Indian Customer समाज का उद्भव And विकास
Indian Customer समाज का उद्भव And विकास
अनुक्रम
भारत विविध सामाजिक और सांस्कृतिक तत्वों का संश्लेषण कहा जाता है। यह आर्य और द्रविड़ संस्कृतियों का सम्मिश्रण है। इस संश्लेषण के फलस्वReseller गांव, परिवार, जाति और विधि व्यवस्था में Singleता पाई जाती है।
प्राचीनकाल से आज तक Indian Customer समाज की निरन्तरता इस संश्लेषण द्वारा बनी हुई है। मोहनजोदड़ो (2500 ईसा पूर्व) से लेकर बौद्ध, जैन, इस्लाम और ब्रिटिश शासन व स्वातंत्रयोनर भारत तक कला, चित्रकारी, संगीत और धर्म आदि के क्षेत्रों में सान्मीकरण तथा संश्लेषण की प्रक्रिया द्वारा निरन्तरता पाई जाती है। के. एम. पणिकर जो Single निष्ठावान् राष्टंवादी थे, संश्लेषण और सान्मीकरण की ऐतिहासिकता को ध्यान में रखते हुए लिखते हैं: मै संस्कृति को विचारों, धारणाओं, विकसित गुणों और संगठित संबंधों तथा शिष्टताओं की Single ग्रन्थि मानता हूं जो प्राय: Single समाज में पाई जाती है।, पणिकर इस संदर्भ में कहते हैं कि विचारों की समानता, आचरण व व्यवहार में SingleResellerता और आधारभूत समस्याओं को समझने का सर्वमान्य उपागम साझा परम्पराओं और आदर्शो पर आधारित होते हैं। Indian Customer संस्कृति की Single जीवन-पद्धति रही है, बाहरी सम्पर्क होने से इसमें निरन्तर संशोधन होते हैं, परन्तु देशी सिद्धान्तों और विचारों पर आधारित होने के कारण यह पद्धति मूलत: Indian Customer,बनी रही। Indian Customer संस्कृति के ये Reseller और उपागम साहिन्य, कला और वास्तुकला में दिखाई देते हैं। भारत में धार्मिक और सामाजिक सहिष्णुता की परम्परा रही है। इस परम्परा ने भारत में सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में समृद्धि और अनेकResellerता लाने में योगदान Reseller है।
प्राचीनकाल के मुख्य साहित्यिक स्रोत हैं: (1) संस्कृत भाषा और संस्कृतिपरक भाषाओं में, और (2) द्रविड़ भाषाएं। वेद, पुराण और महाभारत और प्राकृत And पाली भाषाओं का History इनमें Reseller जाता है। श्रीलंका के इतिवृत, बुद्धिचरित और जैन साहिन्य मुख्य ऐतिहासिक लेखन हैं। कल्याण के चालुक्य चत्रमानस और बंगाल के पाल के बारे में अनेक ऐतिहासिक कृतियां मध्ययुग क संस्क्ृतिक भाषाओं में शमिल की गई हैं। इन तीन राजवंशों के बारे में प्रसिद्ध कृतियों में क्रमश: विक्रमादेव चरित, Earthराज विजय और रामचरित हैं। कश्मीर की राजतरंगिनी और गुजरात के इतिवृत अन्य मुख्य कृतियां हैं। 1206 से 1761 ईस्वी के अन्र्तगत तमिल, कन्नड़, तेलुगू और मलयालम भाषाओं में महत्वपूर्ण ग्रंथ लिखे गए। पारसी और अरबी भाषाओं को बहुत प्रोत्साहन मिला। प्रागैतिहासिक और आद्य-ऐतिहासिक कालों को प्रस्तर युग, ताम्र युग और लौह युग में विभक्त Reseller गया है। इस प्रकार के वर्गीकरण से मनुष्य की भातिक और प्रौद्योगिक प्रगति का बोध होता है। मनुष्य की आर्थिक और सामाजिक प्रस्थिति तथा उसके पर्यावरण के बारे में ज्ञान प्राप्त करने की अधिक Need है। इस युग-वर्गीकरण से पर्याप्त समझ प्राप्त नहीं की जा सकती। मनुष्य की प्रगति की अवस्थाओं को समझने के लिए उद्भवीय प्रक्रिया अधिक सूचनाकारी है:
- आदिम भोजन संग्रहण अवस्था या आदि और मध्य प्रस्तर युग।
- उन्नत भोजन-संग्रहण अवस्था या उत्तर प्रस्तर युग/पाषाणकाल।
- आरम्भिक भोजन उन्पादन संक्रमण या नवप्रस्तर युग।
- स्थायी ग्रामीण समुदाय या उन्नत नवप्रस्तर युग/ताम्रपाषाण।
- नगरीकरण या कांस्य युग।
सिंधु सभ्यता नगरीय है, और इसका क्षेत्र नील नदी या टिगरीज- यूप्रैफटेज घाटियों या पीत नदी घाटी की सभ्यताओं के क्षेत्र से अधिक था। पश्चिम से पूर्व तक सिंधु घाटी की सभ्यता 1,550 किलोमीटर में, और उत्तर से दक्षिण में 1,100 से अधिक किलोमीटर के क्षेत्र में फैली हुई थी। इस सभ्यता की आश्चर्यजनक विशेषता सुव्यवस्थित नगर-आयोजन है। रास्ते, गालियों और उपगलियों व घरों में सममिति थी, और ये सब भमकों में पकी हुई ईटों के बने हुए थे। भारत के गजेटियर भाग दो में लिखा है: Single घर में Single केन्द्रीय आंगन, तीन से चार तक रहने के लिए कमरे, Single पनागार और Single रसोईघर होते थे। बड़े घरों मे तीस तक कमरे और प्राय: दो मंजिलें होती थीं। कई मकानों में कुएं भी होते थे, और शानदार भूमिगत जलनिकास व्यवस्था थी। सम्भवत: शहर निम्न और उपरी, भागों में बंटे हुए थे। Single परिषद्ए क बहु-खम्भिव सीाागार, Single सार्वजनकि पनागार, Single वृहद धान्य-भंडार ओर पकपी ईटों से निर्मित दुर्ग तथा Single काष्ठ अधिCreation पाए गए हैं।
मटर, तरबूज और केले के अतिरिक्त गेहूं – जौ की भरपूर खेती होती थी। कपास भी उगाया जाता था। लोग मछली, मुर्गा, बकरा, गाय और सूअर का मांस खाते थे। बिल्लियां, कुत्ते और हाथी अधिक पाए जाते थे। धोती या शॅल का प्रयोग Reseller जाता था। स्त्रियां बड़े शौक से केश संवारती थीं, और हार, भुजबन्द, अंगूठी बाली, करधनी और पायल आदि जेवरों से अपना श्रगार करती थीं। सिंधु घाटी के लोग पूर्ण कांस्य युग में थे, क्योंकि यह तथ्य आरी, हंसिया, छेनी, मछली-कांटा, पिन और शीशे आदि घेरलू वस्तुओं के उपयोग होता था, परन्तु स्थानीय स्तर पर उन्पादन नहीं होता था। पूजा की वस्तुओं से मालूम होता है कि सिंधु घाटी में भूमध्यसागरीय,ऐल्पीय, प्रोटो-आस्टेंलॉय और मंगोलॉय जन भी रहते थे। वास्तव में सिन्धु सभयता सर्वदेशीय थी।
तदन्तर अनुसन्धानों से भी Single व्यवस्थित नागरिक जीवन के अस्तिन्व के बारे में ज्ञात होता है। इसके अन्र्तगत जिसमें सम्पूर्ण शहर का आयोजन, Single नियमित जलनिकास व्यवस्था, वजन और माप का मानकीकरण तथा लेखन पद्धति शमिल थे, कला और हस्तकला भी विकसित होने लगी थी। इन सबके होते हुए भी लोग आदिम, युग में ही थे। Meansववेद के समय तक आर्य पूरी तरह से धातु के बारे में जाने लग गए थे और लोहे, कांसे और तांबे में भेद समझते थे।
Indian Customer समाज में अन्य सभ्यताओं की तुलना में परिवर्तन धीरे हुए हैं। सांस्कृतिक विकास की प्रत्येक अवस्था अग्रिम अवस्था में परस्पर व्याप्त रहती थी, इसलिए किंचित् निरन्तरता और स्थायिन्व बना रहता था। क्षेत्रीय भिन्नताओं और विदेशियों के साथ निरन्तर सम्पर्क रहने के उपरान्त भी सिंधु सभ्यता अपने स्वReseller में मुख्यत: Indian Customer है। इस मत के बारे में वैदिक साहिन्य, पुराणों, जैन व बौद्ध धर्मपुस्तकों में वर्णन मिलते हैं।
मौर्य साम्राज्य और अनेक क्षेत्रीय और स्थानीय संस्कृतियों के बारे में समुचित पुरातन्वीय प्रलेखन उपलब्ध हैं। सम्पूर्ण भारत में लोहे के बारे में जानकारी थी। संस्कृतियों के वर्गीकरण में संस्छत भाषा के प्रसार से भी बहुत योगदान मिला है। पुरातन्वीय और भाषायी अध्ययन से सर्व-Indian Customer संस्कृति के उद्भव का प्रमाण मिलता है। भौगोलिक अलगाव से भी संकेत मिलते हैं कि यह उपमहाद्वीप वास्तव में फ्Indian Customer, है। विभिन्न समूहों के लोग जो इस देश में बाहर से आए, उनके हजारों वर्ष के संघर्ष और अन्त:क्रिया का परिणाम संश्लेषण है।, विदेशियों के साथ सम्पर्क का सबसे अधिक परिणाम भाषायी Singleीकरण था। पुराणों में described कथाओं और दंतकथाओं में प्रजातीय और सांस्कृतिक संश्लेषण प्रतिबिम्बित होता है। आर्यकरण, बिहार और बंगाल के कुछ भागों में बहु फैल गया था। साथ-साथ विदेशी संस्कृतियों का भी Indian Customerकरण, हुआ। आर्यकरण, का अभिप्राय आर्यो (विदेशियों) का देशी लोगों पर प्रभाव पड़ने से है, और Indian Customerकरण,का Means आर्यो द्वारा मूलवासियों के जीवन शैलियों का अनुकरण करने की प्रक्रिया से है। परिवर्तन की इन दोनों प्रक्रिया द्वारा व्यवस्थापन उभरकर आया और अंत में आर्य और देशी संस्कृतियों का सान्मीकरण हुआ।
वैदिक सभ्यता
सिंधु घाटी संस्कृति का Indian Customer-आर्य सभ्यता के साथ क्या सम्बन्ध है? आर. सी. मजूमदार, एच. सी. रायचौधरी और कालीकिंकर दना ने अपनी पुस्तक एन एडवांस्ड हिस्टीं ऑफ इंडिया में लिखा है: उपरी तौर पर दोनों में बहुत अंतर है। वैदिक आर्य ग्रामीण थे, जबकि सिंधु घाटी सभ्यता के लक्षणों के Accordingवहां विकसित शहरी जीवन की सुविधाएं थीं। वैदिक आर्य सम्भवत: लोहे और रक्षा शस्त्रों के बारे में जानते थे। वैदिक सभ्यता में घोड़े की भूमिका बहुत थी परंतु सिंधु घाटी में इसके अस्तिन्व के आरे में शंका है। दोनों सभ्यताओं में धार्मिक विश्वासों और अभ्यासों के संदर्भ में भी महत्वपूर्ण अंतर थे।
भारत में आर्यो के बारे में ज्ञान का वेद ही Only साहित्यिक स्रोत हैं आर्यो के बारे में ऋग्वेद-संहिता सबसे पुराना ग्रंथ हैं वैदिक समाज ग्रामीण ओर कृषकीय था। विभिन्न सामाजिक-सांस्कृतिक और शैक्षणिक क्रियाकलापों की मुख्य संस्थाएं मंदिर और विद्यालय थे। गांव Single स्वायन इकाई थी। मैगस्थनीज के According ईसापूर्व चौथी सदी में Seven जातियां थीं। अन्तरजातीय विवाह आम रिवाज् था। शराब पीने, जुआ खेलने और वेश्यावृत्ति की बुराइयों को राज्य द्वारा नियंत्रित Reseller जाता था।
वैदिक युग में स्त्रियों को हर क्षेत्र में ज्ञान प्राप्त करने की छूट थी। उन्होंने वैदिक भजनों की Creation भी की। उपनिषद् काल में गार्गी और मैत्रीय प्रसिद्ध दार्शनिक थीं। उच्च जाति की स्त्रियां अपने पतियों के साथ यज्ञ में भाग लेती थीं। उनको सम्पत्ति के स्वामिन्व का अधिकार था और विधवाएं पुनर्विवाह कर सकती थीं। Single पुरुष Single से अधिक स्त्रियों के साथ विवाह कर सकता था, जबकि Single स्त्री को Single ही पुरुष के साथ विवाह करने का अधिकार था। किन्तु बौद्ध काल में वेदों का अध्ययन करने का अधिकार स्त्रियों से छीन लिया गया था। गुप्त काल में स्थिति में बहु परिवर्तन हुआ। स्वयंवर (शक्ति परीक्षण के बाद कन्या वर का चुनाव करती थी) और गांधर्व (स्वतंत्र पारस्परिक पसन्द) विवाह प्रथाएं कमजोर पड़ गई। स्त्री से सम्पत्ति के स्वामित्व का अधिकार ले लिया गया, और विधवाओं को पुनर्विवाह की स्वीकृति नही दी गई। पर्दा और सती प्रथाएं उभरीं।
उत्तर-वैदिक समाज और संस्कृति
ईसा युग की आरम्भिक सदियों में विदेशी आक्रमणकारी Indian Customer King परिवारों के साथ घुल-मिलकर उनके प्रभाव में आ गए। विदेशी राजवंशों की राजधानियां सांस्कृतिक संश्लेषण की केन्द्र बन गई जिससे Indian Customer सभ्यता को Single विशिष्ट सर्वदेशीय स्वReseller प्राप्त हुआ। गुप्त काल में पुराणों में described हिन्दू धर्म का उठाव हुआ। महात्मा बुद्ध को भगवान् विष्णु का अवतार मानते थे। ब्राह्मणवाद और बौद्धवाद Single-Second के समीप आए। हिन्दू धर्म, आदिम आस्थाएं, अभ्यास और विदेशी धार्मिक प्रतीक भी समीप आए। हिन्दू समाज सांस्कृतिक और सामाजिक समूहों का Single संघ बन गया जिसमें विचारों और प्रथाओं का स्वतंत्र आदान-प्रदान और अच्छे पड़ोसी सम्बन्ध पाए जाते थे।
फाहियान के According पांचवी सदी में गुप्त साम्राज्य के अंतर्गत उत्तर भारत में सर्वत्र सम्पन्नता थी। व्यापारियों के पास अतुल सम्पत्ति थी। व्यापार और बैकिंग प्रगति पर थे। धनी लोग स्कूल, बौद्ध मठ, मन्दिर, अस्पताल और भिक्षालय चलाने के लिए उदारता से धन खर्च करते थे। पाटलिपुत्र में बौद्ध मठ Single प्रसिद्ध शिक्षा केन्द्र बना हुआ था। लोग शकुनों में विश्वास रखते थे। उनका विश्वास ज्योतिष में भी था। सामाजिक न्यौहारों और उन्सवों के अवसरों पर नृन्य, संगीत और दावत का आम रिवाज् था। वसन्त उन्सव खुशी से मनाया जाता था।
समाज के विभिन्न अंगों के शंतिमय और सुव्यवस्थित कार्य के लिए धर्म Single वास्तविक आचार संहिता थी, न कि कानून। धर्मशास्त्र या स्मृतियों में प्रत्येक जाति और व्यवसाय, समाज में प्रत्येक सम्बन्ध-King और प्रजा, पति और पन्नी, गुरु और शिष्य के बारे में नियम दिए गए थे। नियम कठोर नहीं थे, और नई परिस्थितियों के अनुReseller संशोधित किए जाते थे। कभी-कभी कानून-निर्माता और पुरोहित वर्ग अपने स्वयं के विचार प्रविष्ट करके, नई संCreationएं और निषेध सुझाते थे।, Single चीनी यात्री हेनसांग Sevenवीं सदी में भारत आया। उसके According लोग ईमानदार थे और वादे के पक्के थे। लोगों का विश्वास था कि बुरा काम करने पर दंड अवश्य मिलता है।
शास्त्रों में Historyित नियमों द्वारा सामाजिक जीवन शासित होता था। हिन्दू समाज जातियों और उपजातियों में विभक्त था। सामाजिक अन्त:क्रिया और विवाह (सहभोजिन्व और वैवाहित) के नियमों का सख्ती से पालन Reseller जाता था। खेल-कूद, न्यौहारों और उन्सवों का मानना और उपनयन (जनेउ) धारण करना सामान्य बात थी। पाशविक जाति नियमों के परिणामरूवReseller Indian Customer समाज पतन की ओर अग्रसर हुआ। निम्न और अछूत जातियों को अपमानित Reseller गया। स्त्रियों को दबाकर रखा गया। गण (कुलीनतंत्रीय राज्य) श्रेणी (शिल्पसंघ) और संघ (बौद्धमठ श्रेणियां) आदि सामूहिम संगठन विघटित होने लगे। जाति प्रथा के प्रादुर्भाव के कारण आर्थिक श्रेणियों के स्थान पर सामाजिक श्रेणियां अधिक महत्वपूर्ण बन गई। अल-बरूनी ने लिखा है कि 11वीं सदी में Indian Customer विदेशियों से घृणा करने लगे थे।
श्रम की महिमा आन्म-सम्मान की सूचक नहीं रही। समाज अन्यधिक विभेदित हो गया। कर्ज के भुगतान न कर पाने पर गुलाम बनाना Single आम रिवाज हो गया था। ऐसे लोगों को चाण्डाल, फलकराज और निशाद के नामों से जाना जाता था। अछूतों को उच्च जातियों से लग रखा जाता था। जाति प्रथा और दासता में दक्षिण और उत्तर भारत में कोई अंतर नहीं था। उत्तर की तुलना में दक्षिण में ग्रामीण जीवन और शिल्पसंघों को अधिक स्वायनता प्राप्त थी।
वर्ण व्यवस्था
यह कहना मिथक होगा कि प्रागैतिहासिक समाज जातिविहीन, समता, समृद्धि और धर्मपरायणता पूर्ण सहस्त्राविद था। ऋग्वेद में वर्णन के According आर्यो और अनार्यो में समाज का विभाजन स्तरीकृत समाज का First सूचक है। आर्य या जनजाति विभिन्न Meansपूर्ण कार्यो जैसे कृषि, पशुपालन और व्यापार आदि के आधार पर चार समूहों में विभक्त थे। आर्थिक कार्य करने वालों को वैश्य कहा जाता था। बेशीधन को ब्राह्मण और क्षत्रिय वर्णो के रखरखाव पर खर्च Reseller जाता था। ये तीन वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य) अपने व्यवसायों से न कि अपने शरीर के रंग से, पहचाने जाते थे।
समाज कल्याण के लिए ब्राह्मण धार्मिक और आनुष्ठानिक कार्य, वेदों का अध्ययन और समाज के सब वर्गो के लिए मान (धर्म) बनाने के कर्नव्य को पूरा करते थे। देश की रक्षा, कानून और व्यवस्था बनाए रखना क्षत्रिय का कार्य था। समय बीतने के साथ इन तीनों वर्णो ने अपने कार्यो में दक्षता प्राप्त कर ली और Single सामाजिक सोपान में ढल गए जिससे ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य का क्रमश: First, द्वितीय और तृतीय स्थान रहा। चौथा स्थान शूद्र या दास का रहा जो तीन वर्गो के लोगों की सेवा करते थे। ऋग्वेद के पुरुषसूक्त में Single पौराणिक कहानी के According भगवान ब्रांहा के मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, जांघों से वैश्य और पैरों से शूद्र की उत्पनि हुई।
वर्ण जाति समूहों से भिन्न हैं क्योंकि वर्ण हिन्दू समाज के वृहद भाग हैं, जबकि जातियां विशिष्ट अन्त:वैवाहिक समूह हैं जिनकी संख्या हजारों में है। वर्ण अखिल-Indian Customer सामान्य घटक हैं जबकि जातियां स्थानिक समूह हैं। विभिन्न जातियां जो केरल या तमिलनाडु में पाई जाती हैं, वे गुजरात और राजस्थान में नही पाई जातीं। Single ही भौगोलिक क्षेत्र में रहने वाले Single ही जाति के सदस्यों में विवाह करते थे क्योंकि लोग Second क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के पूर्ववृतों के बारे में जानकर नहीं होते हैं।
प्रारम्भ में वर्णो के व्यवसाय वंशानुगत नहीं थे। न केवल व्यवसायों के परिवर्तन की छूट थी, बल्कि यदि किसी व्यक्ति में आवश्यक बुद्धि और गुण थे तो वह अपनी प्रस्थिति को भी उपर उठा सकता था। उच्च से निम्न जाति की पदावनति भी होती थी। स्मृतियों के बाद में जाति और व्यवसाय स्थिर और बंशानुगत बनते गए। सामाजिक और आर्थिक क्रियाओं का विभाजन सामाजिक विधा का Single मानक और भाग बन गया। व्यक्ति उद्यम के उभय से वैयक्तिक सम्पत्ति का रास्ता खुल गया। इस प्रकार जाति और सम्पत्ति Resellerी संस्थाओं ने राज्य का प्रादुर्भाव आवश्यक बना दिया। आर्थिक और राजनैतिक कार्यो को पूरा करने के लिए देश, कुलपति, और भूस्वामी प्रमुख सन्दर्भ स्तर बन गए। King राज्य का कुलपति बना और उसने अनेक अधिकारियों और सलाहकारों को नियुक्त Reseller। राज्य ने राजस्व तथा अन्य कर भी वसूल करने शुरू कर दिये। वर्ण व्यवस्था को समाज की Needओं को पूरा करने के लिए Single लाभकारी व्यवस्था के Reseller में प्रस्तुत Reseller गया।
अनेक ऋषियों ने अपनी संहिताओं में विभिन्न समूहों के बीच सामाजिक संबंधों और विवाह पर प्रतिबंध लगाने के महत्व पर बल देकर वर्ण व्यवस्था को कठोर बनाने में मदद की। रामायण, महाभारत और जातक कथाओं में लिखा है कि ब्राह्मण न केवल वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत सर्वश्रेष्ठ थे, बल्कि उनके पास सम्पत्ति और सत्ता भी थी। King ने अपने विशेषाधिकार से ब्रांणों को गांवों में राजस्व वसूल करने की छूट या कर-मुक्त जमीनें (ब्रंदेव) दी थीं। जब ब्राह्मण अनुदानग्राही वेदों के अध्ययन में व्यस्त नहीं थे। उनमें से अनेक वैश्यों का कार्य करते थे। अन्य व्यवसायों की तरह ब्रहांणों ने भी अपने संघ बनाए। वे अपने हिस्सों के लिए झगड़ते भी रहते थे। ब्राह्मण धर्मनिरपेक्ष नहीं थे क्योंकि उन्हें Kingओ और जनसाधारण दोनों से बहुत सा दान मिलता था। मनु और नारद के According वे भ्रष्ट बन गए थे।
क्षत्रियों और वैश्यों पर वर्ण का वंशानुगत आधार लागू नहीं होता था। फ्शासन कला और सैन्य व्यवसाय Single समूह तक सीमित नहीं थे। भारत के History में ब्राह्मण, वैश्य और शूद्र शाही राजवंशों के Historyों की कमी नहीं है। Sevenवाहन ब्राह्मण थे, गुप्त वैश्य थे और नंद King शूद्र थे। इसके अलावा यवन, शक और कुशान राजवंश किसी जाति के नहीं थे।
वैश्य Single बहुत अधिक विभेदित जाति समूह था क्योंकि उसमें कुछ परिवार धनी थे और अन्य छोटे किसान, कारीगर, फेरीवाले और निम्न कर्मी थे। शूद्र लोगों का प्रन्यक्ष Reseller में Single वर्ग स्वReseller था। वे तीनों वर्णो की सेवा करते थे, और उनकी आर्थिक स्थिति निम्नतम थी। असलियत में वे उच्च जातियों के नौकर थे। फिर भी वे ब्राह्मण जातियां वर्ण व्यवस्था के बाहर समझी जाती थीं। विभेदीकरण के बढ़ने और विभिन्न जातियों में विवाह द्वारा मिश्रण होने के कारण उपजातियां बनीं। क्या जाति और वर्ग प्राचीन भारत में परस्पर व्याप्त थे? मनुष्य की आर्थिक स्थिति में परिवर्तन होने से उसकी जाति प्रस्थिति प्रभावित नहीं होती थी। जाति और वर्ग, ये दो सोपान, मेल नहीं खाते थे। वर्ग सोपान में उपर से नीचे तक वर्ग थे: (1) उच्च अधिकारी, व्यापारी, साहूकार और भूस्वामी, (2) लघु उन्मुक्त भूमिधर, कारीगर और साधारण अधिकारी, (3) अधिकार और सम्पत्तिविहीन श्रमिक और (4) उपेक्षित और पृथकृत श्रमिक। अंतिम दो कोटियों में शूद्र और मलेच्छ लोग थे। परन्तु First दो श्रेणियां ब्रांणों और क्षत्रियों के समानान्तर नहीं थीं, क्योंकि जिन लोगों ने अपने व्यावयासिक कार्य लग्नता से किए, वे आर्थिक Resellerसे कभी भी सम्पन्न नहीं हो सके। ब्रांमहणों और क्षत्रियों को बहुत सम्मान और प्रभुन्व प्राप्त था क्योंकि उनके व्यवसायों की उच्च सामाजिक और सांस्कृतिक महत्ता थी। फिर भी समाज के विभिन्न वर्गो के हितों का संतुलन और अपना आंगिक स्वReseller जाति व्यवस्था ने बनाए रखा। बौद्धधर्म के उन्थान से जाति प्रथा को गहरा आघात पहुंचा।
वर्णाश्रम व्यवस्था
हिन्दू समाज का मुख्य स्तम्भ वर्णाश्रम धर्म था। वर्णाश्रम में चार वर्णो (जिनका History उफपर Reseller जा चुका है) और मनुष्य के जीवन में चार अवस्थाओं (आश्रमों) का समावेश Reseller गया है। चार आश्रम (अवस्थाएं) ब्रंचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास थे। ब्रंचर्य में शिक्षा, चरित्र और व्यक्तित्व के निर्माण का कार्य Reseller जाता है। गृहस्थाश्रम में मनुष्य विवाह करके अपने परिवार का पालन Single धार्मिक कर्तव्य समझकर करता है। Third और Fourth आश्रमों में इस संसार का परित्याग करता है और आध्यात्मिक ज्ञान तथा मोक्ष प्राप्त करने के लिए अपना जीवन समर्पित करता है। आश्रम समानता और Singleता के सिद्धान्त थे। इनका उद्धेश्य Single भरपूर जीवन की प्राप्ति था। इन योजनाओं से पुरुषार्थ की योजना गहराई से जुड़ी थी। पुरुषार्थ जीवन के मूल सिद्धान्त थे। पुरुषार्थो द्वारा मनुष्य को स्वयं, अपने परिवार और वृहद् समुदाय के प्रति कर्तव्यों का बोध होता था। धर्म, Means, काम और मोक्ष चार पुरुषार्थ हैं। इन सिद्धान्तों को Single सोपानीय क्रम में व्यवस्थित मूल्य-भाव या जीवन के उद्धेश्य कहा जा सकता है। धर्म या नैतिक कर्तव्य सब Human क्रियाओं में मूलभूत है।
समाजशास्त्री योगेन्द्र सिंह ने चार सोपानों का History Reseller है, Meansात् (1) भूमिका-संस्थान (वर्ण), (2) करिश्माई प्रतिभा (गुण), (3) उद्धेश्य-अभिविन्यास (पुरुषार्थ) और (4) जीवन-अवस्थाएं व मूल्य-बंधन (आश्रम)। ये चार सोपान सांस्कृतिक व्यवस्था और उसकी संCreation की हिन्दू अवधारणा के भाग हैं। योगेन्द्र सिंह ने व्यवस्था और परिवर्तन दोनों को Indian Customer परम्परा की मुख्य विशेषताएं बतलाया है। सोपान, साकल्यवाद और निरन्तरता (व्यवस्था) को संकेतित करते हैं, और परिवर्तन, की व्याख्या अनुभवातीतता, या Resellerान्तरण के संदर्भ में की जाती है। Indian Customer परम्परा में प्रत्येक वस्तु सोपानीकृत होती है।
ब्रिटिश काल में समाज
ब्रिटिश घुसपैठ के समय Indian Customer समाज लगभग निश्चल था। ब्रिटिश Kingों को सलाह दी गई थी कि उन्हें हिन्दुओं के सामाजिक रिवाजों और धार्मिक आस्थाओं में हस्तक्षेप नही करना चाहिए। एल अब्बे डूबोई का मत था कि जिस दिन ब्रिटिश शासन ने हस्तक्षेप Reseller, वही Single राजनैतिक शक्ति के Reseller में इसके अस्तित्व का अंतिम दिन होगा। मुगल King भी प्राय: धर्म परिवर्तन को सामाजिक परिवर्तन का Single साधन मानने के पक्ष में नहीं थे। इस अध्याय के First अनुभाग में हमने कहा है कि मध्यकालीन युग में Single प्रकार के संश्लेषण का प्रादुर्भाव हुआ। ग्रामीण भारत में जाति और वर्ग संCreationएं ब्रिटिश शासन के प्रारम्भ में कठोर व निश्चल थीं। व्यक्ति को जाति, परिवार और गांव के अधीनस्थ समझा जाता था। Meansव्यवस्था पुरातन थी। लोगों में राष्टींय चेतना की कमी थी। ऐसे समय पर ब्रिटिश शासन के आगमन से नई स्थिति उत्पन्न हुई।
ब्रिटिश सरकार, ईसाई मिशनरी और अंग्रेजी शिक्षा के मामयम से Indian Customer समाज पर प्रभाव पड़ा है। ब्रिटिश सरकार ने देशी प्रशासन And अभिशासन का स्थान ग्रहण कर लिया। मिशनों ने Indian Customerों को ईसाई धर्म में परिवर्तन करने का प्रयन्न Reseller। शिक्षाविदों ने देशी जनता के दृष्टिकोण में इच्छा परिवर्तन लाने हेतु शिक्षा प्रसार के लिए प्रयन्न किए। भारत में अंग्रेज समुदाय ने भी देश के विभिन्न भागों में लोगों को अलग-अलग तरह से प्रभावित Reseller। ब्रिटिश शासन के कुछ ठोस परिणामों में राष्टींय चेतना का प्रादुर्भाव, संगठन के महत्व को समझना, और इसके बाद आन्दोलन के महत्व को समझकर 1885 में Indian Customer राष्टींय कांग्रेस की स्थापना हुई। के. एम. पणिकर के According, फ्ब्रिटिश शासन की सबसे अधिक महत्वपूर्ण उपलब्धि भारत का Singleीकरण था। Indian Customer लोगों के हित को ध्यान में रखकर ब्रिटिश शासन ने ऐसा जानबूझकर नहीं Reseller। वास्तव में उनकी रुचि पूरे भारत में अपने शासन के प्रसार और उसको दृढ़ करने में थी। पश्चिमी शिक्षा, यातायात और संचार के साधन, प्रौद्योगिकी और न्यायपालिका के प्रारम्भ करने में भी ब्रिटिश शासन का स्वयं का हित प्रमुख था।
योगेन्द्र सिंह के मतानुसार, पश्चिम के साथ Indian Customer (हिन्दू) परम्परा का सम्पर्क भिन्न और मौलिक समाजशास्त्रीय महत्व का था। ऐतिहासिक दृष्टि से यह सम्पर्क Single पूर्व-आधुनिक और आधुनिकीकृत सांस्कृति व्यवस्था के बीच का था। पश्चिमी परम्परा में तर्कणावाद, समानता और स्वतंत्रता पर आधारित वैज्ञानिक और प्रौद्योगिक विश्व-दृष्टि पाई जाती थी। परिणामस्वReseller Indian Customer परम्परा, जिसमें First ही Single प्रकार का बिगाड़ आ गया था, खुली उदार, समानतावादी और Humanतावादी बनी। इस प्रकार पश्चिमी (ब्रिटिश) परम्परा Indian Customer परम्परा के सामने Single चुनौती बनकर आई। सोपान, जो Single जाति समूह में जन्म पर आधारित सामाजिक सोपान का सिद्धांत था, और साकल्यवाद जो विभिन्न समूहों को प्रदन प्रकार्यो और कर्नव्यों के सम्पन्न करने के मानकों पर आधारित भिन्न-भिन्न जाति समूहों के बीच सावयवी अन्तर्निर्भरता था, पश्चिमी परम्परा द्वारा बहुत प्रभावित हुए।
पश्चिमीकरण
एम. एन. श्रीनिवास के According पश्चिमीकरण वह परिवर्तन है जो भारत में ब्रिटिश शासन के प्रभाव के कारण आया है। यह परिवर्तन तकनीक, वेशभूषा, खान-पान और लोगों की आदतों और जीवन शैलियों आदि में दिखाई देता है। तीन स्तरों पर पश्चिमीकरण की प्रक्रिया काम करती है: (1) प्राथ्मिक, (2) द्वितीयक और (3) तृतीयक। प्राथमिक स्तर पर कुछ लोग थे जो पश्चिमी संस्कृति के साथ सम्पर्क में आए, और इससे लाभान्वित होने वालों में भी First थे। द्वितीयक स्तर के पश्चिमीकरण का अभिप्राय Indian Customer समाज के उन वर्गो से है जो First लाभ भोगियों के साथ प्रन्यक्ष सम्पर्क में आए। तृतीयक स्तर पर वे लोग हैं जो ब्रिटिश द्वारा शुरू की गई तरकीबों के बारे में अप्रन्यक्ष Reseller से जानकारी प्राप्त कर पाए। इस प्रकार पश्चिमीकरण की प्रक्रिया के तीन स्तर हैं। Indian Customer समाज के विभिन्न अनुभागों में इस प्रक्रिया का प्रसार असमान और असमानतावादी भी रहा है। यद्यपि श्रीनिवास ने इस प्रक्रिया की अच्छाइयों में Humanतावाद और समतावाद का History Reseller है परन्तु अन्य विद्वानों के According पश्चिमीकरण सांस्कृतिक और ज्ञानात्मक उपनिवेशवाद की प्रक्रिया है, और वैयक्तिक असांस्कृतिक और असार्वभौम राज्य का Single नमूना है।
पश्चिमीकरण ने नए आधारों पर Single अखिल-Indian Customer संस्कृति के पुन:प्रादुर्भाव में योगदान दिया है। पश्चिमीकरण का प्रभाव शिक्षा, कानून, विज्ञान और तकनीकी राजनीतिकरण के नए प्रकारों, नगरीकरण औद्योगीकरण, प्रेस और यातायात और संचार के साधनों के क्षेत्रों में हुआ है। इन संस्थापक केन्द्रों के प्रादुर्भाव को योगेन्द्र सिंह ने सांस्कृतिक आधुनिकीकरण की प्रक्रिया की संज्ञा दी है। पश्चिमी प्रभाव द्वारा, आधुनिकीकरण की Single महान् परम्परा उत्पन्न हुई है। निश्चय ही, इसके कारण देशष परम्परा और पश्चिमी परम्परा के बीच संघर्ष की समस्या बन गई है। Indian Customer समाज के अभिजात अनुभागों के सन्दर्भ में इन दोनों परम्पराओं में संश्लेषण पाया जाता है।
आरम्भिक अवस्था में पश्चिमी प्रभाव परिधीय और स्थानीकृत था क्योंकि यह कोलकाता, बम्बई और मद्रास शहरों में मध्यम वर्गीय लोगों तक सीमित रहा। शैक्षिक संस्थाएं भी इन तीन शहरों में केन्द्रित थीं। अंग्रेजी शिक्षा का दोहरा प्रभाव पड़ा: (1) शिक्षित लोगों में पश्चिमी मूल्यों और विचारधाराओं का अंतर्निवेशन, (2) सामाजिक और सांस्कृतिक सुधार आन्दोलनों का आरोह। सुधार आन्दोलनों के बारे में हम Single अन्य अमयाय में Discussion करेंगे। शिक्षा भी उच्च और मध्यम वर्गीय शहरी लोगों तक सीमित थी। ब्रिटिश शासन ने Single नई चेतना और मूल्यों की संCreation की Creation की। योगेन्द्र सिंह के According पश्चिमीकरण के प्रभाव हैं:
- Single सर्वव्यापी विधि अधि-संCreation का विकास
- शिक्षा प्रसार
- नगरीकरण और औद्योगीकरण
- संचार का वृहद् जाल
- राष्टींयवाद का विकास और समाज का राजनीतिकरण।
सम्पूर्ण देश में इन तन्वों से आधुनिकीकरण में योगदान प्राप्त हुआ। न्यायपालिका, न्यायालय, कानून (बाल विवाह, बाल हन्या और सती इन्यादि को रोकने के लिए), विधि आयोग बनाए गए और विवाह, परिवार, तलाक, दनकग्रहण, सम्पत्ति हस्तान्तरण, अल्पसंख्यक, भूमि अधिकार, लेन-देन, व्यापार, उद्योग और श्रम आदि के बारे में नए कानून लागू किए।
शिक्षा पर प्रभाव
अंग्रेजी शिक्षा और भाषा को बढ़ावा देने के लिए 1835 की मैकाले की नीति, शिक्षा के प्रसार में मिशनों की भूमिका और 1882 का First शिक्षा आयोग ब्रिटिश काल की मुख्य विशेषताएं हैं। ब्रिटिश नीति के अन्र्तगत उच्च शिक्षा पर अधिक बल दिया गया था। प्राथमिक और द्वितीयक स्तरों पर शिक्षा की अवहेलना की गई थी। पाठयक्रम सामग्री और शिक्षण संस्थाओं के प्रबंध के स्नदर्भ में आज भी भारत ब्रिटिश नमूने का अनुकरण कर रहा है। 1948 और 1964 के शिक्षा आयोगों ने जो क्रमश: डा. रास. राधाकृष्णन और डा. डी. एस. कोठारी की अध्यक्षता में बने थे, इच्छित फलपूर्ति नहीं की है। लेकिन पिछले कुछ वर्षो के दौरान कुछ विश्वविद्यालयों में समाज विज्ञानों और Humanिकी में पाठयक्रम का देशीकरण Reseller गया है।
भारत में नगरीकरण और औद्योगीकरण प्राय: सहवर्ती हैं। अनेक अध्ययनों से ज्ञात हुआ है कि ये दोनों प्रक्रियाएं को सबल करती हैं। विकसित देशों की तुलना में भारत में नगरीकरण Single धीमी प्रक्रिया है। पिफर भी नगरीय जनसंख्या में वृण् िहै। शहरों में All प्रमुख संसाधनान्मक सुविधाओं और उच्च प्रशिक्षित व्यवसायियों का केन्द्रीकरण पाया जाता हैं यह प्रक्रिया विभिन्न शहरों और क्षेत्रों में असमान रही है, और यही बात औद्योगीकरण के बारे में लागू होती है। भूतकाल में औद्योगीकरण के तीव्र विकास में अनेक संस्थान्मक कारक बाधक रहे हैं। रिचार्ड लैम्बर्ट, मिल्टन सिंगर और एन. आर. सेठ के अध्ययनों से पता चलता है कि जाति, संयुक्त परिवार और अन्य परम्परात्मक मूल्य कारखानों और औद्योगिक संगठनों में सामाजिक संबंधों के स्वस्थ प्रतिमान में बाधित नहीं हुए हैं।
यातायात संचार के साधनों से वास्तव में नए सामाजिक और सांस्कृतिक सम्पर्को के युग का सूत्रपात हुआ है। नए समाचार पत्र और विशेषकर क्षेत्रीय भाषाओं में, डाक सेवाएं, चलचित्र और रेडियो आदि All ब्रिटिश द्वारा प्रारम्भ किए थे। यही बात रेलवे, और हवाई यातायात के बारे में सही है। इन नई युक्तियों ने जाति, पवित्र-अपवित्र की अक्रमारणाओं और प्रवसन में आने वाली कठिनाइयों को कमजोर बनाया। नि:संकोच स्थानिक गतिशीलता इन सामानों की उपलब्धि के कारण अवश्य बढ़ी, परन्तु फ्मानसिक गतिशीलता, की जीवन का Single भाग बन गई। अंत में कह सकते हैं कि ब्रिटिश शासन के परिणामत: राष्टींय और सामाजिक चेतना आई। King राममोहन राय और महान्मा गांधी ने ब्रिटिश परम्परा के अनेक Humanतावादी तन्वों को अपनाया और उनको राष्टींय भावनाओं तथा राजनैतिक चेतना को उभारने के लिए उपयोग में लिया। पश्चिमी दार्शनिकों के साम्प्रदायिकता, धर्मनिरपेक्षवाद और राष्टंवाद के विचार बहुत लाभदायक सिद्ध हुए।
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