भक्ति का Means, परिभाषा, महत्व And विविध Reseller

भक्ति का Means, परिभाषा, महत्व And विविध Reseller


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अनुक्रम

भक्ति Word संस्कृत के ‘भज’ सेवायाम् धातु में ‘ क्तिन्’ प्रत्यय लगाने पर बनता है। वस्तुत: ‘क्तिन्’ प्रत्यय भाव Means में होता है। ‘भजनं भक्ति:’ परन्तु वैयाकरणों के According कृदन्तीय प्रत्ययों में Meansान्तर Means परिवर्तन प्रक्रिया का अंग है। अत: वही ‘क्तिन्’ प्रत्यय Meansान्तर में भी हो सकता है।

“भजनं भक्ति:”, “भज्यते अनया इति भक्ति:”, “भजन्ति अनया इति भक्ति:” इत्यादि ‘भक्ति’ Word की व्युत्पत्तियाँ हो सकती हैं।

‘भक्ति’ Word का वास्तविक Means भगवान की सेवा करना है। यह भक्ति ही अमृत स्वResellerा है। जिसको पाकर मनुष्य सिद्ध और तृप्त हो जाता है तथा किसी अन्य वस्तु की इच्छा नहीं रह जाती है। ‘भक्ति’ की संज्ञा के विषय में “’नारद पांचरात्र‘ में कहा गया है कि अन्य कामनाओं का परिहार करके निर्मल चित्त से समग्र इन्द्रियों द्वार ा श्रीभगवान की सेवा का नाम भक्ति है।”

डॉ0 रामस्वार्थ चौधरी के इन Wordों द्वारा व्यक्त करें तो वह इस प्रकार है- “भक्ति श्रद्धा, विश्वास And प्रेमपूरित भक्त हृदय का वह मधुर मनोराग है जिसके द्वारा भक्त और भगवान, उपास्य और उपासक के पारस्परिक सम्बन्ध का निर्धारण होता है। यह भक्त के विमल मानस से नि:सृत, दिव्य प्रेम की वह उज्जवल भाव धारा है जिसके प्रवाह में पड़कर लौकिक प्रेम का विषयानन्द अपने समस्त कलुषों का परिहार कर अलौकिक प्रेम के ब्रह्मानन्द में परिणत हो जाता है।”

भक्ति का महत्व

भक्ति हमारे जीवन का प्राण है जिस प्रकार पौधे का पोषण जल तथा वायु द्वारा होता है उसी प्रकार हमारा हृदय भक्ति से ही सशक्त और सुखी होता है। भक्ति वह प्यास है जो कभी बुझती नहीं और न कभी उसका विनाश ही होता है। अपितु वह उत्तरोत्तर बढ़ती ही रहती है।

समस्त धर्म ग्रन्थों का सार भक्ति ही है, भक्ति के ही बीजारोपण हेतु भगवान आदि की विभिन्न कथाओं का प्रचार And गंगा-यमुना त्रिवेणी सरयु का नित्य स्नान Reseller जाता है। मनोविज्ञान के According प्रत्येक लघु से लघु कार्य को जिसे हम करते हैं मानस पटल पर उसका अमिट प्रभाव पड़ता है जैसे गंगा स्नान तथा भगवान शंकर के अद्वितीय लिंग पर गंगाजल, बेल पत्र, पुष्पादि अर्पित करने में भक्ति की ही भावना निहित रहती है। अत: भक्ति को ज्ञान, कर्म, योग से श्रेष्ठ कहा गया है।’ ‘भागवत’ में भी कहा गया है कि विश्व के कल्याण का भार भक्ति मार्ग पर निर्भर करता है।

नारद समान कबीर ने भी भक्ति मार्ग की श्रेष्ठता प्रदर्शित करने के लिए कहा- जप, तप, संयम, व्रत सब बाह्याडंबर है। अत: भक्ति को कर्म, ज्ञान और योग से श्रेष्ठ माना है। वे उसे मुक्ति का Single मात्र उपाय मानते हैं।

इस प्रकार भक्ति भक्त के विमल मन से निकली हुयी उज्जवल धारा है। लौकिक स्नेह ही अलौकिक स्नेह में परिणत हो जाता है। मन और वाणी अगम-अगोचर परमात्मा को मधुर भावबंधन में बांधकर अनिवर्चनीय आनन्द का आस्वादन करते हैं। ऐसी ही स्थिति में आत्मा-परमात्मा Singleमेव हो जाते हैं।

भक्ति के तत्व

Means और महत्ता के संदर्भ में भक्ति के तत्वों का निर्धारण Reseller जा चुका है, किन्तु इन्हीं तत्वों पर कुछ विस्तार से Discussion अपेक्षणीय है। पीछे नारद भक्ति सूत्र की परिभाषा में भक्ति के अन्तर्गत प्रेम को भी स्वीकृत Reseller गया है। प्रभु प्रेममय है तभी तो परमाणु-परमाणु परस्पर चिपटा हुआ है। Ultra site की रश्मियाँ सर्वत्र सबको चुभती हैं। प्रेममय प्रभु सब प्राणियों के हृदय में विराजता है। हृदय में ही आत्मा का निवास है। आत्मा में प्रेममय हरि रम रहा है। संसार में यह कई Reseller में अभिव्यक्त विक्रम की Fourteenवीं शताब्दी से जिस भक्ति साहित्य का सृजन प्रारम्भ हुआ है। इसमें ऐसे महान साहित्य की Creation हुयी जो Indian Customer History में अपने ढंग से निराला साहित्य है। हिन्दी साहित्य के सन्दर्भ में भक्ति काल में तात्पर्य उस काल से है जिससे मुख्यत: भागवत धर्म के प्रचार तथा प्रसार के परिणाम स्वReseller भक्ति आन्दोलन का सूत्रपात हुआ तथा उसकी लोकोन्मुखी प्रवृत्ति के कारण धीरे-ध ीरे लोक प्रचलित भाषायें भक्ति भावना की अभिव्यक्ति का माध्यम बनती गई। यह भावना वैष्णव धर्म तक ही सीमित नहीं रही। शैव, शाक्त आदि धर्मों के अतिरिक्त बौद्ध और जैन सम्प्रदाय तक प्रवाहित हुए बिना नहीं रह सकी। भक्ति काल की सामाजिक पृष्ठभूमि का विवेचन करने के पूर्व भक्ति भावना की परम्परा और परिवेश का संक्षिप्त परिचय विषय को बोधगम्य बनाने में सहायक होगा।

Indian Customer धर्म साधना के History में भक्ति मार्ग का विशिष्ट स्थ ान है। यद्यपि सं हिता भ ाव के Creation काल तक उसके अस्तित्व का कोई परिचय नहीं मिलता। वै दिक युग में यज्ञ अथवा कर्मकाण्ड के माध्यम से धर्मानुष्ठान हुआ करते थे। आगे लोग प्राय: प्राकृतिक वस्तुओं अथवा घटनाओं के मूल में किसी देवता की कल्पना कर लिया करते थे और उसे प्रसन्न रखने के लिए यज्ञ आदि का प्रयोजन Reseller करते थे। विनय या प्रार्थना भी उनके दैनिक जीवन की उल्लासमयी अभिव्यक्ति थी। उनका ध्यान मुख्यत: ऐहिक सुखों की प्राप्ति पर केन्द्रित था। अन्त:करण की साधना की अपेक्षा बाह्य विधानों का अनुसरण करने की ओर अधिक प्रवृत्त रहते, फिर भी शुभाशुभ परिणामों में उनका विश्वास था, जिस कारण उनके यज्ञादि कर्मकाण्ड श्रद्धा से अनुप्राणित रहते थे। श्रद्धा विहिन यज्ञ का कोई Means नहीं था। भक्त के लिए यह स्वाभाविक हो गया कि वह बिखरी हुयी शक्तियों में सामंजस्य लाकर अपनी दृष्टि किसी Single में निर्दिष्ट करें। फलस्वReseller बहुदेवों की कल्पना सिमटकर धीरे-धीरे Single देववाद में समाहित होने लगी।

प्राकृतिक शक्तियों के दैवीकरण के बाद देवताओं का Humanीकरण होने लगा जिसकी परिणति अवतारवाद में हुयी। आर्यों की अनेक सभायें तथा परिषदे हुआ करती थीं, जिनमें उपस्थित किये गये तर्क-वितर्क And दार्शनिक चेतना के परिणामस्वReseller ‘ब्राह्मण’, ‘आरण्यक’ तथा ‘उपनिषद’ नामक भागों की Creation हुयी। जीवात्मा तथा अव्यक्त प्रकृति की भावना का उदय संभवत: इसी अवधि में हुआ। वैदिकोपासना ध्यानयोग के Reseller में परिणति हो चली, जिससे श्रद्धा, भक्ति का द्वार उन्मुक्त हो गया। मोनियर विलियम्स के According ‘भक्ति’ Word की व्युत्पत्ति ‘भज’ से की जा सकती है। इसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि भक्ति साधना आर्यों के दार्शनिक And आध्यात्मिक विचारों के फलस्वReseller क्रमश: श्रद्धा उपासना से विकसित होकर उपास्य भगवान के ऐश्वर्य में भाग लेना (भज: भाग लेना) जैसे व्यापक भाव में परिणति हुयी है। वैसे भक्ति का First History ‘श्वेताश्वर उपनिषद’, (6/33) में मिलता है। आर्यो के छत्र छाया से भक्ति परम्परा का बीज विकसित हुआ। उसका संदेश ईश्वर प्रेम के साथ Humanतावाद से परिपूर्ण है। भाव और भाषा के धरातल पर यहाँ काव्य सर्वजन सुलभ और संवेद्य है।

कृष्णोपासक कवियों ने कृष्ण के जन-मन-रंजन Singleान्तिक प्रेम स्वReseller की महत्ता प्रदान की तथा उन्हें कृष्ण की माधुर्यपूर्ण लीलाओं का वर्णन करने में जयदेव, चण्डीदास, विद्यापति इत्यादि की मुक्तक पद शैली ही उपयुक्त जान पड़ी तथा इसकी अभिव्यक्ति के लिए ब्रजभाषा सरल प्रतीत हुयी।

रामोपासक कवियों ने राम के मर्यादा पुरुषोत्तम Reseller की कल्पना करके उनके चरित्र में शील, सौन्दर्य And शक्ति का अपूर्व समन्वय प्रस्तुत Reseller तथा गिरी हुयी हिन्दू जाति को अत्याचार सहन करने, उसका विरोध करने तथा भविष्य का आशापूर्ण चित्र खींचने में सहायता प्रदान की। लोक मानस को आ श्वस्त करने में माता-पिता, पिता-पुत्र, स्वामी-सेवक, पति-पत्नी, भाई-बहन, King-प्रजा आदि पारिवारिक And सामाजिक सम्बन्धियों का वर्णन Reseller तथा उनको आदर्श की भित्ति पर प्रतिष्ठित करने में सफलता प्राप्त की। तुलसी के ग्रन्थ भी भक्ति, प्रेम तथा समन्वय पर बल देकर समाज का े विश्रृंखल होने से बचाया था। शैव, वैष्णव, शाक्त आदि सम्प्रदायों के आभ्यांतर वैमनस्य को दूर करने का जैसा स्वस्थ And सतत् प्रयास तुलसी ने काव्य के माध्यम से Reseller, वैसा हिन्दी साहित्य के History में कभी नहीं हुआ। भक्ति भावना को सम्प्रदाय या मत पंथों से असंतृप् त रखते हुए काव्य Creation करने वाले श्रेष्ठ कवि भी इस काल में उत्पन्न हुए। मीरा, रहीम, रसखान, सेनापति आदि कवियों का काव्य साम्प्रदायिक नहीं है। किन्तु भक्ति, ईश्वर प्रेम तथा सामाजिक Addedव जिस उदात्त भूमि पर इनकी Creationओं में मिलता है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। मीरा का कृष्ण और ब्रज के प्रति प्रेम हिन्दी साहित्य में अप्रतिम है। रहीम को नीति विषयक Creationयें व्यवहार के स्तर पर आधारित हैं। वे आदर्श मानी जाती हैं।

भक्ति काव्य की Creation Single ऐसे युग में हुयी जिसमें Single ओर तो हिन्दू जाति में जाति-पाँति की कठोरता, संकीर्णता दृढ़ हो रही थी। दूसरी ओर उस कठोरता से पीड़ित हिन्दू-मुसलमान हो रहे थे। ऐसे ही समय में कबीर, तुलसी, सूर, जायसी, रसखान, रहीम, मीरा आदि हुए जिन्होंने समाज को उसकी संकीर्णता, कट्टरता, उच्श्रृंखलता से बचाने का प्रयास Reseller। इस प्रकार भक्ति का स्वReseller विकसित होकर युग चेतना का Reseller धारण कर रहा था। इन्हीं परिस्थितियों में भक्ति काव्य का आविर्भाव हुआ। इसे हम भक्ति काव्य इसलिए कहते हैं कि इससे भक्ति के सिद्धान्तों को आधार बनाकर अनेकानेक कवियों ने अपनी भावना की अभिव्यक्ति अपने काव्य के माध्यम से की।

प्रभु प्रेममय है तभी तो परमाणु-परमाणु परस्पर चिपटा हुआ है। Ultra site की रश्मियाँ सर्वत्र सबको चुभती हैं। प्रेममय प्रभु सब प्राणियों के हृदय में विराजता है। हृदय में ही आत्मा का निवास है। आत्मा में प्रेममय हरि रम रहा है। संसार में यह कई Reseller में अभिव्यक्त विक्रम की Fourteenवीं शताब्दी से जिस भक्ति साहित्य का सृजन प्रारम्भ हुआ है। इसमें ऐसे महान साहित्य की Creation हुयी जो Indian Customer History में अपने ढंग से निराला साहित्य है। हिन्दी साहित्य के सन्दर्भ में भक्ति काल में तात्पर्य उस काल से है जिससे मुख्यत: भागवत धर्म के प्रचार तथा प्रसार के परिणाम स्वReseller भक्ति आन्दोलन का सूत्रपात हुआ तथा उसकी लोकोन्मुखी प्रवृत्ति के कारण धीरे-धीरे लोक प्रचलित भाषायें भक्ति भावना की अभिव्यक्ति का माध्यम बनती गई। यह भावना वैष्णव धर्म तक ही सीमित नहीं रही। शैव, शाक्त आदि धर्मों के अतिरिक्त बौद्ध और जैन सम्प्रदाय तक प्रवाहित हुए बिना नहीं रह सकी। भक्ति काल की सामाजिक पृष्ठभूमि का विवेचन करने के पूर्व भक्ति भावना की परम्परा और परिवेश का संक्षिप्त परिचय विषय को बोधगम्य बनाने में सहायक होगा।

Indian Customer धर्म साधना के History में भक्ति मार्ग का विशिष्ट स्थान है। यद्यपि सं हिता भ ाव के Creation काल तक उसके अस्तित्व का कोई परिचय नही ं मिलता। वै दिक युग में यज्ञ अथवा कर्मकाण्ड के माध्यम से धर्मानुष्ठान हुआ करते थे। आगे लोग प्राय: प्राकृतिक वस्तुओं अथवा घटनाओं के मूल में किसी देवता की कल्पना कर लिया करते थे और उसे प्रसन्न रखने के लिए यज्ञ आदि का प्रयोजन Reseller करते थे। विनय या प्रार्थना भी उनके दैनिक जीवन की उल्लासमयी अभिव्यक्ति थी। उनका ध्यान मुख्यत: ऐहिक सुखों की प्राप्ति पर केन्द्रित था। अन्त:करण की साधना की अपेक्षा बाह्य विधानों का अनुसरण करने की ओर अधिक प्रवृत्त रहते, फिर भी शुभाशुभ परिणामों में उनका विश्वास था, जिस कारण उनके यज्ञादि कर्मकाण्ड श्रद्धा से अनुप्राणित रहते थे। श्रद्धा विहिन यज्ञ का कोई Means नहीं था। भक्त के लिए यह स्वाभाविक हो गया कि वह बिखरी हुयी शक्तियों में सामंजस्य लाकर अपनी दृष्टि किसी Single में निर्दिष्ट करें। फलस्वReseller बहुदेवों की कल्पना सिमटकर धीरे-धीरे Single देववाद में समाहित होने लगी।

प्राकृतिक शक्तियों के दैवीकरण के बाद देवताओं का Humanीकरण होने लगा जिसकी परिणति अवतारवाद में हुयी। आर्यों की अनेक सभायें तथा परिषदे हुआ करती थीं, जिनमें उपस्थित किये गये तर्क-वितर्क And दार्शनिक चेतना के परिणामस्वReseller ‘ब्राह्मण’, ‘आरण्यक’ तथा ‘उपनिषद’ नामक भागों की Creation हुयी। जीवात्मा तथा अव्यक्त प्रकृति की भावना का उदय संभवत: इसी अवधि में हुआ। वैदिकोपासना ध्यानयोग के Reseller में परिणति हो चली, जिससे श्रद्धा, भक्ति का द्वार उन्मुक्त हो गया। मोनियर विलियम्स के According ‘भक्ति’ Word की व्युत्पत्ति ‘भज’ से की जा सकती है। इसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि भक्ति साधना आर्यों के दार्शनिक And आध्यात्मिक विचारो ं के फलस्वReseller क्रमश: श्रद्धा उपासना से विकसित होकर उपास्य भगवान के ऐश्वर्य में भाग लेना (भज: भाग लेना) जैसे व्यापक भाव में परिणति हुयी है। वैसे भक्ति का First History ‘श्वेताश्वर उपनिषद’, (6/33) में मिलता है। आर्यो के छत्र छाया से भक्ति परम्परा का बीज विकसित हुआ। उसका संदेश ईश्वर प्रेम के साथ Humanतावाद से परिपूर्ण है। भाव और भाषा के धरातल पर यहाँ काव्य सर्वजन सुलभ और संवेद्य है।

कृष्णोपासक कवियों ने कृष्ण के जन-मन-रंजन Singleान्तिक प्रेम स्वReseller की महत्ता प्रदान की तथा उन्हें कृष्ण की माधुर्यपूर्ण लीलाओं का वर्णन करने में जयदेव, चण्डीदास, विद्यापति इत्यादि की मुक्तक पद शैली ही उपयुक्त जान पड़ी तथा इसकी अभिव्यक्ति के लिए ब्रजभाषा सरल प्रतीत हुयी।

रामोपासक कवियों ने राम के मर्यादा पुरुषोत्तम Reseller की कल्पना करके उनके चरित्र में शील, सौन्दर्य And शक्ति का अपूर्व समन्वय प्रस्तुत Reseller तथा गिरी हुयी हिन्दू जाति को अत्याचार सहन करने, उसका विरोध करने तथा भविष्य का आशापूर्ण चित्र खींचने में सहायता प्रदान की। लोक मानस को आ श्वस्त करने में माता-पिता, पिता-पुत्र, स्वामी-सेवक, पति-पत्नी, भाई-बहन, King-प्रजा आदि पारिवारिक And सामाजिक सम्बन्धियों का वर्णन Reseller तथा उनको आदर्श की भित्ति पर प्रतिष्ठित करने में सफलता प्राप्त की। तुलसी के ग्रन्थ भी भक्ति, प्रेम तथा समन्वय पर बल देकर समाज का े विश्रृंखल होने से बचाया था। शैव, वैष्णव, शाक्त आदि सम्प्रदायों के आभ्यांतर वैमनस्य को दूर करने का जैसा स्वस्थ And सतत् प्रयास तुलसी ने काव्य के माध्यम से Reseller, वैसा हिन्दी साहित्य के History में कभी नहीं हुआ। भक्ति भावना को सम्प्रदाय या मत पंथों से असंतृप् त रखते हुए काव्य Creation करने वाले श्रेष्ठ कवि भी इस काल में उत्पन्न हुए। मीरा, रहीम, रसखान, सेनापति आदि कवियों का काव्य साम्प्रदायिक नहीं है। किन्तु भक्ति, ईश्वर प्रेम तथा सामाजिक Addedव जिस उदात्त भूमि पर इनकी Creationओं में मिलता है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। मीरा का कृष्ण और ब्रज के प्रति प्रेम हिन्दी साहित्य में अप्रतिम है। रहीम को नीति विषयक Creationयें व्यवहार के स्तर पर आधारित हैं। वे आदर्श मानी जाती हैं।

भक्ति काव्य की Creation Single ऐसे युग में हुयी जिसमें Single ओर तो हिन्दू जाति में जाति-पाँति की कठोरता, संकीर्णता दृढ़ हो रही थी। दूसरी ओर उस कठोरता से पीड़ित हिन्दू-मुसलमान हो रहे थे। ऐसे ही समय में कबीर, तुलसी, सूर, जायसी, रसखान, रहीम, मीरा आदि हुए जिन्होंने समाज को उसकी संकीर्णता, कट्टरता, उच्श्रृंखलता से बचाने का प्रयास Reseller। इस प्रकार भक्ति का स्वReseller विकसित होकर युग चेतना का Reseller धारण कर रहा था। इन्हीं परिस्थितियों में भक्ति काव्य का आविर्भाव हुआ। इसे हम भक्ति काव्य इसलिए कहते हैं कि इससे भक्ति के सिद्धान्तों को आधार बनाकर अनेकानेक कवियों ने अपनी भावना की अभिव्यक्ति अपने काव्य के माध्यम से की।

भक्ति के विविध Reseller

हम उपासक या भक्त की दृष्टि से देखें तो भक्ति के तीन Reseller हैं। श्रद्धा, भक्ति, भावना भक्ति और शुद्धा भक्ति। हम अपने-अपने उपास्य के प्रति पूर्ण श्रद्धा रखकर उसकी प्रशंसा करें तथा उसे नमस्कार करें वह श्रद्धा भक्ति कहलाती है। जब हम Single में अनेक और अनेक में Single को देखते हुए हमारे भक्ति में Singleान्त की भावना रहती है उसे भावना भक्ति कहते हैं।

जब हम अपने अराध्य देव के ईश्वर को निर्गुण-सगुण तथा अवतार Reseller में स्वीकार करते हैं उसके प्रति अपना अविरल प्रेम प्रदर्शित करते हैं उसे शुद्धा भक्ति कहते हैं।

श्रीमदभागवत् में भक्ति के कई भेद बताएं हैं-

Seven्विकी भक्ति

यह भक्ति मुक्ति की कामना से की जाती है। सत्व गुण से निर्मल होने के कारण सुख की ओर ज्ञान आसक्ति से Meansात ज्ञान के अभिमान से बाँधता है।

तत्र सत्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम्

सुखसड़गेन “ध्नाति ज्ञानसड़गेन – श्रीमदभागवत् गीता 14/6/224

राजसी भक्ति

यह भक्ति धन, यश, कुटुंब, घर-बार की इच्छा से की जाती है।

तामसी भक्ति

इसमें कामना रहती है कि दुश्मनों का नाश हो।

निर्गुण भक्ति

यह ‘सुधासार भक्ति’ भी कहलाती है। यह बिना किसी कामना के की जाती है। इसमें भक्ति की भी इच्छा नहीं रहती है। यही अनन्य भक्ति है जो अनन्य भक्ति की साधना करता है उसका न कोई मित्र है न शत्रु ही, उसे जगत के दु:खों का संताप नहीं रहता। भगवान के दर्शन मात्र से परम सुख प्राप्त करता है।

 नवधा भक्ति

भक्त प्रलाद ने भक्ति के नौ भेद बताये हैं-

श्रवणं कीर्तनं विष्णो स्मरणम् पादसेवनम्।

अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यामात्मनिवेदनम्।। – श्रीमदभागवत् 7/2/23

उपर्युक्त नौ प्रकार की भक्ति पांचरात्र, शांडिल्य भक्ति सूत्र, तरंगिनी, श्री मद्भागवत् गीता वैष्णव ग्रन्थों में से है।

रति के According भक्ति के पाँच भेद माने गये हैं-

शान्त भक्ति, दास्य भक्ति, साख्य भक्ति, वात्सल्य भक्ति, दाम्पत्य भक्ति या मधुरा भक्ति।

पीछे दी गई भक्ति की परिभाषाओं, तत्वों, Resellerों तथा भेदों के अध्ययन से यह स्पष्ट है कि भक्ति की उत्कृष्टता सर्वत्र स्वीकृत है इसे सीमित दा यरे में बांधना दुष्कर है, क्योंकि प्रभु सर्वव्यापक अन्तर्यामी है, परन्तु बिरले साधक ही उनकी समीपता का अनुभव कर सकते हैं। प्रभु समस्त आत्माओं के भीतर उसी प्रकार विराजमान है जैसे दधि में घी।

भक्ति मन का ऐसा अनुभव है जो वाण के सदृश अन्य अनुभवों को वे ध देता है। जीवन का कोई अंश भक्ति से पृथक नहीं रह जाता। अत: भक्ति की व्यापकता सार्वजनीन है।

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