जैविक खेती क्या है?
कृषि में बायोतकनीकी व जैविक खेती का प्रयोग Single क्रान्तिकारी कदम है। भारत के मध्य प्रदेश में First 2001-02 में जैविक खेती का आन्दोलन चलाकर प्रत्येक जिले के प्रत्येक विकास खण्ड के Single गॉव में जैविक खेती (Organic Farming) की शुरुआत की गई। इसी आधार पर उस गॉव का नाम ‘‘जैविक गॉव (Organic Village) रखा गया। इस प्रकार भारत में First वर्ष में कुल 313 ग्रामों में जैविक खेती का आरम्भ हुआ। इस इकाई से अध्ययन से जैव प्रौद्योगिकी (Bio technique) व जैविक खेती (Organic Agriculture) को समझने में सहायता मिलेगी तथा यह भी जान पायेंगे कि भारत के कृषि क्षेत्र में जैव प्रौद्योगिकी व जैविक पदार्थों के प्रयोग का क्या महत्व है, इसकी विस्तार से व्याख्या की गई है।
जैव तकनीकि (Biotechnology) का Means
जीवाणुओं, छोटे जन्तुओं तथा पादपों की सहायता से वस्तुओं के उत्पादन की प्रक्रियसा जैव तकनीकि अथवा जैव प्रौद्योगिकी कहलाती है। इसके अन्तर्गत मुख्य रुप से डी एन ए तकनीक, कोशिका And ऊतक तंत्र, रोग प्रतिक्षण टीका उत्पादन, जैव उर्वरक, जैविक गैस व कुछ अन्य क्षेत्र व विधाएं सम्मिलित हैं। कृषि सम्बन्धी तीन महत्वपूर्ण क्षेत्रों में जैव प्रौद्योगिकी के समुचित उपयोग हेतु मिशन मोड कार्यक्रम चलाये गए हैं। मिशन मोड कार्यक्रम के अन्तर्गत संस्थाओं और एजेंसियों के बीच बेहतर समन्वय स्थापित Reseller जाता है तथा समयबद्ध आधार पर बड़े पैमाने पर विज्ञान And तकनीकि के उपयोग का प्रयास Reseller जाता है। कुछ महत्वपूर्ण क्षेत्र जिनके विकास पर महत्वपूर्ण अनुसंधान किये गए और उपलब्धियॉ अर्जित की गई। जैव प्रौद्योगिकी पौध उत्पादों के लिए Single अस्त्र का काम करती हैं जिसमें Single ही जीन (हमदम) का चुनाव करके इच्छित गुणों को प्राप्त कर Single पौधे से Secondं पौधे में स्थानान्तरित कर दिया जाता है।
जैविक खेती के लक्ष्य
जैविक खेती के दो लक्ष्य हैं।
- प्रणाली को टिकाऊ बनाना
- जैविक खेती को पर्यावरण के प्रति संवेदनशील बनाना
इन दोनों लक्ष्यों तक पहॅुचने के लिए ऐसे मानक तैयार करने की जरुरत है जिनका अनुसरण हो। जैसे कि आप जानते हैं कि Indian Customer कृषि में शुद्ध जैविक खेती को अपनाकर रासायनिक उवर्रकों के प्रयोग की सम्भावना विद्यमान है। जैविक खेती को अपनाने के लिए समन्वित (Integrated Nutient Management) पोषण प्रबन्धन और जैविक नियंत्रण विधियों को सशक्त करने की आवश्यक्ता है ताकि रसायनों की जरुरतों में कमी हो सके।
जैविक खेती के सिद्धान्त
जैविक खेती की सफलता तीन आधार भूत सिद्धान्तों पर आधारित है:-
- अन्तनिर्भरता (Interdependency) – इनमें से सबसे महत्वपूर्ण है अन्तनिर्भरता, जैविक (ऑर्गेनिक) खेती में Single खेत को पारिस्थिकीयतंत्र (Ecosystem) के रुप में देखा जाता है और यह माना जाता है कि Single खेत पर Reseller गया परिवर्तन Second खेत में प्रभाव अवश्य डालेगा। उदाहरण के लिए मृदा में अधिक नाइट्रोजन के होने से खरपतवार (Weeds) की वृद्धि तेजी से होगी। इस समस्या को दूर करने के लिए किसान ऐसी फसल को उगाने का प्रयास करेगा जो मृदा से नाइट्रोजन की अधिक मात्रा को अवशोषित कर लेगा और इस प्रकार मृदा में पोषक तत्वों के बीच सन्तुलन बना लेगा।
- विविधता (Divorsity) – ऑर्गेनिक खेती का दूसरा सिद्धान्त विविधता का है। जैविक खेती मृदा में पोषक तत्वों में सन्तुलन बनाये रखने के लिए Reseller जाता है। किसानों का फसलों व पशुधन के मध्य सन्तुलन बनाये रखने के लिए किसानों को खेतों के साथ-साथ पशुधन भी पालने चाहिए। फसलों व पशुधन में विविधता किसानों की आय में भी विविधता व लचीलापन लाती है। दूसरी ओर पारिस्थितिकी तन्त्र में किसी कीट या खरपतवार या बीमारी को समस्या बनने से रोकता है।
- पुन: चक्र (Recycling) – जैविक खेती का तीसरा सिद्धान्त पुन: चक्र (Recycling) है, Meansात् दोबारा से प्रयोग करना। इसमें पौधों व पशुओं के अवशेष पुन: प्रयोग में आ जाने के कारण खेतों के पोषक तत्वों को बनाये रखने में सहायक होते हैं।
विभिन्न जैविक तकनीकें
जैविक खादों का प्रयोग
जैव उर्वरक से तात्पर्य ऐसे सूक्ष्म सजीव जीव व जीवाणु से है जो पौधों के उपयोग के लिए पोषक तत्व उपलब्ध कराते हैेंं। आर्गेनिक खेती के अन्तर्गत आर्गेनिक खादों का प्रयोग Reseller जाता। ये खादें पौधों के लिए पोषक तत्वों का स्त्रोत हैं। मृदा के भौतिक And रासायनिक गुणों पर भी इनका प्रभाव पड़ता है। राइजोबियम और नील हरित शैवाल, इसके अतिरिक्त नाडेम खाद, बायोगैस स्लरी (Slurry), वर्मी कम्पोस्ट, पिट कम्पोस्ट, मुर्गी की खाद। आर्गेनिक खादों में मुख्य रुप से प्रक्षेत्र खाद (गोबर की खाद), कम्पोस्ट, शहरी, कम्पोस्ट, अवमल (स्लज), हरी खाद, खादों की खलियां, मछली की खाद, रुधिर चूर्ण सींग व खुरों का चूर्ण, भूसा या लकड़ी का बुरादा, शीरा आदि सम्मिलित हैं। जैब उर्वरक सूक्ष्म जीवाणुओं युक्त टीका है जिसके उपयोग से फसल उत्पादन में वृद्धि होती है। जैविक खेती में मुख्य जैविक खादे हैं –
- राइजोवियम – इसका प्रयोग मुख्य रुप से अरहर, मूंग/उड़द, लोबिया मसूर, मटर, मूंगफली, सोयाबीन, बरसीम में होता है। जैव उर्वरकों में राईजोबियम नाइट्रोजन यौगिकीकरण (Nitrogen Fixation) करने वाला Single महत्वपूर्ण जीव है। यह दलहनी पौधों की जड़ ग्रन्थियों में रहकर सहजीवी जीवन यापन करता है और पौधों को नाइट्रोजन प्रदान करता है। राइजोबियम की अनेक प्रभावकारी और उन्नतशील जातियॉ विकसित की गयी हैं। राइजोबियम जीवाणु खाद से भूमि के भौतिक और रासायनिक गुणों में सुधार होता है जिससे मृदा उर्वरता बढ़ती है और आगामी फसल की पैदावार भी अच्छी होती है।
- नील हरित काई (Blue Green Algae) – इसका प्रयोग मुख्य रुप से धान की फसल में होता है। इनकी वृद्धि धान के खेत में जहॅा पानी भरा रहता है, अच्छी प्रकार होती है। परीक्षणों से पता चला है कि धान में नीलहरित शैवाल का टीका लगाने (Inoculation) से धान की विभिन्न जातियों की उपज में वृद्धि होती है। नाइट्रोजन यौगिकीकरण के अतिरिक्त यह विटामिन वृद्धि को प्रोत्साहित करने वाले पदाथोर्ं का स्त्राव करते हैं जो धान के पौधों की अच्छी वृद्धि के लिए लाभप्रद हैं। ये मुख्यत: उन क्षेत्रों में अधिक संख्या में पाए जाते है जहॉ पानी का जमाव अधिक होता है। नील हरित शैवाल के प्रयोग से धान की पैदावार में 450 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर वृद्धि होती है। यह वृद्धि 14 प्रतिशत के बराबर है।
- एजैटोबैक्टर – इसका प्रयोग मुख्य रुप से गेहूं, सरसों, कपास, तरकारियों उगाने में Reseller जाता है। यह कृषि में अपने योगदान के लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण और सर्वाधिक उपयोगी जीवाणु है। यह स्वतन्त्र रुप से जीवन यापन करते हुए वायुमण्डलीय नाईट्रोजन का यौगीकरण करता है। इसके प्रयोग से मृदा के भौतिक गुणों में सुधार होता है। ये जीवाणु भूमि और जड़ की सलह पर स्वतन्त्र रुप से रहकर आक्सीजन की उपस्थिति में वायुमण्डल नाइट्रोजन को स्थिरीकरण करते हैं। ये जीवाणु पौधों की जड़ों के द्वारा निकाले गए पदार्थों (शर्करा, अमीनों अम्ल, कार्बनिक अम्ल और विटामिन) को ऊर्जा के स्त्रोत के रुप में उपयोग करते हैं। एजोटोबैक्टर जीवाणु किसी भी गैर दलहनी फसलों में उपयोग Reseller जा सकता है। एजेटोबैक्टर के सक्रिय जीवाणु कल्चर के उपयोग से शाक-भाजी वाली फसलों में 15-20 प्रतिशत और धान्य फसलों जैसे गेहॅू, बाजरा इत्यादि में 10-15 प्रतिशत तक वृद्धि पायी जाती है। इसके प्रयोग से फसलों में अंकुरण अधिक होता है जैसे कपास में 35-50 प्रतिशत धान में 72-82 प्रतिशत व गेहॅू में 50 प्रतिशत अधिक होता है। इसके प्रयोग से आलू में स्टार्च की मात्रा 7-8 प्रतिशत, चुकन्दर में शर्करा, सूरजमुखी में तेल और मक्का में प्रोटीन की मात्रा बढ़ती है।
- एजोस्पिरिलम – इसका प्रयोग बाजरा, ज्वार, धान में Reseller जाता है। फसलों में इस जीवाणु का उपयोग अभी हाल में ही प्रारम्भ हुआ है। इसका प्रयोग जौ, जई, ज्वार, मोटे अनाज वाली फसलों में नाइट्रोजन उर्वरक का प्रयोग कम मात्रा में होने पर इस जीवाणु का विशेष महत्व है।
- ऐसीटोबैक्टर – एसीटोबैक्टर नामक सूक्ष्म जीवाणु की खोज तथा अनुभव ब्राजील तथा क्यूबा के गन्ने के क्षेत्र से प्राप्त हुए हैं। यह जीवाणु सिरके में भी देखे जा सकते हैं। इनकी मौजूदगी Single विशेष गंध से अनुभव की जा सकती है। गन्ने की फसल में इसके प्रयोग से 20 प्रतिशत अधिक उत्पादन मिलता है। इसके प्रयोग से 1-2 प्रतिशत शर्करा भी अधिक हो जाती है।
इसके अतिरिक्त जैव उर्वरक के अन्तर्गत मुख्य तीन प्रकार की खादों का History विस्तार से Reseller जा रहा है। यह हैं – गोबर की खाद, कम्पोस्ट और हरी खादें :-
- गोबर की खाद – गोबर की खाद फार्म पशुओं, गाय, घोड़ा कभी-कभी सुअरों के ठोस And द्रव मल-मूत्र का Single सड़ा हुआ मिश्रण है। जिसमें साधारणतया भूसा, बुरादा, छीलन अथवा अन्य कोई शोषक पदार्थ जो पशुओं के बॉधने के स्थान पर प्रयोग Reseller गया हो, आते हैं। गोबर की खाद पोषक तत्वों को पौधों के लिए धीरे-धीरे प्रदान करता है और इस खाद का प्रभाव कई वर्षों तक बना रहता है। गोबर की खाद में नाईट्रोजन, पोटाश व फॉस्फोरस के साथ-साथ अन्य आवश्यक तत्व भी पाए जाते हैं। यह खाद मृदा में कैल्शियम की मात्रा बढ़ाती है और इस प्रकार भौतिक गुणों को सुधारने में सहायक होती है।
- कम्पोस्ट – पौधों के अवशेष पदार्थों, पशुओं का बचा हुआ चारा, कू़ड़ा करकट आदि पदार्थों के बैक्टीरिया तथा फफूंद (Fungi) द्वारा विशेष विच्छेदन से बना हुआ पदार्थ कम्पोस्ट कहलाता है। सड़ी हुई यह खाद प्राय: गहरे भूरे रंग की होती है कम्पोस्ट को प्रयोग करने से भूमि की भौतिक, रासायनिक और जैविक गुणों पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। मृदा संCreation सुधरती है, मृदा की जल धारण क्षमता बढ़ती है यह मृदा की ऊष्मा शोषण क्षमता भी बढ़ाती है। पौधों के पोषक तत्वों की पूर्ति करती है। कम्पोस्ट में असंख्य फंजाई तथा बैक्टिरिया होते हैं, अत: खेतों में इसके प्रयोग से इनकी संख्या बढ़ जाती है। सूक्ष्म जीवों (Micro Organism) की सक्रियता में वृद्धि होती है, फलत: नाइट्रीकरण, अमोनीकरण तथा नाइट्रोजन स्थरीकरण में वृद्धि होती है। कम्पोस्ट में मुख्य रुप से वर्मीकम्पोस्ट प्रमुख हैं। वर्गीकम्पोस्ट (Vermi Compost) को वर्मीकल्चर (Vermi Culture) भी कहा जाता है। यह मुख्यत: केचुओं द्वारा तैयार होती है। केचुए कार्बनिक निरर्थक पदार्थ को अपने शरीर के भार के दो से पॉच गुना तक ग्रहण करते हैं तथा उसमें से केवल 5-10 प्रतिशत अपनी शरीर की आवश्यक्ता के लिए प्रयोग करके शेष पदार्थ को अपचाहित पदार्थ के रुप में बाहर (Excrete) कर देते हैं जिसे वर्म कास्ट कहते हैं। अत: गोबर, सूखे हरे पत्ते, घास-फूस, धान का पुआल, डेयरी पदार्थ, कुक्कुट निरर्थक पदार्थ खाकर केचुओं द्वारा प्राप्त मल से तैयार खाद ही वर्मीकम्पोस्ट कहलाती है यह भूमि की उर्वरता, भौतिक दशा जैविक पदार्थों, लाभदायक जीवाणुओं में वृद्धि And सुधार करती है। भूमि की जल सोखने की क्षमता में वृद्धि करता है तथा मृदा संCreation में सुधार करता है। इससे खरपतवार की कमी होती है। जहॉ केंचुएं पाले जाते हैं वहॉ मटर व जई में 70 प्रतिशत, घासों में 28-112 प्रतिशत, सेब में 25 प्रतिशत, बीन्स में 291 प्रतिशत गेहॅू में 300 प्रतिशत की उत्पादन वृद्धि मिली केंचुओं के कारण वातावरण स्वस्थ रहता है और खेती लाभकारी बनी रहती है।
- हरी खाद (Green Manusing) – मृदा उर्वरता को बढ़ाने के लिए समुचित हरे पौधों को उसी खेत में उगाकर या कहीं से लाकर खेत में मिला देने की प्रक्रिया को हरी खाद कहते हैं। हरी खाद के प्रयोग से मृदा में कार्बनिक पदार्थ तथा नाइट्रोजन की मात्रा में वृद्धि होती है। यह मृदा जल के वाष्पीकरण को रोकती है। इसके प्रयोग से पौधों में वायु का आवागमन अच्छा होने लगता है। हरी खाद रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग से उत्पन्न दोष कम कर देती है। हरी खाद के लिए प्रयोग होने वाली मुख्य फसलें हैं उर्द, मूंग, ग्वार, लोबिया, नील और रबी फसलें, बरसीम, मसूर, मटर आदि हैं।
जैव कीटनाशक और जैव रोग नियंत्रकों का प्रयोग
भारत की भौगोलिक स्थिति And जलवायु के कारण यहॉ फसल कीटों तथा बीमारियों का खतरा हमेशा बना रहता है। जैव कीटनाशकों तथा जैव रोग नियंत्रकों में प्राकृतिक कीटों तथा जैव प्रौद्योगिकी में विकसित सूक्ष्म जीवों का उपयोग करते हैं जो कीटों को Destroy कर सकते हैं। जैव कीटनाशकों से पर्यावरण को भी कोई हानि नहीं होती है, क्योंकि इनके अवशेष बायोडिगे्रडेबल होते हैं। जैविक रोग नियंत्रण का उपयोग मुख्यत: कपास, तिलहन, गन्ना, दलहन तथा फलों And सब्जियों के पौधों में होने वाले रोगों And उन पर कीटों के आक्रमण से बचाव के लिए Reseller जा रहा है जिसके पास कीटों या रोगों से लड़ने की पूर्ण प्राकृतिक क्षमता हो आर्थिक रुप से महत्वपूर्ण फसलों के लिए जैव नियंत्रकों – बैक्यूलोवाइरस, पैरासाइट, प्रीडेटर्स, एंटागोनिस्टिकस, फफूंदी तथा बैक्टिरिया के बड़े स्तर पर उत्पादन के लिए प्रौद्योगिकी को उद्योगों को स्थानांतरित Reseller गया है। जैविक पद्धति में गौमूत्र, नीम पत्ती का घोल, निबोरी व खली का प्रयोग Reseller जाता है।
जैविक खेती की Need
भारत में कृषि उत्पादन, विशेषकर खाद्य पदार्थों का उत्पादन पिछले कई दशकों में तेजी से बढ़ा है। यह उपलब्धि खेतों में उन्नत किस्म के बीज, रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग व कृषि में मशीनीकरण के प्रयोग से हुई है। Single लम्बे समय तक रासायनिक खादों के प्रयोग से मृदा की उत्पादकता कम हो जाती है और दूसरी ओर पर्यावरण प्रदूषण में वृद्धि होती है। इन समस्याओं ने खेती में वैकल्पिक तरीकों को तलाशने का प्रयास Reseller है। इस दिशा में आजकल आधुनिक खेती से जैविक खेती पर ध्यान केन्द्रित Reseller जा रहा है। जैविक खेती मृदा, खनिज, जल, पौधों, कीटों, पशुओं व Human जाति के समन्वित संबंधों पर आधारित है। यह मृदा को संरक्षण प्रदान करता है वहीं पर्यावरण को भी सरंक्षण प्रदान करता है। जैविक प्रबन्धन आसपास पाये जाने वाले Human संसाधन, ज्ञान व प्राकृतिक संसाधनों के प्रयोग पर बल देता है। जैविक कृषि खाद्य Safty में वृद्धि करने व अतिरिक्त आय सृजित करने में भी सहायक है। जैविक खेती सतत कृषि विकास व ग्रामीण विकास के उद्देश्य को पूरा करने में धनात्मक भूमिका निभाता है तथा मृदा की उर्वरता को बढ़ाने के साथ-साथ किसानों की सामाजिक आर्थिक स्थितियों में भी बदलाव लाता है। जैविक खाद्य पदार्थों की 20-25 प्रतिशत दर से मांग विकसित व विकासशील देशों में लगातार बढ़ती जा रही है। सम्पूर्ण विश्व में 130 देश प्रमाणित जैविक पदार्थों का उत्पादन व्यापारिक स्तर पर करते हैं। केवल परम्परागत फसलों को उगाकर ही किसान समृद्ध नहीं हो सकते, बदलती मांग व कीमतों के अनुरुप फसल प्रतिरुप में परिवर्तन भी आवश्यक है। प्राकृतिक विधि व जैविक खाद के उपयोग से उगाए गए खाद्य पदार्थों की मांग यूरोप, अमेरिका, जापान में तेजी से बढ़ रही है। इस बढ़ती मांग के अनुरुप उत्पादन करके किसानों को लाभ उठाने के लिए प्रेरित Reseller जाना आवश्यक है।
जैविक खेती के प्रभाव
कृषक के दृष्टिकोण से
- मृदा की उर्वरा शक्ति बढ़ जाती है। फसलों की उत्पादकता बढ़ जाती है और कृषक अधिक आय अर्जित हो पाती है।
- रासायनिक उर्वरक में निर्भरता कम होने से लागत कम हो जाती है।
- यह कृषकों के खेती करने के पुरातन व देशी ज्ञान को संरक्षित रखता है।
- अन्तराष्ट्रीय बाजार में आर्गेनिक पदार्थों की मांग बढ़ने से किसानों की आय में वृद्धि होती है।
मृदा के दृष्टिकोण से
- यह मृदा में पोषक तत्वों को पौधों के लिए धीरे-धीरे प्रदान करता है और इस प्रकार इस खाद का प्रभाव कई साल तक बना रहता है।
- यह मृदा में नाइट्रोजन, पोटाश फॉसफोरस व कैल्शियम जैसे आवश्यक तत्व बढ़ाता है और इस प्रकार भौतिक गुणों को सुधारने में सहायक होता है।
- जैविक खाद के प्रयोग से काफी समय तक मृदा में नमी बनी रहती है।
- आर्गेनिक खादों में कुछ नाइट्रोजनयुक्त लाभप्रद पदार्थ पाये जाते हैं जो कि पौधों की वृद्धि शीघ्र करने में सहायक होता है।
- यह मृदा संरक्षण व जल संरक्षण में सहायक है।
पर्यावरण के दृष्टिकोण से
- कचरे का प्रयोग खाद बनाने में Reseller जाता है जिससे वातावरण स्वच्छ रहता है और बीमारियॉ कम करने में सहायता मिलती है।
- यह स्वास्थ्यवर्धक, पौष्टिक व गुणवत्ता खाद्य पदार्थों के उत्पादन में सहायक है। यह पर्यावरण मित्र होते हैं।
- यह जैविक चक्र केा प्रोत्साहित करता है जिसमें सूक्ष्म कीटाणुओं, मृदा पौधों व पशुओं व Human के बीच अन्तनिर्भरता को बढ़ाता है व पारिस्थिकी तंत्र में सन्तुलन बनाये रखता है।
- रासायनिक कृषि से जहॉ हमारे संसाधनों की गुणवत्ता घटती है, वही जैविक कृषि से हमारे संसाधनों का संरक्षण होता है।
- कृषि जैव विविधता का सरंक्षण होता है।
जैविक खेती समस्यायें/बाधायें
भारत में कम्पोस्ट की कमीं, जैविक सामग्री में पोषक तत्वों का अंतर, कचरे से संग्रह करने और प्रसंस्करण करने में जटिलता, विभिन्न फसलों के लागत लाभ अनुपात के साथ जैविक कृषि के व्यवहारों को शामिल करने में पैकेज का अभाव और वित्तीय सहायता के बिना किसानों द्वारा इसे अपनाने में कठिनाई होती है। इसके अतिरिक्त जैविक खेती की प्रगति में कई बाधाएं हैं :-
- जागरुकता की कमी – किसानों के पास कम्पोस्ट तैयार करने के लिए आधुनिक तकनीकों के प्रयोग की जानकारी का भी अभाव है। किसान अधिकांशत: यह करते है कि गड्ढा खोदकर उसे कचरे को कम मात्रा में भर देते हैं। अक्सर गड्ढा वर्षा के जल से भर जाता है और इसका परिणाम यह होता है कि कचरे का ऊपरी हिस्सा पूरी तरह कम्पोस्ट नहीं बन पाता ओश्र नीचे का हिस्सा कड़ी खली की तरह बन जाता है। जैविक कम्पोस्ट तैयार करने के बारे में किसानों को समुचित प्रशिक्षण देने की जरुरत है।
- विपणन की समस्या – ऐसा पाया जाता है कि जैविक फसलों की खेती शुरु करने के First उनका विपणन योग्य होना और पारंपरिक उत्पादों की तुलना में लाभ सुनिश्चित करना। ऐसा प्रमाण मिला है कि राजस्थान में जैविक गेहॅू के किसानों को गेहॅू के पारम्परिक किसानों की तुलना में कम कीमतें मिली। दोनों प्रकार के उत्पादों के विपणन की लागत भी सामान थी और गेहॅू के खरीददार जैविक किस्म के लिए अधिक कीमत देने को तैयार नहीं थे।
- अधिक लागत होना – भारत के छोटे और सीमान्त किसान पारम्परिक कृषि प्रणाली के रुप में Single प्रकार की जैविक खेती करते रहे हैं। वे खेतों को पुनर्जीवित करने के लिए स्थानीय अथवा अपने संसाधनों को इस प्रकार प्रयोग करते हैं कि परिस्थितिकी के अनुकूल वातावरण कायम रहे। जैविक खादों की लागत रासायनिक उर्वरकों से अधिक है। मूंगफली की खली, नीम के बीज और उसकी खली जैविक कम्पोस्ट, खाद, गोबर और अन्य खादों का प्रयोग जैविक खादों के रुप में होता रहा है। इनकी कीमतों में वृद्धि होने से ये छोटे किसानों की पहॅुच से बाहर होते जा रहे हैं।
- वित्तीय सहायता का अभाव – जैविक उत्पादों के विपणन के लिए केन्द्र व राज्य सरकारों की ओर से किसी प्रकार की सहायता नहीं दी जाती। यहां तक कि जैविक खेती को बढ़ावा देने के उद्देश्य से वित्तीय प्रक्रिया का भी सर्वथा अभाव है।
- निर्यात की मांग पूरा करने में अक्षमता – अमेरिका, यूरोपीय संघ और जापान जैसे उन्नतशील देशों में जैविक उत्पादों की बहुत मांग है। अमरीकी उपभोक्ता जैविक उत्पादों के लिए 60 से 100 प्रतिशत का लाभकारी मूल्य के भुगतान के लिए तैयार है। अंतर्राष्ट्रीय व्यापार केन्द्र (आई. टी. सी.) द्वारा वर्ष 2000 में कराए बए बाजार सर्वेक्षण से यह संकेत मिला है कि विश्व बाजारों के कई हिस्सों में जैविक उत्पादों की मांग बढ़ी है, जबकि उसकी आपूर्ति नहीं की जा सकती। भारत में जैविक पदार्थों के निर्यात को प्रोत्साहन का अभाव पाया जाता है।