मीमांसा दर्शन के मुख्य आचार्य तथा उनकी Creationएँ
मीमांसा दर्शन के मुख्य आचार्य तथा उनकी Creationएँ
अनुक्रम
आस्तिक दर्शनों में मीमांसा अग्रगण्य है। Indian Customer विचारधारा के According वेद को प्रमाण मानने वाला ही आस्तिक कहा जाता है। अस्तिक दर्शन भी नास्तिक के समान ही छ: है जिन्हें षड्दर्शन कहा जाता है। इन षड्दर्शनों में मीमांसा का स्थान सर्वोपरि है, क्योंकि इसमें वैदिक वाक्यों को पूर्णत: प्रमाण माना गया है। वेद के दो भाग हैं- कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड। कर्मकाण्ड पूर्व मीमांसा का विषय है और ज्ञानकाण्ड उत्त मीमांसा (वेदान्त) का प्रतिपाद्य विषय है। पूर्व मीमांसा में वैदिक कर्मकाण्ड की पुष्टि की गयी है तथा वैदिक मंत्रों की यागपरक व्याख्या उपस्थित की गयी है। यागविधान का सविस्तार वर्णन ब्राह्म्रण गं्रथों में प्राप्त होता है। परन्तु जैसे-जैसे वैदिक कर्मकाण्ड का प्रचार होता गया वैसे यागविधान की समृद्वि भी होती गयी और कर्मकाण्ड सम्बन्धी अनेक समस्यायें भी उपस्थित होती गयी। उदाहरणार्थ-क्या All वैदिक वाक्यों का सम्बन्ध याग से है? याग के अनुष्ठान के लिये किन अर्हताओं की Need है? किस क्रिया का अनुष्ठान कौन व्यक्ति करेगा? कौन सी क्रिया मुख्य है और कौन उसकी अडंगेभूत? अपूर्ण विधानवाले यागों के विधानकी पूर्ति का क्या उपाय है, इत्यादि प्रश्नों का उचित उत्तर मीमांसा में दिया गया है। संक्षेप में, हम कह सकते हैं कि मीमांसा दर्शन के दो मुख्य विषय हैं- कर्मकाण्ड की विधियों में असंगति दूर करने तथा संगति उत्पन्न करने के लिए व्याख्या पद्वति का निर्माण करना और कर्मकाण्ड के मूलभूत सिद्वान्तों का तर्कनिष्ठ प्रतिपादन करना।
मीमांसा दर्शन के मुख्य आचार्य तथा उनकी Creationएँ
जैमिन के पूर्व बादरि, आत्रेय, कामु, कायन और ऐतशायनु आदि मीमांसकों का History Reseller जाता है, परन्तु इन आचार्यों की कृतियां प्राप्त नहीं। अत: यह निश्चित Reseller से नहीं कहा जा सकता है कि मीमांसा सूत्र पर इन आचार्यों का कितना प्रभाव है। इतना आवश्य है कि मीमांसा-सूत्र पर पूर्वाचार्यो का प्रभाव है। प्रामाणिक Reseller से मीमांसा दर्शन के History में First आचार्य, जेमिनि (300 वि0 पू0) का नाम अग्रण्य है। इनके ग्रन्थ का नाम मीमांसा -सूत्र या जैमिनी-सूत्र है। मीमांसा-सुत्र में बारह अध्याय हैं, अत: इसे द्वादशलक्षणी कहा जाता है। मीमांसा सूत्र-सूत्र ग्रंथों में पहला ग्रन्थ है। इसकी सूत्र संख्या 2642 है जो षड्दर्शनों में पांच दर्शनों के बराबर है। मीमांसासूत्रों पर कोैन-कोैन से वृत्तिकार हुए, यह प्रश्न विवादास्पद है। कुछ लोग भवदास को और कुछ लोग उपवर्ष को वृत्तिकार मानते है परन्तु इनका कुल प्रामाणिक History नहीं मिलता। जैमिनि-सूत्रों पर शबर स्वामी का विज्ञद् भाष्य है जिसे शाबर भाष्य कहते हैं। यह ग्रन्थ शंकरभाष्य, प्रतजलि के महाभाष्य आदि के समान ही महत्वपूर्ण समझा जाता है। शबर स्वामी के बाद मीमांसा के History में तीन आचार्यो का नाम अत्यन्त महत्वपूर्ण माना जाता है- कुमारिल भट्ट, प्रभाकर और मुरारि मिश्र। इन्हें भट्ट -मत और गुरू-मत कहते हैं। कुमारिल भट्ट का समय लगभग 600 ई0 माना जाता है। बौद्वों को Defeat कर वैदिक धर्म की रक्षा करने में कुमारिल भट्ट अद्वितीय थे। इन्होंने शाबर भाष्य कर तीन ग्रन्थ लिखे- श्लोकवार्तिक, तन्त्रवार्तिक और दुष्टीका। इन तीनों ग्रन्थों में शाबरभाष्य के विभिन्न अगो की व्याख्या है। श्लोकवार्तिक में शाबरभाष्य के First पाद (तर्कपाद) की व्याख्या है। तन्त्रवार्तिक में First अध्याय के अवशिष्ट तीन पाद, द्वितीय अध्याय और तृतीय अध्याय की व्याख्या है। दुष्टीका में शांकरभाष्य के अवशिष्ट अन्तिम नौ अध्यायों की व्याख्या है। कुमारिल भट्ट ने बड़े कोैशल से ग्रन्थों का खण्डन Reseller है तथा वैदिक-मत का मण्डन Reseller है। स्वयं कुमारिल अपने ग्रन्थ की भूमिका में कहते हैं-मीमांसा शास्त्र लोकायती (भौतिक वादी अथवा नास्तिक) लोगों के अधिकार में आ गया था, मैने उसका उद्वार करके आस्तिक पथ पर लाने का प्रयत्न Reseller है। कुमारिल्ल भट्ट के टीकाकारों में पार्थसारथि मिश्र, माधवाचार्य और खण्डदेव का नाम महत्वपूर्ण है।
पार्थसारभिमिश्र के ग्रन्थ
(क) तर्करत्न- यह दुष्टीका की व्याख्या है, न्यायरत्नाकर यह श्लोकवाित्र्तक की टीका है, न्यायरत्नमाला- इसमें स्वत: प्रामाण्यवादका समर्थन है।
(ख) माधवाचार्य- इन्होंने न्यायमालाविस्तर नामक अत्यन्त लोकप्रिय ग्रन्थ लिखा है।
(ग) खण्डदेव मिश्र- सन्यास ग्रहण करने के बाद इनका नाम श्रीरेन्द्र यतीन्द्र पड़ा। भट्ट -कौस्तुम, भाट्ट दीपिका आदि इनके ग्रन्थ हैं।
(घ) प्रभाकर- ये कुमारिल भट्ट के शिष्य थे। इनके गुरू ने इनकी अलोकिक कल्पनाशक्ति देखकर इन्हें ‘गुरू’ की उपाधि प्रदान की। अत: इनका मत गुरूमत कहलाता है। इन्होंने अपने स्वतंत्र मत की स्थापना के लिए शाबरभाष्य पर दो महत्वपूर्ण टीकायें लिखा है जिन्हें ‘वृहती’ और ‘लध्वी’ (अप्रकाशित) कहते हैं। इनके सम्प्रदाय के आचार्यों में शालिकनाथ का नाम महत्वपूर्ण है। शालिकनाथ ने तीन ग्रन्थ लिखे- ऋतुविमला- यह वृह्ती की व्याख्या है। प्रकरण-पतंजली-यह प्रभाकर सम्मत ज्ञान मीमांसा का प्रतिपादन करने वाला ग्रन्थ है। परिशिष्ट- यह शाबरभाष्य की संक्षिप्त व्याख्या है।
(ड़) मुरारी मिश्र- प्रभाकर और कुमारिल के समान ही इन्होंने मीमांसा क्षेत्र में Single नये मत का प्रतिपादन Reseller जिसे मूरारि-मत कहते हैं। इनके ग्रन्थ हैं- ‘त्रिपादी नीतिनयन, और Singleादशाध्यायाधिकरण’ आदि। इसके अतिरिक्त भी मीमांसा दर्शन पर अनेक कृतियां हैं, जैसे वाचस्पतिमिश्र की न्यायकणिका, सुचरित ‘मिश्र मीमांशिका,’ सीमेश्वर भट्ट की ‘न्यायसुधा’, भवनाथ का ‘न्याविवेक’ रामकृष्ण भट्ट की ‘युक्तिस्नेहपूरणी’ सोमनाथ की ‘मयूखमलिका’, वेंकटदीक्षित का ‘वार्तिकाभरण’, उप्पदीक्षित को ‘उपक्रम-पराक्रम’, आपदेव का ‘मीमांसा न्याय प्रकाश,’ लोगक्षिभास्कर का Meansसंग्रह, केशव का ‘मीमांसा’ बालप्रकाश, नारायण का ‘मानमेयादय’ आदि।
मीमांसा के सिद्वान्त
Indian Customer दर्शन की आस्तिक परम्परा में मीमांसा का सर्वोपरि महत्व माना गया है। इसका प्रमुख कारण यह है कि मीमांसा सबसे बड़ा आस्तिक दर्शन माना जाता है। Indian Customer -दर्शन के विभाजन के समय प्रारम्भ में हमने विचार Reseller है कि आस्तिक वही है जो वेद की प्रामाणिकता स्वीकार करता हो तथा इसके विपरीत, वेद को अप्रमाण मानने वाला ही नास्तिक (नास्तिको वेद निन्दक:-मनु) है। वेद को बिल्कुल प्रमाण माननेवाला केवल यही दर्शन है, अत: मीमांसा सर्वोपरि आस्तिक दर्शन है। सांख्य योग, न्याय वेशेषिक आदि भी वेद की प्रमाण मानते हैं तथा आस्तिक भी हैं परन्तु मीमांसा के समान नहीं। इससे मीमांसा का महत्व स्पष्ट हो जाता है। मीमांसा में भेद को प्रमाण मानकर वैदिक विषय तथा मंत्रों की विस्मृत व्याख्या की गयी है। वेद का प्रतिपाद्य विषय धर्म है जिसके लिए यज्ञ आदि का विद्यान है। मीमांसा का मुख्य विषय भी धर्म है। ‘‘धर्माख्य विषयं वक्तु मीमांसाया: प्रयोजनम्’’ परन्तु धर्म तो अतीन्द्रिय है, इसका ज्ञान कैसे हो , इसके प्रमाण क्या हैं? इन विषयों का वर्णन मीमांसा में अधिक है। यद्यपि मीमांसकों का मन्तव्य तो धर्म की व्याख्या करना है, परन्तु इसकी व्याख्या के लिए मीमांसा प्रभा और प्रमाण की पर्याप्त Discussion करते है।। सम्भवत: प्रभा और प्रमाण का इतना पुराना विवेचन तो न्याय के बाद मीमांसा में ही है, अन्यत्र नही। इस प्रकार मीमांसा का महत्व धर्म की व्याख्या तथा ज्ञान सिद्वान्त दोनों के लिए है।