सामाजिक शोध का Means, उद्देश्य And चरण

सामाजिक शोध के Means को समझने के पूर्व हमें शोध के Means को समझना आवश्यक है। मनुष्य स्वभावत: Single जिज्ञाशील प्राणी है। अपनी जिज्ञाशील प्रकृति के कारण वह समाज वह प्रकृति में घटित विभिन्न घटनाओं के सम्बन्ध में विविध प्रश्नों को खड़ा करता है। और स्वयं उन प्रश्नों के उत्तर ढूढने का प्रयत्न भी करता है। और इसी के साथ प्रारम्भ होती है। सामाजिक अनुसंधान के वैज्ञानिक प्रक्रिया, वस्तुत: अनुसन्धान का उद्देश्य वैज्ञानिक प्रक्रियाओं के प्रयोग द्वारा प्रश्नों के उत्तरों की खोज करना है। स्पष्ट है कि, किसी क्षेत्र विशेष में नवीन ज्ञान की खोज या पुराने ज्ञान का पुन: परीक्षण अथवा Second तरीके से विश्लेषण कर नवीन तथ्यों का उद्घाटन करना शोध कहलाता है। यह Single निरन्तर प्रक्रिया है, जिसमें तार्किकता, योजनाबद्धता And क्रमबद्धता पायी जाती है। जब यह शोध सामाजिक क्षेत्र में होता है तो उसे सामाजिक शोध कहा जाता है। प्राकृतिक And जीव विज्ञानों की तरह सामाजिक शोध भी वैज्ञानिक होता है क्योंकि इसमें वैज्ञानिक विधियों की सहायता से निष्कर्षों पर पहुँचा जाता है। वैज्ञानिक विधियों से यहाँ आशय मात्र यह है कि किसी भी सामाजिक शोध को पूर्ण करने के लिए Single तर्कसंगत शोध प्रक्रिया से गुजरना होता है। शोध में वैज्ञानिकता का जहाँ तक प्रश्न है, इस पर भी विद्वानों के अलग-अलग मत हैं। रीड (1995:2040) का मानना है कि, ‘‘शोध हमेशा वह नही होता जिसे आप ‘वैज्ञानिक’ कह सकें। शोध कभी-कभी उपयोगी जानकारी Singleत्र करने तक सीमित हो सकता है। बहुधा ऐसी जानकारी किसी कार्य विशेष का नियोजन करने और महत्वपूर्ण निर्णयों को लेने हेतु बहुत महत्वपूर्ण होती है। इस प्रकार के शोध कार्य में Singleत्र की गयी सामग्री तदन्तर सिद्धान्त निर्माण की ओर ले जा सकती है।’’

सामाजिक शोध को और भी स्पष्ट करने के लिए हम कुछ विद्वानों की परिभाषाओं का History कर सकते हैं। पी.ण्वी. यंग (1960:44) के According, ‘‘हम सामाजिक अनुसंधान को Single वैज्ञानिक कार्य के Reseller में परिभाषित कर सकते हैं, जिसका उद्देश्य तार्किक And क्रमबद्ध पद्धतियों के द्वारा नवीन तथ्यों की खोज या पुराने तथ्यों को, और उनके अनुक्रमों, अन्तर्सम्बन्धों, कारणों And उनको संचालित करने वाले प्राकृतिक नियमों को खोजना है।’’

सी.ए. मोज़र (1961 :3) ने सामाजिक शोध को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि, ‘‘सामाजिक घटनाओं And समस्याओं के सम्बन्ध में नये ज्ञान की प्राप्ति हेतु व्यवस्थित अन्वेषण को हम सामाजिक शोध कहते हैं।’’ वास्तव में देखा जाये तो, ‘सामाजिक यथार्थता की अन्तर्सम्बन्धित प्रक्रियाओं की व्यवस्थित जाँच तथा विश्लेषण सामाजिक शोध है।’ स्पष्ट है कि विद्वानों ने सामाजिक शोध को अपनी-अपनी तरह से परिभाषित Reseller है। उन All की परिभाषाओं के आधार पर निष्कर्ष के Reseller में कहा जा सकता हैं कि सामाजिक शोध सामाजिक जीवन के विविध पक्षों का तार्किक And व्यवस्थित अध्ययन है, जिसमें कार्य-कारण सम्बन्धों के आधार पर व्याख्या की जाती है। सामाजिक शोध की प्रासंगिकता तभी है जब किसी निश्चित सैद्धान्तिक And अवधारणात्मक संदर्भ संCreation के अन्तर्गत उसे सम्पादित Reseller जाये। सामाजिक अनुसन्धानकर्त्ता किसी अध्ययन समस्या से सम्बन्धित दो आधारभूत शोध प्रश्नों को उठाता है- (प) क्या हो रहा है? और (पप) क्यों हो रहा है? अध्ययन समस्या का ‘क्या हो रहा है?’ प्रश्न का यदि कोर्इ उत्तर खोजता है और उसे देता है तो उसका शोध कार्य विवराणात्मक शोध की श्रेणी में आता है। ‘क्यों हो रहा है?’ ‘का उत्तर देने के लिए उसे कारणात्मक सम्बन्धों की खोज करनी पड़ती है। इस प्रकार का शोध कार्य व्याख्यात्मक शोध कार्य होता है जो कि सिद्धान्त में परिणत होता है। यह सामाजिक घटनाओं के कारणों पर प्रकाश डालता है तथा विविध परिवत्र्यों के मध्य सम्बन्ध स्पष्ट करता है।

सामाजिक शोध का उद्देश्य 

सामाजिक शोध का प्राथमिक उद्देश्य चाहे वह तात्कालिक हो या दूरस्थ-सामाजिक जीवन को समझना और उस पर अधिक नियंत्रण पाना है। इसका तात्पर्य यह नहीं समझा जाना चाहिए कि सामाजिक शोधकर्ता या समाजशास्त्री कोर्इ समाजसुधारक, नैतिकता का प्रचार-प्रसार करने वाला या तात्कालिक सामाजिक नियोजनकर्ता होता है। बहुसंख्यक लोग समाजशास्त्रियों से जो अपेक्षा रखते हैं, वह वास्तव में समाजशास्त्र के विषय क्षेत्र के बाहर की होती है। इस सन्दर्भ में पी.वी. यंग (1960 : 75) ने उचित ही लिखा है कि ‘सामाजिक शोधकर्ता न तो व्यावहारिक समस्याओं और न तात्कालिक सामाजिक नियोजन, उपचारात्मक उपाय, या सामाजिक सुधार से सम्बन्धित होता है। वह प्रKingीय परिवर्तनों और प्रKingीय प्रक्रियाओं के परिष्करण से सम्बन्धित नही होता। वह अपने को जीवन और कार्य, कुशलता और कल्याण के पूर्व स्थापित मापदण्डों द्वारा निर्देशित नहीं करता है और सामाजिक घटनाओं को सुधार की दृष्टि से इन मापदण्डों के परिपे्रक्ष्य में मापता भी नहीं है। सामाजिक शोधकर्ता की मुख्य रुचि सामाजिक प्रक्रियाओं की खोज और विवेचन, व्यवहार के प्रतिमानों, विशिष्ट सामाजिक घटनाओं और सामान्यत: सामाजिक समूहों में लागू होने वाली समानताओं And असमानताओं में होती है।

सामाजिक शोध के कुछ अन्य उद्देश्य हैं, पुरातन तथ्यों का सत्यापन करना, नवीन तथ्यों को उद्घाटित करना परिवत्र्यों-Meansात विभिन्न चरों के बीच कार्य-कारण सम्बन्ध ज्ञात करना, ज्ञान का विस्तार करना, सामान्यीकरण करना तथा प्राप्त ज्ञान के आधार पर सिद्धान्त का निर्माण करना है। सामाजिक शोध से प्राप्त सूचनाएँ सामाजिक नीति निर्माण अथवा जीवन के गुणवत्ता में सुधार अथवा सामाजिक समस्याओं के समाधान में सहायक हो सकती हैं। व्यावहारिक दृष्टि से देखा जाय तो इसे उपयोगितावादी कहा जा सकता है।

गुडे तथा हाट (1952) ने सामाजिक अनुसंधान को दो भागों- सैद्धान्तिक And व्यवहारिक में रखते हुए इसके उद्देश्यों को अलग-अलग स्पष्ट Reseller है। उनका कहना है कि सैद्धान्तिक सामाजिक अनुसन्धान का मुख्य उद्देश्य नवीन तथ्यों को ज्ञात करना, सिद्धान्त की जाँच करना, अवधारणात्मक स्पष्टीकरण में सहायक होना तथा उपलब्ध सिद्धान्तों को Singleीकृत करना है। व्यावहारिक अनुसन्धान का उद्देश्य व्यावहारिक समस्याओं के कारणों को ज्ञात करना और उनके समाधानों का पता लगाना नीतिनिर्धारण हेतु आवष्यक सुधार प्रदान करना होता है।

सामाजिक शोध के चरण 

सामाजिक शोध की प्रकृति वैज्ञानिक होती है। वैज्ञानिक प्रकृति से तात्पर्य यह है कि इसमें समस्या विशेष का अध्ययन Single व्यवस्थित पद्धति के According Reseller जाता है। अध्ययन के निष्कर्ष पर इस प्रकार पहुँचा जाता है कि उसके वैषयिकता के स्थान पर वस्तुनिष्ठता होती है। शोध की सम्पूर्ण प्रक्रिया विविध सोपानों से गुजरती है। इन्हें सामाजिक शोध के चरण भी कहा जाता है। Single चरण से Second चरण में प्रवेश करते हुए अध्ययन को आगे बढ़ाया जाता है। सामाजिक शोध में कितने चरण होते हैं, इसमें विद्वानों में Singleमत्य नही है। इसी तरह, शोध में चरणों का नामकरण भी विद्वानों ने अलग-अलग तरह से Reseller है। शोध के बीच के कुछ चरण आगे-पीछे हो सकते हैं, उससे शोध की वैज्ञानिकता पर कोर्इ दुष्प्रभाव नही पड़ता है। हम यहाँ First कुछ विद्वानों द्वारा बताये शोध के चरणों का History करेंगे, तत्बाद सामाजिक शोध के महत्वपूर्ण चरणों की संक्षिप्त विवेचना करेंगे।

स्लूटर (1926 :5) ने सामाजिक शोध के पन्द्रह चरणों का History Reseller है, जो इस प्रकार हैं-

  1. शोध विषय का चुनाव।
  2. शोध समस्या को समझने के लिए क्षेत्र सर्वेक्षण।
  3. सन्दर्भ ग्रन्थ सूची का निर्माण।
  4. समस्या को परिभाषित या निर्मित करना।
  5. समस्या के तत्वों का विभेदीकरण और Resellerरेखा निर्माण।
  6. आँकड़ों या प्रमाणों से प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष सम्बन्धों के आधार पर समस्या के तत्वों का वर्गीकरण।
  7. समस्या के तत्वों के आधार पर आँकड़ों या प्रमाणों का निर्धारण।
  8. वांछित आँकड़ों या प्रमाणों की उपलब्धता का अनुमान लगाना।
  9. समस्या के समाधान की जाँच करना।
  10. आँकड़ों तथा सूचनाओं का संकलन।
  11. आँकड़ों को विश्लेषण के लिए व्यवस्थित And नियमित करना।
  12. आँकड़ों And प्रमाणों का विश्लेषण And विवेचन।
  13. प्रस्तुतीकरण के लिए आँकडों को व्यवस्थित करना।
  14. उद्धरणों, सन्दर्भों And पाद् टिप्पणीयों का चयन And प्रयोग।
  15. शोध प्रस्तुतीकरण के स्वReseller और शैली को विकसित करना।

इग्नु (इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय) की पाठ्यपुस्तक (डैव् 002 शोध पद्धतियाँ और विधियाँ, 2006, पृ. 32) में सामाजिक शोध के चरणों को निम्नवत् प्रस्तुत Reseller गया है।

शोध समस्या को परिभाषित करना।

 शोध विषय पर प्रकाशित सामग्री की समीक्षा करना। 

अध्ययन के व्यापक दायरे और इकार्इ को तय करना। 

प्राकल्पना का सूत्रीकरण और परिवर्तियों को बताना। 

शोध विधियों और तकनीकों का चयन।

 शोध का मानकीकरण 

मार्गदश्र्ाी अध्ययन/सांख्यकीय व अन्य विधियों का प्रयोग 

↓ 

शोध सामग्री इकठ्ठा करना।

↓ 

सामग्री का विश्लेषण करना 

व्याख्या करना और रिपोर्ट लिखना 

राम आहूजा (2003:125) ने मात्र छ: चरणों का History Reseller है, जो कि निम्नवत् हैं-

  1. अध्ययन समस्या का निर्धारण।
  2. शोध प्रारुप तय करना।
  3. निदर्शन की योजना बनाना (सम्भाव्यता या असम्भाव्यता अथवा दोनों)
  4. आँकड़ा संकलन
  5. आँकड़ा विश्लेषण (सम्पादन, संकेतन, प्रक्रियाकरण And सारणीयन)।
  6. प्रतिवेदन तैयार करना।

सी. आर. कोठारी (2005:12) ने शोध प्रक्रिया के ग्यारह चरणों का History Reseller है, जो निम्नवत् हैं-

  1. शोध समस्या का निर्माण।
  2. गहन साहित्य सर्वेक्षण
  3. उपकल्पना का निर्माण
  4. शोध प्रारुप निर्माण
  5. निदर्शन प्रारुप निर्धारण
  6. आँकड़ा संकलन
  7. प्रोजेक्ट का सम्पादन
  8. आँकड़ों का विश्लेषण
  9. उपकल्पनाओं का परीक्षण।
  10. सामान्यीकरण और विवेचन, और
  11. रिपोर्ट तैयार करना या परिणामों का प्रस्तुतीकरण यानि निष्कर्षों का औपचारिक लेखन।

शोध के उपरोक्त विविध चरणों को हम निम्नांकित Reseller से सीमित कर सामाजिक शोध क्रमश: कर सकते हैं।

First चरण- 

शोध प्रक्रिया में सबसे पहला चरण समस्या का चुनाव या शोध विषय का निर्धारण होता है। यदि आपको किसी विषय पर शोध करना है तो स्वाभाविक है कि First आप यह तय करेंगे कि किस विषय पर कार्य Reseller जाये। विषय का निर्धारण करना तथा उसके सैद्धान्तिक And अवधारणात्मक पक्ष को स्पष्ट करना शोध का First चरण होता है। शोध विषय का चयन सरल कार्य नही होता है, इसलिए ऐसे विषय को चुना जाना चाहिए जो आपके समय और साधन की सीमा के अन्तर्गत हो तथा विषय न केवल आपकी रुचि का हो अपितु समसामयिक हो। इस तरह आपके द्वारा चयनित Single सामान्य विषय वैज्ञानिक खोज के लिए आपके द्वारा विशिष्ट शोध समस्या के Reseller में निर्मित कर दिया जाता है। शोध विषय के निर्धारण और उसके प्रतिपादन की दो अवस्थाएँ होती हैं- Firstत: तो शोध समस्या को गहन And व्यापक Reseller से समझना तथा द्वितीय उसे विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण से प्रकारान्तर में Meansपूर्ण Wordों में प्रस्तुत करना।

अक्सर शोध छात्रों द्वारा यह प्रश्न Reseller जाता है कि किस विषय पर शोध करें। इसी तरह अक्सर शोध छात्रों से यह प्रश्न Reseller जाता है कि आपने चयनित विषय क्यों लिया। दोनों ही स्थितियों से यह स्पष्ट है कि शोध के विषय या अध्ययन समस्या का चुनाव महत्वपूर्ण चरण है, जिसका स्पष्टीकरण जरूरी है, लेकिन अक्सर ऐसा होता नहीं है। अनेकों शोध छात्र अपने शोध विषय के चयन का स्पष्टीकरण समुचित तरीके से नहीं दे पाते हैं। विद्वानों ने अपने शोध विषय के चयन के तर्कों पर काफी कुछ लिखा है। हम यहाँ उनके तर्कों को प्रस्तुत नहीं करेंगे अपितु मात्र बनार्ड (1994) के उस सुझाव का History करना चाहेगें जिसमें उसने शोधकर्ताओं को यह सुझाव दिया है कि वे स्वयं से निम्नांकित प्रश्न पूछें-

  1. क्या आपको अपने शोध का विषय रूचिकर लगता है? 
  2. क्या आपके शोध विषय का वैज्ञानिक अध्ययन सम्भव है? 
  3. क्या आपके पास शोध कार्य को सम्पादित करने के लिए पर्याप्त संसाधन है? 
  4. क्या शोध प्रश्नों को पूछने अथवा शोध की कुछ विधियों And तकनीकों के प्रयोग से आपके समक्ष किसी प्रकार की नीतिगत अथवा नैतिक समस्या तो नहीं आयेगी? 
  5. क्या आपके शोध का विषय सैद्धान्तिक Reseller से महत्वपूर्ण और रोचक है? 

निश्चित Reseller से उपरोक्त प्रश्नों पर तार्किक तरीके से विचार करने पर उत्तम शोध समस्या का चयन सम्भव हो सकेगा।

द्वितीय चरण-

यह तय हो जाने के बाद कि किस विषय पर शोध कार्य Reseller जायेगा, विषय से सम्बन्धित साहित्यों (अन्य शोध कार्यों) का सर्वेक्षण (अध्ययन) Reseller जाता है। इससे तात्पर्य यह है कि चयनित विषय से सम्बन्धित समस्त लिखित या अलिखित, प्रकाशित या अप्रकाशित सामग्री का गहन अध्ययन Reseller जाता है, ताकि चयनित विषय के All पक्षों की जानकारी प्राप्त हो सके। चयनित विषय से सम्बन्धित सैद्धान्तिक And अवधारणात्मक साहित्य तथा आनुभविक साहित्य का अध्ययन अत्यन्त महत्वपूर्ण And आवश्यक है। इस पर ही शोध की समस्या का वैज्ञानिक And तार्किक प्रस्तुतीकरण निर्भर करता है। कभी-कभी यह प्रश्न उठता है कि सम्बन्धित साहित्य का सर्वेक्षण शोध की समस्या के चयन के पूर्व होना चाहिए कि बाद। ऐसा कहा जाता है कि, ‘शोध समस्या को विद्यमान साहित्य के प्रारम्भिक अध्ययन से पूर्व ही चुन लेना बेहतर रहता है।’ (इग्नु 2006 : पृ. 33) यहाँ यह भी प्रश्न उठ सकता है कि बिना 7 विषय के बारे में कुछ पढ़े कोर्इ कैसे अध्ययन समस्या का निर्धारण कर सकता है? विशेषकर तब जब आप यह अपेक्षा रखते हैं कि शोधकर्ता शोध के First चरण में ही अध्ययन की समस्या को निर्धारित निर्मित, And परिभाषित करे तथा उसके शोध प्रश्नों And उद्देश्यों को अभिव्यक्त करे। समस्या का चयन And उसका निर्धारण शोधकर्ता के व्यापक ज्ञान के आधार पर हो सकता है। तत्बाद उसे उक्त विषय से सम्बन्धित सैद्धान्तिक And अवधारणात्मक तथा विविध विद्वानों द्वारा किये गये आनुभविक अध्ययनों से सम्बन्धित सामग्री का अध्ययन करना चाहिए। ऐसा करने से उसे यह स्पष्ट हो जाता है कि सम्बन्धित विषय पर किन-किन दृष्टियों से, किन-किन विद्वानों ने विचार Reseller है और विविध अध्ययनों के उद्देश्य, उपकल्पनाएं, कार्यविधिकी क्या-क्या रही है।’’ साथ ही साथ विविध विद्वानों के क्या निष्कर्ष रहे हैं। इतना ही नहीं उन विद्वानों द्वारा झेली गयी समस्याओं या उसके द्वारा भविष्य के अध्ययन किये जाने वाले सुझाये विषयों की भी जानकारी प्राप्त हो जाती है। ये समस्त ज्ञान And जानकारियाँ किसी भी शोधकर्ता के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण होती हैं।

तृतीय चरण- 

सम्बन्धित समस्त सामग्रियों के अध्ययनों के उपरान्त शोधकर्त्ता अपने शोध के उद्देश्यों को स्पष्ट अभिव्यक्त करता है कि उसके शोध के वास्तविक उद्देश्य क्या-क्या हैं। शोध के स्पष्ट उद्देश्यों का होना किसी भी शोध की सफलता And गुणवत्तापूर्ण प्रस्तुतीकरण के लिए आवश्यक है। उद्देश्यों की स्पष्टता अनिवार्य है। उद्देश्यों के आधार पर ही आगे कि प्रक्रिया निर्भर करती है, जैसे कि तथ्य संकलन की प्रविधि का चयन और उस प्रविधि द्वारा उद्देश्यों के ही अनुReseller तथ्यों के संकलन की रणनीति या प्रश्नों का निर्धारण। यह कहना उचित ही है कि, ‘जब तक आपके पास शोध के उद्देश्यों का स्पष्ट अनुमान न होगा, शोध नही होगा और Singleत्रित सामग्री में वांछित सुसंगति नही आएगी क्योंकि यह सम्भव है कि आपने विषय को देखा हो जिस स्थिति में हर परिप्रेक्ष्य भिन्न मुद्दों से Added होता है। उदाहरण के लिए, विकास पर समाजशास्त्रीय अध्ययन में अनेक शोध प्रश्न हो सकते हैं, जैसे विकास में महिलाओं की भूमिका, विकास में जाति And नातेदारी की भूमिका अथवा पारिवारिक And सामुदायिक जीवन पर विकास के समाजिक परिणाम।’ (इग्नु 2006 : 33-34) है।

चतुर्थ चरण- 

शोध के उद्देश्यों के निर्धारण के बाद अध्ययन की उपकल्पनाओं या प्राक्कल्पनाओं को स्पष्ट Reseller से व्यक्त करने की जरुरत है। यह Historyनीय है कि All प्रकार के शोध कार्यों में उपकल्पनाएँ निर्मित नहीं की जाती हैं, विशेषकर ऐसे शोध कार्यों में जिसमें विषय से सम्बन्धित पूर्व जानकारियाँ सप्रमाण उपलब्ध नहीं होती हैं। अत: यदि हमारा शोध कार्य अन्वेषणात्मक है तो हमें वहाँ उपकल्पनाओं के स्थान पर शोध प्रश्नों को रखना चाहिए। इस दृष्टि से यदि देखा जाये तो स्पष्ट होता है कि उपकल्पनाओं का निर्माण हमेशा ही शोध प्रक्रिया का Single चरण नहीं होता है उसके स्थान पर शोध प्रश्नों का निर्माण उस चरण के अन्तर्गत आता है।

उपकल्पना या प्राक्कल्पना से तात्पर्य क्या हैं? और इसकी शोध में क्या Need है? इत्यादि प्रश्नों का उत्पन्न होना स्वाभाविक है।

लुण्डबर्ग (1951:9) के According, ‘‘उपकल्पना Single सम्भावित सामान्यीकरण होता है, जिसकी वैद्यता की जाँच की जानी होती है। अपने प्रारम्भिक स्तरों पर उपकल्पना कोर्इ भी अटकलपच्चू, अनुमान, काल्पनिक विचार या सहज ज्ञान या और कुछ हो सकता है जो क्रिया या अन्वेषण का आधार बनता है।’’

गुड तथा स्केट्स (1954 : 90) के According, ‘‘Single उपकल्पना बुद्धिमत्तापूर्ण कल्पना या निष्कर्ष होती है जो अवलोकित तथ्यों या दशाओं को विश्लेषित करने के लिए निर्मित और अस्थायी Reseller से अपनायी जाती है।’’

गुडे तथा हॉट (1952:56) के Wordों में कहा जाये तो, ‘‘यह (उपकल्पना) Single मान्यता है जिसकी वैद्यता निर्धारित करने के लिए उसकी जाँच की जा सकती है।’’ सरल And स्पष्ट Wordों में कहा जाये तो, उपकल्पना शोध विषय के अन्तर्गत आने वाले विविध उद्देश्यों से सम्बन्धित Single काम चलाऊ अनुमान या निष्कर्ष है, जिसकी सत्यता की परीक्षा प्राप्त तथ्यों के आधार पर की जाती है। विषय से सम्बन्धित साहित्यों के अध्ययन के बाद जब उत्तरदाता अपने अध्ययन विषय को पूर्णत: जान जाता है तो उसके मन में कुछ सम्भावित निष्कर्ष आने लगते हैं और वह अनुमान लगाता है कि अध्ययन में विविध मुद्दों के सन्दर्भ में प्राप्त तथ्यों के विश्लेषण के उपरान्त इस-इस प्रकार के निष्कर्ष आएंगे। ये सम्भावित निष्कर्ष ही उपकल्पनाएँ होती हैं। वास्तविक तथ्यों के विश्लेषण के उपरान्त कभी-कभी ये गलत साबित होती हैं और कभी-कभी सही। उपकल्पनाओं का सत्य प्रमाणिक होना या असत्य सिद्ध हो जाना विशेष महत्व का नहीं होता है। इसलिए शोधकर्त्ता को अपनी उपकल्पनाओं के प्रति लगाव या मिथ्या झुकाव नहीं होना चाहिए Meansात् उसे कभी भी ऐसा प्रयास नहीं करना चाहिए जिससे कि उसकी उपकल्पना सत्य प्रमाणित हो जाये। जो कुछ भी प्राथमिक तथ्यों से निष्कर्ष प्राप्त हों उसे ही हर हालात में प्रस्तुत Reseller जाना चाहिए। वैज्ञानिकता के लिए वस्तुनिष्ठता First शर्त है इसे ध्यान में रखते हुए ही शोधकर्ता को शोध कार्य सम्पादित करना चाहिए। उपकल्पना शोधकर्ता को विषय से भटकने से बचाती है। इस तरह Single उपकल्पना का इस्तेमाल दृष्टिहीन खोज से रक्षा करता है।

उपकल्पना या प्राक्कल्पना स्पष्ट And सटीक होनी चाहिए। वह ऐसी होनी चाहिए जिसका प्राप्त तथ्यों से निर्धारित अवधि में अनुभवजन्य परीक्षण सम्भव हो। यह हमेशा ध्यान में रखना चाहिए कि Single उपकल्पना और Single सामान्य कथन में अन्तर होता है। इस Reseller में यदि देखा जाय तो कहा जा सकता है कि उपकल्पना में दो परिवत्र्यो में से किसी Single के निष्कर्षों को सम्भावित तथ्य में Reseller में प्रस्तुत Reseller जाता है। उपकल्पना परिवत्र्यो के बीच सम्बन्धों के स्वReseller को अभिव्यक्त करती है। सकारात्मक, नकारात्मक और शून्य, ये तीन सम्बन्ध परिवत्र्यो के मध्य माने जाते हैं। उपकल्पना परिवत्र्यो के सम्बन्धों को उद्घाटित करती है। उपकल्पना जो कि फलदायी अन्वेषण का अस्थायी केन्द्रीय विचार होती है (यंग 1960 : 96), के निर्माण के चार स्रोतों का गुडे तथा हाट (1952 : 63-67) ने History Reseller है- (i) सामान्य संस्कृति (ii) वैज्ञानिक सिद्धान्त (ii) सादृश्य (Anology) (iv) व्यक्तिगत अनुभव। इन्हीं चार स्रोतों से उपकल्पनाओं का उद्गम होता है। उपकल्पनाओं के बिना शोध अनिर्दिष्ट (unfocused), Single दैव आनुभविक भटकाव होता है। उपकल्पना शोध में जितनी सहायक है, उतनी ही हानिकारक भी हो सकती है। इसलिए अपनी उपकल्पना पर जरुरत से ज्यादा विश्वास रखना या उसके प्रति पूर्वाग्रह रखना, उसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाना कदापि उचित नही है। ऐसा यदि शोधकर्ता करता है, तो उसके शोध में वैषयिकता समा जायेगी और वैज्ञानिकता का अन्त हो जायेगा।

पंचम चरण- 

समग्र And निदर्शन निर्धारण शोध कार्य का पाँचवा चरण होता है। समग्र का तात्पर्य उन सबसे है, जिन पर शोध आधारित है या जिन पर शोध Reseller जा रहा है। उदाहरण के लिए यदि हम किसी विश्वविद्यालय के छात्रों से सम्बन्धित किसी पक्ष पर शोध कार्य करने 9 जा रहे हैं, तो उस विश्वविद्यालय के समस्त छात्र अध्ययन का समग्र होंगे। इसी तरह यदि हम सामाजिक-आर्थिक विकासों का ग्रामीण महिलाओं पर प्रभाव का अध्ययन कर रहे हैं, तो चयनित ग्राम या ग्रामों की समस्त महिलाएँ अध्ययन समग्र होंगी। चूँकि किसी भी शोध कार्य में समय और साधनों की सीमा होती है और बहुत बड़े और लम्बी अवधि के शोध कार्य में सामाजिक तथ्यों के कभी-कभी Destroy होने का भय भी रहता है, इसलिए सामान्यत: छोटे स्तर (माइक्रो) के शोध कार्य को वरीयता दी जाती है। इस तथाकथित छोटे या लघु अध्ययन में भी All इकार्इयों का अध्ययन सम्भव नही हो पाता है, इसलिए कुछ प्रतिनिधित्वपूर्ण इकार्इयों का चयन वैज्ञानिक आधार पर कर लिया जाता है। इसी चुनी हुर्इ इकार्इयों को निदर्शन कहते हैं। सम्पूर्ण अध्ययन इन्हीं निदर्शित इकार्इयों से प्राप्त तथ्यों पर आधारित होता है, जो सम्पूर्ण समग्र पर लागू होता है। यंग (1960 : 302) के Wordों में कहा जाये तो कह सकते हैं कि, ‘‘Single सांख्यकीय निदर्शन उस सम्पूर्ण समूह अथवा योग का Single अतिलघु चित्र या ‘क्रास सेक्शन’ है, जिससे निदर्शन लिया गया है।’’

समग्र का निर्धारण ही यह तय कर देता है कि आनुभविक अध्ययन किन पर होगा। इसी स्तर पर न केवल अध्ययन इकार्इयों का निर्धारण होता है, अपितु भौगोलिक क्षेत्र का भी निर्धारण होता है। और भी सरलतम Reseller में कहा जाये तो इस स्तर में यह तय हो जाता है कि अध्ययन कहां (क्षेत्र) और किन पर(समग्र) होगा, साथ ही कितनों (निदर्शन) पर होगा।

Historyनीय है कि अक्सर निदर्शन की Need पड़ ही जाती है। ऐसी स्थिति में नमूने के तौर पर कुछ इकार्इयों का चयन कर उनका अध्ययन कर लिया जाता है। ऐसे ‘नमूने’ हम दैनिक जीवन में भी प्राय: प्रयोग में लाते हैं। उदाहरण के लिए चावल खरीदने के लिए पूरे बोरे के चावलों को उलट-पलट कर नहीं देखा जाता है, अपितु कुछ ही चावल के दानों के आधार पर सम्पूर्ण बोरे के चावलों की गुणवत्ता को परख लिया जाता है। इसी तरह भगोने या कुकर में चावल पका है कि नहीं को ज्ञात करने के लिए कुकर के कुछ ही चावलों को उंगलियों मसलकर चावल के पकने या न पकने का निष्कर्ष निकाल लिया जाता है। इस तरह यह स्पष्ट है कि ये जो ‘कुछ ही चावल’ सम्पूर्ण चावल का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, यानि जिनके आधार पर हम उसकी गुणवत्ता या पकने का निष्कर्ष निकाल रहे हैं, निदर्शन (सैम्पल) ही है। गुडे और हाट (1952 रू 209) का कहना है कि, ‘‘Single निदर्शन, जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट है, किसी विशाल सम्पूर्ण का लघु प्रतिनिधि है।’’

निदर्शन की मोटे तौर पर दो पद्धतियाँ मानी जाती हैं- Single को सम्भावनात्मक निदर्शन कहते हैं, और दूसरी को असम्भावनात्मक या सम्भावना-रहित निदर्शन। इन दोनों पद्धतियों के अन्तर्गत निदर्शन के अनेकों प्रकार प्रचलन में हैं। निदर्शन की जिस किसी भी पद्धति अथवा प्रकार का चयन Reseller जाये, उसमें विशेष सावधानी अपेक्षित होती है, ताकि उचित निदर्शन प्राप्त हो सके। कभी-कभी निदर्शन की जरुरत नहीं पड़ती है। इसका मुख्य कारण समग्र का छोटा होना हो सकता है, या अन्य कारण भी हो सकते हैं जैसे सम्बन्धित समग्र या इकार्इ का आँकड़ा अनुपलब्ध हो, उसके बारे में कुछ पता न हो इत्यादि। ऐसी परिस्थिति में सम्पूर्ण समग्र का अध्ययन Reseller जाता है। ऐसा ही जनगणना कार्य में भी Reseller जाता है, इसीलिए इस विधि को ‘जनगणना’ या ‘संगणना’ विधि कहा जाता है, और इसमें समस्त इकार्इयों का अध्ययन Reseller जाता है। इस तरह यह स्पष्ट है कि, सामाजिक शोध में हमेशा निदर्शन लिया ही जायेगा यह जरूरी नहीं होता है, कभी-कभी बिना निदर्शन प्राप्त किये ही ‘संगणना विधि’ द्वारा भी अध्ययन इकार्इयों से प्राथमिक तथ्य संकलित कर लिये जाते हैं।

छठवाँ चरण- 

प्राथमिक तथ्य संकलन का वास्तविक कार्य तब प्रारम्भ होता है, जब हम तथ्य संकलन की तकनीक/उपकरण, विधि इत्यादि निर्धारित कर लेते हैं। उपयुक्त और यथेष्ट तथ्य संकलन तभी संभव है जब हम अपने शोध की Need, उत्तरदाताओं की विशेषता तथा उपयुक्त तकनीक And प्रविधियों, उपकरणों/मापकों इत्यादि का चयन करें। प्राथमिक तथ्य संकलन उत्तरदाताओं से सर्वेक्षण के आधार पर और प्रयोगात्मक पद्धति से हो सकता है। प्राथमिक तथ्य संकलन की अनेकों तकनीकें/उपकरण प्रचलन में हैं, जिनके प्रयोग द्वारा उत्तरदाताओं से सूचनाएँ And तथ्य प्राप्त किये जाते हैं। ये उपकरण या तकनीकें मौखिक अथवा लिखित हो सकती हैं, और इनके प्रयोग किये जाने के तरीकें अलग-अलग होते हैं। शोध की गुणवत्ता इन्हीं तकनीकों तथा इन तकनीकों के उचित तरीकें से प्रयोग किये जाने पर निर्भर करती है। उपकरणों या तकनीकों की अपनी-अपनी विशेषताएँ And सीमाएँ होती हैं। शोधकर्त्ता शोध विषय की प्रकृति, उद्देश्यों, संसाधनों की उपलब्धता (धन और समय) तथा अन्य विचारणीय पक्षों पर व्यापक Reseller से सोच-समझकर इनमें से किसी Single तकनीक (तथ्य Singleत्र करने का तरीका) का सामान्यत: प्रयोग करता है। कुछ प्रमुख उपकरण या तकनीकें इस प्रकार हैं- प्रश्नावली, साक्षात्कार, साक्षात्कार अनुसूची, साक्षात्कार-मार्गदर्शिका (इन्टरव्यू गार्इड) इत्यादि। विधि से तात्पर्य सामग्री विश्लेषण के साधनों से है। प्राय: तकनीक/उपकरण और विधियों को परिभाषित करने में भ्रामक स्थिति बनी रहती है। स्पष्टता के लिए यहाँ Historyनीय है कि विधि उपकरणों या तकनीकों से अलग किन्तु अन्तर्सम्बद्ध वह तरीका है जिसके द्वारा हम Singleत्रित सामग्री की व्याख्या करने के लिए सैद्धान्तिक परिप्रेक्ष्यों का प्रयोग करते हैं। शोध कार्य में प्रक्रियात्मक नियमों के साथ विभिन्न तकनीकों के सम्मिलन से शोध की विधि बनती है। इसके अन्तर्गत अवलोकन, केस-स्टडी, जीवन-वृत्त इत्यादि शोध की विधियाँ Historyनीय हैं।

सप्तम चरण-

प्राथमिक तथ्य संकलन शोध का अगला चरण होता है। शोध के लिए प्राथमिक तथ्य संकलन हेतु जब उपकरणों And प्रविधियों का निर्धारण हो जाता है, और उन उपकरणों And तकनीकों का अध्ययन के उद्देश्यों के अनुReseller निर्माण हो जाता है, तो उसके बाद क्षेत्र में जाकर वास्तविक तथ्य संकलन का अति महत्वपूर्ण कार्य प्रारम्भ होता है। कभी-कभी उपकरणों या तकनीकों की उपयुक्तता जाँचने के लिए और उसके द्वारा तथ्य संकलन का कार्य प्रारम्भ करने के First पूर्व-अध्ययन (पायलट स्टडी) द्वारा उनका पूर्व परीक्षण Reseller जाता है।

यदि कोर्इ प्रश्न अनुपयुक्त पाया जाता है या कोर्इ प्रश्न संलग्न करना होता है या और कुछ संशोधन की Need पड़ती है तो उपकरण में आवश्यक संशोधन कर मुख्य तथ्य संकलन का कार्य प्रारम्भ कर दिया जाता है। सामान्यत: समाजशास्त्रीय शोध में प्राथमिक तथ्य संकलन को अति सरल And सामान्य कार्य मानने की भूल की जाती है। वास्तविकता यह है कि यह Single अत्यन्त दुरुह And महत्वपूर्ण कार्य होता है, तथा शोधकर्ता की पर्याप्त कुशलता ही वांछित तथ्यों को प्राप्त करने में सफल हो सकती है। शोधकर्ता को यह प्रयास करना चाहिए कि उसका कार्य व्यवस्थित तरीके से निश्चित समयावधि में पूर्ण हो जाये। Historyनीय है कि कभी-कभी उत्तरदाताओं से सम्पर्क करने की विकट समस्या उत्पन्न होती है और अक्सर उत्तरदाता सहयोग करने को तैयार भी नहीं होते हैं। ऐसी परिस्थिति में पर्याप्त सुझ-बुझ तथा परिपक्वता की Need पड़ती है। उत्तरदाताओं को विषय की गंभीरता को तथा उनके सहयोग के महत्व को समझाने की जरुरत पड़ती है। उत्तरदाताओं से झूठे वादे नहीं करने चाहिए और न उन्हें किसी प्रकार का प्रलोभन देना चाहिए। उत्तरदाताओं की सहूलियत के According ही उनसे सम्पर्क करने की नीति को अपनाना उचित होता है। यथासम्भव घनिष्ठता बढ़ाने के लिए (संदेह दूर 11 करने And सहयोग प्राप्त करने के लिए) प्रयास करना चाहिए। तथ्य संकलन अनौपचारिक माहौल में बेहतर होता है। कोशिश यह करनी चाहिए कि उस स्थान विशेष के किसी ऐसे प्रभावशाली, लोकप्रिय, समाजसेवी व्यक्ति का सहयोग प्राप्त हो जाये जिसकी सहायता से उत्तरदाताओं से न केवल सम्पर्क आसानी से हो जाता है। अपितु उनसे वांछित सूचनाएँ भी सही-सही प्राप्त हो जाती है।

यदि तथ्य संकलन का कार्य अवलोकन द्वारा या साक्षात्कार-अनुसूची, साक्षात्कार इत्यादि द्वारा हो रहा हो, तब तो क्षेत्र विशेष में जाने तथा उत्तरदाताओं से आमने-सामने की स्थिति में प्राथमिक सूचनाओं को प्राप्त करने की जरुरत पड़ती है। अन्यथा यदि प्रश्नावली का प्रयोग होना है, तो शोधकर्ता को सामान्यत: क्षेत्र में जाने की जरूरत नहीं पड़ती है। प्रश्नावली को डाक द्वारा और आजकल तो र्इ-मेल के द्वारा इस अनुरोध के साथ उत्तरदाताओं को प्रेषित कर दिया जाता है कि वे यथाशीघ्र (या निर्धारित समयाविधि में) पूर्ण Reseller से भरकर उसे वापस शोधकर्ता को भेज दें।

यदि शोध कार्य में कर्इ क्षेत्र-अन्वेषक कार्यरत हों, तो वैसी स्थिति में उनको समुचित प्रशिक्षण तथा तथ्य संकलन के दौरान उनकी पर्याप्त निगरानी की Need पड़ती है। प्राय: अन्वेषक प्राथमिक तथ्यों की महत्ता को समझ नहीं पाते हैं, इसलिए वे वास्तविक तथ्यों को प्राप्त करने में विशेष प्रयास और रुचि नहीं लेते हैं। अक्सर तो वे मनगढ़न्त अनुसूची को भर भी देते हैं। इससे सम्पूर्ण शोधकार्य की गुणवत्ता प्रभावित न हो जाये, इसके लिए विशेष सावधानी तथा रणनीति आवश्यक है ताकि All अन्वेषक पूर्ण निष्ठा And र्इमानदारी के साथ प्राथमिक तथ्यों का संकलन करें। तथ्य संकलन के दौरान आवश्यक उपकरणों जैसे टेपरिकार्डर, वायस रिकार्डर, कैमरा, विडियों कैमरा इत्यादि का भी प्रयोग Reseller जा सकता है। इनके प्रयोग के पूर्व उत्तरदाता की Agreeि जरूरी है।

प्राथमिक तथ्यों को संकलित करने के साथ ही साथ Singleत्रित सूचनाओं की जाँच And आवश्यक सम्पादन भी करते जाना चाहिए। भूलवश छूटे हुए प्रश्नों, अपूर्ण उत्तरों इत्यादि को यथासमय ठिक करवा लेना चाहिए। कोर्इ नयी महत्वपूर्ण सूचना मिले तो उसे अवश्य नोट कर लेना चाहिए। तथ्यों का दूसरा स्रोत है द्वितीयक स्रोत द्वितीयक स्रोत तथ्य संकलन के वे स्रोत होते है, जिनका विश्लेषण And निर्वचन Second के द्वारा हो चुका होता है। अध्ययन की समस्या के निर्धारण के समय से ही द्वितीयक स्रोतों से प्रात तथ्यों का प्रयोग प्रारम्भ हो जाता है और रिपोर्ट लेखन के समय तक स्थान-स्थान पर इनका प्रयोग होता रहता है।

अष्ठम चरण :- 

आठवाँ चरण वर्गीकरण, सारणीयन And विश्लेषण अथवा रिपोर्ट लेखन का होता है। विविध उपकरणों या तकनीकों And प्रविधियों के माध्यम से Singleत्रित समस्त गुणात्मक सामग्री को गणनात्मक Reseller देने के लिए विविध वर्गों में रखा जाता है, Needनुसार सम्पादित Reseller जाता है, तत्बाद सारिणी में गणनात्मक स्वReseller (प्रतिशत सहित) देकर विश्लेषित Reseller जाता है। कुछ वर्षो पूर्व तक सम्पूर्ण Singleत्रित सामग्री को अपने हाथों से बड़ी-बड़ी कागज की शीटों पर कोडिंग करके उतारा जाता था तथा स्वयं शोधकर्ता Single-Single केस/अनुसूची से सम्बन्धित तथ्य की गणना करते हुए सारणी बनाता था। आज कम्प्यूटर का शोध कार्यों में व्यापक Reseller से प्रचलन हो गया है। समाजवैज्ञानिक शोधों में कम्प्यूटर के विशेष सॉफ्टवेयर उपलब्ध हैं, जिनकी सहायता से All प्रकार की सारणियाँ (सरल And जटिल) शीघ्रातिशीघ्र बनायी जाती हैं। एस.पी.एस.एस. (स्टैटिस्टिकल पैकेज फार सोशल साइंसेज) Single ऐसा ही प्रोग्राम है, जिसका प्रचलन तेजी से बढ़ा है। समाजवैज्ञानिक शोधों में एस.पी.एस.एस. द्वारा सारिणीयाँ बनायी जा रही हैं। विविध परिवत्र्यों में सह-सम्बन्ध तथा सांख्यकीय परीक्षण इसके द्वारा अत्यन्त सरल हो गया है।

सारिणीयों के निर्मित हो जाने के बाद उनका तार्किक विश्लेषण Reseller जाता है। तथ्यों में कार्य-कारण सम्बन्ध तथा सह-सम्बन्ध देखे जाते हैं। इसी चरण में उपकल्पनाओं की सत्यता की परीक्षा भी की जाती है। सैद्धान्तिक And अवधारणात्मक पृष्ठभूमि को ध्यान में रखते हुए समस्त शोध सामग्री को व्यवस्थित And तार्किक तरीके से विविध अध्यायों में रखकर विश्लेषित करते हुए शोध रिपोर्ट तैयार की जाती है।

अध्ययन के अन्त में परिशिष्ट के अन्तर्गत सन्दर्भ-ग्रन्थ सूची तथा प्राथमिक तथ्य संकलन की प्रयुक्त की गयी तकनीक (अनुसूची या प्रश्नावली या स्केल इत्यादि) को संलग्न Reseller जाता है। सम्पूर्ण रिपोर्ट/प्रतिवेदन में स्थान-स्थान पर विषय भी Need के According फोटोग्राफ, डार्इग्राम, ग्राफ, नक्शे, स्केल इत्यादि रखे जाते हैं।

उपरोक्त रिपोर्ट लेखन के सन्दर्भ में ही Historyनीय है कि, शोध रिपोर्ट या प्रतिवेदन का जो कुछ भी उद्देश्य हो, उसे यथासम्भव स्पष्ट होना चाहिए (मेटा स्पेन्सर, 1979 : 47)। सेल्टिज तथा अन्य (1959:443) का कहना है कि, रिपोर्ट में शोधकर्ता को निम्नांकित बातें स्पष्ट करनी चाहिए-

  1. समस्या की व्याख्या करें जिसे अध्ययनकर्ता सुलझाने की कोशिश कर रहा है। 
  2. शोध प्रक्रिया की विवेचना करें, जैसे निदर्शन कैसे लिया गया और तथ्यों के कौन से स्रोत प्रयोग किए गये हैं। 
  3. परिणामों की व्याख्या करें। 
  4. निष्कर्षों को सुझायें जो कि परिणामों पर आधारित हों। साथ ही ऐसे किसी भी प्रश्न का History करें जो अनुत्तरीत रह गया हो और जो उसी क्षेत्र में और अधिक शोध की मांग कर रहा हो।

गेराल्ड आर लेस्ली तथा अन्य (1994:35) का कहना है कि, ‘‘समाजशास्त्रीय शोधों में विश्लेषण और व्याख्या अक्सर सांख्यिकीय नही होती। इसमें साहित्य और तार्किकता की Need होती है। यद्यपि आजकल बहुत से विद्वान अतिक्लिष्ट सांख्यिकीय पद्धति का भी प्रयोग करने लगे हैं। प्रत्येक समाजशास्त्री समस्या के सर्वाधिक उपयुक्त तरीकों जो सर्वाधिक ज्ञान And समझ पैदा करने वाला होता है, के अनुReseller शोध और तथ्य संकलन तथा विश्लेषण को अपनाता है। उपागमों का प्रकार केवल अन्य समाजशास्त्रियों के शोध को स्वीकार करने तथा यह विश्वास करने के लिए कि यह क्षेत्र में योगदान देगा कि इच्छा के कारण सीमित होता हैं।’’

अन्त में यह कहा जा सकता है कि, यद्यपि All शोधकर्त्ता समाजशास्त्रीय पद्धति के इन्हीं चरणों से गुजरते हैं तथापि कर्इ चरणों को दूसरी तरीके से प्रयोग करते हैं। गेराल्ड आर. लेस्ली 13 (1994:38) तथा अन्य का कहना है कि, ‘‘यह विविधता समाजशास्त्र को मजबूती प्रदान करती है और अपने द्वारा अध्ययन की जाने वाली समस्याओं के विस्तार को बढ़ाती है।’’

सामाजिक शोध का अध्ययन क्षेत्र And सार्थकता

समाजशास्त्र का अध्ययन क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। स्वाभाविक है कि सामाजिक शोध का क्षेत्र भी अत्यन्त व्यापक होता है। सामाजिक शोध के विस्तृत क्षेत्र को कार्ल पियर्सन (1937 : 16) के इस कथन से आसानी से समझा जा सकता है कि, ‘‘सामाजिक शोध का क्षेत्र वस्तुत: असीमित है, और शोध की सामग्री अन्तहीन। सामाजिक घटनाओं का प्रत्येक समूह सामाजिक जीवन का प्रत्येक पहलू, पूर्व और वर्तमान विकास का प्रत्येक चरण सामाजिक वैज्ञानिक के लिए सामग्री है।’’ पी.वी. यंग (1977 : 34-98) ने सामाजिक शोध के क्षेत्र की व्यापक विवेचना करते हुए विविध विद्वानों के अध्ययनों यथा कूले, मीड थामस, नैनकी, पार्क, बर्गेस, लिण्डस्, सी. रार्इट मिल्स, एंगेल, कोमोरोस्की, मर्डाल, स्टॉफर, मर्डोक, मर्टन, गौर्डन, आलपोर्ट, ब्लूमर, बेल्स, मैज का description प्रस्तुत Reseller है।

Single समाजशास्त्री सामाजिक जीवन की किसी विशिष्ट अथवा सामान्य घटना को शोध हेतु चयन कर सकता है। सामाजिक शोध के अध्ययन क्षेत्र के अन्तर्गत Human समाज व Human जीवन के All पक्ष आते हैं। समाजशास्त्र की विविध विशेषीकृत शाखाओं यथा- ग्रामीण समाजशास्त्र, नगरीय समाजशास्त्र, औद्योगिक समाजशास्त्र, वृद्धावस्था का समाजशास्त्र, युवाओं का समाजशास्त्र, चिकित्सा का समाजशास्त्र, विचलन का समाजशास्त्र, सामाजिक आन्दोलन, सामाजिक वहिष्करण, सामाजिक परिवर्तन, विकास का समाजशास्त्र, जेण्डर स्टडीज, कानून का समाजशास्त्र, दलित अध्ययन, शिक्षा का समाजशास्त्र, परिवार And विवाह का समाजशास्त्र इत्यादि-इत्यादि से सामाजिक शोध का व्यापक क्षेत्र स्वत: ही स्पष्ट हो जाता है।

सामाजिक शोध के उपरोक्त विस्तृत क्षेत्र के परिप्रेक्ष्य में यह कहना कदापि गलत न होगा कि Single विस्तृत सामाजिक क्षेत्र के सम्बन्ध में वैज्ञानिक ज्ञान प्रदान करके सामाजिक शोध अज्ञानता का विनाश करता है। जब हम वृद्धों की समस्याओं, मजदूरों के शोषण और उनकी शोचनीय कार्यदशाओं, बाल मजदूरी, महिला कामगारों की समस्याओं, भिक्षावृत्ति, वेश्यावृत्ति, बेकारी इत्यादि पर सामाजिक शोध करते हैं, तो उसके प्राप्त परिणामों से न केवल समाज कल्याण के क्षेत्र में सहायता प्राप्त होती है अपितु सामाजिक नीतियों के निर्माण के लिए भी आधार उपलब्ध होता है। विविध सामाजिक समस्याओं से सम्बन्धित शोध कार्य कानून निर्माण की दिशा में भी योगदान करते हैं। सामाजिक शोध से सैद्धान्तिक And अवधारणात्मक समझ विकसित होती है, कार्य-कारण सम्बन्ध ज्ञात होते हैं और अन्तत: विषय की उन्नति होती है। सामाजिक शोध न केवल सामाजिक नियन्त्रण में सहायक होता है, अपितु सामाजिक शोध साामाजिक-आर्थिक प्रगति में भी सहायक होता है। सूचना क्रान्ति के इस युग में भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया ने समाजशास्त्रीय शोध के क्षेत्र को बढ़ा दिया है। पुराने विचार और सिद्धान्त अप्रासंगिक होते जा रहे हैं। नवीन परिस्थितियों ने जटिल सामाजिक यथार्थ को नये सिद्धान्तों And विचारों से समझने के लिए बाध्य कर दिया है। सामाजिक शोध के सैद्धान्तिक और व्यावहारिक महत्व का ही परिणाम है कि आज नीति निर्माता, कानूनविद्, पत्रकारिता जगत, प्रKing, समाज सुधारक, स्वैच्छिक संगठन, बौद्धिक वर्ग के लोग इससे विशेष अपेक्षा रखते हैं।

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