्रभाव प्राय: कम होते जाता है। यह रोग दूसरी किसी भी मनोदशा विकृति के साथ उत्पन्न हो सकता है। परन्तु प्राय: यह बड़ा अवसादी विकृति (Major Depressive disorder) के साथ अधिक उत्पन्न होते पाया जाता है। यदि कोर्इ रोगी डायस्थाइमिक रोग के साथ-साथ मुख्य या बड़ा अवसादी विकृति से भी ग्रस्त है तो इसे ‘‘द्वैअवसाद’’ (Double Depression) कहा जाता है, क्योंकि रोगी में दोनों विकृतियों के लक्षण देखने को मिलते हैं। प्रसिद्ध मनोरोग विषेशज्ञ केलर के According द्वैअवसाद विकृति अनेक लोगों में देखने को मिलती है। डायस्थाइमिक विकृति का प्रारम्भ बाल्यावस्था (Early Adulthood) में कभी भी हो सकता है।

डायस्थाइमिक विकृृति के लक्षणों को और अधिक स्पष्ट करने के लिये नीचे Single केस (Cash) दिया जा रहा है, जिसका अध्ययन करके आप इस रोग के स्वReseller को और अधिक अच्छे से समझ सकेंगे –

‘‘ Single 28 साल की विवाहित महिला जो एम0बी0ए0 (MBA) की डिग्री प्राप्त करने के बाद यह सोचकर कैलिफोर्निया गर्इ की वहाँ उसे अधिक ऊँची कार्यपालक (Executive) की नौकरी मिल जायेगी, किन्तु किन्हीं कारणों से ऐसा नहीं हो पाया। इसलिये वह अपनी नौकरी, पति And अपने भविष्य को सोचकर अवसादग्रस्त हो गर्इ, जिसके बारे में उसने अपने चिकित्सक को भी बताया। उसकी समस्या यह थी कि उसमें निरन्तर अवसादी मनोदशा, निराशा And तुच्छता का भाव बना रहता हैै, जो उसमें 16 या 17 साल की उम्र से ही लगातार बना हुआ है। यद्यपि कॉलेज के दिनों में वह सामान्य थी और उसकी मित्रता भी बुद्धिमान And प्रतिभाशाली छात्रों से ही थी। किन्तु फिर भी वह अपने आपको उन लोगों की तुलना में हीन या तुच्छ ही समझती थी। स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद उसने अपने मनपसंद लड़के से विवाह Reseller था, किन्तु विवाह के कुछ दिनों बाद ही उसे यह लगने लगा कि इस व्यक्ति से शादी करके उसने बहुत बड़ी भूल की है। इसलिये वह हमेशा अपने पति के रहन-सहन तथा उसके माता-पिता का कोसती रहती थी और इस वजह से उसके पति भी उसे अस्वीकृत करते हुये Single सनकी औरत मानते थे। हाल में, उसे अपने कार्यो को करने में भी कठिनार्इ होने लगी। जहाँ वह नौकरी करती थी, वहाँ उसे कोर्इ महत्त्वपूर्ण, उत्तदायित्वपूर्ण कार्य न देकर अत्यन्त साधारण कार्य करने के लिये कहा जाता था, जिसमें उसकी कोर्इ रूचि नहीं होती थी और न वह उस कार्य को करने में पहल दिखाती थी। अपने मालिक के बारे में उसकी यह धारणा थी कि वह आत्मकेन्द्रित, अनुचित तथा दूसरों की परवाह नहीं करने वाला व्यक्ति है।’’

इस प्रकार उपरोक्त केस में रोगी महिला में डायस्थाइमिक विकृति के All लक्षण देखने को मिलते हैं। महिला की अवसादी मनोदशा का स्वReseller चिरकालिक है, जो गत करीब वर्षो से उसके अन्दर सतत् बना हुआ है। साथ ही वह अपने कार्यो And जीवन के प्रति अभिरूचि खो चुकी है तथा अपने भविष्य को लेकर अत्यन्त चिंतित है और उसमें निराशा And उदासी का भाव निरन्तर बना रहता है।

डायस्थाइमिक विकृति के संबध में मनोरोग विशेषज्ञों द्वारा किये गे विभिन्न अध्ययनों से यह तथ्य सामाने आया है कि इस प्रकार की विकृति का मुख्य कारण जैविक होता हैै। हालैंड And थासे (1991) के According – ‘‘डायस्थाइमिक विकृति के रोगियों में तीव्र आँख गति नींद (Rapid eye movement sleep) की लम्बी अवधि पायी जाती है।

2. बड़ा अवसादी विकृृति  –

जैसा कि इस रोग के नाम से ही स्पष्ट हो रहा है कि इस विकृति में रोगी Single अथवा Single से अधिक बड़ी अवसादीघटनाओं का अनुभव Reseller होता है। बड़ी अवसादी घटनाओं से तात्पर्य ऐसी घटनाओं से है, जिनके कारण व्यक्ति इतना अधिक अवसाद ग्रस्त हो जाता है कि वह All तरह के कार्यो में अपनी रूचि ओर सुख या खुशाी खो चुका होता है। DSM – IV (TR) के According कोर्इ अवसादी मनोदशा बड़ी अवसादी विकृति है या नहीं इसको जानने के लिये रोगी में  लक्षणों में से कम से कम कोर्इ पाँच लक्षण प्रतिदिन दो सप्ताह तक अवश्य दिखार्इ देने चाहिये –

  1. उदास तथा अवसादी मनोदशा 
  2. सामान्य और साधारण कार्यो में अभिरूचि तथा आनंद की कमी 
  3. नींद आने में कठिनार्इ अनुभव करना, बिस्तर पर लेटने पर बहुत देर तक नींद न आना, रात में बीच में नींद खुल जाने पर फिर नींद न आना, सुबह जल्दी नींद खुल जाना अथवा कुछ रोगियों में इनके विपरीत बहुत ज्यादा नींद आना। 
  4. क्रिया स्तर में बदलाव। जैसे उत्तेजन अथवा सुस्ती का अनुभव करना। 
  5. भूख कम लगना And शारीरिक भार में कमी अथवा इसके विपरीत अधिक भूख लगना या शारीरिक वजन का बढ़ना। 
  6. शक्ति या उर्जा की कमी And थकान अनुभव करना। 
  7. नकारात्मक आत्म – संप्रत्यय, (Negative Self- Concept) अपने पर दोषारोपण करने की प्रवृत्ति, दोष – भाव (Guilt feeling) तथा अयोग्यता का भाव। 
  8. Singleाग्रता में कठिनार्इ , मंदचिन्तन And निर्णय न ले पाना।
  9. आत्महत्या की प्रवृत्ति

यह रोग प्राय: 40-50 साल की उम्र वाले व्यक्तियों में देखने को मिलता है तथा पुरूषों की तुलना में स्त्रियों को अधिक होता है। र्हिस्कफेल्ड तथा क्रॉस (1982) के मतानुसार-’’निम्न सामाजिक-आर्थिक स्तर के लोगों में यह रोग तुलनात्मक Reseller से अधिक होता है।

अवसाद के संबध में हुये विभिन्न अध्ययनों से यह तथ्य भी सामने आया है कि जो लोग बड़ा अवसादी विकृति से ग्रस्त होते हैं, उनमें से करीब 15 प्रतिशत रोगियों में मनोविक्षिप्ति (psychosis) के भी विकसित होने लगता हैं। ऐसे रोगियों में स्थिर व्यामोह (Delusion) And विभ्रम (Hallucination) अधिक प्रमुख होता है। मनोविक्षिप्ति के लक्षण से ग्रस्त अवसादी व्यक्ति में अनेक तरह के स्थ्रि व्यामोह उत्पन्न हो जाते हैं। उदाहरण के तौर पर, जैसे , ‘‘मेरी गल्ती से वह बीमार पड़ी है या पड़ा है’’ अथवा रोगी को यह विश्वास हो सकता है कि वह अपनी मृत पत्नी को देख रहा है, इत्यादि। कुछ रोगी ऐसे होते है जिनमें बड़ी अवसादी घटनाओं के अनुभव का Single History भी देखने को मिलता है। इसे ‘‘आवृत्त बड़ा विषादी विकृति (Decurrent major depressive disorder) का नाम दिया गया है। बड़ा या प्रमुख अवसादी विकृति का स्वReseller कभी -कभी मौसमी भी होता है। जिसमें मौसम या ऋतु में बदलाव आने पर जैसे -सर्दी से गर्मी की ऋतु आना या गर्मी से सर्दी की ऋतु आना । व्यक्ति में अवसाद को उत्पन्न कर सकता है। इस रोग का स्वReseller कभी – कभी कैटेटोनिक (Catatonic) भी हो सकता हैै, जिसमें अवसादी अनुभूति उत्पन्न होने पर रोगी कभी तो अत्यधित पेशीय गतिहीनता दिखलाता है। इसका स्वReseller पोस्टपार्टम (Postpartum) भी हो सकता है। जिसमें बच्चे में पैदा होने के चार सप्ताह के अन्दर ही अवसादी अनुभूति होने लगती है। इस रोग का स्वReseller विषादप्रषण (Malancholic) भी हो सकता है। इसमें रोगी किसी भी सुखकारी घटना से प्रभावित नहीं होता है, सुबह के समय विषादी मनोदशा अधिक रहती है। उसमें महत्वपूर्ण पेशीय क्षुब्धता देखने को मिलती है। सुबह नींद भी जल्दी खुल जाती है। भूख कम लगती हैै And दोषभाव (Guiltfelling) अत्यधिक उत्पन्न हो जाता है।

अवसाद के कारण –

अवसाद के कारण के संबध में मनश्चिकित्सकों, मनोवैज्ञानिकों द्वारा जो भी अध्ययन किये गये हैं, उनसे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि अवसाद का चाहे कोर्इ भी स्वReseller हो Meansात् चाहे डायस्थाइमिक विकृति हो या बड़ा विषादी विकृति हो, उसके कारणों की दृष्टि से निम्नांकित विचारधाराओं का अध्ययन महत्त्वपूर्ण है -1. जैविक विचारधारा (Biological viewpoints) 2. मनोगतिकी विचारधारा (Psychodynamic viewpoints) 3. व्यवहारात्मक विचारधारा (Behavioural viewpoints) 4. संज्ञानात्मक विचारधारा (Cognitive viewpoints)

1. जैविक विचारधारा –

इस विचारधारा के According अवसाद का प्रमुख कारण शारीरिक या जैविक कारक है। जन्म से या जन्म के बाद शारीरिक विकृति, आनुवांशिकता, हार्मोन्स में असंतुलन, न्यूरोद्रांसमीटर्स संबधी कारक इत्यादि ऐसे अनेक कारण हैं जो अवसाद के लिये उत्तरदायी हैं। प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक स्कूइलर का मत है कि निम्न चार ऐसे कारक है जो इस बात का संकेत करते हैं कि अवसाद जैविक कारणों से होता है –

  1. स्त्रियों में स्वाभाविक Reseller से होने वाले शारीरिक परिवर्तन की अवधि जैसे कि बच्चा होने के बाद अथवा मासिक स्राव प्रारम्भ होने के First स्वत: ही अवसाद की शुरूआत होती है।
  2. भिन्न – भिन्न संस्कृतियों, उम्र, यौन तथा प्रजातियों के व्यक्तियों में अवसाद में लगभग समान लक्षण देखने को मिलते हैं। जो इसके जैविक आधार को पुष्ट करते हैं। 
  3. अवसाद के उपचार हेतु जैविक चिकित्सा का प्रयोग भी Reseller जाता है। जैसे-ट्रीसाइक्लिक एन्टीडीप्रेसैन्ट, सिरोटोनिन रिऊप्टेक इन्हीबिटर्स, विद्युतआक्षेपी आघात आदि।
  4. कुछ दवार्इयाँ ऐसी हैं, जिनका उपयोग करने से व्यक्ति में अवसाद उत्पन्न हो जाता है। जैसे रिसरपाइन (Reserpine) Single ऐसी दवा है, जिसका उपयोग उच्च रक्तचाप को कम करने के लिये Reseller जाता है, किन्तु इसके पाश्र्वप्रभाव (Side effect) के Reseller में व्यक्ति में अवसाद के लक्षण भी दिखार्इ देने लगते हैं।

उपर्युक्त तथ्यों से यह स्पष्ट होता है कि अवसाद जैविक कारकों द्वारा प्रभावित होता है।

जैविक विचारधारा के According अवसाद की उत्पत्ति में इन कारकों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।

1. आनुवांषिक कारक – 

मनौचिकित्सकों के मतानुसार Singleध्रुवीय विकृति की उत्पत्ति में आनुवांशिकी कारकों की महत्वपूर्ण भूमिका है।  इस तथ्य की पुष्टि करते हैं – 1. पारिवारिक वंशवृक्ष अध्ययन (family pedigree studies) 2. जुड़वाँ अध्ययन (Twin studies) 3. दप्तक – ग्रहण अध्ययन (Adoption studies)

  1. पारिवारिक वंशवृक्ष अध्ययन (family pedigree studies) – इस प्रकार के अध्ययन में अनुसंधानकर्ता कुछ ऐसे लोगों का चुनाव करते हैं, जिनमें Singleधु्रवीय अवसाद के लक्षण होते हैं। ऐसे लोगों को प्रोबैण्ड (Proband) कहते हैं। उसके बाद इन व्यक्तियों के निकट संबधियों का गहनता से अध्ययन करके इस बात का पता लगाया जाता है कि इनमें भी अवसाद के लक्षण हेै या नहीं यदि उनके संबधियों में अवसाद के लक्षण सामान्य लोगों की तुलना में अधिक देखने को मिलते हैं तो यह इस बात का स्पष्ट संकेत है कि आनुवांशिकता संबध में हैरिंगटन And उनके सहयोगियों ने (1993) तथा नर्नबर्गर और गेरशन (1992) ने अनेक अध्ययन किये और यह निष्कर्ष दिया कि अवसादग्रस्त व्यक्तियों के निकट संबधियों में 20 प्रतिशत लोगों में अवसादी प्रवृत्ति पायी गर्इ जबकि सामान्य में Meansात् जो उनके निकट के संबधी नहीं थे, उनमें केवल 5 प्रतिशत से 10 प्रतिशत लोगों में ही अवसादी प्रवृत्ति देखने को मिली।
  2. जुडुवाँ अध्ययन (Twin studies) –अवसाद के आनुवांशिक कारक को पुष्ट करने के कलये जुड़वाँ बच्चों पर भी मनोवैज्ञानिकों ने अनेक अध्ययन किये। इस प्रकार के शोध्य अध्ययनों में पूर्णत: जुड़वा बच्चों (Identical twins) तथा भ्रात्रीय जुड़वा बच्चों (fraternal twins) का तुलनात्मक अध्ययन Reseller गया। इन अध्ययनों में पाया गया कि पूर्णत: समReseller बच्चों में से यदि किसी Single बच्चे में Singleध्रुवीय अवसाद उत्पन्न होता है तो Second बच्चे में भी इस रोग के होने की अत्यधिक संभावना होती है, जबकि ऐसी संभावना भ्रात्रीय जुड़वाँ बच्चों में ऐसी संभावना बहुत कम अथवा नहीं होती है। अत: इससे भी स्पष्ट होता है कि अवसाद आनुवांशिकता से बहुत ज्यादा प्रभावित होता है क्योंकि पूर्णत: समReseller बच्चों की आनुवांशिकता 100 प्रतिशत समान होती है जबकि भ्रात्रीय जुड़वाँ बच्चों में यह समानता केवल 50 प्रतिशत ही होती है।
  3. दप्तक – ग्रहण अध्ययन (Adoption studies) –मनोवैज्ञानिकों द्वारा किये गये दप्तक-ग्रहण अध्ययन भी अवसाद के आनुवांशिक आधार को पुष्ट करते हैं। इस संबध में वेण्डर And उनके सहयोगियों (1986) And स्नीडर (2000) द्वारा किये गये शोध Historyनीय है। इन अध्ययनों के According ऐसे दप्तक व्यक्ति जो Singleधुु्रवीय अवसाद से ग्रस्त थे तथा जिनको अस्पताल में भर्ती करके उपचार Reseller जा रहा था, उनके गहन अध्ययन से इस तथ्य का खुलासा हुआ कि अवसादग्रस्त दप्तकों के जैविक माता-पिता भी गंभीर अवसाद से ग्रस्त थे। इसके विपरीत अविषादी दप्तकों के जैविक माता-पिता में ऐसे लक्षण मौजूद नहीं थे। अत: इससे भी यह पुष्ट होता है कि Singleध्रुवीय अवसाद का Single प्रमुख कारण आनुवांशिकता है।
    1. 2.  न्यूरोरसायन कारक  –

    मनौचिकित्सकों ने अवसाद संबधी अपने अध्ययनों के आधार पर यह स्पष्ट Reseller है कि अवसाद भी उत्पत्ति में न्यूरोट्रांसमीटर्स की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है और इनमें भी दो न्यूरोट्रांसमीटर्स नॉरएपिनएफ्रीन (Norepinephrine) And सिरोटोनिन (Serotonin) को सर्वाधिक प्रमुख माना गया है। सन् 1950 में अमेरिकन मेडिकल वैज्ञानिकों द्वारा किये शोध के According मस्तिष्क में नॉरएपिनएफ्रीन की मात्रा कम होने से व्यक्ति के अभिप्रेरणात्मक स्तर में गिरावट आ जाती है। जिससे उसमें अवसाद उत्पन्न हो जाता है। इसी संबध में Single शोध ब्रिटिश शोधकर्तााओं द्वारा Reseller गया, जिसके According मस्तिष्क में सिरोटोनिन के कम स्राव से व्यक्ति अवसादग्रस्त हो जाता हेै। इस संबध में एमस्टरडैम, प्रनस्वीक And मेनडेल्स (1980) द्वारा किये गये शोध महत्वपूर्ण है। इससे स्पष्ट होता है कि अवसाद की उत्पत्ति में न्यूरोट्रांसमीटर्स की भी अहम भूमिका होती है।

    3. न्यूरोएनॉटमिकल कारक  –

    अवसाद के कारणों को लेकर अनेक ऐसे शोध भी हुये हैं, जिनसे यह तथ्य पता चलता है कि अवसाद की उत्पत्ति के न्यूरोएनॉटमिकल आधार भी हैं। इस प्रकार के शोध अध्ययनों को हम  दो वर्गो में वर्गीकृत कर सकते है।1. स्कैनिंग प्रविधियों पर आधारित अध्ययन (Studies Based on Scannig Techniques) 2. हॉरमोनल अध्ययन (Harmonal Studies)

    1. स्कैनिंग प्रविधियों पर आधारित अध्ययन (Studies Based on Scannig Techniques) – विभिन्न प्रकार की स्कैनिंग तकनीकें जैसे – कम्प्यूटर टोमोग्राफी (CT) , मैग्नेटिक रिसोर्स इमेजिंग (MRI), ट्रान्सक्रेनियल मैग्नेटिक स्टीमुलेशन (TMS), द्वारा किये गये अध्ययनों से इस तथ्य का खुलासा हुआ है कि अवसाद का Single प्रमुख कारण मस्तिष्क के कुछ भागों जैसे – लघु मस्तिष्क (Cerebrum) और/ अथवा अग्रपालि (Frontal lobe) के कुछ हिस्सों में खून के प्रवाह में परिवर्तन अथवा चयापचय की दर की परिवर्तन होना है। इसी सैकिम And ग्रीनबर्ग (1982) के According प्रवाह (Strokes) के कारण बाँये गोलार्द्ध में होने वाली क्षति दाँये गोलार्द्ध में होने वाली क्षति की तुलना में अधिक मात्रा में अवसाद उत्पन्न करती है। बैंच And उनके सहयोगियों (1993, 1995) द्वारा किये गये अध्ययनों के According बड़ी अवसादी विकृति वाले लोगों में बाँये अग्रपालि (Left frontal lobe) में रक्तप्रवाह के स्तर में कमी हो जाती है। कुछ अन्य शोध अध्ययनों से यह निष्कर्ष निकला है कि अवसाद में बांये अग्रपालि (Left frontal lobe) के कुछ भागों की क्रियायें मंद हो जाती हैं।इस प्रकार स्पष्ट है कि अवसाद की उत्पत्ति में तंत्रिकातंत्र के कुछ भागों की संCreation तथा कार्यप्रणाली की भूमिका भी महत्वपूर्ण है।
    2. हॉरमोनल अध्ययन (Harmonal Studies) – अवसाद के कारणों के संबध में हुये विभिन्न शोध अध्ययनों के According अवसाद की उत्पत्ति में अन्त:स्रावी संस्थान की भी सक्रिय भूमिका है। अन्त:स्रावी ग्रन्थियों से अनेक प्रकार के हार्मोन्स निकलते हैं जिनमें असंतुलन होने से अवसाद उत्पन्न होने लगता है। अन्त:स्रावी तंत्र को हाइपोथैलेमस संचालित And नियंत्रित करता है। इसे ‘‘मस्तिष्क का मस्तिष्क ‘‘ (Brain of the brain) कहते हैं। लाम And उनके सहयोगियों (1985) ने अपने अध्ययन के आधार पर स्पष्ट Reseller कि अवसाद की उत्पत्ति में मेलाटोनिन (Melatonin) हार्मोन की महत्वपूर्ण भूमिका है। इसे डै्रकुला हार्मोन (Dracula Harmone) भी कहा जाता है। मेलाटोनिन का स्राव पीनियल गन्थि से उस समय होने लगता है। जब हमारे आसपास के वातावरण में पर्याप्त प्रकाश होने पर इस हॉर्मोन का स्राव नहीं होता है। यद्यपि मनुष्यों में इस हार्मोन की क्या भूमिका है, यह बात पूरी तरह स्पष्ट नहीं है, किन्तु पशुओं पर किये गये अध्ययन से यह तथ्य सामने आया कि जब मेलाटोनिन का स्राव अधिक होता है तो पशुओं के सक्रियता स्तर में कमी हो जाती है। गुप्ता (1998) डिलसावर (1990) ने अपने अध्ययन के आधार पर बताया कि मनुष्यों में सर्दियों के दिनों में मेलाटोनिन का स्राव अधिक होता है। क्योंकि सर्दियों में दिन रात की तुलना में अपेक्षाकृत छोटे होते हैं Meansात् अंधकारपूर्ण रात्रि का समय प्रकाशयुक्त दिन की तुलना में अधिक होता है। इससे लोगों के सक्रियता स्तर में कमी आती है और उनमें अवसाद के लक्षण उत्पन्न होने लगते हैं। इस प्रकार के पैटर्न को ‘‘मौसमी भावनात्मक विकृति’’ (Seasonal Affective Disorder or SAD) कहते है। इस संबध में हुये अन्य अध्ययनों के According मस्तिष्क के कॉर्टेक्स (Cortexe) में कार्टिसोल हार्मोन की अधिकता के कारण अवसाद उत्पन्न होने लगता है।

    2. मनोगतिकी विचारधारा  – 

    अवसाद के कारकों से सम्बद्ध मनोगतिकी विचारधारा का प्रारम्भ फ्रायड And उनके शिष्य कार्ल अब्राहम से माना जाता है। इनके According अवसाद किसी प्रकार की हॉनि के प्रति Single प्रतिक्रिया है। जब व्यक्ति से उसकी कोर्इ प्रिय वस्तु, व्यक्ति, स्थान आदि दूर हो जाता है Meansात् उसकी हॉनि हो जाती है। तो इससे उसमें अवसाद के लक्षण उत्पन्न होने लगते हैं। फ्रायड के मतानुसार इसका प्रारम्भ बीजReseller में बाल्यावस्था से ही हो जाता है। फ्रायड का कहना है कि व्यक्तित्व विकास की मुखावस्था (Oral period) में किसी बच्चे की Needओं की पूर्ति बहुत ज्यादा भी हो सकती है और बहुत कम भी। इसके परिणामस्वReseller व्यक्ति इस अवस्था पर अवस्थ अवस्थित (fixed) हो जाता है तथा इससे सम्बद्ध आवश्यकतओं की पूर्ति हेतु अधिकांश समय अपने आप पर निर्भर किये रहता है। जिसके कारण मनोलैंगिक परिपक्वता (Psychosexuel maturation) का विकास अवरूद्ध हो जाता है तथा वह अपने आत्म सम्मान को बनाये रखने के लिये दूसरों पर निर्भर रहने लगता है। पाठकों, आपके मन में यह जिज्ञासा उत्पन्न हो रही होगी कि बचपन की इस घटना से वयस्कावस्था में अवसाद किस तरह उत्पन्न होता है। इस जिज्ञासा का समाधान यह है कि जब ऐसे लोगों को वयस्कावस्था में अपने किसी प्रियजन या प्रियवस्तु स्थान हॉनि की क्षति होती है तो ऐसे लोग पुन: अपनी बचपन की मुखावस्था में प्रतिगमित (Regress) हो जाते हैं और इस अवस्था में प्रतिगमित होने के उपरान्त ऐसे व्यक्ति की पहचान उस व्यक्ति के साथ Singleीकृत हो जाती हैै, जिससे वह दूर हो जाता है अथवा खो चुका होता है। कहने का आशय यह है कि ऐसा व्यक्ति अपने प्रियजन को स्वयं के आत्मन (Self) के साथ आत्मSeven ( Infroject) कर लेता है और ऐसी स्थिति में उसके मन में जैसी भावनायें And विचार अपने प्रियजन के प्रति थे, वैसे भाव And विचार अपने प्रति हो जाते है। ऐसा भी देखने में आया है कि कुछ लोगों में अचेतन की सम्पूर्ण प्रक्रिया थोड़े समय के लिये बनी रहती है और फिर बाद में व्यक्ति अपनी Single अलग-स्वतंत्र पहचान बना कर अपने सामाजिक संबधों को फिर स्थापित कर लेता है, किन्तु कुछ लोग ऐसा करने में सक्षम नहीं हो पाते है, जिसके कारण अचेतन की यह प्रक्रिया उनमें बहुत अधिक जटिलतायें उत्पन्न कर देती है और वे धीरे-धीरे अवसादी प्रकृति से ग्रस्त होने लगते है। फ्रायड And अब्राहम के According प्रियजन या प्रियवस्तु अथवा स्थान की क्षति होने पर मुख्य Reseller से दो प्रकार के लोग आत्मSeven And अवसाद से सबसे ज्यादा प्रभावित होते हैं, First वे लोग जिनके माता-पिता मुखावस्था के दौरान उनकी परिपोषण Needओं को पूरा नहीं कर पाते हैं तथा द्वितीय ऐसे बच्चे जिनकी Needओं की पूर्ति जरूरत से ज्यादा की गर्इ हो। इसका परिणाम यह होता है कि जिन बच्चों की Needओं की पूर्ति समुचित Reseller से नहीं होती है, वे जिन्दगी भर दूसरों पर निर्भर रहते हैं, इनमें आत्म-सम्मान का अभाव होता है, जिसकी वजह से ये स्वयं को दूसरों का प्यार, स्नेह पाने योग्य नहीं समझते हैं। दूसरी तरफ जिन बच्चों ककी आवश्यताओं की पूर्ति की जरूरत से ज्यादा हुयी होती है, वे मुखावस्था को इतना अधिक सुखकारी समझते है कि अपने जीवन में अन्य अवस्थाओं की ओरे आगे बढ़ने की इच्छा ही नहीं करते। वैममारैड (1992) का मत है कि ये दोनों तरह के लोग पूरे जीवन दूसरों का प्यार तथा अनुमोदन (Approval) प्राप्त करने के लिये कड़ी मेहनत करते रहते हैं। किसी प्रियजन के दूर होने पर ऐसे व्यक्तियों में हॉनि का अत्यन्त तीव्र भाव उत्पन्न होता है। और इनसे अलग हो जाने के लिये अथवा इन्हें छोड़कर चले जाने के लिये इन प्रियजनों के प्रति अत्यधिक क्रोधभाव भी उत्पन्न होने लगता है।

    इस संबध में Single प्रश्न यह उठता है कि जिन लोंगों को प्रियजन या प्रियवस्तु की हॉनि नहीं हुयी होती है, उनमें अवसाद क्यों और कैसे उत्पन्न होता है। इसका समाधान करने के लिये फ्रायड ने सांकेतिक (Symbolic) अथवा काल्पनिक (Imagined) क्षति के सम्प्रत्यय का प्रतिपादन Reseller। उदाहरण के तौर पर जिन व्यक्तियों की नौकरी छूट जाती है, उनको अचेतन Reseller से ऐसा अनुभव हो सकता है कि अपनी पत्नी से अच्छे संबध के टूटने क समान है क्योंकि नौकरी छूट जाने से पत्नी उन्हें बेकार का आदमी समझने लगेगी।

    कुछ समय बाद नये मनोगतिकी सिद्धान्त वादियों ने फ्रायड And अब्राहम द्वारा दिये गये सिद्धान्त में कुछ संशोधन Reseller। जैसे – कोहेन And उनके सहयोगियों (1954) ने अवसाद में व्यक्ति द्वारा स्वयं के प्रति र्इश्र्या अथवा क्रोध भाव का अनावश्यक करार दिया। इसी प्रकार विबरिंग (1953) And जैकोबसन (1971) ने अवसाद में फ्रायड द्वारा मुखावस्था स्थायीकरण पर दिये गये का उपयुक्त नहीं माना तथा इन्होंने अवसाद की व्याख्या मुखावस्था And लिंगप्रधानावस्था दोनों की समस्याओं के साथ जोड़कर की। जैकोबसन के मानुसार व्यक्ति में आत्म – सम्मान की कमी Singleध्रुवीय अवसाद उत्पन्न होने का प्रमुुख कारण है।

    3. व्यवहारात्मक विचारधारा –

     प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिकक लेविनसोन ने अवसाद की उत्पत्ति के संबध में व्यवहारवादी विचारधारा की व्याख्या की है। इनके According कुछ लोगों में पुरस्कार या पुनर्बलन मूल्य शनै: शनै: कम होने लगता है And तब ऐसे लोग धनात्मक व्यवहार करने के लिये कम से कम प्रेरित होते है। परिणामस्वReseller उनकी कार्य करने की शैली विषादी होने लगती है। कहने का Means यह है कि जब ऐसे व्यक्तियों की सक्रियता के स्तर में कमी होने लगती है तो इससे पुरस्कार या पुनर्बलन की संख्या भी धीरे – धीरे कम होने लगती है। इसके कारण उनमें अवसाद की प्रवृत्ति और प्रबल हो जाती है। इस विचारधारा का Single उपसिद्धान्त यह भी माना गया है कि दंडात्मक अनुभूतियाँ अधिक होने के कारण भी व्यक्ति अवसादग्रस्त होने लगता है। इसके पीछे कारण यह है कि इनु दु:खदायी अनुभूतियों के कारण व्यक्ति पुरस्कार मिलने वाली क्रियाओं की सुखम अनुभूति नहीं कर पाता है।

    इस प्रकार व्यवहारवादी विचारधारा के According अवसाद को अनुक्रिया-आधृत-धनात्मक पुनर्बलन ( Response contingent positive reinforcement) का परिणाम माना जाता है। लेविनसोन तथा अन्य व्यवहारवादियों का यह भी मानना है कि समाजिक पुनर्बलन अपेक्षाकृत अधिक महत्वपूर्ण होता है तथा अवसादग्रस्त लोग अविषादी लोगों की तुलना में कम धनात्मक सामाजिक पुनर्बलन अनुभव करते हैं। जैसे-जैसे व्यक्ति की मनोदशा में सुधार होते जाता है, वैसे-वैसे धनात्मक सामाजिक पुनर्बलन की संख्या में भी अभिवृद्धि होने लगती है। व्यवहारवादियों ने अपने अध्ययन के आधार पर यह निष्कर्ष निकाले हैं कि अवसादी लोग दूसरों को जल्दी क्रोधित कर देते हैं, इनके मित्र कम होते हैं, Second व्यक्ति इन्हें तिरस्कृत करते हैं, इनको अन्तवर्ैयक्तिक समर्थन कम मिलता है तथा दु:खद सामाजिक अन्त:क्रियाअेां की अनुभूति तुलनात्मक Reseller से अधिक होती है।

    इस प्रकार स्पष्ट है कि व्यवहारवादी विचारधारा Single वैज्ञानिक विचारधारा है। जिसकी उपयोगिता आज भी बनी हुयी है।

    4. संज्ञानात्मक विचारधारा  – 

    वर्तमान समय में अवसद के कारणों को लेकर जितनी भी विचारधारायें प्रचलित हैं, इन All में संज्ञानात्मक विचारधारा सर्वाधिक लोकप्रिय है। इस विचारधारा के According अवसाद का प्रमुख कारण व्यक्ति के विचारतंत्र का विकृत होना है Meansात् स्वयं के प्रति, अपने भविष्य के प्रति तथा अपने आस – पास के वातावरण, परिस्थितियों के प्रति जब व्यक्ति का दृष्टिकोण नकारात्मक होने लगता है तो वह धीरे – धीरे अवसादी मनोवृत्ति से ग्रसित होने लगता है।संज्ञानात्मक विचाराधारा में हम दो सिद्धान्तों का अध्ययन करेंगे -1. बेक का सिद्धान्त (Beck’s Theory) 2. निस्सहायता/निराशा सिद्धान्त (Helplessness / Hopelessness Theory)

    1. बेक का सिद्धान्त  –

    संज्ञानात्मक विचारधारा के प्रमुख समथ्रक प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक बेक के मतानुसार नकारात्मक चिन्तन ही अवसाद की मूल जड़ है, न कि धनात्मक पुनर्बलन का अभाव अथवा मानसिक संघर्ष। अवसादग्रस्त व्यक्तियों की स्वयं के प्रति, अपने वातावरण And भविष्य के प्रति इतनी अधिक नकानात्मक प्रवृत्ति विकसित हो जाती है कि इससे उनका व्यवहार स्वत: ही प्रभावित होने लगता है। बेक के मतानुसार निम्न चार कारक ऐसे हैं, जिसके कारण व्यक्ति का चिन्तन विकृत या नकारात्मक होने लगता है -अ) अपअनुकूली मनोवृत्ति बेक ( Maladaptive Attitude) ब) संज्ञानात्मक (Cognitive Triad) स) चिन्तन में त्रुटि (Errors in thinking) द) स्वत: चिन्तन (Automatic Thoughts)

    1. अपअनुकूली मनोवृत्ति बेक ( Maladaptive Attitude) – बेक के मतानुसार Single व्यिक्त्त का स्वयं के प्रति अपने जीवन और वातावरण के प्रति दृष्टिकोण उसके अपने अनुभवों, पारिवारिक संबधों And अपने आस -पास के व्यक्तियों द्वारा उनके बारे में किये गये निर्णय पर आधारित होता हेै। इनमें से कुछ लोगों में नकारात्मक मनोवृत्ति विकसित हो जाती है, जो ‘‘स्कीमास’’ (schemas) का कार्य करती हैं और इनको कसौटी मानकार व्यक्ति अपने अनुभवों का मूल्यांकन करता है। स्कीमाज से आशय व्यवहार को कूट संकेतिक करने And उसकी व्याख्या करने से होता है। यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि स्कीमास की उत्पत्ति जीवन की प्रारंभिक अवस्थओं में होती है, किन्तु फिर भी वयस्कावस्था की अनुभूतियों पर अपना प्रभाव डालते है। 
    2. संज्ञानात्मक त्रिक् (Cognitive Triad)- अवसाद के कारणों को ठीक ढंग से स्पष्ट करने के लिये बेक ने संज्ञानात्क त्रिक् के संप्रत्यय का प्रतिपादन Reseller। संज्ञानात्मक त्रिक् से बेक का आशय है, व्यक्ति की तीन चीजों के प्रति नकारात्मक मनोवृत्ति। First अपने प्रति, द्विती अपनी परिस्थियों के प्रति And तृतीय, अपने भविष्य के प्रति। Single अवसादग्रस्त व्यक्ति स्वयं का And वातावरण का नकारात्मक प्रत्यक्षण करता है, तथ्यों को नकारात्मक ढंग से स्पष्ट करता है। वातावरण के नकारात्मक पहलुओं पर ध्यान देता है And भविष्य को लेकर भी काफी निराश रहता है। साथ ही ऐसे व्यक्तियों में आत्मसम्मान की अत्यधिक कमी हो जाती है, जिसके परिणामस्वReseller ये अपने आपको बेकार, नकारा, अयोग्य And अवांछित मानते हैं ओर अपने अनुभवों का बाधा, आघात या भारस्वReseller मानने लगते हैं।
    3. चिन्तन में त्रुटि (Errors in thinking) – बेक का कहना है कि अवसादग्रस्त लोगों द्वारा आदतन त्रुटिपूर्ण तर्क अपनाने से उनका संज्ञानात्क त्रिक् और भी प्रबल हो जाता है। बेक ने ऐसे त्रुटिपूर्ण तर्क के निम्न पाँच प्रकार बतलाये हैं -1. मनचाहा अनुमान (Arbitrary Inference) 2. चयनात्मक प्रथक्करण (Selective Abstraction) 3. अतिसामान्यीकरण (Over- generalization) 4. विस्तारण And न्यूनीकरण (Magnification and minimization) 5. वैयक्तिकरण (Personalization)
      1. मनचाहा अनुमान (Arbitrary Inference) – इसमें व्यक्ति थोड़ा अथवा विरोधी सबूत होने के बावजूद भी नकारात्मक निष्कर्ष पर यकीन करता है। 
      2. चयनात्मक प्रथक्करण (Selective Abstraction) – इसके अन्तर्गत व्यक्ति किसी Single नकारात्मक पक्ष पर विस्तृत Reseller से ध्यान केन्द्रित करता है And Second बड़े संदर्भ की उपेक्षा करता है। 
      3. अतिसामान्यीकरण (Over- generalization) – इसमें व्यक्ति Single सामान्य तथा तुच्छ घटना को आधार मानकर बहुत बड़े निष्कर्ष पर पहुँचने की गलती करता है। 
      4. विस्तारण And न्यूनीकरण (Magnification and minimization) – विस्तारण के अन्तर्गत व्यक्ति Single साधारण सी घटना को अपनी अवसादी मनोवृत्ति का Single प्रमुख कारक बना लेता है। न्यूनीकरण में अवसादग्रसत व्यक्ति अपनी सकारात्मक या धनात्मक अनुभूतियों की महत्ता का न्यूनाकलन (Underestionate) करता है तथा अपने नकारात्मक अनुभवों को अधिक महत्वपूर्ण मानता है। 
      5. वैयक्तिकरण (Personalization) – इसमें अवसादग्रस्त व्यक्ति भूलवश नकारात्मक घटनाओं का कारण स्वयं को मान लेता है।
        1. स्वत: चिन्तन (Automatic Thoughts) – बेक के मतानुसार अवसादग्रस्त व्यक्ति संज्ञानात्मक त्रिक् क अनुभव स्वत: चिन्तन के Reseller में करता है। यह दु:खद विचारों का Single ऐसा धाराप्रवाह है जो व्यक्ति को सतत् उसकी कल्पित अपर्याप्तता (Assumed inadeaquacy) And वातावरण के नकारात्मक पहलुओं को स्मरण कराता रहता है। ऐसे चिन्तनों का स्वत: कहने का कारण यह है कि ऐसा प्रतीत होता है कि ये चिन्तन अपने आप Single प्रतिवर्त (Reflex) के समान घटित हो रहे हों।बेक का कहना है कि अवसाद के सांवेगिक अभिप्रेरणात्मक, दैहिक And व्यवहारपरक लक्षण मूल Reseller से संज्ञानात्म प्रक्रियाओं से ही उत्पन्न होते है। अगर किसी व्यक्ति की अपने बारे में यह सोच है कि उसे कोर्इ भी पसंद नहीं करता है अथवा नहीं चाहता है तो उसे सामाजिक विलगाव (Social Outcast) होने की दु:खद अनुभूति होती हैं इसी प्रकार यदि वह अपने भविष्य को लेकर निराशावादी सोच रखता है तो वह कोर्इ्र्र भी नया कार्य करने का प्रयास नहीं करता । बेक के मतानुसार जैसे ही संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं के कारण अवसाद के अतिरिक्त नये लक्षण विकसित होते हैं तो ये नये लक्षण मौलिक नकारात्मक संज्ञान को पुष्ट करते हैं। इस प्रकार हम पुनर्निवेशन तंत्र (Feedback System) का निर्माण होता है। जो नकारात्मक या विकृत संज्ञान को पुनर्बलित करने का कारण बनता है। कहने का अभिप्राय यह है कि जो लोग उदास तथा दु:खी रहते हैं। वे इन परेशानियों को इस बात का प्रमाण मानते हैं कि उनका जीवन दु:खमय है। इसी प्रकार जो लोग किसी प्रकार का कार्य करने के लिये प्रेरित नहीं होते है। वे अपनी निश्क्रियता को इस बाता का प्रमाण मानने लगते हैं कि उनका भविष्य निराशाजनक होगा। इस प्रकार स्पष्ट है कि अपने नकारात्मक चिन्तन के कारण अवसादी व्यक्ति का जीवन अनेक जटिलताओं से ग्रस्त हो जाता है।
          1. 2. निस्सहायता/निराशा सिद्धान्त –

        यहाँ पर निराशा सिद्धान्त का अध्ययन हम तीन अन्तरसंबधित सिद्धान्तों के अन्तर्गतन करेंगे। 1. मौलिक निस्सहायता सिद्धान्त (Original Helplessness Theory) 2. आरोपण सिद्धान्त (Attributional Theory) 2. निराशा सिद्धान्त (Hopelessness Theory)

        1. मौलिक निस्सहायता सिद्धान्त (Original Helplessness Theory) – निस्सहायता सिद्धान्त को मौलिक Reseller से सेलिगमैन (1979) द्वारा प्रतिपादित Reseller गया। इस संबध में सेलिगमैन ने कुटते पर Single प्रयोग करके देखा। अपने प्रयोगात्मक अध्ययन में उन्होंने पाया कि जब पशुओं को अनियंत्रण योग्य विरूचिपूर्ण उत्तेजन (Uncomfortable aversive Stimulation) का सामना करना पड़ता है तो इससे उनमें निस्सहायता का भाव उत्पन्न होने लगता है और यह निस्सहायता बाद में नियंत्रण योग्य तनावपूर्ण परिस्थिति में उसके निश्पादन पर अत्यधितक प्रभाव डालती है। उनमें दु:खद उद्दीपकों के प्रति प्रभावी प्रतिक्रिया करना सीखने की क्षमता तथा अभिप्रेरणा का अभाव हो जाता है। सेैलिगमैन ने इसे ‘‘अर्जित निस्सहायता’’ (Learned Helplessness) कहा है। सैलिगमैन के According पशुओं पर किये गये इस प्रयोग के निष्कर्ष मनुष्यों में Singleध्रुवीय अवसाद के कुछ पहलुओं की व्याख्या करने में काफी हद तक सक्षम हैं । उन्होंने देखा कि पशुओं के निस्सहायता व्यवहार And Human अवसाद के लक्षणों में पर्याप्त समानता है। वास्तव में देखा जाये तो सेलिमेैन द्वारा Human अवसाद के कारणों की व्याख्या करने के लिये संज्ञानात्मक तथा व्यवहारात्मक दोनों तरह के प्रतिमानों (Models) से लिये गये सम्प्रत्ययों को संयोजित Reseller गया है। अत: इस प्रकार सेलिगमैन के मतानुसार व्यक्ति में अवसाद उस अवस्था में उत्पन्न होता है, जब वह सोचता है कि –
          1. अपने जीवन में मिलन वाले पुनर्बलन (Reinforcement) पर उसका कोर्इ नियंत्रण नहीं है।
          2.  अपनी इस निस्सहाय स्थिति के लिये वे स्वयं जिम्मेदार हैं।अत: स्पष्ट है कि सेलिगमैन के विचार में Singleध्रुवीय अवसाद के All लक्षण इस अर्जित निस्सहायता And आत्म निन्दा के कारण ही उत्पन्न होते हैं।
            1. आरोपण सिद्धान्त (Attributional Theory) –कुछ समय बाद सन् 1978 में अनेक प्रकार की कमियाँ होने के कारण एब्राहमसन, सेलिगमैन And टीसडेल ने मौलिक निस्सहायता सिद्धान्त का परिमार्जित प्राReseller तैयार Reseller, जिसे अवसाद का ‘‘आरोपण सिद्धान्त’’ नाम दिया गया। मौलिक निस्सहायता सिद्धान्त की आलोचना मूल Reseller से इस आधार पर की गर्इ कि अवसादग्रस्त व्यक्ति अपने जीवन की घटनाओं को नियंत्रित कर पाने में स्वयं को असमर्थ अनुभव करते है तो फिर वे प्रत्येक चीज या घटना अथवा परिस्थिति के लिये अपने आपको जिम्मेदार मानते हैं।इस आलोचना का समाधान आरोपण सिद्धान्त में Reseller गया है। इस सिद्धान्त के According जब व्यक्ति को अपने जीवन में किसी कार्य परिस्थिति में असफलता मिलती है तो वह इस असफलता को किसी न किसी कारण में आरोपित करता है। इस प्रकार के आरोपण की  तीन विमायें बतायी गयी हेैं -1. आन्तरिक – बाºय (Internal – External) 2. सम्पूर्ण विशिष्ट (Global – Specific) 3. स्थिर – अस्थिर (Stable – Unstable) 
              1. आन्तरिक – बाºय (Internal – External) – यह बिमा इस बात को निर्धारित करती है कि असफलता का कारण स्वयं व्यक्ति अथवा कोर्इ दूसरा व्यक्ति या घटना। 
              2. सम्पूर्ण विशिष्ट (Global – Specific) – इस विमा द्वारा इस बात का निर्धारण होता है कि क्या असफलता का कारण कोर्इ ऐसा है जो अनेक परिस्थितियों से बँधा हुआ है अथवा किसी विशिष्ट परिस्थिति से। 
              3. स्थिर – अस्थिर (Stable – Unstable) – यह विमा इस बात का निर्धारण करती है कि असफलता का कारण कोर्इ स्थायी कारक है या अस्थायी कारक।अत: आरोपण सिद्धान्त के According जब व्यक्ति असफलता का कारण स्वयं के नियंत्रण से परे देखता है तो वह अपने मन में यह प्रश्न पूछता है कि ऐसा क्यों ? यदि वह असफलता का कारण स्वयं को मानता है जो सम्पूर्ण होने के साथ – साथ स्थायी भी है तो वह भविष्य में नकारात्मक परिणामों को नियंत्रित करने में स्वयं को नि:सहाय अनुभव करेगा और उसे भविष्य में कुछ भी अच्छा होने की आशा नहीं रह जायेगी और इससे व्यक्ति में अवसाद के लक्षण उत्पन्न होने लगेंगे। यदि वह Second कारक के Reseller में नियंत्रण में कमी का आरोपित करता है तो वह अवसादी मनोवृत्ति से ग्रसित नहीं होगा। आरोपण का यह कारण इस तथ्य की स्पष्ट व्याख्या करता है कि किसी घटना को नियंत्रित करने की सामथ्र्य खो देने के प्रति क्यों कुछ व्यक्ति निस्सहाय ढंग से अनुक्रिया करते हैं तथा क्यों Second लोग ऐसी प्रतिक्रया व्यक्त नहीं करते हैं।रामिरेज़ And उनके सहयोगियों (1992) ने अपने शोध के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला कि यदि व्यक्ति परिस्थिति पर नियंत्रण खोने के कारण का आरोपण बाºय कारकों अथवा कुछ ऐसे आंतरिक कारकों के Reseller में करता है जो विशिष्ट अथव अस्थिर होता है तो व्यक्ति में निस्सहायता को कम Reseller जा सकता है अथवा रोका जा सकता है।
                1. निराशा सिद्धान्त (Hopelessness Theory) –सन् 1989 में आरोपण सिद्धान्त का भी संशोधन Reseller गया, जिसमें एब्रामसन, मेटास्कार्इ And एलाय की भूमिका Historyनीय हैैं इस संशोधि सिद्धान्त को अवसाद का निराशा सिद्धान्त (Hopelessness Theory) कहा गया। इस सिद्धान्त के According निराशाजनक स्थिति ही व्यक्ति में अवसाद का प्रमुख कारण है। निराशाजनक स्थिति से तात्पर्य Single ऐसी अवस्था से है, जिसमें व्यक्ति यह सोचता है कि वांछनीय परिणाम (Desirable Outcomes) नहीं होंगे ओर अवांछनीय परिणाम (Undesirable Outcomes) निश्चित Reseller से होंगे तथा व्यक्ति के पास इस अवस्था को परिवर्तित करने का कोर्इ उपाय नहीं है।आरोपण सिद्धान्त के समान निराशा सिद्धान्त के According भी जिन्दगी की नकारात्मक घटनायें व्यक्ति में विद्यमान मानसिक अवस्था जिसे ‘डायथिसिस’ नाम दिया गया है, के साथ अन्त:क्रिया करके Single निराशाजनक स्थिति को जन्म देती हैं। इस सिद्धान्त में भी आरोपण शैली पैटर्न को Single महत्वपूर्ण डायथिसिस माना गया है, किन्तु उसके साथ ही निराशा सिद्धान्त में Single अन्य डायथिसिस पर सर्वाधिक जोर िदा गया है और यह डायथिसिर व्यक्ति की वह प्रवृत्ति होती है, जिसके आधार पर वह यह अनुमान लगाता है कि जिन्दगी की नकारात्मक घटनाओं के गंभीर नकारात्मक परिणाम उत्पन्न होते हैं तथा स्वयं के बारे में भी व्यक्ति द्वारा Single नकारात्मक अनुमान लगाया जाता है। इस संबध में सन् 1993 में मेटालस्कार्इ ने अपने साथियों के साथ मिलकर Single प्रयोगात्मक शोध Reseller और परिणाम में यह पाया कि जिन छात्रों ने परीक्षण में प्राप्त खराब ग्रेड का आरोपण सम्पूर्ण तथा स्थायी कारकों के Reseller में Reseller था, उनमें अवसादी मनोदशा अधिक पायी गयी। साथ ही इन छात्रों में आत्म – सम्मान का भाव अत्यधिक कम था। इस कारण इनमें निराशाजनक स्थिति की बढ़ोत्तरी होती गर्इ।
                  1. उपरोक्त description से आप जान गये होंगें कि भिन्न – भिन्न विचारधाराओं द्वारा Singleधु्रवी अवसाद के कारणों की व्याख्या करने का प्रयास विद्वानों द्वारा Reseller गया हे। ऐसे तो All विचारधाराओं की अपनी – अपनी उपयोगिता और किसी भी Single विचारधारा को सम्पूर्ण नहीं माना जा सकता फिर भी तुलनात्मक Reseller से देखा जो तो जैविक, व्यवहारात्मक And संज्ञानात्मक विचारधारायें ज्यादा महत्वपूर्ण है।

                    अवसाद का उपचार –

                    1. मनोगतिकी चिकित्सा (Psychodynamic Therapy) 
                    2. व्यवहारात्मक चिकित्सा (Behavioural therapy) 
                    3. अन्तवर्ैयक्तिक चिकित्सा (Interpersonal Therapy) 
                    4. संज्ञानात्मक चिकित्सा (Cognitive Therapy) 
                    5. जैविक चिकित्सा (Biological Therapy) 
                    6. योग चिकित्सा (Yog Therapy)

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