न्यायाधीशों की Appointment प्रक्रिया
साथ ही न्यायपालिका व्यक्तियों के मूल अधिकारों का भी निर्वचन करती है। अत: यह सामान्य व्यक्ति के अधिकारों की प्रहरी है। यदि न्यायपालिका को हम Single किला माने तो न्यायिक अधिकारी उस द्वारपाल की भांति हैं जिनका सजग र्इमानदार और कर्त्तव्यनिष्ठ होना आवश्यक है ताकि किले की Safty बनी रहें।
Appointment प्रक्रिया की पृष्ठभूमि
प्रसिद्ध विधिशास्त्री मोन्टेस्क्यू ने सरकार का विभाजन तीन अंगों में Reseller गया है कार्यपालिका, विधायिका And न्यायापालिका। सरकार का तृतीय अंग Meansात न्यायापालिका का प्रमुख कार्य विधि का निर्वचन करना तथा उसे लागू करना और राज्यों व उसके नागरिकों के मध्य उत्पन्न विवादों का निपटारा करना है। न्यायपालिका का कार्य है कि वह देश में विधि का शासन बनाये रखे तथा सुनिश्चित करें कि शासन संविधान के अनुReseller संचालित हैं।
Single स्वतन्त्र और निश्पक्ष न्यायापालिका ही नागरिकों के अधिकारों की संरक्षिका हो सकती है तथा बिना भय तथा पक्षपात के सबको समान न्याय प्रदान कर सकती है। इसके लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि उच्चतम न्यायालय अपने कत्र्तव्यों के पालन के लिए पूर्ण Reseller से स्वतन्त्र और All प्रकार के राजनीतिक दबाबों से मुक्त हो। जब भारत का संविधान तैयार Reseller जा रहा था तो संविधान निर्माताओं के समक्ष दो प्रकार की न्यायपालिकाओं के उदाहरण उपस्थित थें
- ब्रिटेन में न्यायाधीशों की Appointment क्राऊन द्वारा होती थी। इसका तात्पर्य यह था कि कार्यपालिका पर कोर्इ निर्बन्धन नहीं था। उच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की Appointment लार्ड चांसलर की सलाह पर की जाती थी इसके अलावा कोर्ट ऑफ अपील, हाउस ऑफ लार्ड्स और किंग्स बेंच में Appointmentयां एटार्नी जनरल की सलाह पर प्रधानमंत्री द्वारा की जाती थी। अत: ब्रिटेन में उच्च न्यायिक पदों पर Appointment करने की शक्ति पूर्णतया कार्यपालिका में निहित थी।
- अमेरिका में में उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की Appointment सीनेट की Agreeि प्राप्त हो जाने पर राष्ट्रपति द्वारा की जाती थी। राष्ट्रपति विशेशत: एटार्नी जनरल द्वारा सुझाए गये व्यक्तियों के न्यायाधीश के पद के लिए नामित करता था। ऐसे व्यक्ति मुख्यत: राजनीतिक, शैक्षिक या विधिक पृष्टभूमि से संबन्धित होते थे तथा सीनेट Agreeि देकर उन नामित व्यक्तियों की Appointment की पुष्टि करती थी, किन्तु राष्ट्रपति द्वारा नामित कुछ व्यक्ति सीनेट द्वारा पुष्टि प्राप्त करने में असफल रहे। 1930 में न्यायाधीश जॉन पार्कर को सीनेट ने अनुमोदित नहीं Reseller। इसके अलावा 1968 में न्यायाधीश फोर्ट जो कि राष्ट्रपति निक्सन के निकट मित्र And विधिक सलाहकार थे, को भी मु0 न्यायाधीश के पद पर नियुक्त हेतु अनुमोदन प्राप्त नहीं हो पाया।
Indian Customer संविधान में न्यायाधीशों की Appointment प्रक्रिया
Indian Customer संविधान निर्माताओं ने ब्रिटेन व अमेरिका की न्यायापालिका के संबन्ध में अनेक कठिनाइयां पायी। अत: उन्होंने Indian Customer न्यायपालिका हेतु Single मध्यम मार्ग अपनाया। ब्रिटेन में न्यायपालिका के संदर्भ में कार्यपालिका को अनन्य शक्ति प्राप्त थी जबकि अमेरिकी न्यायिक प्रणाली में राजनीतिक हस्तक्षेप था।
जब Indian Customer संविधान का निर्माण Reseller जा रहा था तो राष्ट्रमण्डल देशों जैसे कनाडा, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड व यू0के0 में न्यायाधीशों की Appointment कार्यपालिका द्वारा की जाती थी। अत: उन All देशों से अनुभव प्राप्त करने के पश्चात Indian Customer संविधान निर्माताओं ने Indian Customer न्यायपालिका के संबन्ध में Single मध्यम मार्ग अपनाया। उन्होंने ऐसी रीति अपनायी जो कि न तो कार्यपालिका को पूर्ण शक्ति प्रदान करती थी और न ही संसद को न्यायाधीशों की नियुकित को प्रभावित करने की अनुमति देती थी।
संविधान निर्मात्री सभा में न्यायपालिका के संबध में विचार विमर्श की प्रक्रिया के दौरान उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की Appointment के सम्बन्ध में संशोधन लाया गया। जिस पर डा0 अम्बेडकर ने अत्यन्त महत्वपूर्ण Word कहे जो निम्न प्रकार है :-
भारत में न्यायाधीशों की Appointment राष्ट्रपति अपने हस्ताक्षर और मुद्रा सहित अधि पत्र द्वारा करता है। राष्ट्रपति को इस मामले में कोर्इ वैवेकीय शक्ति प्राप्त नहीं है। अनुच्छेद 124 (2) के According राष्ट्रपति न्यायाधीशों की Appointment उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालय के ऐसे न्यायाधीशों से परामर्श करने के पश्चात, जिसे वह इस प्रयोजन के लिए आवश्यक समझे, ही करेगा। तथा अन्य न्यायाधीशों की Appointment राष्ट्रपति सर्वदा मुख्य न्यायाधीशों के परामर्श से ही करेगा।
न्यायाधीशों को नियुक्त करने की राष्ट्रपति की शक्ति Single औपचारिक शक्ति है। क्योंकि वह उस मामले में मंत्रि मंडल की सलाह से कार्य करता है। (अनुच्छेद 124 (2) के According राष्ट्रपति सुप्रीम कोर्ट के अन्य न्यायाधीशों की Appointment के मामलें में भारत के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श करने के लिए बाध्य है। जहां तक मुख्य न्यायमूर्ति की Appointment का प्रश्न है ;अनुच्छेद 124 के अन्र्तगत राष्ट्रपति को संविधान द्वारा विहित अर्हता रखने वाले किसी भी व्यक्ति को मुख्य न्यायमूर्ति नियुक्त करने की शक्ति प्राप्त है तथा वह इस मामलें में किसी से परामर्श हेतु बाध्य नहीं है। भारत में न्यायाधीशों की Appointment के History को निम्न चरणों के अन्तर्गत अध्ययन Reseller जा सकता है:-
1. First चरण (1950 से 1981)
उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठतम सदस्य को मुख्य न्यायमूर्ति तथा अन्य न्यायाधीशों को मुख्य न्यायाधीश के परामर्श पर Appointment प्रदान करने की प्रक्रिया अपनायी जाती रही। तथा धीरे-धीरे यह प्रक्रिया Single परंपरा के Reseller में परिवर्तित हो गयी। केवल न्यायमूर्ति जफ इमाम Single मात्र अपवाद थे जो कि अपनी मानसिक वं शारीरिक अस्वस्थता के कारण वरिष्ठ होने के बावजूद मुख्य न्यायमूर्ति नहीं चुने गये। तथा बाद में उन्होने अपने पद से इस्तीफा दे दिया।
1973 में इस मामलें पर Single महत्वपूर्ण विवाद खड़ा हुआ। जब 25 अप्रैल 1973 को केशवनन्द भारती के मामलें में दिये गये निर्णय के कुछ घंटो के पश्चात ही सरकार ने आप्रत्याशित ढंग से 22 वर्षो की उपर्युक्त परम्परा को तोड़ दिया। सरकार ने वरिष्ठतम की उपेक्षा करके न्यायमूर्ति श्री अजित नाथ राय को भारत का मुख्य न्यायमूर्ति नियुक्त Reseller।
सरकार ने न्यायालय के तीन वरिष्ठतम न्यायाधीशों श्री जे0एम0 शेलट, श्री के0एस0 हेगड़े तथा श्री एस0एन0, ग्रोवर की वरिष्ठता की उपेक्षा करके श्री एस. एन. राय को मुख्य न्यायमूर्ति नियुक्त Reseller। श्री राय के शपथ ग्रहण करने के आधे घंटे के पश्चात तीनों न्यायाधीशों ने अपने पदों से त्याग पत्र दे दिया। सरकार के इस रवैये की बड़ी तीव्र आलोचना की गयी। उच्चतम न्यायालय के अधिवक्ता संघ ने इस कदम की आलोचना करते हुए कहा कि यह Appointment विशुद्ध राजनैतिक आधार पर की गयी थी और इसका योग्यता और वरिष्ठता से कोर्इ संबध नहीं था।
सरकार की ओर से इस कदम के पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिये गये सरकार का यह कथन था कि अनुच्छेद 124 में राष्ट्रपति को प्रधान न्यायाधीश की Appointment के संबध में पूर्ण वैवेकीय शक्ति प्रदान की गयी है। अत: किसी भी न्यायाधीश को, जिसे वह उचित समझता हो, मुख्य न्यायाधीश नियुक्त कर सकता है। चाहें वह वरिष्ठ हो या कनिष्ठ। यह तर्क बहुत कमजोर था क्योंकि 1973 तक सरकार द्वारा वरिष्ठतम क्रम के According ही वरिष्ठतम न्यायाधीश को मुख्य न्यायामूर्ति चयनित Reseller जाता रहा है। सरकार ने यह भी तर्क दिया कि सरकार ने प्रधान न्यायाधीश की Appointment में विधि आयोग की संस्तुतियों को लागू Reseller था।
विधि आयोग, 1956 ने यह सिफारिश की थी कि मुख्य न्यायमूर्ति की Appointment केवल वरिष्ठतमता के आधार पर ही नहीं की जानी चाहिए बल्कि उसमें गुण उपयुक्तता And प्रशासनिक सक्षमता की भी समीक्षा की जानी चाहिए। सरकार का यह तर्क भी बहुत लचर था। क्योंकि विधि आयोग की रिपोर्ट 1956 में आयी थी तथा सरकार ने 17 वर्षो तक उस रिपोर्ट को लागू नहीं Reseller और फिर SingleाSingle उस रिपोर्ट को लागू करने के बहाने 3 वरिष्ठतम न्यायाधीशों की उपेक्षा की। वास्तव में तीनों न्यायाधीशों की उपेक्षा इसलिए नहीं की गयी कि वे योग्यता नहीं रखते थे बल्कि उपेक्षा का मुख्य कारण उनके द्वारा सरकार के विरूद्ध निर्णय Reseller जाना था।
सरकार की ओर से यह तर्क भी दिया गया कि मुख्य न्यायाधीशों के पद पर जिस व्यक्ति की Appointment की जाये उसका कार्यकाल अधिक दिनों का होना चाहिए। इससे मुख्य न्यायाधीश को न्यायालय को Single निश्चित दिशा देने का अवसर प्राप्त होगा। किन्तु यहां भी सरकार असफल रही क्योंकि त्यागपत्र देने वाले तीनों न्यायाधीशों में से श्री ग्रोवर का कार्यकाल श्री ए.एन. राय से Single माह बाद समाप्त होने वाला था।
लखनापल वनाम ए.एन. राय (1975) के मामले में मुख्य न्यायाधीश ए.एन. राय की Appointment का दिल्ली उच्च न्यायालय में (अनुच्छेद 126) के अधीन अधिकार पृच्छा की रिट याचिका द्वारा निम्नलिखित आधारों पर चुनौती दी गयी।
- कार्यपालिका का यह कृत्य दुर्भावना युक्त है।
- यह Appointment अनुच्छेद 124(2) में समाहित वरिष्ठता के नियम के विरूद्ध है।
- इस Appointment में अनुच्छेद 124(2) में described आवश्यक परामर्श प्रक्रिया का पालन नहीं Reseller गया है।
उच्च न्यायालय ने याचिका को अस्वीकार करते हुए कहा कि Appointment करने वाले प्राधिकारी का आशय अधिकार पृच्छा रिट याचिका के संदर्भ में विसंगत है। 1976 में सरकार ने पुन: न्यायमूर्ति एम0एन0 बेग को न्यायमूर्ति एच0आर0 खन्ना पर वरीयता देते हुए मुख्य न्यायाधीश नियुक्त Reseller। जिसके फलस्वReseller न्यायमूर्ति खन्ना ने त्याग पत्र दे दिया। ऐसा न्यायमूर्ति खन्ना द्वारा बन्दी प्रत्याक्षीकरण मामलें ;ए0डी0एम0 जबलपुर वनाम शिवकान्त शुक्ला,) में दिये गये विसम्मति निर्णय के कारण हुआ। जिसमें उन्होने आपातकाल के दौरान जीवन के अधिकार का समर्थन Reseller था जिसे सरकार ने अपने विरूद्ध माना।
भारत संघ वनाम साकल चन्द्र सेठ (1977) सु0को0 क के मामलें में उच्चतम न्यायालय के समक्ष ‘ परामर्श’ Word First के बार विचार हेतु आया। यह मामला अनुच्छेद 222 (1) में प्रयुक्त ‘परामर्श’ Word के Means And विस्तार से सम्बन्धित था। न्यायमूर्ति चन्द्रचूड़ ने निर्णय देते हुए कहा कि ‘परामर्श’ Word से तात्पर्य दो या अधिक व्यक्तियों के ऐसे सम्मिलन से है जो उन्हे किसी Single विषय पर सहीं And सन्तोषजनक हल प्रदान करने के लिए सक्षम बनाता है। इस निर्णय मे उन्होने यह अभिनिर्धारित Reseller कि परामर्श का तात्पर्य Agreeि नहीं है बल्कि पूर्ण And प्रभावी परामर्श है। पुन: एस0पी0 गुप्ता वनाम भारत संघ (1982) सु0को0 के मामलें में मार्च 1981 में भारत सरकार के विधि मंत्री द्वारा राज्यों के मुख्य मुंत्रियों और उच्चतम न्यायालय को भेजे गये Single परिपत्र की, (जिसके द्वारा न्यायाधीशों को Single उच्च न्यायालय से Second उच्च न्यायालय में स्थानान्तरण व प्रस्तावित Appointment के संबध में) अपनी Agreeि देने को कहा गया था, वैधता को चुनौती दी गयी थी। परिपत्र की विधि मान्यता के अलावा इस मामलें में न्यायपालिका की स्वतंत्रता And न्यायाधीशों की Appointmentयों में प्रधान न्यायाधीश के परामर्श की प्राथमिकता भी प्रश्नगत थी।
उच्चतम न्यायालय ने साकल चन्द्र सेठ के मामले में दिये निर्णय का अनुसरण करते हुए स्पष्ट Reseller कि परामर्श से तात्पर्य Agreeि से नहीं बल्कि पूर्ण And प्रभावी परामर्श से है। Meansात परामर्श हेतु संबधित न्यायाधीश के समक्ष संपूर्ण तथ्य रखे जाने चाहिए। जिसके आधार पर किसी व्यक्ति को न्यायाधीश नियुक्त करने के लिए वह राष्ट्रपति को अपनी सिफारिश भेजेगा। बहुमत के निर्णय के According न्यायाधीशों की Appointment के मामलें में कार्यपालिका को पूर्ण शक्ति प्राप्त है। सरकार द्वारा Reseller गया कृृत्य केवल इस आधार पर प्रश्नागत Reseller जा सकेगा कि वह दुर्भाग्यनापूर्ण है। इस मामलें में विसम्मत निर्णय विसम्मत निर्णय के According प्रधान न्यायाधीश के परामर्श को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
2. द्वितीय चरण (1982 से 1998)
एस0सी0 एडवोकेट आन रिकार्ड एसोशियसन बनाम भारत संघ (1993) सु0को0 के मामलें में उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश ने Single लोक हित वाद के द्वारा उच्चतम न्यायालिका में रिक्त पदों पर Appointment के संदर्भ में प्रश्न उठाया था। इसके अलावा यह मामला उच्चतम न्यायालय व उच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की Appointment के सम्बन्ध में अनेक महत्वपूर्ण प्रश्न उठाता है। इस याचिका पर 9 न्यायाधीशों की पीठ द्वारा विचार Reseller गया। तथा बहुमत का निर्णय न्यायमूर्ति जे0एस0 वर्मा द्वारा सुनाया गया। इस पीठ ने 7:2 के बहुमत से यह अभिनिर्धारित Reseller कि न्यायाधीशों की Appointment के मामलें उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायमूर्ति न्यायाधिपति के मत को सर्वोच्य महत्व देना चाहिए। जो वह अपने सहयोगियों से परामर्श करके व्यक्त करता है। उच्चतम न्यायालय व उच्च न्यायालय के किसी भी न्यायाधीश की Appointment तब तक नहीं की जा सकती है जब तक कि वह उच्चतम न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश के मत के अनुReseller न हों। न्यायालय ने इस मामलें में उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीशों की Appointment के संबध में निम्नलिखित दिशा निर्देश दिये हैं :-
- उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की Appointment के संबन्ध में प्रस्ताव का प्रारंभ मुख्य न्यामूर्ति द्वारा Reseller जाना चाहिए।
- राष्ट्रपति किसी भी व्यक्ति की Appointment उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के Reseller में तब तक नहीं करेगा जब तक कि प्रधान न्यायाधीशए उच्चतम न्यायालय के दो वरिष्ठ न्यायाधीशों से परामर्श करके अपनी सिफारिश राष्ट्रपति को न भेजे।
- प्रधान न्यायाधीश की दो वरिष्ठतम न्यायाधीशों से परामर्श प्रक्रिया लिखित में होनी चाहिए।
- भारत के मुख्य न्यायाधीश के पद पर Appointment उच्चतम न्यायालय के किसी वरिष्ठ न्यायाधीश की ही होनी चाहिए, जो कि उस पद को ग्रहण करने के लिए उपर्युक्त हो।
- केवल अपवादात्मक परिस्थितियों में ही ऐसा हो सकता है कि प्रधान न्यायाधीश तथा दो वरिष्ठ न्यायाधीशों द्वारा सिफारिश किये गये नामों पर विचार ही न Reseller जाये।
3. तृतीय चरण (1999 से अब तक)
इन री प्रेसिडेन्सियल रिफरेन्स नं0-1 (1993) के मामलें में यह परामर्श दिया गया कि उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की Appointment में मुख्य न्यायाधीश की सिफारिश जो अन्य न्यायाधीशों से परामर्श करने के पश्चात दी जाये, सरकार को भेजी जायेगी। इस निर्णय के पश्चात यह आरोप लगाया जाने लगा कि मुख्य न्यायाधीश अपनी सिफारिशों से मनमानें ढंग से अन्य न्यायाधीशों के परामर्श के बिना भेज रहे हैं ।
यह प्रश्न तब और गम्भीर Reseller में आया जब पिछले मुख्य न्यायाधीश श्री एम0एम0 पुंछी ने परामर्श प्रक्रिया का पालन किए बिना मनमाने ढंग से Appointment की सिफारिश राष्ट्रपति को भेजी थी । अत: राष्ट्रपति महोदय ने परामर्श प्रक्रिया को स्पष्ट करने के लिए अनुच्छेद 143 के आधीन सलाह देने हेतु इस मामलें को पुन: उच्चतम न्यायालय को सौंप दिया। इस मामलें में 9 सदस्यीय संविधान पीठ का निर्णय सुनाते हुए न्यायाधीश श्री एस0 पी0 भरूचा ने परामर्श प्रक्रिया को निम्नलिखित प्रकार से स्पष्ट Reseller :-
- उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की Appointment के मामलें में मुख्य न्यायाधीश को उच्चतम न्यायालय के चार वरिष्ठतम न्यायमूर्तियों के समूह से परामर्श करके ही राष्ट्रपति को अपनी सिफारिश भेजना चाहिए। अत: Appointment के लिए सिफारिश हेतु समूह मुख्य न्यायाधीश व उच्चतम न्यायालय के चार वरिष्ठतम न्यायामूर्तियों से मिलकर निर्मित होना चाहिए।
- न्यायाधीशों के समूह को अपना परामर्श आम राय से देना चाहिए। तथा परामर्श प्रक्रिया में सम्मिलित प्रत्येक न्यायाधीश की सिफारिश चाहे वह सम्मत हो या विसम्मत, लिखित Reseller में होना चाहिए।
- यदि परामर्श प्रक्रिया में सम्मिलित न्यायाधीशों के समूह में बहुमत किसी व्यक्ति के विरूद्व हो तो उस व्यक्ति की न्यायाधीश के Reseller में Appointment नही की जायेगी।
- उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीशों की Appointment केवल इसी आधार पर प्रश्नगत की जा सकेगी कि 1993 में उच्चतम न्यायालय द्वारा दिये गये निर्णय का उचित Reseller से अनुपालन नहीं हुआ है।
तीनों चरणों की समीक्षा
1982 में First न्यायाधीश Appointment मामलें के समय न्यायाधीशों की Appointment की शक्ति कार्यपालिका में निहित थी। जबकि न्यायाधीशों की Appointment संबन्धी Second मामलें में नियुक्त करने की शक्ति न्यायपालिका के हाथों में पहुंच गयीं इस संबन्ध में Third मामलें में इसके क्षेत्र का और अधिक विस्तार हुआ तथा Appointment मुख्य न्यायाधीश तथा उच्चतम न्यायालय के चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों के समूह की सिफारिश पर की जाने लगी। इस प्रकार वर्तमान में अनुसरण की जाने वाली प्रक्रिया अधिक लोक तान्त्रिक पारदश्र्ाी और निश्पक्ष होगी। तथा इसके दुResellerयोग किये जाने की संभावना कम है।
राष्ट्रीय न्यायिक समिति की Need
उच्चतम न्यायालय के 9 सदस्यीय संविधान पीठ के निर्णय के पश्चात उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीशों की Appointment की प्रक्रिया अधिक लोक तान्त्रिक पारदश्र्ाी And निश्पक्ष हो गयी है। मुख्य न्यायाधीश के पद हेतु वरिष्ठता का नियम तथा अन्य न्ययाधीशों की Appointment के लिए प्रधान न्यायाधीश समेत 4 वरिष्ठ न्यायाधीशों के समूह द्वारा परामर्श प्रक्रिया के अनुसरण होने से इस मामलें में कार्यपालिका का हस्तक्षेप अब पूर्णत: समाप्त हो गया है।
न्यायाधीशों की Appointment संबन्धी वर्तमान प्रक्रिया राजनैतिक हस्तक्षेप And दबाब से पूर्णत: मुक्त है। तथा प्रक्रिया पर न्यायापालिका का प्रभावी नियंन्त्रण है किन्तु जैसा कि विधिक सूक्ति में कहा गया है कि ‘‘शक्ति से भ्रष्टाचार आता है, और परम शक्ति से पूर्ण भ्रष्टाचार आता है।’’ अत: न्यायाधीशों की Appointment के संबन्ध में न्यायापालिका पर कुछ नियंत्रण भी अवश्य होना चाहिए।