आर्थिक विकास के निर्धारक घटक And अवस्थाएं

विश्व के समस्त देशों में आर्थिक वृद्धि हुई है परन्तु उनकी वृद्धि दरें Single Second से भिन्न रहती हैं। वृद्धि दरों में असमानताएं उनकी विभिन्न आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, तकनीकी And अन्य स्थितियों के कारण पाई जाती है। यहीं स्थितियां आर्थिक वृद्धि के कारक हैं। परन्तु इन कारकों का निश्चित Reseller से History करना भी Single समस्या है क्योंकि विभिन्न Meansशास्त्रियों ने अपने अपने ढंग से इनको बताया है। किंडलबर्जर और हैरिक ने भूमि और प्राकृतिक साधन, भौतिक पूंजी, श्रम और Human पूंजी, संगठन प्रौद्योगिकी, पैमाने की बचतें और मण्डी का विस्तार, तथा संCreationत्मक परिवर्तन को आर्थिक वृद्धि के कारक माने हैं। रिचर्ड गिल ने जनसंख्या वृद्धि, प्राकृतिक साधन, पूंजी संचय, उत्पादन के पैमाने में वृद्धि And विशििष्टीकरण और तकनीकी प्रगति को आर्थिक वृद्धि के आधारभूत कारक बतलाए हैं। साथ ही लुइस ने आर्थिक वृद्धि के केवल तीन कारक ही महत्वपूर्ण कहे हैं, ये हैं : बचत करने का प्रयत्न, ज्ञान की वृद्धि या उसका उत्पादन में प्रयोग और प्रति व्यक्ति पूंजी अथवा अन्य साधनों की मात्रा में वृद्धि करना। परन्तु नक्र्से इन कारकों को Meansिक वृद्धि के लिए पर्याप्त नहीं समझता। उसके According, ‘‘आर्थिक वृद्धि बहुत हद तक Humanीय गुणों, सामाजिक प्रवृत्तियों, राजनैतिक परिस्थितियों और ऐतिहासिक संयोगों से संबंध रखती है। वृद्धि के लिए पूंजी अनावश्यक तो है परन्तु उसके लिए केवल पूंजी का होना ही पर्याप्त नहीं है।’’ अत: राजनैतिक, ऐतिहासिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक Needएं आर्थिक वृद्धि के लिए उतनी ही महत्वपूर्ण हैं जितनी कि आर्थिक Needएं।

आर्थिक विकास को निर्धारित करने वाले कारक

प्रत्येक देश के आर्थिक विकास की पृष्ठभूमि में कुछ ऐसे तत्व विद्यमान होते हैं जिन पर उस देश का आर्थिक विकास निर्भर करता है। आमतौर से इन तत्वों का वर्गीकरण दो प्रकार से Reseller जाता है-(अ) प्रधान चालक तत्व And अनुपूरक तत्व (ब) आर्थिक And गैर आर्थिक तत्व।प्रधान चालक अथवा प्राथमिक तत्व वे तत्व होते हैं जो उस देश के आर्थिक विकास के कार्य को प्रारम्भ करते हैं। विकास की नींव वास्तव में इन्हीं तत्वों पर रखी जाती है। प्रधान चालक तत्वों के माध्यम से जब विकास की प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है तो कुछ अन्य तत्व इनको तीव्रता प्रदान करते हैं। वास्तव में इन्हें ही अनुपूरक अथवा गौण अथवा सहायक तत्व कहा जाता है। इस प्रकार प्राथमिक तत्व विकास की आधारशिला हैं जबकि अनुपूरक तत्व, आर्थिक विकास को गति प्रदान करते हैं और इसे बनाये रखने में सहायक सिद्ध होते हैं।

प्रधान चालक तत्वों में प्राकृतिक साधन Humanीय साधन, कौशल निर्माण तथा सामाजिक, सांस्कृतिक व संस्थागत तत्वों को सम्मिलित Reseller जाता है। इसके विपरीत अनुपूरक तत्वों में 1. जनसंख्या वृद्धि, 2. प्राविधिक विकास की दर, और 3. पूंजी निर्माण की दर मुख्य हैं। प्रधान चालक और अनुपूरक तत्वों के सापेक्षिक महत्व, वर्गीकरण व स्वResellerों के सम्बन्ध में Meansशास्त्रियोंं में काफी मतभेद पाया जाता है। कुछ लोग प्रधान चालक तत्वों को महत्व प्रदान करते हैं। तो कुछ लोग सहायक तत्वों को।

प्रो0 हैरोड And डोमर ने आर्थिक विकास के चार सहायक तत्व माने हैं – 1. जनसंख्या वृद्धि की दर, 2. औद्योगिक विकास की दर, 3. पूंजी उत्पाद अनुपात, 4. बचत व आय का अनुपात।

श्रीमती जॉन राबिन्सन का मत है कि ‘‘आर्थिक विकास Single स्वत: प्रारम्भ होने वाली प्रक्रिया है इसलिये प्राथमिक तत्वों के विपरीत, अनुपूरक तत्वों को अधिक महत्व दिया जाना चाहिए क्योंकि विकास को अन्तिम Reseller देने का उत्तरदायित्व इन्हीं तत्वों पर होता है।’’ उनकी दृष्टि में जनसंख्या And उत्पादन की दर का अनुपात और पूंजी निर्माण की दर, दो सहायक तत्व आर्थिक विकास के लिये अत्यन्त आवश्यक है।

प्रो0 शुम्पीटर ने ‘नव प्रवर्तन’ को आर्थिक विकास का आवश्यक तत्व माना है। नव प्रवर्तन से उनका अभिप्राय – 1. उत्पादन की विकसित तकनीकी का सूत्रपात, 2. नई वस्तुओं का उत्पादन,3.नये बाजारों का उपलब्ध होना, 4. उद्योगों में संगठन के नूतन स्वReseller तथा नये साधनों में प्रयोग आदि से है।

प्रो0 डब्ल्यू0 डब्ल्यू0 रोस्टोव – ने आर्थिक विकास को प्रभावित करने वाले दो महत्वपूर्ण गतिशील तत्वों – पूंजी संचयन And श्रम-शक्ति की ओर संकेत Reseller है। उनका कहना है कि इन दो तत्वों को निम्नलिखत छ: प्रवृत्तियां प्रभावित करती हे – 1. आधारभूत विज्ञान को विकसित करने की प्रवृत्ति, 2. आर्थिक उद्देश्यों में विज्ञान को लागू करने की प्रवृत्ति, 3. नवीन प्रवर्तनों की खोज व उन्हें लागू करने की प्रवृत्ति, 4. भौतिक प्रगति करने की प्रवृत्ति, 5. उपभोग वृत्ति तथा 6. सन्तान उत्पन्न करने की इच्छा।

प्रो0 रिचार्ड टी0 गिल – के According आर्थिक विकास को प्रभावित करने वाले मुख्य तत्व हैं-1.जनसंख्या वृद्धि,2. प्राकृतिक साधन, 3. पूंजी संचय, 4. उत्पादन में विशिष्टीकरण, 5. तकनीकी प्रगति। प्रो0 मायर And बाल्डविन का मत है कि यद्यपि आर्थिक विकास को बनाये रखने के लिये वांछित निर्धारक आर्थिक तत्वों की Single लम्बी सूची तैयार की जा सकती है, परन्तु वास्तविक Reseller से इन्हें निम्न चार शीर्षकों में रखना अधिक उचित होगा :- 1. तकनीकी प्रगति And पूंजी संचय, 2.प्राकृतिक साधन, 3. जनसंख्या, 4. साधनों का लचीलापन।

आर्थिक And गैर आर्थिक तत्व

उपरोक्त वर्गीकरण के अलावा, निर्धारक तत्वों को आर्थिक And गैर आर्थिक आधार पर भी वर्गीकृत Reseller गया है। आर्थिक तथा गैर आर्थिक तत्वों की सूची इस प्रकार है :-

आर्थिक विकास के निर्धारक तत्व

आर्थिक तत्व 

  1. प्राकृतिक साधन 
  2. Humanीय साधन 
  3. पूंजी संचय अथवा पूंजी निर्माण 
  4. उद्यमशीलता
  5. तकनीकी प्रगति And नव प्रवर्तन
  6. विदेशी पूंजी

गैर आर्थिक तत्व

  1. सामाजिक And संस्थागत तत्व
  2. स्थित And कुशल प्रशासन
  3. अन्तर्राष्ट्रीय दशायें

आर्थिक कारक And आर्थिक विकास

किसी देश की आर्थिक विकास को निर्धारित करने वाले आर्थिक तत्व निम्नलिखित कहे जा सकते हैं :-

प्राकृतिक साधन

प्राकृतिक साधनों से हमारा अभिप्राय उन All भौतिक अथवा नैसर्गिक साधनों से है जो प्रकृति की ओर से Single देश को उपहार स्वReseller प्राप्त होते हैं। किसी देश में उपलब्ध होने वाली भूमि, खनिज पदार्थ, जल सम्पदा, वन सम्पत्ति, वर्षा And जलवायु, भौगोलिक स्थिति और प्राकृतिक बन्दरगाह उस देश के प्राकृतिक साधन माने जायेंगे। यह प्राकृतिक साधन देश के आर्थिक विकास में Single महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। आमतौर से यह बात स्वीकार की जा चुकी है कि अन्य बातों के समान रहने पर जिस देश के प्राकृतिक साधन जितने अधिक होंगे, उस देश का आर्थिक विकास उतना ही शीघ्र And अधिक होगा। आर्थिक विकास की दृष्टि से प्राकृतिक साधनों के महत्व को स्पष्ट करते हुए रिचार्ड डी गिल ने लिखा है :-

‘जनसंख्या And श्रम की पूर्ति की भांति प्राकृतिक साधन भी Single देश के आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। उपजाऊ भूमि और जल के अभाव में कृषि का विधिवत विकास नहीं हो पाता। लोहा, कोयला व अन्य खनिज सम्पदा के न होने पर तीव्र औद्योगीकरण का स्वप्न अधूरा ही बना रहता है। जलवायु और भौगोलिक परिस्थितियों की प्रतिकूलता के कारण आर्थिक क्रियाओं के विस्तार में अवरोध उत्पन्न होते हैं। वास्तव में प्राकृतिक साधनों का किसी देश के आर्थिक विकास को सीमित करने अथवा प्रोत्साहित करने में Single निर्णायक स्थान होता है।’’

प्राकृतिक साधनों के बारे में दो बातों को दृष्टि में रखना आवश्यक है First, प्रकृति-दत्त साधन सदैव के लिये सीमित व निश्चित होते हैं, Humanीय प्रयत्नों से उन्हें खोजा तो जा सकता है परन्तु उनका नव निर्माण नहीं Reseller जा सकता। गिल महोदय का भी कहना है कि ‘‘ जनसंख्या बढ़ सकती है, उपकरणों, मशीनों तथा फैक्ट्ररियों का निर्माण Reseller जा सकता है। किन्तु हमें प्रकृति द्वारा दिये गए प्राकृतिक उपहार (साधन) सदैव के लिए सीमित And निश्चित होते हैं।’’

द्वितीय, यह सोच लेना Single भयंकर भूल होगी कि जिस देश में जितने अधिक प्राकृतिक साधन होंगे, उस देश का विकास उतना ही अधिक होगा। आर्थिक विकास के लिये प्राकृतिक साधनों की केवल बाहुल्यता ही पर्याप्त नहीं है बल्कि उनका उचित ढंग से विदोहन Reseller जाना अधिक आवश्यक है।

उदाहरण के लिए स्विटजरलैंड तथा जापान के प्राकृतिक साधन कम होते हुए भी आज वे विश्व के सर्वाधिक विकसित राष्ट्र माने जाते हैं। भारत के सम्बन्ध में कहा जाने वाला यह वाक्य आज भी इस दृष्टि से अडिग है कि – ‘‘भारत Single धनी देश है जहां निर्धन वास करते हैं।’’

Humanीय साधन

Humanीय साधनों से हमारा अभिप्राय किसी देश में निवास करने वाली जनसंख्या से है। श्रम, प्राचीन काल से ही उत्पादन का Single महत्वपूर्ण And सक्रिय साधन माना जाता है। प्रसिद्ध Meansशास्त्री एडम स्मिथ का कहना था कि ‘‘प्रत्येक देश का वार्षिक श्रम वह कोष है जो मूल Reseller से जीवन की अनिवार्यताओं व सुविधाओं की पूर्ति करता है।’’ Humanीय श्रम ही वह शक्ति है जिस पर देश का आर्थिक विकास निर्भर करता है।’’ प्राय: यह कहा जाता है कि जनसंख्या वृद्धि आर्थिक विकास की पूर्व Need है लेकिन तीव्र गति से होने वाली जनसंख्या का बढ़ना तभी तक श्रेष्ठकर माना जायेगा जब तक कि उनका प्रति-व्यक्ति उत्पादन पर कोई विपरीत प्रभाव न पड़ने पाये। Second Wordों में देश की जनसंख्या व उसका आकार, वृद्धि दर, संCreation, विभिन्न व्यवसायों में वितरण व कार्यक्षमता आदि का उस देश के आर्थिक विकास पर अत्यन्त गहरा प्रभाव पड़ता है।यहॉ आपको स्पष्ट Reseller से यह बताना है कि किसी देश की वास्तविक सम्पत्ति उस देश की भूमि या पानी में नहीं, वनों या खानों में नहीं, पक्षियों या पशुओं के झुण्डों में नहीं, और न ही डालरों के ढेर में आंकी जाती है बल्कि उस देश के स्वस्थ, सम्पन्न व सुखी पुरूषों, स्त्रियों And बच्चों में निहित है।’’

अत: Need इस बात की है कि आर्थिक विकास के लिये Humanीय शक्ति का सही ढंग से उपयोग करने हेतु 1. जनाधिक्य पर नियंत्रण लगाया जाये, 2. श्रम शक्ति में उत्पादकता And गतिशीलता बढ़ाते हुए उसके दृष्टिकोण में परितर्वन Reseller जाये ताकि उसमें श्रम-गौरव की भावना आ सके तथा 3. Humanीय पूंजी निर्माण पर बल दिया जाये। मेयर्स के According Humanीय पूंजी निर्माण से हमारा आशय ‘देश की जनसंख्या उसके आर्थिक विकास की Needओं के अनुReseller है और उसके निवासी विवेकशील, चरित्रवान, स्वस्थ, परिश्रमी, शिक्षित व कार्यदक्ष हैं तो नि:सन्देह अन्य बातों के समान रहने पर, उस देश का आर्थिक विकास अधिक होता है। प्रो0 रिचार्ड टी0 गिल का कहना है कि :- ‘‘आर्थिक विकास Single यांत्रिक प्रक्रिया मात्र ही नहीं, वरन् अन्तिम Reseller से यह Single Humanीय उपक्रम है। अन्य Humanीय उपक्रमों की भांति इसका परिणाम, सही Meansों में, इसको संचालित करने वाले जन समुदायों की कुशलता, गुणों व प्रवृत्तियों पर निर्भर करता है।’’

इसमें कोई संदेह नहीं कि जहां विकसित देशों के आर्थिक विकास में जनसंख्या व उसकी क्रमिक वृद्धि का Single महत्वपूर्ण योगदान रहा है, वहां अल्प विकसित देशों के अवरूद्ध आर्थिक विकास का Single मात्र कारण जनसंख्या की तीव्र वृद्धि ने विश्व के अधिकांश पिछड़े हुए देशों के लिए Single गम्भीर समस्या उत्पन्न कर दी है। अवांछित Reseller से बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण भूमि तथा यंत्रों पर दबाव बढ़ने लगता है, प्रति व्यक्ति आय, बचतों तथा पूंजी निर्माण की दरों में कमी आती है, उत्पादकता मे ह्रास होता है, प्रति व्यक्ति पूंजीगत साधनों का अभाव होने लगता है, बेरोजगारी बढ़ती है And जीवन स्तर में कमी आने लगती है और इस प्रकार आर्थिक विकास के अंतर्गत प्राप्त उपलब्धियां स्वत: ही समाप्त हो जाती हैं।

पूंजी संचय

प्रो0 कुजनेट्स के Wordों में, ‘‘पूंजी व पूंजी का संचय आर्थिक विकास की Single अनिवार्य Need है।’’ जब तक देश में पर्याप्त मात्रा में पूंजी व पूंजी निर्माण नहीं होगा तब तक आर्थिक विकास का लक्ष्य पूरा नहीं हो सकता है। प्रो0 नर्कसे का कहना है कि ‘‘पूंजी निर्माण आर्थिक विकास की Single पूर्व Need है।’’ देश के आर्थिक विकास के लिये Single बड़ी मात्रा में पूंजी व पूंजीगत वस्तुओं जैसे भवन, कल-कारखाने, मशीनें, यन्त्र व उपकरण, बांध, नहरें, रेलें, सड़कें, कच्चा माल व ईंधन की Need होती है। जिस देश के पास यह साधन जितने अधिक होंगे, अन्य बातें समान रहने पर उसका आर्थिक विकास उतना ही अधिक होगा। आज विकसित कहे जाने वाले राष्ट्रों की प्रगति का मुख्य कारण, इन देशों में पूंजी निर्माण की ऊंची दर का पाया जाना है जबकि अल्प विकसित देशों में पूंजी निर्माण की धीमी दर के कारण उनका आर्थिक विकास आज भी अवरूद्ध अवस्था में पड़ा हुआ है। सत्यता तो यह है कि पूंजी का संचय, वर्तमान समय में, अमीर-गरीब के बीच पाये जाने वाले अन्तर का कारण व प्रतीक है, यह निर्धन देशों को धनवान बनाने की Single कला है और विश्व के पिछड़े हुए देशों के विगत History के विपरीत, आज के इस औद्योगिक युग का सूत्रपात करने वाले कारकों में से Single प्रमुख कारक है।

तकनीकी प्रगति And नव-प्रवर्तन

प्रसिद्ध Meansशास्त्री प्रो0. शुम्पीटर का कहना है कि विकास की सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटक तकनीकी प्रगति And नव-प्रवर्तनों को अपनाया जाना है। तकनीकी ज्ञान की प्रगति को ऐसे नये ज्ञान के Reseller में परिभाषित Reseller जा सकता है जिसके कारण या तो वर्तमान वस्तुएं कम लागत पर उत्पन्न की जा सकें अथवा जिनके फलस्वReseller नई वस्तुओं का उत्पादन सम्भव Reseller जा सके।’’ तकनीकी ज्ञान उत्पादन की विधियों में मौलिक परिवर्तन लाकर आर्थिक विकास के कार्य को गति प्रदान करता है। विकसित देशों की विकास वृद्धि की दर, बुनियादी Reseller से उनके द्वारा की गई तकनीकी व नव प्रवर्तनों की खोज पर आधारित रहती है। इसके विपरीत अल्प विकसित देशों में तकनीकी ज्ञान के अभाव में उत्पादन की पुरानी व अवैज्ञानिक विधियों का प्रयोग Reseller जाता है जिसके फलस्वReseller इनका आर्थिक विकास आज भी पिछड़ी हुई अवस्था में है।

प्रो0 रिचार्ड टी0 गिल का कहना है कि ‘‘आर्थिक विकास अपने लिये महत्वपूर्ण पौष्टिकता वस्तुत:, नये विचारों, तकनीकी आविष्कारों व उत्पादन विधियों के स्रोतों से प्राप्त करता है, जिनके अभाव में, अन्य साधन कितने ही विकसित क्यों न हों, आर्थिक विकास का प्राप्त करना असम्भव ही बना रहता है।’’ ध्यान रहे, तकनीकी प्रगति, नवीन प्रवर्तनों के अपनाए जाने पर ही निर्भर करती है। Single देश में तकनीकी प्रगति के लिये प्रो0 गिल ने चार तत्वों का होना आवश्यक बताया है – 1. विज्ञान की प्रगति या वैज्ञानिक अभिरूचि 2 समाज में शिक्षा का ऊंचा स्तर, 3. नव प्रवर्तनों को व्यावहारिक Reseller देना तथा 4. उद्यमशीलता।

उद्यमशीलता

नये आविष्कार, तकनीकी ज्ञान व नई खोजों का आर्थिक विकास की दृष्टि से तब तक कोई महत्व नहीं जब तक कि उन्हें व्यावहारिक Reseller प्रदान न कर दिया जाये – और यह काम समाज के साहसी वर्ग को करना होता है। प्रो0 गिल का कहना है कि ‘‘तकनीकी ज्ञान आर्थिक दृष्टि से तभी उपयोगी हो सकता है जब उसे नव प्रवर्तन के Reseller में प्रयोग Reseller जाये और जिसकी पहल समाज के साहसी वर्ग द्वारा की जाती है।’’ वास्तव में, किसी देश का आर्थिक विकास विशेष Reseller से इस बात पर निर्भर करता है कि उस देश में किस प्रकार के साहसी हैं ? वे नये आविष्कारों व विकसित तकनीकों का किस सीमा तक प्रयोग करते हैं ? और उनके उत्पादन के क्षेत्र में विकास और सुधार करने की कितनी प्रबल इच्छा है ? आर्थिक विकास तकनीकी प्रगति व नव प्रवर्तनों पर निर्भर करता है, नव प्रवर्तनों के लिए उद्यमशीलता की Need होती है, उद्यमशीलता के लिए जोखिम उठानी पड़ती है और जोखिम सफलता का दूसरा नाम है।

श्री याले ब्राजन के According, ‘ न तो आविष्कार की योग्यता और न केवल आविष्कार ही आर्थिक विकास को संभव बनाते हैं बल्कि यह तो, उन्हें कार्यReseller में परिणित करने की प्रबल इच्छा व जोखिम उठाने की क्षमता पर निर्भर करता है।’’ प्रो0 शुम्पीटर ने अपने आर्थिक विकास के सिद्धान्त में नव प्रवर्तनों के Reseller में साहसियों को केन्द्रीय स्थान देते हुए इन्हें आर्थिक विकास की संचालन शक्ति माना है। वास्तव में, आर्थिक विकास वैदिक काल से ही उद्यमशीलता के साथ सम्बन्धित रहा है और उद्यमकर्ता को उन व्यक्तियों के Reseller में परिभाषित Reseller जाता है जो ‘नये दृष्टिकोणों’’ व ‘नये संयोगों’ का सृजन करते हैं। प्रो0 बोल्डिंग का मत है कि आर्थिक प्रगति को विभिन्न समस्याओं में से मुख्य समस्या समाज के Single वर्ग विशेष को ‘नव प्रवर्तकों’ का Reseller देने की होती है।

विकसित देशों की आर्थिक प्रगति का मुख्य कारण, इन देशों में साहसियों का पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होना ही रहा है। जबकि इसके विपरीत पिछड़े हुए देशों में ‘शर्मीली पूंजी’, उद्यमशीलता का अभाव व जोखिम उठाने की क्षमता न होने के कारण, इन देशों का आर्थिक विकास संभव नहीं हो सका। आजकल अल्प विकसित देशों में नव प्रवर्तकों की भूमिका सरकार द्वारा अदा की जाती है। इसका कारण यह है कि Single तो निजी उद्यमकर्ताओं का अभाव और दूसरा विकास कार्यों पर, उत्पादन की नई तकनीकों के अंतर्गत विशाल धनराशि को विनियोग करना पड़ता है जो कि व्यक्तिगत प्रयत्नों से संभव नहीं हो पाता।

विदेशी पूंजी

अल्प विकसित देश के आर्थिक विकास का Single अन्य निर्धारक तत्व विदेशी पूंजी है। विदेशी पूंजी के प्रयोग के अभाव में कोई भी अल्प विकसित देश आर्थिक विकास नहीं कर सकता। इसका कारण यह है कि अल्प विकसित देशों में प्रति व्यक्ति आय के कम होने के कारण घरेलू बचत की दर काफी कम होती है। लोगों का जीवन स्तर इतना नीचा होता है कि उनके द्वारा बचत करना संभव नहीं हो पाता। फलत: घरेलू बचत की इस कमी को विदेशी पूंजी के आयात द्वारा पूरा Reseller जा सकता है। विदेशी पूंजी के आयात का सबसे बड़ा लाभ यह होता है कि यह अपने साथ तकनीकी ज्ञान व पूंजीगत उपकरणों को भी लाती है। जिनका पिछड़े हुए देशों में सर्वथा अभाव होता है। इस प्रकार पूंजी व विकसित तकनीकी के उपलब्ध हो जाने पर अल्प विकसित देशों में तकनीकी स्तर को ऊंचा करके प्रति व्यक्ति उत्पादकता को बढ़ाया जा सकता है। संक्षेप में, अल्प विकसित देशों में विदेशी पूंजी का प्रयोग विकास परियोजना योजनाओं को चालू करना ; कच्ची सामग्री, मशीनें व उपकरणों का आयात करने ; उत्पादन स्तर को बनाये रखने ; तथा आवश्यक वस्तुओं का आयात करके मुद्रा-स्फीति का सामना करने में सहायक सिद्ध होती है।

अनार्थिक कारक And आर्थिक विकास

आर्थिक विकास के गैर आर्थिक तत्व इस प्रकार है :-

सामाजिक तथा संस्थागत तत्व

मायर And बाल्डविन के According ‘आर्थिक विकास के मनोवैज्ञानिक व सामाजिक Needओं का होना उसी प्रकार जरूरी है जिस प्रकार आर्थिक Needओं का’ इसका कारण यह है कि राष्ट्रीय विनियोग नीति पर राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक व आर्थिक प्रवृत्तियों का संयुक्त प्रभाव पड़ता है। किसी देश का आर्थिक विकास मूल Reseller से इस बात पर निर्भर करता है कि लोगों में नूतन मूल्यों व संस्थाओं केा अपनाने की कितनी प्रबल इच्छा है। वास्तव में गैर आर्थिक तत्वों के Reseller में यह सामाजिक, मनौवैज्ञानिक व संस्थागत तत्व, आर्थिक विकास की उत्पे्ररक शक्तियां हैं। प्रो0 रागनर नर्कसे का कहना है कि ‘आर्थिक विकास का Humanीय मूल्यों, सामाजिक प्रवृत्तियों, राजनैतिक दशाओं तथा ऐतिहासिक घटनाओं से Single घनिष्ट सम्बन्ध रहा है।

संयुक्त राष्ट्र संघ – की प्रकाशित Single रिपोर्ट के According ‘‘Single उपयुक्त वातावरण की अनुपस्थिति में आर्थिक प्रगति असम्भव है। आर्थिक विकास के लिए आवश्यक है कि लोगों में प्रगति की प्रबल इच्छा हो, वे उसके लिये हर सम्भव त्याग करने को तत्पर हों, वे अपने आपको नये विचारों के अनुकूल ढालने के लिए जागरूक हों और उनकी सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व वैधानिक संस्थायें इन इच्छाओं को कार्यReseller में परिणित करने में सहायक हों।’ प्रो0 पाल अलबर्ट का कहना है कि आर्थिक विकास के लिये समाज व Meansव्यवस्था की संCreation, वांछित परिवर्तनों की सम्भावनाओं की दृष्टि से खुली होनी चाहिए। अल्प विकसित देशों के आर्थिक पिछड़ेपन का मुख्य कारण, वास्तव में ये सामाजिक व संस्थागत तत्व ही रहे हैं। इन देशों में जाति-प्रथा, छूआ छूत, संयुक्त परिवार प्रणाली, उत्तराधिकार के नियम, भू-धारण की दोषपूर्ण व्यवस्था, भूमि व सम्पत्ति के प्रति मोह, अन्ध विश्वास, रूढ़िवादिता, धार्मिक पाखण्ड, परिवर्तन के प्रति विरक्ति और उसका विरोध, सामाजिक अपव्यय तथा झूठी शान शौकत जैसे तत्वों ने आर्थिक विकास के मार्ग पर सदैव बाधायें उत्पन्न की हैं। इन देशों का आर्थिक विकास तब तक सम्भव नहीं हो सकता, जब तक कि इन सामाजिक, सांस्कृतिक व धार्मिक संस्थाओं का नये सिरे से नव निर्माण न कर दिया जाये। अत: इस दृष्टि से आवश्यक है कि लोगों की रूढ़िवादी धारणाओं को परिवर्तित Reseller जाए, उनमें भौतिक दृष्टिकोण पैदा Reseller जाए और शिक्षा का विस्तार Reseller जाए ताकि ये लोग अपने आपको नये विचारों के अनुकूल ढाल सकें।

स्थिर तथा कुशल प्रशासन

किसी देश का आर्थिक विकास बहुत Single सीमा तक उस देश के स्थिर व कुशल प्रशासन पर भी निर्भर करता है। यदि देश में शान्ति और Safty पायी जाती है तथा न्याय की उचित व्यवस्था है तो लोगों में काम करने तथा बचत करने की इच्छा पैदा होगी और फलस्वReseller आर्थिक विकास को बढ़ावा मिलेगा। इसके विपरीत यदि देश में राजनैतिक अस्थिरता है Meansात् सरकारें बार-बार बदलती रहती हैं तथा आन्तरिक क्षेत्र में अशान्ति का वातावरण व्याप्त है तो इससे विनियोग सम्बन्धी निर्णयों पर बुरा प्रभाव पड़ेगा। पूंजी का विनियोग देश मे कम होगा, जोखिम उठाने के लिये लोग तैयार नहीं होंगे तथा विदेशी पूंजी देश में आने के लिए तैयार नहीं हो पायेगी और फलस्वReseller देश का आर्थिक विकास पिछड़ जायेगा। इतना ही नहीं, सरकार की स्वयं विकास के प्रति रूचि का होना भी जरूरी है, अन्यथा उसके अभाव में आर्थिक विकास का श्रीगणेश भी नहीं हो सकेगा।

सरकार की कुशल प्रशासन व्यवस्था और उसके कर्मचारियों में निपुणता, ईमानदारी And उत्तरदायित्व की भावना आर्थिक विकास की पहली शर्त है। प्रशासनिक व्यवस्था के सुचारू व सुदृढ़ होने पर जन सहयोग बढ़ता है विकास कार्यक्रम सफल होते हैं और नीतियों का निर्धारण व उनका निष्पादन सरलता के साथ सम्भव हो जाता है। प्रो0 डब्लू आर्थर लुइस का मत है कि ‘‘कोई भी देश राजकीय सहयोग व उसका सक्रिय प्रोत्साहन पाये बिना, आज तक आर्थिक विकास नहीं कर सका है। यह कथन अपने में आज भी सत्य है और भविष्य के लिये भी सत्य है और अल्प विकसित Meansव्यवस्थाओं के लिये तो यह विशेष Reseller से कटु सत्य माना जाएगा।’’

अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियां

आर्थिक विकास के लिये अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों का अनुकूलन होना भी आवश्यक है। विश्व मंच पर राजनैतिक शान्ति बने रहने पर ही विकास व नव निर्माण कार्य संभव हो सकते हैं। अशान्ति और Fightों की धधकती ज्वाला में विकाSeven्मक नहीं, वरन् विध्वंSeven्मक प्रवृत्तियां जन्म लेती हैं। राजनैतिक शान्ति के अलावा विष्व के देशों में सद्भावना, सहयोग व वित्तीय सहायता का उपलब्ध होना भी अत्यावश्यक है। अल्प विकसित देशों में पूंजी व पूंजीगत सामान, भारी मशीनें तथा तकनीकी ज्ञान का सर्वथा अभाव होता है। इन All Needओं की आपूर्ति विकसित राष्ट्रों द्वारा जब तक नहीं की जायेगी, तब तक इन देशों का आर्थिक विकास अवरूद्ध बना रहेगा। विकसित देश अनुदान, ऋ़ण, प्रत्यक्ष विनियोग और तकनीकी सहायता आदि के Reseller में इन देशों को आर्थिक सहयोग दे सकते हैं। संक्षेप में राजनीतिक स्थिरता, विकसित देशों की नीति, पड़ोसी देशों का रूख, विदेशी व्यापार की सम्भावनाओं और विदेशी पूंजी का अन्तपर््रवाह आदि तत्व आर्थिक विकास को प्रत्यक्ष व परोक्ष Reseller में प्रभावित करते है।

उपर्युक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि किसी देश का आर्थिक विकास अनेक तत्वों पर निर्भर करता है। वस्तुत: यह कहना कि कौन सा तत्व अधिक महत्वपूर्ण है, अत्यन्त कठिन है। आर्थिक विकास की प्रक्रिया में इन All निर्धारक तत्वों का अपना Single विशेष स्थान है इसलिये उनके सापेक्षिक योगदान And महत्व के बारे में कुछ भी कहना न तो सम्भव ही है और न ही तर्कपूर्ण।

आर्थिक विकास की अवस्थाएं

आर्थिक विकास Single क्रमिक प्रक्रिया है। जिस प्रकार Human के विकास का आदिम History इस तथ्य को स्पष्ट करता है कि मनुष्य जन्म के समय शिशु, शिशु से किशोर, किशोर से तरूण और फिर जवानी की दहलीज पार करते हुए वृद्धावस्था की ओर अग्रसर होता है, ठीक उसी प्रकार प्रत्येक देश को अपने पिछड़ेपन से विकास की चरम सीमा तक पहुंचने के लिए अनेक अवस्थाओं से होकर गुजरना पड़ता है। क्रमिक विकास की यह व्यवस्था, अपने में ही इतनी अधिक सार्वभौमिक है कि वर्तमान समय में विकसित कहे जाने वाले देशों जैसे अमेरिका, ब्रिटेन, रूस, फ्रांस व जापान आदि को भी सम्पन्नता की मन्जिल पर पहुंचने के लिये अनेक पड़ावों को पार करना पड़ा है। हां ! यह सम्भव हो सकता है कि कोई देश अपने सक्रिय प्रयत्नों के फलस्वReseller विकास की प्रत्येक अवस्था में पड़े रहने की अवधि को कम कर लें, परन्तु यह नामुमकिन है कि उसने विकास की प्रत्येक अवस्था की परिधि को छुआ न हो।

प्रो0 रिचार्ड टी0 गिल का कहना है कि ‘Meansव्यवस्थाओं के आर्थिक विकास की विभिन्न अवस्थाओं की खोज, इंग्लैण्ड की महान औद्योगिक क्रांति के काल से ही प्रारम्भ की जा चुकी है। आर्थिक विकास की अवस्थाओं के इस दृष्टिकोण ने, जो कि सैद्धान्तिक की बजाय वर्णात्मक अधिक है, विकास प्रक्रिया को अनेक अवस्थाओं में वर्गीकृत करने का प्रयास Reseller है जिसमें से All देशों को अपने स्वाभाविक आर्थिक उद्गम व विकास के लिए होकर गुजरना पड़ेगा है।’’

अवस्थाएं सम्बन्धी मतभेद

अनेक Meansशास्त्रियों ने आर्थिक विकास के ऐतिहासिक क्रम को भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में विभाजित करने का प्रयत्न Reseller है। चूंकि इन All Meansशास्त्रियों द्वारा described अवस्थाओं के दृष्टिकोण, आधार व काल अलग अलग रहे हैं। इसलिए उनके विचारों में मतभेद का पाया जाना अत्यन्त स्वाभाविक है। विकास की अवस्थाओं का मार्ग दर्शन करने वालों में प्रो0 लिस्ट, हिल्डेब्रांड, बकर, एशले, बूचर, शमोलर, कोलिन क्र्लाक, कार्लमाक्र्स तथा रोस्टोव आदि प्रमुख हैं। नीचे हम इन्हीं के विचारों का अध्ययन करेंगे –

प्रो0 फ्रेडरिक लिस्ट की आर्थिक विकास की अवस्थाएं

प्रसिद्ध जर्मन राष्ट्रवादी Meansशास्त्री फ्रेडरिक लिस्ट ने 1844 में आर्थिक व्यवस्था के क्रमिक विकास की निम्न पांच अवस्थाओं का History Reseller था- 1. जंगली अवस्था 2. चरागाह अवस्था 3. कृषि अवस्था, 4. उद्योग अवस्था, 5. उन्नत अवस्था।

प्रो0 लिस्ट का मत था कि प्रत्येक देश को उन्नत अवस्था को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए, परन्तु यह तभी संभव हो सकता है जबकि 1. देश First कृषि में उन्नति करे और फिर बाद में उद्योगों के विकास पर बल दिया जाए, 2. प्रारम्भिक अवस्था में राष्ट्रीय उद्योगों को संरक्षण प्रदान Reseller जाए तथा 3. जब देश उन्नत अवस्था को प्राप्त कर ले तब स्वतंत्र व्यापार नीति को अपनाते हुए विदेशी व्यापार सम्बन्धी All प्रतिबन्धों को हटा देना चाहिए।

प्रो0 हिल्डेब्रांड की आर्थिक विकास की अवस्थाएं

सन् 1864 में जर्मन Meansशास्त्री हिल्डेब्रांड ने विकास की तीन अवस्थायें बताई थीं जो कि इस प्रकार हैं-1. वस्तु विनिमय अवस्था 2. मुद्रा अवस्था और 3. साख अवस्था

कोलिन क्लार्क की आर्थिक विकास की अवस्थाएं

कोलिन क्लार्क द्वारा आर्थिक विकास की निम्न अवस्थाओं का वर्णन Reseller गया है। जिसका समर्थन बौर And यामी ने भी Reseller है –

  1. कृषि उद्योग अवस्था – इस अवस्था में पिछड़े हुए देशों में कृषि सबसे अधिक महत्वपूर्ण उद्योग व राष्ट्रीय आय का प्रमुख साधन होता है।
  2. निर्माणकारी उद्योग अवस्था – Means व्यवस्था का जैसे-जैसे विकास होता जाता है, कृषि की अपेक्षा निर्माणकारी उद्योगों का महत्व बढ़ने लगता है।
  3. सेवा उद्योग अवस्था – Means व्यवस्था का और अधिक विकास होने पर सेवा उद्योगों जैसे संचार व परिवहन, बीमा, शिक्षा आदि का भी विकास अधिक होने लगता है।

कार्ल मार्क्स की आर्थिक विकास की अवस्थाएं

कार्ल मार्क्स ने वर्ग संघर्ष को विकास की अवस्थाओं का आधार माना है। उन्होंने 1948 में अपने ‘Communist Manifesto’ में स्पष्टतया लिखा है कि ‘‘आज के विद्यमान समाजों का History Single संघर्ष का History है। आजाद And गुलाम, देशभक्त And गद्दार, जमींदार एव निसहाय मजदूर, शोषक And शोषित All Single Second के विरोध में उठ खड़े हुए हैं और भले ही खुलम खुल्ला न सही चोरी छिपे Single Second पर हावी होने के लिए प्रयत्नशील हैं। ……. इस लड़ाई का अन्त या तो समाज के क्रांतिकारी पुननिर्माण के Reseller में होगा अथवा स्पर्धा करने वाले वर्गों के अन्त के Reseller में होगा।’’ कार्ल माक्र्स के According विकास की प्रमुख चार अवस्थायें हैं – 1. सामन्तवाद 2. पूंजीवाद 3. समाजवाद, 4. साम्यवाद। माक्र्स के According Means व्यवस्थाओं के विकास की First अवस्था श्रमिकों के शोषण से प्रारम्भ होती है और अन्तिम अवस्था शोषण की समाप्ति के साथ ही साथ परिपूर्ण हो जाती है।

प्रो0 बकर की आर्थिक विकास की अवस्थाएं

प्रो0 बकर के According 1. गृह Means व्यवस्था, 2. शहरी Means व्यवस्था तथा 3. राष्ट्रीय Means व्यवस्था, आर्थिक विकास की तीन अवस्थाएं हैं।

प्रो0 एशले की आर्थिक विकास की अवस्थाएं

प्रो0 एशले के According विकास की विभिन्न अवस्थाएं इस प्रकार हैं –

  1. गृह व्यवस्था,
  2. गिल्ड व्यवस्था,
  3. घरेलू व्यवस्था तथा
  4. फैक्ट्री व्यवस्था।

प्रो0 रोस्टोव की आर्थिक विकास की अवस्थाएं

आर्थिक विकास की अवस्थाओं का वैज्ञानिक And तर्कपूर्ण ढंग से विश्लेषण करने का श्रेय प्रसिद्ध अमेरिकन Meansशास्त्री प्रो0 रोस्टोव को दिया जाता है। रोस्टोव ने अपनी पुस्तक ‘The Stages of Economic Growth’ में आर्थिक विकास की अवस्थाओं को पांच भागों में विभक्त Reseller है :-

  1. परम्परागत समाज,
  2. उत्कर्ष या आत्म स्फूर्ति की पूर्व दशायें,
  3. आत्म स्फूर्ति की अवस्था,
  4. परिपक्कता की अवस्था तथा
  5. अत्यधिक उपभोग की अवस्था।

1. परम्परागत समाज की अवस्था – प्रो0 रोस्टोव के According ‘‘परम्परागत समाज से तात्पर्य, Single ऐसे समाज से है जिसकी संCreation का विकास न्यूटन के पूर्व के विज्ञान और तकनीक तथा भौतिक जगत के प्रति न्यूटन से पूर्व के दृष्टिकोणों पर आधारित, सीमित उत्पादन फलनों की सीमाओं के अंतर्गत होता है।’’ विकास की यह अवस्था अत्यन्त पिछड़ी हुई होती है, उत्पादन बढ़ता है लेकिन अत्यन्त धीमी गति से, और विकास की उत्प्रेरणाओं का सर्वथा अभाव होता है। परम्परागत समाज की आधारभूत विशेषता वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अभाव तथा उत्पादन फलन का सीमित होना है। सीमित उत्पादन फलन का Means है आधुनिक विज्ञान And तकनीक का या तो उपलब्ध न होना अथवा उसका व्यवस्थित And नियमित Reseller में प्रयोग न Reseller जाना, जिसके फलस्वReseller ऐसे समाज में प्रति व्यक्ति उत्पादकता का स्तर नीचा बना रहता था। ये समाज अपनी भौतिक प्रगति को वैज्ञानिक Reseller से समझने में असमर्थ थे। परम्परागत समाज की विशेषताएं इस प्रकार हैं :-

  1. आधुनिक विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी के प्रयोग के प्रति सीमित दृष्टिकोण पाया जाता है।
  2. यह Means व्यवस्था अधिकांश Reseller से अविकसित होती है।
  3. औद्योगीकरण का अभाव होता है तथा Means व्यवस्था मुख्यतया कृषि पर आश्रित होती है।
  4. उत्पादन कार्य परम्परागत तरीकों से Reseller जाता है जिसके फलस्वReseller उत्पादकता का स्तर नीचा बना रहता है।
  5. जन्म व मृत्युदर के ऊंची होने के बावजूद जनाधिक्य की कोई समस्या नहीं होती।
  6. राज्य की आर्थिक क्रियायें अत्यन्त सीमित होती हैं।
  7. इस प्रकार के समाज में राजनीतिक सत्ता भूस्वामियों के हाथ में केन्द्रित होती है।
  8. ऐसे समाजों का सामाजिक ढांचा उत्तराधिकारवादी होता है। जिसमें परिवार तथा जाति सम्बन्ध प्रमुख भूमिका निभाते हैं।
  9. कृषि राज्य की आय का प्रमुख स्रोत होता है।
  10. कृषिगत आय तथा बचतों का अधिकांश भाग अनुत्पादक कार्यों (जैसे Fight, खर्चीली शादियों तथा अन्त्येष्टियों, मंदिरों व स्मारकों के निर्माण आदि) पर व्यय Reseller जाता है जिससे पूंजी निर्माण की दर नीची बनी रहती है।
  11. स्मरण रहे, परम्परागत समाज स्थैतिक समाज नहीं होता बल्कि उत्पादन स्तर, व्यापार के प्रतिReseller, जनसंख्या तथा आय में परिवर्तन लाने की पर्याप्त सम्भावनाएं उपस्थित होती हैं।

2. आत्म स्फूर्ति की पूर्व दशाएं – आर्थिक विकास की यह अवस्था संक्रमण काल है जिसमें सतत वृद्धि की पूर्व दशाओं का निर्माण होता है। इस अवस्था में समाज में धीरे धीरे परिवर्तन होने आरम्भ हो जाते हैंं और समाज परम्परागत अवस्था से निकलकर Single वैज्ञानिक समाज का Reseller लेते हुए आत्म स्फूर्ति की अवस्था में प्रवेश करने की तैयारी करने लगता है। यही कारण है कि इस काल को आत्म स्फूर्ति के विकास की पूर्व दशाओं का काल कहते हैं। इस अवस्था में आर्थिक सुधार के विचार जन्म लेते हैं और सामाजिक, भौगोलिक And व्यावसायिक गतिशीलता को लाने हेतु परम्परागत दृढ़ता टूटने लगती है। उत्पादन की नई रीतियां अपनायी जाती हैं। पर कुल मिलाकर प्रगति की दौड़ मन्द बनी रहती है। फिर भी आत्म स्फूर्ति की पृष्ठ भूमि तैयार करने में इस अवस्था का अपना Single विशेष महत्व है।

रोस्टोव ने इसका वर्णन इस प्रकार Reseller है, ‘‘लोगों में यह विचार फैलने लगता है कि आर्थिक विकास सम्भव है और यह किसी भी अन्य लक्ष्य चाहे वह राष्ट्रीय सम्मान हो, निजी लाभ, सामान्य कल्याण का प्रश्न हो या फिर बच्चों के Windows Hosting भविष्य का उद्देश्य हो, के लिये Single आवश्यक शर्त है। शिक्षा का विस्तार होता है और उसका स्वReseller आधुनिक अवस्थाओं के अनुReseller होने लगता है। निजी तथा सार्वजनिक क्षेत्र में नये उद्यमी वर्ग का अद्भव होता है जो बचतों को गतिशील करके लाभ हेतु जोखिम उठाने के लिए तैयार हो जाता है। निवेश बढ़ता है और पूंजी बाजार तथा बैंकों का विस्तार होता है। यातायात And संदेशवाहन के साधनों का विकास होता है जिससे आन्तरिक तथा विदेशी व्यापार का क्षेत्र विस्तृत होने लगता है। थोड़े बहुत Reseller में निर्माणकारी उद्योग भी प्रकट होते हैं जो नई तकनीकों का प्रयोग करते हैं।’’ इस अवस्था की प्रमुख विशेषताएं इस प्रकार हैं –

  1. कृषि क्षेत्र में प्राविधिक क्रान्ति लाने के प्रयत्न किये जाते हैं।
  2. सामाजिक व संस्थागत तत्वों के दृष्टिकोण में परिवर्तन होता है।
  3. कृषि का सापेक्षिक महत्व कम होने लगता है और उसके साथ ही साथ शहरी क्षेत्र में औ़द्योगिक कार्यशील जनसंख्या का अनुपात बढ़ने लगता है।
  4. आयातों विशेषतया पूंजीगत आयतों का विस्तार होता है और इसका वित्त प्रबन्धन प्राथमिक वस्तुओं तथा प्राकृतिक साधनों के निर्यात द्वारा Reseller जाता है।
  5. विदेशी पूंजी को आमंत्रित Reseller जाता हैं।
  6. बैंकिंग व्यवस्था, परिवहन व संचार, शिक्षा प्रणाली और श्रम शक्ति के वर्तमान स्तर में विकास व सुधार होने लगता है।
  7. शासन में भू स्वामियों का महत्व घटने लगता है और उसके स्थान पर Single राष्ट्रवादी व सक्षम सरकार की स्थापना हो जाती है।

आवश्यक शर्ते – रोस्टोव के According आर्थिक विकास के लिये आवश्यक दशाओं को पैदा करने के लिये कुछ आवश्यक शर्तों को पूरा होना जरूरी है। 1. राष्ट्रीय आय का लगभग 5 से 10 प्रतिशत या इससे अधिक भाग विनियोजित होना चाहिए। 2. कृषि उत्पादकता में वृद्धि होनी चाहिए ताकि बढ़ती हुई सामान्य तथा शहरी जनसंख्या को आवश्यक खाद्य पूर्ति प्राप्त हो सके। 3. यातायात And सामाजिक सेवाओं के विकास पर कुल विनियोग का काफी बड़ा भाग व्यय होना चाहिए Meansात सामाजिक उपरिव्यय पूंजी का निर्माण होना चाहिए। 4. आधुनिक उद्योगों का विकास तथा विविधीकरण होना चाहिए। 5. सामाजिक मूल्यों तथा दृष्टिकोण में Needनुकूल परिवर्तन होने चाहिए।

स्मरण रहे, विकास की First अवस्था निष्क्रिय अवस्था है। जबकि दूसरी अवस्था इसमें सक्रियता लाती है, जिसके फलस्वReseller Means व्यवस्था को आर्थिक विकास की ओर अग्रसर होने की पे्ररणा मिलने लगती है और देश विकास की तीसरी अवस्था यानि आत्म स्फूर्ति की अवस्था में प्रवेश कर जाता है।

3. आत्म स्फूर्ति की अवस्था – ‘आत्म स्फूर्ति’ या उत्कर्ष Meansात ‘छलांग लेने’ की यह अवस्था विकास की सर्वाधिक महत्वपूर्ण अवस्था है। प्रो0 रोस्टोव के According ‘आत्म स्फूर्ति, अविकसित अवस्था और विकास की चरम सीमा के बीच Single मध्यान्तर की अवस्था है। यह वह अन्तराल है जब पुरानी बाधाओं तथा प्रतिरोधों पर पूरी तरह से काबू पा लिया जाता है। विकास की पे्ररक शक्तियां जो अब तक निष्क्रिय बनी हुई थीं, सक्रिय हो उठती हैं और विस्तृत होकर समाज पर हावी होने लगती हैं। विकास समाज की Single सामान्य दिनचर्या का Reseller ले लेता है और संचयी विकास उसकी आदतों तथा उसके संस्थानिक ढांचे का अभिन्न अंग बन जाता है।

आत्म स्फूर्ति की अवस्था को प्रो0 किन्डलबर्जर ने अधिक स्पष्ट Wordों में इस प्रकार व्यक्त Reseller है कि ‘‘यह प्रगति की Single ऐसी अवस्था है जिसमें विकास की रूकावटें दूर हो जाती हैं। विकास की दर को चक्रीय वृद्धि नियम के According बढ़ाने हेतु विनियोजन की दर 5 प्रतिशत से बढ़कर 10 प्रतिशत से भी अधिक हो जाती है। Means व्यवस्था कुछ मामलों में आत्म निर्भर होने लगती है।

प्रो0 रोस्टोव के According आत्म स्फूर्ति की अवधि छोटी होती है और यह लगभग दो दशकों तक रहती है। रोस्टोव ने कुछ देशों के आत्म स्फूर्ति काल का भी History Reseller है –

प्रमुख देशों का आत्म स्फूर्ति काल

देश  आत्म स्फूर्ति देश  आत्म स्फूर्ति
ग्रेट ब्रिटेन 1738-1802  रूस 1890-1914
फ्रांस 1830-1860 कनाडा 1996-1914
बेल्जियम 1833-1860 अमेरिका 1843-1860
टर्की 1937 भारत 1952
जर्मनी 1850-1837  चीन 1952
स्वीडन 1868-1890 
जापान  1878-1900

प्रमुख विशेषताएं :-

  1. Means व्यवस्था, आत्मनिर्भर व स्वयं संचालित हो चुकी होती है।
  2. आर्थिक विकास की बाधाओं पर काबू पा लिया जाता है और आर्थिक प्रगति की उत्पे्ररक शक्तियों का भरपूर विस्तार होता है।
  3. गरीबी का दुश्चक्र पूरी तरह से तोड़ दिया जाता है और विकास Single सामान्य दशा बन जाती है।
  4. आधार भूत उद्योगों की स्थापना के कारण औद्योगिक उत्पादन तेजी के साथ बढ़ने लगता है।
  5. प्राविधिक विकास And नव प्रवर्तन Means व्यवस्था की Single स्थायी विशेषता बन जाती है और संचयी विकास संभव होने लगता है।
  6. कृषि क्षेत्र में संलग्न जनसंख्या का प्रतिशत 75 से घटकर 40 के करीब रह जाता है।
  7. निवेश की दर, कुल राष्ट्रीय आय के 5 प्रतिशत से बढ़कर 10 प्रतिशत या इससे भी अधिक हो जाती है, जो कि जनसंख्या की वृद्धि की दर से अवश्य ही अधिक होती है। फलस्वReseller प्रति व्यक्ति आय में भी वृद्धि हो जाती है।
  8. साख व्यवस्था का फैलाव, पूंजी निर्माण में वृद्धि, आयात के स्वReseller में परिवर्तन, निर्यात की नई व अधिक सम्भावनाओं का विकास होता है।

4. परिपक्कता की अवस्था – आत्म स्फूर्ति Meansात छलांग स्तर की अवस्था प्राप्त कर लेने के बाद, Means अवस्था परिपक्कता की अवस्था की ओर अग्रसर होने लगती है। रोस्टोव के According ‘इस अवस्था की परिभाषा इस प्रकार कर सकते हैं कि जब समाज में अपने अधिकांश साधनों मे तत्काली Meansात आधुनिक तकनीक को प्रभावपूर्ण ढंग से अपना लिया हो।’ Second Wordों में ‘परिपक्कता वह अवस्था है जिसमें कोई Means व्यवस्था उन भौतिक उद्योगों से आगे बढ़ने की क्षमता रखती है। जिन्होंने उसकी आत्म स्फूर्ति को सम्भव बनाया है और आधुनिक प्रौद्योगिकी को पूर्ण कुशलता के साथ अपने अधिकांश साधन क्षेत्रों पर लागू करने की सामथ्र्य रखती है।’ इस अवस्था में विनियोग की दर 10 से 20 प्रतिशत के बीच रहती है और उत्पादन वृद्धि,जनसंख्या वृद्धि से अधिक होती है। हां ! Means व्यवस्था अप्रत्याशित झटके सहन कर सकती है। रोस्टोव ने कुछ देशों के परिपक्कता की अवस्था में प्रवेश करने की तिथियां भी दी हैं। जैसे इंगलैंड 1850, अमेरिका 1900, जर्मनी 1910, फ्रांस 1910, स्वीडन 1930, जापान 1940, रूस 1950 तथा कनाड़ा 1950 आदि ।

प्रो0 रोस्टोव का कहना है कि ‘‘यह अवस्था Single दीर्घकालीन प्रक्रिया है और Single समाज स्वयं स्फूर्ति के आरम्भ होने के 60 वर्ष बाद परिपक्कता की अवस्था प्राप्त कर पाता है, परन्तु फिर भी स्पष्टतया, इस अवधि के लिये कोई निश्चित Reseller से भविष्यवाणी नहीं की जा सकती है।’’ जब कोई देश परिपक्कता की अवस्था में आता है तो उसमें तीन महत्वपूर्ण परिवर्तन दृष्टिगोचर होते हैं –

  1. कार्यकारी शक्ति की संCreation में परिवर्तन – देश की Means व्यवस्था में कृषि का सापेक्षिक महत्व कम हो जाता है जिसके फलस्वReseller कृषि कार्यों में संलग्न जनसंख्या का अनुपात भी घट जाता है। लोग ग्रामीण क्षेत्रों में रहने के बजाय शहरों में रहना अधिक पसंद करने लगते हैं। शहरी जनसंख्या में प्रदर्शित तथा सफेदपोश श्रमिकों (क्र्लकों) का अनुपात साधारण श्रमिकों की तुलना में अधिक हो जाता है। श्रम शक्ति में जागरूकता और सामाजिक Safty प्राप्त करने के लिए श्रमिक संगठित हो जाते हैं।
  2. उद्यम की प्रकृति में परिवर्तन – उद्यम की प्रकृति इस प्रकार बदलती है कि कठोर तथा परिश्रमी मालिकों का स्थान सभ्य तथा विनम्र प्रबन्धकों के हाथ मे आ जाता है। 
  3. नूतन Needओं की भूख – तीव्र औद्योगीकरण के चमत्कारों से समाज Single तरफ पर्याप्त Reseller से लाभान्वित होता है तो दूसरी तरफ उनसे ऊब भी जाता है। फलत: और भी अधिक नूतनताओं की मांग की जाती है जो पुन: परिवर्तन ला सकें।

5. अत्यधिक उपभोग की अवस्था – परिपक्कता की अवस्था प्राप्त होने के बाद Means व्यवस्था, अत्यधिक उपभोग की अवस्था में प्रवेश करती है। अवस्था परिवर्तन का यह काल अधिक लम्बा नहीं होता है। इस अवस्था में अग्रगामी क्षेत्र अधिकतर ‘‘टिकाऊ उपभोगीय वस्तुओं And सेवाओं का उत्पादन करने लगते हैं जिससे उपभोग का स्तर काफी ऊंचा उठ जाता है। मोटर कारों और घरेलू जीवन से सम्बद्ध अन्य उपकरणों का प्रयोग काफी मात्रा में होने लगता है। समाज का ध्यान उत्पादन से हटकर उपभोग Meansात लोगों के भौतिक कल्याण की ओर केन्द्रित हो जाता है।’’ Second Wordों में, इस काल में पूर्ति की अपेक्षा मांग, उत्पादन की अपेक्षा उपभोग और आर्थिक विकास की अपेक्षा समाज के भौतिक कल्याण का महत्व अधिक बढ़ जाता है।

प्रमुख विशेषताएं – इस अवस्था की विशेषताएं इस प्रकार हैं :-

  1. इस अवस्था में उपभोग का स्तर उच्चतम होता है।
  2. औद्योगिक जनसंख्या में अप्रत्याशित Reseller से वृद्धि हो जाती है।
  3. टिकाऊ उपभोक्ता सामानों जैसे बिजली का सामान, रेिफ्रजिरेटर, वातानुकूलन यंत्र व मोटरों आदि का उत्पादन व उपभोग बड़े पैमाने पर Reseller जाने लगता है।
  4. लगभग देश में पूर्ण रोजगार की स्थिति स्थापित हो जाती है।
  5. इन परिवर्तनों के बाद समाज आधुनिक तकनीक में और विस्तृत परिवर्तन स्वीकार करने के लिये तैयार नहीं होता है क्योंकि यह विकास की चरम अवस्था होती है।

परिपक्कता की अवस्था प्राप्त हो जाने के पश्चात Single Meansव्यवस्था अपनी उत्पादन शक्तियां निम्नलिखित तीन दिशाओं में से किसी भी दिशा में लगा सकती है- First, ब्राह्य प्रभाव व शक्ति प्राप्त करने का प्रयास करना Meansात अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में शक्ति का विस्तार करना। द्वितीय, सामाजिक Safty, श्रम कल्याण तथा आय के समान वितरण के द्वारा कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना। इस प्रकार रोस्टोव के According कल्याणकारी राज्य की स्थापना इस बात का प्रतीक है कि समाज परिपक्कता की अवस्था को पार कर चुका है। तृतीय, व्यक्तिगत उपभोग को बढ़ावा व प्राथमिकता देना, और इस दृष्टि से राष्ट्रीय साधनों को बड़ी मात्रा में टिकाऊ उपभोक्ता वस्तुओं के उत्पादन पर लगाया जाना। Historyनीय यह है कि इस सम्बन्ध में विभिन्न देशों द्वारा स्वीकृत उद्देश्यों Meansात दिशाओं में कोई SingleResellerता देखने को नहीं मिलती। कोई देश उपरोक्त मार्गों में से किस मार्ग को अपनाएगा, यह निर्णय उस देश की सांस्कृतिक, सामाजिक व राजनीतिक दशाओं पर अधिक निर्भर करता है। उदाहरण के तौर पर रूस ने अन्तर्राष्ट्रीय शक्ति के विस्तार को चुना है तो अमेरिका द्वारा व्यक्तिगत उपभोग को अपेक्षाकृत अधिक महत्व दिया जाता है। इसके विपरीत इंगलैण्ड तथा जापान कल्याणकारी राज्य की ओर अधिक चिंतनशील है।

ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करने पर पता चलता है कि संयुक्त राज्य अमेरिका 1920 में अत्यधिक उपभोग की अवस्था में प्रवेश करने वाला पहला देश था। उसके बाद यह गौरव ग्रेट ब्रिटेन को 1930 में प्राप्त हुआ, तथा 1950 में जापान व पश्चिमी यूरोप के कुछ देशों द्वारा यह अवस्था प्राप्त की गयी। साम्यवादी देश रूस 1953-55 के आस पास Meansात स्टालिन के संसार से विदा होने के बाद ही इस अवस्था को प्राप्त कर सका था।

प्रो0 किन्डलबर्जर का कहना है कि विकास की यह अवस्थाएं Single प्रकार से की शक्ल की भांति है। जैसा कि रेखाचित्र से स्पष्ट होता है। इसमें विकास का कार्य First बहुत धीरे से प्रारम्भ होता है, फिर क्रमश: जोर पकड़ता है और इसके बाद काफी तेजी के साथ बढ़ता रहता है और अन्त में Single निश्चित सीमा पर आकर विकास पथ शिथिल होने लगता है। बर्जर महोदय का कहना है कि वास्तव में रोस्टोव की विकास प्रक्रिया ‘S’ Reseller में मनुष्य के शरीर के विकास की भांति है जो शिशु से किशोर अवस्था तक Single गति से चलती है और फिर यौवन अवस्था की ओर तेजी के साथ अग्रसर होती है। लेकिन यह कहना कठिन है कि Single अवस्था में कितनी देर तक चलती रहेगी और ‘S’ बिन्दु पर पहुंचने के बाद उसे कौन सी नई शक्ति किस ओर नया मोड देगी।

आर्थिक विकास की अवस्थाओं की आलोचना

इनमें कोई सन्देह नहीं कि रोस्टोव द्वारा आर्थिक विकास की अवस्थाओं का विश्लेषण अत्यन्त क्रमबद्ध व तर्कपूर्ण ढंग से Reseller गया है। परन्तु कुछ Meansशास्त्रियों, विशेषकर मायर And बाल्डविन, साइमन कुजनेट्स, केर्यनक्रास, गरशेनक्रान, डरूमौण्ड, स्ट्रीटन, प्रो0 सैन और हबाकुक ने रोस्टोव के दृष्टिकोण को त्रुटिपूर्ण माना है। प्रो0 बैंजमीन हिगीन्ज, रोस्टोव महोदय के समर्थक माने जाते हैं और उन्होनें इस विश्लेषण को सही और औचित्यपूर्ण ठहराया है। रोस्टोव के दृष्टिकोण की निम्न आधार पर आलोचना की गई है –

  1. Historyको निश्चित अवस्थाओं में बांटना सम्भव नहीं – प्रो0 मायर का कहना है कि History को निश्चित अवस्थाओं में न तो बांटना संभव है और न ही यह जरूरी है कि All देश Single ही प्रकार की अवस्थाओं में से होकर गुजरे। उनके Wordों में ‘‘यह कहना कि प्रत्येक Meansव्यवस्था सदैव विकास के Single ही मार्ग को अपनाती है और उसका Single जैसा भूत और भविष्य होता है, अवस्थाओं के क्रम को Need से अधिक सरलीकरण करना है।’’ प्रो0 हबाकुक ने ऐतिहासिक दलील देते हुए कहा है कि अमेरिका, कनाडा, न्यूजीलैंड तथा आस्ट्रेलिया परम्परागत समाज की अवस्था में से बिना गुजरे ही पूर्व दशाओं की अवस्था में प्रवेश कर गये थे।
  2. अवस्थाओं का क्रम भिन्न हो सकता है – गरशेनक्रान के According ‘‘प्रत्येक देश आर्थिक विकास की विभिन्न अवस्थाओं से गुजरता अवश्य है परन्तु यह आवश्यक नहीं कि Single देश रोस्टोव द्वारा described अवस्थाओं में से ही होकर गुजरे। अवस्थाओं का क्रम अनियमित हो सकता है।
  3. अवस्थाओं में परस्पर-निर्भरता – कुजनेट्स तथा केयरनक्रास का कहना है कि रोस्टोव द्वारा described आर्थिक विकास की अवस्थाएं Single Second से भिन्न न होकर परस्पर व्यापी है। उदाहरणार्थ Single अवस्था की विशेषताएं दूसरी अवस्था में भी देखने को मिलती है। न्यूजीलैण्ड, डेनमार्क आदि देशों में आत्म स्फूर्ति की अवस्था में भी कृषि का अत्यधिक विकास हुआ है जबकि रोस्टोव ने कृषिगत विकास को परम्परागत समाज की अवस्था में रखा है।
  4. अवस्था का पता लगाने में कठिनाई – कुछ लोगों का कहना है कि कौन सा देश विकास की किस अवस्था में है इसकी जांच करने हेतु पर्याप्त सांख्यिकीय सूचनाओं का उपलब्ध होना संभव नहीं है। दूसरा इस बात का कैसे पता लगाया जाए कि किसी देश में अमुक अवस्था का काल पूरा हो चुका है और Single के बाद दूसरी अवस्था कब प्रारम्भ होगी।
  5. आत्म पोषित विकास भ्रमोत्पादक विचार है – कुजनेट्स के According आत्म पोषित या आत्म निर्भर विकास का विचार भ्रमोत्पादक है। First, विशेषताओं की दृष्टि से यह आत्म स्फूर्ति की अवस्था के ही समान है क्योंकि दोनों अवस्थाओं के बीच की विभाजन रेखा स्पष्ट नहीं है। दूसरा, ‘कोई भी विकास शुद्ध Reseller में आत्म निर्भर अथवा आत्म सीमित नहीं हो सकता क्योंकि उसके स्वयं को सीमित करने वाले कुछ प्रभाव सदैव बने रहते हैं। विकास तो Single निरन्तर संघर्ष है जिसे आत्म निर्भर कहना बहुत कठिन है।’
  6. अत्यधिक उपभोग अवस्था काल क्रम के According नहीं – आलोचकों का कहना है कि विश्व के कुछ देश जैसे आस्ट्रेलिया, कनाडा आदि परिपक्कता की अवस्था में प्रवेश किये बिना ही अत्यधिक उपभोग की अवस्था प्राप्त कर चुके हैं जो कि रोस्टोव के अवस्था कालक्रम के विरूद्ध है।

भारत की विकास अवस्था

भारत किस अवस्था में है ? नि:सन्देह भारत विकास की First दो अवस्थाओं को पार कर चुका है लेकिन प्रश्न यह उठता है कि क्या भारत वास्तव में आत्म स्फूर्ति की अवस्था प्राप्त कर चुका है और परिपक्कता की अवस्था की ओर अग्रसर हो रहा है ? इस सम्बन्ध में कोई अंतिम निर्णय तब तक नहीं दिया जा सकता है जब तक कि इस सम्बन्ध में पाये जाने वाले विभिन्न विचारों का अध्ययन न कर लिया जाये।
भारत आत्म स्फूर्ति की अवस्था प्राप्त कर चुका है !

First मत – स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरान्त पंच वर्षीया योजनाओं का प्रारम्भ, जमींदारी प्रथा का उन्मूलन, भूमि सुधार, शिक्षा का प्रसार, निर्माणकारी व सेवा उ़द्योगों की स्थापना, बचत व पूंजी निर्माण की दर में वृद्धि, प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि, निजी क्षेत्र के विपरीत सार्वजनिक क्षेत्र में विनियोग व्यय का बढ़ता हुआ प्रतिशत, विदेशी पूंजी का उपयोग और ग्रामीण क्षेत्र में शहरों की ओर तेजी के साथ प्रवास करती हुई जनसंख्या आदि तथ्य इस बात के प्रमाण हैं कि भारत विकास की First दो अवस्थाओं को लांघ चुका है।

जहां तक आत्म स्फूर्ति की अवस्था का सम्बन्ध हे प्रो0 रोस्टोव के According इसकी पहली शर्त यह है कि बचत और विनियोग का अनुपात राष्ट्रीय आय के 10 प्रतिशत पर ला दिया जाए और इसे दो या दो से अधिक दशकों तक कायम रखा जाए। भारत में 1960-61 की कीमतों पर राष्ट्रीय आय से निवेश का अनुपात 1950-51 में 5.5 प्रतिशत से बढ़कर 1964-65 में 14.4 प्रतिशत हो गया था और घरेलू बचतों का अनुपात 5.5 प्रतिशत से बढ़कर 10.5 प्रतिशत हो गया था, जो कि इस बात का प्रमाण है कि भारत जिसने रोस्टोव के According 1952 में आत्म स्फूर्ति में प्रवेश Reseller, 1962-65 में इस अवस्था को लांघ चुका था।

आत्म स्फूर्ति की दूसरी शर्त अग्रगामी क्षेत्रों का विधिवत् विकास होना है। इस दृष्टि से देश में 1964-65 तक औद्योगिक क्षेत्र, कृषि क्षेत्र व तृतीयक क्षेत्र काफी विकसित हो चुके थे। उदाहरण के तौर पर कृषि उत्पादन सूचकांक 1950-51 में 45.6 था जो 1964-65 में बढ़कर 158.4 हो चुका था। इसी प्रकर औद्योगिक उत्पादन सूचकांक 73.5 से बढ़कर 186.9 हो गया था।

आत्म स्फूर्ति की तीसरी शर्त के According भारत के योजनाबद्ध विकास ने देश में Single ऐसा ढांचा तैयार कर दिया है जो आधुनिक क्षेत्र के विस्तार का आधार बन सकता है। संस्थानिक व सामाजिक परिवर्तनों के साथ-साथ आधुनिक प्रौद्य़ोगिकी का अपनाया जाना और प्रKingीय दक्षता व कर्तव्यपरायणता का बढ़ता हुआ स्तर इस बात का प्रमाण है कि Indian Customer Means व्यवस्था आत्म स्फूर्ति का अधिकांश शर्तो को पूरा करती है। आत्म स्फूर्ति की अवस्था अभी नहीं !

विपरीत मत- विपरीत मत रखने वाले विचारकों के According आत्म स्फूर्ति की उपरोक्त तीनों शर्तों की उपस्थिति मात्र से यह निष्कर्ष निकाल लेना कि भारत तीसरी योजना में आत्म स्फूर्ति कर चुका था, पूर्णतया सही नहीं है। प्रो0 रोस्टोव के According भारत की आत्म स्फूर्ति का काल 1952 है। लेकिन सच तो यह है कि दूसरी योजना के अंतिम चरण तक देश, आत्म स्फूति की पूर्व Needओं के निर्माण कार्य में लगा हुआ था। इस आधार पर ऐसा प्रतीत होता है कि भारत ने अकालिक आत्म स्फूर्ति का प्रयास Reseller। उदाहरण के तौर पर 1950 से 1960 तक के काल के बीच शुद्ध राष्ट्रीय आय 3.8 प्रतिशत वार्षिक दर से बढ़ी है किन्तु प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि 1.8 प्रतिशत वार्षिक रही जबकि जनसंख्या की वार्षिक वृद्धि की दर 2.5 प्रतिशत रही है। बचत व विनियोग की दर 7.5 प्रतिशत से बढ़ाकर 11 प्रतिशत तक ही की जा सकी जो कि आत्म स्फूति की Need से काफी कम है। इतना ही नहीं, तीसरी योजना के अंतिम वर्ष (1965-1966) में राष्ट्रीय आय 5.6 प्रतिशत घट गयी और यह 1960-61 के स्तर पर आ गयी। घरेलू बचतों की दर 1965-1966 में 10.5 प्रतिशत से घटकर 1966-67 में 8.2 प्रतिशत और 1967-68 में 8 प्रतिशत रह गयी थी। अस्थिर विकास दर, कृषि का अधिक महत्व, स्फीतिक दबाव, अपार निर्धनता और बढ़ती हुई बेरोजगारी इस बात का संकेत है कि भारत आत्म स्फूति की अवस्था प्राप्त नहीं कर सका।

आत्म स्फूर्ति की अवस्था आगे क्यों टलती गयी ?
यहॉ आपको बताना यह आवश्यक है कि ध्यान रहे, हमारे अब तक के सम्पूर्ण नियोजन में कृषि उद्योग के विकास का Single प्रमुख आधार रहा है। First दो योजनाओं में कृषि क्षेत्र में प्रगति अवश्य हुई है परन्तु तीसरी और चौथी योजना में कृषि उत्पादन का लक्ष्य पूरा नहीं Reseller जा सका। Single तरफ खाद्यान्नों के मूल्य बढ़े और दूसरी ओर आयातों पर निर्भरता में वृद्धि होती गयी। इसी प्रकार औद्योगिक उत्पादन का लक्ष्य 70 प्रतिशत वृद्धि का था जबकि योजना काल में केवल 40 प्रतिशत वृद्धि ही हो सकी। इस काल में बचत व विनियोग वृद्धि की दर आशा के अनुकूल नहीं रही। देश में होने वाली भयंकर मूल्य वृद्धि ने बचत व विनियोग दर, आयात निर्यात, प्रत्यक्ष And परोक्ष करों आदि को बुरी तरह से प्रभावित Reseller है। सन् 1966-68 के दौरान प्रतिसार की ठंडी लहर ने Means व्यवस्था को Single और झटका दिया, जिसका कम्पन आज भी औद्योगिक क्षेत्र में देखने को मिलता है। इसके अतिरिक्त प्राकृतिक प्रकोप व आकस्मिक Fightों नें भी Means व्यवस्था पर अनावश्यक भार बढ़ा दिया है। इस काल में कुशल श्रम शक्ति का निर्माण नहीं Reseller जा सका और न ही जनता में विकास व प्रगति के प्रति उत्साह व जागरूकता आदि देखने को मिली। योजनाऐं केवल इसलिए चलती रहीं क्योकि योजनाओं को चलाना था।

यद्यपि तीसरी योजना बचत तथा निवेश वृद्धि के निर्धारित लक्ष्य को पूरा करने में असमर्थ रही थी। किन्तु रोस्टोव द्वारा प्रस्तुत Wordावली को स्वीकार करने पर चूंकि शुद्ध निवेश का प्रतिशत 10 से ऊपर हो चुका था, अत: उस आधार पर यह निष्कर्ष निकला जा सकता था कि भारत तीसरी योजना के दौरान आत्म स्फूर्ति को प्राप्त कर चुका था।

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