मुस्लिम विवाह के नियम और विशेषताएं
मुस्लिम विवाह के नियम और विशेषताएं
अनुक्रम
यह कहा जाता है कि मुसलमानों में विवाह Single समझौता है न कि हिन्दुओं की तरह धार्मिक कृत्य। मुसलमानों में विवाह के दो प्रकार हैं : (1) निकाह, और (2) मुत्ता। निकाह विवाह के अन्तर्गत स्त्री अपने पति के साथ रहती है और बच्चे पति के वंश से जुड़े रहते हैं। तलाक पति का Only विशेषधिकार है। मुत्ता विवाह में दोनों पक्षों की पारस्परिक स्वीकृति ली जाती है। समझौता Single निश्चित समय के लिए होता है, और समझौते की अवधि में पत्नी को अपने पति को तलाक देने का अधिकार नहीं है। निकाह विवाह को अच्छा समझा जाता है, और इस्लामी कानून में मुत्ता को खराब माना जाता है। हिन्दू विवाह की तरह मुस्लिम विवाह में विस्तृत धार्मिक क्रियायें नहीं होती हैं। मुत्ता विवाह को कालदोष मानते हुए इस्लाम ने बुरा माना है क्योंकि इस विवाह द्वारा स्त्री को उसके यौन जीवन में अधिक स्वतन्त्रता मिलती है। मुत्ता द्वारा विवाह की स्थिरता भी बढ़ी है। कापड़िया के According, मुस्लिम विवाह Single संविदा था जो Single वाली की उपस्थिति में उसकी स्वीकृति और दो साथियों के सत्यापन द्वारा होता था। मुत्ता विवाह में वैयक्तिक संविदा होने के कारण न तो वाली की Need थी और न ही किसी साक्षी की। इस्लाम में सिर्फ पुरुष को ही तलाक का अधिकार है, और यह मुस्लिम व्यक्तिगत कानून का अंग समझा जाता है। मुसलमानों में विवाह लड़की के पिता या किसी बंधुजन को मेहर (वधू-शुल्क) देने पर ही Reseller जाता है। मेहर पत्नी पर पति के नियंत्रण और उसके तलाक देने का अधिकार का प्रतीक हैं आज शिक्षा और आर्थिक स्वतन्त्रता के फलस्वReseller मुसलमान स्त्रियां अपने पुरुषों के बराबर समानता की मांग कर रही हैं। शिक्षित मुस्लिम युवक रूढ़िवादी मुस्लिम धर्म गुरुओं को चुनौती दे रहे हैं। First की तरह आज Single मुसलमान पुरुष के लिए अपनी पत्नी को मनमर्जी से छोड़ देना या तलाक देना आसान नहीं है। आज First से कहीं अधिक विवाह की स्थिरता और स्त्री-पुरुष की समानता पर बल दिया जाता है।
मुस्लिम विवाह के उद्देश्य व लक्ष्य
मुस्लिम विवाह, जिसे निकाह कहा जाता है, हिन्दुओं के विवाह की भांति पवित्र संस्कार न होकर Single दीवानी समझौता (civil contract) माना जाता है। इसके प्रमुख लक्ष्य है: यौन नियंत्रण, गृहस्थ जीवन को व्यवस्थित करना, बच्चों को जन्म देकर परिवार में वृद्धि करना तथा बच्चों का लालन-पालन करना। रौलेण्ड विल्सन (1941) के According, मुस्लिम विवाह यौन समागम को वैधानिक बनाना और बच्चों को जन्म देना मात्र है। एस.सी. सरकार का भी मानना है कि मुसलमानों में विवाह पवित्र संस्कार नहीं है, बल्कि Single विशुद्ध दीवानी समझौता है। परन्तु मुस्लिम विवाह का यह चित्र सही नहीं है। यह कहना निश्चित रुप से गलत है कि मुस्लिम विवाह का Single मात्र लक्ष्य यौन सुख की पूर्ति And बच्चों को जन्म देना है। मुस्लिम समाज में विवाह Single धार्मिक कर्तव्य भी है। यह श्रण तथा इबाकृत की Single क्रिया है। ऐसा विश्वास Reseller जाता है कि जो मुसलमान इस कार्य को Single धार्मिक क्रिया मान कर करता है, उसे परलोक में पुरस्कार मिलता है और जो ऐसा नहीं करता, वह पाप का भागीदार होता है। इसे सुन्नत मुवक्किल (Sunnat Muwakkidal) कहते हैं (काशी प्रसाद सक्सेना, 1959: 146)। जंग (Jang, 1953) यह मानने में अधिक सही है कि निकाह, यद्यपि आवश्यक रुप से Single समझौता है, किन्तु साथ ही यह Single श्रण का कार्य भी है। परन्तु मुस्लिम विवाह यद्यपि Single धार्मिक कर्तव्य हैं, किन्तु स्पष्ट Reseller से यह Single पवित्र संस्कार (Sacrament) नहीं है। हिन्दू विश्वास की तरह इसे वह संस्कार नहीं माना जाता जो व्यक्ति को पवित्रता And पुण्य प्रदान करता है।
मुस्लिम विवाह की प्रमुख विशेषताएं
मुस्लिम विवाह की First Need है प्रस्ताव रखना (propdzsal) और उसकी स्वीकृति, (acceptance)। यद्यपि यह दोनों बातें हिन्दू विवाह में भी पायी जाती हैं, किन्तु यह केवल विवाह सम्बन्धी बातचीत को आगे बढ़ाने के लिए होती हैं, न कि मुस्लिम समाज की भांति विवाह तय करने के लिए। दूल्हा दो गवाहों तथा मौलवी की उपस्थिति में विवाह से पूर्व दुलहिन के सामने विवाह का प्रस्ताव रखता है। यह आवश्यक है कि प्रस्ताव तथा स्वीकृति Single ही बैठक (meeting) में हों। Single बैठक में प्रस्ताव तथा दूसरी बैठक में स्वीकृति साही निकाह (regular marriage) नहीं होते, यद्यपि यह विवाह अवैधानिक (बातिल) नहीं होता। इस विवाह को अनियमित (irregular) अथवा फासिद (Fasid) माना जाता है। शियाओं में विवाह भंग करते समय दो गवाहों की Need होती है न कि समझौते के समय, जबकि सुन्नियों में नियम बिल्कुल इसके विपरीत हैं। साथ ही मुस्लिम विवाह में महिला प्रमाण (testimony) को पूर्णरुपेण अस्वीकृत Reseller गया है। अत: विवाह समझौता दो पुरुषों द्वारा प्रमाणित Reseller जाना चाहिए। प्रस्ताव व स्वीकृति में दो पुरुष साक्षियों की Need होती है। Single पुरुष और दो महिलाओं का प्रमाण मान्य नहीं है। इस प्रकार फासिद, And बातिल विवाहों में अन्तर यह है कि फासिद विवाह की अड़चनों (impediments) तथा अनियमित (irregularities) को दूर करके सही विवाह में तो बदला जा सकता है, लेकिन बातिल विवाह में परिवर्तन सम्भव नहीं है। फासिद विवाह के अनेक उदाहरण हैं: प्रस्ताव तथा स्वीकृति के समय साक्षियों का न होना, पुरुष का पांचक्रा विवाह, महिला की इद्द्त (Iddat) की अवधि में विवाह, (इपत वह समय होता है जिसमें महिला के तीन मासिक धर्मो को उसके पति की मृत्यु के बाद या तलाक के बाद यह सुनिश्चित करने के लिए होता है कि वह महिला कहीं गर्भवती तो नहीं है) तथा पति-पत्नि के धर्मो में अन्तर। Single पुरुष का विवाह Single किताबिया स्त्री (यहूदी या ईसाई) के साथ सही, विवाह कहलाता है, लेकिन ऐसी स्त्री के साथ विवाह जो अग्नि या मूर्ति पूजक होती है, फासिद विवाह होता है।
पुरुष चाहे Single गैर-मुसलमान स्त्री से विवाह कर सकता है, यदि उसे विश्वास हो कि उस स्त्री की मूर्ति पूजा केवल नाममात्र है, उदाहरणार्थ कई मुग़ल सम्राटों ने हिन्दू स्त्रियों से विवाह किये और उनके बच्चे वैधानिक माने गये तथा बहुधा राज सिहासन पर भी आरुढ़ हुए। ऐसे विवाहों को निषिण् करने का Only उद्धेश्य यह था कि मूर्ति पूजा को इस्लामी राजनीति से बाहर रखा जा सके। लेकिन Single मुस्लिम महिला को Single किताबिया पुरुष से विवाह की किसी भी परिस्थिति मे अनुमति नहीं दी गई है। उसके लिए ऐसा विवाह बातिल विवाह होगा। बातिल विवाह के अन्य उदाहरण इस प्रकार हैं-बहुपति विवाह (pdzlyandry) या निकटस्थ रिश्तेदारों से विवाह का चलन (जैसे मां, मां की मां, बहिन, बहिन की लड़की, मां की बहिन, पिता की बहिन, लड़की की लड़की) या फिर Single विवाहमूलक नातेदार (affinal kin) से (जैसे पत्नी की मां, पत्नी की बेटी, बेटे की पत्नी)। बातिल विवाह का Single और उदाहरण है Single व्यक्ति का Single ही समय में दो ऐसी महिलाओं से विवाह जो आपस में इस प्रकार सम्बन्धित हों कि यदि इनमें से Single पुरुष होती तो विवाह सम्भव ही न होता। इसका सरल Wordों में यह Means है कि Single पुरुष अपनी पत्नी के जीवित रहते उसकी बहिन यानि अपनी साली से विवाह नहीं कर सकता। बातिल विवाह दोनों पक्षों के बीच किसी भी प्रकार का अधिकार या कर्तव्य नहीं दर्शाता। ऐसे विवाह से उत्पन्न संतान भी अवैध (illegitimate) मानी जाती है। केवल सही या वैध (valid) विवाह ही पत्नी को पति के घर में रहने, गुजर करने (maintenance) And मेहर (dower) आदि का अधिकार प्रदान करता है। फासिद या अनियमित विवाह सहवास (consummation) से पूर्व या बाद दोनों में से किसी Single भी पक्ष के द्वारा भंग Reseller जा सकता है। यदि विवाह में सहवास हो चुका है तो सन्तान वैध होगी और उन्हें सम्पत्ति की विरासत का अधिकार होगा, इसी प्रकार पत्नी को मेहर (dower) का अधिकार भी प्राप्त होता है।
मुस्लिम विवाह का दूसरा लक्षण यह है कि व्यक्ति में विवाह समझौता करने की योग्यता (capacity) होनी चाहिए। क्योंकि केवल वयस्क And समझदार व्यक्ति ही समझौते को समझ व कर सकता है, इसलिए बाल विवाह And अस्वस्थ मस्तिष्क के लोगों के विवाह को मान्यता प्राप्त नहीं होती। अत: केवल यौन परिपक्वता प्राप्त (puberty) व स्वस्थ मस्तिष्क का व्यक्ति ही विवाह संविदा में प्रवेश कर सकता है। किन्तु इसका यह Means कदापि नहीं है कि यदि अल्प वयस्क के विवाह का संविदा (contract) हो चुका है तो वह अवैध (void) है। अल्पवयस्क के विवाह का संविदा उसके माता-पिता या संरक्षक द्वारा Reseller जा सकता है। शिया नियमों के अन्तर्गत अल्प वयस्क के मामले में विवाह संविदा करने का अधिकार क्रमश: पिता, दादा, भाई, अथवा वंशानुक््रम में किसी अन्य पुरुष रिश्तेदार को प्रदान Reseller गया है। यदि पितृ पक्ष में कोई रिश्तेदार न हो तो मातृ पक्ष में माता, मामा, या मौसी को यह अधिकार प्रदान Reseller गया है। इनके अतिरिक्त अन्य All व्यक्ति अनाधिकृत (unauthorised) अथवा फजूली समझे जाते हैं और उनके द्वारा Reseller गया विवाह समझौता कानूनी सीमाओं में निष्प्रभावी होता है, जब तक कि यौन परिपक्वता प्राप्त होने के बाद सम्बद्ध पक्षों द्वारा ही उसे अनुमोिकृत (ratify) न Reseller जाये। अनुमोदन अथवा अस्वीकृति के इस अधिकार को खैरुल बालिग कहते हैं। अल्पवयस्क विवाह को अस्वीकार (repudiate) कर सकता है यदि वह यह सिद्ध कर सके कि उसके संरक्षकों ने लापरवाही या धोखाधड़ी से संविदा को Reseller था। उदाहरणार्थ, उसका विवाह पागल लड़की से जानबूझ कर Reseller गया था, अथवा मेहर उसके अहित में तय हुआ, आदि। विवाह की अस्वीकृति के लिए लड़के के लिए कोई समय सीमा नहीं है, लेकिन लड़की के मामले में युक्तिसंगत (reasonable) समय दिया जाता है तथा उसे बता दिया जाता है कि उसे विवाह को अस्वीकार करने का अधिकार है। लड़का या तो मौखिक अभिव्यक्ति द्वारा या मेहर की रकम अदा करके या फिर यौन संसर्ग से विवाह भंग कर सकता है। 1938 के मुस्लिम विवाह भंग अधिनियम के अन्तर्गत विवाह भंग का वरण (option) करने में सुधार कर लिया गया था जिसके अन्तर्गत महिला को यौन परिपक्वता प्राप्त करने के तीन वर्ष बाद तक विवाह-विच्छेद के लिए समय प्रदान Reseller गया है, यानि कि 18 वर्ष की आयु तक अगर यौन संबंध स्थापित नहीं Reseller हो।
मुस्लिम विवाह का तीसरा लक्षण यह है कि समानता के सिद्धान्त (doctrine of equality) का पालन अवश्य Reseller जाना चाहिए। यद्यपि निम्न स्तर के व्यक्ति के साथ विवाह संविदा करने का कोई कानूनी निषेध नहीं है, फिर भी इस प्रकार के विवाह को हेय दृष्टि से देखा जाता है। इसी प्रकार भाग कर किए गए विवाह (किफ-kifa) को मान्यता प्राप्त नहीं है, फिर भी लड़Resellerं घर से भाग कर तथा निम्न या उच्च स्तर पर विचार किए बिना अपनी पसन्द के लड़कों से विवाह कर ही लेती हैं। सुन्नियों में वर के पक्ष में सामाजिक हीनता का प्रश्न विवाह रप करने के लिए पर्याप्त कारण हो सकता है किन्तु शिया लोगों में नहीं है। मुस्लिम विवाह का चौथा लक्षण है अधिमान्य व्यवस्था, (preferential system)। जीवन-साथी के चुनाव में, पहली अधिमान्यता सलिग सहोदरज (parallel cousin) को और उसके बाद विलिग सहोदरज (cross cousin) को दी जाती है। यद्यपि दोनों प्रकार के सलिग सहोदरज विवाह (चचेरा और मौसेरा) का चलन (practice) मिलता है, तथापि सहोदरज विवाह में फूफेरा विवाह को मान्यता नहीं दी गयी है (S.C. Misra, 1956 : 153)। परन्तु आजकल किसी भी सहोदरज विवाह को वरीयता नहीं दी जाती है। 1986 में जयपुर राजस्थान में 136 मुस्लिमों पर किए गए Single समाजशास्त्रीय अध्ययन से पता चलता है कि केवल 11% Meansात 15 मुसलमानों ने ही अपने सहोदरजों (cousins) से विवाह किए। इनमें से भी (पुरुष को इगो मानकर) चार ने अपनी चचेरी बहनों से, 6 ने ममेरी बहनों से, और 5 ने मौसेरी बहनों से विवाह Reseller था। आजकल जो सहोदरजों को वरीयता प्रदान नहीं की जा रही है सम्भवत: उसके कई कारणों में से कुछ यह भी हो सकते हैं – परिवार से बाहर अधिक दहेज मिलने की सम्भावना, नये व्यक्तियों से रिश्तेदारी का बढ़ना तथा सहोदरजों का Single Second से बहुत दूर रहना।
हिन्दुओं में कुछ जातियों में पाई जाने वाली प्रथा के विपरीत विधवा यदि पुर्नविवाह करने की इच्छुक है तो वह अपने मृत पति के भाई को वरीयता प्रदान करने के लिए बाध्य नहीं है। इस प्रकार मुस्लिमों में भाभी विवाह (Levirate) का प्रचलन नहीं है। इनके समाज में साली विवाह (Sororate) को भी मान्यता प्राप्त नहीं है। किन्तु मृत या तलाकशुदा पत्नी की बहिन से विवाह की अनुमति है।
मेहर
मेहर वह धन या सम्पत्ति है जो विवाह के प्रतिफल के Reseller में पत्नी अपने पति से लेने की अधिकारिणी होती है। यहां विवाह का प्रतिफल का प्रयोग Indian Customer समझौता अधिनियम के अनुरुप नहीं Reseller गया है। मुस्लिम नियमों के अन्तर्गत मेहर पति पर Single कर्तव्य (obligation) है जो कि पत्नी के पति आदर का सूचक होता है। इस प्रकार यह क्रमू-मूल्य (bride price) नहीं है। इसके मुख्य उद्धेश्य हैं- पति पर पत्नी को तलाक देने सम्बन्धी नियंत्रण करना तथा पति की मृत्यु अथवा तलाक के बाद महिला को अपने भरण पोषण के योग्य बनाना। मेहर की मान राशि विवाह से First, बाद में, या फिर विवाह के समय निश्चित की जा सकती है। यद्यपि यह धन राशि कम नहीं की जा सकती है, फिर भी पति की इच्छा से इसमें वृद्धि की जा सकती है। पत्नि चाहे तो इस धनराशि को घटाने के लिए Agree हो सकती है या फिर इस समस्त धनराशि को अपने पति या उसके उत्तराधिकारियों को भेंट स्वReseller प्रदान कर सकती है। दोनों पक्षों में निश्चित की गई मेहर की धनराशि को निर्दिष्ट (Specified) कहते हैं। मेहर की कम से कम धन राशि 10 दरहम (Dirham) होती है, लेकिन अधिकतम की कोई सीमा निश्चित नहीं है। जब मेहर की राशि निश्चित न करके जो उचित समझते हैं वह देते हैं तो इस राशि को उचित (मुनासिब) मेहर कहते हैं। उचित मेहर राशि निश्चित करते समय पति और उसके परिवार के आर्थिक स्तर का सम्मान करना पड़ता है या फिर महिला के पिता के परिवार में दूसरी स्त्रियों पर निश्चित किए गए मेहर को भी ध्यान देना पड़ता है (जैसे उसकी बहिन या बुआ), या फिर पति के परिवार के पुरुष सदस्यों द्वारा निश्चित किए गए मेहर को भी ध्यान देना पड़ता है। मेहर की राशि मुख्य Reseller से पति की आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखकर निश्चित की जाती है। यह तथ्य 1986 में जयपुर में 136 मुसलमानों के अध्ययन से प्रकाश में आया। 136 उत्तरदाताओं को क््रमश: 500 रुपये तक, 500 से 1000 रुपये, 1000 से 5000 रुपये तथा 5000 से उपर रुपये मासिक आय के चार समूहों में बांटा गया था। First समूह में लगभग 14% लोग थे, Second में 77%, Third में 7%, तथा Fourth में 2% व्यक्ति थे। उन सूचना दाताओं को जिन्होंने मेहर -राशि दी थी, यह संख्या क्रमश: First समूह में 50%, Second में 27%, Third में 16%, तथा Fourth में 7% थी। इससे स्पष्ट है कि तीनों समूहों में निश्चित की गयी मेहर की राशि व्यक्ति की आर्थिक क्षमता से कुछ अधिक ही थी जिससे लगता है कि शायद पति अपनी पत्नी व उसके माता पिता को आश्वासन देना चाहता है कि वह पत्नी को आसानी से तलाक नहीं देगा।
मांगे जाने पर दी जानी वाली मेहर की राशि को (फोरी) तुरंत (Prompt) मेहर कहते हैं और जो मेहर विवाह-विच्छेद के बाद दिया जाये, उसे स्थगित (Deferred) मेहर कहते हैं। शिया लोगों में जब कोई अनुबन्ध (stipulation) नहीं होता तो मेहर फोरी माना जाता है, लेकिन सुन्नियों में कोई इस प्रकार की मान्यता नहीं होती है। मेहर का सम्बन्ध विवाह के ‘उपभक्त’ (सहवास) होने से भी होता है। विवाह के उपभक्त (consummaption) होने पर स्त्री का मेहर पर अधिकार पूरा हो जाता है। यह उपभक्ति या तो वास्तविक सम्बन्ध स्थापित करके हो सकती है या उस प्रकार जिसे कानून ऐसा मानता है, जैसे पति या पत्नि की मृत्यु हो जाये या ठोस आधार पर अलग हो जायें। पति द्वारा विवाह समाप्त किये जाने पर या लांकृित आदि किये जाने के पश्चात अलग होने की स्थिति में पत्नि आधे ‘निर्दिष्ट’ (Specific) मेहर की अधिकारी हो जाती है। यदि मेहर का History न Reseller गया हो तो वह मुता मेहर (Mutat) के लिए अधिकारी होती है। यदि पति-पत्नि, पत्नि की पहल (initiative) पर अलग हुए हैं तो वह किसी भी प्रकार के मेहर की अधिकार नहीं होती है (यदि विवाह की उपभक्ति नहीं हुई है)
मुस्लिम कानून के अन्तर्गत मेहर के लिए विधवा का दावा अपने पति की भूसम्पत्ति के विरुद्ध Single कर्ष है। पति की सम्पत्ति में पत्नि का उतना ही अधिकार है जितना अन्य देनदारों का है। वह मेहर की रकम अदा किए जाने तक पूरी सम्पत्ति को अपने पास रोक सकती है। सम्पत्ति को अपने अधिकार में करने के लिए उसे अन्य किसी वारिसों से अनुमति नहीं लेनी होती। परन्तु यदि तलाक खुला या मुबारत हुआ है, तो महिला का मेहर का अधिकार खत्म हो जाता है, क्योंकि दोनों ही मामलों में पति-पत्नि मिलकर विवाह भंग के लिए Agree होते हैं।
मुता विवाह
मुसलमानों में भी अस्थाई प्रकार के विवाह का प्रचलन है जिसे मुता विवाह कहते हैं। यह विवाह स्त्री व पुरुष के आपसी समझौते से होता है और इसमें कोई भी रिश्तेदार हस्तक्षेप नहीं करता। पुरुष को Single मुस्लिम या यहूदी या ईसाई स्त्री से मुता विवाह के संविदा का अधिकार है, किन्तु Single स्त्री Single गैर-मुस्लिम से मुता संविदा नहीं कर सकती है। मुता विवाह से प्राप्त पत्नी को फ्सिघा, (Sigha) नाम से जाना जाता है। आजकल भारत और पाकिस्तान में इस विवाह का प्रचलन नहीं है। यह केवल अरब देशों में ही प्रचलित है। इसके अतिरिक्त यह विवाह शिया लोगों में ही वैध माना जाता है और सुन्नियों में नहीं। इस प्रकार के विवाह की वैधता के लिए दो बातें आवश्यक हैंμ(i) सहवास (cohabitation) की अवधि First ही निश्चित होनी चाहिए (ii) मेहर की राशि भी First ही निश्चित होनी चाहिए। यदि अवधि निश्चित नहीं है और मेहर निश्चित है तो विवाह स्थाई माना जाता है, किन्तु यदि अवधि निश्चित है और मेहर निश्चित नहीं है तो विवाह अवैध (void) माना जाता है। यदि अवधि निश्चित है और सहवास अवधि समाप्ति के बाद भी चलता रहता है तो यह मान लिया जाता है कि अवधि बढ़ा दी गई है, और इस बीच उत्पन्न हुई सन्तान भी वैध मानी जाती है, और स्त्री के सगे रिश्तेदारों को उन्हें स्वीकार करना पड़ता है। परन्तु मुता विवाह स्त्री-पुरुष के बीच विरासत (inheritance) के अधिकार प्रदान नहीं करता है। सिघा पत्नि भरण-पोषण की राशि (maintenance amount) का दावा नहीं कर सकती है और न ही उसे अपने पति की सम्पत्ति से विरासत में ही कुछ हिस्सा मिलेगा। लेकिन सन्तान वैध होने के कारण, पिता की सम्पत्ति में से अपना हिस्सा पाने की अधिकारी है। मुता विवाह में तलाक भी मान्य नहीं है, किन्तु पति अपनी पत्नि को बचे हुए समय की भेंट, (gift) देकर समझौते (contract) को समाप्त कर सकता है। यदि विवाह उपभक्त (consummate) नहीं हुआ है तो पूर्व निर्धारित मेहर का आधा भाग ही देय होता है किन्तु विवाह के उपभक्ति पर मेहर की पूर्ण राशि देय होती है।
मुस्लिम कानून में मुता विवाह को हेय (condemned) माना जाता है। यह न केवल इसलिए कि विवाह अस्थाई होता है और वली (Wali) या दो साक्षियों की Agreeि के बिना व्यक्तिगत Reseller से Reseller गया समझौता होता है, बल्कि इसलिए भी कि स्त्री ने अपना घर नहीं छोड़ा तथा उसके रिश्तेदारों ने उस पर अपना अधिकार नहीं छोड़ा और सन्तान पिता की न हो सकी, और उसके वंश से सम्बन्धित न हो सकी। अत: इस विवाह के प्रति विरोधी रुख इसलिए अपनाया गया क्योंकि इस विवाह में पायी जाने वाली मातृ स्थानीयता व मातृवंशीयता इस्लाम द्वारा स्वीकृत पितृस्थानीयता व पितृवंशीयता से संघर्ष में आती थी। इस्लाम भी विवाह के स्थायित्व को मानता है और कोई भी बात जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष Reseller से अस्थायित्व को बढ़ावा देती हो उसको मान्यता प्रदान नहीं की गई।
तलाक (विवाह-विच्छेद)
मुस्लिम कानून के अन्तर्गत विवाह समझौता (contract) या तो अदालती कार्यवाही द्वारा समाप्त Reseller जा सकता है या बिना अदालत के हस्तक्षेप के भी। न्यायिक प्रक्रिया द्वारा मुस्लिम विवाह अधिनियम, 1939 के अन्तर्गत या फ्मुस्लिम कानून के अन्तर्गत तलाक प्राप्त Reseller जा सकता है। न्यायिक हस्तक्षेप के बिना भी पति की इच्छा से तलाक हो सकता है या फिर पति और पत्नि के आपसी Agreeि से भी हो सकता है, जिसे खुला या मुबारत कहते हैं। खुला और मुबारत में अन्तर यह है कि खुला तलाक में पहल पत्नि की होती है और मुबारत, में पहल किसी की भी हो सकती है क्योंकि दोनों ही पक्ष तलाक के इच्छुक होते हैं। तलाक की प्रक्रिया को या तो मुंह जबानी (oral) कुछ उद्घोषणा (pronouncement) करके या तलाकनामा लिखकर पूर्ण Reseller जा सकता है। तलाक की उद्घोषणा या तो निरसनीय ;रप करने योग्य (revocable) या अनिरसनीय (Irrevocable) हो सकती है। अनिरसनीय घोषणा से विवाह-विच्छेद तुरन्त होता है जबकि निरसनीय घोषणा से इपत, की अवधि समाप्त होने तक विवाह-विच्छेद नहीं होता। इस अवधि में घोषणा का निरसन या तो अभिव्यक्ति द्वारा या विवाहित संबंध आरम्भ कर बिना अभिव्यक्ति के Reseller जा सकता है। तलाक तीन तरह से दिया जा सकता है।
- तलाक-ए-अहसन- इसके अन्तर्गत तलाक की अधिघोषणा मासिक धर्म की अवधि तुहर, में Single ही बार की जाती है और इपत की अवधि तक यौन सम्बन्ध स्थापित नहीं Reseller जाता है। शियाओं में इस तलाक को मान्यता नहीं दी जाती है। सुन्नियों में भी नशे की हालत में या गम्भीर धमकी की अवस्था में की गयी तलाक की घोषणा निरर्थक होती है।
- तलाक-ए-हसन- इसमें तीन घोषणाएं सम्मिलित होती हैं जो लगातार तीन मासिक धर्म तुहर, की अवधि में की जाती हैं, और इस अवधि में किसी भी प्रकार का यौन सम्पर्क नहीं Reseller जाता है।
- तलाक-ए-उल-बिकृत- इसके अन्तर्गत Single ही तुहर, की अवधि में Single ही वाक्य में तीन घोषणाएं करने से (मैं तुम्हें तीन बार तलाक देता हूं), या तीन बार तीन वाक्यों में दोहरा कर (मैं तुम्हें तलाक देता हूं, मैं तुम्हें तलाक देता हूं, मैं तुम्हें तलाक देता हूं) तलाक हो जाता है, या फिर Single ही तुहर में उक्त वाक्य को Single ही बार कहने पर, जिसमें विवाह समाप्त करने की अनिरसनीय इच्छा प्रकट की गयी हो (जैसे, मैं तुम्हें अनिरसनीय आधार पर तलाक देता हूं) तलाक हो जाता है।
इस प्रकार First दो प्रकार (अहसन और हसन) के तलाक के अंतर्गत दोनों ही पक्षों में समझौते के अवसर होते हैं, लेकिन Third में नहीं। तलाके-अहसन को अधिक मान्यता प्राप्त है। इन तीन प्रकार के तलाकों के साथ-साथ 1937 के शरियत कानून के According निम्नलिखित प्रकार के तलाकों का भी History है-
- इला- यदि पति यौन परिपक्वता प्राप्त करने के बाद चार माह तक या निश्चित अवधि तक यौन सम्पर्वफ से अलग रहने की सौगन्ध लेता है, तो वह इला करता है। यदि वह इस अवधि में यौन समागम नहीं करता है तो विवाह विच्छेद वैध मान लिया जाता है, जैसा कि तलाके-उल-बिकृत के अन्तर्गत होता है जिसमें पति Single ही बार तलाक की घोषणा करता है। हनापफी, सम्प्रदाय के सुन्नियों में इला तलाक का मान्य Reseller है, लेकिन शफाई सम्प्रदाय के सुन्नियों में इला तलाक लेने का केवल Single आधार होता है।
- जिहर – परिपक्वता प्राप्त पति दो साक्षियों के समक्ष अपने पूरे होशों-हवास में यह घोषणा करता है कि उसकी पत्नि उसके मां की पीठ (back) (अथवा किसी अन्य की पीठ जिसके साथ उसका विवाह निषेिमात है) के समान है तो वह जिहर तलाक होता है। परन्तु जिहर, विवाह-विच्छेद नहीं होता, बल्कि यह पत्नि के लिए पति से तलाक लेने के लिए Single आधार तैयार करता है।
- लियान- इसके अन्तर्गत पति अपनी पत्नि पर व्यभिचार (adultery) का लांछन लगाता है। इस प्रकार पत्नि को अदालत को अपील करने का आधार मिल जाता है कि या तो उसका पति आरोप वापस ले या फिर ईश्वर की सौगन्ध लेकर कहे कि उसके द्वारा लगाया गया लांछन सत्य है। यदि पति अपना आरोप वापस नहीं लेता बल्कि ईश्वर की सौगन्ध लेता है तो पत्नि को भी Single विकल्प (option) मिलता है कि या तो वह अपने ।पर लगाया गया लांछन स्वीकार कर ले या फिर पति की ही तरह ईश्वर की सौगन्ध ले कि वह निर्दोष है। इस प्रकार शपथ लेने को लियान कहते हैं। पति-पत्नि के इस प्रकार सौगन्ध लेने के बाद पति को यह विकल्प मिलता है कि वह न्यायालय के माध्यम से तलाक ले ले।
1939 के मुस्लिम विवाह विच्छेद अधिनियम के अन्तर्गत न्यायालय से न्यायिक व्यवस्थ द्वारा भी तलाक लिया जा सकता है। इस अधिनियम के आधार पर महिला को यह अधिकार प्राप्त है कि वह निम्नलिखित अवस्थाओं में पति को तलाक दे सकती हैμजब पति दो वर्ष तक पत्नि का भरण-पोषण न कर सकेऋ यदि पति को Seven या Seven वर्ष से अधिक की जेल हो जाये यदि चार या अधिक वर्षो से पति ने पत्नि का परित्याग Reseller हो पति तीन साल तक यौन सम्पर्क न करे यदि पति नंपुसक हो यदि दो साल तक पति पागल हो यदि पति किसी असामय रोग (कोढ़ या वी.डी.) से पीड़ित हो यदि पति क्रूर हो या पत्नि के अठारह वर्ष पूर्ण होने से First यौन परिपक्वता धारण करने का विकल्प रखता हो।
मुस्लिम कानून के क्रियान्वयन के अन्तर्गत जीवन-साथी के धर्म परिवर्तन के कारण भी विवाह विच्छेद लिया जा सकता है। पति के धर्म परिवर्तन के कारण विवाह-विच्छेद तुरन्त हो सकता है। अत: यदि Single पुरुष ईसाई धर्म में परिवर्तन कर लेता है और उसकी पत्नी इदत की अवधि पूर्ण होने से पूर्व ही किसी Second पुरुष से विवाह कर लेती है तो वह द्वि-विवाह (bigamy) की दोषी नहीं होगी क्योंकि धर्म परिवर्तन तुरन्त विवाह विच्छेद का कार्य करता है। 1939 के अधिनियम के पूर्व पत्नी के धर्म परिवर्तन करने पर भी विवाह विच्छेद तुरन्त लागू होता था पर अब नहीं। लेकिन यह तथ्य उन स्त्रियों पर लागू नहीं होता जो अन्य किसी धर्म से परिवर्तित होकर इस्लाम में आई हों। इस प्रकार यदि कोई हिन्दू लड़की इस्लाम स्वीकार कर लेती है और मुस्लिम कानून के अन्तर्गत विवाह करती है तो उसके इस्लाम त्यागने और हिन्दू धर्म पुन: अपनाने के तुरन्त बाद ही विवाह-विच्छेद हो जायेगा। यदि वह अपने पुराने धर्म में वापस नहीं आती है और कोई दूसरा धर्म अपना लेती है (जैसे ईसाई हो जाती है) तो ऐसे परिवर्तन से तुरन्त विवाह-विच्छेद नहीं होगा।
इन All मामलों में विवाह-विच्छेद होने पर कानूनी प्रभाव इस प्रकार होंगे- पत्नी इपत का पालन करने के लिए बामय होती है इद्द्त की अवधि में भरण पोषण की व्यवस्था करने के लिए पति ही जिम्मेदार होता है इद्द्त की अवधि से पूर्व पत्नी पुनविर्वाह के लिए समझौता नहीं कर सकतीऋ तथा पत्नी स्थगित मेहर (Deferred Dower) की अधिकारी होगी।
कुछ वर्ष पूर्व सर्वोच्च न्यायालय ने Single मुस्लिम महिला शाह बानो को पति से तलाक मिलने पर भरणपोषण-भना दिये जाने के आदेश किये थे। मुस्लिम नेताओं ने उच्चतम न्यायालय के इस कानूनी निर्णय को मुस्लिम व्यक्तिगत कानून (Muslim Personal Law) में हस्तक्षेप बताया, जिस कारण सरकार को मुस्लिम महिला (Protection of Rights in Divorce) ऐक्ट, 1986 पास करना पड़ा। इसी प्रकार फरवरी 1993 में उत्तर प्रदेश उच्च न्यायालय ने Single तीस-वर्षीया हमीदन नाम की महिला को तलाक मिलने पर उसके स्वयं के और दो बच्चों के लिए 32 वर्षीया पति से 600 रुपये महीने पोषण भना दिये जाने के आदेश किये। मुस्लिम नेताओं ने इस निर्णय को भी शरीयत, में हस्तक्षेप और मुस्लिम महिला तलाक Single्ट (Muslim Women’s Divorce Act) के प्रावधानों का उल्लंघन बताया। अखिल Indian Customer मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड (The All India Muslim Personal Law Board) ने तो उच्च न्यायालय में इस निर्णय के विरुण् Single पुनर्निरीक्षण याचिका (review petition) भी दाखिल की।
तलाके-उलबिकृत प्रथा (जिस में तीन बार घोषणा करने से तलाक हो जाता है) को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अपै्रल 1994 में अवैध बताया। इस न्यायालय ने शरीयत (Muslim Personal Law) ऐक्ट, 1937 में पति के Single ही समय तीन बार तलाक कहने पर तलाक देने के अधिकार का पुनर्निरीक्षण Reseller और निर्णय दिया कि इस प्रकार का तलाक स्त्री की गरिमा के तथा हर नागरिक के मौलिक अधिकारों और कर्तव्यों के विरुण् है। जज महोदय की यह भी मान्यता थी कि Single ही बार में अनिरसनीय (irrevocable) घोषणा करके विवाह समाप्त करना इस्लाम सुन्नत (Islam Sunnat) के अन्तर्गत पाप (Sin) माना गया है। अत: न्यायाधीश का विचार था कि वर्तमान समय के अनुवूफल मुस्लिम विवाह व तलाक आदि विषयों पर नया कानून बनाना चाहिए। मुस्लिम नेताओं ने इस मसले को भी अदालत के अधिक्षेत्र से परे माना और उच्च न्यायालय में अपील की। सर्वोच्च न्यायालय ने जुलाई 1994 में इलाहाबाद के न्यायाधीश तिलहारी के निर्णय को अस्वीकार कर दिया।
दूसरी ओर कुछ विद्वानों का विचार है कि अब समय आ गया है कि मुस्लिम महिलाओं को राजनैतिक आधार पर अपने को संगठित करके विवाह, तलाक, आदि कानूनों में संशोधन के लिए, तथा कानूनी संरक्षण, सामाजिक-आर्थिक संपालन व सम्पत्ति विरासत संबंधी अधिकार आदि प्राप्त करने के लिए लड़ना चाहिए। सरकार या रूढ़िवादी धार्मिक नेता मुस्लिम महिलाओ की प्रस्थिति ।ंचा करने में रूचि लेंगे इसकी सम्भावना नहीं है। अत: महिलाओं को ही अपने को राजनैतिक आधार पर संगठित करके अपने लिए आर्थिक व सामाजिक परिवर्तनों के लिए प्रयास करने होंगे।