दलित साहित्य का स्वReseller, परिभाषा And History

दलित साहित्य का स्वReseller, परिभाषा And History


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अनुक्रम

‘‘दलित हिन्दी साहित्य आन्दोलन’’ हिन्दी में मराठी साहित्य के प्रभाव कि देन है ‘‘First दलित आन्दोलन को स्पष्ट And सारगर्भित व्याख्या को समझने के लिए हमें विभिन्न दृष्टिकोणों के मध्य महत्वपूर्ण प्रश्नों की स्पष्ट व्यख्या को समझना होगा। इसके बाद ही दलित साहित्य के स्वReseller का निर्धारण Reseller जा सकता है। पहला प्रश्न है दलित है कौन ? And दूसरा महत्वपूर्ण प्रश्न है। दलित साहित्य का Means क्या है’’?

‘‘दलित वह है जिसका दमन Reseller गया है। जिसके Human होने पर सवाल Reseller गया है, जिसे समाज से बहिष्कृत Reseller गया है, वर्षों से दमन Reseller जा रहा है। मनुस्मृति And धार्मिक मान्यताओं को स्वीकार करने के लिए बाध्य Reseller गया। उसे अपमानित, प्रताड़ित Reseller गया, उसें ‘‘दलित’’ कहा गया है।’’

साथ ही सामाजिक बनधनों में जकड़े, वर्ण व्यवस्था, जाति व्यवस्था से अभिशप्त भूमिहीन अधूत, बन्धुआ, दास, गुलाम, उत्पीड़ित, उपेक्षित, शोषित, बन्धितनारी बच्चे आदि दलित की श्रेणी में आते है। ‘‘दलित’’ के संबंध में अनेक व्याख्याकारों ने दलित को परिभाषित Reseller है। ‘‘डॉं. प्रभाकर माण्डे के According ‘‘दलित वह व्यक्ति है जो विशिष्ट सामाजिक स्थिति का अनुभव करता है जिसके जीने के अधिकार को छीना गया है। मात्र जन्म के आधार पर जिनको समाज में Single ही प्रकार का जीवन मिला है मनुष्य के Reseller में मूल्यों को नकारा गया है। Human के Reseller में जिनके अधिकारों को ठुकराया गया है।’’

बाबा साहब डॉ. बी. आर. अम्बेडकर के According – ‘‘दलित जातियाँ वे है जो अपवित्रकारी होती है इनमें निम्न श्रेणी के कारीगर, धोबी, मोची, भंगी, बसोर, सेवक जातियाँ आती है कुछ जातियाँ परम्परागत कार्य करने के अतिरिक्त कृषि मजदूरी का कार्य करती हे। इनकी स्थिति अर्द्धदास, बंधुआ मजदूर जैसी रही हो।’’

सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री लक्ष्मण जोशी के According – ‘‘दलित Humanीय प्रगति में सबसे पीछे पड़ा हुआ और पीछे ढकेला गया सामाजिक वर्ग है। हिन्दु समाज में महार, चमार, डोम आदि, जिन जातियों को गाँव के बाहर रहने के लिए बाध्य Reseller गया और जिनसे सवर्ण समाज शारीरिक सेवाएँ तो लेता रहा लेकिन जीवनावश्यक प्राथमिक जरूरतों से भी जिन्हे जानबूझकर वंचित रखा गया है और पुशओं के स्तर से भी घृणित जीवन जीने के लिए बाध्य Reseller गया उनकों ‘‘अछूत’’ या ‘‘दलित’’ कहा गया’’

उपर्युक्तमत ‘‘दलित’’ का व्यापक Means प्रस्तुत करते हैं इसके अतिरिक्त कुछ मत संकुचित Means प्रदान करते हैं जिनमें प्रमुख साहित्यकार के मत – श्री केशव मेश्राम के According :- ‘‘ हजारों वर्ष जिन लोगों पर अत्याचार हुआ ऐंसे अछूतों को दलित कहना चाहिए’’

पत्रकार राजकिशोर के According :- ‘‘दलित Word Single वर्गीय Word ठहरता है। भारत Single गरीब देश है। यहाँ की आधी आबादी आर्थिक दृष्टि से दलित ही है। दलित Word उन जातियों के Means में रूढ़ होता जा रहा है जिन्हे First अछूत या हरिजन कहा जाता था इनके लिए कानूनी Word अनुसूचित जाति है’’

इन मतों से स्वयं ही दलित Word अपनी परिभाषा उद्भाषित करता है दलित Word Single सामाजिक दर्पण है, परन्तु साहित्यकारों में मतभेद है कि दलित से आशय क्या है। जहाँ दलित का आशय सर्वहारा पीड़ित शोषण के अधार पर व्यापक Means लिया गया है, तो कुछ साहित्यकारों ने संकुचित Means में लिया है। उनके According शूद्र ही दलित है। दलित Word को लेकर हिन्दी साहित्य जगत में अनेक मत प्रचलित है। जिनमें साहित्यकारों का Single वर्ग उन तमाम लोगों को दलित की श्रेणी में सम्मिलित करता है जो किसी भी प्रकार से शोषित या पीड़ित है चाहे वे किसी वर्ग से हो। जेकिन दूसरा वर्ग केवल उन्ही लोगों को दलित मानता है जो शुद्ध और अति शूद्रों में आते है क्यों की उनका स्पष्ट मानना है की दो भिन्न वर्ग के लोगों की पीड़ा और दमन समान हो लेकिन उच्चवर्ग के लोगों को समाज में शुद्ध व्यक्तियों से कहीं अधिक सम्मान और इज्जत प्राप्त होगी । दलित का संकुचित Means ग्रहन करने वालों की संख्या ही अधिक है और वह उचित भी लगता है। अत: विभिन्नमतों के आधार पर दलित तो केवल उन्हें ही मानना उचित होगा जो सामाजिक व्यवस्था में सदियों से जिन्हे निम्न स्थान पर रखा गया है। जो जाति And जन्म के आधार पर है न कि Means (पैसा) के आधार पर।

दलित साहित्य के आशय को स्पष्ट समझना भी उसी तरह कठिन है, जिस प्रकार दलित को, दलित साहित्य के संदर्भ में भी दो मत प्रचलित हैं जिसमें Single मत संकुचित And दूसरा मत व्यापक है जहां कुछ साहित्यकार इसके व्यापक Means को ग्रहण करते हैं उनमें प्रमुख हैं-

श्रीमाता प्रसाद :- ‘‘दलित साहित्य को व्यापक Means में ग्रहण करते है। कि ‘‘दलित साहित्य किसी वर्ण विशेष का न होकर उन All लोगों का है जिनका किसी न किसी Reseller मे दमन Reseller गया है।’’ दलित साहित्य का संकुचित Means ग्रहण करने वाले साहित्यकारों में प्रमुख है।’’

डॉं. वानखेड़े :- ‘‘दलित लेखकों द्वारा दलित के विषय में लिखा गया साहित्य ही दलित साहित्य कहलाता है। दलितों द्वारा लिखे All प्रकार के साहित्य को दलित साहित्य कहा जाये या उनके द्वारा व्यक्त पीड़ा, आक्रोश, विद्रोह को दलित साहित्य कहा जाये। दलित साहित्य के स्वReseller का निर्धारण दलित आन्दोलन के परिप्रेक्ष्य में ही होना चाहिये।’’

इस साहित्य के अंतर्गत Single वर्ण विशेष की स्थिति पीड़ा, विद्रोह का स्पष्ट And सच्चाई के धारातल पर रहते हुये अभिव्यक्ति करना ही दलित साहित्य है। यह Single आन्दोलन है यह निजी प्रेम या निजि अभिव्यक्तियों का साहित्य नहीं हो सकता इसमें केवल विद्रोहात्मक साहित्य ही मान्य Reseller जायेगा जो कि दलित साहित्य के आन्दोलन का उद्वेश्य है और यही विद्रोह दलित साहित्य की सार्थकता है।

श्री बुद्धशरण हंस केवल पीड़ा की अभिव्यक्ति को दलित साहित्य नहीं मानते बल्कि उसकी पीड़ा में पर्यवसान आवश्यक मानते हैं उन्होनें लिखा है ‘‘दलित साहित्य कोई मर्सिया नही हैं जो दलितों की दीनता और दुर्दशा पर लिखा And पढ़ा जाये दलित साहित्य को दलितों की दुर्दशा का शोक साहित्य नहीं बनने देना है। दलित साहित्य शक्ति और प्रेरणा का स्त्रोत बने ऐसा प्रयास दलित साहित्यकारों को करना है।

दलित साहित्य का केन्द्र बिन्दु मनुष्य है। मनुष्य का उत्थान ही दलित साहित्य का प्रयोजन है। यह दलित कुन्ठित Human की मुक्ति के लिए संघर्ष करने वाला साहित्य है।

क्षेत्र And स्वReseller

दलित साहित्य का क्षेत्र बहुत व्यापक And विस्तृत है यह जन सामान्य तक पहुंच रखता है। क्यों की यह सर्वहारा दलित, कुन्ठित, दमित, छुआछूत And अHumanीय संवेदनाओं को सहन कर रहे Human के आन्दोलन का प्रेरणास्त्रोत है।

Human के साथ हुई उन अHumanीय घटनाओं का कोरा चिट्ठा है जिसमें उसे Human ही नहीं माना उसके साथ पशु के समान व्यवहार Reseller गया उसे अस्पश्र्ाीय माना गया समस्त प्रकार का बोजा प्राचीन काल से वर्तमान काल तक किसी न किसी Reseller में धर्म के नाम पर, जन्म के आधार पर तो कभी समाज के बन्धनों के नाम पर उस पर लादा गया जिसे उसने सहर्ष स्वीकार Reseller।

परन्तु वर्तमान काल में हिन्दी दलित साहित्य के Reseller में Single प्रेरणादायक स्त्रोत प्राप्त हुआ और Single नये आन्दोलन को नई ऊर्जा और मार्गदर्शन प्राप्त हुआ। अम्बेडकर जी ने कहा था कि गुलाम को गुलामी का एहसास करा दो वो स्वयं संघर्ष कर आजाद हो जायेगा और यही कार्य हिन्दी दलित साहित्य ने Reseller और आज दमित, दलित समाज से बहिष्कृत, ऊँच नीच को वर्षों से सहन कर रहे Human को उसकी स्थिति का भान कराने का कार्य दलित साहित्य ने Reseller। यह सब जानकर दलित Human, समाज की मुख्य धारा में आने के लिए संघर्ष का शंखनाद तो पूर्व में ही कर चुका है पर आज यह विश्वस्तर के आन्दोलन का Reseller ले चुका है।

दलित साहित्य का स्वReseller भिन्न – भिन्न स्थानों पर भिन्न -भिन्न प्रकार का है। अमेरिका में अश्वेत लोगों का संघर्ष भारत में यह दलितों का संघर्ष है। दलित साहित्य के स्वReseller की स्पष्ट अवधारणा यह है कि ऐंसा साहित्य जो Human की पीड़ा, दमन, आक्रोश को व्यक्त करता है। न की व्यक्तिगत प्रेम And अभिव्यक्ति को। दलित समाज की पीड़ा कि विद्रोहात्मक प्रवृत्ति दलित साहित्य को सार्थकता प्रदान करती है। जो दलित साहित्य को शक्ति और प्रेरणा का साहित्य बनाता है। किन्तु आज दलित साहित्य के नाम पर जिन Creationओं की बहुलता है उनमें या तो अशिष्ट व्यंजनाएं है’’ या नारे बाजी जो स्वभाविक तो है पर दलित साहित्य को यह उचित स्थान And स्थायित्व नही दे सकता इसी विषय पर श्री बुद्धशरण हंस ने साहित्य में मर्यादा को महत्व देते हुये कहा है ‘‘दलित साहित्य की अपनी मर्यादा होनी चाहिए इसी तरह दलित साहित्यकार का अपना कर्तव्य होना चाहिए। यथार्थता के नाम पर यर्थाथ चित्रण के नाम पर दलित पात्रों को नंगा न करें, अपमानित न करें यह सावधानी होनी चाहिए। दलित पात्रों को सम्मानजनक स्थिति, परिस्थिति में रखकर दलित साहित्य की Creation होनी चाहिय। सत्य न सही काल्पनिक साहित्यिक Resellerरेखा तैयार कर साहित्य के माध्यम से दलित के पात्रों को सम्मानजनक स्थिति परिस्थिति में रखकर दलित साहित्य की Creation होनी चाहिये। सत्य साहित्य के माध्यम से दलित समाज को महिमा मण्डित, गौरवशाली प्रदान करने वाला साहित्य दलित समाज के पाठकों को प्रेरणा और प्रोत्साहन देगा ‘‘

डॉं. लक्ष्मी नारायण दुबे दलित साहित्य का स्वReseller ‘‘मैं दलित साहित्य की संवेदनाओं का कायल हॅूं उसमे आम आदमी की खोज है। आम आदमी के द्वारा आम आदमी के लिए। आज का दलित साहित्य हमारे युगराष्ट्र तथा जीवन के सामाजिक And आर्थिक जगत के परिवर्तित व वास्तविक मूल्यों को सच्ची सार्थक निस्पृह अभिव्यक्ति प्रदान करता है। अभिजात्य आडम्बरी कृत्रिम तथा ऊपरी मुखौटा वाली साहित्यिक संस्कारवादिता का उसने उच्छेदन करके साहित्य को आदमी के पास ला बैठा दिया है। यह दलित, पीड़ित समस्त उपेक्षित And विस्तृत जन जीवन सम्वाही है। यह जन शक्ति का हथियार है। वह जिंदगी की तलहटी में बैठा है। आज का साहित्य समाज से दूर राजनीति का पिछलग्गू बन गया है। वह उसमें विराम लगाकर उसे जन-मन की अभिव्यंजना स्त्रोत बनाये हुए है दलित साहित्य दीन दुखियों का मसीहा है। उसका निषेध सुनहरे काल का धुंधलका है। उसमें मुक्ति की मीन मचलती है। परन्तु वह द्रुतगतिशील सामातिक परिर्वतनों तथा परिवेश की भिन्नता का प्रतीक है। जो स्वस्थ दृष्टि की परिचालक है’’।

दलित साहित्य का केन्द्र बिन्दु Human है यानि Human का उत्थान ही दलित साहित्य का मुख्य प्रयोजन है। यही है जो Human को Human के Reseller में देखता है और Human को आदर्शों जीवन मूल्यों को स्थापित करने के लिए क्रांति का शंखनाद Reseller है यह Human को आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक के बन्धनों से मुक्त कर मुक्ति के पथ पर ले जाने का प्रयास करता है। दलित साहित्य आन्दौलन यह Single ऐसा आन्दोलन है जो समग्र क्रांति के माध्यम से समाज में समता, स्वतंत्रता, बन्धुता आदि की प्रतिस्थापना करने के उद्वेश्य के साथ आज समाज के बीच में है। दलित साहित्य कृत संकल्प है कि वह समाज में Humanीय मूल्यों को स्थापित करेगा।

दलित साहित्य का उद्भव And विकास

Indian Customer संस्कृति के मूल्यों में अद्धैत की प्रतिष्ठा की गई है जिसके मूल्य में समतावादी सिद्धांत को प्रतिपादित Reseller गया है, जिसमें मनुष्यों के बीच किसी भी प्रकार के भेद के लिए स्थान ही नहीं था। किन्तु संकीर्ण मानसिकता And स्वार्थियों ने समाज में भेद के बीजों का रोपण Reseller जिससे वो अपने आप को उच्च And अन्य को निम्न सिद्ध कर सके। यह भेद वैदिक काल में ही हुआ। सवर्ण, असवर्ण, ऊॅंच, नीच का संघर्ष जहां से प्रारंभ होता है वही से दलित साहित्य का जन्म होता है।

आदिकाल से ही Indian Customer समाज में ब्राह्मणों का वर्चस्व रहा है। और इन्होंने अपनी इच्छानुसार समाज की व्यवस्था का निर्माण Reseller जिससे भेदभाव को बढ़ावा मिला और ऊंच नीच अस्पृश्यता, आर्थिक शोषण, Humanीय अधिकारों का हनन हुआ और इसका परिणाम हुआ नई विचार धाराओं का जन्म बौद्ध धर्म इसकी परिणति थी इस धर्म ने समानतामूलक दृष्टिकोण को अपनाया। चौरासी सिद्धों में सिद्ध सरहपाद का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है। स्वयं सवर्ण होकर असवर्ण स्त्री से विवाह करके समता का प्रारंभ Reseller। यह उनका भेदभाव को दूर करने का पहला प्रयास था यही से साहित्यिक भावनाओं का विकास हुआ और प्रतिक्रया स्वReseller दक्षिण के महाराष्ट्रीय संत तथा उनकी प्रेरणा को पाकर हिन्दी कवियों ने अपनी भावनाओं And उद्गार व्यक्त किए। दलित लेखन प्राचीन काल से चला आ रहा जो दलित विरोधी साहित्य के प्रतिरोध का परिणाम है। हिन्दू धर्म में मनु द्वारा रचित ग्रन्थ शूद्रों के लिये अपमानित And अHumanीय जीवन जीने के लिए बाध्य करता है। इसी का परिणाम बौद्ध धर्म का पादुर्भाव हुआ। पर यह भी समाज से जाति व्यवस्था को समाप्त नहीं कर पाया। सुनीत भंगी और उपालि नाई जैसे हजारों लोगों ने बौद्ध धर्म की दीक्षा ली परन्तु इसके बावजूद भी उन्हें उनकी पूर्व जाति का ही सम्बोधन And तिरस्कार प्राप्त हुआ उनकी जातीय पहचान खत्म नहीं हो सकी। हिन्दी दलित साहित्य के उद्भव का काल निश्चित नहीं कर सकते। लेकिन हिन्दी में दलित साहित्य कब आया And इसका विकास किन-किन चरणों में हुआ और वर्तमान स्थिति क्या है इन्ही प्रश्नों के माध्यम से हिन्दी में दलित साहित्य का History का समग्र लेखा प्राप्त करने का प्रयास Reseller जा सकता है।

‘‘हिन्दी दलित साहित्य को हम उस समय की Creationओं के माध्यम And भाषा के द्वारा कई भागों में विभाजित कर सकते हैं – (1) संस्कृत वाड्मय (2) पालि-प्राकृत तथा अपभ्रंश (3) सिद्ध And नाथ साहित्य (4) मराठी साहित्य (5) संत साहित्य परवर्ती हिन्दी साहित्य’’

कँवल भारती जी ने And अन्य मनीषियों ने भी हिन्दी दलित साहित्य के सरल अध्ययन के लिए तीन भागों में विभाजित Reseller है जिससे इसका अध्यनन सरल हो सके (1) आदिकाल (2) मध्यकाल यानी विकासकाल (3) आधुनिक काल यानी मुक्तिकाल ।

हिन्दी दलित साहित्य के History के विषय में मनीषी Singleमत नहीं है। विभिन्न मनिषियों का मत है, दलित चेतना का आरंभ सबसे First मराठी साहित्य में हुआ। हिन्दी दलित साहित्य का मूल स्वर जातिवाद, अस्पृश्यता, वर्णवाद, अHumanीय व्यवहार, आर्थिक शोषण के विरूद्ध रहा है। इस आधार पर निष्कर्ष निकालने पर यह सिद्ध होता है कि हिन्दी दलित साहित्य का विकास भक्तिकाल से ही होता है तो उपयुक्त ही होगा परन्तु जब तक वैदिक काल से आधुनिक काल तक का अध्ययन दलित चेतना को मुख्य बिन्दु मानकर नही करत,े तब तक दलित साहित्य का सम्मयक निरिक्षण And परीक्षण नहीं Reseller जा सकता। दलित साहित्य का आरंभ संस्कृत से पालि सिद्ध नागों के साहित्य से होती हुई, सन्तों और वहां से महात्मा फुले, गॉधी, अम्बेडकर आदि मनीषी समाज सुधार में अग्रसर हुये, और यह साहित्य विकसित होता हुआ वर्तमान तक आ पहुँचा।

हिन्दी साहित्य को साहित्यकारों ने काल विभाजन उस समय की विशिष्ट Creationओं के आधार पर Reseller। मगर दलित साहित्य को आधार किसी ने भी नहीं बनाया जो अति महत्वपूर्ण विषय था। पर राजदरवारी प्रथा, चाटुकारिता, श्रृगांर आदि को महत्व दिया गया जबकि दलित चेतना को महत्व देना चाहिये था। लेकिन साहित्यकारों ने दलित चेतना को अपने साहित्य का विषय नही बनाया। क्योंकि इससे उनकी महिमा कम होती नजर आ रही थी दलित चेतना ने अस्पृश्यता, सवर्ण, असवर्ण, आर्थिक शोषण, Humanीय अधिकारों का हनन को मुख्य Reseller से समाज के सम्मुख रखा। जो कि बहुत ही मार्र्मिक And हृदयस्पश्र्ाी था जो Human होने पर ही सवाल उठाता था दलित चेतना के विषय वैदिककाल से ही रचित किये गये और आधुनिक काल में तो यह दलित चेतना अपने उत्कर्ष पर है। आज साहित्य में इसे अपनाया है। दलित साहित्य को विशिष्ट स्थान प्रदान Reseller है। यह दलित की पीड़ा, कुंठा, दमन, शोषण का सजीव वर्णन करता है।

वैदिककाल से आधुनिक काल तक यदि दलित चेतना पर विचार Reseller जाये तो मुख्य दलित साहित्य को हिन्दी साहित्य के साथ ही मुख्य Reseller से तीन भागों में विभाजित कर सकते है। (1) आदिकाल (2) मध्यकाल (3) आधुनिक काल। आदिकाल से भी पूर्व में दलित चेतना पर संक्षिप्त में Creationऐं गढ़ी गई पर वह संस्कृत में थी।

सन्दर्भ

  1. दलित साहित्य की हुंकार Seven समुंदर पार – सोहन पाल सुमनाक्षर पृष्ठ-41
  2. सोहन पाल सुमनाक्षर – दलित साहित्य – पेज-41
  3. डॉ. सोहनपान सुमनाक्षर – शोधपत्र Sixth विश्व हिन्दी सम्मेलन यु.के 1999 के अवसर पर 14-9-1999 को लन्दन में प्रस्तुत से।
  4. डॉ. रजतशनी मीनू – नवें दशक की हिन्दी दलित कविता – पृष्ठ-3
  5. राजकिशोर – अगर मैं दलित होता – धर्मयुग, मई 1994 – पृष्ठ-22
  6. श्री नारायण सुर्वे – हंस – अक्टूबर 1992 – पृष्ठ-23
  7. डॉं. रामचन्द्र वर्मा – संक्षिप्त Word सागर – नागरी प्रचारिणी -काशी- पृष्ठ-468
  8. सम्पादक – डॉं. सम्यप्रेमी – दलित साहित्य Creation और विचार – पृष्ठ-9
  9. सोहनपाल सुमनाक्षर – दलित साहित्य की हुंकार Seven समुंदर पार- पृष्ठ-45
  10. स. डॉं. पुरूषोत्तम सत्यप्रेमी – दलित साहित्य सृजन के सन्दर्भ
  11. सुरेशचन्द्र शुक्ल – हिन्दी दलित साहित्य का History – पृष्ठ 22-23

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