तुलसीदास का जीवन परिचय और उनकी Creationएँ

तुलसीदास के शिष्य बाबा माधव वेणीदास कृत ‘मूल
गोसाई चरित्र‘ तथा महात्मा रघुवरदास रचित ‘तुलसी-चरित’ में गोस्वामी तुलसीदास का
जन्म सं. 1554 की श्रावण शुक्ला सप्तमी दिया गया है। उनके जन्म के संबंध में यह
दोहा मिलता है –

पन्द्रह सौ चौवन विषे, ऊसी गंग के तीर।

श्रावण शुक्ल सप्तमी, तुलसी धरयौ सरीर।।

आपकी निधन तिथि श्रावण शुक्ला सप्तमी सं. 1680 है। इसके संबंध में भी यह
दोहा प्रचलित है जिसके आधार पर उनके स्वर्गारोहण की तिथि निश्चित की जाती है –

‘सवंत सोलह सौ असी असी गंग के तीर।

सावन शुक्ल सप्तमी तुलसी तजौ सरीर।।

इनत तथ्यों के आधार पर आपकी आयु 126 वर्ष ठहरती है। आधुनिक विद्धानों ने
जनश्रुति के आधार पर आपका जन्म कुछ बाद का स्वीकार Reseller है। इनमें पं. राम गुलाम
द्विवेदी के According तुलसी का जन्म स. 1589 माना है। सर जार्ज ग्रियर्सन और डॉमाताप्रसाद
गुप्त ने भी इसे स्वीकार Reseller है।

गोस्वामी तुलसीदास जी के जन्म स्थान के सम्बन्ध में भी विद्वानों में मतभेद है।
पं. रामगुलाम द्विवेदी और ठा. शिवसिंह सेंगर ने तुलसी का जन्म स्थान बाँदा जिले के
Kingपुर बतलाया गया है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भी इनका जन्मस्थान Kingपुर ही माना
है। पं. गौरीशंकर द्विवेदी तथा रामनरेश त्रिपाठी ने सोरों को तुलसी का जन्म स्थान बताया
है। बाँदा के गजेटियर के According Kingपुर गाँव सोरो के संत तुलसीदास जी द्वारा बसाया
गया है। जनश्रुति के आधार पर गोस्वामी जी के पिता का नाम आत्माराम था और वे
पत्योंजा के दुबे थे- ‘‘तुलसी परासर गोत, दुबे पति औजा के।’’ तुलसी की माता का नाम
हुलसी था। गोसाई चरित’ और ‘तुलसी चरित’ के आधार पर आचार्य शुक्ल ने इसे
सरयूपारीय ब्राम्हण माना है। मिश्रबन्धुओं ने इन्हें कान्यकुब्ज माना है।

आपके विवाह के संबंध में History है कि उनका विवाह दीनबन्धु पाठक की पुत्री
रत्नावली से हुआ था। उनके तारक नाम का पुत्र भी हुआ था जिसकी मृत्यु हो गई थी।
इसके अतिरिक्त कहा जाता है कि (तुलसी चरित के According) उनके तीन विवाह हुए थे।
तीसरा विवाह कंचनपुर के लक्ष्मन उपाध्याय की पुत्री बुद्धिमती से हुआ था। इस विवाह में
तुलसी के पिता ने 6000 Resellerये लिये थे। मुनिया नाम की दासी की मृत्यु के बाद
उसी अवस्था में इनके दीक्षा-गुरू बाबा नरहरिदास की इन पर दया-दृष्टि हुई। इन्हीं से तुलसी ने शूकर क्षेत्र या सोरों में राम-कथा सुनी थी। शेष सनातन के पास काशी में
16-17 वर्ष रहकर वेद, पुराण, उपनिषद्, रामायण तथा भागवत आदि का गम्भीर अध्ययन
Reseller और अन्त में काशी में रहने लगे। काशी में तुलसी का मान बढ़ता गया। King
टोडरमल, रहीम और मानसिंह तुलसी के अन्य मित्र थे।

पं. राम गुलाम द्विवेदी व आचार्य शुक्ल ने अपने History गं्रथ में तुलसी के
छोट-बड़े बारह ग्रन्थों को प्रामाणिकता दी है। नागरी प्रचारणी सभा ने इन बारह ग्रन्थों को
ही प्रामाणिक मानकर प्रकाशित Reseller है- 1. रामचरितमानस 2. जानकी मंगल 3.
पार्वतीमंगल 4. गीतावली 5. कृष्ण गीतावली 6. विनय-पत्रिका 7. दोहावली 8. बरवै
रामायण 9. कवितावली (हनुमान बाहुक समेंत) 10. वैराग्य संदीपनी 11. रामाज्ञा प्रश्न
12. रामलला नहछँू। इन ग्रन्थों में प्रबंध काव्य की दृष्टि से रामचरितमानस और मुक्त
काव्य की दृष्टि से विनय पत्रिका सर्वाधिक महत्पूर्ण है। अधिकांश की भाषा अवधि है।

तुलसीदास Humanीय मूल्यों से ओतप्रोत कलाकार थे। उनकी अन्तर्दृष्टि जीवन के
छोटे-छोटे प्रसंगों से काव्य का तत्व खोज लेती है और उनके पास काव्य की समझ और
अभिव्यक्ति की अपार क्षमता विद्यमान है। युग और जीवन की गहरी समझ के बिना कोई
व्यक्ति कलाकार नहीं हो सकता। तुसली निसंदेह Single बड़े कलाकार थे। उनकी काव्य-कला
के तत्व विवेचनीय हैं-

तुलसी द्वारा रचित रामचरितमानस जो कि इनका प्रतिनिधि ग्रंथ है,
इसकी विषय वस्तु का आधार ‘अध्यात्म रामायण’ तथा वाल्मीकि रामायण है। कथावस्तु के
विकास और वर्णन विस्तार में भी तुलसी की असाधारण प्रतिभा और कलात्मक विशेषज्ञता
के दर्शन होते हैं। इसकी विषय वस्तु विन्यास की प्रशंसा में आचार्य श्यामसुन्दर दास ने
लिखा है- ‘इस प्रकार हम देखते हैं कि वाल्मीकि रामायण का आधार लेकर तथा
मध्यकालीन धर्म गन्थों के तत्वों का समावेश कर साथ ही अपनी उदार बुद्धि And प्रतिभा से
अद्भुत चमत्कार उत्पन्न कर उन्होंने जिस अनमोल साहित्य का सृजन Reseller वह उनकी
सारग्रहणी प्रवृत्ति के साथ ही उनकी प्रगाढ़ मौलिकता का परिचायक है।’’

रामचरित मानस’ के चरित्र पौराणिक हैं, पर वे अपने युग
की चारित्रिक मनोवृत्तियों का प्रतिनिधित्व करते हैं इसमें अनेक चरित्र ऐसे हैं जिनके स्वभाव
और मानसिक प्रवृत्तियों की विशेषता गोस्वामी जी ने कई अवसरों पर प्रदर्शित भावों और
आचरणों की SingleResellerता दिखाकर प्रत्यक्ष की हैं। तुलसी ने अपने ग्रन्थों में पात्रों का
चरित्र-चित्रण अत्यन्त सतर्कता, कोमलता, व्यापक उदारता के साथ Reseller है। उनके चरित्र
Human जीवन की विविध चारित्रिक विशेषताओं को अपने में समेटे हुए होते हैं। आदर्श जीवन
की प्रतििष्ठा के लिए आदर्श मूल्यों की स्थापना का प्रयास Reseller है। रामचरितमानस में
भरत का आदर्श चरित्र खड़ा करने और कैकेई की आत्मग्लानि आदि के चित्रण से गोस्वामी
जी के सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक विश्लेषण की अद्भुत क्षमता के दर्शन मिलते हैं।

अलंकार भाषा के आभूषण हैं। इनसे ही प्राय: कल्पना का Reseller होता
है। तुलसी जी के अलंकार प्रयोग की विशेषता यह है कि उसमें कौतुक के स्थान पर
रमणीयता और सहसता है। रस सिद्ध कवि तुलसी दास केशव के समान अलंकारों के
पीछे-मारे-मारे नहीं फिर; बल्कि अलंकार उनके काव्य में सहज Reseller से आये हैं। यही
कारण है कि अलंकार भावगुण, वस्तु और घटना के तीव्रता अनुभव कराने में सहायक सिद्ध
हुए हैं। कुछ उदाहरण दृष्टव्य हैं।

‘‘उदित उदय गिरिमंच पर रघुवर बाल पतंग।

विकसे संत सरोज सब, हरसैं लोचन भृंग।’’ (सांगResellerक)
‘आगे दीखि जरति रिष भारी, महनु रोष तरवारि उधारी।’ (उत्प्रेक्षा)

‘पीपर पात सरिस मन डालो।’ (उपमा) First प्रश्नपत्र
‘‘प्रभु अपने नीचहुं आदरहीं, अगिनिधूम गिरि तुन सिरधरहीं।’’
‘‘सन्त हृदय नीवनत समाना, कहा कविनपै कहै न जाना,
निज परिताप द्ववै नवनीता, परिदु:ख दवै सुसंत पुनीता।’ (व्यतिरेक)

छन्द-

तुलसी की भाषा शैली, अलंकार, छन्दों पर अबाध अधिकार था। इन्होंने
भाषा के सम्बन्ध में स्पष्टत: कह दिया था-

‘‘का भाषा का संस्कृत भाख चाहिये साँच।

काम जो आवै कामरी का लै कै कमाँच।’’

इनकी कामरी ही कमांच से अधिक मूल्यवान सिद्ध हुई। इन्होंने अपने समय की
प्रचलित All शैलियों का बड़ी ही विदग्धैव्यतापूर्ण उपयोग Reseller है।

भाषा शैली और उक्तिवैचित्रय-

प्रबन्ध वैचित्रय के According शैली वैचित्रय भी
तुलसी जी की विशेषता है। अपने समय में प्रचलित वीर गाथा काल की छप्पय पद्धति
विद्यापति और सूरदास की गीत पद्धति, गंग आदि भाटों की कवित, सवैया पद्धति नीति
काव्यों की सूक्ति पद्धथि प्रेमाख्यानों की दोहा-चौपाई पद्धति, तुलसी की शैली के मौलिक
गुण हैं।

तुलसी महान शैली-निर्माता और ज्ञाता थे। डॉ. माता प्रसाद गुप्त इनकी शैली के
विषय में लिखते हैं- ‘‘तुलसी की शैली के मौलिक गुण हैं, उसकी श्रद्धालु, उसकी सरलता
उसकी सुबोधता, उसकी निव्र्य जता, उसकी अलंकार प्रियता, उसकी चारुता, उसकी
रमणीयता, उसका प्रवाह,
ऐसा प्रतीत होता है कि शैली की ये विशेषताएं अपेक्षाकृत उसके जीवन का Single
प्रतिReseller उपस्थित करती हैं। ये वास्तव में कवि के सुलझे हुए मस्तिष्क को उसके सादे
जीवन और उच्च विचार के आदर्श को उसकी स्वभावगत सरलता और आडम्बर विहीनता को,
उसके ध्यये की Singleाग्रता को और इन सबसे अधिक अपने विषय में उसकी पूर्ण
आत्मविस्मृति और उसके साथ पूर्ण तल्लीनता को किसी अन्य वस्तु की अपेक्षा व्यक्त करती
है।

इस प्रकार तुलसी का व्यक्तित्व उनकी शैली में भली-भांति है। तुलसी जी की
उक्तियों में उनका उक्ति वैचित्रय भी दर्शनीय है। उनकी उक्तियाँ बड़ी ही मार्मिक और
प्रभावशाली हैं। राम की निरूत्तर कर देने वाली सीता की यह उक्ति दर्शनीय है-

‘‘मैं सुकुमारि नाय बन जोगू, तुमहि उचित तप मो कहं भोगू।’’

राम जनकपुरी तो स्वयं देखना चाहते हैं, किन्तु लक्ष्मण से कहते हैं-

‘‘नाथ लखनपुर देखने चहहों प्रभु संकोच डर प्रकट न कहीं।’’

‘‘मनहुं उमंग अंग-अंग कवि छलकै।’’ (लक्षणा)

गोस्वामीजी की उक्तियों वैचित्रय के साथ उनकी निश्छलता और अनूठापन भी अपना
महत्व रखता है। कौशल्या के चाहने पर भी प्राण न छोड़ सकने से संबंधित Single उक्ति
दर्शनीय है-

‘‘लागि रहत मेरे नैयननि आगे राम लषन अरू सीता।’

और उसी से-

‘‘दु:ख न रहहि रघुपतिहिं विलोक मनु न रहैं बिनु देखे।’

संक्षेप में हम कह सकते हैं कि इसी काव्य में कला-पक्ष और भाव पक्ष अपने
अत्यन्त प्रौढ़ Reseller में है जो उन्हें Single अप्रतिम, प्रतिभाशाली, क्रान्त दर्शी कवि सिद्ध करते
हैं।

डॉ. विजयेन्द्र स्नातक के Wordों में- ‘‘तुलसी हिन्दी कविता कानन के सबसे बड़े वृक्ष
हैं। उस वृक्ष की शाखा-प्रशाखाओं के काव्य कौशल की चारुता और रमणीयता चारों और
बिखरी पड़ी है। यह सच है कि तुलसी कला के द्वारा उपकृत नहीं हुए प्रत्युत कला उनसे
उपकृत हुई है – ‘‘कविता करके तुलसी न लसे, पै कविता लसी पा तुलसी की कला।’’

गोस्वामी तुलसीदास  के दार्शनिक विचार

तुलसीदास न केवल महान भक्त थे बल्कि वे Single चिन्तक और दार्शनिक भी थे।
उन्होनें जीव और ब्रह्म, जगत और माया जैसे तत्वमीमांसीय विषयों पर भी अपने विचार
प्रस्तुत किये हैं। तुलसी के दार्शनिक विचारों का अध्ययन इन शीर्षकों में Reseller जा सकता
है –

ब्रह्म का स्वReseller –

दार्शनिक विषयों में सबसे First हम ब्रह्म पर विचार करते
हैं। तुलसी ने भी ब्रह्म को निर्गुण, निराकार, निर्विकार, सर्वव्यापी, सच्चिदानन्द, अनादि,
विश्वReseller कहा है। उन्होंने राम को ही ब्रह्म कहा है। वे राम और ब्रह्म की Singleता निResellerित
करते हुए कहते है: अमल अनवद्य अद्धैत निगुण सगुन ब्रह्म सुभिराम नरभूप Resellerी।  वे ब्रह्म को व्यापक And सर्वान्तरयामी मानते हुए कहते हैं: व्यापक Single ब्रह्म अविनासी। सत चेतन घन आनन्दरासी।।

तुलसी के आराध्य राम दरअसल निर्गुण और निराकार ब्रह्म के ही सगुण साकार
अवतार है: अगुन सगुन दुइ ब्रह्म सResellerा। अकथ अगाध अनादि अनूपा।।

तुलसी का मानना है कि जब-जब संसार में अर्धम बढ़ता है तथा असुर And
अभिमानी बढ़ जाते है, तब-तब ब्रह्म अवतार लेते हैं :जब-जब होई धरम की हानी। बाढ़हिं असुर अभिमानी। तब-तब प्रभु धरि विविध सरीरा। हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा।।

वे कहते हैं कि जो निर्गुण And निराकार ब्रह्म है, वही भक्तों के प्रेम के वशीभूत
होकर सगुण साकार Reseller धारण कर लेता है: अगुनहिं सगुनहिं नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बधु वेदा। अगुन अReseller अलख अज सोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई।।

इस तरह हम देखते हैं कि तुलसी का ब्रह्म स्वतन्त्र And सच्चिदानन्द घन है, वह
सर्वज्ञ, अनवद्य, निराकर, नित्य, निरंजन, अविनाशी, अमोध शक्ति सम्पन्न है। वही ब्रह्म के
Reseller में अवतरित हुआ है और नाना प्रकार की Humanीय लीलाएँ कर रहा है। उसकी ये
लीलाएँ विचित्र है और मुनियों को भी भ्रमित कर देती है। अवतारवाद ब्रह्म के स्वReseller का First प्रश्नपत्र
ही विस्तार है। अवतार चाहे राम के Reseller में हो कृष्ण के Reseller में।

जीव का स्वReseller –

Indian Customer दार्शनिक परंपरा में जीव को प्रकृति के पांच तत्वों
से निर्मित माना है। इसके अतिरिक्त जीव को ब्रह्म का अंश भी माना जाता है। तुलसी ने
इस परपंरा का निर्वाह करते हुए जीव के स्वReseller का प्रतिपादन Reseller और जीव को पांच
तत्वों से निर्मित बताया है छिति जल पावक गगन समीरा। पंच तत्व मिलि बनेउ सरीरा।।

वे यह भी कहते हैं कि यह जीव मन, प्राण अैर बुद्धि से विलक्षण है। यह ईश्वर
का ही अंश है अत: ईश्वर के समान चेतन, अमूल, अविनाशी And सहज सुख का भण्डार
है, किन्तु माया के वशीभूत होने के कारण यह अपने मूल स्वReseller को भूल चुका है : ईश्वर अंस जीवन अविनासी। चेतन अमल सहज सुखरासी।। सो माया बस परसो गोसाईं। बंध्यो कीर मरकट की नाई।।

संपूर्ण दार्शनिक परंपरा जीव और माया के संबंध से संसार का निर्माण मानती है।
तुलसी भी यह कहते हैं कि माया का प्रभाव जीव पर होता है, ईश्वर पर नहीं। माया तो
ईश्वर के अधीन है राम सर्वज्ञ, मायापति, सर्वशक्तिमान हैं जबकि जीव अल्पज्ञ, परतन्त्र
माया के वशीभूत है। जीव अज्ञानी And अंहकारी है। वह माया के वशीभूत होने कारण
कर्मबन्धन में फंसा रहता है और नाना प्रकार के कष्ट सहता है। राम की कृपा से ही
उसका उद्धार सम्भव है। जीव माया के कारण ही अमल Reseller से अलग होकर मलिन हो
जाता है और सुख को त्याग कर दु:ख को ग्रहण करता है। जीव का यह स्वReseller परंपरागत
है। तुलसी इसी स्वReseller को ग्रहण करते हैं और उसमें कोई नई बात नहीं जोड़ते हैं। जीव
कर्म करने में स्वतंत्र है, किन्तु फल भोगने में परतंत्र है। माया के वशीभूत होकर यह जीव
सांसारिक कर्म जाल में फंसा रहता हैं। माया के बन्धन से मुक्ति कैसे मिल सकती है इस
विषय में तुलसी का स्पष्ट मत है कि मायापति ईश्वर की कृपा से ही यह संभव है। स्पष्ट
है कि तुलसी ने जीव को ईश्वर का अंश मानते हुए भी उसे ईश्वर से पृथक माना है।
जीव की मुक्ति के लिए राम की कृपा और दासभाव की भक्ति की अनिवार्यता पर बल देते
हैं। राम ही कृपा करें तो यह जीवन माया के बंधनों से मुक्त हो सकता है।

जगत का स्वReseller –

जैसा कि हमने ऊपर कहा है कि तुलसी के दार्शनिक
विचार परंपरा से आये विचारों के अनुReseller ही हैं। अत: जगत के संबंध में भी तुलसी मानते
हैं कि राम यानि ब्रह्म ही जगत के निमित्त और उपादान कारण है। जब राम (ब्रह्म) सत्य हैं
तो जगत को भी सत्य होना चाहिए। विनय-पत्रिका के कई पदों में तुलसी ने जगत की
भयंकरता, विषमता तथा भ्रमात्मक सत्ता पर आश्चर्य प्रकट Reseller है। संसार में व्याप्त
पाखण्ड, काम, क्रोध, मोह, तृष्णा, दंभ, कपट, आदि सदा जीव को भ्रमित करते रहते हैं।
जगत के इस स्वReseller के अलावा तुलसी ने इसे ‘सियाराममय’ भी स्वीकार Reseller है :
सियाराममय सब जग जानी। करहुं प्रणाम जोरि जुग पानी।।

इस पंक्ति पर प्रश्न उठाया जा सकता है कि जब जगत सियाराममय है तो मिथ्या
कैसे हो सकता है? वस्तुत: जगत रामReseller ही है, परन्तु माया के कारण ही वह राम से
भिन्न प्रतीत होता है। परपंरा के According जगत् का दृश्यमान Reseller मिथ्या है, क्योंकि वह
परिवर्तनशील है। राम की कृपा से जब उसे अपने वास्तविक Reseller का ज्ञान हो जाता है तब
वह इस जगत को सियारममय पाता है। कोउ कह सत्य, झूठ कह कोऊ, जुगल प्रबल कोऊ मानै।
तुलसीदास परिहरै तीन भ्रम, सो आपुन पहिचानै।।

श्यह कहकर तुलसी ने संसार की सत्यता, मिथ्यात्व, सत्यासत्यता तीनों बातो को
ही मिथ्या ठहराया है। तीनों भ्रमात्मक Resellerों को छोड़कर भक्ति को अपनाने का आग्रह
तुलसी ने Reseller है। इस प्रकार जगत के निResellerण में शंकर का तथा अन्त में भक्ति के
प्रतिपादन में रामनन्द का अनुसरण कर तुलसी ने अपने जगत सम्बन्धी विचारों को प्रस्तुत
Reseller है।

माया का स्वReseller –

दार्शनिक विचारों में माया का स्थान बहुत महत्वूपर्ण है क्योंकि यही वह तत्व है जो संसार के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। माया राम
की अभिन्न शक्ति है। इसी शक्ति के द्वारा राम सृष्टि का कार्य सम्पन्न करते है। माया
सीता है और राम के साथ ही वह सदा अवतार लेती है। तुलसी कहते हैं कि –
आदि सक्ति जेहि जब उपजाया। सोउ अवतरिहि मोरि यह माया।

माया जीव के मोह And भवबन्धन का कारण है। इसे ही माया का अविद्या Reseller कहा
गया है। माया का दूसरा Reseller विद्या है। वह ब्रह्म की शक्ति है जो विश्व का सृजन, सिंचन
And संहार करने वाली है। यही जीव के मोक्ष का हेतु है ‘‘स्रुति सेतुपालक राम तुम्ह
जगदीश माया जानकी। सो सृजति जग पालति हरति रूख पाई कृपानिधान की।।’’
जीव के विकारी भाव – काम, क्रोध, लोभ, मोह, तृष्णा, कामिनी इस माया के
सहायक है। यह माया भक्तों को नहीं व्यापती, ऐसा कहकर तुलसी ने भक्ति की महत्ता
बताई है। इस प्रकार तुलसी ने जहाँ जीव और ब्रह्म को Single माना है वहाँ माया और ब्रह्म
को भी Single स्वीकार Reseller है। जहाँ वे जीव और ब्रह्म की Singleता स्वीकार करते है वहाँ वे
रामानुज के आधार पर मुक्ति की अवस्था में जीव और ब्रह्म में द्धैत स्वीकार करते। इस
तरह हम तुलसी के दार्शनिक विचारों का परिचय पा सकते हैं।

गोस्वामी तुलसीदास की भाषा

तुलसी की भाषा अवधि है और उनका ब्रज पर अधिकार था। चूँकि भाषा अभिव्यक्ति
का सशक्त माध्यम है। तुलसीदास की कव्य भाषा में उचित Word प्रयोग, कथ्य के अनुकूल
वाक्य-विन्यास, Wordों का उपर्युक्त चयन, Means को अधिक प्रेषणीय बनाने के लिये
लोकोक्तियों और मुहावरों का समुचित प्रयोग, नाद सौन्दर्य और चित्रात्मकता तुलसी की
भाषा की प्रमुख विशेषताएँ हैं। उनकी सम्पूर्ण Creationओं में से श्रीकृष्ण गीतावली, कवितावली,
विनय पत्रिका, दोहावली, गीतावली तथा वैराग्य संदीवनी ग्रंथ ब्रज भाषा में लिखे गये हैं
तथा रामचरितमानस, रामलला नहछू, बरवै रामायण, पार्वती मंगल, जानकी मंगल ओर
रामाज्ञा प्रश्न अवधी के श्रृंगार हैं। तुलसी की इन दोनों भाषाओं के Word भण्डार का प्रयोग
Reseller है- संस्कृत Wordावली, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश Wordावली, विदेशी, Wordावली, तत्कालीन
प्रांतीय Wordावली और हिन्दी की अन्य बोलियों की Wordावली

गोस्वामी तुलसीदास का भावपक्ष

तुलसी जी के भक्ति भावना सीधी सरल And साध्य है। All Creationओं में भावों की
विविधता तुलसी की सबसे बड़ी विशेषता है। वे All रसों के प्रयोग में सिद्धहस्त थे।
अवधी व ब्रजभाषा पर उनका समान अधिकार था ।

गोस्वामी तुलसीदास का कलापक्ष

तुलसी दास जी ने अपने युग में प्रचलित All काव्य शैलियों का सफलता पूर्वक
प्रयोग Reseller है। जैसे-दोहा, चौपाई, कविता सवैया, छप्पय आदि। अलंकार उनके काव्य
में सुन्दर व स्वाभाविक Reseller से प्रयुक्त हुए हैं । राम चरित मानस अवधी भाषा का सर्वोत्तम ग्रन्थ है।

गोस्वामी तुलसीदास का साहित्य मेंं स्थान

तुलसीदास जी हिन्दी साहित्य के सर्वश्रेष्ठ कवि थे। हिन्दी साहित्य उनकी काव्य
प्रतिभा के अक्षय प्रकाश से सदैव प्रकाशित रहेगा।

गोस्वामी तुलसीदास का केन्द्रीय भाव

संत शिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास ने अपने दोहो के माध्यम से Human समाज को
नीति की राह में चलने का उपदेश दिया है। जीवन को सफल बनाने के क्या तरीके हो
सकते हैं? मीठे बचन बोलने से क्या लाभ होता है तथा काम, क्रोध, लोभ और मोह के
वशीभूत व्यक्ति को क्या नुकसान होता है आदि उपदेशात्मक नीति वचनों के माध्यम से
समाज के विकास में उन्होंने अपूर्व सहयोग प्रदान Reseller है।

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