न्यायपालिका की स्वतंत्रता

न्यायिक स्वतन्त्रता की उत्पत्ति

न्यायालय की स्वतन्त्रता की संकल्पना इग्लैण्ड से ली गयी है। सन् 1616 में न्यायाधीश कोक को उनके पद से (किंग बेन्च के मुख्य न्यायाधीश) पदच्युत Reseller गया था। इस समय न्यायाधीश अपने पद को सम्राट के प्रसादपर्यन्त धारणा करते थे और सम्राट के अन्य कर्मचारियों के समान थे। वे सम्राट की इच्छा से पद से हटाये जा सकते थे, इसलिए न्यायाधीश कार्यपालिका के अधीन थे। न्यायालय स्वतन्त्रता इग्लैण्ड में न्यायिक सेटलमेन्ट Single्ट, 1701 द्वारा संरक्षित थी। जिसमें द्वारा न्यायाधीश अपने अच्छे आचरण तक आजीवन पद पर बने रहते थे तथा उनके पद से हटाने के बारे में यह विधिपूर्ण होगा कि उन्हें संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित संकल्प के द्वारा हटाया जाये। आजीवन पद की Safty की स्थिति ने न्यायालय की स्वतन्त्रता को स्थापित Reseller।

Single स्वतन्त्र और निश्पक्ष न्यायपालिका ही नागरिकों के अधिकारों की संरक्षिका हो सकती है तथा बिना भय तथा पक्षपात के सबको समान न्याय प्रदान कर सकती है। इसके लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि उच्चतम न्यायालय अपने कर्तव्यों के पालन में पूर्ण Reseller से स्वतन्त्र और All प्रकार के राजनीतिक दबावों से मुक्त हो। संविधान निर्माता न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को लेकर प्रतिबद्ध थे इसलिए इसे बनाये रखने के लिए उन्होंने संविधान में अनेक उपबन्ध कायम किये गये हैं।

संवैधानिक उपबन्ध

Indian Customer संविधान में न्यायापालिका की स्वतन्त्रता स्थापित करने हेतु प्रावधान किये गये हैं।

  1. कार्यपालिका से न्यापालिका का पृथ्थकरण 
  2. न्यायाधीशों की पदावधि की संरक्षा 
  3. न्यायाधीशों की Appointmentयाँ
  4. न्यायाधीशों के वेतन And भत्ते 
  5. प्रसाद पर्यन्त का सिद्धान्त 
  6. संसद को न्यायाधीशों के आचरण पर Discussion करने पर रोक
  7. न्यायलय अवमान्य हेतु दण्ड शक्ति 
  8. सेवानिवृत्ति के बाद प्रक्टिस पर रोक 

1. कार्यपालिका से न्यापालिका का पृथ्थकरण

अनुच्छेद-50 राज्य को निर्देश देता है कि राज्य लोक-सेवाओं में न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक करने का प्रयास करेगा। न्यायपालिका का कार्यपालिका के नियन्त्रण से मुक्त रहना उसकी स्वतन्त्रता और निश्पक्षता के लिए अत्यन्त आवश्यक है। द0प्र0 सं0 1973 में न्यायिक And कार्यपालक मजिस्ट्रेट को अलग कर दिया गया है।

2. न्यायाधीशों की पदाविधि की संरक्षा

Single बार नियुक्त किये जाने पर न्यायाधीशों को आसानी से पदच्युत नहीं Reseller जा सकता है। उसे पदच्युत करने के लिए संविधान Single विशेष प्रक्रिया का प्रावधान करता है –

  1. उसे केवल संविधान में दिये गये आधारों पर ही पदच्युत Reseller जा सकता है। 
  2. इस प्रयोजन हेतु राष्ट्रपति द्वारा पेश किए गये समावेदन संसद के प्रत्येक सदन के बहुमत द्वारा तथा उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के 2/3 बहुमत से पारित Reseller जाना चाहिए। यह समावेदन संसद के Single ही सत्र में प्रस्तावित और पारित Reseller जाना चाहिए। उक्त प्रक्रिया से स्पष्ट है कि न्यायाधीशों को उनके पदों से पद मुक्त करना इतना आसान नहीं है।

3. न्यायाधीशों की Appointmentयाँ And पदच्युति

Appointmentयाँ राष्ट्रपति द्वारा भारत के मुख्य न्यायमूर्ति (प्रधान न्यायाधीश) (उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की दशा में) और उच्च न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश (उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की दशा में) से परामर्श के पश्चात की जाती है। इससे यह सुनिश्चित हो जाता है कि Appointmentयाँ राजनीतिक आधार पर या निर्वाचन के लाभ के लिए नहीं की जा रही है और राजनीतिक तत्व समाप्त हो जाता है।

एडवोकेट्स ऑन रिकार्ड एसोसोशियन वनाम भारत संघ (1993) और प्रेसीडेन्सियल रिफरेन्स (1999) के बाद में बाद न्यायाधीशों को नियुक्त करने की प्रभावशाली शक्ति कार्यपालिका से न्यायापालिका को दे दी गयी, जिसने न्यायिक स्वतन्त्रता को शक्ति विस्तृत कर दिया है। इससे सिद्ध होता है कि Appointmentयाँ राजनीति से प्रभावित नहीं होती हैं।

संसद अभियोग से सम्बन्धित प्रक्रिया की जांच को विनियमित कर सकती है। संसद ने न्यायाधीशों को पदच्युत करने के लिए जजेज इन्क्वायरी Single्ट 1968 बनाया जो अब जजेज इन्क्वायरी बिल-2006 द्वारा सप्लीमेन्ट Reseller गया है। न्यायाधीश को कदाचार या असमर्थता के लिए राष्ट्रपति द्वारा हटाया जा सकता है। यह Single जटिल और कश्टसाध्य प्रक्रिया है। अभी तक केवल Single न्यायाधीश के विरूद्ध यह प्रक्रिया हुर्इ है किन्तु उसमें भी समावेदन अपेक्षित बहुमत से पारित नहीं Reseller जा सका है। न्यायाधीश को भयमुक्त होकर काम करने की छूट है। निर्णय में चाहें जितनी गंभीर भूल हो जाए उसे कदाचार नहीं माना जाता है। (सी0के0 दफ्तरी वनाम गुप्ता 1971 सु0को0)।

4. न्यायाधीशों के वेतन And भत्ते

न्यायाधीशों के वेतन, भत्ते आदि विधायिका के अधिकार क्षेत्र से परे हैं। उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों का वेतन संविधान के According नियत Reseller जाता है और वह भारत की संचित निधि पर भारित होता है। उसपर संसद में मतदान नहीं होता है, उनके कार्यकाल के दौरान उनके वेतन, भत्तों में कोर्इ परिवर्तन नहीं Reseller जा सकता है। इसका Single अपवाद है, वह यह कि देश में वित्तीय संकट के समय उनके वेतन और भत्तों में आवश्यक कटौती की जा सकती है।

संसद ने उच्चतम न्यायालय And उच्च न्यायालय, न्यायाधीश वेतन And सेवा शर्तें अधिनियम 1986 पास Reseller था। न्यायालय के कर्मचारी उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय के अधिकारी और सेवक संबद्ध मुख्य न्यायाधीश द्वारा नियुक्त किए जाते हैं और न्यायालय का प्रशासनिक व्यय भारत की संचित निधि पर पारित होता है

5. प्रसाद पर्यन्त का सिद्धान्त

कार्यपालिका राष्ट्रपति के प्रसादपर्यन्त पद धारण करती है। यह नियम सिविल सेवकों और सैन्य बलों के लिए लागू होता है। राज्यपालों की भी यही स्थिति है। किन्तु प्रसाद का सिद्धान्त न्यायाधीशों पर लागू नहीं होता है। यदि वे कदाचरण नहीं करते हैं तो उन्हें पद से नहीं हटाया जा सकता है। प्रसाद का सिद्धान्त स्वतन्त्रता के लिए घातक है।

6. न्यायालय की क्षेत्राधिकार And शक्तियां

अनुच्छेद.140 के According सिविल मामलों में संसद उच्चतम न्यायालय में की जाने वाली अपीलों की आर्थिक सीमा बदल सकती है, और इस प्रकार उसकी अधिकारिता को बढ़ा सकती है। संसद इसकी (उच्चतम न्यायालय) अपराधिक अधिकारिता को कार्यसाधक Reseller में प्रयोग करने के लिए सहायक शक्तियां प्रदान कर सकती है। अनुच्छेद.32 में described प्रयोजनों से भिन्न किन्हीं अन्य प्रयोजनों के लिए निदेश, आदेश या लेख जिनके अन्तर्गत परमाधिकार रिट भी शामिल है, निकालने की शक्ति प्रदान कर सकती है। संसद उच्चतम न्यायालय की शक्तियों And अधिकार को बढ़ा सकती है, लेकिन घटा नहीं सकती।

7. न्यायलय अवमानना हेतु दण्ड शक्ति

संविधान के अनुच्छेद-129ए उच्चतम न्यायालय हेतु और अनुच्छेद.215ए उच्च न्यायालय हेतु अपने अवमानना के लिए किसी भी व्यक्ति को दण्ड देने की शक्ति प्रदान करता है। यह शक्ति न्यायालयों की स्वतन्त्रता और निष्पक्षता को Windows Hosting रखने के लिए अत्यन्त आवश्यक है, लेकिन न्यायालय अथवा न्यायाधीशों की उचित और सत्य आलोचना वर्जित नहीं है। इसके लिए न्यायालय अवमानना अधिनियम, 1971 को निर्मित Reseller गया हैै। अवमानना सिविल या आपराधिक दो प्रकार की हो सकती है। अनुच्छेद-129 And 215 कोर्इ नर्इ शक्ति प्रदान नहीं करते हैं। न्या0अव0अधि0 1971 इन अनुच्छेदों के अतिरिक्त है, यह इन उपबन्धों का अल्पीकरण नहीं करता है। न्यायालय अवमान अधिनियम 1971 के According न्यायालय अवमान दो प्रकार के होते हैं-

  1. सिविल अवमानना 
  2. आपराधिक अवमानना

‘सिविल अवमानना’ का Means है न्यायालय के किसी डिक्री, निर्णय, आदेश, निदेश, रिट या किसी अन्य प्रक्रिया की जानबूझकर अवज्ञा या न्यायालय का दिये हुए किसी वचन को जानबूझकर तोड़ना।

‘आपराधिक अवमान’ का Means है ऐसे विषय के प्रकाशन से (चाहे वह मौखिक हो या लिखित हो) या ऐसे कार्यों के करने से है जो –

  1. न्यायालय की निन्दा करते हो या ऐसी प्रवृति वाले या उसके प्राधिकार को कम करते हों या ऐसी प्रवृत्ति वाले हो।
  2. न्यायालय पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाले हो या न्यायिक कार्यवाही में बाधा डालते हो या ऐसी प्रवृत्ति वाले हो।

किन्तु निम्न कार्य या प्रकाशन न्यायालय की अवमानना करने वाले नहीं माने जायेगें –

  1. निर्दोश प्रकाशन या उनका वितरण
  2. न्यायिक कार्यों की रिपोर्ट का सही And उचित प्रकाशन। 
  3. न्यायिक कार्यों की उचित आलोचना। 
  4. न्यायाधीशों के विरूद्ध की गयी र्इमानदारीपूर्ण शिकायत। 
  5. न्यायालयों की गुप्त बैठकों की कार्यवाही का सही प्रकाशन।

न्यायाधीश की मानहानि से अवमान नहीं होता है। मानहानि से अवमान तभी होगा जब वह उचित टिप्पणी की सीमा पार कर दे और न्यायालय की गरिमा और प्रतिश्ठा पर कलंक लगाये। अश्विनी कुमार घोश वनाम अरविन्द घोश के वाद में उच्चतम न्यायालय ने Single न्यायिक अधिकारी को विरोध करने, उसके साथ मारपीट करने और सड़क पर उसे प्रदर्शित करने के लिए गुजरात के पुलिस अधिकारियों को दण्डित Reseller।

पुन: दिल्ली न्यायिक सेवा एसोसिएशन वनाम गुजरात राज्य (1991) के वाद में निण्र्ाीत हुआ कि उच्चतम न्यायालय की अवमानना के लिए दंड देने की शक्ति अपने अवमान तक ही सीमित नहीं है। न्यायालय पूरे देश में किसी भी न्यायालय या अधिकरण के अवमान के लिए दण्ड दे सकता है। पुन: मो0 असलम वनाम भारत संघ (1994) के वाद में उ0प्र0 के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को राम जन्मभूमि वाद के संबन्ध में न्यायालय को दिए गये वचन का पालन न करने के लिए दंडित Reseller गया। उन्हें 1दिन का कारावास और जुर्माना की सजा मिली थी।

8. सेवानिवृत्ति के बाद प्रक्टिस पर रोक

उच्चतम न्यायालय का सेवानिवृत न्यायाधीश भारत के किसी न्यायालय या प्राधिकारी के समक्ष अभिवचन या कार्य नहीं कर सकता है। कोर्इ व्यक्ति जो किसी उच्च न्यायालय का स्थायी न्यायाधीश रहा हो उच्चतम न्यायालय या जिस न्यायालय में वह नियुक्त Reseller गया था उससे भिन्न किसी उच्च न्यायालय के समक्ष अभिवचन या कार्य कर सकता है।

9. संसद को न्यायाधीशों के आचरण पर Discussion करने पर रोक

संविधान ने न्यायालयों को राजनीतिक आलोचना से अलग रखा है और इसलिए न्यायिक स्वतन्त्रता राजनीतिक दबाव तथा प्रभाव से मुक्त रहती है। न ही संसद के किसी सदन में और न ही राज्य के विधान मण्डल के किसी सदन में न्यायाधीशों के अपने कत्र्तव्य पालन में किये गये आचरण पर Discussion हो सकती है। इन री केशव सिंह, ए0आर्इ0आर0 (1965) के वाद में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि संविधान में प्रावधान है कि संसद के किसी भी सदन में न्यायाधीशों से सम्बन्धित किसी भी प्रकरण की Discussion पर पूरी तरह रोक है सिवाय तब के जब पदच्युत करने की प्रक्रिया चल रही हो। पुन: निक्सन एण्ड जोजफ वनाम भारत संघ (1989) सु0को0 का मामला भी इस विषय पर महत्वपूर्ण है।

इस वाद में केरल उच्च न्यायालय के समान Single बहुत ही उपयोगी और महत्वपूर्ण सवाल उठा कि क्या Single सेवानिवृत न्यायाधीश ;उच्चतम न्यायालय And उच्च न्यायालयद्ध किसी नौकरी को कर सकता है या चुनाव में भाग ले सकता है। जबकि यहां (संविधान में) किसी प्रकार की कोर्इ रोक नहीं है। यद्यपि याचिका अस्वीकार कर दी और सवाल को केन्द्रीय सरकार के विचार हेतु छोड़ दिया गया। विद्वान न्यायाधीश नारायन कुReseller इस बात का विचार रखा कि न्यायाधीशों को सेवानिवृति के बाद किसी भी प्रकार की सेवायोजन से और राजनीतिक वातावरण से बचना चाहिए। न्यायापालिका की गरिमा विश्वसनीयता और स्वतन्त्रता को कायम रखने के लिए यह आवश्यक है कि न्यायाधीशों को किसी भी प्रकार से अपनी न्यायिक छवि से समझौता नहीं करना चाहिए। न्याय केवल Reseller ही नहीं जाना चाहिए बल्कि न्याय होता हुआ दिखार्इ देना चाहिए।

न्यायिक स्वतंत्रता And चुनौतियाँ

उच्चत्तम न्यायालय की स्थिति बहुत मजबूत है और इससे इसकी स्वतन्त्रता पर्याप्त Reseller से संरक्षित है लेकिन कुछ ऐसे नुकसानदायक प्रवृत्तियाँ है जो इसकी स्वतन्त्रता को आघात पहुंचा रही है –

  1. सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की प्रति Appointment 
  2. न्यायाधीशों की न्यायालय में Appointment 
  3. वादों का लम्बित होना 
  4. न्यायाधीशों के विरूद्ध भ्रष्टाचार के आरोप 
  5. पदच्युति की प्रक्रिया की प्रभावहीनता

1. सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की प्रतिAppointment

यह न्यायिक स्वतन्त्रता के लिए बड़े खतरे की बात है कि न्यायपालिका के सेवानिवृत न्यायाधीश सरकार के अधीन किसी पद पर नियोजित होने की कोशिश करते रहते हैं। जबकि संविधानिक सभा ने इस प्रवृत्ति को रोकने की कोशिश की लेकिन सफलता नहीं मिली।

Indian Customer विधि आयोग ने सेवानिवृत न्यायाधीशों को आयोग And समितियों के अध्यक्ष के Reseller में नियुक्त किये जाने की वर्तमान प्रथा के संकटों के बारे में संकेत करते हुए इसे शीघ्रताशीघ्र समाप्त करने की सरकार से सिफारिश की है। विधि आयोग का मानना है कि ‘‘स्पष्टतया यह अवांछनीय है कि उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश अपनी सेवा निवृति के पश्चात दूसरी सरकारी Appointment की तरफ देखें।

उच्चतम न्यायालय में बहुत से मामलों में सरकार Single पक्षकार होती हे और साधारण नागरिकों के ऊपर यह प्रभाव पड़ता है कि वह न्यायाधीश जो सेवा निवृति के बाद सरकार द्वारा दूसरी Appointment पाने की आशा करता है, अपने कार्य में विचार की वह निश्पक्षता नहीं रख सकता, जो उन मामलों में, (जिनमें सरकार Single पक्षकार है), उन न्यायाधीशाों से अपेक्षित है। हम लोगों का स्पष्ट विचार है कि इस प्रथा का न्यायाधीशों की स्वतन्त्रता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। अतएव इसे समाप्त कर देना चाहिए।’’

2. न्यायाधीशों की न्यायालय में Appointment

अनुच्देद.124 के According उच्चतम न्यायालय/उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को िनुयक्त करने की विधिक शक्ति (Appointment की) कार्यपालिका में निहित है लेकिन कार्यपालिका को उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय के जजों से परामर्श लेना आवश्यक है, लेकिन उच्चतम न्यायालय एडवोकेट्स ऑन रिकार्ड तथा री प्रेसिडेन्सियल रिफरेन्स वाले वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि उच्चतम न्यायालय या उच्चन्यायालय में किसी भी न्यायाधीश की Appointment भारत के मुख्य न्यायमूर्ति की अध्यक्षता वाली कालेजियम की राय के अनुReseller ही की जा सकती है अन्यथा नहीं। यदि उससे अAgree है तो उसे कारण देना होगा। यह प्रक्रिया न ही अच्छी है और न ही पारदश्र्ाी है। इस बंधन रहित शक्ति का निहित Reseller जाना विवेकपूर्ण नहीं है। इस पर बंधन लगाये जाने चाहिए। यह सुझाव दिया गया है कि नियुक्त करने के लिए Single मंडल बनाया जाए जिसमें विभिन्न क्षेत्रों के व्यक्ति हों। जो दोनों तरफ नियन्त्रण रख सके (कार्यकारिणी And न्यायपालिका के मध्य)। आस्ट्रेलिया में ऐसी Appointmentयों को अंतिम Reseller न्यायिक आयोग देता है। 1990 में राष्ट्रीय न्यायिक काउन्सिल के गठन के लिए विधेयक भी लाया गया था। भारत के विधि आयोग ने 1987 में दिये गये अपने Single प्रतिवेदन में न्यायिक आयोग बनाने का सुझाव दिया था। इस आयोग का अध्यक्ष प्रधान न्यायाधीश होगा। इसके सदस्य उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश, उच्च न्यायालय के न्यायाधीश, सेवानिवृत मुख्य न्यायमूर्ति, महान्यायवादी और कुछ लोग कार्यपालिका के हो सकते हैं।

3. वादों का लम्बित होना

वादों का लंबित होना Single अन्य गंभीर समस्या है, 2.5 करोड़ से अधिक वाद न्यायालय के सामने लंबित हैं तथा लगभग 25,000 वाद अबतक उच्चतम न्यायालय के सामने लंबित हैं। जबकि लोकहित वादों के कारण Indian Customer विधायन में विस्फोटक वृद्धि हुर्इ है, जिसका कारण विधायिका, कार्यपालिका की असमर्थता, जनसंख्या में वृद्धि, और आर्थिक वृद्धि आदि हैं। यह दिखार्इ दे रहा है कि कोर्इ भी सम्भावना नहीं है कि इस कार्यभार में कमी आये जबकि दूसरी तरफ इनकी संख्या निरन्तर बढ़ती जा रही है।

4. न्यायाधीशों के विरूद्ध भ्रष्टाचार के आरोप

वर्तमान समय में कुछ तत्कालिक घटना हुर्इ है जिसमें कुछ उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय के जजों के ऊपर अनुशासनहीनता और भ्रष्टाचार के आरोप लगाये गये हैं। इसने न्यायालय की स्वतन्त्रता को आघात पहुँचाया है तथा आम लोगों के विश्वास को तोड़ने का प्रयास Reseller है।

कुछ आरोप कर्नाटका उच्चतम न्यायालय के जजों के विरूद्ध सेक्स स्कैन्डल में लिप्त होने के लिए लगाये गये हैं तथा पंजाब पब्लिक सर्विस कमीशन घोटाले में जजों का शामिल होना, मुख्य न्यायमूर्ति के आदेश के विरूद्ध पंजाब तथा हरियाणा उच्च न्यायालय के 26 जजों द्वारा आकस्मिक अवकाश लेना, इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति जगदीश भल्ला के विरूद्ध भ्रष्टाचार का आरोप, न्यायाधीश सौमित्र सेन के विरूद्ध भ्रष्ट प्रैक्टिस तथा शक्ति का दुResellerयोग का आरोप आदि कुछ उदाहरण हैं जो यह दर्शित करते हैं कि उच्चतम तथा उच्च न्यायालय Single ऐसे वातावरण से गुजर रहें हैं जिसे उचित सुधार की अत्यन्त Need है।

5. पदच्युति की प्रक्रिया की प्रभावहीनता

अनुच्छेद -124(4), (5) भी न्यायालय की स्वतन्त्रता के विरूद्ध है क्योंकि यह पदच्युति की प्रक्रिया को अत्यन्त जटिल बना देता है जिससे भ्रष्ट न्यायाधीश किसी भी प्रकार के अभियोग से नहीं डरते हैं। न्यायाधीश रामा स्वामी के विरूद्ध उन्हें हटाने का प्रस्ताव लोकसभा में अपेक्षित विशेष बहुमत से पारित नहीं Reseller जा सका क्योंकि कांग्रेस दल ने मतदान में भाग नहीं लिया था। यह Single ज्वलन्त उदाहरण है जो यह दिखाता है कि यहाँ संविधान में कोर्इ ऐसा व्यवहारिक प्रावधान नहीं है जिससे दोषी जज को सजा दी जा सके। कर्इ अन्य न्यायाधीशों पर गम्भीर आरोप होने पर भी पदच्युति प्रक्रिया की प्रभावहीनता के कारण न्यायालय की स्वतन्त्रता पर आघात पहुँचा है।

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